मंगलवार, 22 अगस्त 2017

शिक्षा किसके दवाब में है ? शिक्षा के शत्रु कौन हैं ?


      भारतीय समाज की आयरनी यह है कि सब शिक्षा लेना चाहते हैं लेकिन शिक्षा पर सोचना कोई नहीं चाहता।शिक्षा साझा समस्या है लेकिन इस पर न कोई जनांदोलन है और न किसी तरह की सामाजिक सचेतनता नजर आती है।यहां तक कि शिक्षकों और छात्रों में भी शिक्षा की समस्याओं को लेकर कोई सचेतनता और सक्रियता नहीं है।राजनीतिकदलों ने हमेशा शिक्षा को एक मृत विषय या अप्रासंगिक विषय के रुप में  व्यवहार किया है।शिक्षितों में शिक्षा संबंधी अचेतनता बताती है कि हमारा शिक्षित समाज, राजनीतिक संरचनाएँ, संसद-विधानसभा आदि  इस विषय को लेकर कितनी अचेत हैं।
     कल दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने यह फैसला लिया कि ४०० से ज्यादा प्राइवेट स्कूलों को सरकार अधिग्रहीत करेगी क्योंकि वे स्कूल सरकार की नहीं मान रहे थे और मनमानी फ़ीस वसूल कर रहे थे। कायदे से इस तरह के फैसले अन्य राज्य सरकारों को भी लेने चाहिए।दिल्ली सरकार ने पहले निजी स्कूलों को चेतावनी दी जब उन्होंने चेतावनी नहीं मानी तो सरकार ने अधिग्रहीत करने का आदेश दिया।दिलचस्प बात यह है इस खबर को मीडिया ने कहीं पर भी प्रमुखता से न छापा और न टीवी कवरेज ही मिला।शिक्षा को लेकर जो उदासीनता है यह उसका ताजा उदाहरण है। मैंने हाल ही में अपने तीस साल के टीवी अध्ययन में पहलीबार एकमात्र एनडीटीवी पर कई दिनों तक लगातार स्कूली शिक्षा की दशा पर महत्वपूर्ण सचेतनता पूर्ण टीवी टॉक शो देखा।किसी भी टीवी ने आज तक इतना व्यापक कवरेज शिक्षा पर प्राइम टाइम में नहीं दिया।
          असल में शिक्षा का विगत सत्तर सालों में बुनियादी अर्थ ही बदल गया है , जेएनयू पर जिस तरह केन्द्र सरकार,आरएसएस और कारपोरेट मीडिया ने हमला किया है उसने एक ही संदेश दिया है कि शिक्षा व्यवस्था को सरकारी दल का पिछलग्गू या भोंपू होना चाहिए।शिक्षा तकरीबन समूचे देश में आज सरकारी दल के पिछलग्गू के रुप में ही काम कर रही है।विभिन्न राज्य सरकारें अपने निहित स्वार्थी नजरिए के अनुकूल लोगों को नौकरी देती हैं और तदनुरूप पठन-पाठन भी होता है।
                 विगत सत्तर सालों में तीन तरह के उपयोगितावाद को शिक्षा में देखा गया है।पहला, राजनीतिक उपयोगितावाद,दूसरा,व्यापारी उपयोगितावाद और तीसरा ,नौकरीकेन्द्रित उपयोगितावाद।शिक्षा संबंधी नीति,परिप्रेक्ष्य और आधारभूत संरचनाओं के निर्माण संबंधी फैसले इन तीन तरह के उपयोगितावाद को केन्द्र में रखकर लिए जाते रहे हैं, इसने आम शिक्षितों के शिक्षा संबंधी अज्ञान में इजाफा किया है,शिक्षा सचेतनता को दोयम दर्जे की चेतना बनाकर रख दिया है।
            शिक्षा का बुनियादी काम उपयोगितावादी बुद्धि निर्मित करना नहीं है। शिक्षा का बुनियादी काम है सचेतन नागरिक बनाना।दिलचस्प बात यह है हम जब पढते-पढाते हैं तो उपभोगवादी दृष्टिकोण से काम लेते हैं। मांग-पूर्ति के नजरिए से कक्षा में प्रवेश करते हैं।पाठ्यक्रम पढाना है और पाठ्यक्रम पढना है।काम के सवाल और उनके उत्तर बताना -लिखाना मात्र मकसद रह गया है।छात्र ,शिक्षा और शिक्षक की इतनी सीमित भूमिका के कारण ही आज शिक्षा एकदम अप्रासंगिक होकर रह गयी है।इसने शिक्षक को दाता और छात्र को उपभोक्ता मात्र बनाकर रख दिया है।आज शिक्षक और छात्र शिक्षा के कल-पुर्ज़े मात्र होकर रह गए हैं।आज छात्र-शिक्षक सचेतन नागरिक नहीं रह गए, बल्कि उलटा हो रहा है , जेएनयू के छात्रों -शिक्षकों को सचेतन नागरिक होने के नाते,उनके समर्थक शिक्षकों और छात्रों को सारे देश में राष्ट्रविरोधी कहकर अपमानित किया जा रहा है।
            जेएनयू का इस व्यवस्था के साथ एक ही बात पर मेल नहीं बैठता , वे शिक्षा के उपयोगितावाद और दाता-उपभोक्ता वाले मॉडल को एकसिरे ठुकराते  हैं,यही वजह है कि जेएनयू आज केन्द्र सरकार,आरएसएस और कारपोरेट मीडिया के निशाने पर है। जेएनयू की खूबी है कि वहाँ शिक्षित नागरिक तैयार किए जाते हैं और यही वजह है कि सत्ताधारियों को यह बात पसंद नहीं है।जेएनयू के छात्र और शिक्षक नागरिकचेतना, नागरिक हकों और संवैधानिक सोच-समझ को लेकर शिक्षित  हैं, वे दैनन्दिन राजनीति की जटिलताओं को समझने और उनका समाधान खोजने, उसके लिए संघर्ष करने की समझ रखते हैं,वे मूढमति शिक्षितजन नहीं हैं,इस मायने में वे सारे देश से भिन्न एकदम विकसित चेतनायुक्त नजर आते हैं।जेएनयू माने सचेतन नागरिक की पहचान ,यही चीज है जो सत्ताधारियों को बेचैन किए रहती है।पहले कांग्रेसी परेशान थे अब आरएसएस परेशान है।
         शिक्षा जहाँ एक ओर नागरिकबोध पैदा करे वहीं साथ ही सामाजिक यथार्थ के अन्तर्विरोधों को गहराई से जानने की दृष्टि भी दे।इन अन्तर्विरोधों को जाने बग़ैर नागरिकचेतना नहीं बनती।जेएनयू में यह दृष्टिकोण पूरे कैम्पस के माहौल में रचा बसा है।आप किसी भी विषय के  शिक्षक और छात्र हों यह परिवेश आपको शिक्षित करेगा,अन्यत्र संस्थानों में यह चीज दुर्लभ है।अन्यत्र शिक्षा संस्थानों में "शिक्षित युवा", "कमाऊ युवा" मिलेगा ,नागरिकचेतना संपन्न नागरिक कम मिलेंगे।
             
