बुधवार, 29 जून 2011

ममता सरकार की आर्थिक चुनौतियां


              ममता सरकार ने हाल ही में जो नए आर्थिक कदम उठाए हैं उनमें सबसे महत्वपूर्ण है नव्य उदार आर्थिक नीतियों के प्रति खुला समर्थन। यह समर्थन पिछली सरकार की नीतियों के क्रम में ही आया है। ममता सरकार ने विधानसभा में जो बजट पेश किया है वह कमोबश पुरानी सरकार का बनाया हुआ है। इसमें कोई नई चीज नहीं है। बल्कि कुछ लोग जो नए की उम्मीद कर रहे थे उन्हें निराशा हाथ लगी है। बजट प्रस्तावों में प्रत्येक मद में औसतन 10फीसदी की बढोतरी का वाम जमाने का फार्मूला बरकरार है। नए वित्तमंत्री ने पुराने वित्तमंत्री द्वारा बनाई लक्ष्मणरेखा का अतिक्रमण नहीं किया है। एक नई चीज है राज्य में 17 नए औद्योगिक केन्द्रों का निर्माण। सवाल यह है कि राज्य के अंदर क्या इतने बड़े पैमाने पर औद्योगिक विकास की संभावनाएं हैं ?
वाम शासन ने एक जमाने में इस दिशा में सोचा था लेकिन यह योजना बुरी तरह पिट गयी। ममता सरकार को कायदे से पहले उन तमाम व्यापारिक समझौतों को उठाना चाहिए जो पिछली सरकार ने किए थे। उन प्रकल्पों में काम आरंभ करने के प्रयास करने चाहिए जिनको तृणमूल कांग्रेस के नेताओं-माओवादियों ने धमकी देकर बंद करा दिया था। इनमें सबसे महत्वपूर्ण है जिंदल ग्रुप का सालबनी इस्पात प्रकल्प। यह प्रकल्प चालू कराने में यदि ममता सरकार सफल होती है जो इससे राज्य में उद्योग जगत का विश्वास लौटेगा साथ ही ममता सरकार को माओवादियों का भी कद छोटा करने का मौका मिलेगा। साथ ही उन कारखानों के निर्माण पर जोर देना चाहिए जहां विवाद नहीं है। विवाद के क्षेत्रों से बचना चाहिए। ममता सरकार की अच्छी बात है कि इसमें नव्य आर्थिक उदारीकरण के पक्षधर और विरोधी दोनों ही वामविरोध के कारण शामिल हैं। इससे नव्य आर्थिक उदारीकरण के खिलाफ चले आ रहे प्रचार अभियान को धराशायी करने में उन्हें मदद मिलेगी। इससे अमेरिका,ब्रिटेन आदि खुश होंगे और यहां पर विदेशी पूंजी निवेश भी बढ़ेगा।
ममता सरकार ने जिस तरह केन्द्र सरकार द्वारा गैस के दामों में 50 रूपये की बढ़ोतरी को अस्वीकार किया और राज्य में गैस पर 16 रूपये कम किए हैं। उससे वामशासन की वैट कम करने की नीति का ही विस्तार हुआ है। वामशासन ने एकबार पेट्रोल-डीजल के दामों पर एक रूपया वैट कम करने का फैसला किया था इसी मार्ग पर चलते हुए राज्य सरकार ने गैस पर 16 रूपये कम करने का फैसला किया है। कायदे से केन्द्र में तृणमूल कांग्रेस को दबाब की कोशिश करनी चाहिए थी,लेकिन केन्द्र सरकार पर दबाब न डालकर ममता सरकार ने संदेश दिया है कि वह डीजल-गैस-कैरोसीन के दामों में की गई बढोतरी के बारे में एकमत है, लेकिन स्थानीय राजनीतिक दबाब और पापुलिज्म के एजेण्डे के चलते 16 रूपये कम कर रही है।  नई बढ़ोतरी से गैस के दामों में नाममात्र की राहत मिलेगी लेकिन इससे फंड के लिए परेशान राज्य को 75 करोड़ रूपये का नुकसान उठाना पड़ेगा।
    ममता सरकार को पापुलिज्म पर अंकुश लगाना होगा। पापुलिज्म के आधार पर भीड़ जुटायी जा सकती है। आंदोलन हो सकता है लेकिन अर्थव्यवस्था को नहीं चलाया जा सकता। आने वाले महिनों में गैस ,डीजल और पेट्रोल के दामों में और भी बढोतरी होगी तब राज्य सरकार क्या करेगी ? ममता सरकार को आर्थिक नीतियों के मामले में तदर्थवाद से बचना चाहिए। इसी तरह पिछली वाम सरकार द्वारा अधिग्रहीत जमीन के मामले में भी पापुलिज्म से बचना होगा। ममता सरकार ने नई भूमिनीति के तहत राजारहाट इलाके में 1,795 एकड़ जमीन के सरकारी अधिग्रहण नोटिसों को वापस ले लिया है। इस संदर्भ में उन्हें यह पक्ष ध्यान में रखना चाहिए कि जिन जमीनों का अधिग्रहण वापस लिया है उससे क्या औद्योगिक घरानों के पूंजी निवेश और चालू योजनाओं पर असर होगा ? ममता सरकार का भूमि अधिग्रहण नोटिस वापस लेना स्वयं में अनेक बुनियादी किस्म की समस्याओं को जन्म देगा ? मसलन् राज्य में उद्योगों के लिए राज्य सरकार ने जो जमीनें विगत वर्षों में किसानों  से अधिग्रहीत की हैं क्या वे सब जमीनें भी किसानों को वापस देदी जाएंगी ? क्या इससे औद्योगिक विकास होगा ? अथवा वामशासन में पैदा हुआ निरूद्योगीकरण और बढ़ेगा ? एक जमाने में वाम मोर्चा यही सोचता था कि किसानों की जमीन उनके पास रहे और वे उसका जैसे चाहें इस्तेमाल करें। लेकिन इससे राज्य लगातार पिछड़ता चला गया,किसानी में गिरावट आयी।
बड़ी संख्या में किसानों ने खेती बंद कर दी है। खेती से उनका गुजर-बसर नहीं हो रहा है। राज्य में विगत 34 सालों में खेती करने वाले किसानों की संख्या में कमी आयी है। ममता सरकार यदि किसानों को जमीनें वापस दिलाकर खेती के काम में ठेलना चाहती है तो इससे किसानों के जीवन में खुशहाली नहीं आएगी।  आज के दौर में किसानी फायदे का सौदा नहीं है।नेशनल सेम्पिल सर्वे के अनुसार राज्य में सन् 1987-88 में 39.6 प्रतिशत भूमिहीन मजदूर परिवार थे जो सन् 1993-94 में बढ़कर 41.6 प्रतिशत और 1999-2000 में 49.8 प्रतिशत हो गए। पश्चिम बंगाल में विभिन्न कारणों से पट्टादार और बर्गादार का जमीन से संबंध टूटा है। तेजी से पट्टादार और बरगादार किसानी छोड रहे हैं। सन् 2001 तक 13 प्रतिशत पट्टादार और 14 प्रतिशत बर्गादार खेती छोड़ चुके थे। दक्षिण 24 परगना में 22 प्रतिशत पट्टादार ,11 प्रतिशत बरगादार ,उत्तर 24 परगना में 17 प्रतिशत पट्टादार , 17 प्रतिशत बरगादार,बर्धमान में 12 प्रतिशत पट्टादार,15 फीसदी बरगादार,उत्तर दिनाजपुर में  23 प्रतिशत पट्टादार और 32 प्रतिशत बर्गादार, दक्षिण दिनाजपुर में 20 प्रतिशत पट्टादार और 31 प्रतिशत बरगादार ,दार्जिलिंग में 15 प्रतिशत पट्टादार और 16 प्रतिशत बरगादार,जलपाईगुड़ी में 17 प्रतिशत पट्टादार और 32 प्रतिशत बरगादार,कूचबिहार में 13 प्रतिशत पट्टादार और 31 फीसदी बरगादार, मालदा में 11 फीसदी पट्टादार 7 फीसदी बरगादार,मुर्शिदाबाद में 16 प्रतिशत पट्टादार और 19 प्रतिशत बरगादार खेती करना छोड़ चुके हैं। यानी जब किसानों में किसानी का रूझान घट रहा तब उन्हें किसानी की ओर धकेलने के प्रयास सफल नहीं हो सकते।

           



मंगलवार, 28 जून 2011

बाबा नागार्जुन के जन्म शताब्दी वर्ष के समापन पर विशेष- मोर होगा ...उल्लू होंगे ! -







(बाबा ने यह कविता आपातकाल के प्रतिवाद में लिखी थी।) 


