सोमवार, 31 अगस्त 2015

अपराध और अपराधी मध्यवर्ग-


      अपराध और अपराधी का कोई वर्ग नहीं होता,इसके बावजूद यह जानना समीचीन होगा कि आखिरकार इस दौर में अपराधी किस वर्ग में सबसे ज्यादा पैदा हो रहे हैं और कानून का वे किस तरह दुरुपयोग कर रहे हैं। नए आंकड़ों और मीडियायथार्थ की रोशनी में हमें अपराधी के वर्गचरित्र को भी चिह्नित करना चाहिए। मसलन्,मध्यवर्ग में सबसे ज्यादा टैक्सचोर हैं,मध्यवर्ग  में सबसे ज्यादा ह्वाइटकॉलर अपराधी हैं,दहेज उत्पीड़न,स्त्री-उत्पीड़न और साइबर अपराधी सबसे ज्यादा मध्यवर्ग में है,स्थिति यह है कि आईपीएल से लेकर बीपीएलकार्ड स्कैंडल तक,मनरेगा से लेकर खनन माफिया तक, ड्रग माफिया से लेकर बर्बर क्राइम के क्षेत्रों तक मध्यवर्ग का जाल फैला हुआ है।आतंकवाद-साम्प्रदायिकता और पृथकतावादी हिंसाचार में भी मध्यवर्गीय युवाओं का एक बड़ा अंश लिप्त है।  मध्यवर्ग के इस व्यापक बर्बर-अपराधी चरित्र की अनदेखी करके भारत के बुर्जुआजी और उसके द्वारा निर्मित शिक्षा व्यवस्था की भूमिका को सही परिप्रेक्ष्य में समझना मुश्किल है।
     मध्यवर्ग के आपराधिक चरित्र का चरमोत्कर्ष है यूपीएससी निर्मित अफसरों की एक अच्छी-खासी तादाद का विभिन्न किस्म के क्राइम में लिप्त पाया जाना। उनके किस्से आए दिन मीडिया में हमारे सामने आते रहते हैं।इसके अलावा नए व्यापारियों के रुप में उभरते मध्यवर्ग में भी क्राइम दर तेजी से बढ़ी है। इस सबने मध्यवर्ग के आपराधिक चरित्र को पुख्ता किया है। आज स्थिति यह है कि अपराध का कोई क्षेत्र नहीं है जहां शिक्षित मध्यवर्ग का वर्चस्व न हो।
    अपराधी मध्यवर्ग तो मीडिया का सबसे बड़ा खाद्य है।  मीडिया में जब भी अपराधी मध्यवर्ग के किसी व्यक्ति का कवरेज आता है वह सबसे ज्यादा दर्शक खींचता है। यही वजह है अपराध कार्यक्रम सबसे अच्छी रेटिंग में चल रहे हैं। यही वह परिप्रेक्ष्य है जिसमें हमें शीना बोरा हत्याकांड के कवरेज को देखना चाहिए। अब तक का कवरेज हत्या किस तरह की गयी,कैसे की गयी इसके विवरण और ब्यौरों से भरा पड़ा है। मीडिया की दिलचस्पी हत्या की प्रक्रिया को बताने में है ,वह अन्य पहलुओं को उजागर करने में कोई रुचि नहीं दिखा रहा। हत्या के तरीकों का बार-बार रुयायन अंततः अपराध के प्रति सहिष्णुभाव पैदाकरता है,अपराध को नॉर्मल, सहज,सहनीय बनाता है। कायदे से न्याय और दण्ड पर जोर होना चाहिए लेकिन न्याय और दण्ड में किसी भी टीवी चैनल की दिलचस्पी नहीं है।     
     दिलचस्प बात यह है कि इस हत्या को किसी ने खोजा नहीं है,हत्या क्यों हुई और कैसे हुए,इसके बारे में ड्राइवर ने 3साल बाद थाने में जाकर बताया है। मीडिया से लेकर पुलिस तक सभी हत्या के पीछे निहित मंशा को खोज रहे हैं। उसके प्रमाण खोज रहे हैं। इस हत्या ने एकबार फिर से परिवार नामक संस्था को कलंकित किया है। इस घटना ने यह संदेश दिया है कि हमारा समाज और परिवार किस तरह बर्बर और मूल्यहीन हो गया है।  इस हत्या ने यह तथ्य भी उजागर किया है कि हमारा मध्यवर्ग किस तरह झूठ-फरेब और अपराधीकरण में मशगूल है और समाज में उसे सम्मान भी मिल रहा है। यह वह वर्ग है जो अपराध करने बावजूद अपराधी नहीं है,सम्मानित है,वह समाजीकरण की प्रक्रिया के जरिए समाज में सम्मान पा रहा है।हमारे अंदर इस वर्ग के प्रति,इसके सड़े हुए मूल्यों के प्रति घृणा पैदा नहीं हो री बल्कि किसी न किसी रुप में सम्मान का भाव है। इस तरहके अपराध की रिपोर्टिंग घृणा का संचार नहीं करती बल्कि जिज्ञासा का संचार करती है। फलतःवह वैधता प्राप्त कर लेती है।      
       शीना बोरा की मौत सामान्य नहीं है,बल्कि असामान्य है। कम से कम यह बात तो हम कह ही सकते हैं कि समाज में इस तरह का माहौल बन गया है लड़की अपने घरवालों के बीच में भी सुरक्षित नहीं है। सामान्यतौर पर घर को लड़की के लिए सबसे सुरक्षित स्थान माना जाता था लेकिन शीना की हत्या ने एकबार यह तथ्य पुष्ट किया है कि हमारे घर और परिवारीजन हत्यारे गिरोह बनकर रह गए हैं। इन हत्यारे गिरोहों को हम बार –बार अपराध करते देखते हैं और इसके बावजूद हमारे मन में परिवार जैसी संस्था को लेकर  सवाल पैदा नहीं हो रहे,परिवार हमारे लिए अभी भी परम-पवित्र संस्था बनी हुई है। परिवारीजन पुण्यात्मा बने हुए हैं। शीना की हत्या को हम यदि व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखें तो चीजें शायद बेहतर ढ़ंग से नजर आएं।

        परिवारीजननों के द्वारा लड़कियों की विभिन्न बहाने से हत्याएं,बलात्कार,शारीरिक उत्पीड़न और गुलामों जैसी अवस्था को देखकर भी हमें कभी भी गुस्सा नहीं आता,हम कामना नहीं करते कि यह परिवार और उसका क्रिमिनल ढ़ाँचा नष्ट हो। हम बार –बार इस क्रिमनल पारिवारिक ढ़ाँचे और क्रिमिनल पारिवारिक संबंधों को किसी न किसी बहाने बनाए और बचाए रखना चाहते हैं । यही वह बिन्दु है जहां पर सबसे ज्यादा प्रतिवाद करने की जरुरत है। 