     

सोमवार, 21 अगस्त 2017

शिक्षण की स्टीरियोटाइप शैली के खतरे


       शिक्षा में लगे लोग जाने-अनजाने जिस शैली का शिक्षण के लिए इस्तेमाल करते हैं उस पर कभी घर जाकर सोचते होंगे इस पर मुझे संदेह है।शिक्षण शैली के तीन स्टीरियोटाइप पहलू हैं, पहला , प्रस्तुति की स्टीरियोटाइप शैली, दूसरा, स्टीरियोटाइप पाठ्यक्रम, तीसरा, ज्ञान का स्टीरियोटाइप दार्शनिक नजरिया,वर्ग और राष्ट्र का स्टीरियोटाइप नजरिया।पढाते समय इन तीनों ही किस्म के स्टीरियोटाइप से बचने की जरूरत है।
      शिक्षण सर्जनात्मक होता है,वह तयशुदा चीजों और बातों से शुरु तो हो सकता है लेकिन उसका लक्ष्य तयशुदा लक्ष्य को प्राप्त करना नहीं है,बल्कि तयशुदा से परे जाकर नए की खोज करना उसका लक्ष्य है,तयशुदा के बारे में सवाल खडे करना, संवाद-विवाद पैदा करना । यदि स्टीरियोटाइप फ्रेमवर्क में ही चीजें पेश की जाती  हैं तो संवाद पैदा नहीं होगा।सवाल खडे नहीं होंगे।खोज और जिज्ञासा की भावना पैदा नहीं होगी।खोज और जिज्ञासा की भावना के बिना आप आधुनिक नहीं बन पाएँगे, यही वजह है  हमारी शिक्षा पूर्व-आधुनिक मनोभावों और मूल्यों से मुक्त नहीं करती।कहने का मतलब यह कि स्टीरियोटाइप नजरिया और अभ्यास शिक्षक और छात्र दोनों को नुकसान पहुँचाता है।
         हिंदी फिल्मों में ऐसी फ़िल्में बनी हैं जो स्टीरियोटाइप को चुनौती देती हैं.मसलन् , "तारे जमीन पर" (२००७) में ऐसा शिक्षक है जो एकदम खुले दिमाग का है और पूर्वाग्रहों से रहित है।" मैं हूं ना" (२००४)फिल्म में शिक्षक -छात्र मित्रता पर जोर है।शिक्षक बोरिंग नहीं होता। "चक दे इण्डिया" (२००७)में शिक्षक की भूमिका है टीम को एकजुट करने की,"थ्रीइडियट"(२००९) में बोमन ईरानी (वीरू सहस्त्रबुद्धे ,शिक्षक का नाम) जीनियस और अहंकारी शिक्षक है, वहीं आमिर खान (रांचो)का चरित्र है जो लगातार यही बताता है कि डिग्रियाँ कहीं नहीं ले जातीं।असली ज्ञान तो क्लास रुम और किताबों के बाहर है।"ब्लैक" फिल्म में अमिताभबच्चन ( देवराज सहाय) बताता है कि शिक्षक किस तरह अर्थपूर्ण जीवन बना सकता है।इसी तरह "मोहब्बतें" फिल्म में जोर है कि शिक्षक को नरमदिल होना चाहिए तब ही वह छात्रों की संवेदनाएँ समझ सकता है।

