मंगलवार, 29 जून 2010

उत्तर आधुनिकतावाद क्या है ?


उत्तर-आधुनिकतावाद को वृध्द पूंजीवाद की सन्तान माना जाता है।पूंजीवाद के इजारेदाराना दौर में तकनीकी प्रोन्नति को इसका प्रमुख कारक माना जाता है। विश्व स्तर पर साम्राज्यवादी दखलंदाजी के बढने के बाद से आर्थिकतौर पर अमरीकी प्रशासन की दुनिया में दादागिरी बढी है।


इसके अलावा जनमाध्यमों ; संस्कृति; सूचना प्रौद्योगिकी , और विज्ञापन की दुनिया में आए बदलावों के कारण दुनिया में अधिरचना में निर्णायक परिवर्तन हुए हैं।इन परिवर्तनों के कारण आम नागरिकों की जीवन शैली में बुनियादी बदलाव आया है। आम लोगों के दृष्टिकोण में नए लक्षण दिखाई दे रहे हैं। इस तरह के चौतरफा परिवर्तन पहले कभी देखे नहीं गए। भारत में इन परिवर्तनों के कारण जिस तरह के बदलाव आए हैं उनकी सही ढंग से मीमांसा करने की जरूरत है।

उत्तर-आधुनिक विमर्श की शुरूआत संस्कृति के क्षेत्र से हुई।यही वजह है कि इसकी शैतानियों का जन्म भी यहीं हुआ। आज भी विवाद का क्षेत्र यही है। प्रश्न उठता है कि संस्कृति के क्षेत्र में ही यह उत्पात शुरू क्यों हुआ ?असल में संस्कृति का क्षेत्र आम जीवन की हलचलों का क्षेत्र है और साम्राज्यवादी विस्तार की अनन्त संभावनाओं से भरा है। पूंजी; मुनाफा; और प्रभुत्व के विस्तार की लड़ाईयां इसी क्षेत्र में लडी जा रही हैं। जैसा कि सभी उत्तर -आधुनिक आलोचकों का मानना है कि उसकी एक सुनिश्चित परिभाषा संभव नही है। यही वजह है कि कोई उसे उत्तर- आधुनिकता का तर्क कहता है । कोई उसे छलना कहता है। किसी के लिए चिह्नों की लीला है। किसी के लिए सांस्कृतिक हमला है। किसी के लिए सांस्कृतिक तर्क है। किसी के लिए तर्क का अन्त है। किसी के लिए इतिहास का अन्त है। किसी के लिए विखंडन है। किसी के लिए विकेन्द्रण है। किसी के लिए बहुलतावाद है । किसी के लिए महावृत्तान्त का अन्त है।

रिचर्ड रोर्ती के शब्दों में उत्तर-आधुनिकता ''विडम्बनात्मक सैद्धांतिकी'' है जो हर शाश्वत सत्य और अनिवार्यताओं की खोज के विरूद्ध है। जो किसी भी एक व्याख्या या निष्कर्ष की योजना को चुनौती है। इसका आशय यह है कि इसमें अराजकता की दिशा में चले जाने का खतरा भी है। उत्तर-आधुनिक इसे रेडीकल तत्व कहते हैं।

उत्तर- आधुनिकों में ल्योतार का नाम सबसे आगे है; वह उत्तर-आधुनिकता को आधुनिकता से जोड़कर देखता है। उसी का विस्तार मानता है। सुधीश पचौरी ने लिखा है कि ''वे मानते हैं कि बहुत से उपकेन्द्र उपलब्ध हैं जिनमें झगडे हैं;जो सत्ता के नए रूपों को प्रगट करते हैं। आधुनिकता ल्योतार के लिए औद्योगिक पूँजीवाद का अंग है। आधुनिकता का महत्व यह नही है कि वह सभी क्रियाओं के नियम खोजती ;स्थापित करती है; बल्कि यह है कि ऐसा वह अपने समग्रतावाद के तहत निरंकुशता लागू करके सम्भव करती है। यह एकता ;एकसूत्रता और समग्रता ' झूठी' है; क्योंकि यहीं महावृत्तान्त बनते हैं।