शनिवार, 29 अगस्त 2015

राखी और आनंद का नागरिकखेल

 
आज राखी है, यह आनंद है । लेकिन हमने इसे प्रथा बनाकर जाने कब रक्षाबंधन बना दिया!  यह हिन्दू बहिनों और भाईयों का सुंदर पर्व है। यह आनंद का पर्व है। प्रतीकात्मक रुप में राखी बहुत बड़ा पर्व है। सवाल यह है राखी पर्व था ,रक्षाबंधन कब से हो गया ? राखी पर्व में जो व्यंजना है वह रक्षाबंधन में नहीं है, पर्व सकारात्मक है , बंधन नकारात्मक है। 
    बंधन संकेत है कि बहिनें तकलीफ़ में हैं।  बंधन मानने वाले ठंडे दिमाग़ से सोचें कि वे बहिनों का बीमा कराना चाहते हैं या नागरिक बनाना चाहते हैं? बीमा बंधन है , नागरिकचेतना आज़ादी है, हक़ है। हमारे पीएम को यही लगता है कि बहनों का बीमा हो जाए तो अपने दायित्व से मुक्त हो जाएँ।
    बहन दायित्व नहीं है, बहन नागरिक है, आत्मनिर्भर स्त्री है, बहन के प्रति दायित्वबोध की आज ज़रूरत नहीं है, बहन को नागरिकबोध और नागरिक अधिकारों से लैस करके समान धरातल पर लाने की ज़रूरत है। राखी को पर्व मानोगे तो समान नज़रिए से देख पाओगे। आनंद भाव से देख पाओगे। रक्षाबंधन के रुप में देखोगे तो हमेशा दायित्व निभाने वाले असमानतावादी नज़रिए से देखोगे। राखी पर आनंद की ज़रूरत है, ख़ुशी की ज़रूरत है, सहज और सरल होने की ज़रूरत है, बंधन हमें यह सब नहीं करने देता । 
            राखी पर्व है तो हमें हिन्दू औरतों के संसार में झाँककर देखना चाहिए कि आख़िर वे किस कष्ट में हैं और ये कष्ट क्यों हैं? हमने कभी बहन को , उसकी समस्याओं को सामाजिक आंदोलन नहीं बनाया ! हमारे लिए औरत हमेशा प्रतीक से ज्यादा महत्व नहीं रखती। हमने कभी बहन को लिंग या जेण्डर के रुप में विश्लेषित करने और जानने की कोशिश नहीं की। हम हमेशा बहन को भाई के संदर्भ से देखते रहे, कम से कम अब तो भाई के संदर्भ में बहन को देखना बंद कर दें, उसे स्वतंत्र लिंग के रुप में देखें। स्त्री के संदर्भ में देखें। 
                  मुसलमानों को सबक़ सिखाने उनके ख़िलाफ़ घृणा फैलाने वाले हमारे देश में अनेक विशाल संगठन हैं , वे जान लें कि स्वाधीनता संग्राम में राखी का पर्व साम्प्रदायिक सद्भाव के पर्व के रुप में मनाया जाता रहा है, यह परंपरा आज भी जारी है,स्वयं रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इस परंपरा को बनाने में अन्य लोगों के साथ अग्रणी भूमिका अदा की थी। 
                    बहन को हम यदि सच में प्यार करते हैं तो उसे भारत के संविधान की एक प्रति भेंट करें कुछ न हो तो ईमेल कर दें नेट पर मुफ़्त में उपलब्ध है। हम यह सुनिश्चित करें कि बहन की शादी बिना दहेज के करेंगे और सिविल मैरिज करेंगे। सबके लिए  समान नागरिक संहिता की माँग करने वाले कानूनसम्मत सिविलमैरिज से क्यों भागते हैं ? वे क्यों मैरिज को क़ानूनन रजिस्टर्ड नहीं कराते ? आज देश में संविधानसम्मत नागरिकचेतना से बहन-भाई दोनों को शिक्षित करने की ज़रूरत है। दोनों को यह समझना होगा कि लिंगभेद कैंसर है और बहनें उससे सबसे ज्यादा पीड़ित हैं । बहनों को आनंद में देखना चाहते हैं तो हमें उनमें लिंगभेद के ख़िलाफ़ जागरुकता पैदा करनी चाहिए. उन चीज़ों,वस्तुओं, आदतों और संस्कारों को चुनौती देनी चाहिए जिनसे लिंगभेद में इज़ाफ़ा होता है , लिंगभेद तो बहन के जीवन में सामाजिक बेड़ी है । 

शुक्रवार, 28 अगस्त 2015

नामवरजी का वहाँ न जाना !


