( यह लेख 2004 में दो किश्तों में दैनिक हिन्दुस्तान में छपा था, उस समय मैं माकपा का सदस्य था। माकपा के अनेक नेता इस लेख पर नाराज हो गए। कुछ बड़े नेताओ ने तो पोलिट ब्यूरो तक लिखित शिकायत की। यह लेख पश्चिम बंगाल में वामपंथ की असफलताओं पर रोशनी ड़ालता है, काश ,उस समय इस लेख पर माकपा के नेताओं ने ध्यान दिया होता तो आज इतनी शर्मनाक पराजय का सामना नहीं करना पड़ता )
सांस्कृतिक क्षय एक सामाजिक प्रक्रिया है।यह जनतांत्रिक परिवेश और आलोचनात्मक विवेक के अभाव में शुरू होता है। यह तब शुरू होती है जब समाज अपने बारे में आलोचनात्मक ढ़ंग से सोचना बंद कर देता है। समाज के स्पंदन को बौध्दिक जगत महसूस करना बंद कर देता है।सब समय अतीत में जीता है।अतीतबोध में डूबा रहता है। पश्चिम बंगाल में इन दिनों ऐसा ही घट रहा है।बौद्धिकों,संस्कृतिकर्मियों, लेखकों,समाजविज्ञानियों आदि ने आलोचनात्मक विवेक को राजनीति और अतीतगौरव के मातहत कर दिया है।
एक जमाने में पश्चिम बंगाल को देश की सांस्कृतिक मशाल कहा जाता था। किंतु आज सांस्कृतिक क्षय की अवस्था है। संस्कृति को राजनीति ने हड़प लिया है।सब कुछ राजनीतिक है। राजनीति के अलावा सब बेकार है।आज सत्ता ,राजनीति और अतीतबोध का जिस तरह का दबाव सांस्कृतिक प्रक्रियाओं पर है वैसा इतिहास में पहले कभी नहीं देखा गया। कहने के लिए सतह पर सब कुछ सांस्कृतिक नजर आता है। मुख्यमंत्री से लेकर सरकारी बस के ड्राइवर तक सबके गले से साहित्य की प्रशंसा के स्वर सुने जा सकते हैं।किंतु सच्चाई यह है कि विगत पचास वर्षों में बंगला भाषा का क्षय हुआ है।बांग्ला के पठन-पाठन, अध्ययन,अध्यापन, लेखन, साक्षरता आदि में गिरावट आई है। कुछ अर्सा पहले जब पश्चिम बंगाल सरकार ने बंगला भाषा में सरकारी कामकाज को तरजीह देने का फैसला लिया तो पता चला कि ज्यादातर क्लर्क बांग्ला लिखना नहीं जानते। जो चालीस साल के युवा हैं उनमें से अधिकांश को बंगला बोलने,पढ़ने का अभ्यास है किंतु लिखने में मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।यह बांग्ला भाषा के क्षय का संकेत है।
एक जमाना था जब रैनेसां के दौर में बंगाल के बड़े-बड़े वैज्ञानिक,समाजविज्ञानी आदि अपने विचारों को बांग्ला में लिखना पसंद करते थे। कितु आज गिनती के पांच वैज्ञानिक और समाजविज्ञानी नहीं हैं जो बांग्ला में अपने को व्यक्त करने की क्षमता रखते हों। बांग्ला आज बौध्दिक विमर्ष की भाषा नहीं रह गई है। बंगाल के विश्वविद्यालय अजायबघर नजर आते हैं।यह रैनेसां के महाख्यान के अंत की सूचना है। स्थिति की भयावहता को सिर्फ एक तथ्य से समझ सकते हैं कि ईश्वरचंद्र विद्यासागर का जिस गांव में जन्म हुआ था वह गांव अभी तक पूर्ण साक्षर नहीं बन पाया है।
पश्चिम बंगाल के भूमिसुधार कार्यक्रम के बारे में मिथ बना हुआ है। उसे पश्चिम बंगाल सरकार अपनी सबसे बेहतरीन उपलब्धि मानती है। किंतु सच्चाई का एक अन्य पहलु भी है। प्रसिद्ध कृषि अर्थशास्त्री और पश्चिम बंगाल योजना बोर्ड के सदस्य अजित नारायन बसु ने हाल ही में वामपंथी मोर्चे के सदस्य दल आर.एस.पी.के मुखपत्र गणवार्ता में रहस्योद्धाटन किया है कि भूमि सुधार से गांव के गरीबों के सशक्तिकरण में कोई मदद नहीं मिली है।
