मंगलवार, 11 अगस्त 2015

इस्लाम के उदारचेता मनस्वी सैयद महम्मद जौनपुरी

          यह एक मिथ है कि भारत के मुसलमान फंडामेंटलिस्ट हैं,यहां मुसलमानों में कोई धर्मनिरपेक्ष परंपरा नहीं है। सब कुछ शरीयत के हिसाब से होता रहा है। मुसलमानों के बारे में ये सभी बातें एकसिरे से बेबुनियाद हैं। मुगल सल्तनत के जमाने में भारत में मुस्लिम बुद्धिजीवियों की निडर धर्मनिरपेक्ष परंपरा रही है और उसकी मध्यकाल में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका रही है। ये वे लोग हैं जो न तो शरीयत से खौफ़ खाते थे ,न खुदा के नाम से डरते थे, इनका हिन्दुस्तान की जनता से गहरा लगाव था। मजेदार बात यह है कबीर आदि भक्ति आंदोलन के कवि जिस समय सामाजिक न्याय की काल्पनिक बयार बहा रहे थे उस समय मुसलमानों में तीन बहुत बड़े कद के महापुरुष हुए हैं,ये हैं, सैयद महम्मद जौनपुरी,मियाँ अब्दुल्ला नियाजी और शेख अल्लाई । हिन्दी के  महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने इन तीनों को मुस्लिम साम्यवादी कहा है।      राहुल सांकृत्यायन ने अकबर”(1957) में  लिखा है यह आश्चर्य की बात नहीं है कि यदि हिन्दू नहीं ,बल्कि ये मुस्लिम सल्तनतें हमारे प्रादेशिक साहित्य के निर्माण में सबसे पहले आगे आईं। इस्लाम प्रभावित हिन्दी अर्थात् उर्दू का साहित्य बहमनियों के समय शुरु हुआ। बंगाल की भी यही बात है। जौनपुर की शर्की-सल्तनत ने हमें कुतुबन,मंझन और जायसी जैसे रत्न प्रदान किए। जौनपुर ने हमारी धरती में बहुत नीचे तक घुसने की कोशिश की। 15वीं सदी में, एक सौ साल ऊपर तक, वर्तमान उत्तरप्रदेश और बिहार की सांस्कृतिक और राजनीतिक राजधानी जौनपुर रही। उसके महत्व को बहुत कम लोग समझते हैं। इसी जौनपुर में सैयद मुहम्मद जौनपुरी का जन्म हुआ था। इनकी मृत्यु 1505-6 ई.(हिजरी911) में हुई। जान पड़ता है ,यह 15वीं शताब्दी के मध्य पैदा हुए। उनकी जवानी के समय देश की अवस्था बड़ी ही दयनीय थी। चारों ओर बदअमनी छाई हुई थी। जौनपुर ने काफिरों के साथ अपना घनिष्ठ सम्बन्ध जोड़कर कुफ्र की ओर एक कदम उठा लिया था। हिन्दू-मुस्लिम शासक  या धर्माचार्य पसन्द नहीं करता था । चावल-उड़द की तरह उनका मेल हो,इसके मानने वाले भी बहुत नहीं थे,तो भी उसका उतना विरोध नहीं होता था।शेरशाह ने जौनपुर में हिन्दू मुसलमान की एकता देखी ,वहीं उसका बचपन बीता था। यही शेरशाह प्रायः हर बात में अकबर का मार्ग-प्रदर्शक रहा।
      यही वह माहौल है जिसमें पहला मुस्लिम साम्यवादी सैयद महम्मद जौनपुरी जन्म लेता है और नए विचारों की रोशनी मशाल लेकर सामने आता है। वह कबीर का समकालीन था । उस समय शासकों के खिलाफ धर्म की आड़ में बगावत का साहित्य लिखा गया। यही बाद में   अन्त-ल्-मेहदी ( तू मेहदी है) के नाम से मशहूर हुए। राहुल ने लिखा है मेहदी का शब्दार्थ शिक्षक या अंतिम है। इस्लाम में हजरत महम्मद के बाद आने वाले सबसे अन्तिम पैगम्बर को मेहदी कहा जाता है। मेहदी का इस्लाम में वही स्थान है जोकि हिन्दुओं में कल्कि अवतार का । मुल्लों के लिए यह बड़ी कड़बी घूँट थी।सौभाग्य से सैयद महम्मद दिल्ली में नहीं, जौनपुर में पैदा हुए जहाँ अधिक खुलकर साँस ली जा सकती थी।
    अतीत की इन बातों की ओर ध्यान दिलाना इसलिए भी जरुरी है जिससे हम यह समझ सकें कि भारत में इस्लाम की परंपरा वही नहीं है जिसको शरीयत के कट्टरपंथी व्याख्याकारों ने बनाया है। बल्कि भारत में इस्लाम की परंपरा भिन्न रही है। बल्कि कई परंपराएं रही हैं।      राहुल ने लिखा है मेहदी के प्रचार का ढ़ंग और उनकी बातें ऐसी थीं कि लोग उनकी तरफ आकृष्ट होने लगे। अनुयायियों को बढ़ते देख इस्लाम के झण्डेबरदार चुप कैसे रह सकते थे ? जौनपुर में उनका रहना असम्भव हो गया । वह वहाँ से चलकर गुजरात पहुँचे ।गुजरात में भी दिल्ली से बागी होकर जौनपुर की तरह की ही एक सल्तनत कायम हुई थी। वहाँ मेहदी के उपदेशों का प्रभाव केवल मुस्लिम जनसाधारण पर ही नहीं पड़ा, बल्कि अबुल फजल के अनुसार सुल्तान महमूद स्वयं उनका अनुयायी हो गया। बहुत दिनों तक वहाँ भी वह टिक न सके। अन्त में वहाँ से अरब गए।मक्का-मदीना देखा। घूमते-घामते ईरान में निकल गए। वहाँ पर भी उनके पास भक्तों की भीड़ लगने लगी। शाह इस्माइल ने ईरान की राष्ट्रीयता को उभाड़ने के लिए  और उसके द्वारा अपने राजवंश को मजबूत करने के लिए शिया धर्म को राजधर्म स्वीकृत किया था। शिया धर्म ने कट्टर इस्लाम की बहुत-सी बातें छोड़ दीं थी। मेहदी जौनपुरी वहां एक और शाख लगाना चाहते थे । यह न पसन्द कर शाह इस्माइल ने कड़ाई की। सैयद को ईरान छोड़ना पड़ा। ईरान के मज्दक के अनुयायी जिन्दीक के नाम से उस समय भी मौजूद थे ,इसलिए अपने विचारों को मेहदी जौनपुरी के मुँह से सुनकर वह यदि उनकी शिष्यमण्डली  में शामिल होने लगे तो ,तो आश्चर्य नहीं। और पीछे भी मेहदी से मिलती-जुलती विचारधारा यदि ईरान में मौजूद रही ,तो उसका श्रेय मेहदी को नहीं ,बल्कि मज्दकी कुर्बानियों को देना होगा।”  
     

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