      नामवर सिंह के स्वभाव को जो लोग जानते हैं उनको पता है कि वे बात के पक्के हैं, यदि किसी कार्यक्रम के लिए हाँ कर दी है तो जरुर जाते हैं लेकिन इसबार पुरुषोत्तम अग्रवाल की षष्ठिपूर्ति के कार्यक्रम में वे नहीं गए, असल कारण तो नामवरजी जानें, हम इतना जानते हैं कि जिस समय पुरुषोत्तम अग्रवाल जेएनयू से रिटायर हुए तो उस समय उनके विदाई समारोह में भी नामवरजी शामिल नहीं हुए वे उस समय शिलांग में थे। उनका सचेत फ़ैसला था कि वे पुरुषोत्तम के विदाई समारोह शामिल नहीं होंगे, संयोग की बात थी उस समय मैं उनके पास था और उन्होंने अपने मन की अनेक कड़वी मीठी यादें बतायीं उस समय उनका जो रुप मैंने देखा वह काबिलेतारीफ  था। नामवरजी का पुरुषोत्तम की षष्ठिपूर्ति में न जाना उनके शिलांग में व्यक्त किए गए नीतिगत रुख़ की संगति में उठाया गया क़दम है। उनके फ़ैसले से उनके आलोचनात्मक रुख़ के प्रति विश्वास और पुख़्ता हुआ है। 
     पुरुषोत्तम अग्रवाल साठ के हुए , हम चाहेंगे वे सौ साल जिएँ , उनको हम सामाजिक जीवन में हमेशा सक्रिय देखकर ख़ुश होते हैं। लेकिन सामाजिक भूमिका, सरकारी भूमिका और साहित्यिक भूमिकाओं के बीच घल्लुघारे से बचना चाहिए।
      एक व्यक्ति के नाते नामवरजी को लोकतांत्रिक हक़ है कि वे कहाँ जाएँ या कहाँ न जाएँ यह वे तय करें। नामवरजी के किसी के जन्मदिन कार्यक्रम में जाने से कार्यक्रम की शोभा बढ़ सकती है लेकिन नामवरजी के किसी को महान कहने से वह व्यक्ति महान नहीं बन सकता। नामवरजी की प्रशंसा अमूमन बोगस होती या फिर मन रखने के लिए या मौक़े की नज़ाकत को ध्यान में रखकर होती है। इसलिए उनके जाने या न जाने से किसी भी कार्यक्रम में चार चाँद नहीं लग सकते, यदि कोई नामवरजी के सहारे साहित्य की वैतरणी पार करना चाहता हो तो यह भी संभव नहीं है। इसका प्रधान कारण है स्वयं नामवरजी का आलोचनात्मक आचरण और व्यक्तित्व। वे अपने आचरण और वक्तव्य से अपने बनाए मिथों को बार -बार तोड़ते रहे हैं। 
               नामवरजी के अनेक छात्र उनसे  जल्दी जल्दी मिलते हैं, मुझे वह सौभाग्य नहीं मिला। एक तो दूर रहता हूँ, दूसरा मेरे पास कोई ऐसा गुण नहीं जो उनको पसंद हो। एक बार कलकत्ता में राहुल सांकृत्यायन के समारोह के दौरान उन्होंने कहा था कि तुम एक बात जान लो शिष्य मेरे ही कहलाओगे, यही सबसे बड़ा उपहार था , मेरे लिए ।
    नामवरजी मेरे लिए बहुत बड़े लेखक - बुद्धिजीवी और शिक्षक हैं। मैं हमेशा उनके प्रति क्रिटिकल रहकर ही सोचता हूँ और यह चीज मुझे उनसे ही सीखने को मिली है।अफ़सोस यह है कि जो नामवरजी के शिष्य हैं या उनकी तथाकथित विरासत के वारिस बनना चाहते हैं वे नामवरजी से आलोचना और आत्मालोचना नहीं सीख पाए हैं।  
                  नामवरजी के लिए यह सबसे खराब ख़बर होगी कि उनका कोई बेहतर शिष्य अध्यापन का काम त्यागकर और किसी धंधे मे चला जाय। मैंने निजी तौर पर उनसे पूछा था कि अध्यापन छोड़कर कुछ और काम कर लेता हूँ, कलकत्ता में असुविधा हो रही है, बोले अध्यापन मत छोड़ना , यह हमारी शक्ति और सामाजिक भूमिका का बेहतरीन आधार  है।  
               मैंने यह महसूस किया कि मैं जब भी कक्षा में जाता हूँ तो अपने शिक्षकों को बार बार महसूस करता हूँ। मुझे रह रहकर अपने प्रिय शिक्षक याद आते हैं उनका लिखा याद आता है, उनसे ज्ञान मुठभेड़ करना याद आता है। जब किताब लिखता हूँ तो यह मानकर लिखता हूँ कि उन विषयों पर लिखो जिन पर मेरे शिक्षक नहीं लिख पाए। वह अधूरा काम है उसे आगे बढ़ाओ । 
                 एक अन्य बात जो बेहद जरुरी है, कोई शिक्षक टीवी या मीडिया में उपस्थिति दर्ज करके बड़ा शिक्षक या बुद्धिजीवी नहीं बन सकता। मीडिया में रहकर पब्लिक इंटेलेक्चुअल भी नहीं बन सकता। यदि ऐसा होता तो रोमिला थापर,इरफ़ान हबीब आदि का तो समाज में कोई नाम ही नहीं होता, ये लोग कभी टीवी टॉक शो में नज़र नहीं आते ,दैनिक अख़बारों में कॉलम नहीं लिखते। एक शिक्षक की जगह कक्षा है ,रिसर्च है , वहाँ वह जितना समर्पित होगा , अकादमिक योगदान करेगा वहीं से वह अपना क़द ऊँचा बनाएगा। 
      बुद्धिजीवी का क़द सरकारी पद से ऊँचा नहीं बनता । सरकारी नेताओं की चमचागिरी से क़द ऊँचा नहीं बनता.हां नेताओं की चमचागिरी से सरकारी पद जरुर मिल जाते हैं। केन्द्र से लेकर राज्य स्तर तक चलने वाले सभी लोकसेवा आयोगों में जितने सदस्य रखे जाते हैं वे राजनीतिक सिफ़ारिश पर रखे जाते हैं। यही वजह है कि इन आयोगों में कभी स्वतंत्रचेता लोग नहीं रखे गए। 
             हिन्दी की सचाई है कि यहाँ कोई पब्लिक इंटेलेक्चुअल नहीं है। यहाँ किसी में नॉम चोम्स्की या एडवर्ड सईद जैसे गुण नहीं हैं। इन दोनों बुद्धिजीवियों की अमेरिकी मीडिया पूरी तरह उपेक्षा करता रहा है, सईद गुज़र गए हैं। चोम्स्की ज़िंदा हैं, वे अपने सामाजिक - राजनीतिक -अकादमिक सरोकारों के प्रति गंभीर लगाव के कारण जाने जाते हैं। 
   उनको कभी किसी बड़े अमेरिकी चैनल ने टॉक शो के लिये नहीं बुलाया, किसी बड़े अख़बार ने उनको नहीं छापा।इसके बावजूद वे अमेरिका की जंगजू जनता के ही नहीं सारी दुनिया के प्रिय बुद्धिजीवी हैं। हमारे यहाँ तो उलटा मामला है टीवी टॉक शो से बुलावे बंद हो जाएँ , अख़बारों में नाम न दिखे तो हिन्दी के स्वनाम धन्य लोगों को नींद नहीं आती। यह मासकल्चर का मीडियापीलिया है , यह पब्लिक इंटेलेक्चुअल का गुण नहीं है। 
                      
                          

