छात्र राजनीति का महाख्यान है जेएनयू। छात्र अस्मिता की राजनीति का आरंभ सन् 65-66 में बीएचयू में समाजवादियों ने किया और जेएनयू ने उसे सन् 1972-73के बाद से नई बुलंदियों तक पहुँचाया। देश में छात्र अस्मिता और छात्र राजनीति को लोकतांत्रिक बोध देने में एसएफआई की बड़ी भूमिका रही है, खासकर जेएनयू में। जेएनयू लोकतांत्रिक छात्र राजनीति की प्रयोगशाला है। इस प्रयोगशाला के निर्माण में मार्क्सवादियों, समाजवादियों और फ्री थिंकरों की केन्द्रीय भूमिका रही है।
आमतौर पर शिक्षा का देश में जो वातावरण है वह छात्रों को सामाजिक जड़ताओं और रूढियों से मुक्त नहीं करता। इसके विपरीत जेएनयू के संस्थापकों का सपना था शिक्षा को रूढियों और सभी किस्म की वर्जनाओं से मुक्ति का अस्त्र बनाया जाए। शिक्षा केन्द्र वर्जनाओं से मुक्ति के तीर्थ बनें। जेएनयू के वातावरण में सभी किस्म की वर्जनाओं से मुक्ति का संदेश छिपा है। जेएनयू में पढ़ने वाला छात्र सामान्य प्रयत्न से सामाजिक रूढियों और वर्जनाओं से मुक्त होता है । जेएनयू की संरचना में वर्जना और अछूतभाव के लिए जगह नहीं है।
भारतीय समाज की सबसे बड़ी बाधा है वर्जनाएं ,अछूतभाव और भेदभाव की सभ्यता। जेएनयू का इसी सभ्यता के साथ विचारधारात्मक संघर्ष है। जेएनयू का वातावरण निषेधों और वर्जनाओं के वातावरण का विकल्प देता और इस विकल्प को तैयार करने में जेएनयू के छात्रों और छात्र राजनीति की केन्द्रीय भूमिका रही है। यह वातावरण किसी एक नेता, प्रशासक, संगठन आदि की देन नहीं है बल्कि सामुदायिक प्रयासों की देन है। सामुदायिक प्रयासों ने जाने-अनजाने जेएनयू की धुरी बायनरी अपोजीशन को बना दिया। यहां पर छोटा बड़ा और बड़ा छोटा बन जाता है। भेदों की अनुभूति गायब है।
भारतीय समाज में तरह-तरह के भेद हैं किंतु जेएनयू में अभेद का वैभव है। जेएनयू भेदों को समझता है किंतु मानता नहीं है। बाकी विश्वविद्यालय भेदों को समझने के साथ भेदों में जीते हैं। शिक्षा के लिए भेद और वर्जनाएं सबसे बुरी चीजें हैं। इन्हीं दोनों चीजों को जेएनयू ने निशाना बनाया है। जेएनयू वास्तव अर्थों में संस्थान है यहां प्रत्येक स्तर पर सभी वर्ग शिरकत करते हैं। खासकर छात्रों की शिरकत अभूतपूर्व है। देश के किसी भी विश्वविद्यालय में प्रत्येक स्तर पर छात्रों की शिरकत, सम्मान और साख वैसी नहीं है जैसी जेएनयू में है। फैसलेकुन कमेटियों में सभी स्तरों पर छात्रों की शिरकत और छात्रों की राय का सम्मान जेएनयू की सबसे बड़ी पूंजी है।
जेएनयू का कोई भी आख्यान छात्रों के बिना नहीं बनता। जेएनयू छात्रों की पहचान ज्ञान ,राजनीति और लोकतांत्रिक नजरिए से बनी है। लोकतंत्र की महानता का जैसा आख्यान जेएनयू ने तैयार किया है वैसा दुनिया के किसी भी देश में देखने को नहीं मिलता। जेएनयू के छात्रों के पास दुनिया को देखने का एक विशिष्ट नजरिया है,जीवनशैली और स्वायत्ताता बोध है। यही वजह है जेएनयू का छात्र भिन्न नजर आता है।
जेएनयू के वातावरण में व्यक्तित्व रूपान्तरण की अद्भुत शक्ति है। आप किसी भी पृष्ठभूमि के हों जेएनयू में दाखिला लेने के बाद बदले बिना नहीं रह सकते। व्यक्तित्व रूपान्तरण की इतनी जबर्दस्त स्वाभाविक शक्ति अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलती। आखिरकार परिवर्तन की यह शक्ति आती कहां से है ?
