बुधवार, 23 जून 2010

बर्बर पूंजीवाद का मॉडल है रूस- चीन का


         सोवियत संघ और चीन का समाजवाद से पूंजीवाद में रूपान्तरण हो चुका है। आज रूस और चीन बदल गए हैं। वे वैसे नहीं है जैसे समाजवाद के जमाने में थे। सामाजिक जीवन में पहले की तुलना में असुरक्षा बढ़ी है।
      पहले राजसत्ता से मानवाधिकारों को खतरा था आज लुंपनों ,कारपोरेट घरानों और पार्टी तंत्र से खतरा है। दोनों ही देशों में साधारण आदमी के कष्ट बढ़े हैं। चीन में सरकारीतंत्र के अंग के रूप में पार्टी सदस्य उत्पीड़न कर रहे हैं,सोवियत संघ में अपराधी गिरोहों में बड़ी संख्या में पार्टी सदस्यों ने रूपान्तरण कर लिया है।
     रूसी देशों में कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों का बड़ा हिस्सा पृथकतावादी, फंडामेंटलिस्ट,फासिस्ट और माफिया कामों में लग गया है। कम्युनिस्ट पार्टी सदस्यों का इस कदर पतन इस बात का संकेत है कि समाजवाद के दौर में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी किस कदर सड़ चुकी थी और उसे दुनिया नहीं जानती थी। इस पहलू की ओर कभी भारत के कम्युनिस्टों ने भी ध्यान नहीं दिया। वे लगातार सोवियत संघ जाते थे लेकिन सोवियत संघ के सच को कभी नहीं बताते थे। वे भोंपू की तरह सोवियत प्रचार करते थे।
         सोवियत संघ में समाजवाद के जमाने में साधारण आदमी भौतिक तौर पर निश्चिंत था लेकिन राजनीतिक तौर पर आत्मनिर्भर और स्वतंत्र नहीं था। आज कहने को राजनीतिक तौर पर स्वतंत्र है लेकिन स्वतंत्रता का भोग करने की उसके पास क्षमता नहीं है।
         भू.पू.सोवियत संघ के देशों में भौतिक दुरावस्था ने राजनीतिक स्वतंत्रता को दिवास्वप्न बना दिया है। इसी अर्थ में पूंजीवाद में स्वतंत्रता नहीं होती। पूंजीवाद में स्वतंत्रता का आनंद वे ही ले सकते हैं जो सक्षम हैं। अक्षम लोगों के लिए पूजीवादी स्वतंत्रताओं की कोई प्रासंगिकता नहीं है। आयरनी यह है कि समाजवाद में सोवियत नागरिकों के पास मानवाधिकार नहीं थे ,समाजवाद के पराभव के बाद भी नहीं हैं बल्कि कुछ मामलों में समाजवाद से भी बदतर अवस्था है।
       समाजवाद से पूंजीवाद में रूपान्तरण का एक निष्कर्ष यह है कि जो देश समाजवाद से पूंजीवाद के मार्ग पर आ रहे हैं वे अपने यहां मानवाधिकारों का विकास नहीं कर पाए हैं। यही स्थिति चीन की है। साम्यवादियों के लिए समाजवाद से पूंजीवाद में व्यवस्था परिवर्तन का अर्थ सिर्फ उत्पादन का स्वामित्व बदलना है । मूल्यबोध और राजनीतिक संरचनाएं बदलना नहीं है।
     साम्यवाद की जगह सिर्फ पूंजीवादी उत्पादन संबंधों का आना और पूंजीवादी मूल्यों के अनुरूप संरचनात्मक और कानूनी व्यवस्थाओ का न आना बर्बर पूंजीवाद को जन्म दे रहा है। यह ऐसा पूंजीवाद है जिसके पास लूट और अनियंत्रित शोषण का तो अधिकार है लेकिन इसकी किसी के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं है। रूस और चीन में पूंजीवाद के प्रयोगों की यह धुरी है। राज्य खुलेआम अविवेकपूर्ण ढ़ंग से इन देशों में पूंजीपतिवर्ग के साथ है।
       पूंजीपतिवर्ग का नंगी गुलामी का आदर्श देश हैं चीन और रूस। मसलन् सामान्य तौर पर विकसित पूंजीवादी मुल्कों और अनेक तीसरी दुनिया के देशों में मजदूरों को जितने अधिकार प्राप्त हैं उतने भी अधिकार इन देशों में मजदूरों को प्राप्त नहीं हैं। मजदूर विरोधी ये सारे काम वे लोग कर रहे हैं जो कम्युनिस्ट हैं या थे।
    मजदूर विरोधी मामलों में रूसी भू.पू.कम्युनिस्ट और चीनी मौजूदा कम्युनिस्ट एक ही थाली में मलाई खा रहे हैं। कहने का तात्पर्य कि इन देशों में पूंजीवाद का विकास नहीं हो रहा बल्कि बर्बर पूंजीवाद का विकास हो रहा है। वहां जनता अधिकारहीन है। मानवाधिकारों को लागू नहीं किया गया है और इस हरकत के लिए तरह-तरह के तर्क गढ़ लिए गए हैं। उनमें साझा तर्क यह है कि पश्चिम की तर्ज का लोकतंत्र चीन और रूस के लिए अप्रासंगिक है। मजेदार बात यह है कि पश्चिमी पूंजीवादी उत्पादन, जीवनशैली, खाक-पान,घर-द्वार,मुनाफा,बैंकिंग व्यवस्था,मासकल्चर आदि सब कुछ स्वीकार्य है सिर्फ लोकतंत्र नहीं,लोकतांत्रिक अधिकार नहीं,लोकतांत्रिक जिम्मेदारियां नहीं।