बुधवार, 19 अगस्त 2015

नीतीश -मोदी और विभ्रम -


लोकतंत्र में विभ्रम निर्णायक हैं,जनता के वोट से लेकर दिमाग तक विभ्रम का खेल तूफान की तरह चलता है। मोदी से लेकर नीतीश तक सबके पास विभ्रम हैं। हम में से कोई भी रियलिटी देखना नहीं चाहता और रियलिटी पर बातें करना नहीं चाहता।
विभ्रम का सबसे ज्यादा असर हम मध्यवर्ग के लोगों पर होता है। हमें विभ्रम बड़े प्यारे हैं, हम विभ्रम में अहर्निश विचरण करना पसंद करते हैं।पहले मनमोहन सिंह के विभ्रम से घिरे थे अब मोदी के विभ्रमों में फंसे हैं।हम भूल जाते हैं कि समाज को विभ्रमों से ऊर्जा नहीं मिलती,बल्कि विभ्रमों का जितना दवाब होता है संकट उतना ही गहराता चला जाता है। विभ्रम का खेल देखें कि मनमोहन से नफरत करते थे लेकिन मोदी से प्यार करने लगे जबकि नीतियां वही हैं। बेकारी चरम पर है महंगाई रोज बढ़ रही है,सामाजिक असुरक्षा बढ़ी है,पाक से तनाव बरकरार है,घूसखोरी चरम पर है,सीबीआई के पास मनमोहन सिंह के जमाने की तुलना में मोदीशासन में ज्यादा करप्शन केस दर्ज हुए हैं, अदालतें चरमरा गयी हैं। लेकिन हम हैं कि विभ्रम में आनंदित हैं,मोदी-मोदी के नशे में मस्त हैं।
लोकतंत्र में विभ्रम संकट को नजरों से कुछ समय के लिए ओझल रखते हैं,लेकिन एक अवधि के बाद जब संकट सतह पर आ जाता है और हम असंतुष्ट होने लगते हैं शासकवर्ग नए विभ्रमों की सृष्टि करते हैं और हम फिर से आनंद में डूब जाते हैं और संकट भूल जाते हैं।
सोचिए रॉबर्ट बाड्रा के खिलाफ कोई केस क्यों नहीं हुआ अभी तक,जबकि मोदी खुलकर हमले कर रहे थे, शीला दीक्षित पर कोई केस नहीं हुआ जबकि केजरीवाल-मोदी दोनों ही हमले कर रहे थे, पश्चिम बंगाल में 34साल शासन करने वाले वामनेताओं के खिलाफ कोई करप्शन केस न तो राज्य सरकार ने किया न केन्द्र सरकार ने किया, जबकि ममता-मोदी दोनों ही आम जनता को वाम नेताओं के बारे में झूठी कहानियां सुना-सुनाकर व्यस्त करने,आनंदित करने में सफल रहे,वाम हार गया लेकिन सच तो नहीं बदला,सच यह है कि वामनेताओं का शासन बेदाग था।
लोकतंत्र को पुख्ता बनाना है तो विभ्रमों से बचो,बिहार के प्रसंग में मोदी फिर से विभ्रमों की वर्षा करने जा रहे हैं, इस रणनीति को समझने की जरुरत है। बिहार की सच्चाई को खुली आंख देखने की जरुरत है। जो सच है उसके आधार देखें।
सच यह है बिहार में पहले की तुलना अपराध कम हुए हैं, कम से कम मीडिया में विगत पाँच साल में अपराधों का कवरेज एकसिरे से कम हुआ है,सामाजिक टकराव की घटनाएं तकरीबन नहीं हुई हैं। सड़कों का जाल फैला है। यह सब ऐसी अवस्था में हुआ था जब बिहार का सिस्टम पूरी तरह बैठ गया था।
यह सच है कि बिहार में अभी भी बहुत कुछ होना बाकी है,नीतीश से आपके मतभेद हो सकते हैं,लेकिन नीतीश कुमार बेदाग नेता हैं।उनके खिलाफ न तो दंगा कराने का आरोप है और न भ्रष्टाचार के आरोप हैं। उनके बारे में कोई यह नहीं कह सकता कि वे कारपोरेट घरानों के बंधुआनेता हैं और उनके हितों के लिए काम कर रहे हैं। जबकि ये सारी बाते नरेन्द्र मोदी पर खरी उतरती हैं।
नीतीश कुमार के बारे में सबसे अच्छी बात यह है वह कभी काल्पनिक वायदे नहीं करते। अनर्गल नहीं बोलते,मुख्यमंत्री के रुप में नियमित ऑफिस जाते हैं,विधानसभा सत्र के समय सदन में रहते हैं। लेकिन नरेन्द्र मोदी के बारे में यह नहीं कह सकते, वे मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक हवा-हवाई की धुन में रहे हैं।
मूल बात यह विभ्रमों से बचो रियलिटी पर बातें करो। जो व्यक्ति दिल्ली की गद्दी पर बैठकर एक भी समस्या का डेढ़ साल में समाधान नहीं कर पाया उसे बिहार को सौंपने का अर्थ है बिहार को पुनःअपराधी गिरोहों के हवाले करना।

रविवार, 16 अगस्त 2015

सम्राट अकबर के मायने


        अकबर के शासन में भारत की जो इमेज बनी वह हम सबके लिए गौरव की बात है। एक शक्तिशाली राष्ट्र के रुप में भारत को निर्मित करने में अकबर का अतुलनीय योगदान था। भारत को शक्तिशाली राष्ट्र बनाकर अकबर ने भारतीय जनता की जो सेवा की है उसके सामने सभी मुस्लिमविरोधी आलोचनाएं धराशायी हैं। भारत के मुसलमान कैसे हैं और कैसे होंगे अथवा भारत नागरिक कैसे होंगे, यह तय करने में अकबर की बड़ी भूमिका थी । राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है अकबर के जमाने में हिन्दू जितने रुढ़िवादी और कूपमंडूक थे,उसकी तुलना में मुसलमान उदार हुआ करते थे। मसलन्,हिन्दुओं में इक्का-दुक्का लोग ही विदेश जाते थे जबकि मुसलमानों में बहुत बड़ा हिस्सा हज करने के बहाने  मक्का यानी विदेश जाता था। अकबर के जमाने में भारत में यूरोपीय लोग गुलाम की तरह बिकते थे,यह रिवाज अकबर को नापसंद था। उसने अनेक यूरोपीय गुलामों को मुक्ति दिलाई और उनको पोर्तुगीज पादरियों के हवाले कर दिया,इनमें अनेक रुसी थे। दुखद पहलू यह है अकबर के बाद जो शासक सत्ता में आए उनमें वैसी अक्ल और विवेक नहीं था,फलतः अकबर के जमाने में पैदा हुई अनेक परंपराएं आगे विकसित नहीं हो पायीं।
       अकबर को इस बात का श्रेय जाता है कि उसने पहलीबार जनाना बाजार की अवधारणा साकार की,मीना बाजार का निर्माण किया।अकबर यह भी चाहता था कि भारत में बहुपत्नी प्रथा बंद हो और एकपत्नी प्रथा आरंभ हो। लेकिन वह इस मुतल्लिक कानून बनाने में असफल रहा। अकबर की धारणा थी कि भारत की औरतें आजाद ख्याल हों और उन पर कोई बंधन न हो। मीना बाजार के बहाने अकबर ने पहलीबार औरतों को पर्दे,महलों और घरों की बंद चौहद्दी से बाहर निकाला। मीना बाजार में औरतें खूब आती थीं, एक-दूसरे से मिलती थी,औरतें ही दुकानें चलाती थीं। जिस दिन जनाना बाजार लगता था उसे “खुशरोज” (सुदिन) कहा जाता था। मीना बाजार में यदि कोई लड़की पसंद आ जाती थी तो लड़का-लड़की में प्रेम हो जाता था। जैन खाँ कूका की बेटी पर यहीं सलीम आशिक हो गया था , लड़की की शादी नहीं हुई थी,मालूम होने पर  अकबर ने खुद शादी कर दी। अकबर के जमाने में बाजार में प्रेम की परंपरा की नींव पड़ी,अकबर ने इसे संरक्षण दिया और आज यह परंपरा युवाओं में खूब फल-फूल रही है। पर्दा प्रथा की विदाई हुई।
     अकबर की विशेषता थी कि वह दासता का विरोधी था। उसने अपने दासों को मुक्त कर दिया था। अबुलफजल के अनुसार अकबर ने सन् 1583 में दासमुक्ति का आदेश दिया। लेकिन समाज में दासों की समस्या बनी रही। अकबर के रुढ़िवादी रुप का आदर्श रुप था उसका दाढ़ी विरोधी नजरिया। अकबर और उसका बेटा दाढ़ी नहीं रखते थे। दाढियों से अनेक रुढ़ियां चिपकी हुई थीं,इसलिए अकबर ने दाढ़ी को निशाना बनाया। अकबर और उसके शाहजादे ने दाढ़ी नहीं रखी।जहाँगीर ने सारी जिन्दगी दाढ़ी नहीं रखी।  लेकिन शाहजहाँ और उसके बाद के जमाने में दाढ़ी लौट आयी। अकबर के दाढ़ी न रखने का आम जनता में व्यापक असर पड़ा और हजारों लोगो ने अपनी दाढ़ियां मुडवा दीं।
    
