बुधवार, 25 अप्रैल 2018

बलराज साहनी की नजर में धर्म और ईश्वर


              बलराज साहनी उन चंद अभिनेताओं में हैं जो खुलकर कहते हैं कि मैं ईश्वर की सत्ता नहीं मानता,आजकल हालात यह हैं कि फिल्म रिलीज के दिन या पहले अभिनेता-अभिनेत्रियां मंदिरों और दरगाहों पर मत्था टेकते रहते हैं, हिंदी फिल्मों के अभिनेता-अभिनेत्रियां सार्वजनिक मसलों पर बोलने से डरते हैं। कलाकार की इस समाज-विमुखता को किसी भी तर्क से स्वीकृति नहीं दी जा सकती।हमारे यहां हालात इतने खराब हैं कि अभिनेता-अभिनेत्री हमेशा पापुलिज्म के दवाब में रहते हैं।ऐसा करके वे कला की कितनी सेवा करते हैं यह हम नहीं जानते लेकिन उनका सामाजिक-राजनीतिक सवालों से किनाराकशी करना अपने आपमें नागरिक की भूमिका से पलायन है।

                    बलराज साहनी का एक निबंध है ´मेरा दृष्टिकोण´,इसमें उन्होंने साफ लिखा है ,´मैं ईश्वर को बिलकुल नहीं मानता।´,जो लोग आए दिन धर्म और ईश्वर के नाम पर समझौते करते रहते हैं और धर्म की भूमिका की अनदेखी करते हैं,उनके लिए यह निबंध जरूर पढ़ना चाहिए। साहनी ने लिखा ´एक नास्तिक के लिए आस्तिकता के साथ जरा-सा भी समझौता करना खतरे से खाली नहीं है,क्योंकि आज के जमाने में धर्म एक ऐसी व्यापारिक संस्था बन गया है कि उसके ´सेल्ज़मैन´हर तरफ भागे-दौड़े फिर रहे हैं,जिनसे अपने-आपको बचाये रखने के लिए हर समय चौकन्ना रहने की जरूररत है।´

                   बलराज साहनी घोषित मार्क्सवादी थे और मार्क्सवाद के प्रति अपनी आस्थाओं को उन्होंने कभी नहीं छिपाया। उन्होंने लिखा ´ मैं मार्क्सवाद को दर्शनशास्त्र की सर्वोच्च उपलब्धि मानता हूँ।मार्क्सवाद के अनुसार सृष्टि ही वास्तविक सत्य है,और उसे अपने विकास के लिए किसी बाह्य आध्यात्मिक शक्ति की आवश्यकता नहीं है। और सृष्टि को समझने –बूझने के लिए विज्ञान ही सबसे अधिक सार्थक साधन है,धर्म या अध्यात्म नहीं।´

आजकल जो लोग प्राचीनकाल में इंटरनेट और विज्ञान आदि की नई-नई खोजें पेश कर रहे हैं, उस तरह के विचारकों को केन्द्र रखकर लिखा, ´अध्यात्मवादियों,योगियो,ज्योतिषियों और दर्शनशास्त्रियों ने सृष्टि को लेकर पूर्ण रुप से समझने के जो दावे किए हैं,वे मुझे हास्यजनक प्रतीत होते हैं।´

इन दिनों भारत के मध्यवर्ग से लेकर साधारण जनता तक में संतों- महंतों के पीछे भागने की प्रवृत्ति नजर आ रही है।इन संस्थाओं के बारे में साहनी ने लिखा ´मैं संस्थापित धर्मों और मत-मतान्तरों का विरोधी हूँ,और मेरा ख्याल है कि इन धर्मों के जन्मदाता भी संस्थापित धर्मों के उतने ही विरोधी थे। महापुरुषों के विशाल चिन्तन को किसी सीमित घेरे में बांधकर लोगों को पथभ्रष्ट करना प्राचीन काल से शासकवर्ग की साजिश चली आ रही है।´

´संस्थापित धर्मों से स्वतंत्र रहने वाले मनुष्य के विचारों में स्वतंत्रता आ जाती है।, और वह बुद्ध,ईसा, मुहम्मद और नानक जैसे धार्मिक महापुरुषों को भी प्लेटो,सुकरात,अरस्तू, शंकर,नागार्जुन, महावीर,कांट,शोपनहॉवर हीगेल आदि की तरह उच्चकोटि के चिन्तक और दार्शनिक मानने लगता है,जिन्होंने कि मानव विकास के विभिन्न पड़ावों पर मनुष्य के चिन्तन को आगे बढाया है। इसी प्रकार,वह उनके अमूल्य विचारों का पूरा लाभ उठा सकता है, जो कि मानव सभ्यता का बहुत बड़ा विरसा है।´



बलराज साहनी का स्त्री संबंधी दृष्टिकोण-

                   बलराज साहनी के अभिनय और अभिनय में व्यक्त कलाकौशल और भाव-भंगिमा पर अनेकबार बातें हुई हैं, आज भी ऐसे लोग मिल जाएंगे जो उनकी फिल्मों के प्रशंसक हैं।लेकिन बलराद साहनी के लेखन पर हिंदी में कोई चर्चा नहीं मिलती,जबकि उनके समग्र में उनका समूचा लेखन मौजूद है,साथ ही उनकी पत्नी संतोष साहनी का भी समग्र मौजूद है। इस समग्र को ´बलराज-संतोष साहनी समग्र´ (1994)हिंदी प्रचारक संस्थान ,वाराणसी, ने छापा,इसका संपादन किया डा.बलदेवराज गुप्त ने ।

स्त्री संबंधी उनके नजरिए की सबसे अच्छी बात यह है कि वे आदर्श स्त्री के मानक को नहीं मानते, ´नारी और दृष्टिकोण´(1965) नामक निबंध में वे परंपरागत स्त्री की धारणा को भी नहीं मानते,उन्होंने स्त्री संबंधी अनेक पहलुओं पर विचार करने बाद यह लिखा ´अब तक आदर्श भारतीय नारी की कल्पना करना असंभव है।´(पृ.263) इस प्रसंग में साहनी ने लिखा ´पुरूष ने स्त्री को अपनी,शारीरिक ,मानसिक और कलात्मक भूख मिटाने का साधन समझ रखा है। सदियों से पुरुष को रिझाना ही स्त्री का लक्ष्य बना हुआ है –कभी माँ के रुप में ,कभी बहन के रुप में,कभी पत्नी के रुप में।´ सुंदरता के जन प्रचलित रूपों को चुनौती देते हुए लिखा,

´आदर्श भारतीय नारी का सुन्दर और सुडौल होना हर हालत में जरूरी है।भला असुन्दर होकर वह ´आदर्श´नारी कैसे कहला सकती है ! सुन्दरता को मापने का मेरे पास कोई निजी पैमाना नहीं है।´इसी लेख में उन्होंने बहुत महत्वपूर्ण बात कही,लिखा, ´अगर हमारा दृष्टिकोण प्रजातंत्रवादी है,तो इस बात की ओर से आंखें नहीं मूंदी जा सकतीं कि स्त्री की सुन्दरता तभी निखर सकती है,जब उसे खाने के लिए खुराक मिले,पहनने के लिए अच्छे कपड़े मिलें और साफ-सुथरा रहने की सहूलियतें मिलें।भारतीय स्त्रियों की बहुसंख्या इन बुनियादी जरूरतों से वंचित है।´ यह भी लिखा ´शारीरिक दृष्टिकोण से अगर मैं किसी आदर्श स्त्री का चुनाव करना चाहूं,तो यह अल्पसंख्यक वर्ग की स्त्री होगी।ऐसी स्त्री पूरे भारत की स्त्रियों की प्रतिनिधि कैसे हो सकती है।´









मंगलवार, 24 अप्रैल 2018

वर्चुअल रियलिटी, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और आधुनिकता


            हिंदू राष्ट्रवाद ने हर नागरिक के मन को किसी न किसी रुप में प्रभावित किया है, यह प्रक्रिया राममंदिर आंदोलन के बाद से चल रही है,मोदी सरकार बनने के साथ इन दिनों चरम पर है।इसके पहले अटलबिहारी सरकार बनने के समय भी इसके मध्यवर्ती उभार को देख सकते हैं लेकिन आक्रामक ढ़ंग से हिंदुत्व,हिंदू राष्ट्रवाद और मोदी की महानेता की जो इमेज इसबार सामने आई है वैसा व्यापक असर पहले कभी नहीं देखा गया।चुनौती यह है कि ´हिंदुत्व´ और ´हिंदू राष्ट्रवाद´ की इमेज को कैसे समझें । तदर्थ उपकरणों के जरिए इसे समझना मुश्किल है,यह प्रचलित समाजविज्ञान के नजरिए से भी पकड़ में नहीं आ सकती। साथ ही प्रेस क्रांति के संदर्भ में रचे गए साम्प्रदायिकता विरोधी विचारधारा संदर्भ में भी इसके समाधान नहीं खोजे जा सकते।इसे समझने के लिए नए युग के साइबर परिप्रेक्ष्य की जरुरत है।

´हिंदुत्व´ और ´हिंदूराष्ट्र´ का नया संदर्भ वर्चुअल रियलिटी रच रही है।साइबर संचार रच रहा है।इसलिए वर्चुअल रियलिटी की प्रक्रियाओं की सटीक समझ के आधार पर ही इसके समूचे वैचारिक तानेबाने को खोला जाना चाहिए।सवाल यह है सारे देश में ´हिंदुत्व´ और ´हिंदू राष्ट्रवाद´ की आंधी कैसे आई ॽ उसकी प्रक्रिया क्या है ॽ उसने किस तरह के दार्शनिक मॉडल का इस्तेमाल किया ॽइत्यादि सवालों पर गंभीरता के साथ विचार करने की जरूरत है।

´हिंदुत्व´और ´हिंदू राष्ट्रवाद´ अचानक पैदा हुई विचारधारा नहीं है।यह पहले से थी और इसका सौ साल से भी पुराना इतिहास है,इस विचार के इतिहास में वे भी शामिल हैं जो आरएसएस में रहे हैं और वे भी शामिल हैं जो आरएसएस में नहीं रहे हैं। 19वीं सदी के पुनरूत्थानवाद में इस विचारधारा के बीज बोए गए थे।जिनकी ओर हमने कभी कोई विचारधारात्मक संघर्ष नहीं चलाया। हमने नवजागरण के सकारात्मक पक्षों पर ध्यान केद्रिंत किया लेकिन उसके नकारात्मक पक्ष पर ध्यान ही नहीं दिया।राजा राममोहन राय के सकारात्मक विचारों पर नजर गयी लेकिन नकारात्मक विचारों को छिपाए रखा।उसी तरह दयानंद सरस्वती के आर्य समाज और उसके समाजसुधारों और खड़ी बोली हिंदी के विकास से संबंधित योगदान की भूरि-भूरि प्रशंसा की लेकिन हिंदुत्ववादी विचारों की अनदेखी की।इसी तरह बाल गंगाधर तिलक,मदनमोहन मालवीय आदि के स्वाधीनता संग्राम में योगदान को महत्व दिया लेकिन उनके हिंदुत्ववादी विचारों की अनदेखी की।कहने का आशय यह कि ´हिंदुत्व´ ´गोरक्षा´और ´हिंदूराष्ट्र´की अवधारणा हाल-फिलहाल की तैयारशुदा विचारधाराएं नहीं हैं.ये भारतीय समाज में पहले से मौजूद रही हैं।इससे पहला यह मिथ टूटता है कि ´हिंदुत्व´और ´हिंदूराष्ट्र´ का विचार सिर्फ आरएसएस की देन है।

आरएसएस ने पहले से मौजूद इन दोनों विचारों को अपने सांगठनिक-वैचारिक ढांचे में शामिल किया और मनमाना विस्तार दिया।यह सच है वामपंथी,धर्मनिरपेक्ष विचारकों ने बड़े पैमाने पर आरएसएस का मूल्यांकन किया,हिंदुत्व,राष्ट्रवाद आदि की परंपरा का विवेचन भी किया लेकिन वे यह बताने में असमर्थ रहे कि हिंदुत्व और राष्ट्रवाद का विचार आम जनता के दिलो-दिमाग में कैसे घुसता चला गया ॽ धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र,संविधान,सरकारें आदि इसे रोकने में असफल क्यों रहीं ? ´हिंदुत्व´ और ´हिंदूराष्ट्र´ के विचारों की आम जनता में आज जो गहराई तक मौजूदगी नजर आती है उसकी प्रक्रियाओं को दार्शनिक तौर पर खोले बिना यह समझ में नहीं आएगा कि आखिरकार ये विचार जनता में इतनी गहराई तक कैसे पहुँचे,कहने का आशय यह कि विचार की आलोचना से विचार का सतही रुप समझ में आता लेकिन उसकी जनता में पैंठ को देखकर उसका असली रुप समझ में आता है।

´हिंदुत्व´ और ´हिंदू राष्ट्रवाद´ के खिलाफ धर्मनिरपेक्ष ताकतें तदर्थ भाव से वैचारिक संघर्ष करती रहीं, लेकिन उसका सफाया नहीं कर पाए,जबकि हर स्थान और संरचना में उनका दखल था।इसका अर्थ यह है संरचना पर कब्जा कर लेने या कानून बनाने से कोई भी प्रचलित विचार मरता नहीं है। धर्मनिरपेक्षतावादी इस संघर्ष के जरिए अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रहे थे, हरबार के चुनावों में जनसंघ-भाजपा की हार पर खुश हो रहे थे, धर्मनिरपेक्ष ताकतों की विजय पर जश्न मना रहे थे,लेकिन विगत 70सालों में धर्मनिरपेक्ष प्रचार अभियान अंत में वहीं आकर पहुँचा जहां पर वह 1947 में था, सन् 1947 में जो घृणा हमारे मन में थी वही घृणा आज भी हमारे मन में है,मुसलमानों, पाक के निर्माण आदि के खिलाफ जो घृणा 1947 में थी ,वो आज भी है, इससे यह पता चलता है कि हम नौ दिन चले अढाई कोस !

