लेव तोलस्तोय के अनुसार जीवन के प्रत्येक चरण में कुछ निश्चित विशेषताएं होती हैं,जो केवल उस चरण में पायी जाती हैं।जैसे बचपन में भावानाओं की हार्दिकता और निष्ठा की प्रधानता रहती है;किशोरावस्था में शंका,आत्म-निष्ठा, अनुभवहीनता और गर्व का प्रभुत्व रहता है;युवावस्था में " भावनाओं की सुंदरता " की भूमिका उल्लेखनीय होती है और इसके साथ ही अहंकार और अपनी शक्ति तथा क्षमताओं में विश्वास के अभाव का भी इस अवधि में विकास होता है;कच्ची उम्र में भावनाओं का और अधिक विकास होता है-गर्व और अहंकार का स्थान आत्म-प्रतिष्ठा ले लेती है।लेकिन इसके साथ ही इस उम्र में नौजवान आदमी जीवन में अपने उद्देश्य के बारे में सोचना शुरू करता है।
बचपन में मैं कैसा था और किस मुसीबत में फंसा था उसके बारे में मेरी माँ और दादी के द्वारा बाद में बताया गया किस्सा मेरी स्मृति में है।मेरा जिस समय जन्म हुआ उस समय मेरी माँ की उम्र संभवत13-14 साल रही होगी।वह देखने में सुंदर थी और सुनियोजित ढ़ंग से काम करने में निपुण थी,वह गूंगी-बहरी थी।लेकिन एकदम निडर और साहसी थी।वह जिस परिवार में जन्मी थी वह परिवार मथुरा के चौबों में सबसे शिक्षित परिवारों में गिना जाता था।उसको इस बात का गर्व था कि वह शिक्षित परिवार में जन्मी और बड़ी हुई।उस जमाने में यह मथुरा के अभिजन परिवारों में गिना जाता था।इस परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा थी,मेरे ननिहाल की मथुरा में वह सामाजिक प्रतिष्ठा आज भी वैसी ही है।जिस तरह नानाजी और उनके परिवार को समाज में प्रतिष्ठा मिली,वह सिलसिला आज भी जारी है।मां को यह भी संतोष था कि उसकी जिस व्यक्ति से शादी हुई है वह पढ़ा लिखा है,संस्कृत पढ़ता है और पंडित है।इस चीज ने माँ के मन को विलक्षण गर्व से भर दिया था और वह अपने को कभी गूंगी-बहरी होने के कारण कभी कुंठा में नहीं रही।मैंने अपनी माँ को कभी अवसाद में नहीं देखा।तमाम किस्म की परेशानियां,कष्ट, बीमारियां,आर्थिक अभाव परिवार में आए लेकिन माँ की जीवन्तता देखने लायक होती थी।दुख में हँसने की कला मैंने उससे ही सीखी,जो आज भी मेरी सबसे बड़ी संपत्ति है। मैं पढ़ पाया इसमें मेरे माता-पिता की बड़ी भूमिका है लेकिन इनमें भी मेरी दादी और माँ की निर्णायक भूमिका रही।मेरी दादी गजब की दुस्साहसी,सुंदर और बेहद करीने से जीने वाली महिला थी।मथुरा जैसे शहर में वह अपने घर की मुखिया थी और उसने अकेले अपने बल पर पूरे परिवार को पाल पोसकर पैरों पर खड़ा किया था।सुबह उठने और अपना काम करने की आदत मुझे विरासत में दादी से मिली।मैं दादी का राजदार था,वह सुबह मंदिर में चढोत्तरी में आने वाले पैसे गिनवाती थी, उसके लिए वह मुझे आए दिन सुबह 3-4बजे के बीच जगा देती थी।घर में कहने को अनेक लोग थे भरा-पूरा संयुक्त परिवार था,लेकिन दादी का विश्वास मेरे ऊपर ही था।मैं सुबह उठकर मंदिर में आने वाले पैसे गिनता,जाड़ों में सन्नाटे के समय दादी के साथ 4बजे करीब मंदिर जाता और फिर लौटकर घर में आकर पैसे गिनता।दादी की अलमारी को देखने का एकमात्र सौभाग्य मुझे मिला था।