मैं अपने छोटे से तजुर्बे के आधार पर कह सकता हूँ कि जेएनयू की स्वाभाविक धारा में शामिल होने के बाद कोई भी छात्र और अध्यापक अपने को बदले बिना नहीं रह सकता। जो बदल नहीं पाते थे वे संग्रहालय की धरोहर नजर आते थे। बदलो या धरोहर बनो। यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां से जेएनयू का वातावरण किसी भी छात्र की जीवनशैली और नजरिए को प्रभावित करता है।
जेएनयू में सन् 1979 में जब प्रवेश परीक्षा देने आया तो सबसे पहले गंगा ढाबे पर अनिल चौधरी से परिचय हुआ। वह उस समय एसएफआई के और छात्र संघ के महासचिव थे। उनसे मिलने का प्रधान कारण था वह मथुरा के थे। मैं भी मथुरा का था। उन्होंने बड़े ही आत्मीयभाव से स्वागत किया और अनौपचारिक ढ़ंग से व्यवहार किया। अनिल के अंदाज में खासकिस्म का गर्वीला ठेठ देसी भाव था जो अपनी चाल-ढाल और बातचीत की भाषा में अभिजात्य भावबोध को चुनौती देता था। वह तीक्ष्णबुद्धि और तेजतर्रार छात्रनेता था। अनेक विलायत पलट नेता उसके नजरिए के सामने बौने नजर आते थे। समस्याओं को सुलझाने की उसकी अपनी देशी शैली थी और भाषण का स्थानीय मथुरिया अंदाज था।
मथुरिया अंदाज की विशेषता है बेबाकी मुखरता। अंग्रेजी भाषी अभिजात्य पृष्ठभूमि के लोग उसकी पारदर्शी बुद्धि की दाद देते थे। अनेक बार छात्र आन्दोलन के संकट के क्षणों में अनिल की मेधा बिजली की चमक की तरह दिखती थी, अनिल की हमदर्दी और संवेदनशीलता के सारे कॉमरेड कायल थे और अपने सुख-दुख का उसे साथी मानते थे।
आमतौर पर शिक्षा का देश में जो वातावरण है वह छात्रों को सामाजिक जड़ताओं और रूढियों से मुक्त नहीं करता। इसके विपरीत जेएनयू के संस्थापकों का सपना था शिक्षा को रूढियों और सभी किस्म की वर्जनाओं से मुक्ति का अस्त्र बनाया जाए। शिक्षा केन्द्र वर्जनाओं से मुक्ति के तीर्थ बनें। जेएनयू के वातावरण में सभी किस्म की वर्जनाओं से मुक्ति का संदेश छिपा है। जेएनयू में पढ़ने वाला छात्र सामान्य प्रयत्न से सामाजिक रूढियों और वर्जनाओं से मुक्त होता है । जेएनयू की संरचना में वर्जना और अछूतभाव के लिए जगह नहीं है।
भारतीय समाज की सबसे बड़ी बाधा है वर्जनाएं ,अछूतभाव और भेदभाव की सभ्यता। जेएनयू का इसी सभ्यता के साथ विचारधारात्मक संघर्ष है। जेएनयू का वातावरण निषेधों और वर्जनाओं के वातावरण का विकल्प देता और इस विकल्प को तैयार करने में जेएनयू के छात्रों और छात्र राजनीति की केन्द्रीय भूमिका रही है। यह वातावरण किसी एक नेता, प्रशासक, संगठन आदि की देन नहीं है बल्कि सामुदायिक प्रयासों की देन है। सामुदायिक प्रयासों ने जाने-अनजाने जेएनयू की धुरी बायनरी अपोजीशन को बना दिया। यहां पर छोटा बड़ा और बड़ा छोटा बन जाता है। भेदों की अनुभूति गायब है।