शिक्षा में साम्प्रदायिकता और स्टीरियोटाइप

 
           आप देश में कहीं पर भी जाइए आपको विश्वविद्यालयों और कॉलेज शिक्षकों में एक बड़ा तबक़ा मिलेगा जो सहज और स्वाभाविक तौर पर साम्प्रदायिकचेतना और जातिचेतना संपन्न है । स्थानीय तौर पर अनेक मसलों पर ये लोग साम्प्रदायिक या जातिवादी नजरिए से सोचते हैं । इस तरह की चेतना कांग्रेस के जमाने में भी थी और आज भी है।लेकिन भाजपा-आरएसएस का प्रचार यह है कि विश्वविद्यालय और कॉलेज शिक्षकों में वामदलों का , वाम विचारधारा का वर्चस्व है।आरएसएस का यह प्रचार एकदम निराधार और सफेद झूठ है।मैं जब पढता था तब और जब पढाने लगा तब भी अधिकांश शिक्षकों में साम्प्रदायिक और जातिवादी चेतना के मैंने जेएनयू से लेकर कलकत्ता विश्वविद्यालय तक साक्षात दर्शन किए हैं।सवाल यह है शिक्षकों में यह चेतना कहाँ से आती है? हम अपनी शिक्षा और शिक्षकों को साम्प्रदायिक और जातिवादी चेतना से मुक्त क्यों नहीं कर पाए ? असल में हमारी शिक्षा परिवर्तन विरोधी है , परिवर्तनकामी को शिक्षा में शक की नजर से देखते हैं।
          एक अन्य बुनियादी सवाल यह है कि क्या हमारे विश्वविद्यालय और कॉलेज तर्क और विवेक के आधार पर चल रहे हैं या स्टीरियोटाइप नजरिए से चल रहे हैं ? शिक्षक अपने विद्यार्थियों को तर्क,विवेक और वैज्ञानिक नजरिए से पढाते हैं या स्टीरियोटाइप नजरिए से पढाते हैं? अंदर की हकीकत यह है कि हम अपने विद्यार्थी को स्टीरियोटाइप पद्धति से पढाते हैं।वास्तविकता यह है कि हमारे विकास और परिवर्तन की गारंटी स्टीरियोटाइप नजरिया नहीं है। हमें यदि बदलना है और नया समाज बनाना है तो तर्क और विवेक के आधार पर चीजों को देखने,समझने और परखने के संस्कार पैदा करने होंगे।ये चीजें ही शिक्षा की सार्थकता की गारंटी हैं।
         विश्वविद्यालय और कॉलेज का नाम आते ही  पहला शब्द ज़ेहन में आता है वह है ज्ञान या नॉलेज।सवाल यह है हम ज्ञान कैसे अर्जित करते हैं ? ज्ञान कैसे संप्रेषित करते हैं ? जानना या खोज की भूख पैदा करना बेहद जरुरी है लेकिन हमारा समूचा पठन -पाठन ज्ञान की भूख पैदा नहीं करता,खोज की इच्छा पैदा नहीं करता इसके विपरीत हमने यह मान लिया है कि हमें किसी तरह डिग्री हासिल करनी है, नौकरी हासिल करनी है और इसके लिए जितना जरुरी है उतना ही पढो, रट लो और फिर काम पर निकल लो! यानी ज्ञान के साथ हमने प्रयोजनमूलक संबंध बनाया है ज्ञानकेन्द्रित संबंध नहीं बनाया है।शिक्षा में प्रयोजनमूलक दृष्टि हमें पुराने संस्कारों ,मूल्यों और संबंधों से मुक्त करने में मदद नहीं करती यही वजह है कि हम जैसे पढने आते हैं डिग्री पाने के बाद भी वैसे ही बने रहते हैं। यही दशा शिक्षकों की भी है। वे शिक्षित होकर भी अवैज्ञानिक बातें करते हैं, तर्कहीन और अविवेकपूर्ण बातें करते हैं ,अपरिवर्तित बने रहते हैं। 
       असली शिक्षा वह है जो मनुष्य को बदले, मनुष्य के अंदर बैठे पशुबोध को नष्ट करे। लेकिन वास्तविकता यह है कि हम न तो बदलते हैं और न हमारे अंदर का पशुबोध मरता है बल्कि शिक्षित होने के बाद यह  प्रबल और शक्तिशाली हो जाता है।यथास्थिति बनी रहती है और इसे बनाने में स्टीरियोटाइप पठन-पाठन की केन्द्रीय भूमिका है।यही वह बुनियादी जगह है जहाँ पर साम्प्रदायिक और जातिवादी चेतना फल-फूल रही है।
        