    अकबर का दिमाग पूरी तरह आधुनिक था उसने  भारत में व्यापक स्तर पर बारुद का इस्तेमाल किया। बारुदी हथियारों का प्रयोग किया।  जबकि बाबर ने ईरान के शाह इस्माइल के सहयोग से बारुद और तोपों के इस्तेमाल की कला सीख ली थी।  तोपों का सबसे पहले प्रयोग किया। अकबर पहला ऐसा शासक था जिसको मशीनों से प्रेम था,मशीनों के जरिए आविष्कार करना उसे पसंद था।  जेस्वित साधु पेरुश्ची के अनुसार “ चाहे युद्ध सम्बन्धी बात हो या शासन सम्बन्धी बात हो या कोई यांत्रिक कला ,कोई चीज ऐसी नहीं है,जिसे वह नहीं जानता या कर नहीं सकता था।” राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है “ अकबर ने महल के अहाते के भीतर भी कई बड़े-बड़े मिस्त्री खाने कायम किये थे,जिनमें वह अक्सर स्वयं अपने हाथ से हथौड़ी –छिन्नी उठाने से परहेज नहीं करता था। उसने हथियारों और यन्त्रों में कई आविष्कार किये थे,जिनका उल्लेख ‘आईन अकबरी’ में अबुलफजल ने किया है।  चित्तौड़ के आक्रमण के समय उसने अपनी देख-रेख में आध-आध मन के गोले ढलवाये ।बन्दूक चलाने में वह बड़ा ही सिद्धहस्त था शायद ही उसका कोई निशाना खाली जाता था।”   

राहुल गांधी की नई इमेज और नई राजनीति

    

           राहुल गांधी की नई इमेज परिवर्तनकामी है,खुली है, यह कांग्रेस के मूल स्वभाव से भिन्न है। कांग्रेस का मूल स्वभाव सत्ता अनुगामी और छिपानेवाला रहा है,जबकि राहुलगांधी सत्ता से मुठभेड़ कर रहे हैं,पार्टी को खेल रहे हैं। वे इस क्रम में दो काम कर रहे हैं,पहला यह कि वे कांग्रेस की नीतियों में परिवर्तन कर रहे हैं, पुरानी नीतियों से अपने को अलगा रहे हैं, उन पर क्रिटिकली बोल रहे हैं। इससे नई राजनीतिक अनुभूति अभिव्यंजित हो रही है।
कांग्रेस के शिखर नेतृत्व में यह प्रवृत्ति रही है कि वह नीतियों पर हमले कम करता रहा है लेकिन राहुल इस मामले में अपवाद हैं वे मनमोहन सिंह के जमाने में भी नीतिगत मसलों पर निर्णायक हस्तक्षेप करते थे और इन दिनों तो वे भिन्न तेवर में नजर आ रहे हैं। इस क्रम में समूची कांग्रेस की मनोदशा में परिवर्तन घटित हो रहा है। आज राहुल गांधी पहल करके जनता के मसलों को उठा रहे हैं,जनांदोलनों के बीच में जा रहे हैं। हाल ही में पूना फिल्म एवं टीवी संस्थान और पूर्व सैनिकों के आंदोलन स्थल पर राहुल गांधी का जाना शुभलक्षण है। राहुल गांधी पूना संस्थान के छात्रों के जुलूस के साथ राष्ट्रपति से मिलने गए, यह सामान्य घटना नहीं है। कांग्रेस ने कभी इस तरह के जनांदोलनों में, अन्य के द्वारा संचालित आंदोलन में शिरकत नहीं की है। मेरी जानकारी में राहुल गांधी से पहले कभी किसी कांग्रेसी शिखर नेता ने जनांदोलन के साथ खड़े होकर राष्ट्रपति को मांगपत्र पेश नहीं किया। यह नया फिनोमिना है और इसका स्वागत होना चाहिए।

राहुल गांधी के एक्शनों ने भाजपा-संघ परिवार के मीडिया नियंत्रण और सरकार नियंत्रण की चूलें हिलाकर रख दी हैं। यह बात साफ नजर आ रही है कि राहुल गांधी जो कह रहे हैं वैसा ही वे आचरण कर रहे हैं और उसी दिशा में राजनीतिक चक्र घूम भी रहा है। भूमि अधिग्रहण कानून को लेकर कांग्रेस ने जो कहा उसे तकरीबन करके दिखा दिया है, मोदी सरकार कई बार अध्यादेश निकालकर भी इस कानून को लागू नहीं कर पाई है। साथ ही भाजपा करप्ट है यह संदेश आम जनता में सम्प्रेषित करने में राहुल गांधी पूरी तरह सफल रहे हैं। इससे मोदी सरकार की साख में बट्टा लगा है,उनके भाषणों की लय टूटी है। चमक फीकी पड़ी है।

राहुल गांधी के नए रुप ने कांग्रेसी राजनीति को पारदर्शी, आक्रामक और सेल्फ क्रिटिकल बनाया है। बार बार हर कदम पर कांग्रेस को अपनी ही सरकार के नीतिगत फैसलों की आत्मालोचना भी करनी पड़ रही है। इससे कांग्रेस में नई संस्कृति बन रही है और इससे भाजपा-संघ बहुत परेशान हैं। यही वजह है कि वे हर मसले पर राहुल गांधी पर व्यक्तिगत हमले कर रहे हैं, अ-राजनीतिक कमेंटस कर रहे हैं। दूसरी बड़ी बात यह है कि राहुल के एक्शनों पर मीडिया से लेकर राजनीतिक दलों तक सकारात्मक राय बन रही है और इससे नए किस्म की कांग्रेस के जन्म की संभावनाएं पैदा हो रही हैं।