कहने का आशय यह कि देश की धर्मनिरपेक्ष आत्मा तो हमने बना ली लेकिन उसके अनुरूप शरीर नहीं बना पाए,शरीर के अंग नहीं बना पाए।शरीर और अंगों के बिना आत्मा का चरित्र वायवीय बन जाता है।उल्लेखनीय विगत 70 सालों में साम्प्रदायिक ताकतों ने अपने प्रयोगों के जरिए एक ही चीज पैदा की है वह है अशांति!अशांति के बिना वे अपना विकास नहीं कर सकते।उनके सारे एक्शन अ-शांति पैदा करने वाले होते हैं।संघियों के प्रयोग सिर्फ प्रचार तक ही सीमित नहीं रहे हैं बल्कि शरीर ,राजनीति,सेंसरशिप,दंगे और दमन तक इनका क्षितिज फैला हुआ है।इन सबके कारण वे समाज को शांति से रहने नहीं देते।इस सबका असर यह हुआ कि धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक भारत का तानाबाना और ढांचा लगातार क्षतिग्रस्त हुआ है।मसलन् जब कभी दंगा होता है तो हम उसे संपत्ति,जानो-माल के नुकसान या कानून-व्यवस्था की समस्या से ज्यादा देखते ही नहीं हैं, हम यह नहीं देखते कि इससे भारत का धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक शरीर क्षतिग्रस्त हुआ है।हमने भारत की आत्मा को एकदम वायवीय बना दिया है।दिलचस्प बात यह है कि भारत की बातें सब करते हैं,लेकिन भारत के लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष शरीर के अंगों की बात कोई नहीं करता।अंगों के बिना शरीर का कोई अर्थ नहीं है।

भारत के लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष शारीरिक अंगों के बिना भारत की आत्मा वायवीय है,अमूर्त है,अ-प्रासंगिक है।साम्प्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता के संघर्ष में अनेक लोग मारे गए,अनेक किस्म के विचारों का भी अंत हुआ।बार-बार कहा गया ´सचेत रहो´।लेकिन ´सचेत रहो´ के आह्वान ने हमें अंत में कहीं का नहीं छोड़ा,हम क्रमशः ´अचेत´होते चले गए,जनता में ´सचेत रहो´के आह्वान को पहुँचाने में असफल रहे, असफल क्यों रहे इसका कभी वस्तुगत मूल्यांकन नहीं किया।आज सत्तर साल बाद हकीकत यह है कि आम आदमी की जुबान,बोली, अभिव्यंजना शैली आदि में साम्प्रदायिक लहजा घुस गया है।कायदे से व्यक्ति को धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक बनना था लेकिन हुआ एकदम उलटा।आज हम सबके कॉमनसेंस में साम्प्रदायिक विचारों और नारों ने गहरी पैठ बना ली है।हम सबको योग, भगवान राम, कृष्ण, राधा,सीता, हिंदुत्व,राष्ट्रवाद आदि के निरर्थक प्रपंचों में उलझा दिया गया है।व्यक्ति को हमने लोकतंत्र-धर्मनिरपेक्षता के अनुरुप पूरी तरह नए रुप में तैयार ही नहीं किया, हम ऊपर से मुखौटे लगाकर उसे धर्मनिरपेक्ष बनाते रहे,लोकतांत्रिक बनाते रहे, उसके व्यक्तित्वान्तरण के सवालों को कभी बहस के केन्द्र में नहीं लाए, सवाल यह है व्यक्ति को पूरी तरह बदले बगैर यह कैसे संभव है कि भारत लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष हो जाए,हमने रणनीति यह बनायी कि व्यक्ति जैसा है, वैसा ही रहे, थोड़ा –बहुत बदल जाए तो ठीक है,जो हिदू है वो हिंदू रहे,जो मुसलमान है वो मुसलमान रहे,जो ईसाई है वो ईसाई रहे,बस इससे हमें सद्भाव का पाखंडी मार्ग मिल गया।हमने व्यक्ति के कपड़े बदले, जीवन के साजो-सामान बदले,समाज का ऊपरी ढाँचा बदला,कल-कारखाने बनाए,सड़कें बनायीं,नई-नई गगनचुम्बी इमारतें बनायीं,नए कानून बनाए, लेकिन व्यक्ति को नहीं बदला.यही वो जगह है जहां पर भारत हार गया,भारत वायवीय बन गया, बिना शरीर के अंगों का देश बन गया।आधुनिक भारत को आधुनिक मनुष्य भी चाहिए, इस सामान्य किंतु महत्वपूर्ण बात को हम समझ ही नहीं पाए,लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत की परिकल्पना को आधुनिक मनुष्य बनाए बगैर साकार करना संभव नहीं है, यही वह बिंदु है जहां से साम्प्रदायिक ताकतों ने समाज के जर्रे-जर्रे पर हमला किया और उसे अपने साँचे में ढालने में उनको सफलता मिली।

आधुनिक शरीर रहित भारत वस्तुतः साम्प्रदायिक भारत है,हम लाख दावे करें कि भारत धर्मनिरपेक्ष है,उसकी जनता धर्मनिरपेक्ष है,लेकिन वास्तविकता इसके एकदम विपरीत है, आप आँकडों की रोशनी में, मतदाताओं के मतदान की प्राथमिकताओं,प्राप्त मतों के आधार पर लाख तर्क दें और कहें कि भारत धर्मनिरपेक्ष है तो यह बात गले नहीं उतरती,क्योंकि आधुनिक भारत के अनुरुप आधुनिक व्यक्ति के निर्माण के काम को हमने अपने एजेण्डे पर कभी नहीं रखा,इसका परिणाम यह निकला कि आज धर्मनिरपेक्ष सपने ,प्राथमिकताएं और मूल्य संकट में हैं,सभी धर्मनिरपेक्ष दल अपने को असहाय महसूस कर रहे हैं,उनके पास इसका कोई उत्तर नहीं है।

बुनियादी सवाल यह है कि 70साल तक भारत धर्मनिरपेक्ष था तो फिर एकदम हिंदुत्ववादी ताकतें सत्ता पर काबिज क्यों हो गयीं ॽ क्यों जीवन के हर क्षेत्र में उनका व्यापक प्रभाव बना हुआ है ॽ यह महज मोदी सरकार के आने के साथ घटित परिघटना नहीं है, मोदी का चुनाव जीतना एक घटना मात्र है,यह संभव है कि आगामी 2019 का लोकसभा चुनाव मोदी-भाजपा हार जाएं,सारे देश में क्रमशः उनकी राज्य सरकारें भी खत्म हो जाएं लेकिन क्या इससे भारत को धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक मान लेंगें ॽ क्या धर्मनिरपेक्षता-लोकतंत्र का संबंध सिर्फ चुनावी हार-जीत तक ही सीमित है ॽयह लोकतंत्र-धर्मनिरपेक्षता को अति सरलीकृत रुप में देखना होगा।हमें लोकतंत्र के चुनावी गणित के दायरे के बाहर जाकर गंभीरता से साम्प्रदायिकता के चरित्र को समझने की कोशिश करनी होगी।

हमारे यहां संविधान सब मानते हैं ,लेकिन संविधान के अनुरुप सही शारीरिक अंगों या संरचनाओं को हम निर्मित ही नहीं कर पाए,जो संरचनाएं निर्मित की हैं वे धर्म,धार्मिक पहचान और जनदवाब की दासी है। संवैधानिक संरचनाओं के आदेशों को कोई नहीं मानता.हमें संविधान चाहिए,बिना संवैधानिक संरचनाओं के आदेशों के अनुपालन के बिना,हमें व्यक्ति चाहिए लेकिन संविधान के ढाँचे ढला व्यक्ति नहीं चाहिए,बल्कि परंपरा में ढला व्यक्ति चाहिए,धर्म में ढला व्यक्ति चाहिए,कानून चाहिए लेकिन धर्मानुकूल कानून चाहिए,संविधान के पालन का अर्थ है संवैधानिक संरचनाओं का निर्माण और उनके आदेश का पालन, कानून-विधान के अनुरुप आचरण, संविधान में वर्णित लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के अनुरुप नए व्यक्ति के रुप में नागरिक की पहचान का निर्माण करना।इन सब पर ध्यान केन्द्रित करने की बजाय साम्प्रदायिक-धर्मनिरपेक्ष ताकतों ने संविधान को तो माना ,लेकिन व्यवहार में लोकतंत्र, व्यक्ति के जीवन में लोकतंत्र,परिवार में लोकतंत्र,धर्म में लोकतंत्र,राजनीति में लोकतंत्र, जाति में लोकतंत्र आदि को अस्वीकार किया।कागज पर अभिव्यक्ति की आजादी को माना लेकिन उसकी असली स्प्रिट से परहेज करते रहे।



दिलचस्प आयरनी यह है कि हमारे देश में लोकतांत्रिक संविधान है, लोकतांत्रिक संरचनाएं हैं, लेकिन व्यक्ति के जीवन में अंदर-बाहर लोकतंत्र नहीं है।व्यक्ति के अंदर-बाहर लोकतंत्र का अभाव ही वह बिंदु है जहां से साम्प्रदायिक ताकतें अपनी ऊर्जा लेती हैं और अपने सामाजिक आधार को निरंतर बढ़ाती रही हैं,इसका कु-परिणाम यह निकला है कि सभी दलों में अ-लोकतांत्रिक व्यक्ति मान्य और ताकतवर बना है।अ-लोकतांत्रिक व्यक्ति का आदर्श प्रतिनिधि चरित्र हैं गुंडे,दलाल,समानांतर सत्ता केन्द्र,अवैध सत्ता केन्द्र आदि।

´अंगों के बिना शरीर ´की अवधारणा के अनुसार यदि साहित्य को देखें तो बहुत ही भयावह तस्वीर नजर आएगी,कहने को साहित्य खूब लिखा जा रहा है,लेकिन उसमें सारवान अंतर्वस्तु और सृजन के तत्व का अभाव है। रूढ़ विषयों पर स्टीरियोटाइप लेखन जमकर हो रहा है, इसलिए साहित्य प्रभावहीन होकर रह गया है।इसी तरह हिंदी में साहित्यकार है, लेकिन उनकी जीवन और उसके गंभीर सवालों में कोई दिलचस्पी नहीं है।उसने ठीक से विश्वदृष्टि का निर्माण तक नहीं किया है।वह लिखने के नाम पर लिख रहा है,बिना विश्वदृष्टि के लिख रहा है,समाज में किसी भी वर्ग या समुदाय या लिंग के साथ लगाव पैदा किए बगैर लिख रहा है, ऐसी स्थिति में साहित्यकार समाज में रहकर भी अपनी पहचान नहीं बना पाया है।

मोदी सरकार आने के पहले कहने के लिए सामूहिकता का खूब ढोल पीटा गया, कहा गया सोनिया गांधी हरेक फैसले लेती रही हैं,मनमोहन सिंह पर थोपती रही हैं,वे तो उनके आदेशों का पालन करते रहे हैं, मोदीजी पीएम बनेंगे तो यह सब नहीं होगा,फैसले सामूहिकतौर पर मंत्रीमंडल लेगा,लेकिन व्यवहार में हुआ एकदम उलटा,प्रधानमंत्री कार्यालय में सभी मंत्रालयों की शक्ति संकेन्द्रित होकर रह गयी।यहां तक कि भाजपा के द्वारा राष्ट्रपति पद का चुनाव जीतने के बाद राष्ट्रपति भवन के फैसले लेने का अधिकार भी पीएम ने अपने पास रख लिया।सामूहिक फैसले न लेने का क्लासिक उदाहरण है नोटबंदी का फैसला। यह फैसला अकेले पीएम का था,उनके कॉकस के लोगों के अलावा इसके बारे में कोई पहले से नहीं जानता था।जबकि यह फैसला लेना था रिजर्व बैंक को लेकिन पीएम ने बैंक पर अपना फैसला थोप दिया। कहने का आशय यह कि मोदी के सत्ता में आने के बाद मंत्रीमंडल की सामूहिक फैसले लेने,स्वायत्त और लोकतांत्रिक विवेक के आधार पर काम करने की शक्तियां घटी हैं।अब मंत्रीमंडल में अ-लोकतंत्र सर्कुलेशन में है,पीएम निष्ठा चरम पर है,इसने लोकतंत्र को अपाहिज बना दिया है।सत्ता के सर्कुलेशन को रोक दिया है,अब सत्तातंत्र में सिर्फ वही चीज गतिशील है जिसकी पीएम ने अनुमति दी है।पीएम की अनुमति के बिना कोई चीज गतिशील नहीं हो सकती।उसने लोकतंत्र की स्पीड को रोक दिया है।