खूब तनी हो,खूब अड़ी हो,खूब लड़ी हो

प्रजातंत्र को कौन पूछता,तुम्हीं बड़ी हो

डर के मारे न्यायपालिका काँप गई है

वो बेचारी अगली गति-विधि भाँप गई है

देश बड़ा है,लोकतंत्र है सिक्का खोटा

तुम्हीं बड़ी हो,संविधान है तुम से छोटा

तुम से छोटा राष्ट्र हिन्द का ,तुम्हीं बड़ी हो

खूब तनी हो,खूब अड़ी हो,खूब लड़ी हो


गांधी -नेहरू तुम से दोनों हुए उजागर

तुम्हें चाहते सारी दुनिया के नटनागर

रूस तुम्हें ताकत देगा,अमरीका पैसा

तुम्हें पता है ,किससे सौदा होगा कैसा

ब्रेजनेव के सिवा तुम्हारा नहीं सहारा

कौन सहेगा धौंस तुम्हारी ,मान तुम्हारा

हल्दी.धनिया, मिर्च,प्याज सब तो लेती हो

याद करो औरों को तुम क्या-क्या देती हो

मौज,मजा,तिकड़म,खुदगर्जी,डाह,शरारत

बेईमानी,दगा,झूठ की चली तिजारत

मलका हो तुम ठगों-उचक्कों के गिरोह में

जिद्दी हो,बस ,डूबी हो आकंठ मोह में

यह कमजोरी ही तुमको अब ले डूबेगी

आज नहीं तो कल सारी जनता ऊबेगी

लाभ-लोभ की पुतली हो,छलिया माई हो

मस्तानों की माँ हो,गुंडों की धाई हो

सुदृढ़ प्रशासन का मतलब है प्रबल पिटाई

सुदृढ़ प्रशासन का मतलब है 'इन्द्रा' माई

बन्दूकें ही हुईं आज माध्यम शासन का

गोली ही पर्याय बन गई है राशन का

शिक्षा केन्द्र बनेंगे अब तो फौजी अड्डे

हुकुम चलाएँगे ताशों के तीन तिगड्डे

बेगम होगी,इर्द गिर्द बस गूल्लू होंगे

मोर न होगा ,हंस न होगा,उल्लू होंगे

रविवार, 26 जून 2011

'नए तुलसीदास' और साहित्य पतन


हिन्दी का नया ठाट नये जनसंपर्क अधिकारी या 'नए तुलसीदास' रच रहे हैं, इनके पास मीठी भाषा,मधुर सपने, पद, हैसियत,पैसा आदि सब है। इनके नेता से लेकर प्रोफेसरों तक संपर्क-संबंध हैं।इन्हें सत्तातंत्र की बारीक रीति-नीति का ज्ञान है। 'नए तुलसीदास' ने इस युग में 'पद' को महान बनाया है। जितनी बड़ी कुर्सी ,साहित्य और हिन्दी अकादमिक जगत में उतना ही बड़ा स्थान। इन दिनों लिखने-पढ़ने से साहित्य का ओहदा तय नहीं हो रहा । उल्लेखनीय है साहित्य में नया तत्व दाखिल हुआ है कनेक्टविटी का। साहित्य में कनेक्टविटी जितनी अच्छी उसका उतना ही नाम। यह सूचनायुग का सीधा असर है। हिन्दी का प्रत्येक ख्यातिलब्ध लेखक इस आधार पर खा -कमा रहा है। आज से कुछ साल पहले एक ख्यातिलब्ध लेखक को मात्र एक साल में 10 से ज्यादा पुरस्कार मिले। ज्ञानपीठ को छोड़कर ये जनाब सभी पुरस्कार पाने में सफल रहे, अब वे सिर्फ ज्ञानपीठ और नोबुल पुरस्कार का ही इंतजार कर रहे हैं। साहित्य में कृति,कृतिकार और पाठक के बीच में पाठ सेतु का काम करता था। लेकिन आज पाठ गौण है,लिखा हुआ गौण है। कनेक्टविटी बड़ी चीज है।
     कॉलेज-विश्वविद्यालयों में हिन्दी के ऐसे शिक्षकों की पीढ़ी पैदा हुई है जो जानते हैं देश में किस विश्वविद्यालय में क्या हो रहा है? कौन प्रोफेसर क्या कर रहा है ? किसके अंदर कितने लोग पीएचडी कर रहे हैं ? हिन्दी विभाग में कितने लोग हैं ? किसका किससे पंगा है ? किससे मधुर संबंध हैं ? नामवर सिंह के यहां कौन आता-जाता है ? अशोक बाजपेयी इस समय कहां पर हैं ? हिन्दी में कहां नियुक्तियां हो रही हैं और वहां किसकी संभावना है ? कौन एक्सपर्ट हैं ? किसके जरिए काम कराया जा सकता है? आदि । हिन्दी में कुछ भी लिखे-पढ़े बिना मात्र इनके साथ संपर्क के जरिए हिन्दी जगत की सारी जानकारी  प्राप्त कर सकते हैं। ये लोग असल में हिन्दी के नए पीआरओ यानी  'नए तुलसीदास' हैं। ये इस युग के प्रभावशाली प्रचारक हैं। ये जिसके पीछे लग जाएं उसका जीवन संवारने या तबाह करने की क्षमता रखते हैं। ये लोग आमतौर पर अफवाहों से काम चलाते हैं और कनेक्टविटी पर टिके हैं। ये लेखक के भ्रम में जीते हैं।
     आपको सारे देश में अपनी हवा बनानी है,शहर में हवा बनानी है ,इन  लेखकों से मिलें ,वे पलक झपकते ही महान बना देंगे। कोलकाता से लेकर दिल्ली तक,पटना से लेकर काशी तक इन लोगों की कई टीमें सक्रिय हैं। इनकी कनेक्टविटी में जो है वह अक्लमंद है,बुद्धिजीवी है,श्रेष्ठ शिक्षक है, इसके जो बाहर है वो कूड़ा है। कचरा है। घटिया है।
   'नए तुलसीदास' का मानना है साहित्य और शिक्षा में टिकना है तो साहित्य के पठन-पाठन से ज्यादा कनेक्टविटी पर ध्यान दो,कनेक्टविटी पर निवेश करो। कौन नौकरी दिला सकता है उसे पकड़ो,उससे येन-केन-प्रकारेण सामंजस्य बिठाओ। समाजशास्त्र की भाषा में इसे 'सामंजस्यपूर्ण व्यक्ति' कहते हैं। यह ऐसा व्यक्ति है जो अपने हितों के विस्तार के लिए तरह-तरह की सेवाएं हासिल करने या देने में विश्वास करता है। चंदे के कूपन देने से लेकर फर्श बिछाने, हॉल सजाने, गोष्ठियों में आने-जाने,इनके लिए चंदा देने, और गुलदस्ता देने आदि को ही ये 'साहित्य सृजन' कहते हैं। मूलतःयह ऐसा व्यक्ति है जिसके पास हिन्दी की डिग्रियां तो हैं,पद भी है, लेकिन इसे शिक्षित आदमी नहीं कह सकते। यह न तो कुछ लिख रहा है, और नहीं  नया जानने समझने की कोशिश कर रहा है। इसके ज्ञान की सीमा है। यह पाठ्यक्रम  से ज्यादा नहीं जानता। उसे नए पुराने किसी भी किस्म के पाठ्यक्रम से इतर ज्ञान से कोई लेना -देना नहीं है। अधिक से अधिक वह उतना जान लेता है जिससे वह अपनी दैनंदिन अकादमिक जरूरतों की पूर्ति कर सके।
   'नए तुलसीदास' का हिन्दी के अकादमिक जगत में दबदबा है। ये लोग उन्नति के कलात्मक गुणों में माहिर हैं। ये लोग अच्छे नम्बर ,प्रथमश्रेणी ,नियुक्ति,पद-पुरस्कार-सम्मान दिलाने में माहिर हैं। इससे साहित्य समृद्ध नहीं होता। हिन्दी समृद्ध नहीं होती ,बल्कि पीआरओ संस्कृति समृद्ध होती है। कायदे से किसी भी विवेकवान मनुष्य को इनसे घृणा होगी,लेकिन हिन्दी में इस संस्कृति के पुजारियों को श्रद्धा-सम्मान से देखा जाता है। 
    'नए तुलसीदास' की संस्कृति अनपढ़ की संस्कृति है, वे कक्षा में जो पढ़ाते हैं अथवा पाठ्यक्रम में जो है,अथवा हिन्दी में जो थोड़ा-बहुत समाचारपत्रों में लिखा जा रहा है उसके अलावा कुछ नहीं जानते। सवाल उठता है हिन्दी के कॉलेज-विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों को मोटी पगार मिलती है। वे इस पगार के बदले समाज को क्या दे रहे हैं ? क्या लिख-पढ़ रहे हैं ? हिन्दी में यह पतन क्यों हुआ ? वे न्यूनतम ज्ञान को महाज्ञान क्यों समझ रहे हैं ? 
     मसलन् 'नए तुलसीदास' को यह तो मालूम है रामचन्द्र शुक्ल ने क्या लिखा है। लेकिन वो देरिदा-फ्रेडरिक जेम्सन के बारे में कुछ भी नहीं जानता, वह यह तो जानता है प्रेमचंद ने गोदान लिखा था लेकिन अन्य भाषा के साहित्य और कला रूपों से एकदम अनभिज्ञ है। कोलकाता में अधिकांश हिन्दी शिक्षकों-विद्यार्थियों ने कोलकाता के हिन्दी-बांग्ला रंगमंच के नाटक नहीं देखे। ये लोग कभी बांग्ला का सिनेमा नहीं देखते। ज्यादातर को बांग्ला साहित्य कला-संस्कृति में चल रही चर्चाओं का कोई ज्ञान नहीं है।विदेशी भाषा के साहित्य और उसके विवादों से तो इनका दूर दूर तक कोई संबंध नहीं है। यही दशा दिल्ली -काशी-इलाहाबाद और लखनऊ की है। कहने का अर्थ यह है हिन्दीवाला बंद गली के आखिरी मकान में रहता है। इसमें किसी भी किस्म की बाहरी हवा,विचार,साहित्य,स्वस्थ मूल्य आदि नहीं आ रहे। कोई ऐसा उपाय किया जाए जिससे यह बंद मकान खुल जाए ।
       'नए तुलसीदास' ने किताबों की महत्ता खत्म कर दी है। ये खुद किताब नहीं खरीदते और खरीदने कि लिए प्रेरित भी नहीं करते। आप किसी भी शहर में जाइए और किताबवाले से पूछिए कॉलेज-विश्वविद्यालय के कितने प्रोफेसर हैं जो आपके यहां किताब खरीदने आते हैं तो एक ही जबाब मिलेगा ,गिनती के दो-चार। जबकि बंगाली समाज में ऐसा नहीं है। हिन्दी के 'नए तुलसीदास' अपनी अकादमिक गुणवत्ता पर भी ध्यान नहीं देते। एकबार जब कोई शिक्षक बन जाता है तो वह कैसा पढ़ा रहा है ? उसके पढ़ाने की क्वालिटी क्या है ? गुणवत्तापूर्ण पढ़ाता है या नहीं ? इन सब पर ध्यान नहीं दिया जाता। आज तक किसी शिक्षक को खराब पढ़ाने के कारण नौकरी से नहीं निकाला गया। बल्कि देखने में यह आया है कि जो जितना ज्यादा खराब पढ़ाता है उसकी कनेक्टिविटी उतनी ही ठीक  है।
     हिन्दी के 'नए तुलसीदास' न तो किताब खरीदते हैं और नहीं पत्रिकाएं खरीदते हैं। ये लोग साल में लाखों रूपया पगार पाते हैं और साल में एक भी किताब नहीं खरीदते। जो थोड़ी-बहुत किताबें इनके घरों में मिलेंगी वे किसी न किसी जुगाड़ की देन है। हमें गंभीरता से सोचना चाहिए जो कक्षा में क्वालिटी बनाए रखने में असमर्थ हैं ,साहित्य में क्वालिटी बनाए रखने में असफल हैं, उन्हें क्या नौकरी का हक है ? साहित्यकार कहलाने का हक है ? मसलन् कोई मजदूर यदि घटिया क्वालिटी का सामान बनाता है तो उसे मालिक काम से निकाल देता है,बाजार में घटिया क्वालिटी का माल हम नहीं खरीदते। लेकिन हिन्दी शिक्षण और साहित्य सृजन में ऐसा नहीं हो रहा,हम घटिया क्वालिटी के शिक्षक - साहित्यकार-लेखक के दीवाने हैं। हमने आज तक सेमीनारों में घटिया भाषण देने वाले की मीडिया या सेमीनार में आलोचना नहीं देखी। हमें देखना चाहिए क्या एक प्रोफेसर-लेखक अपने काम को ईमानदारी  से करता है? आखिर इस समस्या का समाधान क्या है ? प्रोफेसर और लेखक में अपने पेशे के प्रति कुर्बानी,मेहनत , नए विचारों और व्यापक सामाजिक यथार्थ को जानने की जितनी ज्यादा भूख होगी,वह उतना ही सुंदर लिख पाएगा।पढ़ा पाएगा।
    लेकिन 'नए तुलसीदास' ने ज्ञान के प्रति आकर्षण पैदा करने की बजाय धनलोलुपता बढ़ायी है। वे अपने काम के प्रति बेवफा हैं। वे पदोन्नति,सरकारी पद, सलेक्शन कमेटी आदि के चक्करों में सारी जिंदगी खत्म कर देते हैं। वे जिस समय रिटायर होते हैं उनके पास एक सुंदर घर,मोटा सा बैंक बैलेंस, कुछ भक्त और खोखली प्रसिद्धि के अलावा कुछ नहीं होता। यह नोटिस करने लायक बात है कि एक प्रोफेसर 20-30साल काम करने के बाद समाज को एक अच्छी किताब तक लिखकर नहीं दे जाता। अधिकांश शिक्षक बिना लिखे ही रिटायर कर जाते हैं। स्मरण के लायक कोई किताब तक समाज को नहीं देकर जाते । लेकिन उनका नाम बड़ा होता है,चर्चे बड़े होते हैं,भक्त बहुत होते हैं।
       गंभीर साहित्य और गंभीर शिक्षण सामाजिक न्यूजरील की तरह नहीं है। गंभीर शिक्षण और साहित्य के सृजन में कठोर परिश्रम और काफी समय लगता है। एक प्रोफेसर या साहित्यकार रातों-रात किसी चुगद किस्म के प्रशंसक आलोचक या उपकुलपति की प्रशंसा से तैयार  नहीं होता। उसे तैयार होने में दसियों वर्ष लगते हैं,बेशुमार मेहनत के बाद वह तैयार होता है। साहित्यकार या एक अच्छा शिक्षक बनने का कोई शार्टकट रास्ता नहीं है। शार्टकट रास्ता बुद्धिहीन तलाश करते हैं।बुद्धिमान बनने के लिए लंबी कठिन साधना की जरूरत होती है।
    'नए  तुलसीदास ' साहित्यिक प्रेरणाओं से कोसों दूर हैं। उनके ऊपर लोगों की निर्मम आलोचना का कोई असर नहीं होता। उन्हें कोई कुछ नहीं कहता। वे अपने को हिन्दी का योद्धा समझते हैं और समाज में हिन्दी योद्धा की तरह विचरण करते हैं। ये लोग जब किसी कार्यक्रम में जाते हैं या उसका आयोजन करते हैं,सिर्फ उसी समय इनकी सर्जना के दर्शन होते हैं,बाकी समय ये सर्जनात्मक अवकाश पर रहते हैं। मसलन वे जब किसी गोष्ठी या समारोह या मेले का आयोजन करते हैं तो उस समारोह के  अलावा कभी सर्जनात्मक भाव में नजर नहीं आते,इन समारोहों में भी उनके सर्जनात्मकभाव की इमेज कम और साहित्य प्रबंधकर्ता की इमेज ज्यादा उभरती है। इन कार्यक्रमों से साहित्य के नायकों का मान-सम्मान नहीं बढ़ता बल्कि प्रबंधकों का मान बढ़ता है। इस तरह के आयोजनों के जरिए साहित्य का कम्युनिकेशन नहीं होता बल्कि साहित्य संप्रेषण बाधित होता है। वे साहित्य,साहित्यकार और संस्कृति को चीजों में बदल देते हैं। प्रमोशन की वस्तु बना देते हैं। संप्रेषण को वस्तुओं में बदलना बेहद खतरनाक काम है। साहित्य के आयोजन जब शोहरत पाने,पदोन्नति पाने,नौकरी पाने,अंक बढ़ाने, प्रथमश्रेणी दिलाने आदि में जब बदल जाते हैं तो साहित्य वस्तु में बदल जाता है और ऐसी अवस्था में साहित्य, सामाजिक परिवर्तन की बजाय सामाजिक उत्पीड़न का काम करने लगता है। वे आयोजनों में साहसपूर्ण संवाद नहीं करते,नए विचारों का जोखिम नहीं उठाते,साहित्य में सहभागिता पैदा नहीं करते। बल्कि वे साहित्य आयोजन कुछ पाने के लिए करते हैं। देने के लिए नहीं करते। साहित्य कभी आयोजनों से प्रसार नहीं पाता। साहित्य का विकास होता है लेखकीय आचरण पर सख्ती से अमल करने से। साहित्य को अभिजनों और सत्ता के खिलाफ प्रतिवादी बनाने से।साहित्य का झूठी प्रशंसा से विकास नहीं होता। साहित्य में खोखले शब्द थोपे जाने से भी साहित्य की उन्नति नहीं होती।





