सोमवार, 21 जून 2010

भूमंडलीकरण के अंत का आख्यान

यह विलक्षण संयोग है कि समाजवादी व्यवस्था के ढ़ह जाने के मात्र 25 साल के अंदर भूमंडलीकरण धराशायी हो गया। समाजवादी व्यवस्था का प्रयोग सोवियत संघ में 60 साल चला था, भूमंडलीकरण का प्रयोग अमेरिका और बाहर के देशों में मात्र 25 साल ही चल पाया।
     समाजवादी व्यवस्था के पराभव के साथ यह उम्मीद पैदा की गयी कि भूमंडलीकरण ही एकमात्र सार्थक विकल्प है और मजेदार बात यह हुई कि सन् 2008-09 की विश्वव्यापी आर्थिकमंदी ने पूंजीवादी किले अमेरिका पूरी तरह धराशायी कर दिया।   
      जिस समय समाजवादी व्यवस्था गिर रही थी उस समय अमेरिका और उसके सहयोगी पूंजीवादी देश इसके पतन की कामना कर रहे थे, लेकिन आर्थिकमंदी के कारण जब अमेरिकी अर्थव्यवस्था चरमरा गयी तो चीन जैसे कम्युनिस्ट पार्टी शासित मुल्क ने हाथ बढ़ाकर आर्थिकमंदी से उबरने में अमेरिकी प्रशासन और जनता की मदद करके मानवता की एक एक नयी मिशाल कायम की है। कल्पना कीजिए चीन ने मदद के लिए हाथ न बढ़ाया होता तो क्या होता ?
      सवाल उठता है कि समाजवादी व्यवस्था के पराभव के समय यही फूर्ती अमेरिका ने क्यों नहीं दिखाई, उलटे सीआईए और दूसरी संस्थाओं ने देशभंजकों को एकजुट करने का काम किया। कई समाजवादी देशों को भीतरघात करके तोड़ा। उस समय चीन ने भी सोवियत संघ और अन्य समाजवादी देशों के पतन को चुपचाप देखा था।
      भूमंडलीकरण के बाद से विश्वव्यापी स्थितियों में गंभीर परिवर्तन आया हैं। पूंजीवादी देशों में मंदी के कारण अभी भी सामाजिक अस्थिरता और असुरक्षा का वातावरण बना हुआ है। आज कोई भी उत्तर आधुनिक ‘अंत’ के मंत्र का जाप नहीं कर रहा। कोई पूंजीवादी विचारक यह नहीं बता रहा कि आखिरकार भूमंडलीकरण का अंत कैसे हुआ ? क्या भूमंडलीकरण के अंत को उत्तर-आधुनिकता का अंत कह सकते हैं ? क्या भविष्य में और ऐसे ही अंत देखने को मिलेंगे ? ये अनुत्तरित प्रश्न हैं।
   समाजवादी व्यवस्था के पराभव के मात्र 25 साल में भूमंडलीकरण के पराभव से एक निष्कर्ष साफ निकल रहा है कि समाजवादी व्यवस्था के पराभव के बाद विकल्प के रूप में आयी भूमंडलीकरण की नयी विश्व व्यवस्था सबसे मजबूत पूंजीवादी देश अमेरिका में महज 25 साल में धराशायी हो गई। इस बीच पुराने समाजवादी देश चीन ने अपने को आर्थिक उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचा दिया और आज वह विश्व अर्थव्यवस्था की निर्णायक शक्ति है। यह आर्थिक ताकत पहले वाले सोवियत संघ के पास भी नहीं थी।   
   चीन की उपेक्षा करके आज विश्व अर्थव्यवस्था में कोई भी कदम नहीं उठाया जा सकता। सारी दुनिया में अमेरिकी साम्राज्यवाद की आर्थिक बढ़त को चीन ने हथिया लिया है। अमेरिका संकट में जहां का तहां फंसा हुआ है।
    अब तक के पूंजीवादी डवलपमेंट के बारे में सी.राइट मिल्स के शब्दों को उधार लेकर कहें पूंजीवादी ‘‘उन्नतियों से मानव जाति की 'मूलभूत विवेकशीलता' में शायद ही कोई वृद्धि हुई है। यदि कुछ हुआ भी है तो वह 'वैज्ञानिक पुनर्गठन', नौकरशाही और आधुनिक प्रौद्योगिकी ने मानव स्वतंत्रता में वृद्धि के बजाए इसे और भी सीमित कर दिया है। ये कई अप्रत्याशित बुराइयों के स्रोत भी रहे हैं। 'वैज्ञानिक पुनर्गठन' और स्वतंत्रता के बीच तालमेल की इसी कमी का परिणाम था आत्मनिर्वासित मनुष्यों अथवा 'प्रसन्नचित्त यंत्रमानवों' का आगमन। उन्होंने अपने आपको उन परिस्थितियों : विशालकाय संगठनों तथा पराजित करने वाली ताकतों के अनुरूप ढाल लिया, जिन पर उनका कोई नियंत्रण नहीं था और उन्हें इसका एहसास भी था। ये वे लोग थे जिनके बारे में यह माना जा सकता है कि उन्हें न तो स्वतंत्रता की आकांक्षा थी न ही तर्कना की इच्छा।’’(एलेन मिकसिन्स वुड,उत्तर आधुनिक एजेण्डा क्या है ?)