दादी ने कभी अपने बेटों-बहुओं और नातियों को अपनी अलमारी में झाँकने तक नहीं दिया,जबकि मुझे वह अलमारी की चाभी तक दे देती थी। दादी अनपढ़ थी,चीजें ज्यादा याद नहीं रख पाती थी,12बच्चों को जन्म दिया ,इनमें 11लड़के थे और एक लड़की थी इनमें से 9बच्चे मर गए और तीन बचे,ये थे मेरे पिता,ताऊ और बुआ। दादी की चर्चा विस्तार से कभी बाद में करूंगा,लेकिन एक वाकया बताना बेहद जरूरी है। मेरे जन्म के कुछ महिने बाद ही किसी बात पर मेरे माता-पिता में कहा-सुनी हो गयी.माँ मुझे गुस्से में दादी के पास फेंककर नानी के यहां चली गयी और लौटकर नहीं आई।दादी के सामने गंभीर समस्या थी कि मुझे भूख लगेगी तो दूध कैसे पिलाया जाए,दादी बाजार का दूध पिलाने के पक्ष में नहीं थी।मेरे जन्म के साथ ही मेरी बुआ के बेटी पैदा हुई थी, दादी ने तुरंत उसकी मदद ली और मुझे समय पर बुआ का दूध मिलने लगा।बुआ जब अपने घर चली जाती तो उस समय मैं भूखा न रहूँ इसके लिए दादी ने पड़ोस में रह रहे एक चतुर्वेदी परिवार की महिला से मदद ली क्योंकि उसके भी एक लड़का मेरे जन्म के आसपास हुआ था,इस तरह दादी ने बड़े कौशल के साथ दो औरतों का दूध पिलाने के लिए जुगाड़ कर लिया और मेरा बचपन चैन से गुजरने लगा,इस बीच में मेरे पिता को दादी ने समझ-बुझाकर माँ से माफी मांगने के लिए नानीघर भेजा और फिर वापस माँ लोटकर घर आई।लेकिन इस दौरान संयोगवश मैं तीन माताओं के दूध का ऋणी हो गया,मेरी बुआ और वह पडोसन मुझको जब भी देखते तो खुशी से गद्गद हो जातीं और गर्व से कहतीं कि तुमको हमने दूध पिलाकर बड़ा किया है,मैं जब भी मौका मिलता इन दोनों से जमकर खूब बातें करता था,क्योंकि ये दोनों मुझे बहुत प्यार करती थीं।मेरी मां सारी जिन्दगी इन दोनों के एहसान को मानती रही और बार-बार कहती कि ये दोनों न होतीं तो तुम बिना दूध के मर जाते।
बचपन में मैं कैसा था और किस मुसीबत में फंसा था उसके बारे में मेरी माँ और दादी के द्वारा बाद में बताया गया किस्सा मेरी स्मृति में है।मेरा जिस समय जन्म हुआ उस समय मेरी माँ की उम्र संभवत13-14 साल रही होगी।वह देखने में सुंदर थी और सुनियोजित ढ़ंग से काम करने में निपुण थी,वह गूंगी-बहरी थी।लेकिन एकदम निडर और साहसी थी।वह जिस परिवार में जन्मी थी वह परिवार मथुरा के चौबों में सबसे शिक्षित परिवारों में गिना जाता था।उसको इस बात का गर्व था कि वह शिक्षित परिवार में जन्मी और बड़ी हुई।उस जमाने में यह मथुरा के अभिजन परिवारों में गिना जाता था।इस परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा थी,मेरे ननिहाल की मथुरा में वह सामाजिक प्रतिष्ठा आज भी वैसी ही है।जिस तरह नानाजी और उनके परिवार को समाज में प्रतिष्ठा मिली,वह सिलसिला आज भी जारी है।मां को यह भी संतोष था कि उसकी जिस व्यक्ति से शादी हुई है वह पढ़ा लिखा है,संस्कृत पढ़ता है और पंडित है।इस चीज ने माँ के मन को विलक्षण गर्व से भर दिया था और वह अपने को कभी गूंगी-बहरी होने के कारण कभी कुंठा में नहीं रही।मैंने अपनी माँ को कभी अवसाद में नहीं देखा।