बसु के अनुसार पश्चिम बंगाल के 53. 38 फीसदी ग्रामीण परिवारों के पास कुल कृषि योग्य जमीन में से मात्र 3.29 फीसदी कृषि योग्य जमीन है।यह राष्ट्रीय औसत से काफी नीचे है।राष्ट्रीय स्तर पर 58. 28 फीसदी परिवारों के पास 5. 97 फीसदी कृषियोग्य जमीन है।इसी तरह पश्चिम बंगाल के 13. 24 फीसदी समृद्ध ग्रामीण परिवारों के पास 58. 56 फीसदी कृषियोग्य जमीन है।बसु ने रेखांकित किया है पश्चिम बंगाल में 1992 और 2001 में कृषि मजदूरों को तयशुदा सरकारी मजूरी की तुलना में क्रमश: 12.3 और 21.5 फीसदी कम न्यूनतम मजूरी मिलती है। सरकार के अनुसार न्यूनतम मजूरी का यह आंकड़ा 7,052 करोड़ रूपये बैठता है। बसु का मानना है मौजूदा परिस्थितियों में वाममोर्चा सरकार यदि चाहे तो कृषियोग्य उपलब्ध जमीन में से 143. 69 एकड़ जमीन को 68 लाख किसान परिवारों में बांट सकती है।यदि ऐसा हो जाता है तो इससे समस्त गरीब ग्रामीण परिवारों को गरीबी की रेखा से ऊपर ले जाने में मदद मिलेगी।
बसु का मानना है वामपंथी दलों के लाख दावों के बावजूद गांव के गरीबों की स्थिति में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं आया है। ज्यादातर वामपंथी दलों के संगठनों में गरीब ग्रामीण मजदूरों की बजाय मध्यवर्गीय किसानों का वर्चस्व है।ये लोग सामाजिक परिवर्तन के पक्ष में नहीं है।बल्कि यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं।
उन्नीसवीं शताब्दी और बीसवीं शताब्दी के छठे और सातवें दशक तक कोलकाता में जब हिन्दीभाषी बहुत में कम मात्रा में रहते थे। तब साहित्य में कोलकाता के हिन्दीभाषी बुध्दिजीवियों का बोलवाला था। कितु इसके बाद से पतनगाथा शुरू हुई है। खासकर नेहरू युग के समापन के साथ कोलकाता के सांस्कृतिक क्षय की प्रक्रिया ने बल पकड़ा है। वामपंथ विभाजित हुआ। अर्द्धफासी दौर और आपातकाल में राजनीति में हिंसाचार पैदा हुआ। नक्सलपंथी, माकपाई,भाकपाई और कांग्रेसियों ने एक -दूसरे पर खूनी हमले किए। सन् 1961-62 से पश्चिम बंगाल में राजनीतिक घृणा और हिंसा का जो माहौल तैयार हुआ उसने आलोचनात्मक परिवेश और स्वस्थ सांस्कृतिक विकास की समस्त संभावनाओं को खत्म कर दिया। यह पश्चिम बंगाल के सांस्कृतिक पतन का प्रस्थान बिन्दु है। इसके बाद से राजनीतिक वफादारी का तत्व इस कदर हावी हुआ है कि आज राजनीतिक वफादारों का समाज में बोलवाला है।
पहले राजनीति में प्रतिबद्धता की मांग की जाती थी। बाद में वफादारी की मांग की जाने लगी।राजनीतिक वफादारी का जनतांत्रिकबोध से कोई लेना-देना नहीं है। राजनीतिक वफादारी के दौर में राजनीतिक संघर्ष उग्र हुए हैं। राजनीतिक हिंसा में मरनेवालों की तादाद चौंकानेवाली है।सन् 1977 के बाद से विभिन्न दलों के खूनी संघर्षों में तकरीबन पचास हजार से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं।इसमें अकेले माकपा के 20हजार से ज्यादा कार्यकर्त्ता और समर्थक मारे गए हैं।ये समस्त खूनी लड़ाईयां जनतंत्र की रक्षा के नाम पर लड़ी गईं।
राजनीतिक वफादारी जनतांत्रिक परिवेश को नष्ट कर देती है। अन्य के स्वर को कुचल देती है।
