शनिवार, 14 मई 2016

औरत के हक में और संशय के प्रतिवाद में


      फ़ेसबुक से लेकर मासमीडिया तक , नेताओं से लेकर सामाजिक कार्यकर्ताओं तक औरतों के प्रति संशय और संदेह का वातावरण बन रहा है । औरत हो या पुरुष किसी पर भी संदेह या संशय के आधार पर बातचीत नहीं करनी चाहिए ।मानवीय सभ्यता के विकास में मानवीय भरोसे और विश्वास की बड़ी भूमिका रही है। कभी-कभार इन संबंधों में विपर्यय भी देखा गया है।औरतों में बहुत छोटा किंतु नगण्य अंश है जो विश्वासघात भी करता रहा है । यह पहले भी था और आगे भी रहेगा ।

मानवीय संबंध स्त्री-पुरुष संबंधों के बिना नहीं बनते । नए युग में इन संबंधों का स्वरुप नए ढंग और तरीक़े से बनाना होगा । नए मानवीय मूल्यों को औरतें भी अर्जित कर रही हैं ।वे निडर होकर जीने की कोशिश कर रही हैं ,हमें उनकी इस कोशिश में हर संभव मदद करनी चाहिए ।औरत निडर और आधुनिक बनेगी तो वह हमारी पुरानी आस्थाओं को तोड़ेगी और चुनौती भी देगी ।हम सभी लोग औरत के इस नए परिवर्तन को समझ नहीं पा रहे हैं ।

औरत बदलती है तो सबसे पहले पुरानी आस्थाएँ टूटती हैं , औरत का पुराना स्टीरियोटाइप टूटता है । इस क्रम में अनेक मर्दों और औरतों को त्रासदियाँ झेलनी पड़ सकती हैं।औरत का बदलना और समाज में निडर होकर घूमना, बातें करना , मिलना -जुलना , मित्रों के साथ शाम गुज़ारना , पुरुष के साथ निडर होकर घुलना-मिलना सामान्य और सही प्रवृत्ति है।औरत जितनी निडर होगी समाज में पोंगापंथ , साम्प्रदायिकता, फंडामेंटलिज्म, लिंगभेद उतना ही कम होगा या इन सबसे लड़ने में मदद मिलेगी ।

औरत के साथ नए युग के अनुसार हमें व्यवहार करना सीखना होगा । औरत के प्रति संशय या संदेह मूलतः पितृसत्तात्मकता की अभिव्यक्ति है । पितृसत्ता की विचारधारा सामाजिक विकास में सबसे बड़ी बाधा है । पितृसत्ता तो समाजवाद, पूँजीवाद की भी अम्मा है ।हिंदी में कहावत है चोर को न मारो चोर की अम्मा को मारो। लिंगभेद या औरत के प्रति अविश्वास की अम्मा है पितृसत्ता । यह बेहद बारीक ढंग से काम करती है और इसके रुपों से लड़ने के लिए बेहद सतर्क प्रयासों की ज़रुरत है ।

पितृसत्ता का महान गुण है कि वह स्वयं पर संदेह करना नहीं सिखाती । हम सब में पितृसत्ताप्रेम वैचारिक तौर पर कूट-कूटकर भरा है । औरत जब घर से निकलती है , अपने दुख सार्वजनिक करती है या सुख की सार्वजनिक अभिव्यक्ति करती है तो पितृसत्ता को धक्का लगता है और यही धक्का हम अपने अंदर महसूस करते हैं और काँपने लगते हैं , औरत पर संदेह करने लगते हैं ।

औरतों की हाल में जितनी भी सही-ग़लत शिकायतें आई हैं वे पितृसत्ता को कमज़ोर कर रही हैं और इस प्रक्रिया को किसी भी क़ीमत पर रुकना नहीं चाहिए । इस प्रक्रिया में अनेक श्रेष्ठ पुरुषों की बलि भी चढ़ेगी और यह अस्वाभाविक नहीं है । जिनको हम महान,निष्कलंक और निर्दोष मान रहे हैं उनके पितृसत्तात्मकता अपराधों को अपराध नहीं मानते उलटे पुण्य कार्य या सही काम मानते हैं । औरत का हर एक्शन पुरुष की महानता का निषेध है । पितृसत्ता को धराशायी करने वाली सबसे बड़ी बाधा यही महान श्रेष्ठ लोग हैं जो विभिन्न रंगतों और विचारधाराओं में हमारे बीच वैचारिक वैधता का आदर्श लिए खड़े हैं ।

औरत का सामान्य जीवन , सामान्य आचरण परिभाषित करने के लिए औरत के नज़रिए से चीज़ों को देखने की आदत विकसित करनी होगी । हमारे मीडिया का वर्चस्वशाली विमर्श ,चैटिंग,फ़ेसबुक कमेंट्स आदि पूरी तरह पितृसत्तात्मकता के आवरण में आ रहे हैं । औरत का हर एक्शन इस आवरण को छिन्न- भिन्न करता है । वह जब भी बोलती है तो पितृसत्ता को कमज़ोर करती है ,वह जब पुरुषों से सार्वजनिक या निजी तौर पर मिलती है तो अपना स्पेस बना रही होती है ।