    भूमंडलीकरण का पराभव सारी दुनिया में आर्थिक मंदी के नाम पर तबाही के मंज़र छोड़ गया है। विज्ञान और सूचना तकनीक के क्षेत्र में 40 सालों में जो परिवर्तन आए हैं उसके कारण हमारे पास तकनीकी उपकरणों की भीड़ जमा हो गयी है। चीजों, वस्तुओं, व्यक्तियों,घटनाओं आदि से दूरी बढ़ी है।
   आज हमारे पास संपर्क के उपकरण हैं,रीयल टाइम संचार की सुविधा है, इसके बाबजूद यथार्थ से अलगाव बढ़ा है। सूचनाओं की बाढ़ के नाम पर कचरा जमा हो गया है । सूचना तकनीक के क्षेत्र में जो कुछ घट रहा है वह हमारे नियंत्रण के बाहर है, इसका परिणाम यह हुआ है कि संचार के बंदीघर में कैद हैं। प्रामाणिक की बजाय अप्रमाणिक पर हम ज्यादा विश्वास करने लगे हैं। सार्वजनिक जीवन में अतर्क की ताकत बढ़ी है। इरेशनल आक्रामक हो उठा है।
 इस दौर में मीडिया के जरिए बताया गया कि ‘कुछ उत्तरआधुनिकतावादी पूंजीवाद की जीत और उपभोक्तावाद के उल्लास के लिए इतने उत्सुक हैं कि उन्होंने तेजी के दौर के अंत को शायद ही नोटिस किया है। लेकिन जो वर्तमान वास्तविकताओं से अपेक्षाकृत अधिक परिचित हैं, उनकी बौद्धिक जड़ें उस 'स्वर्णिम क्षण' में हैं। उनका विश्वास पूंजीवाद की उस जीत में है जो साम्यवाद के पतन की तारीख से बहुत पहले की है। इसलिए जहां कुछ दक्षिणपंथियों ने 'इतिहास के अंत' या पूंजीवाद के अंतिम विजय की घोषणा कर दी है, वहीं कुछ वामपंथी बुद्धिजीवियों द्वारा हमसे यह पुन: कहा जा रहा है कि एक युग का अंत हो गया है; हम 'उत्तरआधुनिक' युग में रह रहे हैं; 'प्रबोधन परियोजना' समाप्त हो चुकी है; सभी पुराने यथार्थ और विचारधाराएं अप्रासंगिक हो गई हैं; वैज्ञानिक पुनर्गठन के पुराने सिध्दांत अब लागू नहीं होते, आदि-आदि।’ (उपरोक्त)
रैनेसां,यथार्थ,विचारधारा आदि के ‘अंत’ की घोषणा करने वालों को भूमंडलीकरण का अंत नजर ही नहीं आया। ‘अंत’ का पाठ पढ़ाने वाले विगत 25-30 सालों में बेहद मुश्किलों का सामना करते रहे हैं, वे अपने विचारों को वैसे ही रोज बदलते रहे हैं जैसे आदमी मैले कपड़े रोज बदलता है। विचारों का इतनी जल्दी-जल्दी परित्याग विगत सौ सालों में नहीं देखा गया।
   नए विचारों का अकारण आना और अकारण चले जाना विगत 25 सालों की सबसे बड़ी वैचारिक दुर्घटना है। इसे अब कुछ लोग नव-उत्तर आधुनिकतावाद कह रहे हैं। दरअसल ,‘नव उत्तरआधुनिकवाद किसी प्रकार के ऐतिहासिक विश्लेषण की अनुमति देता है। लेकिन यदि आज के उत्तरआधुनिकवादी बुध्दिजीवियों के अनुसार 'उत्तरआधुनिकता' कोई ऐतिहासिक काल दरशाता है तो ऐसा प्रतीत होता है कि वास्तविक परिवर्तन 1960 के दशक के उत्तर में या 1970 के दशक के आरंभ में आया। हालांकि आरंभिक युगपरक मील के पत्थरों और एकदम हाल के समय के पुल के बीच बहुत ऐतिहासिक जल प्रवाहित हो चुका है लेकिन उत्तरआधुनिकता के हाल के निदान के बारे में जो ध्यान आकर्षित करने वाली बात है वह यह कि इसमें और विचारधारा के अंत की पुरानी घोषणाओं, अतिवादी तथा प्रतिक्रियावादी दोनों संस्करणों में बहुत समानता है। दूसरे शब्दों में, जो ध्यान देने वाली बात है, वह असातत्य की इस कहानी में नैरंतर्य या कम से कम पुनरावृत्ति है। यदि हम एक ऐतिहासिक युग के अंत में आ गए हैं तो जिसका अंत हुआ है वह स्पष्टतया कोई बहुत अलग युग का अंत नहीं बल्कि एक ही युग का दोबारा अंत हुआ है।’( उपरोक्त)
  सवाल उटता है कि जो लोग मार्क्सवाद को अप्रासंगिक घोषित कर रहे थे वे क्या बता सकते हैं कि पूंजीवाद के सामयिक पराभव को क्या ऐतिहासिक नजरिए से देखेंगे या नहीं ? क्या ऐतिहासिक नजरिए से देखे बिना आर्थिकमंदी और विचारों का प्रतिदिन पुराना पड़ते जाना समझ में आ सकता है ? यही वह बिंदु है जहां समस्त पूंजीवादी भाष्यकार कार्ल मार्क्स की ओर लौटने के लिए बाध्य हुए हैं।  
(सभी उद्धरण, इलेन मिनसिन्स वुड एवं जॉन बेलेमी फास्टर,सं., इतिहास के पक्ष मेः मार्क्सवाद और उत्तर आधुनिक एजेण्डा,ग्रंथ शिल्पी,बी-7,सरस्वती कामप्लेक्स,सुभाष चौक,लक्ष्मी नगर,नईदिल्ली 110092, मूल्य 375)

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