भारतीय समाज में तरह-तरह के भेद हैं किंतु जेएनयू में अभेद का वैभव है। जेएनयू भेदों को समझता है किंतु मानता नहीं है। बाकी विश्वविद्यालय भेदों को समझने के साथ भेदों में जीते हैं। शिक्षा के लिए भेद और वर्जनाएं सबसे बुरी चीजें हैं। इन्हीं दोनों चीजों को जेएनयू ने निशाना बनाया है। जेएनयू वास्तव अर्थों में संस्थान है यहां प्रत्येक स्तर पर सभी वर्ग शिरकत करते हैं। खासकर छात्रों की शिरकत अभूतपूर्व है। देश के किसी भी विश्वविद्यालय में प्रत्येक स्तर पर छात्रों की शिरकत, सम्मान और साख वैसी नहीं है जैसी जेएनयू में है। फैसलेकुन कमेटियों में सभी स्तरों पर छात्रों की शिरकत और छात्रों की राय का सम्मान जेएनयू की सबसे बड़ी पूंजी है।
जेएनयू का कोई भी आख्यान छात्रों के बिना नहीं बनता। जेएनयू छात्रों की पहचान ज्ञान ,राजनीति और लोकतांत्रिक नजरिए से बनी है। लोकतंत्र की महानता का जैसा आख्यान जेएनयू ने तैयार किया है वैसा दुनिया के किसी भी देश में देखने को नहीं मिलता। जेएनयू के छात्रों के पास दुनिया को देखने का एक विशिष्ट नजरिया है,जीवनशैली और स्वायत्ताता बोध है। यही वजह है जेएनयू का छात्र भिन्न नजर आता है।
जेएनयू के वातावरण में व्यक्तित्व रूपान्तरण की अद्भुत शक्ति है। आप किसी भी पृष्ठभूमि के हों जेएनयू में दाखिला लेने के बाद बदले बिना नहीं रह सकते। व्यक्तित्व रूपान्तरण की इतनी जबर्दस्त स्वाभाविक शक्ति अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलती। आखिरकार परिवर्तन की यह शक्ति आती कहां से है ?
मैं अपने छोटे से तजुर्बे के आधार पर कह सकता हूँ कि जेएनयू की स्वाभाविक धारा में शामिल होने के बाद कोई भी छात्र और अध्यापक अपने को बदले बिना नहीं रह सकता। जो बदल नहीं पाते थे वे संग्रहालय की धरोहर नजर आते थे। बदलो या धरोहर बनो। यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां से जेएनयू का वातावरण किसी भी छात्र की जीवनशैली और नजरिए को प्रभावित करता है।
जेएनयू में सन् 1979 में जब प्रवेश परीक्षा देने आया तो सबसे पहले गंगा ढाबे पर अनिल चौधरी से परिचय हुआ। वह उस समय एसएफआई के और छात्र संघ के महासचिव थे। उनसे मिलने का प्रधान कारण था वह मथुरा के थे। मैं भी मथुरा का था। उन्होंने बड़े ही आत्मीयभाव से स्वागत किया और अनौपचारिक ढ़ंग से व्यवहार किया। अनिल के अंदाज में खासकिस्म का गर्वीला ठेठ देसी भाव था जो अपनी चाल-ढाल और बातचीत की भाषा में अभिजात्य भावबोध को चुनौती देता था। वह तीक्ष्णबुद्धि और तेजतर्रार छात्रनेता था। अनेक विलायत पलट नेता उसके नजरिए के सामने बौने नजर आते थे। समस्याओं को सुलझाने की उसकी अपनी देशी शैली थी और भाषण का स्थानीय मथुरिया अंदाज था।
मथुरिया अंदाज की विशेषता है बेबाकी मुखरता। अंग्रेजी भाषी अभिजात्य पृष्ठभूमि के लोग उसकी पारदर्शी बुद्धि की दाद देते थे। अनेक बार छात्र आन्दोलन के संकट के क्षणों में अनिल की मेधा बिजली की चमक की तरह दिखती थी, अनिल की हमदर्दी और संवेदनशीलता के सारे कॉमरेड कायल थे और अपने सुख-दुख का उसे साथी मानते थे।
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