बंगाल में कहने को जनतंत्र है।चुनी हुई सरकार है।पंचायती व्यवस्था है।किंतु इस समूची प्रक्रिया का संपादन वफादारी के पैमाने से हो रहा है।जनतांत्रिक मूल्यों के प्रसार से इसमें कम मदद मिली है।आज जनतंत्र पर वफादार भारी पड़ रहे हैं। जनतांत्रिक परिवेश और आलोचनात्मक विवेक की मांग है कि जनतंत्र को वफादारी के दायरे से बाहर निकाला जाए।
वफादारी, सामंती मूल्य है।इसका जनतंत्र से कोई संबंध नहीं है।बल्कि वैरभाव है।वफादारी में नागरिक के अधिकारों के प्रति घष्णाभाव भरा है।वफादारों का बढ़ता हुआ वर्चस्व नागरिक समाज,नागरिक चेतना और नागरिक परिवेष को नष्ट कर रहा है। आज बंगाल में राजनीतिक वफादारी के आधार पर जगह-जगह गुण्डों के गिरोह सक्रिय हैं।इनके किस्से समूचे बंगाल में लोककथा के रूप में जनप्रिय हैं। बड़े पैमाने पर शिक्षितों में इस सबको लेकर असंतोष है। दूसरी ओर बंगाली जाति के श्रेष्ठत्व और अतीतप्रेम के प्रेतों को जगाया जा रहा है।इससे वैचारिक तौर पर प्रतिगामी परिवेश की सृष्टि हो रही है।
पश्चिम बंगाल के संदर्भ में सबसे मुख्य विचारणीय सवाल यह भी है कि आखिरकार ऐसा क्या हुआ कि बंगाल से हिन्दी का हरभरा बगीचा गायब हो गया।बंगाल में आधुनिक हिन्दी प्रेस की शुरूआत हुई।देश में सबसे पहले विश्वविद्यालय स्तर पर हिन्दी की पढ़ाई शुरू हुई। हिन्दी के मूर्धन्य लेखकों का बंगाल गढ़ था।किंतु आजादी के बाद यह गढ़ ढह गया।इसका प्रधान कारण है हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन और अनुसंधान के स्तरीय ढ़ांचे ,शिक्षकों और बौध्दिकों का कोलकाता में अभाव। ऐसी स्थिति में कोलकाता का हिन्दी केन्द्र नष्ट हो गया।
उल्लेखनीय है कि आधुनिक काल में शिक्षा सबसे बड़ा क्षेत्र है जिसके जरिए नए बौद्धिक केन्द्र की परंपरा जन्म लेती है। हिन्दी के स्तरहीन पठन-पाठन के कारण महानगर होने के बावजूद कोलकाता को हिन्दी के केन्द्र के रूप में बचाकर नहीं रखा जा सका।जिन लोगों ने आधुनिक काल के आरंभ में हिन्दी के विकास में कोलकाता को अपना कर्म क्षेत्र बनाया था उनमें से ज्यादातर लेखक-पत्रकार गैर-हिन्दीभाषी थे। जो हिन्दी लेखक कोलकाता से अपना संबंध जोड़ रहे थे वे कोलकाता के नहीं थे।उनका कोलकाता के हिन्दी के शैक्षणिक माहौल से कोई लेना-देना नहीं था।
आधुनिक काल में जिन राज्यों में हिन्दी के स्तरीय अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था थी, वे ही षहर हिन्दी के केन्द्र के रूप में उभर कर सामने आए। उन सब स्थानों पर हिन्दी के बुद्धिजीवियों की परंपरा का निर्माण हुआ। कोलकाता में व्यापक पुस्तकालय नेटवर्क होने के बावजूद हिन्दी साहित्य के विकास में कोलकाता विश्वविद्यालय से एक भी उल्लेखनीय रिसर्च का सामने न आना,इस तथ्य का संकेत है कि कलकत्ता विश्वविद्यालय का हिन्दी के उत्थान में प्रचारात्मक अवदान जरूर है।शोधपरक अवदान नहीं रहा। इसके विपरीत अन्य विषयों के विभागों में ऐसी स्थिति नहीं रही है। विज्ञान,समाजविज्ञान,बंगला साहित्य, भाषाविज्ञान आदि के क्षेत्र में कलकत्ता विश्वविद्यालय अग्रणी है।