मंगलवार, 11 अगस्त 2015

इस्लाम के उदारचेता मनस्वी सैयद महम्मद जौनपुरी

          यह एक मिथ है कि भारत के मुसलमान फंडामेंटलिस्ट हैं,यहां मुसलमानों में कोई धर्मनिरपेक्ष परंपरा नहीं है। सब कुछ शरीयत के हिसाब से होता रहा है। मुसलमानों के बारे में ये सभी बातें एकसिरे से बेबुनियाद हैं। मुगल सल्तनत के जमाने में भारत में मुस्लिम बुद्धिजीवियों की निडर धर्मनिरपेक्ष परंपरा रही है और उसकी मध्यकाल में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका रही है। ये वे लोग हैं जो न तो शरीयत से खौफ़ खाते थे ,न खुदा के नाम से डरते थे, इनका हिन्दुस्तान की जनता से गहरा लगाव था। मजेदार बात यह है कबीर आदि भक्ति आंदोलन के कवि जिस समय सामाजिक न्याय की काल्पनिक बयार बहा रहे थे उस समय मुसलमानों में तीन बहुत बड़े कद के महापुरुष हुए हैं,ये हैं, सैयद महम्मद जौनपुरी,मियाँ अब्दुल्ला नियाजी और शेख अल्लाई । हिन्दी के  महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने इन तीनों को मुस्लिम साम्यवादी कहा है।      राहुल सांकृत्यायन ने अकबर”(1957) में  लिखा है यह आश्चर्य की बात नहीं है कि यदि हिन्दू नहीं ,बल्कि ये मुस्लिम सल्तनतें हमारे प्रादेशिक साहित्य के निर्माण में सबसे पहले आगे आईं। इस्लाम प्रभावित हिन्दी अर्थात् उर्दू का साहित्य बहमनियों के समय शुरु हुआ। बंगाल की भी यही बात है। जौनपुर की शर्की-सल्तनत ने हमें कुतुबन,मंझन और जायसी जैसे रत्न प्रदान किए। जौनपुर ने हमारी धरती में बहुत नीचे तक घुसने की कोशिश की। 15वीं सदी में, एक सौ साल ऊपर तक, वर्तमान उत्तरप्रदेश और बिहार की सांस्कृतिक और राजनीतिक राजधानी जौनपुर रही। उसके महत्व को बहुत कम लोग समझते हैं। इसी जौनपुर में सैयद मुहम्मद जौनपुरी का जन्म हुआ था। इनकी मृत्यु 1505-6 ई.(हिजरी911) में हुई। जान पड़ता है ,यह 15वीं शताब्दी के मध्य पैदा हुए। उनकी जवानी के समय देश की अवस्था बड़ी ही दयनीय थी। चारों ओर बदअमनी छाई हुई थी। जौनपुर ने काफिरों के साथ अपना घनिष्ठ सम्बन्ध जोड़कर कुफ्र की ओर एक कदम उठा लिया था। हिन्दू-मुस्लिम शासक  या धर्माचार्य पसन्द नहीं करता था । चावल-उड़द की तरह उनका मेल हो,इसके मानने वाले भी बहुत नहीं थे,तो भी उसका उतना विरोध नहीं होता था।शेरशाह ने जौनपुर में हिन्दू मुसलमान की एकता देखी ,वहीं उसका बचपन बीता था। यही शेरशाह प्रायः हर बात में अकबर का मार्ग-प्रदर्शक रहा।
      यही वह माहौल है जिसमें पहला मुस्लिम साम्यवादी सैयद महम्मद जौनपुरी जन्म लेता है और नए विचारों की रोशनी मशाल लेकर सामने आता है। वह कबीर का समकालीन था । उस समय शासकों के खिलाफ धर्म की आड़ में बगावत का साहित्य लिखा गया। यही बाद में   अन्त-ल्-मेहदी ( तू मेहदी है) के नाम से मशहूर हुए। राहुल ने लिखा है मेहदी का शब्दार्थ शिक्षक या अंतिम है। इस्लाम में हजरत महम्मद के बाद आने वाले सबसे अन्तिम पैगम्बर को मेहदी कहा जाता है। मेहदी का इस्लाम में वही स्थान है जोकि हिन्दुओं में कल्कि अवतार का । मुल्लों के लिए यह बड़ी कड़बी घूँट थी।सौभाग्य से सैयद महम्मद दिल्ली में नहीं, जौनपुर में पैदा हुए जहाँ अधिक खुलकर साँस ली जा सकती थी।
    अतीत की इन बातों की ओर ध्यान दिलाना इसलिए भी जरुरी है जिससे हम यह समझ सकें कि भारत में इस्लाम की परंपरा वही नहीं है जिसको शरीयत के कट्टरपंथी व्याख्याकारों ने बनाया है। बल्कि भारत में इस्लाम की परंपरा भिन्न रही है। बल्कि कई परंपराएं रही हैं।      राहुल ने लिखा है मेहदी के प्रचार का ढ़ंग और उनकी बातें ऐसी थीं कि लोग उनकी तरफ आकृष्ट होने लगे। अनुयायियों को बढ़ते देख इस्लाम के झण्डेबरदार चुप कैसे रह सकते थे ? जौनपुर में उनका रहना असम्भव हो गया । वह वहाँ से चलकर गुजरात पहुँचे ।गुजरात में भी दिल्ली से बागी होकर जौनपुर की तरह की ही एक सल्तनत कायम हुई थी। वहाँ मेहदी के उपदेशों का प्रभाव केवल मुस्लिम जनसाधारण पर ही नहीं पड़ा, बल्कि अबुल फजल के अनुसार सुल्तान महमूद स्वयं उनका अनुयायी हो गया। बहुत दिनों तक वहाँ भी वह टिक न सके। अन्त में वहाँ से अरब गए।मक्का-मदीना देखा। घूमते-घामते ईरान में निकल गए। वहाँ पर भी उनके पास भक्तों की भीड़ लगने लगी। शाह इस्माइल ने ईरान की राष्ट्रीयता को उभाड़ने के लिए  और उसके द्वारा अपने राजवंश को मजबूत करने के लिए शिया धर्म को राजधर्म स्वीकृत किया था। शिया धर्म ने कट्टर इस्लाम की बहुत-सी बातें छोड़ दीं थी। मेहदी जौनपुरी वहां एक और शाख लगाना चाहते थे । यह न पसन्द कर शाह इस्माइल ने कड़ाई की। सैयद को ईरान छोड़ना पड़ा। ईरान के मज्दक के अनुयायी जिन्दीक के नाम से उस समय भी मौजूद थे ,इसलिए अपने विचारों को मेहदी जौनपुरी के मुँह से सुनकर वह यदि उनकी शिष्यमण्डली  में शामिल होने लगे तो ,तो आश्चर्य नहीं। और पीछे भी मेहदी से मिलती-जुलती विचारधारा यदि ईरान में मौजूद रही ,तो उसका श्रेय मेहदी को नहीं ,बल्कि मज्दकी कुर्बानियों को देना होगा।”  
     

सोमवार, 10 अगस्त 2015

संविधान पर हमला है हर हर महादेव का नारा


हिन्दुत्व का नायक कल गया में हर-हर महादेव का नारा लगा रहा था। चुनाव में हर- हर महादेव का नारा नया फिनोमिना है। यह साम्प्रदायिक राजनीति के आनेवाले मंसूबों की खतरनाक सूचना भी है।

जो व्यक्ति चुनावी मंच से संविधान की रक्षा की शपथ तोड़े,चुनाव आरंभ होने के पहले ही साम्प्रदायिक नारेबाजी करे,संविधान की प्रचलित परंपराओं को सीधे विसर्जित कर दे और साथ में राज्यवासियों के बारे में ‘बीमारु राज्य’ कहकर घृणा का प्रचार करे ऐसे व्यक्ति की यदि बिहार में सरकार आ जाए तो बिहार का समूचा धर्मनिरपेक्ष तानाबाना टूटने में ज्यादा देर नहीं लगेगी। हिन्दुत्ववादियों की चुनावी सभा में हर-हर महादेव का नारा स्वतःस्फूर्त्त नारा नहीं है। यह पहलीबार हुआ है कि एक राष्ट्रीयदल ने वोटों के स्वार्थ के चलते खुल्लम-खुल्ला साम्प्रदायिक कार्ड चला है। राजनीति में हर- हर महादेव का नारा घिनौना और विभाजनकारी नारा है। यह राजनीति और धर्म को मिलाने की घटिया कोशिश है। इसकी हर स्तर पर निंदा होनी चाहिए।

गया में हिन्दुत्व के फिल्मी हीरो ने जब मंच से यह नारा दिया गया तो हिन्दुस्तान के बारे में देश के बाहर यही संदेश गया कि भारत हिन्दुत्व की ओर जा रहा है। हर हर महादेव का नारा लगाना संविधान का अपमान है और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रुप में भारत की सरेआम हत्या है ।