शनिवार, 25 जून 2011

बिदेसिया यानी सामूहिक त्रासदी की कलात्मक अभिव्यक्ति-कुमार नरेन्द्र सिंह


भोजपुरी साहित्य के शेक्सपियर भिखारी ठाकुर का बिदेसिया नाटक, सच कहें तो भोजपुरी लोक जीवन का जीवंत दस्तावेज है, भोजपुरियों के दिल की धड़कन है। बिदेसिया महज नाटक की एक किताब भर नहीं है बल्कि भोजपुरिया अस्मिता की पहचान है, सृजनशीलता की प्रतीक है। शहरीकरण और औद्योगीकरण की आंधी में उजड़ते भोजपुरिया परिवार और कोलकाता, असम के चटकलों काम की तलाश में पहुंचे भोजपुरिया मजदूरों की जिंदगी की दारुण दास्तान है बिदेसिया।

नृत्य-नाट्य की बिदेसिया शैली भोजपुरी लोक-संस्कृति की अनोखी उपलब्धि तो है ही, लोक कलाकार भिखारी ठाकुर के कवित्तमय और कलात्मक सौंदर्य-बोध की विशिष्ट पहचान भी है। वास्तव में बिदेसिया नाटक वैयक्तिक प्रतिभा और संस्कृति के अंतर्मेल की उपज है। यही कारण है कि शायद ही कोई ऐसा खांटी भोजपुरिया मिले जो बिदेसिया के अभाव में भोजपुरी संस्कृति की कल्पना भी कर सके। बिदेसिया शैली की अपार लोकप्रियता का सबसे महत्वपूर्ण कारण इसका परंपरा-स्युत होना ही है। भोजपुरी साहित्य और संस्कृति मूल रूप से मौखिक परंपरा पर आधारित रही है और गेयता इसका स्वभाव रहा है। भोजपुरी के प्रसार में उसकी गेयता, गीतों की बड़ी प्रधानता रही है। आज मॉरीशस, सूरीनाम, ट्रिनिडाड, फिजी, हॉलैंड, साउथ अफ्रीका आदि देशों में अगर भोजपुरी जिंदा है तो बहुत हद तक उसकी गेयता ही है। अमिताभ घोष ने अपनी पुस्तक सी ऑफ दी पॉपीज में इस तथ्य का उल्लेख विस्तार से किया है। वह कहते हैं कि गिरमिटिया मजदूरों में अन्य भाषा भाषियों की भी अच्छी संख्या थी लेकिन जब उनके जहाज उन देशों के समुद्र तटों पर उतरे तो सबकी भाषा भोजपुरी हो चुकी थी। इसका कारण यह है कि भोजपुरी संस्कृति में सामूहिक गान की जबर्दस्त परंपरा रही है। दुनिया के सबसे बड़े कोरस यानी सामूहिक गान की शैली को भोजपुरियों ने ही संजो रखा है - होली और चैता के रूप में। अपने गीतों की बदौलत भोजपुरी अन्य भाषाओं की रानी बन बैठी। ऐसे में यह अन्यथा नहीं कि ठाकुर जी के नाटकों मे परंपरा और गेयता का साहचर्य देखने को मिलता है। यही कारण है कि भिखारी ठाकुर के नाटकों के पात्र बहुधा गीतों के माध्यम से ही अपने मनोभावों का इजहार करते हैं।

भोजपुरी अगर लोक परंपरा से विमुख नहीं हुई तो इसका कारण ऐतिहासिक है। अपनी तमाम लोकप्रियता और भाषा के रूप में अपनी उपादेयता साबित कर चुकने के बावजूद अवधि, ब्रज और मैथिली की तरह भोजपुरी को हिंदी क्षेत्र की सांस्कृतिक को वहन कर सकने वाली भाषा के रूप में प्रतिष्ठा नहीं मिल सकी। इसका एक कारण तो यह है कि इतिहास के किसी दौर में उसे राजाश्रय प्राप्त नहीं हो सका और दूसरा कि भोजपुरी जनता की सांस्कृतिक चेतना भी कई ऐतिहासिक और अनैतिहासिक कारणों से विकसित नहीं हुई। राष्ट्र की मुख्य धारा में भरपूर सहयोग करते रहने के बावजूद भोजपुरी के विकास के प्रति सरकारी रवैया नकारात्मक ही रहा।

इस सम्यक उपेक्षा का एक संतोषजनक परिणाम भी निकला और वह यह कि भोजपुरी भाषा और संस्कृति लोकधारा की सहजता से विमुख नहीं हो पाई। भावपथ की यह सरसता ही शैली के स्तर पर गेयता को जन्म देती है। लोक चेतना के प्रतिनिधि कलाकार भिखारी ठाकुर को यह समझने में कोई भूल नहीं हुई कि सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा और उसका विकास चिर- परिचित परंपरा के स्वीकार में ही निहित है। परंपरा से भिखारी ठाकुर का आत्यंतिक जुड़ाव ही उन्हें विविध शैलियों के प्रयोग के लिए उकसाता रहा। यह आकस्मिक नहीं था उनकी रचनाओं में सोरठी, कजरी, झूमर, पूर्वी तथा आल्हा छंद का अनुकरण मिलता है, नाटक के गीतों में वे पारंपरिक तर्जों को ही तरजीह देते हैं। परंतु अनुकरण तो अनुकरण ही है। कलाकार के जीवन में यही वह बिंदु है जहां उसकी समस्त आंतरिक संभावनाएं किसी अज्ञात बल से एकजुट होकर सर्वथा नवीन का निर्माण करती है। कहना न होगा कि बिदेसिया इसी सर्वथा नवीन की शोध-प्रक्रिया की अन्यतम उपलब्धि है। अन्यथा न होगा, अगर कहें कि बिदेसिया भिखारी ठाकुर के समग्र नाट्य-चिंतन की परमाभिव्यक्ति है।

भिखारी ठाकुर ने बिदेसिया शैली का प्रयोग सामूहिक त्रासदी की कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए किया था। यह सामूहिक त्रासदी औद्योगीकरण के कोख से पैदा हुई थी जिससने पुरुबियों का सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न कर के रख दिया। इतिहास गवाह है कि भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद की स्थापना के साथ ही भोजपुरी क्षेत्रों के मजदूरों का पलायन कोलकाता, असम ही नहीं वरन फिजी, मॉरीशस, ट्रिनिडॉड, सुरीनाम आदि अन्य उपनिवेशों में हुआ। अंग्रेजी शासन की सबसे गहरी मार भोजपुरियों को ही सहनी पड़ी थी। 1857 की क्रांति में भोजपुरियों ने जगदीशपर के जमींदार बाबू कुंअर सिंह की अगुआई में अंग्रेजों को नाकों चने चबवा दिए थे। देश के अंदर भोजपुरियों ने कोलकाता को ही अपना आशियाना बनाया। सबसे ज्यादा भोजपुरिया वहीं पहुंचे।

भोजपुरी प्रदेशों के लिए कोलकाता महज एक शहर का नाम नहीं है बल्कि बिरह का एक ऐसा सैलाब है जिसमें हजारों-हजार आंखों का काजल बह चुका है। इन प्रदेशों के नौजवान रोजगार और खुशी की तलाश में कोलकाता और असम के चटकलों में शरण पाते थे। बहुधा वे लौटकर नहीं आते थे क्योंकि लौटने लायक उनकी स्थिति ही नहीं बन पाती थी और अगर लौटते भी थे तो खुशहाली के बदले तंगहाली लेकर। अकारण नहीं कि भोजपुरी प्रदेशों की औरतों के लिए कोलकाता किसी सौत से कम नहीं था। उत्तर प्रदेश औऱ बिहार के गांवों की औरतों में आज भी यह अंधविश्वास व्याप्त है कि बंगाल औऱ असम की औरतें उनके मर्दों को जादू से तोता और भेड़ा बनाकर रख लेती हैं। भिखारी ठाकुर की निम्नलिखित पंक्तियों में इस विश्वास की ललिताभिव्यक्ति देखते ही बनती है--------------

मोर पिया मत जा हो पुरुबवा

पुरुब देश में टोना बेस बा, पानी बड़ा कमजोर

मोर मत जा हो पुरुबवा।

इसी तरह एक और गीत में एक नारी अपने पति को पुरुब में नौकरी करने जाने नहीं देना चाहती। जब पति कहता है कि वह पुरुब में नौकरी करने जाएगा औऱ वहां से वह उसके लिए साड़ी और सिकड़ी (गले का चेन)ले आएगा तो सुनिए कि उसकी पत्नी क्या कहती है –

अगिया लागहू पिया तोहरी नोकरिया, बजर पड़हूं

पिया साड़ी ओ सिकड़िया, बजर पड़हूं। (आपकी नौकरी में आग लगे और साड़ी तथा सिकड़ी को वजर पड़े।)

औद्योगीकरण की आंधी में उड़कर पुरुष के प्रदेश जाने पर नारियों को ही ज्यादा पीड़ा होती थी। अकारण नहीं कि भोजपुरी गीतों में औद्योगीकरण के खिलाफ भी आक्रोश दिखाई देता है। दिलचस्प है कि नारियों ने ही औद्योगीकरण की मुखालफत सबसे ज्यादा की है। देखिए एक बानगी –

कलवा के पानी पी के भइलन पियवा करिया

कल में डाढ़ा लागो ना.....अर्थात नलके का पानी पीकर मेरे पिया काले हो गए हैं इसलिए यह कल (पुरब के लोग नलके के पानी को कल का पानी ही कहते हैं।) ही नष्ट हो जाए। अगर कहा जाए कि औद्योगीकरण के खिलाफ पहला स्वर नारियों का ही उभरा तो कोई गलत नहीं होगा।

भिखारी ठाकुर ने इन हालात को अपनी लेखनी से स्वर दिया और इसका दस्तावेज बना बिदेसिया। भिखारी ठाकुर ने अपने प्रातिनिधिक नाटक बिदेसिया में नाटक की नायिका प्यारी सुंदरी के माध्यम से उन तमाम विरहिणी नारियों की मनोदशा का वर्णन किया है जिनके कंत रोजी-रोटी की तलाश में पुरुब में कमाने गए हैं। इसके साथ ही ठाकुर जी ने अन्य पात्रों के संवाद के माध्यम से उन नारियों के और परिवेश के प्रति समाज के नजरिए को भी उकेरा है।

प्यारी सुंदरी का पति गवना करा के उसे अपने घर ले आता है और स्वयं एक दिन चुपके से नौकरी की तलाश में कलकत्ता (अब कोलकाता) चला जाता है। वहां के चटकल में उसे नौकरी मिल जाती है। कोलकाता में रहते हुए उसकी मुलाकात एक औरत से होती है। धीरे-धीरे यह मुलाकात मोहब्बत में बदल जाती है और दोनों पति-पत्नी बनकर रहने लगते हैं। प्यारी का पति प्यारी को एकदम भुल जाता है। अब यही औरत उसकी जिंदगी है। प्यारी का पति तो उसे भूल जाता है लेकिन प्यारी अपने पति को कैसे भूल जाए। उसका तो सबकुछ उसका पति ही है। अनेक प्रलोभनों को ठुकरा कर वह अपने पति 12 बरसों तक इंतजार करती है लेकिन उसका पित नहीं लौटता है। प्यारी की स्थिति है कि क्या करें, कहां जाए। वह परेशान है कि अपने मन की व्यथा अपने पति तक वह पहुंचाए कैसे। अपने पति का पता-ठिकाना भी तो नहीं जानती वह। तिल-तिल जलना ही उसकी नियती बन गई है। विरहिणी नारी प्यारी की मनोव्यथा का क्या ही मार्मिक चित्रण भिखारी ठाकुर ने किया है-----

अमवा मोजरी गइले, लगले टिकोरवा

दिन पर दिन पियरात रे बिदेसिया।

एक दिन बही जइहें जुलुमा बेयरिया

डार-पात जइहें भहराई रे बिदेसिया।

(आम में मंजर लग चुके हैं और अब तो टिकोले भी लग चुके हैं। डर है कि एक दिन जुल्मी बयार बह जाएगी और डार-पात सहित पेड़ गिर जाएगा।)

