रविवार, 13 जून 2010

तमाशबीनों के देश में लुटेरे-1-

          आज भारत तमाशबीनों का देश है। इसमें नागरिक नहीं तमाशबीन निवास करते हैं। तमाशबीनों की तरह आज हम सब एक-दूसरे को देख रहे हैं। पूरे समाज को देख रहे हैं। माओवादियों ने दांतेवाडा में बम के धमाके किए,निर्दोष लोग मारे गए, हम तमाशा देखते रहे। हाल ही में अहमदाबाद में दंगे हुए हम तमाशा देखते रहे। पश्चिमी मिदनापुर में माओवादियों की शैतानी हरकतों से रेल पटरी से उतरी हम तमाशा देखते रहे। कहीं कोई छेड़छाड़ की घटना हुई हम तमाशा देखते रहे। मंहगाई आसमान छू रही है हम तमाशा देखते रहे। नेता-अफसर लूट मचा रहे हैं हम तमाशा देखते रहे। भोपाल गैस त्रासदी के पीडितों  के खिलाफ अदालत का फैसला आया हम टीवी के सामने बैठे त्रासदी का राग भोपाली देख रहे हैं। कहीं पर कोई महाजुलूस नहीं, देश में और मध्यप्रदेश में कोई हड़ताल नहीं। ये तमाशे और नज़ारे हमारे जीवन में मीडिया के जरिए पहुँच रहे हैं। मीडिया ने हमें खबरों का नहीं तमाशों और नज़ारों का अभ्यस्त बना दिया है।
      अब हम किसी के दोस्त नहीं रहे। रिश्तेदार-नातेदार नहीं रहे। परिचित मात्र हैं। तमाशबीन हैं। तमाशबीन की तरह एक-दूसरे के जीवन में तांक-झांक करते रहते हैं। हम कब तमाशबीन में रूपान्तरित हो गए ? तमाशबीन होने से क्या होता है ? तमाशबीनों की बृहत्तर जमात में आज जो कुछ घटित हो रहा है उसे सामान्य बात कहकर टाला नहीं जा सकता ?     
       तमाशबीन की तरह देखना आधुनिक पूंजीवादी समाज का लक्षण है। यह ऐसा समाज है जहां प्रतीक (साइन) की जगह हम व्यंजित को देखते हैं। मौलिक की नकल करते हैं। यथार्थ के प्रतिनिधि बनने का दावा कर रहे हैं।
       हम जो कुछ देख रहे हैं वह सब कल्पना है,विभ्रम है। कल्पना एक जमाने में आनंद देती थी इन दिनों भय पैदा करती है। सत्य दुर्लभ होता जा रहा है और कल्पना का विस्तार हो रहा है। पूंजीवादी समाज में जितना कल्पना का विस्तार होता है उसी मात्र में भय का विस्तार होता है। भय और कल्पना की इस अन्तर्क्रिया ने समूची सामाजिक चेतना को आच्छादित कर लिया है। फलतः सत्य छोटा हो गया है और कल्पना बड़ी हो गयी हैं।
      आज भारत  में उत्पादन के आधुनिक साधनों का वर्चस्व है। उत्पादन के आधुनिक उपकरणों का वर्चस्व ही है जो हम सबको तमाशबीन बना रहा है। इसके कारण ही बड़े पैमाने पर नजारे देखने को मिलते हैं। अब हम जो कुछ देखते हैं वह सब इमेजों में देखते हैं,इमेजों के जरिए समाज समझते और ग्रहण करते हैं। अब व्यक्ति का नहीं इमेजों का प्रतिनिधित्व सामने आता है। जिन इमेजों को देखते हैं उनका सामान्च जीवन से अब कोई संबंध नहीं होता,फलतःजीवन की एकीकृत धारणा भी नहीं बना पाते। जीवन में चीजों के बीच अन्तस्संबंध नहीं बना पाते। यथार्थ हमेशा अधखुला नजर आता है। यथार्थ अपनी आंतरिक एकता से कटा नजर आता है। जिस दुनिया को देखते हैं वह छद्म होती है। जिन वस्तुओं को देखते हैं वे उलझनें पैदा करती हैं। जब इमेजों के संसार में विशिष्टिकृत इमेजों को रच लेते हैं तो इमेजों का स्वायत्त संसार पूर्णता प्राप्त कर लेता है। जिंदगीरहित चीजें स्वायत्त विचरण करने लगती हैं।
     मौजूदा समाज में इमेजों को देखना और उनमें ही जीना सामान्य बात हो गयी हो गयी है। नज़ारे ही प्रमुखता अर्जित कर लेते हैं। इमेज और उनके नजारे ही एकता के सूत्र बन जाते हैं। अब हम नज़ारों को देखते हैं,नज़ारे हमें देखते हैं। एक-दूसरे को देखना ही एकीकरण का मंत्र बन जाता है। नज़ारे ही समाज को जोड़ने का उपकरण बन जाते हैं। समाज में जहां जाओ सब एक-दूसरे को घूर रहे हैं। अब घूरना ही चेतना की निर्धारक तत्व बन जाता है। घूरना आज छद्मचेतना का प्रभावशाली आधार है। वंचित और समर्थ सभी एक-दूसरे को घूर रहे हैं। नज़ारों और घूरने के आधार पर ही हमारी चेतना भी बन रही है।