    समाजवाद से पूंजीवाद में आने का एक परिणाम यह निकला है कि आम जीवन में सामूहिकीकरण और व्यक्तिगत प्रयासों में क्या और कितना अच्छा है इस पर बहस छिड़ गयी है। पहले लोग व्यक्तिगत को बेहतर मानते थे और सामूहिकीकरण का विरोध कर रहे थे। आज 25 साल के व्यक्तिगत तजुर्बों ने सबकी नींद उडा दी है। व्यक्तिगत संपत्ति पाने, पैदा करने और उसके आधार पर तरक्की करने की मानसिकता को गहरा झटका लगा है, इसके बावजूद एक बड़ा समुदाय है जो सामूहिकीकरण का विरोध कर रहा है।
     रूस में पहले अधिकांश जनता राज्य के संरक्षण में आर्थिक तौर पर सुरक्षित थी आज ऐसा नहीं है आज अधिकांश जनता बेहतर अवस्था में नहीं है। एक हिस्सा है जो खुशहाल है। भ्रष्टाचार चारों ओर फैला हुआ है। राज्य की नीतियों में जनता के हितों की रक्षा का जितना दावा किया जाए स्थिति वास्तव में अच्छी नहीं है।
     रूस में अब तक कोई स्पष्ट औद्योगिक नीति नहीं है। इसके चलते पूंजी निवेश के मामले में मनमानापन देखा जा रहा है। रूसी पूंजीपति और राज्य यह जानते ही नहीं हैं कि पूंजीवाद कैसे सामाजिक आर्थिक हितों के विस्तार का काम कर सकता है। नीति के अभाव के कारण ही एल्यूमीनियम टायकून ओलिग देरीपास्का को ऑटोमोबाइल प्लांट लगाने की अनुमति नहीं दी गयी। एक अन्य पूंजीपति ने उल्यानेवस्क का ऑटोमोबाइल प्लांट खरीदा लेकिन वह असफल रहा। ऐसी ही कहानी और भी पूंजीपतियों की है। रूस का पूंजीवाद चंदधनियों को महाधनी बनाने और उनके आर्थिक हितों के विस्तार तक ही सीमित है। अधिसंख्य जनता उसके केन्द्र में नहीं है।
   मास्को विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और अर्थशास्त्री स्तीनिस्लेव मेनशिकोव ने ‘प्रावदा’ अखबार को दिए साक्षात्कार में रूसी अर्थव्यवस्था और पूंजीपतिवर्ग की प्रकृति को लेकर कई महत्वपूर्ण बातें कही हैं । उन्होंने कहा है  रूस में कर वसूली किसी भी पूंजीवादी मुल्क से ज्यादा होती है। जबकि रूस में कामगारों की पगार ऊँची नहीं है। बड़े पूंजीवादी मुल्कों की तुलना में रूस में 60 प्रतिशत ज्यादा कर वसूली होती है। यह तब है जब रूस के पूंजीपति बड़े पैमाने पर टैक्स चोरी करते हैं।
    रूस में सकल घरेलू उत्पाद का पगार पर 27प्रतिशत खर्च होता है वहीं अमेरिका में सकल घरेलू उत्पाद का पगार पर 60 प्रतिशत हिस्सा खर्च किया जाता है। अमेरिकी पूंजीपति अपने कामगार के रहन-सहन और जीवनशैली का ख्याल करते हुए पगार देता है इसके विपरीत रूसी पूंजीपतिवर्ग अपने कामगारों की बदहाल जिंदगी को बेहतर बनाने के लिहाज से पगार नहीं देता। जिस तरह गुंडे अपने मातहत गुंडों को जीनेभर लायक पैसा देते हैं वैसे ही रूसी पूंजीपति अपने मजदूरों को जीनेभर लायक पैसा देता है।
    रूस के पूंजीपति को कुछ महत्वपूर्ण संस्कार साम्यवाद से मिले हैं। इनमें झूठ बोलने और अपारदर्शिता का संस्कार उसे साम्यवाद से मिला है। रूसी पूंजीपति और अभिजात्यवर्ग अपनी आय छिपाता है। बेईमान का यह संस्कार उसे पश्चिमी पूंजीपतिवर्ग से मिला है।
    रूसी पूंजीपतिवर्ग का काम करने का तरीका सब कुछ हडपो। वह सारे लाभ स्वयं खा जाना चाहता है वह नहीं चाहता कि अन्य को लाभ मिले। रूसी सरकार की गरीब और अमीर को लेकर अलग नीति और नजरिया नहीं है। सरकार आम जनता के विकास के लिए पूंजीपतिवर्ग से सरप्लस हासिल करने में असफल रही है। इसके कारण सरकार के पास अर्थव्यवस्था को विकसित करने के लिए पैसा ही नहीं है। सारा सरप्लस पूंजीपतियों के हाथों में चला गया है। इससे चंद वर्षों में ही अमीर और गरीब का विशाल अंतर पैदा हो गया है।  
      रूस के राष्ट्रपति के आर्थिक सलाहकार अरकादी दरकोविच ने कहा है कि रूस में सबसे बड़ी चुनौती है भ्रष्टाचार ,कारोबार का घटिया वातावरण,नए काम करने वालों के लिए कम से कम मौके और लाभ। ये कुछ चीजें हैं जो हमें नुकसान पहुँचा रहे हैं।
    अगले पांच सालों में सेना,पुलिस और नौकरशाही में आठ लाख से ज्यादा लोगों की छंटनी की जाएगी, यह सब किया जाएगा अर्थव्यवस्था को दुरूस्त बनाने के नाम पर। इसके इलावा पुलिस से तीन लाख लोगों की छंटनी की जाएगी। लगता है इससे रूस में अव्यवस्था फैलेगी। पामाली बढ़ेगी।   

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