रविवार, 20 अगस्त 2017

मोदीमोह के छंद से गुज़रते हुए



     प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब भी बोलते हैं तो सवा सौ करोड़ भारतवासियों को सम्बोधित करके बोलते हैं।वे हर इलाके में प्रचलित समस्या को उठाते हैं और उसे स्थानीय भावनाओं से जोड़ते हैं।फलत:मंच पर वे राजनीतिक तौर पर सही नजर आते हैं, सुनने वाला यही कहता है  मोदीजी सही बोल रहे हैं।इस क्रम में जहाँ वे समस्या की ओर व्यापकतम जनता के तबक़ों का ध्यान खींचने में सफल हो जाते हैं वहीं दूसरी ओर जनता को मंत्रमुग्ध कर लेते हैं।
      मोदी के प्रचार में मंत्रमुग्ध करना ही सबसे प्रमुख चीज है। स्थिति यह है सभी विपक्षी नेता तक उनकी भाषणकला का लोहा मानते हैं।मंत्रमुग्ध करने के बाद उनका असली खेल आरंभ होता है ।वह श्रोताओं को बहलाना-फुसलाना शुरू कर देते हैं।वे मंत्रमुग्ध भावबोध को वोट देने की मंशा से जोड़ देते हैं,भाजपा-आरएसएस के लक्ष्यों से जोड़ देते हैं।इस क्रम में जनता यह भूल जाती है कि भाजपा-आरएसएस ने वर्तमान या अतीत में क्या किया ।यही वजह है कि मोदी के राष्ट्रीय क्षितिज पर आने के बाद भाजपा-आरएसएस के वर्तमान और अतीत के कर्म-कुकर्मों पर बहस ही नहीं होती, उसके जनविरोधी -साम्प्रदायिक चरित्र पर बहस नहीं होती।
     मंत्रमुग्ध करके बहलाने-फुसलाने की कला के कारण हमेशा चीजें भविष्य की ओर ठेली जा रही हैं। मोदीजी जो कुछ करेंगे वह भविष्य में सामने आएगा, वर्तमान में उसे मत खोजो।राजनीतिक लक्ष्यों को अर्जित करने को वर्तमान की बजाय भविष्य में ठेलना अपने आपमें सबसे बडा अविवेकवाद है।लेकिन आम जनता को यह अविवेकवाद नजर ही नहीं आता।
   मोदी और आरएसएस का सारा जोर आक्रामक प्रचार अभियान पर है जिससे वे अपनी असफलताओं को आम जनता से छिपाने में सफल रहे हैं।मसलन जो उन्होंने चुनावी वायदे किए थे उनको वे आजतक पूरा नहीं कर पाए ,लेकिन जनता इस सब पर बहस ही नहीं कर रही, वह तो मोदीमोह में डूबी है और सुंदर भविष्य का इंतजार कर रही है, आम जीवन में सामाजिक-आर्थिक तौर पर जो गिरावट आई है उस पर समाज में कहीं पर बहस नहीं हो रही और सारी जनता भविष्य के हवाले कर दी गयी है, यह मोदी के प्रचार अभियान की सबसे बडी सफलता है।
        हम सब जानते हैं कि कांग्रेस और यूपीए की जनविरोधी नीतियों से जनता परेशान थी उसने मजबूरी में , विकल्प के अभाव में भाजपा-मोदी को वोट दिया था।मोदी आम जनता की रेशनल पसंद नहीं हैं बल्कि वे मजबूरी में , विकल्प के अभाव में सत्ता में आए हैं।वहीं दूसरी ओर मोदी के प्रचार अभियान ने विकल्प बनाने में मदद की।
        प्रचार अभियान के जरिए दो तरह के लोगों को ख़ासतौर पर निशाना बनाया गया।एक तरफ भाजपा-आरएसएस के समर्थकों को निशाना बनाया गया वहीं दूसरी ओर तटस्थ  मतदाताओं को निशाना बनाया।इसके लिए बृहत्तर जन आकांक्षाओं को प्रचार अभियान के केन्द्र में रखा गया।
        मोदी के प्रचार अभियान के प्रभाव को उनको मिले वोट की तराज़ू में नहीं तोलना चाहिए, कहने उनको मात्र ३१ प्रतिशत वोट मिले हैं, लेकिन उनके प्रचार के असर को देखना हो तो यहां से देखो कि उन्होंने भाजपा और आरएसएस के बारे में जनता का नजरिया ही बदल दिया।उन्होंने जितने भी राजनीतिक एक्शन किए उसकी संगति में प्रचार मशीन को सक्रिय रखा जिसका उनको लाभ मिला।मसलन् लवजेहाद,गऊ रक्षा, जेएनयू आदि के बारे में उनके राजनीतिक एक्शन को आम लोगों में व्यापक समर्थन मिला जबकि ये तीनों मसले एकसिरे से जनविरोधी और संविधान विरोधी फ्रेमवर्क में चलाए गए।आम लोगों में इन तीनों मसलों पर या तो संघ परिवार के साथ सहमति नजर आई या फिर लोगों ने प्रतिवाद को गंभीरता से नहीं लिया।