´अंगों के बिना शरीर´की धारणा से संचालित होने के कारण सिर्फ एक ही चीज पर बल है वह है प्रचार की सघनता और उन्माद।हम अब सब समय प्रचार की सघन अनुभूतियों में ही डूबते-उतराते रहते हैं,हम भूल गए कि लोकतंत्र,धर्मनिरपेक्षता,अभिव्यक्ति की आजादी आदि का भी जीवन में कोई महत्व है।हम सबके जेहन में संघ,मोदी,हिंदुत्व,हिंदू राष्ट्रवाद के प्रचार को सघनता के साथ उतार दिया गया है। हरेक व्यक्ति बिना जाने माने बैठा है कि मोदीजी सही कर रहे हैं,सवाल करो कि क्या सही कर रहे हैं तो उसके पास न तो कोई तथ्य होते हैं,न प्रमाण होता है, लेकिन वह माने बैठा है कि मोदीजी सही कर रहे हैं।यहां तक कि जघन्य हत्याकांडों की खबरों तक से व्यक्ति अब विचलित नहीं होता, उसे मोदी की चुप्पी से कोई परेशानी नहीं है बल्कि वह मोदी की चुप्पी पर भी मोदी के पक्ष में तर्कों का पुलिंदा लेकर खड़ा है।हालात की गंभीरता देखें कि आधारकार्ड को संवैधानिक प्रावधानों,सुप्रीम कोर्ट के पहले के आदेशों की अवहेलना करके हर चीज से जोड़ दिया गया उसको भी चुपचाप स्वीकार कर लिया गया।अ-लोकतांत्रिक प्रक्रिया का इतना सघन प्रभाव पहले कभी महसूस नहीं किया गया।

सांगठनिक संरचनाएं और मॉडल का चरित्र-

मोदी सरकार आने के बाद समूचे समाज का नए सिरे से वर्गीकरण किया जा रहा है, शहरों का नया वर्गीकरण हो रहा, नए सिरे से सामाजिक समुदायों के वर्गीकरण की दिशा में सरकार कदम उठाने जा रही है, आरक्षण को भी नए वर्गीकरण के नजरिए से परिभाषित करने की कोशिश हो रही है,इसी प्रकार नागरिक पहचान,ग्राहक पहचान, क्रय-विक्रय,बैंक से आदान-प्रदान आदि सब क्षेत्र में नए किस्म के वर्गीकरण या केटेगराइजेशन ने जन्म ले लिया है।कहने का आशय यह कि जीवन के हर क्षेत्र में केटेगराजेशन हो रहा है।इस क्रम में नए पदबंधों का उदय हुआ है।सवाल उठता है इस तरह के वर्गीकरण की जरुरत क्यों पड़ी ॽयह असल में चीजों,घटनाओं, देश, पड़ोस, निजी कार्य-व्यापार आदि को सीधे सपाट क्रम में देखने के नजरिए की दिशा में ठेलने की प्रक्रिया है।इस तरह देखने का अर्थ यह है कि चीजों,घटनाओं आदि को एपीसोड के रुप में देखना, इसमें एक एपीसोड खत्म होता है तो दूसरा शुरू हो जाता है, यही पद्धति ´हिंदू राष्ट्रवाद´के परिप्रेक्ष्य पर भी लागू होती है, उनके सभी एक्शन एपीसोड के रुप में आते हैं, एक एपीसोड़ खत्म तो दूसरा शुरु,दूसरा खत्म तो तीसरा शुरु आदि आदि।इस तरह के एपीसोड लगातार यही संदेश देते हैं कि आप अपने घर या स्कूल में नहीं हैं बल्कि लगातार किसी एपिसोड में व्यस्त हैं।कभी समुदाय,कभी धर्म,कभी स्त्री या कभी मोदी या कभी हिंदुत्व या कभी लवजेहाद,कभी गऊ-गुंडई आदि के एपीसोड में व्यस्त रहते हैं।आप एक घटना या स्तर से बाहर निकलते हैं तो दूसरी घटना आकर घेर लेती है।ये सभी सेगमेंट कभी वायनरी,कभी चक्राकार और कभी लाइनर भाव से घटित होते रहते हैं।हम इनमें से किसी न किसी में बंधने के लिए मजबूर हैं।आप चाहें तो अपने नजरिए के अनुसार सेगमेंट या सर्किल बदल सकते हैं।मसलन्, आपको लवजेहाद यूपी में नापसंद है लेकिन गोवा में पसंद है।

आरएसएस जैसे साम्प्रदायिक संगठन अपने को चक्राकार रुप में संगठित करते हैं,वे आंतरिक से बाह्य की ओर उन्मुख होते हैं।इस काम को वे सिलसिलेबार स्थानीय गतिविधियों के जरिए संपन्न करते हैं.इस समूची प्रक्रिया का लक्ष्य है आदिम समूह के रुप में हिंदूसमाज को संगठित करना।चीजों को नए वर्गीकरण में करके देखना ,रखना और संपन्न करना स्वयं में आदिम समाज की प्रवृत्ति है,उसी की देन है।इस प्रक्रिया में कम्युनिकेशन बहुत प्रभावशाली होता है।लेकिन इस समूची प्रक्रिया का सबसे विलक्षण सच यह है कि आधुनिक राज्य के शासन में नए वर्गीकरण को समाज में बरकरार रखना असंभव है।क्योंकि सत्तातंत्र की कार्यप्रणाली को वर्गीकृत ढ़ंग से नहीं चलाया जा सकता है।क्योंकि आधुनिक राज्य और समाज की बुनियाद में वर्गीकरण का निषेध काम करता है।

वास्तविकता यह है भारत की व्यवस्था एकीकरण और एकीकृत भाव से चलती रही है। यह ग्लोबल सिस्टम का अंग है।इसके कारण वह सभी किस्म के विभाजनकारी वर्गीकरणों को तोड़ने के लिए प्रतिबद्ध है,वह विभाजनकारी ताकतों के बनाए लक्ष्यों को तोड़ने के लिए ,उनको अपदस्थ करने के लिए भी वचनवद्ध है।यही वजह है साम्प्रदायिकता के साथ आधुनिक राज्य का निरंतर अंतर्विरोध बना रहता है।

आरएसएस ने ´एक नायकत्व´ का जो मॉडल चुना है वह पशुचेतना और पशुदृष्टि पर आधारित है।यह मॉडल प्राचीन समाजों में सक्रिय रहा है।पशुदृष्टि का गहरा संबंध पशु स्प्रिट से है।हरेक पशु की स्प्रिट अलग होती है। लेकिन कुछ चीजें साझा हैं मसलन्, पशु अति चौकन्ना होकर हर तरफ नजर रखता है,केन्द्र पर नजर रखता है,हर चीज को एकल सर्किल में रखकर देखता है,ठीक वैसे ही आरएसएस भी देखता है।इसके गर्भ से ही केन्द्रीकृत सत्ता,केन्द्रीकृत संगठन की अवधारणा का जन्म हुआ है।आरएसएस की प्रकृति में जो लोग लोकतंत्र और विकेन्द्रीकरण खोज रहे हैं वह गलती कर रहे हैं,आरएसएस का लोकतंत्र और विकेन्द्रीकरण से कोई संबंध नहीं है,यह उसके बुनियादी मॉडल का हिस्सा ही नहीं है।वह जब भी जहां पर भी काम करता है केन्द्रीकृत ढ़ंग से काम करता है।उसके काम करने की शैली द्वैतपूर्ण और वायनरी है।मसलन् वह कहता है लोकतंत्र की ,करता है अधिनायकवाद की।कहता है राममंदिर की, करता है सामाजिक विभाजन की।यह काम वह क्रमबद्ध ढ़ंग से करता है। मसलन्,इसबार यदि गऊरक्षा,लवजेहाद के मसले केन्द्र में हैं तो अगलीबार सत्ता में वे जब आएंगे तो नए विभाजनकारी मुद्दों के साथ आएंगे,वे गऊरक्षा और लवजेहाद पर बातें नहीं करेंगे। जैसे पहले उन्होंने 370 धारा,राममंदिर आदि के मसले उठाए लेकिन बाद में उनको छोड़ दिया और नए मसले चुन लिए।

कहने का आशय यह कि आरएसएस का मानना है जब भी सत्ता में आओ नए मसले के साथ आओ,पुराने को छोड दो।इस क्रम में वे अपने हिंदुत्व नामक वर्गीकरण को नहीं छोड़ते या मुसलमानों के बारे में अपनी धारणाओं का परित्याग नहीं करते।वर्गीकरण और वर्गीकृत सोच उनके मॉडल का अंतर्ग्रथित हिस्सा है।उनके वर्गीकरण में केन्द्रीकरण का निषेध शामिल नहीं है।यही वजह है कि आज पीएम कार्यालय में समूची सत्ता का केन्द्रीकरण करके रख दिया गया है।दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि संघ के बनाए वर्गीकरण अनुदार होते हैं और स्थानीयता पर निर्भर होते हैं।पुराने समाज में जिस तरह पिता,स्वामी,शिक्षक आदि का चेहरा केन्द्र में होता था,लेकिन आधुनिक समाज में यह अ-प्रासंगिक हो जाता है।आधुनिक समाज में हम विभिन्न किस्म के सर्किलों और वर्गीकृत समूहों में बंट जाते हैं।लेकिन इन सभी वर्गीकृत और बंटे हुए सर्किलों का एक चेहरा होता है,उस चेहरे पर सबकी नजर होती है।इसी तरह संघ का भी एक प्रधान चेहरा होता है जिस पर सबकी नजर होती है.इस समय वह चेहरा नरेन्द्र मोदी हैं।पहले अटलबिहारी वाजपेयी थे।इसलिए वर्गीकरण में बंटे लोगों की नजर शून्य या आकाश की ओर नहीं प्रधान चेहरे पर टिकी होती है।यही है पशुदृष्टि जो प्रधान पर नजर रखती है लेकिन पशुचेतना की तरह काम करती है।कहने को समाज में विभिन्न स्तरों पर अनेक सत्ताकेद्र हैं लेकिन इन सबके ऊपर एक ही केन्द्र है,एक ही व्यक्ति है जो समूची सत्ता,सोच और आचरण का प्रतिनिधित्व करता है।

हिंदुत्व,हिंदू राष्ट्रवाद और भीड़ -

आरएसएस के तहत काम करने वाले सैंकड़ों संगठन हैं,मीडिया रिपोर्ट बताती हैं कि तकरीबन 700 से ज्यादा संगठनों का संघ संचालन करता है। इनमें प्रत्येक संगठन की कहने को अपनी स्वतंत्र संरचना है,गतिविधियां हैं लेकिन सबके अंदर एक तत्व साझा है वह हिंदुत्व और हिंदूराष्ट्र का रसायन।उसके प्रत्येक संगठन में सतह पर अलग-अलग किस्म के कार्यक्रम और लक्ष्य नजर आएंगे लेकिन सभी एक ही दिशा में सक्रिय हैं वह है हिदुत्व की दिशा।हिंदुत्व ही उनकी बुनियाद है जहां से वे अपनी पहचान बनाते हैं,ऊर्जा ग्रहण करते हैं।

आरएसएस के लिए कोई समूह,वर्ग,विषय अछूत नहीं है। वह हरेक वर्ग,विषय,समूह आदि के आंदोलन-कार्यक्रम में शामिल होने को तैयार रहता है,मसलन्, आरएसएस अंग्रेजी हटाओ हिंदी लाओ के आंदोलन में शामिल था, बिहार-गुजरात के 1974 के छात्र आंदोलन में शामिल था,जबकि इन आंदोलनों में शामिल संगठनों के साथ उसका वैचारिक साम्य नहीं था, उसी तरह कर्नाटक में वह कन्नड भाषा के समर्थन में शामिल है और वहां हिंदी का विरोध कर रहा है, उसी तरह हिंदीभाषीक्षेत्र में एक तरफ खड़ी बोली हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का पक्षधर है तो वहीं भोजपुरी,मैथिली,राजस्थानी आदि को भी आठवीं अनुसूची में शामिल करने वालों का आंदोलन चला रहा है, तमिलनाडु में हिंदी विरोधी आंदोलनकारियों के हरेक एक्शन में वह शामिल है।कहने का आशय यह कि आरएसएस की रणनीति है किसी को अछूत न मानो,किसी से दूर न रहो।इस नजरिए के कारण भाजपा ने हाल के वर्षों में जम्मू-कश्मीर, असम,नागालैंड, मणिपुर आदि में पृथकतावादियों तक से चुनावी समझौता कर लिया।यूपी-बिहार-हरियाणा-राजस्थान, मध्यप्रदेश,पंजाब आदि राज्यों में पिछड़ी जातियों के विभिन्न समूहों के आंदोलनों और मांगों को समर्थन दिया,अनुसूचित जाति-जनजातियों में सबसे ताकतवर संगठन बना लिया।इस समूची कार्यप्रणाली का परिणाम यह निकला कि आरएसएस ने ´हिंदुत्व´ और ´हिंदूराष्ट्र´ की अवधारणा के पक्ष में व्यापक जनाधार जुटा लिया।आरएसएस और उससे जुड़े संगठन सबके साथ जाने को तैयार हैं लेकिन वे जब भी किसी के साथ साझामंच बनाते हैं ,साझा कार्रवाई करते हैं तो क्रमशःअपने विचारों की दूसरे पर छाप छोड़ते जाते हैं फलतः उनके साथ काम करने वाले संगठन की शक्ति कम होती चली जाती है, उसकी निजी पहचान और स्पेस कम होता चला जाता है और आरएसएस की पहचान और सामाजिक-राजनीतिक स्पेस बढ़ता चला जाता है।संघ की हरेक इकाई का लक्ष्य है संघ के लिए नए स्पेस का निर्माण करना और यह काम वे बड़े कौशल के साथ करते हैं।इस समूची प्रक्रिया में वे समूचे स्पेस पर छा जाते हैं।वे अपने स्पेस के साथ अन्य के स्पेस की पहले से बनी सीमाओं को तोड़ देते हैं।यही वजह है अन्य और उनमें अनेक मर्तबा वैचारिक अंतर करने में असुविधा होती है। कांग्रेस से लेकर कम्युनिस्टों तक की कतारों में जीवन गुजारे लोग आसानी से भाजपा में शामिल हो जाते हैं।उनको कोई वैचारिक परेशानी नहीं होती।

