देश में पीएम राजनीति कर सकता है, मोहन भागवत राजनीति कर सकते हैं, जाहिल बटुक भी राजनीति कर सकते हैं, विपक्षीदल भी राजनीति कर सकते हैं, लेकिन लेखक राजनीति न करे! क्यों जी, लेखक राजनीति क्यों न करे? किस अधिकार से उसे राजनीति करने से रोक रहे हैं आप! लेखक सत्ता का गुलाम कभी नहीं रहा , जो सत्ता के गुलाम थे वे आज भी सत्ता की गुलामी कर रहे हैं और लेखकों के द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाए जाने पर सवाल खडे कर रहे हैं, इनमें वे भी हैं जो कल उस सत्ता का मुखौटा लगाए हुए थे आज वे मोदी का मुखौटा लगाए हुए हैं।
लेखक का राजनीति करना, राजनीतिक मसलों पर स्टैंड लेना, सत्ता और साम्प्रदायिक ताकतों के हिंसक गठजोड. का विरोध करना सही दिशा में उठाया गया कदम है। कुछ लोग कह रहे हैं यहसेक्युलर लेखकों का फ्रस्टेशन है तो कुछ लोग कह रहे हैं कि यह प्रचार की भूख के लिए उठाया गया कदम है। साम्प्रदायिक हिंसा और उसे संघ के खुले समर्थन ने सारे संघर्ष को राजनीतिक बना दिया है। लेखकों परहमला करने वाले जब राजनीतिज्ञ हों तो यह कैसे संभव है कि लेखक चुप रहे, मूकदर्शक बना रहे!
लेखकों ने हिंसा शुरु नहीं की , लेखकों पर हमले, निरीह नागरिकों पर जानलेवा हमले बटुकों ने शुरु किए हैं। ये हमला करने वाले पाशविक आचरण कर रहे हैं ऐसे में लेखक और सचेत जनता चुप कैसे रह सकती है।
लेखकों का बडे पैमाने पर साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाना गांधीवादी प्रतिवाद है और यह प्रतिवाद जितने बडे पैमाने हुआ है उससे साफ समझ लें देश को हिन्दुत्ववाद की गुलामी में कैद नहीं रखा जा सकता।हमें इस प्रतिवाद में ज्यादा से ज्यादा लेखकों को शामिल करनाहोगा। इसके लिए जरुरी है कि लोकतंत्र, सभ्यता , धर्मनिरपेक्षता और लेखकीय स्वायत्तत के आधार पर साझा मंच तैयार किया जाय।