रविवार, 20 जून 2010

शीतयुद्धीय राजनीति और जीवनशैली के मायावी खेल





अधिकांश विज्ञापनों में किसी वस्तु विशेष की प्राप्ति को 'सफलता' या 'खुशी' का आधार बनाकर दर्शाया जाता है। यह ऐसी अवस्था है जिसे ग्राहक कभी अर्जित नहीं कर पाता। इसके संप्रेषण के लिए फैंटेसी का सहारा लिया जाता है जिससे वह व्यक्ति के स्वप्न को अनंत काल तक बनाए रखने में सफल हो जाता है। इसी अर्थ में विज्ञापन को 'जादुई दर्पण' भी कहा जाता है जिसमें प्रच्छन्नत: वह व्याख्या निहित है कि दैनंदिन जीवन की व्यवस्था असंतोषजनक है। विज्ञापन की फैंटेसी इससे ध्यान हटाने में मदद करती है।
प्रश्न उठता है कि विज्ञापन में इस तरह की 'ग्लैमरस' ्रूजदगी को बार-बार क्यों दोहराया जाता है? जॉन सिंक्लियर ने लिखा है कि विज्ञापन में ग्लैमरस ्रूजदगी की वस्तु के साथ प्रस्तुति का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विकास किया गया। इसका अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ है। इस प्रवृत्तिा का शीतयुध्दीय राजनीति से संबंध है। इसके प्रभाववश ही 'स्टैंडर्ड ऑफ लिविंग', 'सिविलाइजेशन', या 'लाइफ स्टाइल' के रूपों और मुहावरों का प्रयोग शुरू हुआ। उसे समूची संस्कृति का पर्याय बनाकर पेश किया गया। यह शीतयुध्दीय राजनीति की समाजवाद विरोधी विचारधारा का केंद्रीय तत्व है। सन् 1950 के बाद समूची दुनिया में विज्ञापन-कला का तेजी से विकास हुआ। माध्यम सिध्दांतों का निर्माण हुआ। बड़े पैमाने पर औपनिवेशिक शोषण से मुक्त नव-स्वाधीन राष्ट्रों का जन्म हुआ। हिटलर की पराजय में सोवियत संघ की अग्रणी और निर्णायक भूमिका के कारण समाजवादी विचारों के प्रति विश्वव्यापी लहर पैदा हुई। अनेक देशों में समाजवादी परिवर्तनों को लागू करने से जीवन में गुणात्मक परिवर्तन देखे गए, खासकर रूस और चीन में। इसी संदर्भ में विज्ञापन के साथ जीवनशैली की प्रस्तुति को एक औजार के रूप में इस्तेमाल किया गया। समाजवादी समाज में घट रहे परिवर्तनों ने पूंजीवादी दुनिया और जीवनशैली के प्रति असंतोष और अनास्था को झकझोर दिया था। ठीक इसी समय समाजवाद के खिलाफ विचारधारात्मक संघर्ष तेज करने और पूंजीवाद के प्रति आस्था पैदा करने के लिए जीवनशैली के 'ग्लैमरस' रूप को माल की बिक्री के साथ संप्रेषित किया गया। समाजवादी देशों के बारे में कहा गया कि वहां 
अधिनायकवाद है, अभाव है, एक जैसापन है, वहां कमिसार है, कंज्यूमर नहीं है। समाजवाद को सबसे बुरी सभ्यता के रूप में चित्रिात किया गया। जॉन सिंक्लियर ने लिखा कि वस्तु का जीवनशैली के साथ पेश किया जाना पूंजीवादी व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने की बृहत्तर योजना का एक अंग है। पूंजीवादी व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने के लिए विज्ञापनों में जहां एक ओर वर्गीय संरचना का लोप कर दिया गया, वहीं पर उपभोग को तरजीह दी गई। पूंजीवाद में नई जीवनशैली, सभ्यता और जीवन स्तर के उच्च रूपों को दिवा-स्वप्न के रूप में पेश किया जाता है। इसी संदर्भ में रेमंड विलियम्स ने विज्ञापन को 'पूंजीवादी समाज की आधिकारिक कला कहा था।मिशेल सुंडसॉन ने कहा कि पूंजीवादी व्यवस्था ने विज्ञापन को 'सोवियत समाज की सामाजिक यथार्थवादी कलाओं के समकक्ष रखकर पेश किया।' अमेरिकी संस्कृति के प्रमुख इतिहासज्ञ जे. बोरस्टिन डेनियल ने लिखा कि विज्ञापन अमेरिकी सभ्यता की मुख्य धारा का अंग है और वह नए विश्व समाज की दिशा तय करने वाला तत्व भी है।34