शनिवार, 19 अगस्त 2017

नायक के लिए तरसता समाज


   अजीब तर्क दिया जा रहा है वे कह रहे हैं विपक्ष के पास कोई चेहरा नहीं है, कोई ऐसा नेता नहीं है जो मोदीजी का विकल्प हो!यह असल में उनका तर्क है जो नायक के सहारे समाज की मुक्ति के दिवा-स्वप्न देखते हैं। नायक केन्द्रित मनोदशा हमारी राजनीति की रही है उसने नायक पूजा को सबसे बड़ा बनाया है। अभावों में जीने वाले लोग हमेशा नायक में मुक्ति की खोज करते  हैं, हमारे समाज की बुनावट भी कुछ ऐसी है कि हमें नायक के बिना नींद नहीं आती, बस नायक मिल जाए तो हम चैन की नींद सोएँ! 
      सवाल यह है नायक की तलाश करके हम जाना कहाँ चाहते हैं ? किस तरह का समाज बनाना चाहते हैं ? नायक पूजा की संस्कृति निर्मित करके हमने देश को शक्तिशाली बनाया या खोखला ?क्या भारत को नायक चाहिए या विकल्प में कुछ और चाहिए ? आमतौर पर वैचारिक संकट के समय नायक की तलाश सबसे ज्यादा करते हैं, हम अच्छे विचार नहीं खोजते,अच्छे मूल्य नहीं खोजते ,अच्छी नीति नहीं खोजते,उलटे नायक खोजते हैं, चाहे नायक मूल्यहीन हो।
       नायक खोजने की आदत समाज में परजीविता की गहरी जड़ों को रेखांकित करती है।हमें जब राजनीति के नायक से बोरियत होने लगती है तो हम फ़िल्मी नायक से दिल बहलाने लगते हैं।नायक की आड़ में जीने और आनंद लेने की मानसिकता बुनियादी तौर पर वैचारिक और सांस्कृतिक दरिद्रता की प्रतीक है।हमें हर हालत में नायक पूजा से बचना चाहिए।नायक पूजा हमारे आलोचनात्मक विवेक को सबसे पहले अपहृत करती है।हम मूल्यों पर बहस नहीं कर रहे, नीतियों पर संवाद-विवाद नहीं कर रहे, बल्कि नायक पर विवाद कर रहे हैं। 
     भारत में नायक का विचार अजर,अमर है।दिलचस्प बात है एक नायक के जाते ही हठात् दूसरा नायक हमारी आँखों के सामने आ बैठता है।कल तक जो नायकपूजा के रुप में इंदिरा गांधी से  नफरत करते थे वे ही नायक के रुप में नरेन्द्र मोदी की अहर्निश पूजा कर रहे हैं।मोदी में उन्होंने तकरीबन वे सारे गुण खोज लिए हैं जिन गुणों के लिए वे इंदिरा गांधी की आलोचना कर रहे थे। दिलचस्प बात यह है कि मोदी अनेक मामलों में   इंदिरा गांधी के अनुयायी नजर आते हैं।मसलन् इंदिरा गांधी ने नक्सलवाडी आंदोलन को कुचलने के नाम पर बंगाल के युवाओं की बडे पैमाने पर हत्याएँ कीं , ठीक यही हालात कश्मीर में मोदीजी ने किए हैं,निर्दोष कश्मीरी आए दिन में मारे जा रहे हैं, १९७२-७७ केबंगाल के अर्द्ध फासी आतंक को लेकर सारे देश में बेगानापन था यहां तक कि बाबू जयप्रकाश नारायण से ज्योति बसु ने कहा कि हमारे बंगाल में जुल्म हो रहा है विधानसभा चुनावों में व्यापक धाँधली हुई है तो  बाबू जयप्रकाश नारायण को विश्वास नहीं हुआ,सन् १९७२ में बंगाल में विधानसभा चुनाव में भयानक धाँधली हुई और सिद्धार्थ शंकर राय मुख्यमंत्री बने, बंगाल में नक्सलवाडी आंदोलन से लेकर १९७७तक कई हजार वाम युवा पुलिस की गोलियों के शिकार हुए।ठीक वही पैटर्न कश्मीर और बस्तर में चल रहा है।
       मूल मुद्दा यह है कि भारत को नायक खोजने की बीमारी से कैसे छुट्टी दिलाई जाए।हम सबको नायक केन्द्रित राजनीति की बजाय जनराजनीति पर जोर देना चाहिए। जनता को शिक्षित करना चाहिए , जनता की समस्याओं को प्रमुखता से केन्द्र में रखना चाहिए। 
       हमारी राजनीति में जनता की समस्याएँ केन्द्र में नहीं रहतीं नायक केन्द्र में रहता है।नायक के केन्द्र में रहने का अर्थ है जनता की समस्याओं का चेतन जगत में अंत, हम समस्याओं पर सोचना बंद कर देते हैं, नायक के भाषण, कपड़े, मीडिया जलवे, शोहरत के झूठे क़िस्सों में समय व्यतीत करने लगते हैं। 
      मोदी के प्रचार की सबसे बडी विशेषता है कि उसने सार्वजनिक जीवन से बुनियादी समस्याओं पर बहस को गायब कर दिया है और हम सब मोदी के जश्न और शोहरत के क़िस्सों में व्यस्त हो गए हैं। नायक के रुप में मोदी के भाषण,जश्न,जलसों और शोहरत से आम जनता के जीवन में ख़ुशहाली आने वाली नहीं है, ये सारी चीजें तो मोदी मोह में बाँधे रखने की कला के नुस्ख़े हैं।

शुक्रवार, 18 अगस्त 2017

कैंसर है मोदीमोह !