कोलकाता के हिन्दीभाषियों के पास पूंजी है। किंतु संस्कृति नहीं है।मेहनत-मजदूरी करके जीने का हुनर है।किंतु पहचान नहीं है।आज कोलकाता में हिन्दीभाषी बहुसंख्यक हैं,बंगाली अल्पसंख्यक हैं।किंतु हिन्दीभाषियों की राजनीतिक पहचान और आवाज कहीं पर भी सुनाई नहीं देती।मजदूर संगठनों में ज्यादातर श्रमिक हिन्दीभाषी हैं किंतु नेतृत्व बंगालियों के पास है। उद्योगों में पूंजी हिन्दीभाषी पूंजीपतियों की लगी है,किंतु राजनीतिक वर्चस्व बंगालियों का है।हिन्दीभाषी पूंजी और समाज का जिस तरह का व्यक्तित्वहीन स्वरूप कोलकाता में उभरकर आया है। वैसा अन्यत्र दिखाई नहीं देता।
बंगाल में सबसे पहले हिन्दी भागी।बाद में हिन्दीभाषी लोगों की पूंजी भागी। बंगाल में हिन्दी की संस्कृति पहले आई।हिन्दीभाषी लोगों की पूंजी बाद में आई।आजादी के बाद तेजी से परिदृश्य बदला और हिन्दी के केन्द्र के रूप में कोलकाता खत्म हुआ।बाद में हिन्दीभाषी उद्योगपतियों ने अपने कारोबार को समेटना शुरू किया।आज कोई नया प्रकल्प हिन्दीभाषी पूंजीपति बंगाल में लगाना नहीं चाहता।
अघोषित तौर पर बंगाल में भूमिपुत्रों का बोलवाला है।'अन्य' की आवाज को कोई भी तवज्जह नहीं देता।अंदर ही अंदर हिन्दीभाषियों के प्रति घृष्णा का प्रचार चल रहा है।इसकी अनुगूंज कभी किसी बड़े नेता के भाषण में सुनाई देती है तो कभी बंगाली अखबारों में बंगाल के रैनेसांपंथी लेखकों में दिखाई देती है।ये लोग हिन्दीभाषियों के बारे में तकरीबन उसी भाषा में बोलते हैं जिस भाषा में मुंबई में शिवसेना वाले बोलते हैं।
रैनेसांपंथी बुध्दिजीवियों के हिन्दीविरोधी जहर से भरे लेख आए दिन बंगला के दैनिक अखबारों में प्रकाशित होते रहते हैं।इन लेखों में हिन्दी साम्राज्यवाद का रोना रहता है।एक जमाना था जब हिन्दी के उत्थान के लिए बंगला के बुध्दिजीवी आगे आए थे।किंतु आज बंगला के चर्चित लेखकों,संस्कृतिकर्मियों में एक अच्छा खासा तबका पैदा हो गया है जो हिन्दी विरोधी उन्माद से ग्रस्त है।
लेनिन की प्रसिध्द उक्ति है कि अगर किसी समाज विकास के स्तर को देखना हो तो उस समाज में स्त्रियों की कैसी अवस्था है ?इसे देखना चाहिए।स्त्रियों की सामाजिक-सांस्कृतिक दशा के आधार पर पश्चिम बंगाल को सारे देश के संदर्भ में रखकर देखें तो बड़ी भयानक तस्वीर उभरकर सामने आती है।इसके आधारभूत विश्लेषण के लिए 'नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे -2' के आंकड़ों पर गौर कर लेना समीचीन होगा।ये आंकड़े पश्चिम बंगाल के बारे में प्रचलित बहुत सारे मिथों को खंडित करते हैं।खासकर महिला सशक्तिकरण के समस्त दावों का खण्डन करते हैं।
पश्चिम बंगाल में राजनीतिक चेतना का स्तर अन्य राज्यों की तुलना में काफी ऊँचा है।वामपंथी आंदोलन काफी मजबूत है।महिला आंदोलन सबसे ताकतवर है। इसके बावजूद महिला सशक्तिकरण के संदर्भ में देश के अन्य राज्यों से काफी पीछे है।'नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे-2' के अनुसार महिला सशक्तिकरण के पैमाने के लिहाज से पश्चिम बंगाल सबसे नीचे के राज्यों में आता है।