एक बिरहिणी नारी की मनोदशा का इतना शुक्ष्म चित्रांकन बिरले कवियों, लेखकों ने किया है। पति-पत्नी के संबंधों में फिसलन की आशंका का इतना लालित्यपूर्ण बयान अन्यत्र कम ही देखने को मिलता है। बहरहाल, प्यारी सुंदरी के इस मनोभाव का एहसास उसके पित बिदेसिया को हो तब न। छह महीने के लिए ही तो कहकर गया था बिदेसिया परंतु 12 वर्ष बाद भी नहीं लौटा। इसी मनदशा में प्यारी की मुलाकात बटोही से होती है। मालूम हो कि बटोही की भूमिका भिखारी ठाकुर स्वयं करते थे। जब प्यारी को जानकारी होती है कि बटोही कोलकाता जो रहा है तो वह उससे मुलाकात करती है और अर्ज करती है कि वह उसका संदेशा उसके पति बिदेसिया तक पहुंचा दे। बटोही प्यारी से उसके पति का नाम -पता पूछता है परंतु प्यारी अपने पति का नाम बताने के बदले उसकी पहचान बताती है और पता तो वह जानती ही नहीं। वह बटोही से कहती है -----

हमरो बलमू जी के बड़े-बड़े अंखिया

चोखे-चोखे हउवे नैनाकोर रे बटोहिया।

ओठवा त हवे जइसे कतरल पनवां

नकवा सुगनवा के ठोर रे बिदेसिया।

बटोही कोलकाता पहुंचता है और प्यारी के बताए पहचान का आदमी ढूंढ़ने में जुट जाता है। अंत में वह बिदेसिया को ढूढ़ने में सफल हो जाता है। जब बटोही देखता है कि बिदेसिया किसी और औरत के साथ रह रहा है तो वह उसे काफी फटकार लगाता है और समझा-बुझाकर तथा प्यारी की व्यथा कथा बयान कर उसकी गलती का एहसास कराता है। अंत में बिदेसिया बटोही की बात मानकर अपने गांव वापस लौटने की तैयार करने लगता है, जो उसकी दूसरी पत्नी को नागवार गुजरता है और वह बिदेसिया पर दबाव डालती है कि वह उसे छोड़कर न जाए लेकिन बिदेसिया नहीं मानता है और अपने घर अपनी पत्नी प्यारी सुंदरी के पास वापस लौट आता है। कथा यहीं समाप्त नहीं होती, वह आगे बढ़ती है। होता यह है कि कोलकाता वाली बिदेसिया की उप पत्नी बिदेसिया को ढूंढ़ते-ढूंढ़ते उसके गांव पहुंच जाती है। कहानी कई नाटकीय परिस्थितियों से गुजरता है और हुए दोनों पत्नियों द्वारा बिदेसिया को स्वीकार कर लिए जाने के साथ खत्म हो जाता है। सभी खुशीपूर्वक एक साथ रहने लगते हैं।

बिदेसिया नाटक की कथा-वस्तु देखकर तुरंत ही यह स्पष्ट हो जाता है कि भिखारी ठाकुर भोजपुरिया क्षेत्रीय परंपरा से गहरे स्तर पर जुड़े हैं। नाटक के एक दृष्य में जब बटोही प्यारी सुंदरी से उसके पति का नाम पूछता है तो प्यारी अपने पति का नाम नहीं बताकर उसकी पहचान बताती है। ऐसा नहीं है कि प्यारी अपने पति का नाम नहीं जानती परंतु यदि ठाकुर जी प्यारी के मुंह से उसके पति का नाम कहवाते तो यह क्षेत्रीय परंपरा से अलग होता। कहने की आवश्यकता नहीं कि उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में आज भी महिलाएं अपने पति नाम लेने शर्माती हैं। जाहिर है कि ऐसे में नाटक का दृष्य लोगों की आंखों में खटकता और तब संभव है कि इसका असर नाटक की लोकप्रियता पर भी होता।

सही मायने में बिदेसिया लोक-नाट्य परंपरा का वायवीय विकास है। नौटंकी की तरह बिदेसिया में भी पात्रों का कथन-उपकथन मूल रूप से काव्य रूप में ही बयान होता है। दरअसल. संपूर्ण भोजपुरी साहित्य ही काव्य में है। भिखारी ठाकुर इसी परंपरा को और समृद्ध कर आगे बढ़ाने का काम करते हैं। संस्कृत नाट्य परंपरा की तर्ज पर बिदेसिया में मंगलाचरण का प्रावधान है, वैसे ठाकुर जी के सभी नाटकों में मंगलाचरण का प्रयोग है। सूत्रधार की आवश्यक उपस्थिति भी संस्कृत की रंगमंच परंपरा का ही विस्तार है। बिदेसिया नाटक में सूत्रधार की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि नाटक के कथा-प्रवाह में वह उत्प्रेरक का काम करता है।

बिदेसिया नाटक में पात्रों के विशिष्टीकरण का अभाव होता है। क्षण भर पहले बिदेसिया, बटोहिया की भूमिका निभाने वाला दूसरे ही क्षण मंत पर ढोलक या खंजड़ी बजाते नजर आता है। इसी तरह चरित्र के अनुरूप पात्रों का नामकरण बिदेसिया नाटक की अपनी मौलिक विशेषता है। भिखारी ठाकुर के अन्य नाटकों में भी ऐसा ही देखने को मिलता है। उदाहरण के लिए पात्रों बिदेसिया, बटोहिया आदि नाम उनके गुण-कर्म के अनुसार ही दिए गए हैं। वैसे उनके नाटकों में पात्रों का नामकरण वर्गीय स्थिति के अनुसार भी किए गए हैं।

बिदेसिया नाटक को बहुधा हम सांसारिक लीला के रूप में देखते हैं, देखते हैं कि इस नाटक में तत्कालीन भोजपुरिया समाज का उत्स उभरता है। लेकिन सामाजिक पक्ष के अलावा बिदेसिया का आध्यात्मिक पक्ष भी है। जीव और माया के बीच स्थित आध्यात्मिक संबंधों को दर्शाने का प्रयास भी बिदेसिया में दिखाई देता है। भिखारी ठाकुर ने स्वयं इसके आध्यात्मिक पक्ष का स्पष्ट उल्लेख किया है। भिखारी ठाकुर कहते हैं – बिदेसिया जीव का प्रतीक है जो दुनिया में उद्देश्य हासिल करने के लिए भटक रहा है और यह उद्देश्य है ईश्वर से एकाकार हो जाना। बिदेसिया की दूसरी पत्नी जिसे भिखारी ठाकुर ने पतुरिया कहा है, माया की प्रतीक है। जीव यानी बिदेसिया उसमें उलझकर अपना उद्देश्य भूल जाता है। बटोरी धर्म या संत का प्रतीक है जो बिदेसिया को उसका उद्देश्य बताकर सीधी राह पर लाता है। और प्यारी....प्यारी सुंदरी तो स्वयं ईश्वर की प्रतीक है।

भिखारी ठाकुर ने अपने बिदेसिया नाटक में जीव, ईश्वर और माया का एक अनोखा रुपक तैयार किया है। भारतीय वांग्मय में यूं तो ईश्वर की कल्पना अर्द्धनारीश्वर के रूप में जरूर की गई है लेकिन जीव और माया के संबंध में किसी भी संत, कवि ने ईश्वर की कल्पना नारी रूप में नहीं की है। वैसे भी बिदेसिया नाटक का मूल स्वर त्रासदी और करुणा है औऱ कहने की आवश्यकता नहीं कि इनकी प्रतिमूर्ति नारी ही हो सकती है। नाटक के जरिये ठाकुर जी ने परदेश में रहने वालों को घर लौटने की सलाह भी दी है।

इतनी समृद्ध और रचनात्मक शैली के बावजूद अब बिदेसिया नाटक अपना वजूद खोता जा रहा है। आनन-फानन में 15-20 हजार लोगों की भीड़ जुटा लेना जिस नाटक का अनिवार्य गुण रहा हो, जो नाटक दर्शकों को घंटों बैठकर देखने को मजबूर करने की हैसियत रखता हो, वह आज लोगों से दूर होता जा रहा है। कहने का अर्थ कि बिदेसिया नाटक की लोकप्रियता कम होती जा रही है। इसकी लोकप्रियता में कमी आने का सबसे बड़ा कारण यह रहा कि भिखारी ठाकुर की मृत्यु के बाद उनकी मंडली के अन्य सदस्यों में न तो उतनी प्रतिभा थी और न उत्साह वे नाटक को समीचीन बनाए रखते। समय के साथ बिदेसिया में आवश्यक परिवर्तन नहीं किया जा सका। जब तक भिखारी ठाकुर जिंदा थे, अफने नाटकों में आवश्यक परिवर्तन कर उसे प्रासंगिक बनाए ऱखते थे, अपने नाटकों को सुधारने, संवारने का काम करते रहे थे। उनके नहीं रहने के बाद सार्थक परिवर्तन की यह प्रक्रिया बंद हो गई, लिहाजा दूसरे जगहों की बात कौन करे, स्वयं भोजपुरी प्रदेशों में भी बिदेसिया की न तो पहले वाली ठाठ बची और न मांग। ले-देकर शादी-व्याह के अवसरों पर नाच तक सिमट कर रह गया है बिदेसिया।

बहरहाल, पिछले कतिपय वर्षों में रंगकर्मियों का ध्यान बिदेसिया शैली की तरफ गया आकृष्ट हुआ है। सतीश आनंद और संजय उपाध्याय जैसे रंगकर्मी बहु उत्साह से इस शैली के विकास और प्रचार के लिए काम कर रहे हैं। सतीश आनंद ने बिदेसिया शैली पर आधारित अमली नाटक का मंचन न सिर्फ भारत में बल्कि विदेशों में भी किया और हर जगह वाहवाही लूटी। संजय उपाध्याय तो मूल बिदेसिया का ही मंचन करते हैं। यह अलग बात है कि प्रयोग के नाम पर वह कई बार बिदेसिया की भोंडी प्रस्तुती करते हैं लेकिन इसे बाजारवाद के दबाव के संदर्भ में ही देखा जाना चाहिए। सच तो यह है कि हाल के वर्षों में बिहार की लगभग सभी नाटक-मंडलियों ने बिदेसिया या उसकी शैली पर आधारित नाटक का मंचन किया है।

हिंदुस्तान के सारे रंगकर्मी मुक्त कंठ से बिदेसिया की प्रशंसा कर चुके हैं। महापंडित राहुल सांकृत्यायन बिदेसिया नाटक एक बड़े प्रशंसको में थे। बिदेसिया नाटक को देखकर ही उन्होंने भिखारी ठाकुर को एक अनगढ़ हीरा कहा था। वह मानते थे कि भिखारी ठाकुर की कृतियों का अगर सही आकलन नहीं हो सका तो इसके लिए पढ़ुआ (पढ़े-लिखे) लोग ही जिम्मेदार हैं। यदि भिखारी ठाकुर को पढ़े-लिखों का सहयोग मिला होता तो उनकी प्रतिभा में और भी निखार आता। भोजपुरी भाषा में बिदेसिया नाम की एक फिल्म भी बन चुकी है। यह अलग बात है कि फिल्म का कथानक नाटक से बिलकुल अलग है। यदि फिल्म में भिखारी ठाकुर की उपस्थिति औऱ उनके द्वारा गाए गए एक गीत को छोड़ दिया जाए तो फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है, जिसे बिदेसिया नाटक से जोड़कर देखा जाए। इसके बावजूद इतना तो मानना ही पड़ेगा कि फिल्म का निर्माण नाटक की लोकप्रियता से ही उत्प्रेरित था औऱ उसी लोकप्रियता को भुनाने का प्रयास भी था।

संक्षेप में कहें तो बिदेसिया शब्द नहीं, यथार्थ है, एक ऐसा यथार्थ जिसमें माटी की गंध है, फूलों की महक है और जीवन की आलोचना है। श्रृंगार औऱ वियोग की चादर पर करुणा का रंग बिखेरने तथा सामूहिक त्रासदी की कलात्मक अभिव्यक्ति का नाम है बिदेसिया।