आरएसएस की रणनीतिक सैद्धांतिक समझ है, हरेक काम सामाजिक है,जो सामाजिक है वह राजनीतिक है।इसके आधार वे सामाजिक कामों को राजनीतिक जनाधार में रुपान्तरित करते हैं।छोटी-छोटी सामाजिक गतिविधियों को राजनीति में रुपान्तरित करते हैं।इस रणनीति का अप्रत्यक्ष ढ़ंग से सामाजिक चेतना पर गहरा असर होता है।मसलन् कहने के लिए वे आदिवासी इलाकों में शिक्षा का काम करते हैं लेकिन असल में इसकी आड़ में वे ´हिंदुत्व´ की राजनीति करते हैं।´हिंदुत्व´ के स्पेस विस्तार का काम करते हैं।उनके काम करने की इस शैली से हर स्तर पर लोग प्रभावित होते हैं।इससे वर्गीय संरचनाएं और वर्ग संगठन प्रभावित होते हैं, उनकी काम करने की यह शैली ही जो वर्ग,जाति,धर्म और लिंग की स्वायत्त सत्ता को भीड़ में रुपान्तरित कर देती है।

सामाजिक स्तर पर भीड़ ,भिन्न स्पेस और भिन्न गति से सक्रिय होती है।उसमें अपने वर्ग,धर्म,जाति,लिंग आदि से पलायन की भावना होती है।मसलन् भीड़ के हरेक पहलू पर सवाल खड़े कर सकते हैं।भीड़ हमेशा पहले वाले सामाजिक क्षेत्र का अतिक्रमण कर जाती है। मसलन्,जातिविशेष या धर्मविशेष या लिंग विशेष के लोग जब भीड़ का हिस्सा बनते हैं तो पुराने क्षेत्र और आधार को छोड़ देते हैं।नए क्षेत्र के लिए वे अपनी मांगों और हकों तक को छोड़ देते हैं।मसलन् ,गुजरात में 2002 के दंगों में औरतों ने हिस्सा लिया तो वे भूल ही गयीं कि दंगों में बड़े पैमाने पर औरतें शिकार हो रही हैं,उनको दंगों में शामिल नहीं होना चाहिए।वे यह भूल ही गयीं कि हिंदुत्व के नारे के तहत औरतों के नागरिक अधिकार स्वतः खत्म हो जाते हैं,या फिर जब औरतें किसी बलात्कारी बाबा की हिमायत करती हैं तो अपने स्वत्व रक्षा के अधिकारों और क्षेत्र को त्याग देती हैं।यानी एक औरत का हिंदुत्वमय होने का अर्थ है कि वह अपने आधुनिक स्त्री के स्पेस को छोड़ रही है और भीड़ में शामिल हो रही है।

इसी तरह जब आरएसएस ´हिंदूराष्ट्र´ के नारे के इर्दगिर्द पूर्व सैनिकों को गोलबंद करता है और सैनिकों को आक्रामक राष्ट्रवादी प्रचार अभियान के जरिए संबोधित करता है तो ´सैनिक´ को उसकी जगह से निकालकर ´भीड़´का हिस्सा बनाता है। युवाओं को जब आरक्षण विरोध के बहाने आरएसएस गोलबंद करता है तो युवाओं को उसके स्वायत्त स्पेस और हकों से वंचित करता है।युवा को ´भीड़´ में तब्दील करता है।अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद जब ´हिंदू राष्ट्रवाद´ के तहत छात्रों को गोलबंद करता है तो छात्र की स्वायत्त पहचान को रुपान्तरित करके उसे ´भीड़´ का अंग बना देता है।

असल में ´हिंदुत्व´ और ´हिंदूराष्ट्र तो ´भीड़´ का ही रुप हैं। ज्योंही कोई वर्ग,समुदाय,समूह, लिंग, जाति आदि को ´हिन्दुत्व´ और ´हिन्दूराष्ट्र´ के जरिए सम्बोधित करते हैं उन्हें ´भीड़ में रूपान्तरित कर रहे होते हैं।यही बुनियादी वजह है कि भीड़ के हमले इनदिनों तेजी से बढ़े हैं। आज भीड़ कॉमर्शियल खेल का ही हिस्सा मात्र नहीं है ,बल्कि राजनीतिक खेल का भी अंग बन गयी है।आरएसएस के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण इनदिनों जनता के विभिन्न सामाजिक समूह अपने दायरों का अतिक्रमण करके हिंदुत्ववादी भीड़ का अंग बन गए हैं।ये वे लोग हैं जो हर चीज हिंदुत्व की नजर से देखते हैं।पहले भीड़ नायक का अंग थी,लेकिन हिंदुत्व की भीड़ नायक के साथ नायकहीन समाज के शोषण का अंग है।

मसलन् , औरतें अब अपने को पुराने फ्रेमवर्क, संस्कारों आदि में देखने लगी हैं,यह आधुनिक औरत का कॉमर्शियल भीड़ में रुपान्तरण है।इसी तरह गांवों से बड़े पैमाने पर माइग्रेट करके किसान और खेत मजदूर शहरों की ओर आ रहे हैं और शहरी भीड़ का हिस्सा बन रहे हैं।कहने का तात्पर्य है कि भीड़ का एक कॉमर्शियल फ्लो निरंतर बना हुआ है,हिंदुत्व और हिंदूराष्ट्र का फ्लो जहां एक ओर प्रचलित कॉमर्शियल फ्लो को प्रभावित करता है वहीं दूसरी ओर उसकी गति में इजाफा भी करता है।साथ ही अन्य किस्म की भीड़ के फ्लो में इजाफा करता है।नया फ्लो है हिंदुत्व और हिंदूराष्ट्र का,इसे महज साम्प्रदायिकता कहकर सम्बोधित नहीं किया जा सकता।साम्प्रदायिकता आज भीड़ का अंग है, उसने अपने को भीड़ में रूपान्तरित कर लिया है,इसलिए आरएसएस को समझने के लिए भीड़ की मनोदशा, भीड़ की राजनीति आदि को समझने की जरुरत है।मुश्किल यह है कि आरएसएस को हम साम्प्रदायिक संगठन के रुप में देखते हैं और उसी रुप में संबोधित करते हैं,इसके कारण उसके ऊपर या उससे प्रभावित जनता के ऊपर साम्प्रदायिकता विरोधी प्रचार का कोई असर ही नहीं पड़ता।

आज लेखकों-साहित्यकारों-इतिहासकारों की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वे हिंदुत्व के रूपांतरित क्षेत्र और एक-दूसरे पर आरूढ़ क्षेत्र को नए सिरे से व्याख्यायित करें।मसलन्, हम यह देखें कि आरएसएस कैसे अंधभाषायी अस्मिता,अंधराष्ट्रवाद,साम्प्रदायिकता, मुसलिम विरोध आदि के जरिए जनता को गोलबंद करते हुए कैसे उनको भीड़ में रूपान्तरित कर रहा है। उनको कितने समय तक संबंधित क्षेत्र की भीड़ के रुप में संगठित करता है। मसलन्, भाषा का आंदोलन चलेगा तो एक ही अवस्था तक संबंधित भाषा-भाषी उस भाषायी भीड़ का अंग हैं ,लेकिन बाद में यही लोग हिंदुत्व या हिंदूराष्ट्र की भीड़ में रूपान्तरित हो जाते हैं।इसी तरह जब अन्ना हजारे का लोकपाल बिल पर आंदोलन चल रहा था तो आरएसएस इसका हिस्सा था,उसने समूचे आंदोलन में जनता को भीड़ बनाने में अग्रणी भूमिका निभायी,बाद में यह आंदोलन खत्म हो गया तो उस भीड़ के बहुत बड़े हिस्से को हिंदुत्व की भीड़ में रूपान्तरित करने में उनको सफलता मिल गयी।

असल चीज है ´भीड़´और ´रूपान्तरण´ की प्रक्रिया।कोई समूह,समुदाय या लिंग कब,किस तरह अपने स्वत्व को त्यागकर ´भीड़´का अंग बन रहा है,किन कारणों से बन रहा है,इन सब पर गौर करने की जरुरत है।इस क्रम में उस वर्ग और जाति का लघु इतिहास कैसे बदला जा रहा है उसे हिंदुत्व के महा-इतिहास में कैसे रुपान्तरित किया जा रहा है,यह भी देखें।हम हमेशा आरएसएस के उठाए लघु-इतिहास के आख्यानों में उलझे रहते हैं,जबकि हमें लघु –इतिहास और महा-इतिहास के बीच की अंतर्कियाओं और रूपान्तरण की प्रक्रिया पर गौर करना चाहिए।इस क्रम में हमें ´भीड़´ और ´फ्लो´इन दोनों की अंतर्क्रियाओं को ध्यान में रखना चाहिए।यह भी देखें कि ये दोनों चीजें किस तरह अन्य वर्गों के संगठनों और विचारों को अपदस्थ करती हैं, स्थान बदलती हैं, क्षेत्र बदलती हैं,समाहार करती हैं,हजम करती हैं। किस तरह के संहिताशास्त्र को निर्मित करती हैं और किस मात्रा में करती हैं।उल्लेखनीय है उनके ऐसा करने से अन्य सिस्टम अपना काम करना स्थगित नहीं करते।

´भीड़´और ´वर्ग´के संगठन एक ही गति और फ्लो के साथ काम नहीं करते,उनमें बड़ा अंतर होता है।मसलन् ,शादी कैसे करें के सवाल पर दहेज लेकर शादी करने वालों को एकत्रित करने में समस्या नहीं आती,आप पुराने परिवार,रिश्ते, स्त्री-पुरुष संबंध आदि को बचाए रखकर परिवार की रक्षा के नाम पर इन सबको आसानी से एकजुट कर सकते हैं,लेकिन ज्योंही दहेज के बिना शादी करने का सवाल उठाएंगे तो उसके पक्ष में लोग जुगाड़ करना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि दहेज लेकर शादी करने की मानसिकता और उसका सामाजिक आधार पहले से मौजूद है उसके लिए ज्यादा प्रचार और परिश्रम नहीं करना पड़ता।जबकि दहेज के बिना शादी की मनोदशा समाज में एकसिरे से गायब है, उसका कोई जनाधार नहीं है,इसलिए दहेज के बिना शादी करने वालों के साथ कोई खड़ा नहीं होता,क्योंकि दोनों ही दृष्टियों में जमीन-आसमान का अंतर है,पहला दहेज वाला दृष्टिकोण भीड़ का नजरिया है,जबकि दहेज बिना शादी का नजरिया भीड़ का नहीं व्यक्ति का नजरिया है।विकसित नजरिया है।

वर्चुअल रियलिटी और हिंदुत्व-

यह वर्चुअल युग है ,यथार्थ और उसके समस्त संदर्भों के विध्वंस का युग है, इसमें अन्य या हाशिए के लोगों को मीडिया यथार्थ के बाहर खदेड़कर दिया है।मीडिया में यथार्थ के चित्र और यथार्थ ख़बरें ग़ायब हैं। हमारे चेहरे और शरीर पर प्लास्टिक सर्जरी का रंदा चल रहा है। व्यक्तिगत जैसी कोई चीज नहीं बची है। प्राइवेसी में सेंधमारी चल रही है, निगरानी चल रही है। कहने के लिए हम सूचना क्रांति में दाख़िल हो चुके हैं लेकिन वस्तुत: सूचना के कचरे में डूबे हुए हैं। हमारे आसपास जो दुनिया बनायी गयी है वह यथार्थ से कम और वर्चुअल यथार्थ से ज्यादा बनी है। हिंदूराष्ट्र के परिप्रेक्ष्य की आड़ में "अन्य" को हाशिए पर डाल दिया है या उसे हिंदुत्व में समाहित करके हजम कर जाने की कोशिशें हो रही हैं। पहले प्रेस और टीवी का भाजपा के प्रचार-प्रसार के लिए इस्तेमाल होता था,लेकिन मोदी सरकार आने के बाद से भाजपा के अलावा आरएसएस हरेक टॉक शो का अनिवार्य अंग है। अटलबिहारी बाजपेयी के शासन में मीडिया का प्रभावशाली प्रयोग हुआ था लेकिन उस समय का प्रचार आम लोगों के मन पर आरएसएस की विचारधारा का गहरा वैचारिक असर डालने में असफल रहा,इसके विपरीत इसबार मोदीजी की केन्द्र में सरकार बनने की प्रक्रिया में प्रचार का जो तंत्र खड़ा किया गया और मॉडल चुना गया वह अपने आपमें विलक्षण और प्रभावशाली है,इसने हरेक नागरिक के मन में आरएसएस की विचारधारा के प्रमुख तत्वों को प्रभावशाली रुप में पहुँचाने में सफलता पाई है।इसने हिंदुत्व के नए मनोविज्ञान को सामाजिक शक्ति के रुप में सृजित किया है। इसके लिए इंटरनेट, सोशलमीडिया , मासमीडिया आदि का रीयल टाइम कम्युनिकेशन के रुप में इस्तेमाल किया है।इस कम्युनिकेशन के प्रधान लक्षण इस प्रकार हैं- 1. हाशिए के समुदायों का कम्युनिकेशन बंद,2.शत्रु के साथ बातचीत बंद,3. अब आरएसएस –भाजपा आदि के बारे में नकारात्मकता कम और परम सकारात्मकता की ही इमेज वर्षा होती रहती है,5. अब विपक्षी दलों का कवरेज एकसिरे से गायब है,वे यदा-कदा टीवी टॉक शो में दिख जाते हैं,लेकिन समय के अनुपात में उनको समय बहुत कम दिया जाता है।अब सिर्फ़ हिंदू अस्मिता की इमेज रक्षा और उसके प्रचार-प्रसार पर मुख्य जोर है, 5.मीडिया कवरेज में हिंदुत्व के फ्रेमवर्क में धर्मनिरपेक्षता एक ह्रासशील विभ्रम है, 6. अब गोपनीयता नहीं है बल्कि ट्रांसपरेंसी के नाम पर निगरानी है,7.मीडिया में धर्मनिरपेक्ष सामाजिक जीवन का सपना ग़ायब है, उसकी जगह जीवनशैली के हिंदूवादी रुपों का बोलवाला है। यही वह परिप्रेक्ष्य है जिसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद निर्मित हो रहा है।

