शुक्रवार, 18 जून 2010

फासीवाद के प्रधान लक्षण -1- लालबहादुर वर्मा

 :    नकारात्मक और आक्रामक राष्ट्रवाद : फासीवाद का सारतत्व है राष्ट्रवाद पर वह नकारात्मक होता है और उसमें एकांतिकता और आक्रामकता का अतिरेक होता है। इतिहास में व्यक्ति और समुदायव्यष्टि और समष्टि, के बीच जितने भी समन्वयक और जोड़ने वाली संस्थाएं और विचार विकसित हुए हैं उनमें सबसे कारगर बंधन राष्ट्रवाद ही साबित हुआ हैधार्मिक आवेग के जेहाद और 'क्रूसेड्स' से भी अधिक शक्तिशाली और विस्फोट का किसी भी सांस्कृतिक आवेग को विस्फोटक ऊर्जा और सांगठनिक शक्ति आर्थिक-राजनीतिक लाभ की उत्प्रेरणा से ही मिलती रही है।
     आधुनिक काल के प्रारंभ में सामंती जकड़बंदियों को तोड़कर पूंजीवाद के विकास के लिए नई लामबंदी जरूरी थी। पूंजीवाद के अनिवार्य उपकरण के रूप में राष्ट्रवाद का प्रादुर्भाव हुआ और उसने बृहत्तर समुदायों को जोड़ने के लिए जनवाद को हथियार की तरह तराशना शुरू किया। इसी प्रक्रिया में फ्रांस, इंगलैंड, हालैंड और बेल्जियम आदि में राष्ट्र-राज्य विकसित हुए। इन देशों में पूंजीवाद ¹ूब फूला-फला और उसके अनिवार्य बाजारों के रूप में उपनिवेशवाद कारगर हुआ।
     विभिन्न कारणों से इटली जहां पुनर्जागरण का आविर्भाव हुआ था और जर्मनी जहां पूंजीवाद और राष्ट्रवाद के सहचर के रूप में मार्टिन लूथर के धर्म-सुधार का झंडा बुलंद हुआ था राष्ट्र-राज्य के निर्माण में पिछड़ गया। मुख्य कारण इन पर विदेशी शक्तियों का विभाजक प्रभाव था। फ्रांस की क्रांति ने सिध्दांत में और नेपोलियन की विजयों के व्यवहार में इटली और जर्मनी के एकीकरण में आधार प्रस्तुत किया। नेपोलियन के प्रतिकार के लिए भी राष्ट्रवाद एक प्रेरणा-स्रोत बना।
पूंजीवाद राष्ट्रवाद की चालक शक्ति है। जब इटली और जर्मनी में पूंजीवादी-औद्योगिक विकास हुआ तो उसके लिए अनुकूल राजनीतिक संस्थाओं की जरूरतों का दबाव बढ़ा। कहते ही हैं कि आधुनिक राष्ट्रवाद मंडी में जन्मता है। इन क्षेत्रों में मंडियां बढ़ीं तो राष्ट्रवाद अनिवार्य उपकरण लगने लगा। तब जाकर 1871 में इटली और जर्मनी का राष्ट्रीय एकीकरण संभव हो पाया। पर तब तक बाजारों की दौड़ में ये पिछड़ गए थे। अब दौड़ में बने रहने के लिए तेज दौड़ना और आगे निकल गए लोगों को लंगी मारना ही उपाय था। इन दोनों देशों ने दोनों ही हथकंडे अपनाए। ऐसे में इनकी नकारात्मकता और आक्रामकता बढ़ती गई।
इस तरह इटली में फासीवाद, जर्मनी में नात्सीवाद और स्पेन में फालांजवाद आक्रामक तेवर अपना कर ही सत्तासीन हुए। मुसोलिनी ने भूमध्यसागर क्षेत्र और हिटलर ने तो पूरे यूरोप और फिर पूरे विश्व को अपना विस्तार क्षेत्र बना डाला।
सैन्यवाद : आक्रामकता निराधार नहीं हो सकती। उसका सैनिक और आर्थिक आधार होना चाहिए। सैन्यीकरण ऐसे में कारगर उपाय होता है। इससे शासक और राज्य शक्तिशाली होते हैं और देश को अनुशासन में रखा जा सकता है। सेना राज्य का विस्तार करती है और इस क्रम में आर्थिक लामबंदी भी होती चलती है।
मुसोलिनी और हिटलर ने अपनी पार्टियों को भी सैनिक तंत्र की तरह ही संगठित कियापूरी तरह अनुशासन और श्रेणीबध्द। पार्टी और राज्य दोनों विध्वंस और उच्छेदन (ह्यह्वङ्ढद्गह्मह्यद्बशठ्ठ) के कारगर हथियार बना दिए गए। उत्पादन, रोजगार और विस्तार एक दूसरे के पूरक बन गए।