हिन्दुत्व का नायक जब कल गया में बोल रहा था तो लग रहा था कोई हिन्दी की फार्मूला फिल्म का नायक बोल रहा है। राजनीतिक सभा के मंच को फिल्मी सिनेमा का मंच बनाना और फिल्मी नायकों की तरह बोलना,राजनीति के नए रुप की ओर सोचने को विवश कर रहा है। लगता है यही है हिन्दुत्व के नायक की पूरी स्क्रिप्ट मुंबईया फार्मूला फिल्म लेखक ने लिखी हो। फिल्मी स्क्रिप्ट में जिस तरह राजनीतिक गरिमा का ख्याल नहीं रखा जाता,जो मन में आए नायक भाषण देता है, ठीक वैसा ही हाल कल की गया सभा में हिन्दुत्व के नायक का था।

उत्तेजना,घृणा,हीनताबोध,धिक्कारभावना और हर-हर महादेव ये सारी चीजें मिलाकर नायक का भाषण तैयार किया गया था। हर -हर महादेव का नारा वस्तुतः राष्ट्र की धर्मनिरपेक्ष पहचान पर खुला हमला है। यह असामान्य अपराध है। यह अपराध जो भी करेगा उसे सार्वजनिक तौर पर जलील किया जाना चाहिए,कानून की नजरों में उसके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए।इससे भी बड़ी कार्रवाई यह है कि इस तरह की हरकतों के बारे में सार्वजनिक तौर पर बहस चलाई जानी चाहिए।

हर –हर महादेव का राजनीतिक मंचों से नारा वे ही लोग लगाते हैं जो जनता को धर्म के नाम पर गोलबंद करना चाहते हैं।बिहार में हिन्दुत्ववादी ताकतें बहुसंख्यकवाद का कार्ड खेलकर थोक के हिसाब से वोट बटोरना चाहती हैं। ये लोग बिहार की आम जनता के पिछड़ेपन को उत्तेजना फैलाने के लिए इस्तेमाल करने का मन बना चुके हैं। किसी भी राज्य के पिछड़ेपन को यदि राजनीतिक उत्तेजना फैलाने के लिहाज से उठाया जा रहा है तो समझ लो इस तरह तत्वों की विकास में कोई दिलचस्पी नहीं है। उनकी दिलचस्पी तो उत्तेजना में है। बिहार के आने वाले चुनाव में सामाजिक उत्तेजना और हर-हर महादेव के सम्मिश्रण से जो हिन्दुत्ववादी प्रचार तैयार हो रहा है उसके व्यापक राजनीतिक परिणाम होंगे। बिहार के चुनाव में व्यापक स्तर पर धार्मिक और जाति ध्रुवीकरण पैदा करने की कोशिश की जाएगी । राजनीति के सबसे निचले स्तर से हिन्दुत्व के नायक ने प्रचार का आरंभ किया है ऐसे में भविष्य में राजनीति का और भी ह्रासशील रुप सामने आने की संभावना है। हिन्दुत्व के नायक की पूरी कोशिश होगी बिहार में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण हो जिससे हिन्दू राष्ट्र के सपने का सामाजिक आधार तैयार किया जाय।





शनिवार, 8 अगस्त 2015

संसद के रक्षक टीवी भांड



   टाइम्स नाउ टीवी चैनल पर वक्ताओं और एंकर अर्णव गोस्वामी की अ-लोकतांत्रिक चाल देखकर यही नज़र आ रहा है कि जनहितों के लिए संघर्ष करने वालों को एकओर मोदी सरकार से लड़ना होगा वहीं दूसरी ओर कारपोरेट न्यूज़ टीवी चैनलों के प्रायोजित टॉक शो और न्यूज़ प्रसारण से भी लड़ना होगा। आज अर्णव गोस्वामी जिस तरह सरकारीभोंपू की तरह बोल रहा था उसने डीडी न्यूज़ को भी लज्जित कर दिया, मज़ेदार बात यह है डीडी न्यूज़ पर मोदीभक्ती कम दिख रही है इसके विपरीत टाइम्स नाउ आदि निजी चैनलों पर सरकारभक्ति का नशा छाया हुआ है । 
  अर्णव गोस्वामी की बातों को सुनकर लग रहा था कि मोदी सरकार ढेर सारे विकासमूलक और भ्रष्टाचारविरोधी काम करना चाहती है लेकिन विपक्ष करने नहीं दे रहा ! यह अपने आप में बेबुनियाद तर्क है । संसद चले या न चले , इसे लेकर मोदी सरकार गंभीर नहीं रहे ।संसदीय गरिमा और संसद के प्रति मोदी सरकार न तो गंभीर है और न ज़िम्मेदार है। महंगाई, ग़रीबी, मिड डे मिल , ग़रीबों के लिए घर बनाने आदि कार्यों को लेकर गंभीर है तो उसे किसने काम करने से रोका है। यह सरकार अध्यादेश के ज़रिए काम करना चाहती है। सरकार नहीं चाहती कि लोकतांत्रिक ढंग से शासन और संसद चले। लोकतांत्रिक ढंग से सरकार चल रही होती तो पीएम को सभी मंत्रालयों के फ़ैसले लेने का हक़ नहीं दिया जाता। मोदी की बुनियादी प्रकृति अ-लोकतांत्रिक और सर्वसत्तावादी है ।
      मोदी के सत्ता में आने के बाद से सब फ़ैसले प्रधानमंत्री कार्यालय में लिए जा रहे हैं। यहाँ तक कि विदेश,गृह और वित्त मंत्रालय के पास भी कोई स्वायत्तता नहीं बची है । ऐसी स्थिति में पीएम मोदी को लोकतंत्र और विकास का पक्षधर बताना और यह कहना कि विपक्ष उसे काम नहीं करने दे रहा है , यह आरोप बेबुनियाद है। सच यह है मोदी किसी भी क़िस्म के लोकतंत्र और स्वायत्तता को अपने मंत्रियों तक को देना नहीं चाहते। हाल ही में नागा समझौते की घोषणा की गयी लेकिन इस काम में विदेश और गृहमंत्री ग़ायब थे, पड़ोसी राज्यों के मुख्यमंत्रियों से कोई सलाह-मशविरा करना जरुरी नहीं समझा गया । यह सब ग़लत है ।
           मोदी यदि लोकतांत्रिक होते तो भूमि अधिग्रहण बिल बार बार अध्यादेश के ज़रिए लागू न करते। वे संसदीय समिति को पहले ही दिन अपना प्रस्ताव भेज सकते थे लेकिन उन्होंने यह सामान्य सा काम नहीं किया , ऐसी स्थिति में यह कहना कि मोदी सरकार लोकतांत्रिक ढंग से काम करना चाहती है, पूरी तरह ग़लत है। 
                संसद में विपक्ष ने लगातार प्रतिवाद करके सही क़दम उठाया है, इस तरह के प्रतिवाद संसद के उदय के समय से होते रहेहैं। जिस तरह लोकसभा स्पीकर ने कांग्रेस के सांसदों को थोक में संसद से निष्कासित किया है वह भी संसदीय नीति का अंग है। ऐसे में संसद चलेगी या नहीं यह तो सरकार को ही सुनिश्चित करना होगा। 
                  मोदी सरकार की मुश्किल है हठधर्मिता। सरकार तय कर चुकी है कि वह विपक्षी दलों की कोई माँग नहीं मानेगी, लेकिन इससे गतिरोध बढ़ेगा और हर स्तर पर टकराव भी बढ़ेगा । सरकार ने टकराव और हठधर्मिता के बल पर यदि देश चलाने का मन बना लिया है तो फिर विपक्ष बीच में कहाँ आता है । संसद बीच में कहाँ आती है, दनादन अध्यादेश  निकालकर सरकार काम कर सकती है । 