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद-

´हिन्दू अस्मिता´ और ´हिंदू एकता´ का विचार हाल-फिलहाल के वर्षों की देन नहीं है।यह महज आरएसएस निर्मित वैचारिक विमर्श नहीं है,बल्कि भारत में 19वीं सदी से इसकी निरंतर वैचारिक धारा प्रवाहित होती रही है।आरएसएस ने तो इस विचार को सत्ता हासिल करने का औजार बनाया।इस विचार की नींव अंग्रेजों ने जनगणना के जरिए डाली, दयानंद सरस्वती ने हिंदुत्व को बचपन दिया,बाल गंगाधर तिलक ने तरुण बनाया ,वी.डी. सावरकर ने युवा बनाया और आरएसएस ने उसे वोटर बनाया।इस प्रसंग में कुछ महत्वपूर्ण बातें उल्लेख योग्य हैं,मसलन् भारत में सन् 1872 में जनगणना की शुरूआत होती है इसमें धर्म के आधार पर वर्गीकरण सामने आता है। पहलीबार सरकारी दस्तावेजों में धार्मिक पहचान को प्रमुखता के साथ अंकित किया गया,इससे अस्मिता के पहचान के रुप में धर्म को वैधता मिली।भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने लिखा सन्1873 से हिंदी नई चाल में ढ़ली।डी.एन.झा के अनुसार भारतेंदु ने अपनी रचनाओं में मुसलिम पात्रों को क्रूर,डरपोक,धोखबाज,अधर्मी और पतित के रुप में चित्रित किया।उनके समकालिकों ने मुसलिम शासन को ´´हिंदू महिलाओं के अपहरण और बलात्कार,पवित्र गायों की हत्या,मंदिरों को अपवित्र´´करने का इतिहास बताया है।यही हाल मराठी लेखकों का है ,उन्होंने मुसलमानों को ´´शोषक और धर्मोन्मादी´´और उनके शासन काल को ´´हिन्दुओं के समग्र पतन´´और ´´उनके सामाजिक रिवाजों पर इस्लाम के खतरनाक प्रभाव´´के प्रसार का काल बताया।

सन्1875 में आर्यसमाज की स्थापना होती है।आरंभ में आर्यसमाजियों ने पंजाब में 1891 की जनगणना में अपने को ´आर्य´के नाम से पंजीकृत किया।सन् 1881में आर्यसमाज ने गौरक्षिणी सभा नामक संगठन का गठन किया।गौ रक्षा के नाम सभी रंगत के हिंदुओं को एकजुट किया।आरंभ में सनातनियों के साथ जो कुछ वैचारिक संघर्ष आर्यसमाज ने चलाया था उसको गौरक्षा के बहाने दरकिनार करके व्यापक हिंदू मोर्चा बना लिया।आर्यसमाज की एक अन्य चिंता शुद्धीकरण-पुनर्धर्मान्तरण को लेकर भी थी वे हिंदूधर्म में वापस लाने के मिशन में सक्रिय हो गए।इस समूची प्रक्रिया ने उग्र हिंदुत्व की जमीन तैयार की।इस क्रम में समाजसुधार के कार्यक्रमों को आर्यसमाज क्रमशः छोड़ता चला गया या उनको हाशिए पर डाल दिया और उग्र हिंदू एजेण्डे पर व्यापक हिंदू एकता के लिए काम करने लगा।इस समूची प्रक्रिया में मुसलमान,इस्लाम,ईसाईयत आदि के खिलाफ जमकर अविवेकवादी प्रचार अभियान चलाया गया,समस्या थी आधुनिक मनुष्य बनाने की लेकिन आर्यसमाज ने उसे हिंदू बनाने की दिशा में मोड़ दिया।समस्या थी आधुनिकता की, प्रक्रियाओं को समाजसुधारों के जरिए बल पहुँचाने की, लेकिन उसे पुनरूत्थानवाद की दिशा और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की दिशा में मोड़ दिया।आर्यसमाज के समानान्तर और भी अनेक संगठन और विचारक थे जो 19वीं सदी में हिन्दू बनाने, हिंदुओं को एकजुट करने के काम में लगे थे।इनमें विवेकानंद, मदनमोहन मालवीय, राजनारायण बसु आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। यहां तक कि राजा राममोहन राय ने ´ब्रह्मसमाज´की स्थापना के साथ ईसाईयत के विरोध और हिंदुओं के एकजुट प्रयासों पर जोर दिया। राजा राममोहन राय भी हिंदूमन,हिंदू विचार,हिंदूशास्त्र आदि से अपने को पूरी तरह मुक्त नहीं कर पाए।इन सभी प्रयासों ने ´हिंदू अस्मिता´ को केन्द्र में लाकर रख दिया।धर्म को पहचान का आधार बनाया।इन सबमें मुसलमानों और इस्लाम के खिलाफ बड़े पैमाने पर तर्क गढ़े गए।नए किस्म के हिन्दू स्टीरियोटाइप तर्कों का जन्म हुआ।बंगाल में राजनारायण बसु(1826-1899),जो कि देबेंद्रनाथ टैगोर के निकट सहयोगी थे,वे सनातन धर्म की जीत के पक्के समर्थक थे,उन्होंने जोर देकर कहा ´हिंदू महासमिति में मुसलमानों के लिए कोई जगह नहीं हो सकती।´

हिंदू अस्मिता पर सबसे पहली मुकम्मल किताब वी.डी.सावरकर ने ´हिंदुत्व / हू इज ए हिंदू ॽ (1923)लिखी।इस किताब में उन्होंने लिखा ´´हिंदुत्व अपने आप में विश्लेषण के सारे प्रयासों की अवज्ञा करता है।यह एक शब्द नहीं बल्कि इतिहास है।यहां के लोगों का न केवल आध्यात्मिक या धार्मिक इतिहास बल्कि संपूर्ण इतिहास है।´´ इस उद्धरण में सबसे मारक बात है ´´ हिंदुत्व अपने आप में विश्लेषण के सारे प्रयासों की अवज्ञा करता है´´,यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां से अवज्ञाकारी हिंदुत्व की पहचान को खोलने की जरूरत है।यही वह समझ है जिसके कारण आरएसएस और उसके सहयोगी संगठन हिंदुत्व को परिभाषित करने के किसी भी ऐसे प्रयास से सहमत नहीं होते जिससे उनका मतैक्य न हो।यही वह बुनियादी समझ है जिसने हठी ,अतार्किक और अविवेकवादी हिंदुत्व को जन्म दिया है।

डी.एन. झा ने ´हिंदू अस्मिताःएक पुनर्चिंतन´(2012)में सावरकर के दृष्टिकोण का मूल्यांकन करते हुए लिखा "इतिहास की अपनी काफी त्रुटिपूर्ण समझ के बावजूद उन्होंने जोर देकर कहा कि हिंदू एक राष्ट्र है और भारत उन्हीं के लिए आरक्षित होना चाहिए।सावरकर के अनुसार हिंदू वह है जिसने (1)पितृसुलभ वंशज के रुप में नागरिकता प्राप्त की है यानी जिसका जन्म भारत में हुआ है;(2)जिनके माता-पिता हिंदू हैं और इस प्रकार जिसका खून वैदिक आर्य का है और (3) जिनकी एक साझा संस्कृति है।यह उस भाषा का द्योतक है जिसे संस्कृत के नाम से जाना जाता है और जो उस संस्कृति की अभिव्यक्ति और संरक्षण का माध्यम है; उन सब के संरक्षण का माध्यम जो हमारी जाति के इतिहास में उत्कृष्ट और संरक्षण योग्य है।बहरहाल अपने अंतिम विश्लेषण में सावरकर ने कहा, हिंदू वह है जो भारत को अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि मानता हो,वह जिसका धर्म " भारत भूमि से विकसित हुआ हो।" इस परिभाषा में मुस्लिम और ईसाई शामिल नहीं थे जिनकी पुण्यभूमि क्रमशःअरब और फिलीस्तीन में थी और जो जन्म से धोखेबाज थे।"

सावरकर की बुनियादी समझ थी "संपूर्ण राजनीति का हिंदूकरण और हिंदू राज्य का सैन्यीकरण करो।" यह आह्वान हिंदू अस्मिता और राष्ट्रवाद को एकजुट करने का नारा बन गया।" सावरकर की इस किताब के प्रकाशन के दो साल बाद केशव बलिराम हेडगेवार (1889-1940)ने आरएसएस की स्थापना की।कालांतर में एम.एस. गोलवलकर ने संघ को वैचारिक चरित्र प्रदान किया।उन्होंने ही ´सांस्कृतिक राष्ट्रवाद´की अवधारणा का सबसे पहले प्रतिपादन किया।

सवाल यह है ´सांस्कृतिक राष्ट्रवाद´ क्या है ? इसका उत्तर इस सवाल से मिलेगा कि ये लोग भारत को किस तरह देख रहे हैं ? किस तरह की सामाजिक इकाइयों के आधार पर देख रहे हैं ? यानी इनके नक़्शे में भारत की किस तरह की तस्वीर है।असल में, यह काल्पनिक धारणा है और इसका भारत के सामाजिक यथार्थ और उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रियाओं से कोई संबंध नहीं है।यह वर्तमान ,अन्य (अदर) और विविधता के निषेध पर निर्मित अवधारणा है।

'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ' भारतीय समाज को धार्मिक इकाइयों के आधार पर वर्गीकृत करके देखता है।धर्म के आधार पर सामाजिक समूहों को वर्गीकृत करते हुए इसमें ऐसे हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता का दावा किया जो परंपरा में कहीं नहीं मिलती।सामाजिक जीवन में वह कहीं पर भी नज़र नहीं आती। यह वह हिन्दूधर्म है जिसकी रचना सन् 1925 के आसपास आरंभ हुई। आरएसएस के संस्थापकों ने इसको निर्मित किया। यह वह हिन्दूधर्म नहीं है जो हज़ारों सालों से हमारे देश में विभिन्न सम्प्रदायों के आचार-व्यवहार और शास्त्र विमर्श ने बनाया है। उल्लेखनीय है संघ के अधिकांश नेताओं की स्वाधीनता संग्राम में नकारात्मक भूमिका रही है। यहां तक कि संविधान निर्माण के समय और बाद भी संविधान विरोधी भूमिका रही है।

स्वाधीनता संग्राम में कई तरह की विचारधाराएं और संगठन सक्रिय थे ,संघ ने उनमें से लिबरल और क्रांतिकारी नेताओं और संगठनों के विचारों से प्रेरणा लेने की बजाय उन परंपराओं और राजनीतिक ताक़तों से प्रेरणा ली जिनके पास हिंदूधर्म और जाति के आधार पर देखने का नजरिया था, यही नजरिया संघ ने समाज, राजनीति, इतिहास आदि पर लागू किया।

'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' का मूलाधार है एम.एस.गोलवलकर की किताब है, "वी ओर अवर नेशनहुड डिफाइंड" है, यह किताब सन् 1938 में लिखी गयी और सन् 1939 में इसका पहला संस्करण प्रकाशित हुआ। इस किताब में नस्ल के आधार पर देश,राष्ट्र ,धर्म, संस्कृति, भाषा आदि को व्याख्यायित किया गया।

गोलवलकर ने इस किताब में भारत में उपलब्ध ज्ञान संपदा और उसके वैविध्यपूर्ण मूल्याँकन की अनदेखी करके कपोल- कल्पनाओं पर आधारित राष्ट्र -राज्य की परिकल्पना पेश की।वे भारतीय ज्ञान संपदा से मदद लेने की बजाय हिटलर-मुसोलिनी-सावरकर के नजरिए से राष्ट्र-राज्य को परिभाषित किया।यही समझ भारत के बारे में आरएसएस के राजनीतिक विवेक की धुरी है और इसी से निर्देशित होकर संघ और उसके द्वारा संचालित संगठन आए दिन आधुनिक भारत की तस्वीर पेश करते हैं। गोलवलकर ने ज्ञान की जो नींव डाली उसका आधार है किंवदन्ती, कपोल कथाएँ और अविवेकवाद। इसका सामाजिक लक्ष्य है 'अन्य' के खिलाफ घृणा और हिंसा केन्द्रित शासनतंत्र की स्थापना करना, मौजूदा शासनतंत्र में अविवेकवाद को नॉर्मल विचारधारा के रुप में प्रतिष्ठित करना।उन्होंने लोकतंत्र में नागरिकसमाज की बजाय धर्मसमाज और खासकर हिन्दूधर्म को प्रधानता दी।उसे आधार बनाया।