औरत की समस्या है कि उसके पास भारत में निजी स्पेस और सार्वजनिक स्पेस बहुत कम है।औरत के लिए निजी और सार्वजनिक स्पेस के अभाव को हमने कभी गंभीरता से नहीं लिया । नई सक्रिय औरत अपनी नई दुनिया रच रही है । जिसमें वह क्रमश: वर्जनाओं और सामाजिक बंदिशों से लड़ रही है । इधर दो दशकों में औरतों पर ख़ासकर शिक्षित औरतों पर हमले तेज़ी से बढ़ें हैं । वह जब इनका प्रतिवाद करती है तो तरह तरह के बहाने खोजकर हमलोग औरत को दोषी ठहराने या फिर उदार मूल्यों पर ही हमले करने आरंभ कर देते हैं ।

भारत के विकास के लिए औरत पर अविश्वास करने की ज़रुरत नहीं है । औरत पर संशय के नज़रिए से सोचने की ज़रुरत नहीं है । औरत पर अविश्वास करनासामाजिक विकास के चक्र को उलटी दिशा में मोड़ना है ।ठगने ,झूठ बोलने या छल का काम औरत करें या मर्द करें हमें सतर्क रहना चाहिए और प्रतिवाद करना चाहिए । कोई औरत झूठे इल्ज़ाम लगाए तो झूठे इल्ज़ाम का विरोध करो , औरतों के ख़िलाफ़ संशय पैदा मत करो । क़ानून में इस तरह के प्रावधान होने चाहिए जिससे ग़लत इल्ज़ाम लगाने पर औरत को भी दण्डित किया जा सके । मौजूदा दौर में अनेक मामलों में औरतों के द्वारा ग़लत आरोपों के संगीन मामले सामने आए हैं और इस तरह के मामलों में क़ानूनी प्रक्रिया की मदद ली जानी चाहिए ।

औरत की सामाजिक बराबरी की लड़ाई का यह सबसे कठिन दौर है । औरत का आज जितने बडे कैनवास में सामाजिक एक्सपोजर हो रहा है उतना पहले कभी नहीं हुआ । फलत: हम आए दिन नई स्त्री समस्याओं और चुनौतियों से दो-चार हो रहे हैं । इस प्रक्रिया से किनाराकशी या इसे रोकने के प्रयास निश्चिततौर पर असफल होंगे। औरत घर से निकली है तो वह अपने रास्ते , अपना संसार भी बनाएगी और इस काम में हम सबको औरत पर विश्वास और मित्रता का भाव बनाए रखना होगा । आज औरत को संरक्षक की नहीं मित्र की ज़रुरत है । हमारे मन में बैठा यही संरक्षक भाव औरत की नई हक़ीक़त को समझने में बाधाएँ पैदा कर रहा है । औरत की नई हक़ीक़त को मित्रभाव से ही समझ सकते हैं और यहपरिवर्तन हमें अपने व्यवहार में करना पड़ेगा ।

भारत में स्त्री और सामाजिक समूहों के साथ दो तरह का भेदभाव और शोषण पाया जाता है, पहला ,सामाजिक शोषण और भेदभाव के रुप में है ,और दूसरा ,केजुअल शोषण और भेदभाव है । केजुअल शोषण और भेदभाव भी उतना खराब और निंदनीय है जितना सामाजिक भेदभाव और शोषण। इस केजुअल भेदभाव का एक रुप साम्प्रदायिक-अंधक्षेत्रीयतावादी नजरिए में भी व्यक्त होता रहता है । हम मुसलमानों और अन्य समूहों के प्रति हंसी-मजाक में अपनी भेददृष्टि को व्यक्त करते रहते हैं । खासकर मीडिया में यह रुप व्यापक है। मीडिया ( फिल्म,टीवी और अखबार के कार्टून सीरीज) ने केजुअल भेदभाव को वैध बनाने में बड़ी भूमिका अदा की है। भेदभाव किसी भी रुप में हो केजुअल हो या अन्य रुप में हो वह स्वीकार्य नहीं है । अफसोस यह है कि हम केजुअल भेदभाव के प्रति अभी तक सचेत नहीं हो पाए हैं ।

यह सच है पुराने कानून में अनेक स्त्री विरोधी प्रावधान रहे हैं लेकिन हमारे यहां कानूनी संतुलन को असंतुलन में बदलने की कला में अ-सामाजिक तत्व सफल रहे हैं । कानून जेण्डर संतुलन और संरक्षण के साथ काम करे,इसके लिए कानून के दुरुपयोग को रोकने वाली सामाजिक-राजनीतिक संरचनाएं बनायी जाएं । साथ ही अपराधी बचने न पाएं और जल्दी न्याय हो । सरकार सारे कर्म करने के बावजूद जल्द न्याय की व्यवस्था करने में असफल रही है ।औरतों की राय को परम पवित्र मानने वाले भारतीय फेमिनिस्टों को जरा औरतों के बारे में यूरोप की फेमिनिस्टों की राय पर भी गौर करना चाहिए। औरत के नाम पर अंधा विमर्श या स्त्री फंडामेंटलिज्म वस्तुतः स्त्री विरोधी है । भारत की स्त्री अधिकार रक्षक संस्थाएं और विदुषियां भारतीय औरतों की नकारात्मक और समाज विरोधी धारणाओं की कभी आलोचनाएं नहीं लिखतीं यह त्रासद है।





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