रविवार, 2 अगस्त 2015

स्वाधीन बच्चे और प्रेमचंद

      बच्चों को लेकर बहुत कुछ लिखा गया है लेकिन बच्चों को जिस नज़रिए से प्रेमचंद देखते हैं वह अपने आपमें मूल्यवान है । सामान्य तौर पर प्रेमचंद के बच्चों से संबंधित नज़रिए पर कभी किसी ने ध्यान ही नहीं दिया ।प्रेमचंद ने जो बातें बच्चों के लिए कही हैं उनका बहुत गहरा संबंध युवाओं से भी है ।
बच्चों के बारे में बातें करते ही एक ही चीज ज़ेहन में आती है कि बच्चों को आज्ञाकारी होना चाहिए। बच्चों को आज्ञापालन सिखाओ , बड़ों का सम्मान करना सिखाओ , संयम से जीना सिखाओ। तक़रीबन सभी के मन में यह धारणा है , प्रेमचंद ने व्यंग्य करते लिखा , "बच्चों को स्वाधीन बनाना तो ऐसा ही है जैसे आग पर तेल छिड़कना।"
एक वर्ग यह भी मानता है कि बच्चे आज पूरी तरह स्वतंत्र हैं उनको कुछ भी सिखाने की ज़रूरत नहीं है, वे सब कुछ मीडिया से सीख रहे हैं। टीवी, इंटरनेट,सोशलमीडिया और विज्ञापनों से सीख रहे हैं। इस प्रसंग में यही कहना चाहते हैं कि मीडिया से बच्चे वस्तु ख़रीदना सीख रहे हैं, उपभोक्ता बनने के गुर सीख रहे हैं, वस्तुओं के उपभोग को सीखना स्वाधीन होना नहीं है। यदि कोई बच्चा गायक बनना चाहता है तो उसे गायन सीखना पड़ेगा,इसी तरह बच्चा स्वाधीन भाव से लैस हो इसके लिए ज़रूरी है कि उसे "जीवन की रक्षा स्वयं करने की शिक्षा दी जाय" ।
प्रेमचन्द ने लिखा है , " मोटरकार, सिनेमा और समाचारपत्र सब स्वाधीनता की प्रवृत्ति को मज़बूत करते हैं।" यह भी लिखा कि " युवकों के सामने आज जो परिस्थिति है उसमें अदब और नम्रता का इतना महत्व नहीं है, जितना व्यक्तिगत विचारों और कामों की स्वाधीनता का । "
प्रेमचंद ने आधुनिक शिक्षा के दायरे से आगे बढ़कर सोचने पर ज़ोर देते हुए लिखा , " इस नयी शिक्षा का आशय क्या है ? आज्ञा-पालन हमारे जीवन का एक अंग है और हमेशा रहेगा । अगर हर एक आदमी अपने मन की करने लगे , तो समाज का शिराजा बिखर जायगा । अवश्य हर एक घर में जीवन के इस मौलिक तत्व की रक्षा होनी चाहिए , लेकिन इसके साथ ही माता- पिता की यह भी कोशिश होनी चाहिए , कि उनके बालक उन्हें पत्थर की मूर्ति या पहेली न समझें। चतुर माता-पिता बालकों के प्रति अपने व्यवहार को जितना स्वाभाविक बना सकें , उतना बनाना चाहिए , क्योंकि बालक के जीवन का उद्देश्य कार्य-क्षेत्र में आना है , केवल आज्ञा मानना नहीं ।वास्तव में जो बालक इस तरह की शिक्षा पाते हैं , उनमें आत्म- विश्वास का लोप हो जाता है । वे हमेशा किसी की आज्ञा का इंतज़ार करते हैं। हम समझते हैं कि आज कोई बाप अपने लड़के को ऐसी आदत डालनेवाली शिक्षा न देगा। "
प्रेमचंद ने लिखा " दूसरा सिद्धांत यह है कि माता- पिता को कोई बात ख़ुद न तय करनी चाहिए , बल्कि लड़कों पर छोड़ देनी चाहिए। " " तीसरा सिद्धांत यह है कि गृहस्थी को जनतन्त्र के क़ायदों पर चलाना चाहिए ।तजुर्बे से यह बात मालूम होती है , कि हम जनतन्त्र पर चाहे कितना ही विश्वास रक्खें , हमारे घरों में स्वेच्छाचार का ही राज्य है । घर का मालिक मुसोलिनी या कैसर की तरह डटा हुआ जिस रास्ते चाहता है, ले जाता है और कभी इसका उलटा दिखायी देता है। घर में न कोई क़ायदा है न कोई क़ानून । जो जिसके जी में आता है , करता है , जैसे चाहता है ,रहता है ; कोई किसी की ख़बर नहीं लेता।लड़के अपनी राह जाते हैं, जवान अपनी राह और बूढ़े अपनी राह। दोनों ही तरीके जनतन्त्र से कोसों दूर हैं - पहले तरीके में स्वतन्त्रता का नाम नहीं , दूसरे तरीके में ज़िम्मेदारी का। यह दोनों ही तरीके लड़कों की शिक्षा की दृष्टि से अनुचित हैं । करना यह चाहिए कि घर के मसलों पर बच्चों से शुरु ही से राय ली जाय। "
बच्चों को दैनन्दिन कामों की ज़िम्मेदारी देकर और घरेलू समस्याओं पर उनकी राय लेकर उनके मन में यह भाव पैदा किया जा सकता है कि परिवार में उनका भी महत्व है। बचपन में ही उनके अंदर आने और पैसे के फ़र्क़ की समझ पैदा की जाय , उनका हाथ ख़र्च तय कर दिया जाय। साथ ही उनको कोई न कोई काम ज़रूर दिया जाय। लडके अपने काम खुद करें इससे उनके आत्मविश्वास में इज़ाफ़ा होगा, परतन्त्रता बोध से मुक्ति मिलेगी । हम अमूमन लड़कों के हाथ में कोई नई चीज देखकर घबड़ा जाते हैं। मसलन् , घड़ी छू रहा है कहीं तोड़ न डाले । आश्चर्य तब होता है कि जिन व्यक्तियों ने सारी ज़िन्दगी संघर्ष किया वे भी बच्चों को पारिवारिक कामों से बचाते हैं।
प्रेमचंद ने लिखा " हम यहाँ यह बतला देना चाहते हैं कि स्वाधीनता से हमारा मतलब क्या है ? इसका यह मतलब नहीं है कि हम बिला रोक-टोक जो कुछ चाहें करें और जो कुछ चाहें न करें। इसका मतलब यह है कि बाहरी दबाव की जगह हम में आत्म- संयम का उदय हो। सच्चा स्वाधीन आदमी वही है , जिसका जीवन आत्मा के शासन से संयमित हो जाता है, जिसे किसी बाहरी दबाव की ज़रूरत नहीं पड़ती। बालकों में इतना विवेक होना चाहिए कि वे हर एक काम के गुण- दोष को भीतर की आँखों से देखें।"

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मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...