मसलन् जब महिलाओं से उनकी व्यक्तिगत स्वास्थ्य देखभाल के बारे में सवाल किया गया तो पाया कि बंगाल में मात्र 16.7 फीसदी महिलाएं ही अपने स्वास्थ्य की देखभाल के बारे में निजी तौर पर निर्णय ले पाती हैं। बंगाल के नीचे सिर्फ राजस्थान,उडीसा और नागालैण्ड का स्थान है।बाकी राज्यों का बंगाल के ऊपर स्थान है।जब यह सवाल पूछा गया कि महिलाएं अपने स्वास्थ्य की देखभाल के बारे में पति या किसी अन्य के साथ मिलकर निर्णय लेती है।इस संदर्भ में भी बंगाल की महिलाएं काफी पीछे हैं।ज्वेलरी वगैरह खरीदने का फैसला महिलाएं निजी तौर पर कितनी फीसदी संख्या में लेती हैं तो इसके जबाव में पता चला कि निजी तौर पर मात्र 15.9 फीसदी महिलाएं गहने वगैरह खरीदने का फैसला लेती हैं। जबकि निजी तौर पर गहने वगैरह खरीदने का फैसला लेने के मामले में बंगाल से आगे त्रिपुरा,केरल,गोवा और तमिलनाडु हैं। इसी तरह अपनी कमाई को खर्च करने के मामले में बंगाल की औरतों की स्थिति सारे देश में काफी नीचे है। मात्र 51.7फीसदी महिलाएं ही अपनी कमाई को अपनी इच्छा से खर्च कर पाती हैं। जबकि बंगाल से ऊपर देश के आठ राज्य आते हैं।ये हैं-दिल्ली, हरियाणा,हिमाचल प्रदेष,जम्मू-कष्मीर,पंजाब, मणिपुर,सिक्किम, गोवा ।इनके अलावा बाकी राज्य बंगाल से पीछे हैं।
महिला सशक्तिकरण के संदर्भ में जब महिलाओं से यह सवाल पूछा गया कि क्या उन्हें बाजार जाने के लिए किसी से अनुमति लेनी होती है ? इस सवाल के जबाव में पता चला कि मात्र 17.8 फीसदी महिलाओं ने कहा कि उन्हें बाजार जाने के लिए किसी से अनुमति नहीं लेनी होती। जबकि इस मामले में बंगाल से ऊपर 21 राज्य हैं। पश्चिम बंगाल की मात्र 14.1 फीसदी महिलाओं ने कहा कि उन्हें अपनी मित्र या नाते-रिश्तेदार के यहां जाने लिए किसी से अनुमति नहीं लेनी होती। इस सवाल के संदर्भ में पष्चिम बंगाल से ऊपर बीस राज्य हैं। इन दोंनों सवालों पर सिर्फ जम्मू-कष्मीर और उत्तर प्रदेश का स्थान बंगाल के बाद है।यानी देश में नीचे से तीसरा। आने-जाने की सीमित स्वतंत्रता के सवाल पर तमिलनाडु ,गोवा,मिजोरम और गुजरात का सबसे ऊपर स्थान है। इन राज्यों में आधे से ज्यादा औरतों को आने-जाने के मामले में किसी से अनुमति नहीं लेनी होती। जबकि आने-जाने के मामले में सबसे खराब स्थिति जम्मू-कश्मीर, असम, उत्तरप्रदेश,नागालैण्ड,पश्चिम बंगाल, उडीसा, राजस्थान,और आंध्र की है। इन राज्यों में बीस फीसदी अथवा इससे भी कम संख्या में औरतों को आने-जाने के लिए अनुमति नहीं लेनी होती है।
सर्वे में बताया गया है कि ज्यादातर औरतें लिंगीय भेदभाव को मानती हैं।साथ ही पुरूष की तुलना में स्त्री को दोयमदर्जे का नागरिक मानती हैं।वे यह भी मानती हैं कि पुरूष को ही औरत की जिन्दगी को नियमित करने,उसके व्यवहार को सुनिश्चित करने का हक है।इसके लिए यदि वह ताकत का इस्तेमाल करे,पत्नी को मारे तो भी जायज है। मसलन् पति अपनी पत्नी के चरित्र के बारे में संदेह करे।उस पर अविश्वास करे। पत्नी के घर वाले इच्छित माल या गहना या अन्य वस्तु दहेज में न दे पाएं। यदि पत्नी अपने सास-ससुर के प्रति अश्रध्दा दिखाए।वगैर बताए घर के बाहर जाए।यदि वह बच्चों या घर की उपेक्षा करे।यदि वह सही ढ़ंग से खाना न पकाए इत्यादि कारणों से अथवा इनमें से किसी एक कारण से यदि पति अपनी पत्नी को मारता है तो औरतें उसे वैध मानती हैं।
