tag:blogger.com,1999:blog-3347952622162097882.post871249778067449497..comments2024-02-22T16:01:17.360+05:30Comments on नया जमाना: लोकतंत्र ,जुल्म और बंगालनया जमानाhttp://www.blogger.com/profile/07265292209310274504noreply@blogger.comBlogger1125tag:blogger.com,1999:blog-3347952622162097882.post-30287732965731231442016-03-30T11:25:31.969+05:302016-03-30T11:25:31.969+05:30पश्चिम बंगाल की राजनीति में आज जो हो रहा है, उसके ...पश्चिम बंगाल की राजनीति में आज जो हो रहा है, उसके निश्चित तौर पर भारत की राजनीति के लिये दूरगामी और बहु-आयामी प्रभाव होंगे । लेकिन किसी भी मानदंड पर इसे राजनीतिक सिद्धांतविहीनता या दृष्टांतहीन अस्वाभाविकता की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है । बल्कि, इसके विपरीत, शायद इससे सही दूसरा कोई सिद्धांतनिष्ठ और आज की राजनीति की ज़रूरतों के अनुरूप वामपंथ का दूसरा कोई फ़ैसला नहीं हो सकता है । <br /><br />जिस वक़्त जनतंत्र का अस्तित्व मात्र ख़तरे में हो, तब उसकी रक्षा मात्र के लिये व्यापकतम संयुक्त मोर्चा बनाने और उसकी सफलता को सुनिश्चित करने से अधिक सिद्धांतनिष्ठ दूसरा कोई फ़ैसला नहीं हो सकता है । ऐसा न करना कथित सिद्धांतवादिता की ओट में राजनीति के मूलभूत सिद्धांतों की ही तिलांजलि देना कहलायेगा । <br /><br />दरअसल राजनीति का अर्थ कभी भी सिद्धांत बघारना नहीं होता है । यह एक व्यवहारिक कार्रवाई होती है जिसके ज़रिये जीवन की सचाई अपने को जाहिर करती है । जब सिद्धांत-चर्चा जीवन के यथार्थ से मेल नहीं खाती तो उसका राजनीति के लिये दो कौड़ी का दाम नहीं रह जाता - न तात्कालिक लिहाज़ से और न दूरगामी दृष्टि से । राजनीतिक दर्शन भी कोरी कल्पना को अपना अवलंब नहीं बना सकता है । वह भी हमेशा अपने समय के मुख्य अंतर्विरोधों पर ध्यान केंद्रित करने पर बल देता है ।<br /><br />और जहाँ तक कांग्रेस के साथ वामपंथ के संबंधों का सवाल है, वामपंथ ने भारत में कभी भी अंध कांग्रेस- विरोध को नहीं अपनाया है । आजादी की लड़ाई से लेकर आज तक । वामपंथी नेतृत्व के किसी भी हिस्से ने जब कभी ऐसी मूढ़ता का परिचय दिया, उसने वामपंथी आंदोलन को भारी क्षति पहुँचाई है । वह भले पचास के दशक में 'यह आजादी झूठी है' के नारे की बात रही हो, भले ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने या फिर परमाणविक संधि के प्रति नज़रिये का सवाल रहा हो - इसी सिद्धातविहीन सैद्धांतिकता ने वामपंथ को कमज़ोर किया । इसी के चलते आजादी की लड़ाई और उसके बाद भारत की गुट-निरपेक्ष नीतियों के साम्राज्यवाद-विरोधी मर्म के महत्व को नहीं समझा जा सका । स्वतंत्रता आंदोलन के ज़रिये जनतांत्रिक राजनीति के जो मूल्य, स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के मूल्य, प्रकट हो रहे थे और जिनका प्रतिबिंब हमारे संविधान में भी दिखाई देता है, उसके महत्व को भी पूरी गंभीरता से नहीं समझा जा सका । <br /><br />इसके अतिरिक्त, बैंकों के राष्ट्रीयकरण, रियासतों के प्रिविपर्स के अंत से लेकर यूपीए-1 तक कांग्रेस और वामपंथ के सहयोग का स्वतंत्र भारत की राजनीति में अपना एक इतिहास तैयार हो चुका है । <br /><br />आज दैनंदिन राजनीति में मोदी सरकार और उसके तत्वावधान में चल रहे सांप्रदायिक प्रयोगों के खिलाफ तमाम स्तरों पर धर्म-निरपेक्ष ताक़तों की एकता हमारे समय की सबसे बड़ी राजनीतिक ज़रूरत है । <br /><br />इसके अलावा, पश्चिम बंगाल की आज जो असाधारण परिस्थिति है, इसे अलग से बताने की ज़रूरत नहीं है । आजादी के बाद पहली बार पश्चिम बंगाल में किसी चुनाव में भ्रष्टाचार सबसे प्रमुख मुद्दा बना है । राजनीतिक दादागिरी और विपक्ष के लोगों को कुचलने के लिये प्रशासन के नग्न प्रयोग का जो रूप यहाँ देखने को मिला है, इसकी गुजरात की तरह के एकाध उदाहरणों को छोड़ कर अन्यत्र आसानी से कल्पना भी नहीं की जा सकती है । <br /><br />आज वामपंथ केरल में कांग्रेस के खिलाफ लड़ रहा है । यह शुद्ध रूप से एक राजनीतिक व्यावहारिकता का मसला है । वहाँ पक्ष और प्रतिपक्ष में इन दोनों के अलावा तीसरा कोई नहीं है । इसलिये इसके कोई अन्य सैद्धांतिक आयाम नहीं है । यह संसदीय जनतंत्र का अपना तर्क है । इसके विपरीत पश्चिम बंगाल के वर्तमान प्रयोग के साथ वामपंथी संयुक्त मोर्चा की राजनीति की सैद्धांतिकता जुड़ी हुई है । इसमें भारत की भावी नई राजनीति के बीज छिपे हुए हैं । <br /><br />हमें तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि पश्चिम बंगाल में न सिर्फ वामपंथी बल्कि पूरी भारतीय राजनीति के एक ऐसे नये अध्याय का सूत्रपात हो रहा है, जो वामपंथ को उसकी अनेक पुरानी ग्रंथियों से मुक्ति का कारक बनेगा और स्वतंत्रता आंदोलन की मूलभूमि पर आगे की राजनीति का नया महल तैयार करेगा । <br /><br />और जहाँ तक इस प्रयोग की सफलता-विफलता की संभावनाओं के आकलन का सवाल है, चुनावी गणित और राजनीति के प्रत्येक मानदंड पर इसकी सफलता सुनिश्चित है । वामपंथ की साख में सुधार के बिना किसी लक्षण क्षणों भी तृणमूल की वापसी को कोई कारण नहीं दिखाई दे रहे हैं । इसके कारण जितने बाहरी है, उससे कम तृणमूल के अंदरूनी नहीं है । इससे जुड़ी वैकल्पिक राजनीति के सामान्यतम तर्कों का भी अंत हो चुका है । कॉडर स्वयं में जनतांत्रिक राजनीति का अकेला विकल्प नहीं हो सकता है । अन्य सभी नैतिक-सैद्धांतिक पक्षों की अनुपस्थिति में वह कोरा काठ का पुतला साबित होता है । बंगाल में जिसे ठूँठो जगन्नाथ कहा जाता है । Arun Maheshwarihttps://www.blogger.com/profile/08772482538231164054noreply@blogger.com