अब बेचारे बेरोज़गार गाली खाएँ।मोदीजी को बेकारी नजर नहीं आ रही , बेकारी का हल्ला करने वालों को वे बेकारों का दलाल कह रहे हैं।वे रोजगार देने वाली कोई नई स्कीम लागू नहीं कर पाए उलटे जितनी स्कीम उन्होंने लागू की हैं , नए कानून बनाए हैं ,उनसे बेकारी बढी है।इसी को कहते हैं चौपट राशि प्रधानमंत्री!
        मसलन् , पीएम ने हाल ही में एनपीए यानी बैंकों का बडी कंपनियों से क़र्ज़ा वसूल करने के लिए कानून लागू किया जिसके तहत क़र्ज़ा भुगतान न करने वाली कंपनियों से वसूली होनी थी लेकिन इस कानून के लागू होते ही इंफ़्रास्ट्रक्चर की कंपनियां आवेदन लेकर चली आईं कि वे बैंकों का क़र्ज़ा चुकाने की स्थिति में नहीं हैं।परिणाम सामने हैं आम्रपाली और जेपी इंफ़्रास्ट्रक्चर को पैसा दे चुके हजारों लोगों का अपना घर बनाने का सपना चूर चूर हो गया वे करोडों के बैंक कर्ज में डूब गए,वे कह रहे हैं हम बैंकों की किश्त देने की स्थिति में नहीं हैं।इससे बैंकों का एनपीए कम होने की बजाय और बढ़ेगा ।वहीं दूसरी ओर कंपनियों का क़र्ज़ा ठिकाने लगा दिया जाएगा उनको दिवालिया घोषित कर दिया जाएगा दूसरी ओर मध्यवर्ग को न तो घर मिलेगा और न बैंकों से राहत मिलेगी । एक अन्य परिणाम यह भी निकलेगा कि भवन निर्माण में सन्नाटा गहराता चला जाएगा।हम अपील करेंगे कि मोदीमोह से निकलो यह कैंसर की तरह है।
   मोदीमोह में जो वर्ग फँसा वह मौत के मुँह में गया ।मोदी मोह में व्यापारी और दुकानदार सबसे पहले फँसे वे आज सबके सब मोदीमोह की पीडा से करो रहे हैं, इनमें सबसे पहले सोने के व्यापारी मोदी कैंसर के शिकार हुए , बाद में नोटबंदी और जीएसटी ने समूचे व्यापार को मोदी कैंसर की चपेट में ले लिया, दूसरे चरण में मोदी कैंसर ने जिओ कनेक्शन के जरिए समूचे दूरसंचार उद्योग को तबाही के कगार पर पहुँचा दिया है,पतंजलि के बहाने समूचे घरेलू वस्तु बाजार कंपनियों को मोदी कैंसर के हवाले कर दिया है। पतंजलि खुलेआम मिलावटी सामान बेच रहा है ।
     युवाओं में मोदीमोह ने अविवेक और असभ्यता को वैध बनाया है।घरेलू महिलाओं में राष्ट्रवादी हिंसा और घृणा के प्रति प्रेम पैदा किया है।राष्ट्रीय फिनोमिना के रुप में मोदीमोह ने छद्म यथार्थ में जीने के संस्कार पैदा किए हैं।वहीं दूसरी ओर जनता की सुनने और समझने की क्षमता का  अपहरण कर लिया है।

बुधवार, 16 अगस्त 2017

फासिज्म का नया मुहावरा



मोदी ने फासिज्म को नया रुप दिया है उसने हिंदुत्व को सर्वोपरि स्थान दिया है देश -विदेश सब जगह हिंदुत्व के फ्रेमवर्क में चीजों को पेश किया है। हिंदू मिथकों और मिथकीय पात्रों को सामान्य अभिव्यक्ति का औज़ार बनाया है। हिंदू नैतिकता को महान नैतिकता बनाया है और उसके कारण  देश में हिंदुत्व का माहौल सघन हुआ है।दूसरा बडा परिवर्तन यह कि किया है उसने "सर्जिकल स्ट्राइक " या "युद्ध "इन दो पदबंधों को हिंदुत्व की नैतिकता बना दिया है।अब हर चीज के खिलाफ मोदीजी "सर्जिकल स्ट्राइक "कर रहे हैं या "युद्ध "कर रहे हैं।मसलन् , कालेधन के खिलाफ सर्जीकल स्ट्राइक, गंदगी के खिलाफ युद्ध , गरीबी के खिलाफ युद्ध आदि पदबंध  आए दिन सत्तातंत्र के प्रचार के रुप में कारपोरेट मीडिया हमारे ज़ेहन में उतार रहा है। वे "सर्जीकल स्ट्राइक'' या "युद्ध" के नाम पर सभी किस्म के वैचारिक मतभेदों को अस्वीकार कर रहे हैं।वे मांग कर रहे हैं कि वैचारिक मतभेद बीच में न लाएँ ।वे यह भी कह रहे हैं यह बहस का समय नहीं है ,काम करने का समय है बहस मत करो, सवाल मत करो, सिर्फ सत्ता का अनुकरण करो।
   एक जमाना था आम आदमी साम्प्रदायिक विचारों से नफरत करता था अपने को उनसे दूर रखता था लेकिन आज स्थिति गुणात्मक तौर पर बदल गयी है, आज साम्प्रदायिक विचारों से आम आदमी नफरत नहीं करता बल्कि उससे जुड़ना अपना सौभाग्य समझता है।कल तक धार्मिक पहचान मुख्य नहीं थी लेकिन आज दैनन्दिन जीवन में वह प्रमुख होउठी है, पहले जाति पूछने में संकोच करते थे आज खुलकर जाति पूछते हैं।
       आज फासिज्म वह है जो आपको पसंद नहीं है।आज आप पुरानी फासिज्म की अवधारणाओं के आधार पर उसे समझा नहीं सकते।मसलन् मोदीभक्तों और मोदी सरकार को जो पसंद नहीं है उसे वे  मानने को तैयार नहीं हैं। वे सिर्फ इच्छित बात ही सुनना चाहते हैं। अनिच्छित को इन लोगों ने फासिज्म बना दिया है।यह ओरवेलियन परिभाषा है कि जो बताती है अनिच्छित है वह फासिज्म है।