गोलवलकर की कपोल -कल्पनाएँ सतह पर सामान्य और सहज प्रतीत होती हैं लेकिन इनका राजनीतिक आयाम भयावह और बर्बर है। कपोलकथाएं बर्बरता का अंग कैसे बन गयीं यह चीज आरएसएस रचित शास्त्र और विभिन्न राज्य और केन्द्र सरकारों के नीतिगत फैसलों के मूल्याँकन के ज़रिए सहज ही समझी जा सकती हैं। मसलन्, यह कपोल कल्पना कि हिन्दू श्रेष्ठ होते हैं,पहले यह चीज पंडितों की कहानियों तक सीमित थी, इसका राजनीति से कोई संबंध नहीं था। इसके आधार पर कोई नया शास्त्र, सामाजिक नियम, संविधान अथवा दण्डविधान बनाने की कोई कोशिश पहले नहीं की गयी, यहां तक कि धर्मनिरपेक्षता और बहुलतावादी संरचनाओं के खिलाफ कभी इस तरह के हमले नहीं किए। लेकिन पहलीबार आरएसएस ने अपने जन्म से लेकर आज तक इन कल्पित कहानियों को सामयिक राजनीतिक विमर्श , सामाजिक संरचनाओं और राज्य की नीतियों ,शिक्षा के पाठ्यक्रम और राजनीतिक गोलबंदी का आधार बनाया।जनसंघ के जन्म के साथ यह सिलसिला आजाद भारत में शुरु होता है।

आरएसएस के जन्म के पहले रैनेसां में पुनरुत्थानवादी धारा थी जिनमें शामिल कई बडे विचारकों ने धर्म और नस्ल के आधार समाज को देखने का नज़रिया पेश किया। इस तरह के लोग ब्रिटिश, प्राच्यवादी और देशज पुनरुत्थानवादी रैनेसां परंपरा में मौजूद थे। आरएसएस के प्रचारक इन विचारकों का बार - बार जिक्र करते हैं। मूल बात यह है कि समाज को धर्म और नस्ल के आधार पर देखने की राजनीतिक परंपरा का श्रीगणेश ब्रिटिश दौर में हुआ। यह नजरिया मध्यकाल में नहीं मिलता। यहां तक कि मध्यकाल में हिन्दू- मुस्लिम वैमनस्य के दर्शन भी नहीं होते। यही वजह है संघ का पुनरुत्थानवादी विचारकों और ब्रिटिशपंथी विचारकों के साथ सहज वैचारिक संबंध बन जाता है। उनके इस नजरिए का साहित्य और कला रुपों में किस तरह का असर हुआ है इस पर गंभीरता से सोचने की जरुरत है और यह भी विचारणीय है कि साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में इसका किस तरह विरोध किया गया।

आधुनिककाल में हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखते समय आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के सामने यह संकट था कि पुरुत्थानवादी नजरिए से साहित्य का इतिहास लिखा जाय या प्राच्यवादी नजरिए से लिखा जाय? शुक्लजी ने इन दोनों ही दृष्टियों का इतिहास और आलोचना में इस्तेमाल नहीं किया और इतिहासदृष्टि का जो मॉडल चुना वह मानवतावादी -वस्तुवादी है।इस मॉडल की अपनी समस्याएं हैं लेकिन पुनरुत्थानवादी और प्राच्यवादी इतिहास मॉडल से यह भिन्न और ज्यादा उदार मॉडल है। इसमें विकास की अनंत संभावनाएँ हैं, यह लचीला मॉडल है।

मसलन्, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने साहित्य के इतिहास को धर्म और अध्यात्मवाद के आधार पर निर्मित नहीं किया,हिन्दी और हिन्दीभाषी क्षेत्र की बोलियों और भाषाओं को संस्कृत की बेटी नहीं माना। संस्कृत साहित्य से अलग करके हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखा। पुनरुत्थानवादी और संघ यह मानते हैं संस्कृत तो हिन्दी की जननी है। जबकि शुक्लजी यह नहीं मानते।इसके विपरीत हिन्दी के उदय और विकास को हिन्दीभाषी क्षेत्र की जनता,जनभाषाओं और लोक संस्कृति के साथ जोडकर देखा।प्राच्यवादियों के नजरिए से अलगाते हुए साहित्य का जनक रहस्यवाद या धर्म या अध्यात्मवाद को नहीं माना।जबकि गोलवलकर यह माँग करते हैं कि साहित्य और कलाओं को अध्यात्म और धर्म के आधार पर देखा जाना चाहिए। उल्लेखनीय है शुक्लजी जब इतिहास लिख रहे थे तब आरएसएस का जन्म हो चुका था और विभिन्न क्षेत्रों में धर्म के आधार पर और ख़ासकर हिन्दूधर्म के आधार पर देखने की बातें अनेक बड़े लोग कर रहे थे। इनमें मदनमोहन मालवीय और उनके दूसरे समानधर्मा नेताओं के नाम आते हैं। लेकिन शुक्लजी ने अपने को इनके नज़रिए से मुक्त रखा।शुक्लजी ने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' उदार मानवतावादी दृष्टिकोण के आधार निर्मित किया और इतिहास को इतिवृत्तवादियों, प्राच्यविदों और पुनरुत्थानवादियों के नज़रिए से मुक्त होकर लिखा। दिलचस्प बात यह है पुनरुत्थानवाद के नज़रिए का बड़े पैमाने पर आर्यसमाज के संस्थापक दयानन्द सरस्वती ने जमकर प्रचार किया। इस नज़रिए के अनेक पहलुओं का माधव सदाशिव गोलवलकर के नज़रिए से मेल बैठता है।आज देश में अधिकांश स्थानों पर आर्यसमाज संगठन पर संघ का ही क़ब्ज़ा है।

दयानन्द सरस्वती का मानना था भक्ति आंदोलन की कोई भूमिका नहीं है। वहीं पर एम.एस. गोलवलकर ने "वी ओर अवर नेशनहुड डिफाइंड" में लिखा है कि भगवान से बडा भक्त को मानने की मध्यकालीन परंपरा सही नहीं है इससे व्यक्तिवादिता का विकास हुआ और धार्मिक सामूहिकता का क्षय हुआ। यानी वे भी प्रकारान्तर से भक्ति आंदोलन के बुनियादी नजरिए का विरोध करते हैं। भक्ति आंदोलन के अधिकांश कवि यह मानते हैं धर्म निजी चीज है,सभी धर्म समान हैं, सबका सम्मान करना चाहिए ,धर्म का राजनीति और राजसत्ता से कोई संबंध नहीं है। यही वह बुनियादी नजरिया है जो आधुनिककाल में राजा राममोहन राय के धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण और आधुनिक भारत की अवधारणा का बुनियादी आधार बनता है। दिलचस्प बात यह है कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के नजरिए का भी यही मूलाधार है। वे पुनरुत्थानवादियों और प्राच्यविदों के नजरिए से भिन्न धर्मनिरपेक्ष नजरिए से साहित्य के इतिहास का जो ढांचा प्रस्तावित करते हैं वह तुलनात्मक तौर पर खुला है और उसमें विवेकवादी दृष्टिकोण के विकास की अनंत संभावनाएं हैं।

साम्प्रदायिक इतिहासदृष्टि का मानना है हिन्दीभाषी क्षेत्र में एक ही प्रमुख भाषा है वह है खडी बोली हिन्दी , यह सैंकडों सालों से बोली जा रही है।आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस नजरिए को खंडित किया।उनका मानना है आधुनिककाल के पहले खडी बोली हिन्दी का प्रयोग बहुत कम लोग करते थे,ज्यादातर जनता अवधी,भोजपुरी,मैथिली ,ब्रजभाषा आदि आंचलिक बोलियों और भाषाओं का प्रयोग करती थी , मध्यकाल के प्रमुख लेखक गैर-खडी बोली की भाषाओं से आते हैं। उनका लिखा साहित्य ही हिन्दी का मूल साहित्य है। इन बोलियों और भाषाओं की जननी संस्कृत नहीं बल्कि इस इलाके में रहने वाली जनता है। भाषा का निर्माण जनता करती है। इसी प्रक्रिया में विभिन्न भाषाओं के साहित्य की परंपरा और इतिहास को भी देखा जाना चाहिए। इससे यह तथ्य सामने आता है कि हिन्दीभाषी क्षेत्र एकभाषी न होकर बहुभाषी है।यहां संस्कृति की बहुलतावादी परंपरा है। इसमें सभी किस्म की जातियों के लेखकों की बडी भूमिका रही है।अत: हिन्दीभाषी क्षेत्र को एकभाषी क्षेत्र के रुप में देखना सही नहीं होगा।यहां सवर्ण और अ-सवर्ण लेखकों में जाति के आधार पर भेद नहीं था।अत: वर्णाश्रम व्यवस्था और जातिप्रथा का साहित्य और संस्कृति में कोई मूल्य नहीं है, प्रासंगिकता नहीं है।इसके अलावा शुक्लजी ने साहित्य का इतिहास लिखते समय राष्ट्रवाद को अ-प्रासंगिक धारणा के रुप में ही देखा। आश्चर्य है कि वे राष्ट्रवादी लेखकों का नामोल्लेख तक नहीं करते। बल्कि वीरगाथा काल के लेखकों की रचनाओं की प्रामाणिकता पर संदेह व्यक्त करते हुए प्रकारान्तर से राष्ट्रवाद को ही खारिज करते हैं। वे उन लेखकों पर कम लिखते हैं जिनकी रचनाओं में धर्म को आधार बनाया गया या दो धार्मिक दृष्टिकोण और राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से लिखी गयी हैं।वे लेखक का परिचय लिखते समय जाति का उल्लेख जरुर करते हैं लेकिन लेखक को जाति के नजरिए से न देखकर मनुष्य के रुप में देखते हैं, लेखक के रुप में देखते हैं। उन्होंने अपने इतिहास ग्रंथ में धर्म, जाति या वर्ण को साहित्य से जोडकर नहीं देखा अपितु मनुष्य और उसके सामाजिक अन्तर्विरोधों को साहित्य और समाज के अन्तस्संबंध के परिप्रेक्ष्य में रखकर देखा है। इसके अलावा वे 'वर्ग' और ' वर्गसंघर्ष' के आधार पर भी साहित्य को नहीं देखते। बल्कि भाषा समुदाय के रुप में देखते हैं।

'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' की मूल समस्या है धर्म और अध्यात्मवाद के साथ साहित्य, कला , राजनीति , इतिहास आदि को जोड़कर देखना।जबकि यह वह नजरिया है जिसके आधार पर साहित्य और कलाओं को सही ढंग से समझा ही नहीं जा सकता। इससे भी बडी बात यह कि धर्म या नस्ल के आधार पर साहित्य और कलाओं की भूमिका को सही रुप में परिभाषित ही नहीं कर सकते। इसका प्रधान कारण है साहित्य और धर्म की प्रकृति का मूल अंतर।धर्म में मनुष्य को आगे की दिशा में बदलने की क्षमता नहीं है, जबकि साहित्य और कलाओं में मनुष्य में सांस्कृतिक तौर पर प्रगतिशील मूल्य पैदा करने की क्षमता है।धर्म में निजी संरचना में सतही परिवर्तन करने की क्षमता है लेकिन मूलगामी परिवर्तन की इच्छाशक्ति नहीं है।

' सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' की वैचारिक संरचनात्मक विशेषता है कला और राजनीति के अन्तस्संबंध का अस्वीकार। धर्मनिरपेक्ष विचारधारा का निषेध। साहित्य और विचारधारा के संबंध का निषेध।संरचनात्मक तौर पर साहित्य में परिवर्तन का निषेध। शाश्वत साहित्य की धारणा पर जोर। लेकिन आधुनिककाल में साहित्य और कलाएं राजनीति से संबंध काटकर अपना विकास नहीं करतीं। खासकर सामयिक समाज,संचार तकनीक और सामयिक राजनीतिक आंदोलनों से साहित्य का गहरा संबंध है। यही वजह है साहित्य को विभिन्न राजनीतिक आंदोलनों के संदर्भ में विभिन्न किस्म की भूमिकाओं में देख सकते हैं। आरएसएस के विचारक हमेशा 'धर्म के लिए साहित्य', 'धार्मिकता के लिए साहित्य' पर जोर देते हैं। भक्ति साहित्य को साहित्य न मानकर धार्मिक साहित्य के रुप में देखते हैं। उनके लिए रामचरित मानस एक धार्मिक कृति है।

'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' जातीयता की धारणा का निषेध करता है। भाषावार राज्यों के गठन को गलत मानता है। वैसी अवस्था में जातीयभाषा, जातीय साहित्य, भारतीय साहित्य और विश्व साहित्य की अवधारणाएं एकसिरे से अप्रासंगिक हो जाएंगी।

असंभव विनिमय -

'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ' असंभव सामाजिक- सांस्कृतिक -राजनीतिक विनिमय है। उनके यहाँ हर चीज संभव से आरंभ होती है लेकिन असंभव और अनिश्चितता में रुपान्तरित हो जाती है। इसके कारण इसमें वर्णित किसी भी विचार या व्यवहार का विनिमय नहीं कर सकते। फलत: इसका तथ्यों , आचार-विचार,परंपरा, संस्कृति , राजनीति आदि के साथ किसी भी किस्म का विनिमय नहीं कर सकते ।साथ ही यथार्थ के साथ भी विनिमय नहीं कर सकते। बल्कि यह कहें तो ज्यादा सही होगा कि 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद 'में तो हर चीज अनिश्चित और जड़ है। इसमें वर्तमान जगत के लिए तो कोई जगह ही नहीं है इसलिए इसकी वैधता की किसी भी रुप में पुष्टि नहीं कर सकते। वह ऐसे यथार्थ को पेश करता है जिसको पुष्ट करना संभव नहीं है। वह ऐसी धारणा है जिस पर बहस नहीं हो सकती,आप इसे मानें या खारिज करें।