पूरे देश में 15से 49 साल की शादीशुदा औरतों में 57 फीसदी पति द्वारा पत्नी की उपरोक्त कारणों में से किसी एक कारण से पिटाई को जायज मानती हैं। विभिन्न राज्यों में इसका अनुपात अलग-अलग है। मसलन् 20 से 25 फीसदी के बीच में जो राज्य आते हैं वे हैं-दिल्ली,पंजाब, पश्चिम बंगाल और हिमाचल प्रदेश।
जबकि पति द्वारा पत्नी की पिटाई को जायज ठहराने वाली 70 फीसदी औरतों वाले नौ राज्य हैं इनमें आंध्र,तमिलनाडु और महाराष्ट्र शामिल हैं। लिंगीय भेदभाव का सबसे अच्छा उदाहरण है शिक्षा।छह साल और उससे ऊपर के लड़के-लड़कियों को साक्षर बनाने के मामले में 'नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे-2' के आंकड़े बताते हैं कि पश्चिम बंगाल में मात्र 57.5 फीसदी लड़कियों को साक्षर बनाया जा सका है।जबकि इस उम्र की लड़कियों को साक्षर बनाने के मामले में पश्चिम बंगाल से काफी ऊपर दिल्ली, हिमाचलप्रदेश,पंजाब, असम,मणिपुर, मेघालय,मिजोरम, नागालैण्ड, सिक्किम, त्रिपुरा, गोवा,महाराष्ट्र, तमिलनाडु और केरल हैं। यानी पश्चिम बंगाल का देश में सोलहवां स्थान है।
पश्चिम बंगाल से नीचे सिर्फ राजस्थान,मध्यप्रदेश,उत्तर प्रदेश,बिहार, उडीसा, अरुणाचल प्रदेश,गुजरात,आंध्र और कर्नाटक का स्थान है। इसी तरह बीस वर्ष और उससे ज्यादा उम्र की कम से कम हाईस्कूल पास लड़कियों की पश्चिम बंगाल में संख्या मात्र 12 फीसदी है। जबकि पश्चिम बंगाल से इस वर्ग में 18 राज्य ऊपर हैं। ये हैं-दिल्ली,हरियाणा, हिमाचल प्रदेश,जम्मू- कश्मीर, पंजाब, असम,मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैण्ड, सिक्किम,त्रिपुरा,गोवा, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक,तमिलनाडु और केरल। जबकि पश्चिम बंगाल से जो राज्य नीचे हैं वे हैं-राजस्थान,मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार,उडीसा, और अरुणाचल प्रदेश।
भारत में ज्यादातर औरतें निरक्षर हैं अथवा उनके पास सीमित षिक्षा है।ऐसी स्थिति में जनमाध्यम जैसे अनौपचारिक रूपों की भूमिका बढ़ जाती है। जनमाध्यमों के द्वारा औरतें बाह्य जगत को देख पाती हैं। बाह्य जगत के बारे में उनकी जानकारी में इजाफा होता है।यह सच है कि जनमाध्यमों का मूलत: मनोरंजन माध्यम के रूप में इस्तेमाल होता है। किंतु यह भी सच है कि जनमाध्यमों का शैक्षणिक मूल्य भी है।इस दृष्टि से जनमाध्यमों को देखने, सुनने के स्तर को देखकर भी महिला सशक्तिकरण की दशा का अंदाजा लगाया जा सकता है।
सप्ताह में कम से कम एकबार जिन औरतों को टेलीविजन देखने का मौका मिलता है ऐसी औरतों की पश्चिम बंगाल में संख्या 40.8 फीसदी है।जबकि सप्ताह में कम से कम एकबार रेडियो सुनने वाली औरतों की संख्या 41.6 फीसदी है। सप्ताह में कम से कम एकबार सिनेमाूहाल में जाकर फिल्म देखनेवाली औरतों की संख्या मात्र 9.7 फीसदी है। उल्लेखनीय है कि प्रथम 'नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे' के समय सिनेमाहॉल में जाकर फिल्म देखने वाली औरतों की संख्या 16 फीसदी थी। यानी इसमें सात फीसदी की गिरावट आई है।
उसी तरह रेडियो सुनने वालों की संख्या 48.3 फीसदी थी। यानी इसमें भी सात फीसदी की गिरावट आई है। वहीं
दूसरी ओर टीवी देखनेवाली औरतों की संख्या में पहले सर्वे की तुलना में सात फीसदी की वृद्धि हुई है।अन्य राज्यों की तुलना में इस मामले में भी पश्चिम बंगाल काफी पीछे है।