नए किस्म का फासिज्म



फासिज्म के मायने क्या हैं इस पर भारत में बहुत बहस है और इस बहस में बड़े बड़े दिग्गज उलझे हुए हैं लेकिन आजतक उसकी कोई सर्वमान्य परिभाषा तय नहीं कर पाए हैं। फासिज्म वह भी है जो हिटलरऔर मुसोलिनी ने किया , फासिज्म वह भी जो आपातकाल में श्रीमती इंदिरा गांधी ने किया,फासिज्म का एक रुप वह भी है जो पीएम नरेन्द्र मोदी कर रहे हैं। मोदी के फासिज्म की लाक्षणिक विशेषताएँ भिन्न हैं। मोदीजी का फासिज्म विकास और गरीब के कंधों पर सवार है लेकिन इसके प्रशासन के संचालक  कारपोरेट घराने हैं।इसकी धुरी है मीडिया प्रबंधन और राज्य के संसाधनों की खुली लूट ।यह अपने विरोधी को राष्ट्रद्रोही , राष्ट्र विरोधी कह कहकर कलंकित करता है,इसके पास मीडिया और साइबर मीडिया की बेशुमार ताकत है।यह ऐसी सत्ता है जो किसी की आवाज नहीं सुनती बल्कि सच यह है यदि जीना चाहते हैं तो सिर्फ उसकी आवाज़ें सुनो।मोदी के शासन में आने के बाद से अहर्निश मोदी की सुनो,मोदी के भक्तों की सुनो।दिलचस्प पहलू यह है कि इस समय मोदी और भक्तों के अलावा कोई नहीं बोल रहा ।सब लोग इनकी ही सुन रहे हैं । जनता बोल नहीं रही। वो सिर्फ सुन रही है और आज्ञा पालन कर रही है।हमारे जैसे लोग जो कुछ कह रहे हैं उसे न तो जनता सुन रही है और  न सत्ता सुन रही है सिर्फ हम ही अपनी आवाज सुन रहे हैं।हम तो सहमत को सुना रहे हैं । अपने ही हाथ से अपनी पीठ ठोक रहे हैं। जब जनता न सुने , सरकार न सुने, संवादहीनता हो तो समझो फासिज्म के माहौल में जी रहे हैं।इस माहौल को पैदा करने के लिए प्रत्यक्षत: हक छीनने , या संविधान को स्थगित करने या बर्बर हमले करने की जरूरत नहीं है।

गुरुवार, 10 अगस्त 2017

सोनिया गांधी का मतलब



         पिछले तीन सालों से देश में जो कुछ चल रहा है उसके प्रतिवाद के संदर्भ में सोनिया गांधी की राजनीतिक भूमिका फिर से महत्वपूर्ण हो उठी है।सोनिया गांधी ने मोदी की आँधी में जिस तरह लोकसभा का चुनाव जीता और नियोजित ढंग से कांग्रेस के मूल स्वभाव को बदलने की दिशा में  कदम उठाए हैं वे इस बात को पुष्ट करते हैं कि सोनिया गांधी देश की राजनीति में सामान्य नेत्री नहीं हैं।सोनिया गांधी में कांग्रेस को जोड़े रखने की क्षमता है।साथ ही देश के विकास का एजेण्डा भी तय करने की क्षमता है। यह सच है कांग्रेस को जितना आक्रामक होना चाहिए वह उतनी आक्रामक नजर नहीं आ रही लेकिन यह भी बडा सच है कि कांग्रेस के नए कलेवर के निर्माण के लिए सोनिया गांधी का नेतृत्व में बने रहना भी जरूरी है। पिछले तीन सालों में सबसे ज्यादा राजनीतिक हमले सोनिया गांधी झेलती रही हैं लेकिन उन्होंने कभी उफ़ तक नहीं की। उन्होंने जितनी बार बोला है देश के सच को बयां किया है।लोकतंत्र के लिए वह नेता मूल्यवान होता है जो सच बोलता है, सोनिया गांधी सच बोलती हैं और सच में जीती हैं यह उनकी सबसे बडी ताकत है।
         सोनियागांधी के चरित्र हनन की जिस तरह कोशिशें हुई हैं उससे उनके व्यक्तित्व पर कोई असर नहीं पडा उलटे वे ताकतवर होकर निकली हैं। सोनिया गांधी कम बोलती हैं लेकिन प्रासंगिक बोलती हैं। वे नियमित संसद जाती हैं वहाँ बैठकर सारी बहस सुनती हैं, इसके विपरीत मोदीजी संसद में न्यूनतम समय भी नहीं बैठते। संसद उनके लिए फालतू चीज है। मोदी के लिए संसदीय परंपराओं और संवैधानिक मान्यताएँ अवसरवादियों के खेल की तरह है वहीं सोनिया के लिए ये प्राणवायु हैं।

भारत के मुसलमान दुनिया के मुसलमानों से भिन्न हैं

      