जॉन सिंक्लियर ने लिखा कि विज्ञापन के माध्यम से विचारों की बिक्री अचानक ही नहीं है और न यह मात्रा व्यावसायिक उद्देश्य से की जा रही है, बल्कि विचारों और मूल्यों का चयन वस्तुओं और सेवाओं को सांस्कृतिक रूप में पेश करने के लिए किया जाता है। परिणामत: विज्ञापन का अर्थांतर विचारधारा में हो जाता है।
विज्ञापन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि इससे जनता की 'स्व-निर्भर' इमेज को निर्मित किया। कल्याणकारी रूप को वेश्यावृत्ति माना और ग्लैमर और ऐंद्रिय सुख को ग्राहक का जीवन तत्व माना। जिस तरह पूंजीवाद कहता है कि मैं तुमको प्यार करता हूं, इसी धारणा की विज्ञापन में अभिव्यक्ति का रूप है मैं स्वयं को प्यार करता हूं। यही विज्ञापन की 'स्व-निर्भर' छवि है। यह मूलत: स्वार्थी प्रवृत्तिा है जो सिर्फ निजता पर बल देती है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो पाएंगे कि विज्ञापन में जीवनशैली का प्रयोग विशेष वैचारिक हितों की पूर्ति के लिए किया गया अत: उसे विचारधारा के रूप में देखना चाहिए। इस विचारधारा का दायरा जीवनशैली से लेकर अर्थव्यवस्था तक फैला हुआ है। भारत में ऐसे चिंतकों का अभी विकास नहीं हुआ है जो विज्ञापन की पूंजीवादी विचार-
धारा के संदर्भ में विश्लेषित करते हों। इसके विपरीत ऐसे लोग मिल जाते हैं जो यह तर्क देते हैं कि विज्ञापन का विचारधारा से कोई संबंध नहीं होता। वह तो सिर्फ वस्तु का विज्ञापन मात्रा है। ऐसे लोगों को मिलर जैसे पूंजीवादी विचारकों को पढ़ना चाहिए जो पूंजीवादी विचारधारा की संरचना में रखकर विज्ञापन को देखते हैं।
मिलर ने लिखा कि मुक्त व्यापार पर आधारित लोकतंत्रा के विकास में विज्ञापन का महत्वपूर्ण स्थान है, वह उसके भविष्य का प्रभावशाली तत्व है। वह बड़े उद्देश्य की पूर्ति करता है। यह उद्देश्य है वस्तुओं की बिक्री और सेवाओं को उपलब्ध कराना। मिलर ने लिखा कि मैं यह मानता हूं कि विज्ञापन संयोगवश एक और उद्देश्य की पूर्ति करता है जो हमारे समाज में वस्तु की बिक्री से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। ... इसका मतदाताओं को सूचना देने और चुनाव संपन्न कराने के साथ संबंध है। सूचना देने का कार्य जनमाध्यमों के बिना संभव नहीं है और मुक्त बाजार में व्यापार तब तक संभव नहीं है जब तक कि वह अपने ग्राहकों से वस्तुओं और सेवाओं का विज्ञापन के जरिए जनमाध्यमों से संप्रेषण न करे। यह स्थिति हमारी लोकतांत्रिाक जीवनशैली का विकास करती है। विज्ञापन उसका एक अंग है। मिलर ने लिखा कि मुक्त बाजार पर आधारित लोकतंत्रा के भविष्य को सुरक्षित रखने में विज्ञापन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अत: उसकी रक्षा की जानी चाहिए।
मिलर ने विज्ञापन के जिस कार्य को प्रधान उद्देश्य माना है वह उसका प्राथमिक उद्देश्य नहीं है, बल्कि वह उसका 'दोयम दर्जे' का उद्देश्य है। वह उपभोग का माहौल बनाए रखता है। मिलर ने जिसे संयोगवश घटित घटना माना है, यह संयोगवश घटित नहीं है। किसी भी वस्तु या सेवा को जब सांस्कृतिक रूप में ढाला जाता है तो विज्ञापन का विचारधारा में रूपांतरण हो जाता है। इसमें किन विचारों और मूल्यों का चयन होगा? उसका संकेत शब्द और संकेत चिद्द क्या होगा? किस तरह की जीवनशैली के साथ पेश किया जाएगा, मानव सभ्यता को किस रूप में पेश किया जाएगा, मानवीय आवश्यकताओं को किस रूप में पेश किया जाएगा, इत्यादि प्रश्नों का विज्ञापन निर्माता ध्यान देता है अत: विज्ञापन की विचारधारा नहीं होती, इस धारणा का कोई आधार नहीं है। विज्ञापन की विशेषता होती है कि वह साधारणत: दुनिया जैसी है उसे स्वीकार करता है और उसी को अतिरंजित रूप में पेश करता है।