दूसरे सर्वे में औरतों के साप्ताहिक टेलीविजन देखने के मामले में 19 राज्य पश्चिम बंगाल से आगे हैं।ये हैं-दिल्ली,हरियाणा,हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, पंजाब, मध्यप्रदेश, अरुणाचल प्रदेश,मणिपुर ,मिजोरम, नागालैण्ड, सिक्किम,त्रिपुरा,गोवा,गुजरात,महाराष्ट्र,आंध्र,कर्नाटक,केरल और तमिलनाडु। जबकि पश्चिम बंगाल से जो राज्य पीछे हैं वे हैं-राजस्थान, उत्तर प्रदेश,बिहार,उडीसा,असम,मेघालय।
इसी तरह रेडियो सुनने के मामले में दिल्ली,हिमाचल प्रदेश,जम्मू-कश्मीर,मणिपुर,मिजोरम,सिक्किम, गोवा, कर्नाटक,केरल और तमिलनाडु का स्थान पश्चिम बंगाल से ऊपर है।बाकी राज्य पश्चिम बंगाल से नीचे हैं।
इसी तरह सप्ताह में कम से कम एकबार सिनेमा हॉल में जाकर फिल्म देखने वाली औरतों की तादाद के मामले में पश्चिम बंगाल से आठ राज्य ऊपर हैं।ये हैं-दिल्ली,अरुणाचल प्रदेश,मणिपुर, सिक्किम,आंध्र, कर्नाटक,केरल और तमिलनाडु। बाकी राज्यों का स्थान पश्चिम बंगाल से नीचे है।
पश्चिम बंगाल में 60.8 फीसदी औरतें कम से कम एक जनमाध्यम के संपर्क में जरूर हैं।जबकि इस संदर्भ में 18 राज्य पष्चिम बंगाल से ऊपर हैं। यानी सारे देश में पश्चिम बंगाल का इस मामले में 19वां स्थान है।
महिला सशक्तिकरण में आर्थिक आत्मनिर्भरता का प्रमुख स्थान है।नौकरी करके महिलाओं को आत्मनिर्भरता का अहसास जल्दी होता है। पश्चिम बंगाल में नौकरी के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या 28.5 फीसदी है।जबकि इससे ज्यादा तादाद में औरतें जम्मू-कष्मीर,राजस्थान,मध्यप्रदेश,उडीसा,अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर,मेघालय, मिजोरम, नागालैण्ड, गोवा, गुजरात, महाराष्ट्र,आंध्र,कर्नाटक और तमिलनाडु में नौकरी करती हैं।बाकी राज्यों में पश्चिम बंगाल से कम तादाद में औरतें नौकरी करती हैं। पेशेवर ,तकनीकी अथवा प्रबंधकीय नौकरियों मे पश्चिम बंगाल में मात्र 1.5 फीसदी औरतें नौकरी में हैं। पष्चिम बंगाल से ऊपर 21 राज्यों का स्थान है।
पश्चिम बंगाल में महिलाओं पर अत्याचार की घटनाओं में तेजी से इजाफा हुआ है। पश्चिम बंगाल में ऐसी औरतों की संख्या बहुत कम है जो 15से लेकर 49 साल की आयु के बीच कभी न कभी एकाधिक बार अपने पति से पिटी न हो। इस मामले में 11राज्यों से पश्चिम बंगाल आगे है। पश्चिम बंगाल में 15 वर्ष की आयु से लेकर 49 वर्ष तक की हिंसाचार की शिकार शादीसुदा महिलाओं की संख्या 17.6 फीसदी थी।जबकि दिल्ली,हरियाणा,हिमाचल प्रदेश,पंजाब,राजस्थान,असम सिक्किम,त्रिपुरा,गुजरात,और केरल में पश्चिम बंगाल से कम औरतें हिंसाचार की शिकार हुई हैं। बाकी राज्यों में पश्चिम बंगाल से ज्यादा औरतें हिंसाचार की शिकार होती रही हैं।