    हम जब इमेज देखते हैं तो सिर्फ इमेजों को ही नहीं देखते बल्कि इमेजों के जरिए जनता के बीच के सामाजिक संबंधों को देखते हैं। जनता के सामाजिक संबंधों के बीच में सेतु का काम इमेज करती हैं।
    इमेजों को विज़न के दुरूपयोग के जरिए नहीं समझा जा सकता। बल्कि इमेजों का उत्पादन जनोत्पादन की तकनीक के गर्भ से होता है। हम जिन इमेजों को मीडिया के विभिन्न रूपों के माध्यम से देखते हैं वे सभी सामाजिक वर्चस्व वाले मॉडल का प्रतिनिधित्व करती हैं। अब हमारे सामने तयशुदा चीजें पैदा करके रख दी गयी हैं और हमें अब इनमें से ही चुनना है। यह तय है कि किसमें से चुनना है,कितना चुनना है और क्यों चुनना है। यह सब पहले से ही निर्धारित है। नागरिकों को उपलब्ध उत्पादन संबंधों में से ही चुनना होता है। हम जो चुनते हैं वह अवास्तविक होता है, काल्पनिक होता है। जो चुनते हैं वह वास्तव सामाजिक यथार्थ में कुछ भी नया नहीं जोड़ता। इसमें हम सिर्फ जो उपलब्ध कराया जा रहा है उसमें से ही चुनते हैं। उपभोग करते हैं। विचार,प्रचार,विज्ञापन,मनोरंजनआदि का उपभोग करते हुए सामाजिक वर्चस्व का ही उपभोग करते हैं। फलतः सामाजिक वर्चस्व का हिस्सा मात्र बनकर रह जाते हैं। हम जिन नज़ारों को देखते हैं वे रूप और अन्तर्वस्तु में मौजूदा व्यवस्था की वैधता को ही हमारे ज़ेहन में उतारते हैं। मौजूदा व्यवस्था के लक्ष्य और परिस्थितियों की वैधता को पुष्ट करते रहते हैं। नज़ारे हमारे मन में व्यवस्था के लक्ष्य और परिस्थितियों के प्रति स्थायी वैधता पैदा करते हैं।
    सामान्य जीवन में संसार की एकीकृत अवस्था के साथ संबंध टूट जाता है। समग्र विश्व और अंश के बीच संबंध टूट जाता है। यथार्थ और इमेज का संबंध टूट जाता है। नज़ारे के दर्शकों की भाषा शासकीय उत्पादन की भाषा बन जाती है। य़ासकों की भाषा में नज़ारों का उत्पादन किया जाता है और फिर सारा समाज शासकों की भाषा में ही चीजें देखने और बोलने लगता है। हम जिन प्रतीकों में बोलते हैं,जिसमुहावरे में बोलते हैं वे सभी सत्ता के द्वारा पैदा किए हैं।
      प्रतिवाद की भाषा का अपहरण करने की मीडिया कोशिश के रूप में हाल ही में एयर इंडिया के कर्मचारियों की ूनियन पर पाबंदी लगाए जाने और बड़ी तादाद में कर्मचारियों के नेताओं की बर्खास्तगी की खबर को देख सकते हैं। बर्खास्तगी के पहले एयर इंडिया के कर्मचारियों की हड़ताल को इस तरह पेश किया गया गोया ये लोग जनविरोधी हैं, इन्हें हड़ताल पर जाने का हक नहीं है। इन्हें अपनी मांगों को हासिल करने के लिए आंन्दोलन का रास्ता नहीं अपनाना चाहिए। स प्रचार अभियान का सीधा असर हुआ और दिल्ली हाईकोर्ट ने एयर इंडिया के कर्मचारियों की हड़ताल को अबैध करार दे दिया।
   ज्यों ही हड़ताल अवैध करार हुई कर्मचारी काम पर लौट आए और उनके काम पर लौटते ही कर्मचारियों की दोनों यूनियनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया और आज स्थिति यह है कि 48 से ज्यादा कर्मचारियों को सस्पेंड कर दिया गया है। कर्मचारियों के सस्पेंशन और यूनियनों पर पाबंदी की खबरों को जस तरह का कवरेज मिलना चाहिए वह नहीं मिला,समूचे मीडिया में प्रतिवाद करने वालों का उपहास करने, उन्हें अपमानित करने,उन्हें सामाजिक तौर पर अलग-थलग ड़ालने की यचंत कोशिशें हो रही हैं। मीडिया में ‘पूंजीवाद’ पदबंध का प्रयोग अघोषित सेंसरशिप के कारण नहीं हो रहा है।
    अमेरिका का विरोध करने ,साम्राज्यवाद का विरोध करने वालों की भाषा का लोप हो गया है। पूंजीवाद, अमेरिका,साम्राज्यवाद आदि पदबंधों को लेकर प्रगतिशील भावबोध और अर्थ संप्रेषित पैदा किया जा रहा है। पूंजीवाद,नव्य-उदारतावाद आदि के प्रति जनता को सक्रिय करने वालों को प्रगतिशील कहा जा रहा है। पूंजीवाद को श्रेष्ठतम समाज के रूप में चित्रित किया जा रहा है।
    







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