यह सच है कि उत्तर-आधुनिकता ने महावृत्तान्त को समाप्त कर दिया है। प्रश्न यह है कि ऐसा क्यों होता है? अधिकतर उत्तर-आधुनिकतावादी इसका उत्तर खोजने में असफल रहे हैं। उत्तर आधुनिकता वस्तुत:पूंजीवादी फिनोमिना है। यह पूंजीवाद विरोधी फिनोमिना नहीं है। पूंजीवाद की सामान्य विशेषता है कि वह अपने आधार में निरन्तर परिवर्तन करता रहता है। बल्कि यों कहें जो तत्व अप्रासंगिक होते जाते हैं उन्हें अपदस्थ करता रहता है। इस तरह वह अपनी अधिरचना को नियमित बदलता रहता है। वैसे यह काम समाजवाद भी करता है।जो भी व्यवस्था अपने को बरकरार रखना चाहती है उसे यह कार्यनीति अपनानी पड़ सकती है। अधिरचना के परिवर्तनों को देखकर वही चौंकते हैं जो व्यवस्था को शाश्वत मानकर जी रहे होते हैं। सामाजिक व्यवस्थाएं शाश्वत नही हैं और न उनकी अधिरचनाएं ही शाश्वत हैं ।आज जो लोग चौंक रहे हैं या अवाक् हैं उसका प्रधान कारण है पूंजीवाद की अपरिवर्तनीय छबि में गहरी आस्था। उत्तर आधुनिक परिवर्तन इस आस्था को तोड़ते हैं और परिवर्तन के नियम की तरफ ध्यान खींचते हैं।

ध्यान रहे परिवर्तन की जरूरत प्रत्येक वर्ग को है और प्रत्येक वर्ग परिवर्तन के नियम का इस्तेमाल करता है।दूसरा प्रश्न यह है कि आखिरकार ये परिवर्तन किस दिशा की ओर ले जा रहे हेैं?क्या इन परिवर्तनों से 'अन्य' को या उन लोगों को लाभ मिलेगा जो 'हाशिये' पर हैं?अथवा इन परिवर्तनों के जरिये पूंजीपतिवर्ग अपने वैचारिक आधार का विकास करना चाहता है?यह भी सोचना चाहिए कि पूंजीपतिवर्ग को और समाज के 'अन्य' वर्गों को इन परिवर्तनों से क्या मिला? ये परिवर्तन किसके लिए फायदेमन्द साबित हुए? क्या उत्पादक शक्तियों को इन परिवर्तनों से बुनियादी तौर पर कोई लाभ पहुंचा? क्या मजदूरों -किसानों की जिन्दगी में कोई प्रगति हुई? सच यह है कि समाज की उत्पादक शक्तियों के जीवन में प्रतिगामिता में इज़ाफ़ा हुआ है। उत्पादन के उपकरणों में तेजी से बदलाव आया है। सूचना; , संचार और परिवहन के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तनों की लहर आयी हुई है। ये तीन क्षेत्र हैं जहां से पूंजीपति वर्ग बेतहाशा मुनाफा कमा रहा है। इन क्षेत्रों के परिवर्तनों ने शोषण की गति में कई गुना इज़ाफ़ा किया है। 'अन्य' या'हाशिये' के समूह और भी ज्यादा पिछड गए हैं।