'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' ऐसी अवधारणा है जिसके बदले में विनिमय करके आप कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते। इस तरह की अनेक धारणाएँ प्रचलन में हैं उनका विनिमय करना मुश्किल है। 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ' की हिमायत में जो लोग बोल रहे हैं उनसे सवाल करें कि जीवन या समाज पर किसका शासन होगा ॽ धर्म का शासन होगा या विज्ञान का शासन होगा ॽइसी तरह कलाओं पर किसका असर होगा धर्म का असर होगा या विज्ञान का असर होगा? यह भी ध्यान रखें कि चंद प्रतीकों और चिह्नों के ज़रिए भी 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद 'का विनिमय नहीं कर सकते।

कोई भी सिस्टम अपना विकास तब ही कर पाता है जब वह समानता के आधार पर अपना विनिमय करे और उसके अपने मूल्य हों। इस तरह के सिस्टम के तदर्थ और स्थायी मक़सद भी होते हैं। जिसके कारण उनका तयशुदा विलोम या विरोध भी होता है। जैसे अच्छा -बुरा,सत्य-असत्य ,सब्जेक्ट -ऑब्जेक्ट आदि। लेकिन 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' के पास कोई सुचिंतित धारणा या सिस्टम की समझ नहीं है।

'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' वस्तुत: आधारहीन विभाजक विचारधारा है।इसके पास सामाजिक यथार्थ और अंतर्विरोधों को देखने की क्षमता नहीं है। लेकिन वह यथार्थ को विभ्रम में बदलने की क्षमता जरुर रखता है। यह मूलत: डिसरप्टिव विचारधारा है।अराजकता इसकी मूल आत्मा है। फलतःइसमें कोई चीज स्थिर नहीं रह सकती। भिन्नता और वैविध्य के साथ इसका वैचारिक अन्तर्विरोध है। मुश्किल यह है कि यह जनता के जिस हिस्से पर टिकी है वह जनता अनालोचनात्मक है।

'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' के तर्क हमेशा यथार्थ के किसी न किसी कोण से शुरु होते हैं, उसके आधार पर यह आभास पैदा करने की कोशिश करता है कि वह वैध अवधारणा है लेकिन वे यह भूल जाते हैं इस अवधारणा के आधार पर विनिमय नहीं हो सकता,आधुनिक समाज नहीं बनाया जा सकता। कोई भी नई चीज या संरचना नहीं बना सकते। क्योंकि इस धारणा का विनिमय मूल्य नहीं है। यह नपुंसक धारणा है। यह धारणा कृत्रिम रुप से बंधक यथार्थ के तहत ही अपनी वैधता का ढोल बजाती है।

' सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' के मौजूदा प्रचार अभियान ने बडे पैमाने पर 'अनक्रिटिकल जनता 'तैयार की है। ' क्रिटिकल जनता ' घटी है। ख़ासकर सूचनावर्षा ने सूचना का बेतहाशा कचरा समाज में फेंका है। यही सूचना कचरा बड़े पैमाने पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ने इस्तेमाल किया है।सूचना कचरे के रुप के तौर पर जो विषय सामने आए हैं वे हैं -मुस्लिम तुष्टीकरण, भ्रष्टाचार, नैतिक - अनैतिक , सामान्य -असामान्य , छद्म धर्मनिरपेक्षता , हिन्दुत्व, आरक्षण , जाति द्वेष , बीफ या गोमांस,लवजेहाद आदि।यही वह कचरा है जिसने 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' का परिवेश निर्मित किया है।

दार्शनिक तौर पर 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ' आइने में अपनी इमेज का गुलाम है। जिस व्यक्ति की इमेज को वे देखते हैं वे उससे भिन्न इमेज स्वीकार नहीं करते।। वे आइने में हिन्दू देखते हैं या फिर धार्मिक पहचान को देखते हैं और उसी को पीटते हैं। इस क्रम में सद्भाव की इमेज का लोप हो जाता है। वे असल में आइने में हिन्दू इमेज देखते हैं तो उसी को दोहराते हैं। वे यही चाहते हैं कि आइने में जिस तरह के व्यक्ति की इमेज वे देखते हैं तो बाद में उसी इमेज को समाज में देखना चाहते हैं। यही अवस्था उनके सपने या यूटोपिया की है वे आइने में अपना जो सपना देखते हैं वही समाज में दोहराते हैं।

"अन्य" या "अदर" के ख़िलाफ़ जंग -

"अन्य "को बड़े कौशल के साथ आरएसएस ने सार्वजनिक विमर्श से ग़ायब कर दिया है। अन्य या हाशिए के सवाल कहने को चर्चा में हैं लेकिन अर्थहीन और निष्प्रभावी होकर रह गए हैं।हमने आरक्षण , दलित साहित्य , स्त्री साहित्य आदि के बहाने हाशिए के लोगों के जीवन के सारवान रुप को ग़ायब ही कर दिया है। अब हाशिए के लोग हैं उनके सवाल भी हैं लेकिन सब सारहीन हैं।हाशिए के आदमी का अपदस्थीकरण कैसे हुआ ? वह ग़ायब कैसे हुआ ?यह कोई नहीं जानता। आज स्थिति यह है कि दलित अरबपति हैं, करोड़पति हैं, लेकिन परिदृश्य से दलित ग़ायब है कहीं पर कोई विजुअल तक नज़र नहीं आता। चारों ओर औरतें ही औरतें हैं लेकिन उनके सवाल ग़ायब हैं, औरत की यथार्थ अनुभूति ग़ायब है। अब दलित, औरत, मुसलमान, आदिवासी लाक्षणिक रुप से ही बचे रह गए हैं। वास्तव रुप में हम उनको कहीं पर नहीं देख रहे। यथार्थ में उनका चारों ओर संकुचन हुआ है।

19वीं शताब्दी में हम जब आधुनिकता के दौर में दाख़िल हुए थे तो उस समय "अन्य" यानी स्त्री -दलित के सवालों पर व्यापक चर्चा हुई, आधुनिक स्त्री निर्मित की गयी, आधुनिक दलित निर्मित किया गया।उस समय ´अन्य´ की हत्या करने का लक्ष्य नहीं था। बल्कि 'अन्य' को उद्घाटित करने का लक्ष्य था। उस समय यही कहा गया कि "अन्य "को पहले प्रस्तुत करो, बाद में उससे प्यार या घृणा करो।

यह भी देखा गया कि व्यक्तिगत मूल्यों और व्यक्तिवादिता का जितना प्रचार-प्रसार हुआ "अन्य" ग़ायब होता चला गया।व्यक्तिवादिता के विकास के फलस्वरूप अन्य का लोप हो सकता है यह हमने कभी सोचा ही नहीं था। फलत:आधुनिककाल में "अन्य" का स्पेस सीमित होता चला गया। अब ´अन्य´ है लेकिन भगवान भरोसे है! ´अन्य´ है लेकिन भिन्नता और विशिष्टता के साथ। कहने का आशय यह कि इस दौर में ´अन्य´ अमूर्त और वायवीय हो गया है।अब 'अन्य' को 'भिन्नता' के रुप में विश्लेषित करने की परंपरा चल निकली जिससे वह क्रमश: वायवीय बना है। खासकर 1975-76 के बाद से स्त्री और दलित के बारे में जितना साहित्य लिखा गया है वह 'भिन्नता 'के पैराडाइम के आधार पर लिखा गया है।इससे स्त्री और दलित की सामाजिक इमेज और अवस्था क्षतिग्रस्त हुई है।

´भिन्नता´ ने औरत , दलित और मुसलमान की नई इमेज की सृष्टि की है। यह इमेज सतह पर गतिशील है लेकिन सामाजिक मर्म के स्तर पर यह मध्यवर्गीय परजीवी की इमेज से मिलती जुलती है।मसलन्, १९वीं सदी में मर्दों में स्त्री को लेकर एक ख़ास क़िस्म का प्रचंड आवेग नज़र आता है।जिसे रैनेसां के नाम से जाना जाता है। वे परंपरागत औरत की जगह नए क़िस्म की आधुनिक औरत चाहते हैं, ऐसी औरत चाहते हैं जिसकी साज-श्रृंगार में पश्चिमी स्त्री से तुलना की जा सके।इसका शरीर कैसा होगा, सौंदर्य कैसा होगा , वह किस तरह सजेगी , किस तरह चलेगी और किस तरह रहेगी , यह सब पश्चिम से प्रेरणा लेकर मर्दों ने तय किया। इसके गर्भ से ही आधुनिक आदर्श स्त्री इमेज का जन्म हुआ ।अब वह स्त्री केन्द्र में नहीं थी जिसे दरबारी सभ्यता या श्रृंगार साहित्य या रीतिकालीन कवियों ने रचा था । श्रृंगारी स्त्री अपने शारीरिक सौंदर्य के आधार पर ही मर्दों को सम्मोहित करती थी लेकिन नई आधुनिक औरत का गठन कुछ इस तरह किया गया जिससे वह अपने यथार्थ को हासिल कर सके। इसमें उसके आदर्शशरीर और यथार्थशरीर का विलक्षण सम्मिश्रण है। अब स्त्री - पुरुष का भेद कहने को तो था लेकिन असल में वे एक दूसरे के आईने में देख रहे थे। वे भिन्न थे लेकिन आईने के रुप में।

आधुनिक काल के आने के साथ यह कहा गया कि रीतिकाल और श्रृंगार रस की विदाई हो गयी है, लेकिन २०वीं सदी के तीसरे दशक के बाद से नए सिरे रीतिकाल लौट आया। लेकिन इसबार वह नए रुप में लौटा। मसलन् पहले रीतिकालीन नायिका - नायकभेद (अन्य) का संबंध दरबारी (विलक्षण) लोगों तक सीमित था वे ही उसके भोक्ता थे,यह संबंध ' विलक्षण 'और 'अन्य ' के बीच के संबंध के रुप में जाना जाता है।

लेकिन आधुनिकता के साथ नए नायक -नायिका का जो रुप सामने आया उसमें 'विलक्षण 'और 'अन्य' के संबंध की बजाय दोनों में 'समानता 'और 'एक जैसी पसंद 'पर ज़ोर है। रीतिकाल में स्त्री 'सुपरफ्लुअस ' थी लेकिन आधुनिककाल में वह पुरुष की पूरक है । फलत: औरत वास्तव अर्थ में ग़ायब हो गयी। कायिकतौर पर वह मौजूद थी लेकिन कला और साहित्य के क्षेत्र से वह ग़ायब हो गयी। सवाल यह है हिन्दी के आधुनिककालीन साहित्य में स्त्री, अल्पसंख्यक और आदिवासी केन्द्र में आते हैं ॽ भारतेन्दु काल से लेकर आपातकाल के समापन तक औरत, दलित और मुसलमान ग़ायब हैं। इनके सवाल ग़ायब हैं। इस क्रम में पहले आपातकाल में औरत 'श्रमशक्ति रिपोर्ट 'के ज़रिए केन्द्र में आती है, मंडल कमीशन के ज़रिए अन्य पिछड़े लोग केन्द्र में आते हैं,सच्चर कमीशन की रिपोर्ट के ज़रिए मुसलमान सामने आते हैं। जबकि संविधान में इन तीनों के बारे में तमाम क़िस्म की पवित्र घोषणाएँ की गयी थीं लेकिन वे सभी घोषणाएँ खोखली साबित हुईं, इस बीच में बड़े पैमाने पर औरत, दलित और मुस्लिम मध्यवर्ग का उदय होता है। इससे इन समूहों में विशेष क़िस्म की सक्रियता नज़र आती है।

यही स्थिति पुरुषों की भी है।पुरुष की जो इमेज आधुनिककाल के पहले थी वही इमेज आधुनिककाल आने के बाद नहीं रही। स्त्री की बदलती इमेज की संगति में पुरुष की इमेज का भी तेज़ी से रूपान्तरण हुआ है।जिस तरह रीयल औरत ग़ायब हुई है वैसे ही रीयल पुरुष भी ग़ायब हुआ है। अब मर्द सिर्फ़ एक इमेज मात्र बनकर रह गया है। यह ऐसी इमेज है जिसका सिर्फ़ अनुमान कर सकते हैं, ठीक -ठीक कहना संभव ही नहीं है कि आख़िरकार पुरुष कैसा होता है ! अब सलमान -शाहरुख़-आमिर का जो आख्यान है वह मात्र कायिक आख्यान है। यही हाल स्त्री के आख्यान का है। वहाँ पर शरीर चर्चा , रुपचर्चा महत्वपूर्ण है। इस तरह के रुपों की अंतहीन कहानियाँ हमारे बीच प्रचलन में हैं, प्रसारित होती रहती हैं। दोनों के रुप, शरीर, सौंदर्य प्रसाधन आदि को लेकर ही चर्चाएँ होती रही हैं। इसने शरीर का राजनीतिक अर्थशास्त्र पैदा किया है। इसका साइड इफ़ेक्ट यह हुआ है कि लिंग के सवाल और समस्याएँ साहित्य और मीडिया के बाहर चले गए।