समाजवादी विचारों के प्रभाववश सामूहिकता और वर्गीय आधार पर संगठित होने की तरफ लोगों का ध्यान गया था। विज्ञापन ने शीतयुध्दीय राजनीति के तहत वास्तव के बजाय काल्पनिक दुनिया का सपना पेश किया। समूह के बजाय व्यक्तिगत हीरो/हीरोइन/खिलाड़ी/धनाढय आदि को आरामदायक अवस्था के आदर्श रूप में पेश किया। वे ग्राहक के प्रेरक तत्व की भूमिका अदा करते हैं। वे ग्राहक के मन में आरामदायक जीवन का सपना जगाते हैं, बस, इसके लिए सिर्फ एक भाग्यशाली मौका हाथ लग जाना चाहिए। 'चांस' की धारणा का विज्ञापनों में, मासकल्चर के रूप में, प्रचार मूलत: अहंवाद को बढ़ाता है। यह अहंवाद व्यक्ति के अंदर यह प्रभाव पैदा करता है कि वह अपने आसपास के व्यक्तियों से घृणा औरर् ईष्या करने लगता है। खासकर उन लोगों के प्रति घृणा पैदा हो जाती है जो 'चांस' के सक्षम दावेदार हों। वह पूंजीवादी व्यवस्था का समर्थन करनेवाला मनोवैज्ञानिक तत्व है। यह मासकल्चर का अंग है। यही मासकल्चर इजारेदार पूंजी के इर्द-गिर्द व्यक्ति को इकट्ठा करती है।
आज भारत का समूचा विज्ञापन उद्योग पूरी तरह अमेरिकी बहुराष्ट्रीय संचार और विज्ञापन कंपनियों पर निर्भर है। इस निर्भरता ने हमें अमेरिकी संस्कृति के स्रोत से जोड़ दिया है। अमेरिकी समाज में बुर्जुआ प्रचार अभियान के पांच मिथ प्रचलित हैं। ये मिथ हमारे विज्ञापन में भी हैं। ये पांच मिथ हैंपहला, व्यक्तिवाद और व्यक्तिगत चयन का मिथ, दूसरा, तटस्थता का मिथ, तीसरा, मानवीय प्रकृति की अपरिवर्तनीयता का मिथ, चौथा, सामाजिक अंतर्विरोधों से दूर रहने का मिथ, पांचवां, बहुलवाद का मिथ। भारतीय विज्ञापनों का गंभीरता से अध्ययन करें तो पाएंगे कि व्यक्ति की 'प्रसन्नता' को 'धन' पर निर्भर के रूप में पेश किया जाता है। यह मूलत: पूंजीवादी व्यवस्था के आम निमय का ही पुनरुत्पादन है। इसमें जीवन का उद्देश्य होता है पैसा पैदा करना और स्वतंत्राता का अर्थ होता है व्यापार की आजादी, साथ ही, समानता को 'अवसर की समानता' के रूप में पेश किया जाता है। 'पर्सुएशन' और 'मेनीपुलेशन' के तत्व आज अमेरिकी रणनीति की धुरी भी हैं। इनके माध्यम से अमेरिकी रणनीति को सांस्कृतिक क्षेत्रा में उतारा जाता है, राजनीतिक क्षेत्रा में वर्चस्व रखा जाता है और अर्थनीति पर मजबूत पकड़ बनाए रखी जाती है।
प्रसिध्द अमेरिकी पत्राकार और इतिहासकार क्रिस्टोफर लीख ने लिखा है कि आज अमेरिकी नागरिक टैक्नोक्रेटिक इमेजों की दुनिया में जीते हैं, ये इमेज फोटोग्राफी, सिनेमा, टेलीविजन और अत्याधुनिक रिकार्डिंग मशीनों के जरिए पैदा की जाती हैं, पहले से तैयार शुदा इमेजों के कारण यथार्थ चेतना और यथार्थ इमेज को नजरअंदाज किया जा रहा है। इन सबके द्वारा भ्रमों की बाढ़ पैदा की जा रही है। उन्हें हमारे अनुभव में उतारा जा रहा है और अब वे सब अमेरिका का व्यापार हो गए हैं। जे. बोरिस्टन ने लिखा कि अमेरिकी माध्यमों से जो सूचनाएं और अर्ध्दसूचनाएं पेश की जाती हैं, वे न तो सच होती हैं और न झूठी किंतु 'विश्वासयोग्य' होती हैं।38 अत: अमेरिकी संस्कृति और विचारधारा की तरफ बढ़ते हुए भारतीय विज्ञापन और मासकल्चर के कदम मूलत: सामाजिक विभाजन और तनाव को तीव्रता ही प्रदान करेंगे।

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