विगत एक वर्ष (2004) में पश्चिम बंगाल में 8.7 फीसदी औरतें हिंसा की शिकार हुईं। जबकि तेरह राज्यों का आंकड़ा बंगाल से नीचे है। पश्चिम बंगाल से कम हिंसा जिन राज्यों में दर्ज की गई वे हैं- दिल्ली,हरियाणा,हिमाचल प्रदेष,पंजाब,राजस्थान, असम, मणिपुर,सिक्किम, त्रिपुरा,गोवा,गुजरात,महाराष्ट्र और केरल। हाल ही में जिन औरतों की शादी हुई है,उनके प्रति हिंसाचार के मामले में पश्चिम बंगाल का रिकॉर्ड काफी खराब है।हाल ही में संपन्न शादीशुदा औरतों के प्रति हिंसाचार की शिकार औरतों की पश्चिम बंगाल में तादाद 15.2 फीसदी है।इस मामले में भी पष्चिम बंगाल से कम हिंसा दिल्ली,हरियाणा,हिमाचल प्रदेश, जम्मू- कश्मीर,पंजाब,राजस्थान,असम,मणिपुर,मेघालय, मिजोरम, नागालैण्ड,सिक्किम,त्रिपुरा,गोवा,गुजरात और केरल में दर्ज की गई है। बाकी राज्यों में पश्चिम बंगाल से ज्यादा तादाद में औरतों को शादी के तत्काल बाद ही हिंसाचार का शिकार होना पड़ा है।
'नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे -2' के अनुसार महिला सशक्तिकरण के जो मानक तय किए गए हैं उनमें पहला मानक था-परिवार के कामकाज में औरतों की फैसलों में शिरकत,बाजार आदि स्वतंत्र रूप से जाने की आजादी,पति द्वारा पत्नी को किसी न किसी कारण मारने के कम से कम एक कारण के आधार पर हिंसाचार का समर्थन,लड़का या लड़की को शिक्षा में तरजीह दिए जाने का सवाल,जनमाध्यम देखने,सुनने आदि का समय,इन सभी मानकों के आधार पर पश्चिम बंगाल का देश में 16वां स्थान है।
दूसरा मानक था-छह साल एवं उससे ज्यादा उम्र की महिलाओं में साक्षरता की दर,नियमित टेलीविजन देखने,रेडियो सुनने,फिल्म देखने आदि की दर,महिलाओं में नौकरी की दर। इस मानक के आधार पर पश्चिम बंगाल का सारे देश में बीसवां स्थान है। महिला सशक्तिकरण तीसरा मानक है-शादी की उम्र,महिला एकल परिवार,संयुक्त परिवार में रहती है,पति-पत्नी की उम्र में कितना अंतर है,शिक्षा और उम्र में समानता है या अंतर है इत्यादि। इन मानकों के आधार पर पश्चिम बंगाल का समूचे देश में सोलहवां स्थान है । समग्रता में महिला सशक्तिकरण के मानकों के आधार पर देश में पश्चिम बंगाल अठारहवें स्थान पर आता है।
महिलाओं के सशक्तिकरण के मामले में ही पष्चिम बंगाल पिछड़ा हुआ नहीं है अपितु शिक्षा और स्वास्थ्य के सामान्य स्तर,सुविधाओं आदि के मामले में भी बहुत पिछड़ा हुआ है।सर्जनात्मक साहित्य के क्षेत्र में हिन्दी,मराठी,तेलुगू आदि का सामयिक साहित्य जिन ऊँचाईयों पर है उसकी तुलना में बंगला साहित्य काफी पीछे है।
इन दिनों बंगला में श्रेष्ठ साहित्य नहीं लिखा जा रहा।औसत दर्जे का साहित्य लिखा जा रहा है।बंगला में अन्य भाषाओं का अनुवाद साहित्य बहुत कम मात्रा में आ रहा है।इसका प्रधान कारण है बंगाली लेखकों और प्रकाशकों की यह मान्यता कि बंगला का साहित्य तो सबसे विकसित साहित्य है,उसे अन्य भाषा के साहित्य को जानने की जरूरत नहीं है।
बंगला का सिनेमा उद्योग आज सबसे बुरी अवस्था में है।इक्का-दुक्का बंगला फिल्मों के अलावा बंगला में अच्छी फिल्में नहीं बन रहीं।ज्यादातर सिनेमाघरों में हिन्दी फिल्में चलती हैं।बंगला चैनलों में पुरानी बंगला फिल्में दिखाई जा रही हैं।शायद ही कभी कोई नई बंगला फिल्म चैनलों में दिखाई गई हो।
कहने का तात्पर्य यह है कि बंगला का जो महाख्यान रैनेसां ने रचा था वह खत्म हो चुका है।सांस्कृतिक श्रेश्ठत्व के गौरवपूर्ण अतीत का जो महाख्यान औद्योगिक क्राति के कंधों पर सवार होकर आया था।वह निरूद्योगीकरण के कंधों पर सवार होकर विदा हो चुका है।
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