यह कहा जा रहा है कि जो समूह हाशिये पर थे वे केन्द्र में आ गए हैं जो समूह अपना हक नहीं मांगते थे वे हक मांगने लगे हैं। सच यह है कि सोये हुए समूह शोषण की निर्मम मार के कारण जगे हैं; वे शोषितों के जनसंघर्षों के कारण जो जागरूकता आयी है उसके प्रभाववश जगे हैं। दूसरी बात यह कि उत्तर-आधुनिक परिवर्तन न आए होते तब भी ये वर्ग जागते।ध्यान रहे परिवर्तन की गति सभी समूहों और वर्गों में एक जैसी नहीं होती। किन्तु परिवर्तन की लहर शोषितों में आती है। यह लहर कब आएगी? कैसे आएगी?इसका कोई निश्चित फार्मूला नहीं है।'परिवर्तन' के नियम का विमर्श के केन्द्र में आना वस्तुत: शोषितों की विचारधारात्मक जीत है।

आज बहस परिवर्तन के नियमों और परिवर्तन के रूपों पर हो रही है इससे पूंजीवाद की समझ और भी ज्यादा समृध्द हुई है। कुछ मूढमति इससे यह निष्कर्ष निकालने लगे हैं कि पूंजीवाद की माक्र्सीय व्याख्याएं गलत साबित हुई हैं।माक्र्सवाद अप्रासंगिक हो गया है। सोवियत संघ में समाजवाद का पतन वस्तुत:माक्र्सवाद ही गलत है इस विचार की पुष्टि करता है। फलश्रुति यह कि माक्र्सवाद से बचकर रहो। कम्युनिस्टों से बचकर रहो। इस तरह की तर्कप्रणाली के हिमायतियों को उत्तर-आधुनिक चिन्तन में तरज़ीह दी गयी।किन्तु उत्तर-आधुनिक विचारकों में सभी इसी मत के नहीं हैं। इनमें कुछ माक्र्सवादी भी हैं जो बुनियादी वर्गों की जिन्दगी में बदलाव चाहते हैं। कुछ ऐसे भी विचारक हैं जो पूंजीवाद के गम्भीर आलोचक हैं। इन दोनों किस्म के विचारकों से माक्र्सवादी काफी कुछ सीख सकते हैं। ध्यान रहे यह दौर अवधारणाओं के बदलने का दौर भी है। हमें इसके लिए प्रस्तुत रहना होगा कि हम जिस चीज पर विचार कर रहे हैं क्या उसे पढने के औजार ठीक हैं?हो सकता है जब हम किसी नई चीज या स्थिति का अध्ययन करें तो हमारे औजार किसी काम ही न आएं?जिन माक्र्सवादियोंने उत्तर -आधुनिकता पर विचार किया है उन्होंने वस्तुत:औजारों को बदला है। मार्क्सवाद के बुनियादी उद्देश्य में बदलाव नहीं किया है।

पचौरी ने प्रसिद्ध उत्तरआधुनिक चिन्तक ल्योतार का मूल्यांकन करते हुए लिखा हैकि''ल्योतार कहीं भी उत्तर-आधुनिक को आधुनिक से पृथक् नहीं मानते हैं-'उत्तरआधुनिकता आधुनिकता का आखिरी बिन्दु नहीं है;बल्कि उसमें मौजूद एक नया बिन्दु है और यह दशा लगातार है। उत्तर-आधुनिकता की यह सातत्यमूलक छबि महत्वपूर्ण है। ''