शुक्रवार, 24 जून 2011

सिंगूर की लूटलीला, टीवी और अराजक राजनीति



भारत के इतिहास में किसी मुख्यमंत्री ने जमीन की खरीद-फरोख्त के मामले में ऐसा भद्दा मजाक नहीं किया जैसा पश्चिम बंगाल की ममता सरकार ने सिंगूर के मामले में किया है। टाटा को राज्य सरकार की लीज पर दी गयी जमीन,जिसके 85 प्रतिशत मुआवजे का भुगतान हो गया,टाटा और अन्य का उस पर 3000 हजार करोड़ खर्च हो गया,और उसे एक ही झटके में कानून के बहाने राज्य सरकार ने अवैध ढ़ंग से हस्तगत कर लिया। कलकत्ता उच्चन्यायालय में टाटा की ओर से याचिका दायर की गई है। जिस पर सुनवाई चल रही है। दूसरी ओर राज्य सरकार जिद पर अड़ी है वो अपनी राजनीतिक प्रतिज्ञाओं को अमलीजामा पहनाकर ही दम लेगी। सिंगूर में पहले कारखाना खोले जाने के पहले पंगा,मध्य में पंगा,स्थापना के बाद पंगा,अब बंद कारखाने पर पंगा।
    सिंगूर में चल रहे जमीन और उद्योग के इस अंतहीन पंगे से कई सवाल उठे हैं क्या पश्चिम बंगाल में फिर से औद्योगिक विकास होगा ? क्या अराजक राजनीति का अंत होगा ? परिस्थितियां बता रही हैं कि राज्य में आने वाले समय में जमीन के सवाल पर बड़ी लड़ाईयां होंगी।काफी खून खराबा होगा।
     सिंगूर के नए प्रसंग में पहला सवाल यह है कि राज्य सरकार ने टाटा को लीज पर दी गयी जमीन वापस लेने के पहले टाटा से बात करने की कोशिश क्यों नहीं की ? किसी विकल्प की खोज क्यों नहीं की ? टाटा को राज्य सरकार ने पहले बुलाया था तो सभ्यता का तकाजा है कि ममता सरकार टाटा को बुलाकर कहती कि हम जमीन वापस चाहते हैं ? टाटा ने किसानों की जमीन नहीं ली थी ,यह जमीन राज्य सरकार ने ली थी।  
ममता बनर्जी को 400 एकड़ जमीन वापस लेनी थी ,यह उन किसानों की जमीन है जिन्होंने मुआवजे के चैक नहीं लिए। 400एकड़ की बजाय सारी जमीन को टाटा से क्यों वापस लिया गया ? नैनो कारखाने के लिए 600 एकड़ जमीन काफी थी जैसा ममता कह रही थीं, वे 600 एकड़ छोड़ क्यों नहीं पायीं ? टाटा से पूरी जमीन लेकर ममता सरकार किसकी सेवा करना चाहती हैं ? वे चाहती तो अनिच्छुक किसानों को मुँह मांगा दिला सकती थीं।
ममता बनर्जी ने अपनी राजनीतिक सनक में नैनो के बने बनाए कारखाने को चलने नहीं दिया,सरकार बनाने के बाद उसे चालू करने का प्रयास नहीं किया,उलटे टाटा को राज्य सरकार द्वारा दी गई जमीन वापस लेली,टाटा को बगैर कोई मुआवजा दिए।टाटा और उसकी सहयोगी कंपनियों का 3हजार करोड़ रूपया खर्च हो गया।यह राजनीतिक मिलिटेंसी है,जो किसी कानून को नहीं मानती।
सिंगूर में नैनो के कारखाने में 22जून 2011 को जमकर लंपटों ने लूटपाट की है।ममतापंथी स्टार आनंद ,कोलकाता टीवी,न्यूज टाइम आदि बांग्ला चैनलों ने नैनो कारखाने में की गई लूटमार की खबर नहीं दिखाई। जबकि पृष्ठभूमि में लूटमार के फुटेज चल रहे थे। एकमात्र 24घंटा और आकाश चैनल ने यह खबर दी। नेशनल चैनलों पर भी ब्लैकआउट था इस खबर पर। 24 घंटा बाद ममतापंथी चैनल दिखा रहे हैं कि कारखाने में किस तरह की सुरक्षा है। सिंगूर के नैनो कारखाने में जब लूट हो रही थी टीवी चैनल एकदम ब्लैकआउट किए थे। असल में पश्चिम बंगाल में किसी बंद कारखाने को वामशासन में मजदूरों ने नहीं लूटा था। यह बेमिसाल घटना है। कलकता उच्चन्यायालय ने भी सुनवाई के दौरान लूटपाट की घटना को लज्जित करने वाली घटना कहा है।
  



















                      




सोमवार, 20 जून 2011

सांस्कृतिक पराधीनता और हिन्दी संस्थान


इन दिनों हिन्दी हम हिन्दी वाले हिन्दी की सेवा नहीं कर रहे ।मालिकों की सेवा कर रहे हैं। विश्वविद्यालय-कॉलेज में पढ़ाने वाले या केन्द्र सरकार के संस्थानों के हिन्दी अधिकारी इस भ्रम में हैं कि वे हिन्दी की सेवा कर रहे हैं, असल में वे मालिकों की सेवा कर रहे हैं और उनकी सेवा के लिए सुंदर सेवक तैयार कर रहे हैं। हिन्दी को मालिकों की भाषा मालिकों ने नहीं हम बुद्धिजीवियों-हिन्दीसेवियों ने बनाया है।  
रघुवीर सहाय ने एक कविता में लिखा है, "वही लड़ेगा अब भाषा का युद्ध/जो सिर्फ अपनी भाषा में बोलेगा/ मालिक की भाषा का एक शब्द भी नहीं/चाहे वह शास्त्रार्थ न करे जीतेगा/बल्कि शास्त्रार्थ वह नहीं करेगा/वह क्या करेगा अपने गूँगे गुस्से को वह /कैसे कहेगा ? तुमको शक है /गुस्सा करना ही/गुस्से की एक अभिव्यक्ति जानते हो तुम/वह और खोज रहा है/ तुम जानते नहीं।"यानी मालिक की भाषा से बचने का कोई शास्त्र है हमारे पास ?हम क्यों और कब से मालिक की भाषा बोल रहे हैं ? हिन्दी को मालिक की दासी कैसे बनाया गया ? अरबो-खरबों रूपये खर्च करने बाबजूद हिन्दी आज भी पिछड़ी क्यों है ? इत्यादि सवालों पर गंभीरता के साथ विचार करने री जरूरत है।
हिन्दी पर केन्द्र सरकार करोड़ों रूपये सालाना खर्च करती है। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान,केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय और वर्धा स्थित महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय से लेकर देश के विभिन्न विश्वविद्यालय और कॉलेजों में चल रहे हिन्दी विभागों के अकादमिक उत्पादन पर नजर डाली जाए तो बहुत ही असंतोषजनक तस्वीर सामने आती है। हिन्दी के समस्त कार्य व्यापार से जुड़े लोग हिन्दी के पठन-पाठन और अनुसंधान को यह मानकर करते हैं कि वे राष्ट्रभाषा का विकास कर रहे हैं और इस नाते हिन्दी तो सबकी है और उसे सबको सीखना चाहिए और हमें सिखाना चाहिए।
     हिन्दी शिक्षक कक्षाओं में हिन्दी को एक नेचुरल भाषा के रूप में पढ़ाते हैं। वे हिन्दी के उद्भव और विकास को गैसपेपर मार्काशैली में पढ़ाते हैं और उसके विकास के पीछे निहित ऐतिहासिकता की हत्या कर देते हैं। वे चाहते हैं हिन्दी भारत की सार्वभौम भाषा बन जाए। इसके विकास और प्रसार के लिए वे शुद्ध व्यवहारमूलक तर्कों का इस्तेमाल करते हैं और उसके पीछे निहित ऐतिहासिकता को छिपाते हैं। वे उसे महाभाषा के रूप में भी प्रचारित करते हैं। सच यह है  मध्यकाल में हिन्दी कभी भी सत्ता और न्याय की भाषा नहीं रही और आज भी नहीं है। आज भी सरकार और अदालत के सभी दस्तावेज हिन्दी में नहीं अंग्रेजी में तैयार किए जाते हैं।
     इसके अलावा मध्यकाल से लेकर आधुनिककाल तक के जितने भी बड़े दार्शनिक विमर्श हैं उनमें में से कोई भी हिन्दी में नहीं हुआ। ऐसी अवस्था में हिन्दी को भारत की स्वाभाविक राष्ट्रभाषा के रूप में प्रचारित-प्रसारित करना पाखंड है। देश की स्वाभाविक भाषा वो है जिसमें न्यायपालिका और सत्ता बातें करते हैं। दर्शन का विमर्श जिसमें तैयार होता है। हमारे भाषाविज्ञानी तरह-तरह से हिन्दी के उत्थान-पतन की गाथाएं बताते हैं लेकिन किसी ने भी इस पहलू को ध्यान में नहीं रखा कि भाषा के राष्ट्रीय भाषा बनने में कौन से पक्ष प्रधान होते हैं। वे मात्र साहित्य जगत के भाषिक प्रयोगों को केन्द्र में रखकर बातें करते हैं।
     वे कभी भाषा पर सत्ता,दर्शन,शास्त्रीय विमर्श और न्यायव्यवस्था की भाषा के संदर्भ में बात नहीं करते। इसके बिना भाषा का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य नहीं बनता। मुश्किल यह है कि विमर्श जिस भाषा में हो रहा है और साहित्य जिस भाषा में लिखा जा रहा है उनमें किसी भी किस्म का आदान-प्रदान है कि नहीं ? विमर्श को सामाजिक-सांस्थानिक मानकर व्यक्ति के हवाले कर दिया गया और साहित्य को समाज के हवाले करके हमने विमर्श और भाषा के बीच में पैदा हुए अन्तर्विरोध की सृष्टि कर दी।
      हाल के वर्षों में हिन्दी के प्रतिष्ठित आलोचकों ने विमर्श पदबंध को उत्तर आधुनिक मानकर जिस तरह की खिल्लियां उड़ायी हैं उससे यही पता चलता है कि हिन्दी में भाषा और विमर्श में वे अतराल मानकर चल रहे थे। हिन्दी में जिसे आलोचना कहते हैं यह आधुनिक विधा है। मध्यकाल में हिन्दी में कोई आलोचना या विमर्श नहीं है। भाषाविज्ञानी और आलोचकों ने हिन्दी भाषा पर पाठकेन्द्रित होकर लिखा। विमर्श केन्द्रित होकर कुछ भी नहीं लिखा। भाषा के वाचिक और साहित्यिक प्रयोगों का विवेचन किया। वे इन रूपों के प्रभाव या रूपान्तरण की चर्चा कम करते हैं।  वे हिन्दी और अन्य भाषाओं के विकास को रेखांकित करते हैं। इस प्रक्रिया में भाषा स्वयं में एक संरचना और सिस्टम बनती चली गयी। उसके नियम बने। नियमों के आधार पर ही फैसले लिए गए। ऐसी अवस्था में भाषा में कोई भी बदलाव लाने के लिए नियमों में बदलाव जरूरी है ,नियमों में बदलाव के जरिए हम भाषा  और सिस्टम के संबंधों में भी बदलाव कर सकते हैं।
   मजेदार बात यह है कि हिन्दी भाषा को आधुनिककाल आते ही सभी रंगत के विचारक-समाज सुधारक और साहित्यकार राष्ट्रभाषा के रूप में देखना चाहते थे। इस चक्कर में अन्य भाषाओं और बोलियों के प्रति समानता के भाव को तिलांजलि देदी गयी और हिन्दी को विशेषाधिकार देने पर जोर दिया गया। हिन्दी की महत्ता,सत्ता और परंपरा पर अतिरिक्त बल देने के कारण भाषाविज्ञानियों और आलोचकों ने भाषा और विमर्श के क्षेत्र में जांच के काम को तिलांजलि दे दी। वे वहां सत्य की खोज में जुट गए। जबकि आलोचना का यह काम नहीं है कि वह सत्य खोजे या दावे के साथ बताए। आलोचना का काम हैं जांच करना।
     आधुनिक काल आने के साथ जगदीशचन्द्र बसु,सत्येन्द्र बसु आदि की विज्ञान रचनाएं बांग्लाभाषा में आईं। गिरीन्द्रशेखर बसु ने मनोविज्ञान पर काम किया. ये लोग अपने क्षेत्र के महारथी थे। गिरीन्द्रशेखर बसु की रचनाओं से फ्रॉयड ने बहुत कुछ सीखा और मनोशास्त्र की अनेक धारणाएं बनायीं और गिरीन्द्रशेखर बसु के योगदान को माना, फ्रॉयड का उनसे नियमित पत्र-व्यवहार भी होता था। यही स्थिति अन्य वैज्ञानिकों की थी वे भी अपनी मौलिक खोजों को पहले अपनी भाषा में लेकर आए। इससे बांग्ला भाषा में विमर्श का वातावरण बना।
     लेकिन हिन्दी में ऐसा अभी तक नहीं हो पाया है। दर्शन,विज्ञान,राजनीतिशास्त्र आदि में आज भी हिन्दी कम्युनिकेशन की भाषा नहीं बन पाई है। आज भी इन क्षेत्रों में पढ़ने-पढ़ाने के लिए अंग्रेजी की मदद लेनी होती है लेकिन हम मुगालते में हैं कि हिन्दी राष्ट्रभाषा है ,राष्ट्रीय विमर्श की भाषा है।
      सच यह है हिन्दी में एक भी ऐसा विमर्श नहीं हुआ जिसने भारत या उसके बाहर प्रभाव छोड़ा हो। जबकि संस्कृतभाषा के साथ ऐसा नहीं है। बांग्लाभाषा के साथ ऐसा नहीं है। संस्कृत के साहित्य,न्याय-दर्शन,नीतिशास्त्र,काव्यशास्त्र,नाट्यशास्त्र आदि तमाम क्षेत्रों का आज भी सारी दुनिया में अध्ययन-अध्यापन होता है। क्योंकि संस्कृत सिर्फ साहित्य की भाषा नहीं थी,वह विज्ञान,गणित,दर्शन,न्याय,कामशास्त्र आदि जटिततम विषयों के विमर्श की भाषा भी थी ।
      हिन्दी की स्थिति इसकी तुलना में बेहद खराब है। हिन्दी ने अपने को साहित्य, बातचीत,सरकारी कामकाज की भाषा और मीडिया की भाषा तक सीमित रखा है। इससे हिन्दी का रुका है। हिन्दी अभी तक विचार,विज्ञान,तकनीक आदि की भाषा क्यों नहीं बन पायी है ? हमारे हिन्दी संस्थानों की इसमें बड़ी भूमिका है। हिन्दी के बुद्धिजीवियों की ,खासकर प्रोफेसरों की बड़ी भूमिका है।
    हिन्दी के प्रोफेसरों और हिन्दी ऑफीसरों ने जो संसार रचा है वह भाषा का सीमित संसार है। हिन्दीवाले को हिन्दी के विकास के नाम पर कुछ भी करना होता है तो वे सेमीनार करते हैं और स्वयं मंच पर बैठ जाते हैं। यानी हिन्दी बुनियादी तौर पर सेल्फ -प्रमोशन स्कीम का हिस्सा है। निजी उत्थान और निजी महिमा को वे राष्ट्रीय उत्थान और हिन्दी महिमा समझते हैं। जबकि इसका हिन्दी विकास से कोई संबंध नहीं है।
हिन्दी आलोचकों-प्रोफेसरों और साहित्यकारों को साहित्य और कम्युनिकेशन माध्यमों में हिन्दी की सत्ता का विस्तार खूब आनंदित करता है। जबकि इस विस्तार से भाषा समृद्ध नहीं होती। पता करें कि मासमीडिया और सूचना तंत्र के व्यापक विकास के बाबजूद हिन्दी कितनी समृद्ध हुई है ? सच यह है कि हिन्दी के अनेक बड़े अखबार अभिव्यक्ति के लिए अंग्रेजी पदबंधों के अनिवार्य प्रयोग पर बल दे रहे हैं। हिन्दी की दयनीय अवस्था का अनुमान इससे ही लगाया जा सकता है कि केन्द्र सरकार की कोई भी नीति या पत्र पहले हिन्दी में नहीं लिखा जाता। सारे सरकारी तंत्र के संप्रेषण की भाषा अंग्रेजी है। रघुवीर सहाय की कविता है 'हिन्दी '- ' पुरस्कारों के नाम हिंदी में हैं/ हथियारों के अंग्रेज़ी में /युद्ध की भाषा अंग्रेजी है /विजय की हिन्दी।"एक अन्य कविता में रघुवीर सहाय ने लिखा है, "अँग्रेजों ने अँग्रेजी पढ़ाकर प्रजा बनाई/ अँग्रेजी पढ़ाकर अब हम प्रजा को राजा बना रहे हैं।"
   आधुनिककाल में हिन्दी के विकास का जो रास्ता हमने चुना है वह बाजार , महानगर,विश्वविद्यालय और कम्युनिकेशन मीडियम केन्द्रित है। इन चारों का हमारे देश आर्थिक विकास के मॉडल से गहरा संबंध है। इसमें बुनियादी चीज है हिन्दी की "शर्तयुक्त परिस्थिति"। यह "शर्तयुक्त परिस्थिति" क्या है ? मसलन्, केन्द्र सरकार के ऑफिस में हिन्दी में काम करना होगा इसके लिए हिन्दी अधिकारी,हिन्दी टाइपिस्ट आदि रखो। काम नहीं करना है तो कोई जरूरत नहीं है। चूंकि हिन्दी राजकाज की भाषा या राष्ट्रभाषा है तो हिन्दी के विभाग तो होने चाहिए। ये "शर्तयुक्त परिस्थिति" अपने आपमें पराधीनता की द्योतक हैं। यानी शर्तयुक्त परिस्थिति को सांस्कृतिक पराधीनता कहते हैं। इसमें काम करने वाले के सामने दो ही संभावनाएं बचती हैं ,प्रथम, परिस्थिति के अंतर्गत स्पष्ट विकल्पों में चयन,दूसरा, इस शर्तयुक्त परिस्थितियों को बदलकर कार्य की अन्य संभावनाओं की खोज करना। हिन्दीवालों ने पहली स्थिति में अपने को ढ़ाल लिया है,इसका दुष्परिणाम है कि हिन्दी आज जनता की कम सरकार भाषा के रूप में ज्यादा जानी जाती है। इसी स्थिति को ध्यान में रखकर रघुवीर सहाय ने एक बड़ी ही शानदार कविता लिखी है 'हिन्दी'- लिखा,
"हम लड़ रहे थे/समाज को बदलने के लिए एक भाषा का युद्ध/ पर हिन्दी का प्रश्न अब हिन्दी /का प्रश्न नहीं रह गया/हम हार चुके हैं/अच्छे सैनिक/अपनी हार पहचान/अब वह सवाल जिसे भाषा की लड़ाई हम कहते थे/ इस तरह पूछः/हम सब जिनकी ख़ातिर लड़ते थे/ क्या हम वही थे ?/या उनके विरोधियों के हम दलाल थे/- सहृदय उपकारी शिक्षित दलाल ?/आज़ादी के मालिक जो हैं ग़ुलाम हैं/उनके गुलाम हैं जो वे आज़ाद नहीं/हिन्दी है मालिक की/तब आजादी के लिए लड़ने की भाषा फिर क्या होगी ?/ हिन्दी की माँग/ अब दलालों की अपने दास-मालिकों से/एक माँग है/बेहतर बर्ताव की/अधिकार की नहीं/वे हिन्दी का प्रयोग अंग्रेजी की जगह/करते हैं/जबकि तथ्य यह है कि अंग्रेजी का प्रयोग/उनके मालिक हिन्दी की जगह करते हैं/दोनों में यह रिश्ता तय हो गया है/जो इस पाखण्ड को मिटाएगा/हिन्दी की दासता मिटाएगा
/वह जन वही होगा जो हिन्दी बोलकर/रख देगा हिरदै निरक्षर का खोलकर।"






