सोमवार, 14 जून 2010

तमाशबीनों के देश में लुटेरे-3-

          एक जमाना था रंगभेद को सबसे बड़ा भेदभाव का रूप माना जाता था नए किस्म का का रंगभेद है झुग्गी-झोंपड़ी ,कच्ची बस्तियां और मुस्लिमों के प्रति घृणा। तमाम किस्म के उदारवादियों में झोंपडी वालों और मुसलमानों के प्रति भेददृष्टि के दर्शन साफ होते हैं। यह भेददृष्टि कारपोरेट मीडिया और मुंबईया सिनेमा में साफ अभिव्यंजित हो रही है।
    समूचे देश में जिस तरह विगत तीन दशकों में कच्ची बस्तियों का व्यापक रूप में विस्तार हुआ है उससे यह तत्व साफतौर पर देख सकते हैं कि महानगरों और शहरों में जितने लोग पक्की बस्तियों में, घरों में रहते हैं, उतने ही या कहीं पर उससे ज्यादा लोग महानगर की झोंपड़पट्टियों में रह रहे हैं। उठता है क्या बस्ती वाले को हम सर्वहारा कह सकते हैं ? क्या यह समुदाय क्रांति कर सकता है ? 
     ये वे लोग हैं जिनके पास परंपरागत जाति-धार्मिक पहचान नहीं है, किसी भी किस्म की परंपरागत जीवनशैली इनके पास नहीं है। स्लावोज जीजेक के शब्दों में इनके पास किसी भी किस्म की पहचान नहीं है। ये सभी किस्म के आधारभूत बंधनों से मुक्त हैं। ये मुक्त स्पेस में यहां से वहां ढ़ुलकते रहते हैं। ये राज्य और पुलिस के नियमन के पूरी तरह बाहर हैं। इन्हें  जबरिया ढ़ंग से समूह में बांध दिया गया है। ये जबरिया एक साथ रहने के लिए अभिशप्त हैं। इनकी परिस्थितियां ऐसी हैं कि अब इनके यहां कोई घटना घटित नहीं होती।
        आमतौर पर यह कहा जाता है कि समूचे समाज पर राज्य का नियंत्रण है। लेकिन बस्तियों में रहने वालों पर राज्य का कोई नियंत्रण नहीं है।  ये राज्य नियंत्रण के दायरे या नक्शे के बाहर हैं। कच्ची बस्तियां समस्त किस्म के अवैध कारोबार का हिस्सा  हैं। समानान्तर अर्थव्यवस्था,संगठित अपराध, धार्मिक समूहों आदि का बुनियादी आधार हैं। ये सभी क्षेत्र मूलतः कानून के दायरे के बाहर  हैं।
    कच्ची बस्तियों का वातावरण गैर-सर्वहारा समूहों की शहरी क्रीडास्थली है। इन इलाकों में रहने वाली जनता प्रत्येक वस्तु और सुविधा से वंचित है। यह संरचनाविहीन जनता है। इस जनता को संगठित करना और राजनीतिक चेतना संपन्न बनाना सबसे बड़ी राजनीतिक जरूरत है। यह जनता जिस विचारधारा के साथ संगठित हो जाएगी उसे राजनीतिक प्रतिष्ठा दिला सकती है। 
     वेनेजुएला में अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ राष्ट्रपति चावेज का शहरी झोंपड़पट्टियों में रहने वाली जनता को संगठित कर लेना सबसे बड़ी शक्ति साबित हुआ है। भारत में माकपा का पश्चिम बंगाल में जनाधार और दीर्घकालिक आधार तैयार करने में झोपड़पट्टी में रहने वालों का सबसे बड़ा योगदान रहा है। इनके ही आधार पर लंबे समय से बुर्जुआ राजनीति का वाममोर्चा प्रतिवाद करता रहा है।
     दूसरी महत्पूर्ण बात यह है कि झोपड़पट्टियों में रहने वाली आबादी में से हिंसा करने वाले गिरोह तैयार होकर आते  रहे हैं। इन बस्तियों में रहने वालों की आय का बड़ा स्रोत असामाजिक कार्रवाईयां रही हैं। हिंसा को जनप्रिय बनाने और वैध बनाने में इन बस्तियों की बड़ी भूमिका है।  
     हिंसा को झोंपड़पट्टी वालों ने साझा संस्कृति में तब्दील किया है। भारत में मुंबई के दंगों से लेकर गुजरात के दंगों तक और 1984 के सिख दंगो में सबसे ज्यादा हथियारबंद गिरोह झोंपड़पट्टियों से ही निकलकर आए थे। 
     दूसरी ओर हिंसा का ज्ञान के स्तर पर,राजनीतिक स्तर पर महिमामंड़न बढ़ा है। हिंसा का समाजीकरण बढ़ा है। आज हमारी आम बोलचाला की भाषा में हिंसक भाषा आ बैठी है। इस स्थिति में आग में घी देने का काम कारपोट घराने कर रहे हैं। वे अपने मुनाफों के अंधाधुंध विस्तार के लिए ,अपने निजी स्पेस के निर्माण के लिए आम जनता की संपत्तियों को लूट रहे हैं, सरकारी संपत्तियों और सुविधाओं को लूट रहे हैं। इसके कारण उनके पास बेशुमार संपत्ति का संचय हो गया है।
     आज साधारण आदमी के पास किसी भी किस्म का प्राइवेट वातावरण नहीं है। वह जिस प्राइवेट वातावरण में रहता है उसमें अहर्निश भय बना हुआ है। इस भय के कारण वह अपनी विशिष्ट पहचान खो चुका है। अब राजनीति में विचारधारा के आधार पर जनता को संगठित नहीं किया जाता है बल्कि विशेषज्ञों के द्वारा जनता के प्रबंधन और प्रशासन पर जोर दिया जा रहा है। 
      अराजनीतिक ढ़ंग से समाज की सुरक्षा और विकास की बातें की जा रही हैं। अराजनीतिकरण के आधार पर प्रशासन का प्रमुख आधार तैयार किया जा रहा है। समूचे वातावरण को भय में तब्दील कर दिया गया है। हमेशा तबाही का डर लगा रहता है। भय की पूंजी ही ग्लोबल पूंजीवाद की प्रधान संपदा है। 
      आम जनता में थर्म का ह्रास हुआ है धर्म की जगह धार्मिक तत्ववाद ने ले ली है। धार्मिक फंडामेंटलिज्म को आज आम जनता की अफीम में रूपान्तरित कर दिया गया है। धार्मिक फंड़ामेंटलिज्म के प्रभुत्व को आज कोई भी चुनौती देने की स्थिति में नहीं है। जगह-जगह धार्मिक फंड़ामेंटलिज्म ने सामाजिक दायरों को संकुचित किया है। ये सारी चीजें मिलकर हमारी मनोदशा बना रही हैं।
        समाज में ‘पशु मनुष्य’ और ‘अमानवीय मनुष्य’ ये दो किस्म के लोग ज्यादा दिख रहे हैं। सामान्य जीवन में खाओ-पीओ-मौज करो का नारा देकर जो धारणा बनाई जा रही है उससे ‘पशु मनुष्य’ की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। खाओ-पाओ-मौज करो का सिद्धान्त पशु का सिद्धान्त है। आज आदमी आनंद और मनोरंजन के चक्कर में व्यस्त है और मौत आदि से डरता है। यह मनोदशा पशु की है। इसे मानवीय मनोदशा समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। मनुष्य का सत्य प्रेम ही उसे पशुता से मुक्ति दिलाता है। सत्य घटनाएं ही उसे पशुता से ऊपर उठाती हैं। मीडिया सत्य की बजाय भय पैदा करने के मार्ग पर चला गया है।                     
      आज समाज में निजीकरण बगैर हिंसा के संभव नहीं है। निजता पर बढ़ता हुआ जोर हमें ज्यादा से ज्यादा हिंसा की ओर ठेल रहा है। ज्यादा धन कमाने के चक्कर में हिंसक उपकरणों का प्रयोग करने लगे हैं। प्राइवेसी के सवाल मूलतः संपत्ति संचय से जुड़े सवाल हैं। संपत्ति संचय के जिन रूपों को हम इन दिनों देख रहे हैं वे हैं बौद्धिक संपदा अधिकार, डिजिटल अधिकार, इंटरनेट से मुफ्त सामग्री संकलन का अधिकार,नेट से मुफ्त संगीत पाने का अधिकार आदि। ये सभी आधुनिक किस्म के संपदा संचय के अधिकार हैं।
     पूंजीवाद हमेशा सामाजिक परिस्थितियों के निर्माण पर ध्यान देता है। वह बाजार को वस्तुगत और विरेचन के रूप में पेश करता है। बाजार के पीछे सक्रिय अदृश्य हाथों को चालाकी भरे तर्कों के आधार पर पेश करता है। वह यह भी आभास देता है कि निजी अहं में कैद व्यक्ति साझा सामाजिक लक्ष्यों के लिए काम करता है।साथ ही यह भावना बनाए रखता है कि रेडीकल किस्म के परिवर्तन होने वाले हैं।
       निजी संपत्ति के अधिकारों के रूप में डिजिटल जगत में प्रधान अंतर्विरोध पैदा हो रहे हैं। निजी संपदा का अर्थ है मुनाफा कमाना। जब कोई संपदा अथवा वस्तु मुनाफा देने लगे तो वह निजी संपदा बन जाती है। जिन वस्तुओं का भारत के लोग सदियों से इस्तेमाल करते रहे हैं और जिनका जन्म भारत में हुआ है उन वस्तुओं के पेटेण्ट अधिकार बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने नाम कराकर व्यापार कर रही हैं। पेटेण्ट का अधिकार निजी संपदा का सबसे बड़ा अधिकार बन गया है। बायोजेनेटिक कंपनियां ये काम खूब कर रही हैं।
    पूंजीपतिवर्ग किस तरह का व्यवहार रहा है इसे समझने के लिए माइक्रोसॉफ्ट के बिल गेट का 3 फरवरी 1976 का खुला पत्र आदर्श उदाहरण है। बिल गेट ने अभिरूचियों के शौकीनों के नाम लिखे खुले पत्र में लिखा है कि सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में निजी संपदा का वर्चस्व है। बिल गेट ने लिखा है कि ‘‘अभिरूचियों के अधिकांश शौकीन यह जानते हैं कि वे सॉफ्टवेयर चुराते हैं ..ज्यादातर सीधे चुराते हैं। आप जो काम कर रहे हो उसे चोरी कहते हैं।’’ बिल गेट का मानना है ज्ञान उसकी संपत्ति है, भाषा उसकी संपत्ति है। लेखन के प्रकार उसकी संपत्ति है। निजी संपत्ति के नाम पर सॉफ्टवेयर का दोहन सरासर बेईमानी है,अनैतिक है।
       आयरनी यह है कि जो कारपोरेट घराने जनता की संपदा की खुली लूट कर रहे हैं वे ही आज हमारे बीच में सबसे बड़े जनसेवक के रूप में पेश किए जा रहे हैं। मसलन् बिल गेट को गरीबी और बीमारियों के खिलाफ संघर्ष करने वाले महान व्यक्ति के रूप में,रूपक मडरॉक को महान पर्यावरणवादी के रूप में पेश किया जा रहा है। 
    राजनीतिक एक्शन और उपभोग के बीच साझा मोर्चा बन गया है। लुटेरे अमीर जनसेवक और राजनीतिज्ञों को इनके हितों के संरक्षक के रूप में पेश किया जा रहा है।
       आम जनता को पूंजीवादी वातावरण में डुबो दिया गया है। यही वातावरण आम जनता के लिए अफीम है। नए पूंजीवादी वातावरण के रूप में गगनचुम्बी इमारतें , चमकीली सड़कें, मॉल,तरह-तरह की उपभोक्ता वस्तुएं,इलैक्ट्रोनिक वस्तुएं,डिजिटल माल आदि को पेश किया जा रहा है।            
  

              

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