सैन्यवाद को विचारधारात्मक गरिमा प्रदान की गई। मध्यकाल की तरह का गौरव-गान किया जाने लगा। युध्द और विजय का 'ट्रस्ट, क्रोबे, फ्राइट' (विश्वास करो, आज्ञा का पालन करो और लड़ो) यही राष्ट्रीय आह्वान बन गया। मारिओ कार्लो ने कहा : 'इटलीवासी हमेशा युध्दरत रहे हैं और रहेंगे।' हिटलर और मुसोलिनी जनरल की यूनीफार्म में ही दि¹ने लगे। पार्टी के प्रदर्शन सैनिक परेड की तरह होने लगे। पूरा देश युध्दरत सेना की तरह संचालित होने लगा। इसका तात्कालिक प्रभाव पड़ना ही था और पड़ा।
विकृत पूंजीवाद : निश्चित ही ऐसे तामझाम और विस्तारवादी-सर्वसत्तावादी राज्य को चलाने के लिए आवश्यक आधार एक विकासमान अर्थव्यवस्था ही प्रदान कर सकती थी। वह व्यवस्था पूंजीवादी ही हो सकती थी। इटली और जर्मनी के पूंजीपतियों ने फासीवाद को आगे बढ़ाने में अपना लाभ देकर उसकी मदद की थी। सत्तासीन होने के बाद अर्थव्यवस्था का सामान्य विकास उनको स्वीकार्य नहीं था। वैसे भी सामान्य विकास असामान्य जरूरतें नहीं पूरी कर सकता था। इसलिए त्वरित और असाधारण विकास के लिए युध्दस्तर पर उत्पादन कार्य शुरू किया गया। इससे तात्कालिक रूप से तो काफी लाभ हुआ। पर पूंजीवाद के बाजार की स्वतंत्रता एक हद तक निर्णायक होती है। एक फासीवादी राज्य में अत्यधिक केंद्रीकरण किसी को किसी तरह की आजादी नहीं देता। इतने नियंत्रण में बाजार की शक्तियां कुंठित होती हैं। इसके अलावा युध्द जैसी अर्थव्यवस्था असंतुलित होती है। निर्णायक होती हैं सैनिक आवश्यकताएं। उससे जनता की सामान्य आवश्यकताएं महत्वपूर्ण नहीं रह जातीं। भारी उत्पादन रोजगार तो मुहैया कर देता है पर वह उत्पादन युध्द की आवश्यकताओं द्वारा निर्धारित होती है। 1939 में जब विश्वयुध्द शुरू हो गया तो भारी विध्वंस के कारण उत्पादन में और तेजी आ गई। पर यह सब असंतुलित और विकृत उद्विकास था। इससे समाज का स्थायी और संतुलित लाभ नहीं हो सकता था। पूंजीवाद स्वयं सारे समाज की जरूरतें नहीं पूरी करता। उसका विकृत रूप तो निश्चित ही और अधिक असंतोष पैदा कर रहा था।
1929 के बाद जब भारी मंदी आई तो जर्मनी उसका सबसे बड़ा शिकार हो गया। जर्मन मार्क का मूल्य उस कागज के मूल्य जितना भी नहीं रहा जिस पर वह छपा होता था।
ऐसी अर्थव्यवस्था का वास्तविक रूप युध्द के अंतिम दिनों में उजागर होने लगी थी। जब वितरण को कठोर नियंत्रण के हवाले करना पड़ा था। युध्द और फासीवाद के अंत के बाद नए सिरे से निर्माण ने ही अर्थव्यवस्था को उबारा था।
सर्वसत्तावादी व्यवस्था : ऐसा नियंत्रित और कुछ हितों की पूर्ति के लिए संचालित व्यवस्था के लिए कठोर और अतिशय केंद्रीकरण एक मात्र उपाय था। इसलिए फासीवाद सर्वसत्तावादी व्यवस्था के रूप में ही चल सकता है। फासीवाद सत्ता का एक पिरामिड निर्मित करता है जिसमें अंतिम रूप से सत्ता का संचालक सर्वोच्च नेता ही होता है। इसके लिए जनवाद का पूर्णतया नकार होता हैघर से राज्य तक।