शुक्रवार, 17 जून 2011

The discreet charm of civil societyP. SAINATH


The discreet charm of civil societyP. SAINATH
SHARE · COMMENT · PRINT · T+

The HinduSocial Activist and Member of Lokpal Bill Committee, Anna Hazare, addresses a press conference in New Delhi. Photo: Shanker Chakravarty



There is nothing wrong in having advisory groups. But there is a problem when groups not constituted legally cross the line of demands, advice and rights-based, democratic agitation.

The 1990s saw marketing whiz kids at the largest English daily in the world steal a term then in vogue among sexually discriminated minorities: PLUs — or People Like Us. Media content would henceforth be for People Like Us. This served advertisers' needs and also helped shut out unwanted content. As the daily advised its reporters: dying farmers don't buy newspapers. South Mumbaikars do. So the suicide deaths of a couple of fashion models in that city grabbed more space in days than those of over 40,000 farmers in Maharashtra did in a decade.

February 2011 saw one of the largest rallies staged in Delhi in years. Lakhs of workers from nine central trade unions — including the Congress party's INTUC — hit the streets to protest against rising food prices and unemployment. This was many times bigger than the very modest numbers at Anna Hazare's fast and larger than Ramdev's rollicking ‘yoga camp.' These were workers and unions not linked to the state. Not market-driven. Not corporate-funded. And expressing clearly the interests and values of their members. In fact, fitting some classic definitions of ‘civil society.' The rally was covered by the BBC, Reuters and AFP but was mostly invisible in mainstream Indian media except when attacked for creating traffic jams.

Perhaps the whizz kids were on to something larger than even they knew. At least one dictionary has since added this entry under People Like Us: “A subtle reference to people of the same socio-economic class.” Only, there was nothing subtle here. The Indian elite play the PLU game like few others do. Entry into the club is by birth or invitation only. And getting certification from the classes that matter takes some work. Your own background can be surmounted however, even turned to advantage, if there are enough strong PLUs around you. Anna Hazare had this. Baba Ramdev did not have it. Both claimed to speak for ‘civil society.' A media applying that word with reverence to those around Anna Hazare, denied it with scorn to those they saw as Ramdev's rabble.

Sections of the media embarrassed by Ramdev point, in contrast, to the ‘many fine people' around Hazare. Most of them part of the Delhi elite with indeed impeccable records of service. Yet, how did their approach differ in principle from Ramdev's?

Both were self-selected groups claiming primacy over the elected government. Both asserted they knew what was best for the nation. (Rather than an electorate they scorned as sold on a bottle of liquor or a hundred-rupee note). Both had no qualms about breaking down the walls between the institutions of state. Never mind the Constitution, they sought a body whose members they would largely appoint. A super organ above the legislature, the executive and the judiciary. Take the government notification on the drafting body for the Lokpal bill. It uses the words: “The five nominees of Anna Hazare [including himself] are as under…” When have such vital national appointments been made by and in the name of one individual, however noble?

Both felt they had the best solutions for fighting corruption, which is fair enough. Both, however, demanded that their fatwas be written into law. That their will prevail in the writing of the bill. That the Constitution assigns this right to the legislature mattered little. Both saw themselves as more representative of the nation than its people. In months, they would succeed where “in 62 years” the nation had failed.

Electoral democracy drew special contempt. In this, they were at one with the top tier of PLUs. “Who takes all that stuff seriously?” asked one celeb on a television panel discussion. Well, it seems people do. Voting in Assam, Kerala and Tamil Nadu crossed 75 per cent in May 2011. In West Bengal and Puducherry, it edged towards 85 per cent. Tamil Nadu in May 2011 saw its highest turnout in 44 years. And voters there showed how vital the issue of corruption was to them. Money power has surely corrupted the electoral process severely. But does the electorate deserve the scorn poured on it by ‘civil society?' If the latter has struck a chord at all, it is because of the deep concerns of the former.

So who do these versions of Indian ‘civil society' represent? Do we take the World Bank's definition? Civil society would then be: “a wide array of non-governmental and not-for-profit organisations that have a presence in public life.” And which express “the interests and values of their members or others, based on ethical, cultural, political, scientific, religious or philanthropic considerations.” The European Commission states flatly that there is “no commonly accepted or legal definition” of the term. It also “does not make a distinction between civil society organisations or other forms of interest groups.”

The U.S.-based Civil Society International raises the question of whether the media should be included in ‘civil society.' More so when they are privately-owned and hyper-commercial in character. It points out that some notions could render both the League of Women Voters and the Ku Klux Klan part of civil society. In India, the RSS is a large voluntary organisation claiming to be cultural and non-political in character. Ergo, civil society?

Theory aside, civil society in India seems defined by exclusion. It is crowded with human rights lawyers and activists, NGO leaders, academics and intellectuals, high-profile journalists, celebrities and think tank-hirelings. Mass media debates never see landless labourers, displaced people, nurses, trade union workers, bus conductors being asked to speak for ‘civil society.' Though, indeed they should.

Marketing minds would define civil society more clearly as a prime PLU platform. They'd be right, too. Who else do we see out there? The PLU syndrome goes way beyond the Lokpal bill. When Kaushik Basu, chief economic adviser to the Finance Ministry, called for a certain class of bribes to be legalised, ‘civil society' simply shut its eyes and brain. The National Campaign for Peoples' Right to Information — a flag bearer of civil society — maintained a studied, shameful silence. Professor Basu was not pushing this idea in his private blog. He put it up on a Government of India website. Yet, thundering anchors who ‘skewer' politicians in television interviews uttered not a squeak. Had this insane idea come from a Ramdev, or even a Lalu Prasad, and not from a certified PLU member, imagine the fun the media would have had trashing it. As for the NCPRI, it might have begun a special desk to campaign on the issue. True, an individual associated with it did write a mild critique of the economicsof Prof. Basu's folly — evading its moral degeneracy. But the NCPRI let itself down (and all those who support the RTI movement) with its craven silence.

