(सरसंघचालक केशव बलिराम हेडगेवार)
आरएसएस के सच को जानने के लिए इसके झूठ के तानेबाने को तोड़ना पहला काम है। संघ परिवार मिथकीय हिन्दू छवि का सच, संघ के कार्यकर्ताओं में नहीं सरसंघ चालक के विचारों में खोजना चाहिए। संघ परिवार का पहला प्रौपेगैण्डा है कि संघ ने आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया। तथ्यों से इस दावे की पुष्टि नहीं होती।
उल्लेखनीय है 26 जनवरी 1930 को कांग्रेस ने सारे देश में स्वाधीनता दिवस मनाने की घोषणा की थी। एक प्रतिज्ञापत्र भी पढ़ने का आदेश दिया था। साथ ही चरखा शोभित तिरंगा झंड़ा फहराने की अपील की थी।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक हेडगेवार ने 21 जनवरी 1930 को एक परिपत्रक संघ की शाखाओं के पास भेजा था। यह पत्र ना.ह.पालकर की किताब ‘‘ परम पूज्यनीय डाक्टर हेडगेवार (पत्र रूप व्यक्ति दर्शन)’’ मराठी में है। इस पत्र में हेडगेवार ने खुशी जाहिर की है कि कांग्रेस ने पूर्ण स्वतंत्रता को अपना लक्ष्य घोषित किया है। इसके साथ ही हेडगेवार ने संघ के कार्यकर्ताओं को आदेश दिया कि वे इस दिन ठीक शाम को 6बजे शाखा स्थान में हाजिर हों किंतु राष्ट्रीय झंड़े की जगह अपना भगवा झंड़ा फहराएं। और आजादी के प्रतिज्ञापत्र की जगह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के उद्देश्यों की व्याख्या विशुद्ध रूप से करें।
एक अन्य विवरण से पता चलता है कि 1930 में जब नमक सत्याग्रह आरंभ हुआ था तो उसमें हेडगेवार ने 150 स्वयं सेवकों के साथ सत्याग्रह किया था और जेल गए थे।(ना.ह.पालकर,श्री गुरूजी व्यक्तित्व और कार्य, डा.हेडगेवार भवन ,नागपुर, 1956,पृ.75) लेकिन संघ द्वारा प्रकाशित डेडगेवार की चिट्ठियां कुछ और ही हकीकत बयां करती हैं। हेडगेवार ने 18 सितम्बर 1930 को बिलासपुर के संघ चालक को मराठी में एक पत्र लिखा था। इस पत्र से लगता है कि संघ के कुछ स्वयंसेवक इस आंदोलन में हिस्सा लेना चाहते थे।
हेडगेवार ने स्पष्ट लिखा कि कोई भी आदमी संघ के नाम पर इस आंदोलन में हिस्सा नहीं लेगा। व्यक्तिगत तौर पर कोई भी स्वयंसेवक इसमें हिस्सा ले सकता है। लेकिन इसके पहले उसे अपने मालिक से इजाजत लेनी होगी। संघ को कोई भी खास आदमी इसमें हिस्सा नहीं लेगा। किसी को भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिससे संघ के अस्तित्व पर खतरा आए अर्थात् उस पर प्रतिबंध लग जाए। अथवा वह सरकार का कोपभाजन बन जाए।
इस आंदोलन से स्वराज न आएगा,सिर्फ जागृति आएगी। इस जागृति का उपयोग संघ की शक्ति बढ़ाने में करना होगा। उन्होने यह भी लिखा कि ‘‘जागृति आए , इसलिए आंदोलन के प्रति संघ की नीति सहयोगात्मक होगी,विरोधात्मक नहीं। फिर भी संघ के अस्तित्व को खतरे में ड़ालकर मदद करने के पक्ष में संघ का मत नहीं है और होना भी नहीं चाहिए।’’ इस बयान से साफ है कि आरएसएस ने 1930-33 के राट्रीय आंदोलन में सांगठनिक तौर पर हिस्सा नहीं लिया था। हो सकता है कुछ स्वयंसेवकों ने निजी तौर पर हिस्सा लिया हो। लेकिन वे मालिकों की अनुमति के बाद ही हिस्सा ले सकते थे।
फासीवादियों की वर्ग की धारणा में आस्था नहीं होती। वे यह भी नहीं मानते कि शोषित और शोषक दो वर्ग हैं। स्वयं संघियों के शब्दों में पढ़ें ‘‘ भारत में कम्युनिस्ट विचारधारा की छाया श्री गुरू जी को घातक प्रतीत होती है। उनके सिद्धांत अशुभ प्रतीत होने का कारण उनके पीछे खड़ा रूसी प्रभुत्ववाद है।... कम्युनिस्टों की विचार प्रणाली और प्रचारतंत्र भी श्री गुरूजी को सदोष प्रतीत होते हैं। उन्हें वर्गसंघर्ष का सिद्धांत स्वीकार नहीं।’’( पालकर,श्री गुरूजीःव्यक्ति और कार्य,पृ.297)
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