पचौरी की मान्यता है कि '' कुछ भंग; विकेन्द्रित स्थिति तथा कुछ नवकेन्द्रित स्थिति समाज की एक नई छबि तो बना ही देती है; जो ल्योतार के परम निराशावादी उत्तर-आधुनिक विकेन्द्र को फिर चुनौती देती है। ल्योतार जिस 'समग्रता' पर हमला बोलने की बात करते हैं ;वह बहुराष्ट्ीय निगमों के विश्व बाजार या विश्वव्यापार संगठन के केन्द्रवाद या पूॅजी के केन्द्रवाद में बदल जाता है। ल्योतार ने जिस प्रक्रिया को खत्म हुआ मान लिया था ; वह फिर शुरु हो सकती है। राष्ट् ; राज्यों की जगह विश्व बाजार और उस पर बहुराष्ट्ीय निगम आ जाते हैं; जिसका पर्याप्त जिक्र ' दि पोस्टमॉडर्न कंडीशन' में स्वयं ल्योतार ने किया है। ल्योतार की समस्यायह है कि वे बहुराष्ट्ीयनिगमों के केन्द्र को; राष्ट् राज्यों के केन्द्र को अपदस्थ करते तो दिखते हैं;लेकिन उनकी समग्रतावादी शक्ति पर हमला बोलने की कोई रणनीति नहीं सुझाते।जान रंडेल उनकी इसी सीमा की इंगित करते हुए कहते हैं क उत्तर-आधुनिकता में समाज एक ओर विखंडित और श्रेणीयुक्त बन जाता है; दूसरी ओर सूचना निर्भर प्रबन्धन में नियुक्त हो जाता है और इस जगत में हर विखंडित समूह अपने आसपास फिर केन्द्र को बनाता पाता है।''ल्योतार की सीमा यह है कि वह टकराव को स्चीकार ही नहीं करते । उनके लिए यह सब भाषा है। वह ज्ञान और समाज के बीच सहजात सम्बन्ध मानता है। वह उपकेन्द्रों की उपस्थिति तो मानता है किन्तु इनकी मीमांसा नहीं करता।

ल्योतार का मानना है कि महावृत्तान्तीय मानक दूसरी लडाई के बाद बदल गए।ज्ञान की वैधता की साख खत्म हो गयी।तकनीकी ने उसे बदल दिया।बाजार की शक्तियों के नए तरीकों ने उसे बदल दिया। जिसके आगे कल्याणकारी राज्य भी हाशिए पर चला गया।ज्ञान के क्षेत्र एक- दूसरे से स्वतन्त्र हो गए।उनकी वैधता राज्य से नहीं;उन्हीं से आने लगी। इस स्थिति ने ज्ञान के पोजिटिविज्म और उपयोगितावाद को ध्वस्त कर दिया। फलत: महावृत्तान्त या महानता के प्रति सन्देह उत्पन्न हो गया। महानता अविश्वसनीय हो उठी। महानता या महावृत्तान्तों की 'अविश्वसनीयता' के अलावा उत्तर-आधुनिकता की विशेषता वैधता का विकेन्द्रण है;विद्रूपण है।उत्तर-आधुनिकता में सम्बन्ध 'व्यवहारिक' होते हैं; सभंग होते हैं; विपदग्रस्त होते हैं; असुधार्य होते हैं और विडम्बनात्मक होते हैं। व्यावहारिकता उत्तर-आधुनिक सम्बन्धों का सार है।आदर्शहीन,प्रतिबध्दताहीन सम्बन्ध,जो क्षण-क्षण बदलते हेैं, वे मूलत: सत्तात्मक सम्बन्ध होते हैं। यह अराजकता ही 'लीला' है,जिसे ल्योतार भाषा की लीला कहते हैं।

भाषा के नियम तभी बदलते हैं जब उन्हें खेलने वाला बदले। बतर्ज ल्योतार सूचना और तकनीक पर पहुंच और नियन्त्रण ही वह मार्ग है जहाँ 'खेल' बदला जा सकता है। यह खेल कैसे बदलें? किन नियमों से बदलें? खेल-खेल में हम और अन्य कहॉ पहुँचेंगे? इन प्रश्नों का ल्योतार के पास कोई उत्तर नहीं है। वे वैध को अवैध और अवैध को वैध घोषित करते हैं। ल्योतार के अनुसार हर वह स्थिति अथवा प्रक्रिया आधुनिक है जो अपनी वैधता की सिध्दि के लिए दूसरे अतिवृत्तान्त पर है , कुछ के लिए साम्राज्यवादी षडयंत्र , कुछ के लिए प्रगतिशील तो कुछ के लिए प्रतिक्रियावादी फिनोमिना है।






 

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