The same media now trashing Ramdev came out snarling in his defence when he clashed with Brinda Karat in 2006. That was over the exploitation of 113 workers thrown out of the pharmacy controlled by Ramdev's Trust and facing false cases. The media brushed that aside and slammed Ms Karat. In the PLU food chain, workers are a low form of pond life. (Oh yes, the PLU syndrome has a strong caste component, too. But that's another story.)

Ramdev had carved out a base in sections of the elite. He also counts some media owners amongst his followers. Though not, perhaps the more anglicised anchors of television. He even has a following in Bollywood. He had attained the celebrity status so vital to gain any media attention at all. And had done so by using television itself for his ‘brand' of yoga. But he overplayed his hand when the desired ‘A-level' certification from the south Delhi elite was still pending. Otherwise, his claim to represent ‘civil society' is no weaker than that of the group around Mr. Hazare. The ‘my-civil-society-is-more-civil-than-yours' squabble has begun. And both groups have failed to pin down a corrupt, bungling government that made such a pig's breakfast of the Ramlila event.

There is nothing wrong in having advisory groups. Not a thing wrong in governments consulting them and also listening to people, particularly those affected by its decisions. There is a problem when groups not constituted legally cross the line of demands, advice and rights-based, democratic agitation. When they seek to run the government and legislation — no matter how well-intentioned they are. Pushing a coherent vision is a good thing to do. So is demanding that the government do its job. Beyond that lies trouble.

Meanwhile, a section of Platinum tier PLUs have become champions of the parliamentary democracy they actively helped undermine during the past two decades. They cheered loudly for giant economic and financial decisions taken outside the budget, bypassing Parliament. So long as the destruction of institutions favoured corporate power, they welcomed it, collaborating with corrupt governments such as this one wholeheartedly. The Ramdev route would have done much the same in time — the Baba himself is a spiritual corporation. But he just wasn't one of us. These new champions of parliamentary democracy have no qualms when the groups dictating terms to the government are CII, FICCI, ASSOCHAM or their ilk. They didn't like it when the bypassing of institutions came from Mr. Hazare. They hated it when it came from Ramdev. Dumping democracy is, after all, the privilege of the Platinum PLUs.

(दैनिक हिन्दू से साभार,17जून2011 को प्रकाशित)

खुदरा व्यापार में बहुराष्ट्रीय निगमों का खेल-शेखर स्वामी


भारत के खुदरा बाजार पर बहुराष्ट्रीय कंपनियां खुले तौर पर हमला बोल रही हैं। देशी दुकानदारों का धंधा तबाही की ओर जा रहा है और केन्द्र सरकार खुलेआम बहुराष्ट्रीय निगमों की हिमायत कर रही है।अन्ना हजारे से लेकर विभिन्न राजनीतिक दल इस मसले पर चुप्पी साधे बैठे हैं। हिन्दू समूह के अखबार "बिजनेस लाइन " में शेखर स्वामी ने खुदरा उद्योग की सुंदर मीमांसा की है। हम यह लेख साभार दे रहे हैं-

In the first part of my series yesterday, I had stated that big multi-brand retailers in the West like the Walmarts and Tescos and Carrefours routinely mark up the prices on their entire basket of products by a minimum 2x, and this goes as high as 9x, compared with the retail/wholesale mark-ups in India.

The point that was made was that the efficiency of the channel should be determined by how much they charge the end consumer by way of mark-ups (which is the aggregate of the costs incurred and profits made by the channel). By this measure, I had concluded that the Indian distribution chain comprising wholesalers, distributors, stockists and retailers is among the most cost-effective and efficient in the world.

How can this possibly be?

NO CONSUMER CHOICE

Anyone who has followed business practices and rules will know the following simple truth about markets. The more consolidated a market is, providing less choice to the consumer, the more the retailer can mark up and charge ever higher prices. In reverse, the more fragmented a market is, providing ever more choices in terms of sources to the consumer, the lesser is the mark-up, as the retailers have to charge the least possible amount to be competitive and stay in business. When big multi-brand retail gets into a market, their game plan is to eliminate competition and build market clout. Let us look at two examples. In the US, the retail market size (excluding food service and automotive) was estimated at $3 trillion in 2009. Walmart clocked over $300 billion in US sales, for a remarkable 10 per cent market share. Such consolidated power, acquired over time, is used to squeeze cost on the supplier side, and improve mark-ups on the consumer side.

Walmart aims to be cheaper than other retailers, but its end goal is still to maximise returns to its shareholders. (People interested in learning about Walmart can get the book How Walmart is destroying America and the World… by Bill Quinn.)

UK's Tesco clocked sales of £61 billion ($99 billion) last year, and has a 30 per cent market share of the UK grocery store market, according to Wikipedia. This level of consolidation is unprecedented in the retail world, giving Tesco extraordinary power over both suppliers and consumers. A grocery shopper in the UK has at best a choice of two or three retailers in her vicinity (Tesco or Sainsbury or maybe an Aldi). This means, notwithstanding promotional offers, the price is always a premium, and retailers' power over the consumers' shopping pound is enormous. Their power over the manufacturer is also enormous, but that is another story altogether.

INDIAN SCENARIO

Compare this with India. We have dozens of small retailers in our immediate neighbourhoods vying for our shopping rupee. There is intense competition. Prices and mark-ups tend to be the lowest possible. We have a near-perfect market structure, where thousands of producers are providing goods to tens of thousands of retailers who are serving millions of consumers. No one really has the clout in the market to charge extra mark-ups. This is a ground-up phenomena, created by the energy and entrepreneurship of millions of small businesses. The government has played no role in organising this. The difference in market structure is illustrated in the visuals alongside.

If big multi-brand retail is allowed to enter India, what happened in the West will be repeated here. The story is well documented. A big retail outlet will be launched in an area with big fanfare. There will be lots of promotions and predatory pricing below cost of many essentials for extended periods. (Walmart has an expression for this called “Stomp the comp”, meaning sweep aside the competition.)

Consumers will be attracted by these deals, and will flock to the store. Small retailers cannot sustain loss of business for long. Most of them will fold up against this assault of big retail. It has happened without fail in every market. As the competition is wiped out, the big retailer gains clout over the suppliers and the consumers. They then get pricing power, gain control of the market, and steadily increase the mark-ups over time for maximising profits.

Against the background of the information above which is available in the public domain, one cannot help wonder how FDI in multi brand retail has been recommended by the committee, led by the Chief Economic Advisor to the

The news came out recently that the committee formed under the Chief Economic Advisor to the Government has recommended to the Cabinet that foreign direct investment in multi-brand retail (like Walmart, Tesco, Carrefour and others) should be permitted. As with any committee making such a recommendation, this one has gone on to justify why FDI in multi-brand retail would be beneficial to the country. The committee has talked about investment in supply chain infrastructure that is supposed to reduce wastage. It has stated that employment would go up, and farmers would somehow get a better pricing for their crop.

While the reasons advanced by the Committee are questionable and would hardly stand up to close scrutiny, I would not enter that debate here, since these reasons are not central to the issue. There should be one main question that should be posed to determine if FDI in multi-brand retail is justified — will such multi-brand retail reduce the cost of distribution from the producer (be it farmer or manufacturer) to the end consumer?

In marketing terms, this is known as the channel cost. In layman's terms, we can simply see it as the cost of moving/storing/financing/selling incurred between the point of production and the point of final sale to the consumer. This is the main measure of economic efficiency that we should look at.

Increase in cost

Let me answer this upfront. Multi-brand retailers like the Walmarts and Tescos will increase the cost to the consumer substantially over time, compared with wholesale/retail practices in India. There is plenty of evidence to prove this conclusively.

The increase in cost is not by some small percentage. Multi-brand retail mark-ups are at a minimum 2x, and as high as 9x more, compared with the retail/wholesale mark-ups in India. This cost is built into their model, and it is the premium paid by the average consumer in the West to get their everyday items of consumption.

Let us compare the channel cost of four categories of daily-use products that will be available through multi-brand retail:

Fast moving consumer goods like food, personal care products, toiletries etc;Clothing — textiles and readymade garments;

Over-the-counter pharmaceutical products;

Cookware/kitchenware small appliances.

Consumer goods: The distributor/stockist margin in India ranges from 4 per cent to 8 per cent, and the retailer margin ranges from 8 per cent to 14 per cent. The margin is on manufacturer's prices. They vary depending on company volume, market clout, type of product and so on. The total channel cost incurred by the distribution chain in India thus ranges from 12 per cent to 22 per cent.

In the US and Europe, the Safeways and Krogers and Tescos mark up this category of products by 40 per cent on cost of goods, depending on product type, volume, demand, exclusivity and so forth.

The channel mark up is 2x to 3x more than Indian channel/retail costs. We should not be misled by ‘Sale' prices and ‘loss-leader promotions' that they routinely employ to draw the customers.

Clothing/garments: In the Indian textile business, the combined wholesale plus retail margin ranges from 35-40 per cent on the ex-mill price. In the readymade garments business, the margin at retail in a brand outlet seldom exceeds 30 per cent of ex-factory price. Compare this to a Macy's or Marks & Spencer.

These retailers routinely mark up by 2x to 4.5x, the price at which they procure the garments. Then they offer ‘Sale' discounts of 15-30 per cent. Even comparing the ‘Sale' price, these retailers' mark-ups are 2x higher at the lowest end of the spectrum. Routinely, their mark-ups are thus 5x to 9x of what the retailers in India charge.

OTC Pharmaceuticals: In India, the pharmacies and chemists are better organised as a trade body, and the supply side is highly fragmented. Therefore, they enjoy better retail margins.

Even so, the retail chemist's margin in India is at 20 per cent. Add the distributor/stockist margin of 10 per cent, and the C&F agent's cost of 4 per cent, the total channel cost is a maximum of 34 per cent of ex-factory price. Compare this with a Walgreen's or CVS pharmacy in the US, or a Boot's in the UK. These retailers mark up the OTC products by 2x or 3x or more, and then offer some items on ‘Sale'. These big retailers' mark-ups are 6x more at the minimum, as far as channel costs go, compared to India's pharmacies.

Cookware/kitchenware: India's channel costs for this category are lower. The combined distributor/retailer margin in India for products like pressure cookers and cookware is less than 30 per cent, out of which the retailer retains 10 per cent to 15 per cent only. For the same category of products, retailers such as Walmart, Bloomingdales and Sears in the USA would routinely mark up the merchandise by 100-200 per cent of landed cost. Even ‘On Sale', at the lowest end, the channel mark up is 5x what they are in India.

Indian distribution efficient

All this evidence, available freely, suggests that the Indian distribution system, as it has evolved over the years, is among the most cost-effective and efficient in the world. For sure, our markets and bazaars do not have the polish of a mall in Europe or the US or Japan. But to the average Indian housewife, they offer remarkable value, and help her get along on low incomes. It is this balance that the proposed FDI in retail will upset over time.

Talk of investment in supply chain and back-end logistics only diverts attention from the main issue of total channel cost. The government committee should focus on what is in the best interest of the average Indian, and not be swayed by industry lobbies and pressure from foreign governments. Our markets are highly efficient, driven from the bottom up by the self-interest of millions of small traders and merchants. Let us not interfere with this and fall into the Western trap of multi-brand retail.

Government. Some of the criteria for investment are also inexplicable. For example, the committee has specified a minimum FDI investment of $100 million. That is like asking an Olympic heavy weight lifter to lift a 10 kg weight to qualify! While I respect the senior minds that have looked into this, I would venture to suggest that the role of policy in this matter should be to ensure the common good of the broadest base of the Indian population over an extended period of time measured in decades and not in years.

RECONSIDER POLICY

Policy makers should not rush to please Western governments that are lobbying hard to open up the Indian retail market. Opening FDI in multi-brand retail will ill-serve the Indian retail sector and the hundreds of millions of households struggling to make ends meet.

When the global financial crisis erupted in 2008, India was protected because the banking industry was not exposed to risk. The situation is similar in retail. Let us not bring in the bad oligopolistic structure of Western retail into India, a move which will really be irreversible and hold Indian consumers captive for times to come.

