जनवाद एक सिद्धांत ही नहीं एक व्यवहार भी है। उसे एक सामाजिक व्यवस्था व्यक्ति और समुदाय की मनोवृत्ति, प्रवृत्ति और समस्त वृत्ति में व्याप्त और चरितार्थ होना चाहिए। परंतु यथार्थ यह है कि वह मुख्यत: एक राजनीतिक प्रणाली बन कर रह गया है विशेषकर भारत में। जबकि जनवाद का विलोम और नकार फासीवाद सिद्धांत से अधिक व्यवहार है। वह राजनीतिक व्यवस्था में सत्तासीन हो न हो, वह संगठनों, व्यक्तियों और पार्टियों के आचरण व्यवहार में लगातार कार्यरत रहता है कभी-कभी विस्फोटक और विध्वंसक रूप में।
इसी तरह जैसे हजारों साल के मानव इतिहास में हर पुरुष मेंजनवादी से जनवादी और समाजवादी से समाजवादी, पितृसत्तात्मक प्रवृत्ति होती ही है प्रकट या प्रच्छन्न, वैसे ही राज्य संस्था में ही फासीवादी प्रवृत्ति होती ही है जो विभिन्न अवसरों पर विविध रूपों में शासकों के हित के अनुसार अभिव्यक्त होती है। इसीलिए फासीवाद को भली भांति समझने के लिए और उसके उन्मूलन के लिए उसकी सबसे घनीभूत और बर्बर अभिव्यक्ति मुसोलिनी और हिटलर द्वारा विकसित आक्रामक और नस्लवादी राष्ट्रवाद तक ही सीमित रहना पर्याप्त नहीं होगा। फासीवाद के राजनीतिक ही नहीं सांस्कृतिक आयाम को भी समझना होगा। वह सामुदायिक ही नहीं व्यक्तिगत स्तर पर भी कैसे चरितार्थ होता है इसे भी परखना होगा।
विषय को समग्रता में देखने-परखने के लिए उसके 'मैक्रो' ही नहीं 'माइक्रो' आयामों को भी देख लेना बहुत उपयोगी हो सकता है। नाना पाटेकर की कुछ लोकप्रिय हिंदी फिल्मों को याद करें जिनमें वह ऐसे पात्र की भूमिका निभाता है जो पूरी तरह फासीवादी होता है और उसके हर संवाद पर अंधेरे में बैठी जनता ताली बजाती है। एक फासीवादी चरित्र प्रशंसित ही नहीं होता अवचेतन पर छा जाता है और रोल-मॉडल बनने लगता है। ठाकरे जैसे चरित्र सिनेमा में ही नहीं प्रशंसित होते जीवन में भी लाखों लोगों के नेता बन बैठते हैं और 'भूमिपुत्र' का भ्रामक नारा देकर विस्थापन को राजनीतिक हथकंडा बना लेते हैं। लोग पड़ोसियों की जान के दुश्मन बन जाते हैं और तात्कालिक हितों के लिए तथाकथित उदारपंथी लोग और पार्टियां भी बगलें झांकने लगते हैं। इसे भूलना नहीं चाहिए कि इटली और जर्मनी में फासीवाद इसलिए सफल हुआ था क्योंकि वहां की लिबरल शक्तियां कमजोर और संकीर्ण थीं और उनका शुरू में फासीवाद को प्रच्छन्न समर्थन था।
यहीं पर जर्मन कवि निमोलर की सदा प्रासंगिक कविता याद कर लेने की जरूरत है :
पहले वे ट्रेड यूनियन वालों को लेने आए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं ट्रेड यूनियन में नहीं था
फिर वे कम्युनिस्टों को लेने आए
मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था
फिर वे यहूदियों को लेने आए
और मैं फिर भी नहीं बोला
क्योंकि मैं यहूदी नहीं था
और फिर वे मुझे लेने आ गए
और कोई नहीं था
जो मेरे लिए बोलता।
फासीवाद की इस सर्वग्रासी प्रवृत्ति और उसके प्रति आत्मघाती प्रतिक्रिया के परिप्रेक्ष्य में ही मानव इतिहास की इस सबसे संकीर्ण और परिघटना को देखना समझना समीचीन होगा।
व्यक्ति में फासीवादी प्रवृत्ति उसे आत्मकेंद्रित स्वार्थी, परिप्रेक्ष्य और विवेक-वंचित, 'पर' के प्रति आक्रामक, अपने को ही सही समझने वाला (स्द्गद्यद्ध-ह्मद्बद्दध्दह्लशह्वह्य), सर्वसत्तावादी और जालिम बनाती है। ऐसा व्यक्ति तात्कालिक रूप से सफल हो सकता है पर उससे कोई निकटता नहीं महसूस करता। लोग उसकी मुंह पर भले ही प्रशंसा करें वास्तव में उससे डरते हैं। ऐसा व्यक्ति घर, पड़ोस-मुहल्ले, गांव-जवार में भय-निर्धारित प्रशंसा पाता हुआ भी नितांत अकेला होता जाता है मित्रहीन।
जाहिर है ऐसा व्यक्ति सारत: मनोरोगी हो जाता है और उसकी भूमिका दूसरों के लिए ही नहीं अंतत: स्वयं अपने लिए भी नकारात्मक हो जाती है।
फासीवाद का संगठित रूप में पहले पहल प्रादुर्भाव प्रथम विश्वयुध्द के बाद इटली में हुआ था। पूर्व समाजवादी बेनितो मुसोलिनी ने उसे असंतुष्ट और अपमानित इटली के लिए एकमात्र विकल्प के रूप में प्रतिपादित किया और एक कमजोर जनतंत्र ने उसके सामने घुटने टेक दिए और वह 1921 में इटली में सत्तासीन हो गया। जर्मनी की तो प्रथम विश्वयुध्द के बाद की हो गई बर्साई की संधि में नाक रगड़ दी गई थी। वहां हिटलर ने फासीवाद का और भी आक्रामक और असहिष्णु संस्करण विकसित किया और 1933 में सत्ता पर कब्जा करते ही एक नई विश्व-व्यवस्था की नींव डालने लगा। स्पेन में युध्द के बाद एक जन-निर्वाचित जनतंत्र का प्रादुर्भाव हुआ था। उसे स्पेन की प्रतिक्रियावादी शक्तियों ने नहीं स्वीकारा और जनरल फ्रांको के नेतृत्व में उसे उखाड़ फेंकने के लिए गृहयुद्ध छेड़ दिया। इस युद्ध में स्पेन के जनतंत्र के साथ सारी दुनिया के जनवादी रचनाकार और बौद्धिक खड़े हुए क्रिस्टोफर कॉडवेल और राल्फ फॉक्स जैसों ने तो कलम की जगह बंदूक उठा ली पर जनतंत्र की अलंबरदार ब्रिटेन और फ्रांस की सरकारों ने कुछ नहीं किया। दूसरी ओर इटली और जर्मनी की फासीवादी सरकारों ने खुलेआम स्पेन के फासिस्टों की मदद की।
यह इतिहाससिद्ध है कि फासीवाद तभी शक्तिशाली होता है जब जनवादी शक्तियां असहाय लगने लगती हैं और राज्य-व्यवस्था कमजोर पड़ जाती है और विध्वंसक शक्तियों पर अंकुश नहीं लगा पाती।
लेखक- रोजे बूर्दरों
प्रकाशक- ग्रंथ शिल्पी, बी-7,सरस्वती काम्प्लेक्स,सुभाष चौक,लक्ष्मी नगर,दिल्ली-110092
मूल्य -275
अनुवादक- लाल बहादुर वर्मा
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