भारत में हिंदुओं और मुसलमानों ने अन्य समुदायों के साथ मिलकर स्वाधीनता संग्राम लड़ा, संसदीय जनतंत्र चुना, भारत के अधिकांश मुसलमानों ने भारत विभाजन को अस्वीकार करके भारत में रहकर लोकतंत्र के विकास में भूमिका निभाने का फैसला किया । लोकतंत्र का मार्ग मुसलमानों का चुना मार्ग है ,यह साम्प्रदायिक ताकतों के द्वारा निर्मित मार्ग नहीं है। बल्कि साम्प्रदायिक ताकतें तो एकजुट भारत के खिलाफ १९४७ के पहले भी थीं और १९४७ के बाद भी रही हैं। 
        भारत के मुसलमानों ने हमेशा भारत के संविधान को माना और संसदीय लोकतंत्र को पुख्ता बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है ।भारत के मुसलमानों ने कभी साम्प्रदायिकता के आधार पर न तो वोट दिया और न कभी साम्प्रदायिक नेताओं को संसद और विधानसभा में चुनकर भेजा ।इसके बावजूद मुसलमानों के विकास के लिए लोकतंत्र में जिस तरह की सुविधाएँ और समान अवसर होने चाहिए  मनमोहन सरकार के पहले तक किसी सरकार ने उनका ख्याल नहीं किया । 
पहलीबार सच्चर कमीशन की रिपोर्ट आने के बाद विस्तार से पता चला कि आजादी के चालीस साल बाद भी मुसलमानों के सामाजिक  -शैक्षणिक-आर्थिक हालात बेहद खराब हैं। यहां तक कि वामशासन वाले पश्चिम बंगाल में तो सबसे ज्यादा खराब थे।इसलिए यह कहना कि मुसलमानों के लिए कांग्रेस और वाम ने महत्वपूर्ण काम किए हैं यह सही नहीं है। पहलीबार सच्चर कमीशन ने हमारे सिस्टम में निहित मुसलिम विरोधी भावों को उजागर किया।इसके बाद यूपीए सरकार ने मनमोहन सिंह के नेतृत्व में १५सूत्री कार्यक्रम लागू किया। आरएसएस के मुसलिम विरोधी प्रचार से अप्रत्यक्षतौर पर कांग्रेस और वाम कहीं न कहीं प्रभावित रहे हैं , मुसलिम तुष्टीकरण का उन पर संघ का आरोप बेबुनियाद है।सच्चाई यह है कि अधिकांश मुसलमान बहुत ही खराब अवस्था में आज भी रह रहे हैं। मुसलिम तुष्टीकरण का नारा लगाकर आरएसएस हमेशा मुसलमानों के हकों पर हमले करने की कोशिश करता रहा है।
       भारत के मुसलमान बाकी दुनिया के मुसलमानों से वैचारिक तौर पर भिन्न रहे हैं, यह वैचारिक भिन्नता आधुनिककाल में ही नहीं दिखती बल्कि मध्यकाल में भी दिखती है। बाकी दुनिया के मुसलिम शासकों और भारत के मध्यकालीन मुसलिम शासकों के विचारों में बुनियादी अंतर है,इसके कारण आधुनिककाल में भी मुसलमानों में अंतर चला आया, बाद में आधुनिककाल के मुसलिम विचारकों और स्वाधीनता सेनानी मुसलमानों में बाकी समाज के साथ मिलकर उदारतावाद को मज़बूत बनाने और देश में उदारतावाद का माहौल बनाने का फैसला किया, यह परंपरा बाकी दुनिया में मुसलिम देशों में नजर नहीं आती। 
    दूसरी बात यह कि मुसलमानों का भारत में एक ही विचारधारा की ओर रूझान कभी नहीं रहा, उनमें उदार,धार्मिक,क्रांतिकारी और अनुदारवादी किस्म के लोग और संगठन  रहे हैं, इसके बावजूद बहुसंख्यक मुसलमान उदारवादी रहे हैं। इसलिए मुसलमानों को एक ही विचारधारा के दायरे में रखकर नहीं देखना चाहिए।मुसलमानों में भी विचारों की बहुलता है।अफसोस की बात यह है कि हम मुसलमानों को न तो जानना चाहते हैं और न उनके यथार्थ को देखना चाहते हैं।उलटे आरएसएस के प्रचार को सच मानकर चलते हैं। सच यह है मुसलमानों के यथार्थ जीवन को लेकर आरएसएस कुछ नहीं जानता ,वह साम्राज्यवादी ताकतों के मुसलमान विरोधी प्रचार माल को ही हमारे सामने परोसता रहता है।
        आरएसएस और उसके भोंपू मीडिया में चल रहे मुसलिम रूढिबद्ध प्रचार अभियान को एकसिरे से ठुकराने की जरूरत है।मुसलमान भी इस देश के नागरिक हैं, उनके सुख-दुख भी हिंदुओं जैसे होते हैं, वे सतह पर भिन्न हो सकते हैं लेकिन अंदर से तो भारतवासी हैं। सवाल यह है ऊपर की धार्मिक पहचान को हम क्यों अहमियत देते हैं ? मुसलमान तो मनुष्य हैं जैसे हिंदू मनुष्य हैं।हम सभी लोगों को मनुष्य के रुप में देखें। कोई यदि अपने को हिंदू कहे या मुसलमान, हमें उसके प्रति मित्रता और भाईचारे का भाव रखना चाहिए।
         यह सच है देश में इस समय सत्ता का आतंक और भय छाया हुआ है लेकिन इस भय को मित्रता और शिरकत से तोड़ सकते हैं। राजनीतिक खेमेबाज़ी से यह चीज हासिल नहीं हो सकती।

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