तमाम किस्म की परेशानियां,कष्ट, बीमारियां,आर्थिक अभाव परिवार में आए लेकिन माँ की जीवन्तता देखने लायक होती थी।दुख में हँसने की कला मैंने उससे ही सीखी,जो आज भी मेरी सबसे बड़ी संपत्ति है। मैं पढ़ पाया इसमें मेरे माता-पिता की बड़ी भूमिका है लेकिन इनमें भी मेरी दादी और माँ की निर्णायक भूमिका रही।मेरी दादी गजब की दुस्साहसी,सुंदर और बेहद करीने से जीने वाली महिला थी।मथुरा जैसे शहर में वह अपने घर की मुखिया थी और उसने अकेले अपने बल पर पूरे परिवार को पाल पोसकर पैरों पर खड़ा किया था।सुबह उठने और अपना काम करने की आदत मुझे विरासत में दादी से मिली।मैं दादी का राजदार था,वह सुबह मंदिर में चढोत्तरी में आने वाले पैसे गिनवाती थी, उसके लिए वह मुझे आए दिन सुबह 3-4बजे के बीच जगा देती थी।घर में कहने को अनेक लोग थे भरा-पूरा संयुक्त परिवार था,लेकिन दादी का विश्वास मेरे ऊपर ही था।मैं सुबह उठकर मंदिर में आने वाले पैसे गिनता,जाड़ों में सन्नाटे के समय दादी के साथ 4बजे करीब मंदिर जाता और फिर लौटकर घर में आकर पैसे गिनता।दादी की अलमारी को देखने का एकमात्र सौभाग्य मुझे मिला था।दादी ने कभी अपने बेटों-बहुओं और नातियों को अपनी अलमारी में झाँकने तक नहीं दिया,जबकि मुझे वह अलमारी की चाभी तक दे देती थी। दादी अनपढ़ थी,चीजें ज्यादा याद नहीं रख पाती थी,12बच्चों को जन्म दिया ,इनमें 11लड़के थे और एक लड़की थी इनमें से 9बच्चे मर गए और तीन बचे,ये थे मेरे पिता,ताऊ और बुआ। दादी की चर्चा विस्तार से कभी बाद में करूंगा,लेकिन एक वाकया बताना बेहद जरूरी है। मेरे जन्म के कुछ महिने बाद ही किसी बात पर मेरे माता-पिता में कहा-सुनी हो गयी.माँ मुझे गुस्से में दादी के पास फेंककर नानी के यहां चली गयी और लौटकर नहीं आई।दादी के सामने गंभीर समस्या थी कि मुझे भूख लगेगी तो दूध कैसे पिलाया जाए,दादी बाजार का दूध पिलाने के पक्ष में नहीं थी।मेरे जन्म के साथ ही मेरी बुआ के बेटी पैदा हुई थी, दादी ने तुरंत उसकी मदद ली और मुझे समय पर बुआ का दूध मिलने लगा।बुआ जब अपने घर चली जाती तो उस समय मैं भूखा न रहूँ इसके लिए दादी ने पड़ोस में रह रहे एक चतुर्वेदी परिवार की महिला से मदद ली क्योंकि उसके भी एक लड़का मेरे जन्म के आसपास हुआ था,इस तरह दादी ने बड़े कौशल के साथ दो औरतों का दूध पिलाने के लिए जुगाड़ कर लिया और मेरा बचपन चैन से गुजरने लगा,इस बीच में मेरे पिता को दादी ने समझ-बुझाकर माँ से माफी मांगने के लिए नानीघर भेजा और फिर वापस माँ लोटकर घर आई।लेकिन इस दौरान संयोगवश मैं तीन माताओं के दूध का ऋणी हो गया,मेरी बुआ और वह पडोसन मुझको जब भी देखते तो खुशी से गद्गद हो जातीं और गर्व से कहतीं कि तुमको हमने दूध पिलाकर बड़ा किया है,मैं जब भी मौका मिलता इन दोनों से जमकर खूब बातें करता था,क्योंकि ये दोनों मुझे बहुत प्यार करती थीं।मेरी मां सारी जिन्दगी इन दोनों के एहसान को मानती रही और बार-बार कहती कि ये दोनों न होतीं तो तुम बिना दूध के मर जाते।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें