मंगलवार, 29 जून 2010

'उत्तरआधुनिक' एजेंडा क्या है?- इलेन मिकसिन्स वुड -1-



             प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान लिखी गयी अपनी प्रसिद्ध और अरूचिकर पुस्तक दि डिक्लाइन ऑफ दि वेस्ट में ओसवाल्ड स्पेंगलर ने घोषणा की कि पश्चिमी संस्कृति और इसके प्रबल मूल्यों सा अंत होने जा रहा है।समाज को एक सूत्र में बांधने वाली परंपराएं और बंधन टूट रहे हैं ; विचार और सभ्यता की एकता सहित जीवन की एकात्मकताएं बिखर रही हैं। उन्होंने यह भी कहा कि अपने स्वाभाविक चक्र से गुजरने वाली हर अन्य संस्कृति के समान ही पश्चिम भी अपने ‘प्रबोधन’ अथवा ‘ज्ञानोदय’ के शरदकाल ( जो कि पहसे ही विध्वंसात्मक है ) से अनिवार्यतः निकलकर व्यक्तिवाद और नास्तिवाद में आ गया है।

              लगभग चार दशकों के बाद सी.राइट मिल ने घोषणा की कि 'हम आधुनिक युग के अंत के कगार पर हैं।' इस युग का स्थान उत्तरआधुनिक काल ले रहा है। इसमें वे ऐतिहासिक अपेक्षाएं जो 'पश्चिमी सभ्यता' को परिभाषित करती रही हैं, अब प्रासंगिक नहीं रह गई हैं। तर्कना और स्वतंत्रता की संयुक्त प्रणाली में प्रबोधन सिध्दांत और इस सिध्दांत में निहित दो अन्य प्रमुख सिध्दांतउदारवाद और समाजवाद 'विश्व की और हमारी पर्याप्त व्याख्या कर पाने में लगभग विफल हो गए हैं।' जे.एस. मिल और कार्ल मार्क्स दोनों ही समान रूप से कालातीत हो चुके हैं।1
            इन दो युगांतकारी घोषणाओं, एक 1918 में और दूसरी 1959 में प्रकाशित, के बीच बहुत बड़े सैध्दांतिक विभेद हैं। जहां एक ओर स्पेंगलर के विचार लोकतंत्र-विरोधी हैं वहीं मिल्स आमूल परिवर्तन (रैडिकलिज्म) में विश्वास रखते हैं। जहां स्पेंगलर की 'प्रबोधन' से शत्रुता (या कम से कम इसके प्रति अनिश्चितता) है, वहीं मिल्स, यद्यपि कुछ हताश, लेकिन प्रबोधन के मूल्यों में निरंतर विश्वास रखते हैं। लेकिन इस बीच मंदी, युध्द और नरसंहार का विप्लवकारी इतिहास और इसके अनंतर भौतिक समृध्दि की आशा भी है : एक मानवता के अब तक के सबसे बड़े भय से भी अधिक भयावह और दूसरा सर्वाधिक सुखद आशाओं की कल्पना का प्रतीक।

जिस समय स्पेंगलर ने 'दि डिक्लाइन ऑफ दि वेस्ट' लिखी, यूरोप निश्चित रूप से एक बहुत बड़े उथल-पुथल की स्थिति में था। यह युध्द और क्रांति के दौर से गुजर रहा था। कहने की आवश्यकता नहीं कि लोकतंत्र के प्रसार के कारण और गैर-क्रांतिकारी स्थितियों में भी शासक वर्ग को संभावित खतरा था। मिलस की श्रेष्ठता अन्य कारणों से थी। 1918 से विश्व उन विभीषिकाओं से गुजर चुका था जिनकी स्पेंगलर कल्पना भी नहीं कर सकते थे; जबकि मिलस 1950 के दशक के शांत और राजनीतिक उदासीनता के वातावरण में पूंजीवादी समृध्दि ('समृध्द समाज') की उदीयमान लहरों के बारे में लिख रहे थे। और वह विश्वविद्यालय के छात्रों की उस पीढ़ी को पढ़ा रहे थे जो यद्यपि अभी भी शीतयुध्द और परमाणु-युध्द के भय के साए में जी रही थी, लेकिन फिर भी भौतिक संपन्नता की विलक्षण आशा से आह्लादित थी।
            दरअसल पूंजीवाद का यह 'स्वर्णिम युग' (जैसा कि एरिक हॉब्सबाम2 ने इसे संज्ञा दी है) मिल्स की पीढ़ी के अन्य शिक्षाविदों (जिनमें से अधिकांश शायद माइकेल हैरींगटन के कहे गए 'अन्य अमरीका का अनदेखा कर रहे थे, अमरीकी साम्राज्यवाद के बारे में कहने की तो आवश्यकता ही नहीं है') को ठीक उसी समय यह भी आश्वस्त कर रहा था कि पश्चिमी सभ्यता की समस्याओं का कमोबेश समाधान हो गया है; वहां कुल मिलाकर सामाजिक सौहार्द की स्थिति है; और दरअसल प्रगति की प्रबोधन परिकल्पना कमोबेश प्राप्त हो चुकी है अथवा कम से कम इससे बहुत अधिक बेहतर होने की संभावना नहीं, आवश्यकता नहीं या यथेष्ट भी नहीं है। मिल्स के सहकर्मी डैनियल बेल ने (जो अपनी सुप्रसिध्द पुस्तक के बाद के संस्करण में मिलस पर क्यूबा के देशद्रोही के रूप में बहुत निर्मम कटाक्ष करने वाले थे) इसी को 'विचारधारा का अंत' कहा।

अत: मिल्स के लिए प्रबोधन संबंधी आशावाद का अंत किसी असंदिग्ध आपदा का परिणाम नहीं था बल्कि उसकी निराशावादिता सफलता और असफलता दोनों से समान रूप से उत्पन्न थी। उनका कहना था कि प्रबोधन के कई प्रमुख उद्देश्यों की पूर्ति वास्तव में हो गई है जैसे सामाजिक तथा राजनीतिक संगठनों को तार्किक बनाना; वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकीय प्रगति जिसकी प्रबोधन के सर्वाधिक आशावादी स्वप्नद्रष्टा कल्पना भी नहीं कर सकते थे; उन्नत पश्चिमी समाजों में सार्वभौम शिक्षा का प्रसार आदि।

मिल्स ने कहा फिर भी इन उन्नतियों से मानव जाति की 'मूलभूत विवेकशीलता' में शायद ही कोई वृध्दि हुई है। यदि कुछ हुआ भी है तो वह 'वैज्ञानिक पुनर्गठन', नौकरशाही और आधुनिक प्रौद्योगिकी ने मानव स्वतंत्रता में वृध्दि के बजाए इसे और भी सीमित कर दिया है। ये कई अप्रत्याशित बुराइयों के स्रोत भी रहे हैं। 'वैज्ञानिक पुनर्गठन' और स्वतंत्रता के बीच तालमेल की इसी कमी का परिणाम था आत्मनिर्वासित मनुष्यों अथवा 'प्रसन्नचित्त यंत्रमानवों' का आगमन। उन्होंने अपने आपको उन परिस्थितियों : विशालकाय संगठनों तथा पराजित करने वाली ताकतों के अनुरूप ढाल लिया, जिन पर उनका कोई नियंत्रण नहीं था और उन्हें इसका एहसास भी था। ये वे लोग थे जिनके बारे में यह माना जा सकता है कि उन्हें न तो स्वतंत्रता की आकांक्षा थी न ही तर्कना की इच्छा।

इनमें से कुछ विषयवस्तु तो काफी लंबे समय से पाश्चात्य सामाजिक सिध्दांत के भी अंग रहे थे। उदाहरण के लिए, मैक्स वेबर या कार्ल मैनहिम का समाजशास्त्र। आत्मनिर्वासन के संबंध में मार्क्सवादी सिध्दांतों के उल्लेख की तो आवश्यकता ही नहीं है। और वाम तथा दक्षिणपंथी दोनों ही के लिए प्रगति के प्रति निराशा तथा प्रबोधन के प्रति दुविधा बीसवीं सदी की संस्कृति के सामान्य विषय रहे हैं। इसके कारण अच्छे भी रहे हैं, बुरे भी। लेकिन मिलस के दिनों में इसका एक अलग आयाम था और था इसका भी असफलता से कम और (प्रतीयमानत:) सफलता यानी युध्दोपरांत दीर्घ तेजी के दौरान 'कल्याणकारी' और 'उपभोक्ता' पूंजीवाद के पल्लवन से अधिक सरोकार था।

यह दृढ़ विश्वास कि तेजी जारी रहने वाली है और यह पूंजीवाद की सामान्य स्थिति दरशाती है, वाम समाजवादी सिध्दांत के विकास का प्रमुख निर्धारक घटक बन गया। कई वामपंथी समाजवादी आलोचकों, जिनमें मारकूस का उदाहरण प्रमुख है, ने यह तय मान लिया कि इस नए किस्म के पूंजीवाद ने 'आम लोगों', विशेष रूप से मजदूर वर्ग पर अपरिवर्तनीय प्रभाव छोड़ा है। मिलस ने वामपंथियों से 'श्रमिक सैध्दांतिकी' त्यागने का आग्रह किया। निश्चित ही वे अकेले ऐसे व्यक्ति नहीं थे जो सोचते थे कि अब मजदूर वर्ग एक विरोधपरक शक्ति के रूप में उपलब्ध नहीं है। यहां तक कि अपने आपको मार्क्सवादी मानने वाले लोग भी इस तरह के विचार रखते थे। यह 1960 के दशक की 'क्रांतियों', छात्रों के रैडिकलिज्म तथा उन मार्क्सवादी सिध्दांतों की प्रमुख थीम बनाने वाला था। यह प्रतिरोध के वाहक के रूप में छात्रों और बुध्दिजीवियों को तथा मजदूर वर्ग के संघर्ष के स्थान पर 'सांस्कृतिक क्रांति' को अधिक प्रमुखता देते थे।3

साठ के दशक की क्रांतियों के दस बरसों बाद तेजी का दौर प्रभावी रूप से बीत चुका था। लेकिन आज पूंजीवादी गतिहीनता के समय में इसकी बौध्दिक विरासत अभी भी जीवित है। इन्हीं विरासतों में एक और 'उत्तरआधुनिकता' है। इस बार बुध्दिजीवियों का एक वृहद समुदाय वर्तमान युग को उत्तरआधुनिक काल के रूप में मात्र घोषणा कर ही संतुष्ट नहीं है वरन वे अपने आपको जान-बूझकर 'उत्तरआधुनिकतावादी' कहलाते भी हैं। यद्यपि वे नीत्से जैसे पुराने दार्शनिकों से लेकर लकां, ल्योतार्द, ंफूको और देरीदा जैसे हाल के विचारकों के विभिन्न प्रभाव को स्वीकार करते हैं लेकिन आज का उत्तरआधुनिकतावाद सबसे अधिक साठ के दशक की पीढ़ी के विचारकों तथा उनके छात्रों से जुड़ा है। अत: उत्तरआधुनिकतावाद 1990 के दशक में पूंजीवाद के नए (उत्तर फोर्डवादी 'असंगठित', 'लचीले') स्वरूप पर चाहे जितना भी जोर दे, यह पूंजीवाद के तथाकथित स्वर्णिम काल के दरम्यान निर्मित चेतना का ही परिणाम है।

दरअसल कुछ उत्तरआधुनिकतावादी पूंजीवाद की जीत और उपभोक्तावाद के उल्लास के लिए इतने उत्सुक हैं कि उन्होंने तेजी के दौर के अंत को शायद ही नोटिस किया है। लेकिन जो वर्तमान वास्तविकताओं से अपेक्षाकृत अधिक परिचित हैं, उनकी बौध्दिक जड़ें उस 'स्वर्णिम क्षण' में हैं। उनका विश्वास पूंजीवाद की उस जीत में है जो साम्यवाद के पतन की तारीख से बहुत पहले की है। इसलिए जहां कुछ दक्षिणपंथियों ने 'इतिहास के अंत' या पूंजीवाद के अंतिम विजय की घोषणा कर दी है, वहीं कुछ वामपंथी बुध्दिजीवियों द्वारा हमसे यह पुन: कहा जा रहा है कि एक युग का अंत हो गया है; हम 'उत्तरआधुनिक' युग में रह रहे हैं; 'प्रबोधन परियोजना' समाप्त हो चुकी है; सभी पुराने यथार्थ और विचारधाराएं अप्रासंगिक हो गई हैं; वैज्ञानिक पुनर्गठन के पुराने सिध्दांत अब लागू नहीं होते, आदि-आदि।

जैसा कि हम कुछ क्षण में आगे देखेंगे यह स्पष्ट नहीं है कि नव उत्तरआधुनिकवाद किसी प्रकार के ऐतिहासिक विश्लेषण की अनुमति देता है। लेकिन यदि आज के उत्तरआधुनिकवादी बुध्दिजीवियों के अनुसार 'उत्तरआधुनिकता' कोई ऐतिहासिक काल दरशाता है तो ऐसा प्रतीत होता है कि वास्तविक परिवर्तन 1960 के दशक के उत्तर में या 1970 के दशक के आरंभ में आया। हालांकि आरंभिक युगपरक मील के पत्थरों और एकदम हाल के समय के पुल के बीच बहुत ऐतिहासिक जल प्रवाहित हो चुका है लेकिन उत्तरआधुनिकता के हाल के निदान के बारे में जो ध्यान आकर्षित करने वाली बात है वह यह कि इसमें और विचारधारा के अंत की पुरानी घोषणाओं, अतिवादी तथा प्रतिक्रियावादी दोनों संस्करणों में बहुत समानता है। दूसरे शब्दों में, जो ध्यान देने वाली बात है, वह असातत्य की इस कहानी में नैरंतर्य या कम से कम पुनरावृत्ति है। यदि हम एक ऐतिहासिक युग के अंत में आ गए हैं तो जिसका अंत हुआ है वह स्पष्टतया कोई बहुत अलग युग का अंत नहीं बल्कि एक ही युग का दोबारा अंत हुआ है।

नैरंतर्य और असातत्य की इस द्वंद्वात्मकता से आश्चर्य नहीं होना चाहिए। आखिर, बीसवीं सदी के ये आभासीय युग विच्छेद पूंजीवाद के तर्क और आंतरिक अंतर्विरोधों द्वारा ऐतिहासिक एकता में बंधे हुए हैं, पूंजीवाद एक गतिशील लेकिन संकटों से भरा तंत्र है जो हजारों मौत मरता है। (क्रमशः)

किताब का नाम- इतिहास के पक्ष में
संपादक द्वय- इलेन मिकसिन्स वुड और जॉन बेलेमी फास्टर
 प्रकाशक- ग्रंथ शिल्पी बी-7, सरस्वती कॉम्प्लेक्स,सुभाष चौक,लक्ष्मी नगर,दिल्ली-110092
 मूल्य- 375 रूपये


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