इटली और जर्मनी में फासीवाद का प्रादुर्भाव जनतंत्र का इस्तेमाल करते ही हुआ। स्पेन में एक जनतांत्रिक सरकार को अपदस्थ करके हुआ। पर कमजोर पड़ते जा रहे जनतंत्र और अन्य पार्टियों की अदूरदर्शिता और अनिर्णय और असमंजस की स्थिति का लाभ उठाकर एक बार सत्ता हड़प लेने के बाद फासीवाद ने हर तरह की असहमति का उन्मूलन करना शुरू कर दिया। कुछ दिनों में ही न स्थानीय स्वायत्तता बची न संसदीय जनतंत्र। देश में एकमात्र पार्टी और उसके एकमात्र नेता की सत्ता सर्वोपरि स्थापित हो गई। एक ऐसी व्यवस्था कायम हो गई जिसमें नागरिक प्रजा बना दिया गया जिसके केवल कर्तव्य थे, कोई अधिकार नहीं।
इस तरह फासीवाद की मूल प्रकृति जनवाद का पूर्ण नकार और निषेध बन गया।
कम्युनिज्म विरोध : सकारात्मक ऊर्जा का संचार धीरे-धीरे होता है पर नकारात्मकता का विस्फोट हो सकता हैनकारना सारत: सकारात्मक हो तब भी और पूर्णतया नकारात्मक हो तब तो निश्चित ही।
उपनिवेशवाद को नकारने के आह्वान पर भारत जैसे पस्त और पिछड़ते जा रहे देश में भी मानो बिजली दौड़ गई थी। उसी तरह बुरी तरह पराजित, दमित और दंडित और भयानक मंदी का शिकार जर्मनी विजेताओं को नकारने से शुरू कर कम्युनिस्टों और यहूदियों के नकार के माध्यम से लामबंद होता गया। यह कैसे हुआ
होगा इसका आभास भारत में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिंखों को, गुजरात में मुसलमानों और महाराष्ट्र में 'भइयों' को नकारने के आवेग के दौरान देखा जा चुका है। गुजरात में तो महिलाओं को भी हिंसक कार्रवाइयों में भागीदारी करते देखा गया था।
फासीवाद का पहला नकार कम्युनिज्म है क्योंकि उसकी अंतर्राष्ट्रीयता को राष्ट्रविरोधी करार दिया जा सकता है। राष्ट्रमातृपितृभूमि ऐसे प्रतीक हैं कि उनके ¹तरे में हाने का आह्वान लोगों को और लगावों से खींचकर राष्ट्र के नाम पर लामबंद कर देते हैं। इसमें भीतरघात का तरा लोगों को और आक्रामक बना देता है।
इटली और जर्मनी में देर से उद्योगीकरण हुआ था। वहां औद्योगिक नगरों में मजदूरों के भारी संकेंद्रण से भारी समस्याएं पैदा हुई थीं और इसी कारण उनका भारी पैमाने पर संगठन शुरू हो गया था। ऐसा लगता था कि पहली मजदूर क्रांति जर्मनी में ही होगी। अनापेक्षित रूप में हो जाने के बाद यह निश्चित लग रहा था कि अगली क्रांति जर्मनी में ही होगी। लेनिन ने कहा था कि जर्मनी में क्रांति नहीं हुई तो रूस की क्रांति भी चरितार्थ नहीं होगी। जर्मनी की यथास्थितिवादी शक्तियां आतंकित थीं। धर्म और धन को नियंत्रित करने वाले कम्युनिज्म की बाढ़ को नियंत्रित करने के लिए कुछ भी करने को तैयार थे।
ऐसी स्थिति में राष्ट्रीय परिपूर्णता के मार्ग में कम्युनिज्म और यहूदियों को व्यवधान घोषित किया गया। इससे अभूतपूर्व नकारात्मक ऊर्जा का संचार हुआ। हताश देश आगे उबार लिए गए। षडयंत्र में एक रहस्यवादी आकर्षण होता है। दमित-कुंठित-असंतुष्ट लोगोंविशेषकर बेरोजगार युवा को तत्काल कुछ कर गुजरने का अवसर मिल गया। तेजी से लामबंदी होती चली गई।

( इस किताब की भूमिका से) 
फासीवाद : सिद्धांत और व्यवहार
  लेखक-  रोजे बूर्दरों
प्रकाशक- ग्रंथ शिल्पी, बी-7,सरस्वती काम्प्लेक्स,सुभाष चौक,लक्ष्मी नगर,दिल्ली-110092
         मूल्य -275                                 
अनुवादक- लाल बहादुर वर्मा

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