(The author is Group CEO, R. K. SWAMY HANSA and Visiting Faculty, Northwestern University, US. The views are personal.blfeedback@thehindu.co.in, बिजनेस लाइन से साभार,16 एवं 17 जून 2011 को प्रकाशित)

बुधवार, 15 जून 2011

सबसे महंगे ब्रॉण्ड का राजनीतिक पराभव


      बाबा रामदेव का अनशन अंततः खत्म हो गया ,उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा ,उनकी शारीरिक अवस्था लगातार खराब होती गयी । इससे आयुर्वेदिक चिकित्सा की बजाय अंग्रेजी चिकित्सा के प्रति आम लोगों की आस्था गहरी होगी। धन्य हैं बाबा जो अनशन तोड़ने अपने अस्पताल नहीं ले जाए गए।उनका इलाज करने वाले डाक्टर एलोपैथी के हैं। क्या आयरनी है आयुर्वेद के महारथी के अनशन की ?
हम तो यही चाहते थे कि बाबा रामदेव और उनके भक्त तब तक क्रमिक अनशन करते जब तक सारा काला धन विदेश से वापस नहीं आ जाता। बाबा को बर्मा (म्यांमार) की नेत्री आंग शांग सू ची की तरह लंबा अनशन करना चाहिए और योग शिविर को अन्य लोगों को चलाना चाहिए था लेकिन अफसोस की बात है वे ऐसा नहीं कर पाए। बाबा सोच रहे थे वे अनशन करेंगे और तत्काल परिणाम सामने आ जाएगा। राजनीति में ऐसा नहीं होता। बाबा के अनशन के समर्थन में आरएसएस के लोग सबसे ज्यादा हल्ला कर रहे हैं। क्या संघ परिवार अपनी आय-व्यय का ब्यौरा सार्वजनिक करेगा ?
 एक सवाल यह भी उठा है कि जेपी आंदोलन की तरह लाखों की भीड़ कभी इन नेताओं (अन्ना-बाबारामदेव) पीछे क्यों नहीं देखी गयी? क्यों नहीं ये लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ उड़ीसा से लेकर महाराष्ट्र तक,बिहार से लेकर दिल्ली तक एक भी लाखों की जनरैली कर पाए?बाबा रामदेव योगशिविर के नाम पर लोग लाए थे।यह संघर्ष की लामबंदी नहीं थी।
इधर जो बाबा रामदेव नाटक चल रहा है उस पर चकबस्त का शेर है- "मिटेगा दीन भी और आबरू भी जाएगी। तुम्हारे नामसे दुनियाको शर्म आएगी।।"
बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के पीछे की जनता की भीड़ पर बहुत जोर दिया है मीडिया ने।असल में बाबा के यहां जनता नहीं योग शिविर वाले लोग आए थे। और अन्ना के साथ में वे लोग ज्यादा थे जो विभिन्न स्वयंसेवी संगठनों में काम करते थे। इनमें सैंकड़ों वेतनभोगी स्वयंसेवी होलटाइमर काम करते हैं। जनता कम थी दोनों के यहां।
आयरनी यह है कि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री से लेकर भाजपा के आडवाणी तक ,मोहन भागवत से अन्ना हजारे तक किसी ने भी बाबा रामदेव का अनशन तुड़वाने की कोशिश नहीं की। केन्द्र सरकार ने भी पल्ला झाड़ लिया। आखिर बाबा रामदेव के प्रति इस तिरस्कार या उपेक्षा भावना का कारण क्या है ?क्या बाबा रामदेव के राजनीतिक अंत की सूचना है ?
दूसरी आयरनी यह है कि हमें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर विश्वास नहीं है एक बाबा पर विश्वास है। इससे पता चलता है कि हम अभी मध्यकाल में हैं। मनमोहन सिह ने इसबार के शासन की बागडोर हाथ में लेते ही कालेधन को एजेण्डा बनाया है ,थोड़ा वेब पन्नों की सैर करें बाबा भक्त तो उसका अंदाजा लग जाएगा।
बाबा रामदेव का अनशन खत्म हो गया ,लेकिन अपनी निशानियां छोड़ गया।बाबा रामदेव वायदे के अनुसार अनशन तोड़ देते तो कम से कम राजबाला की जिंदगी को तबाही से बचाया जा सकता था। पुलिस-आंदोलनकारियों की भगदड़ में कोई चीज उसकी पीठ पर गिरी जिसने अपूरणीय क्षति की है। इसके लिए बाबा ,आंदोलनकारी और पुलिस तीनों जिम्मेदार हैं, सरकार को तुरंत बड़ी आर्थिक क्षतिपूर्ति की घोषणा करनी चाहिए और बाबा को भी। बाबा रामदेव के अनशन के दौरान ग्लूकोज का इस्तेमाल क्या आमरण अनशन के नियमों का पालन है ? बाबा ने कोई आयुर्वेदिक पेयपदार्थ क्यों नहीं लिया ? क्या ग्लूकोज आयुर्वेदिक है ?
बाबा रामदेव ने अपना अनशन तोड़ा।  श्रीश्री रविशंकर आदि संतों के कहने से तोड़ा। इस पर दाग़ का शेर है- "ख़ातिरसे या लिहाजसे मैं मान तो गया। झूठी कसमसे आपका ईमान तो गया।।''
केन्द्र सरकार ने कालेधन को देश में वापस लाने की मांग को लिखित रूप में मान लिया है। बाबा को उस आश्वासन के लागू किए जाने का इंतजार करना चाहिए। लाठीचार्ज में 32 लोग घायल हुए थे और वे सकुशल घर पर हैं,एक की हालत अभी भी गंभीर बनीहुई है। इसके बाबजूद बाबा रामदेव ने अनशन जारी क्यों कर रखा ? बाबा कौन सा सौदा पटाना चाहते हैं ?बाबा रामदेव और श्री श्रीरविशंकर में क्या बातें हुईं उनका विस्तृत ब्यौरा जारी किया जाना चाहिए। श्रीश्री रविशंकर ने केन्द्रीयमंत्री वीरप्पा मोइली से जो बातें की हैं उनके पूरे विवरण जारी किए जाएं,बाबा रामदेव से जो सरकारी प्रतिनिधि बात करे उसका लाइव टेलीकास्ट दिखाया जाना चाहिए। बाबा और सरकार की विश्वसनीयता की परीक्षा के लिए यह जरूरी है।
बाबा रामदेव पर मुझे दाग़ का एक शेर याद आ रहा है। शेर है-" इतनी ही तो बस कसर है तुममें,कहना नहीं मानते किसीका।।"
बाबा रामदेव और उनकी समृद्धियों का संसार जिस गति से बढ़ा है उस गति से मेहनत से इतना पैसा नहीं कमाया जा सकता। बाबा रामदेव ने जो अरबों-खरबों की संपत्ति अर्जित की है उसे क्या मेहनत की कमाई कहेंगे ?गोरखधंधे की आय कहेंगे ?हवाला का पैसा ?या कारपोरेट जगत की संघ परिवार को दी गई सौगात कहेंगे ? या पुण्य की लक्ष्मी ?इस पर साकिब का शेर है- "चमन न देख नशेमनको देख ए बुलबुल।बहार ही में कभी आग भी बरसती है।।"
बाबा रामदेव के बारे में यह जानते हुए कि वह संघ परिवार के एजेण्डे पर काम कर रहा है और उनका आदमी है,उसे जिस तरह सरकार ने अति सम्मान दिया वैसा यह सरकार किसी मजदूरनेता को नहीं देती। इससे ही पता चलता है कि केन्द्र सरकार का संघ से मोर्चा लेना नकली जंग है ।वह धर्मनिरपेक्षता की पक्षधर है तो उसे मजदूर-किसान नेताओं का सम्मान करना चाहिए,धर्मगुरूओं का नहीं।बाबा रामदेव टाइप लोगों पर जोश मलीहाबादी का शेर है- "जो डरकर नारेदोजख़से ख़ुदाका नाम लेते हैं। इबादत क्या वोह खाली बुजदिलाना एक खिदमत है।।"आगे एक अन्य शेर में जोश मलाहाबादी ने लिखा है- "इबादत करते हैं जो लोग जन्नतकी तमन्नामें। इबादत तो नहीं है,इक तरहकी वोह 'तिजारत' है।।"
बाबा रामदेव के बारे में टीवी कैम्पेन के अलावा प्रशानिक कदम उठाने की जरूरत है और सख्ती के साथ उन सभी आर्थिक दानदाताओं की भी पहचान की जाए जिन्होंने अपनी संपत्ति बाबा को दी है। वे कौन लोग हैं जो बाबा के व्यापार में पार्टनर हैं उनके नाम बताए जाएं ।कांग्रेस के मंत्रियों-सांसदों-विधायकों के नाम बताए जाएं जो बाबा रामदेव के शिविरों में जाते रहे हैं ।

हम अच्छे भले अपने कामों में व्यस्त थे कि बाबा रामदेव ने कारपोरेट मीडिया के जरिए हंगामा खड़ा कर दिया।बाबा के अनशन के कष्ट पर 'चकबस्त' का शेर है- " राहतसे भी अज़ीज़ है राहतकी आरजू। दिल ढूँढ़ता है सिलसिलये इन्तज़ारको।।"
( सिलसिलये यानी प्रायश्चित)
पण्डित ब्रजनारायण 'चकबस्त'बड़े शायर थे, हमारे फेसबुक के अनेक दोस्त और बाबा रामदेव हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवादी हैं,राष्ट्रवाद ज़हर है। 'चकबस्त' ने राष्ट्रवाद से देशप्रेम को अलगाते हुए लिखा- " फ़िदा वतनपै जो हो,आदमी दिलेर है वोह। जो यह नहीं तो फ़क़त हड्डियों का ढ़ेर है वोह।।
कांग्रेस का आरएसएस के खिलाफ खुलकर आना धर्मनिरपेक्ष राजनीति के लिए शुभलक्षण है।लेकिन कांग्रेस को पहले सफाई देनी होगी कि उसने बाबा रामदेव की अकूत संपत्ति के मामले पर आज तक कभी कोई एक्शन क्यों नहीं लिया ?
संघ परिवार से जुड़े लोग कुछ ऐसे संगठन भी चलाते हैं जो नियोजित हिंसा करते हैं। पेमेंट लेकर हिंसा करते हैं।इस तरह के लोग हमेशा के लिए जेल में बंद करके क्यों नहीं रखे जाते ? कारपोरेट मीडिया उन्हें सैलीब्रिटी की तरह क्यों पेश करता है ?ऐसे लोगों को राजनीतिक सम्मान क्यों दिया जाता है ?आरएसएस सांस्कृतिक संगठन होने का दावा करता है लेकिन उसके द्वारा संचालित सभी संगठन हिन्दुत्ववादी फंडामेंटलिस्ट राजनीति करते हैं। शिक्षा से लेकर संस्कृति,आईएएस से लेकर क्लर्कों तक संघ परिवार का विशाल संगठन है। संघ का नया चेहरा हिन्दू आतंकी का है,क्या हिन्दू आतंकवाद से देश तरक्की कर सकता है ?



आरएसएस अपने सांस्कृतिक प्रचार के जरिए अबोध और छोटे बच्चों को निशाना बनाता है। उनमें राष्ट्रवाद,हिन्दुत्व और जाति अहंकार की विचारधारा का प्रचार करता है।गरीब, निम्नमध्यवर्ग और मध्यवर्ग के युवा हमेशा निशाने पर होते हैं।यह सांस्कृतिक टकराव का काम है। इस प्रसंग में हमें मीडिया की भूमिका और प्राथमिकताओं पर ध्यान देना चाहिए।
    मसलन् कारपोरेट मीडिया ने पोस्को आंदोलन को जिस तरह हाशिए पर रखा है और बाबा-अन्ना पर सारी शक्ति खर्च की है उससे मीडिया की जनविरोधी विचारधारा नंगी हुई है। कालाधन और भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम नव्य उदार नीतियों की कड़ी की हिस्सा है जबकि पोस्को का किसान आंदोलन सीधे नव्य आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के विरोध का प्रतीक है।केन्द्र सरकार का पर्यावरण मंत्रालय सीधे इस प्रकल्प के लिए क्लीयरेंस दे चुका है। एकतरफ कांग्रेस की केन्द्र सरकार पोस्को प्रकल्प की अनुमति दे रही है दूसरी ओर किसानों के साथ हमदर्दी का नाटक भी कर रही है।
केन्द्र सरकार ने इस प्रकल्प के लिए अनुमति क्यों दी ? कांग्रेस पार्टी सारे कलेश राज्य सरकार के मत्थे मड़कर चुपचाप तमाशा देख रही है ? कायदे से राहुल गांधी को इस इलाके में जाकर किसानों के साथ खड़ा होना चाहिए।इन दिनों विदेशी कंपनियों को बुलाने पर बड़ा जोर है इस पर मज़ाज़ का शेर है -" मुनासिब है अपना रास्ता ले।वोह कश्ती देख साहिलसे लगी है।।"
बाबा रामदेव के आमरण अनशन और उसके बाद के लाठीचार्ज को टीवी चैनलों ने रियलिटी टीवी शो के फॉरमेट में पेश करके बाबा रामदेव से सबसे ज्यादा लाभ उठाया और बाबा की सबसे ज्यादा क्षति की। बाबा की योगी की इमेज को व्यापारी की इमेज में तब्दील कर दिया।बाबा अंततः योग के ब्रॉड एम्बेसडर हैं और सबसे महंगे ब्रांड भी।                 










विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...