अब हम प्रतिकृतियों के युग में आ गए हैं। प्रतिकृतियों के रुपों पर निरंतर बहस कर रहे हैं। इस क्रम में लिंगभेद और जातिभेद के सवालों को हमने आरक्षण के ज़रिए अपदस्थ कर दिया है। अब जब भी बहस होती है आरक्षण पर होती है लिंगभेद या जातिप्रथा पर बहस नहीं होती। तात्कालिक समाधानों पर बहस होती है दीर्घकालिक समाधानों पर बहस नहीं होती। इस तरह की बहसों से सामाजिकचेतना निर्मित नहीं होती, वायवीय सचेतनता पैदा होती है जो अंतत अचेत रखती है। मसलन् , स्त्री ,मुसलमान और दलित के पक्षधर अधिकांश लेखक अंतत: वही बने रहते हैं जो वे हैं। वे यथास्थिति बनाए रखते हैं। यही वजह है कि बडे पैमाने पर स्त्री और दलित साहित्य प्रकाशित हुआ है लेकिन सामाजिक स्थिति में मूलगामी बदलाव नहीं हुआ है। यह ऐसा साहित्य है जो स्त्री - दलित चेतना तो देता है लेकिन मनुष्य का समग्र भावबोध पैदा नहीं करता। इस अर्थ में यह अनुत्पादक साहित्य है। अब स्त्री - पुरुष के शरीर को लिंग ( जेण्डर) ने अपदस्थ कर दिया है। इसे कामुक भूमिका के प्रगतिशील रुप के तौर पर व्याख्यायित किया जा रहा है। यह असल में लिंगक्षय है। यह लिंग के सवालों का अंत है। यह स्त्री -पुरुष की समानता का अंत है। इन दोनों के भेद अब अ-भेद में रुपान्तरित हो गए हैं। अब दोनों ही लिंग या हाशिए के लोग आत्म- प्रसिद्धि में लगे हैं , इसने लिंगभेद या सामाजिक भेद के रुपों को अप्रासंगिक बना दिया है। अब लोग कह रहे हैं लिंगभेद, जातिभेद , धर्मभेद को भूल जाओ और सिर्फ़ विकास की बात करो। विकास होगा तो सभी क़िस्म के भेद ख़त्म हो जाएँगे। यह असल में स्त्री,पुरुष,दलित, मुसलमान आदि को वायवीय बना देने का मार्ग है जिस पर हम सब आरक्षण , विशिष्ट साहित्य रुप और भिन्न यथार्थ के नाम पर चल निकले हैं।

स्त्री- पुरुष दोनों एक दूसरे की आँखों में आँखें डालकर देख रहे हैं।यह सामान्य भाव है।इसके ज़रिए हमारे सामयिक नैतिक और सांस्कृतिक मूल्य अभिव्यक्त हो रहे हैं। हम सच्ची आँखों से छद्म को देख रहे हैं, सुंदर आँखों से गंदी या घटिया चीज को देख रहे हैं,सुंदर आँखों से शैतान या गुंडे को देख रहे हैं।यह वाइस वर्सा भी हो सकता है। वे एक दूसरे को देख रहे हैं। इस प्रक्रिया में 'अन्य'भिन्न किस्म से चीज़ें ग्रहण कर रहा है। दोनों के साथ भेदभाव हो रहा है और दोनों ही 'शॉर्टकट 'मार रहे हैं। वे संचार जहाज़ की तरह कम्युनिकेट कर रहे हैं। यह संचार का वह रुप है जो फेसबुक, चैटिंग, एसएमएस आदि के रुप में नज़र आता है। यह वह कम्युनिकेशन है जिसने लिंगभेद और जातिभेद के सवालों पर बहस का अंत कर दिया है। अंतर्क्रिया और विनिमय की संभावनाएँ नष्ट कर दी हैं। यही वह बृहत्तर प्रक्रिया है जो हमें अनक्रिटिकल जनता बना रही है और हमें 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' का सहज निशाना भी बना रही है।

मोदी सरकार सत्ता में आने के बाद से ´राष्ट्रवाद´के सवाल पुनः केन्द्र में आ गए हैं। इस बहस के प्रसंग में पहली बात यह कि ´राष्ट्रवाद´ का कोई एक रूप कभी प्रचलन में नहीं रहा।आम जनता में उसके कई रूप प्रचलन में रहे हैं। स्वाधीनता संग्राम के दौरान ´राष्ट्रवाद´ के वैविध्यपूर्ण रूपों को समाज में सक्रिय देखते हैं।यही स्थिति स्वतंत्र भारत में भी रही है।लोकतंत्र के विकास की प्रक्रिया में राष्ट्रवाद सामान्य तौर पर एक समानान्तर विचारधारा के रूप में हमेशा सक्रिय रहा है।ब्रिटिश शासन के दौरान जिस तरह राष्ट्रवाद के अनेक रुप और नाम थे,ठीक आज भी अनेक रुप और नाम प्रचलन में हैं।अंतर यह है पहले हम गुलाम थे,आज संप्रभु लोकतांत्रिक राष्ट्र हैं।पहले मध्यवर्ग का बहुत छोटा अंश हिंदू राष्ट्रवाद से प्रभावित था,आज समाज में मध्यवर्ग के व्यापकतम तबके तक हिंदू राष्ट्रवाद के असर को देखा जा सकता है।दिलचस्प बात यह है कांग्रेस पहले भी राष्ट्रवाद की हिमायत कर रही थी,आज भी कर रही है,पहले ब्रिटिश शासन के विरोध में राष्ट्रवादी नारों का जनता को गोलबंद करने के लिए इस्तेमाल किया।बाद में देश को एकजुट करने के लिए राष्ट्रवादी नारों का इस्तेमाल किया।इसके विपरीत आरएसएस ने ´हिंदू राष्ट्रवाद´के नारों के तहत हिंदू एकता और बहुसंख्यकवादी वोट बैंक राजनीति के लिए इसका इस्तेमाल किया।

सिद्धान्ततः´राष्ट्रवाद´ निजी अंतर्वस्तु पर निर्भर नहीं होता अपितु हमेशा अन्य विचारधारा के कंधों पर सवार रहता है।राष्ट्रवाद के अपने पैर नहीं होते।यह आत्मनिर्भर विचारधारा नहीं है। आधुनिककाल आने के साथ ही ´राष्ट्रवाद´के विभिन्न रूप दिखाई देते हैं,उनमें यह समाजवाद, उदारतावाद, अनुदारवाद यहां तक कि अराजकतावादी विचारधारा के कंधों पर सवार होकर आया है।राष्ट्रवाद के लिए कोई भी अछूत नहीं है,वह साम्प्रदायिक, पृथकतावादी ,आतंकी विचारधाराओं के साथ भी सामंजस्य बिठाकर चलता रहा है।इसलिए ´राष्ट्रवाद´पर विचार करते समय उसका ´संदर्भ´और ´सांगठनिक-वैचारिक आधार´ जरूर देखा जाना चाहिए,क्योंकि वही उसकी भूमिका का निर्धारक तत्व है।

मार्क्सवादी आलोचक ´राष्ट्रवाद´को ´छद्मचेतना´ कहकर खारिज करते रहे हैं,जो कि सही नहीं है। जैसाकि हम सब जानते हैं कि प्रत्येक विचारधारा में ´छद्म´या ´असत्य´ ही होता है और ´संभावनाएं´ भी होती हैं। यही स्थिति ´राष्ट्रवाद´की भी है।हमें देखना चाहिए कि ´राष्ट्रवाद´ की जब बातें हो रही हैं तो किस तरह के इतिहास और आख्यान के संदर्भ में हो रही हैं। क्योंकि ´राष्ट्रवाद´कोई ´तथ्य´या ´यथार्थ´का अंश नहीं है,वह तो विचारधारा है,उसका इतिहास और आख्यान भी है।जिस तरह प्रत्येक विचारधारा ´स्व´या सेल्फ के चित्रण या प्रस्तुति के जरिए अपना इतिहास बनाती है,वही काम ´राष्ट्रवाद´भी करता है।इसलिए ´राष्ट्रवाद´की कोई भी इकसार या एक परिभाषा संभव नहीं है।

´राष्ट्रवाद´पर विचार करते समय हम यह देखें कि देश को कैसे देखते हैं ॽ कहाँ से देखते हैंॽ और कौन देख रहा है ॽहिटलर के लिए ´राष्ट्रवाद´ का जो मतलब है वही गांधी के लिए नहीं है।समाजवाद में ´राष्ट्रवाद´ का जो अर्थ है वही अर्थ पूंजीवाद के लिए नहीं है।´राष्ट्रवाद´ के नाम पर इन दिनों वैचारिक मतभेद मिटाने की कोशिश की जा रही है,´राष्ट्र´ की आड़ में व्यक्ति ,वर्ग और समुदाय के भेदों को नजरअंदाज करने की कोशिश की जा रही है।असल में ´राष्ट्रवाद´तो भेद की विचारधारा है। फिलहाल देश में जो चल रहा है उसमें इसका तात्कालिकता, विदेशनीति और खासकर पाककेन्द्रित विदेश नीति, मुस्लिम विद्वेष,हिन्दुत्ववादी श्रेष्ठत्व से गहरा संबंध है।

´राष्ट्रवाद´में तात्कालिकता इस कदर हावी रहती है कि आपकी सूचनाओं का वैचारिक उन्माद की आड़ में अपहरण कर लिया जाता है। सूचनाओं के अभाव को उन्माद से भरने की कोशिश की जाती है। स्वाधीनता संग्राम के दौरान राष्ट्रवाद की साम्राज्यवादविरोधी धारा आम जनता को सचेत करने,दिमाग खोलने का काम करती थी,लेकिन इन दिनों तो ´हिंदू राष्ट्रवाद´ आम जनता के दिमाग को बंद करने का काम कर रहा है,सूचना विपन्न बनाने का काम कर रहा है। पहले वाला ´राष्ट्रवाद´आम जनता की ´स्मृति´को जगाने ,समृद्ध करने का काम करता था, लेकिन सामयिक हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद ´स्मृति´ पर हमला करने का काम कर रहा है।बुद्धि और विवेक के अपहरण का काम कर रहा है। पहले ´राष्ट्रवाद´ने कुर्बानी और त्याग की भावना पैदा की लेकिन हिन्दुत्ववादी ´राष्ट्रवाद´ तो पूरी तरह अवसरवादी और बर्बर है।इसकी सामाजिक धुरी है मुस्लिम और अंत्यज विरोध।इसका लक्ष्य है अबाध कारपोरेट लूट का शासन स्थापित करना। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान ´राष्ट्रवाद´के आंदोलन ´अन्य´को आलोकित करने,प्रकाशित करने का काम करता था,लेकिन मौजूदा हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद ´अन्य´ यानी हाशिए के लोगों का शत्रु है।यह सिर्फ ´तात्कालिक राजनीति´ केन्द्रित है।जबकि पुराना राष्ट्रवाद अतीत,वर्तमान और भविष्य इन तीनों को सम्बोधित था।

साम्राज्यवाद विरोध ´राष्ट्रवाद´ का आख्यान ´रीजन´यानी तर्क के साथ आया लेकिन ´हिंदू राष्ट्रवाद´ सभी किस्म के ´रीजन´का निषेध करते हुए आया है,इसका मानना है कि संगठन विशेष जो कह रहा है उसे मानो,वरना ´देशद्रोही´ कहलाओगे।पुराने ´राष्ट्रवाद´के पास साम्राज्यवाद विरोध का महाख्यान था,लेकिन नए राष्ट्रवाद के पास तो कोई बड़ा आख्यान नहीं है,बिना महाख्यान के,सिर्फ रद्दी किस्म के नारों और डिजिटल मेनीपुलेशन के आधार पर यह अपना विस्तार करना चाहता है।जो उससे असहमत हैं उनको कानूनी आतंक के जरिए नियंत्रित करना चाहता है या फिर मीडिया आतंकवाद के जरिए मुँह बंद करना चाहता है। पुराने वाले राष्ट्रवाद के सामने मुकाबले के लिए यूरोपीय राष्ट्रवाद था,लेकिन हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद के सामने तो आम जनता ही है।यह आम जनता के शत्रु के रूप में सामने आया है।

राष्ट्र की पहचान क्षेत्र से जुड़ी है।इसके आधार पर अस्मिता बनती है।इसी तरह राष्ट्र की अस्मिता में क्षेत्र के अलावा भाषा का भी योगदान है ,यही कारण है कि आधुनिककाल आने के बाद भाषा के आधार पर जातीयता या नेशनेलिटी का जन्म होता है। पहले भारत में कई किस्म की सांस्कृतिक-भाषायी संरचनाएं मिलती हैं जो अस्मिता बनाती हैं,इनमें पहली संरचना है संस्कृत भाषा और साहित्य की,दूसरी संरचना है अरबी-परशियन भाषा और साहित्य की,तीसरी संरचना है जनपदीय भाषाओं की और पांचवीं संरचना है बोलियों की।इसके अलावा ´जाति´या कास्ट की संरचना भी है जो राष्ट्र की पहचान से जुड़ी है।इसके अलावा ´राष्ट्र´ और ´क्षेत्रीय´ का अंतर्विरोध भी है।ये सभी तत्व किसी न किसी रूप में ´राष्ट्र´ के साथ अंतर्क्रियाएं करते हैं।पुराने ´राष्ट्रवाद´को प्रभावित करते हैं।

´राष्ट्रवाद´ का आख्यान लिखते समय यह बात हमेशा ध्यान में रखें कि उसका बौद्धिक विमर्श ,देश निर्माण की प्रक्रिया और नीतियों और बौद्धिक प्रक्रियाओं से गहरा संबंध रहा है।इसलिए हमें उन पक्षों को खोलना चाहिए।राष्ट्र का विमर्श मूलतः रूपों का विमर्श है। सुदीप्त कविराज ने इस प्रसंग में बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही है।उनका मानना है राष्ट्रवाद अपने बारे में क्या कहता है उसकी उपेक्षा करें। आत्मकथा की उपेक्षा करें।इससे भिन्न उसके इर्द-गिर्द के सांस्कृतिक रूपों की व्याख्या करें।इनसे ´राष्ट्रवाद´के ऐतिहासिक विकास क्रम को सही रूप में देख सकेंगे।































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