बुधवार, 29 जून 2011

ममता सरकार की आर्थिक चुनौतियां


              ममता सरकार ने हाल ही में जो नए आर्थिक कदम उठाए हैं उनमें सबसे महत्वपूर्ण है नव्य उदार आर्थिक नीतियों के प्रति खुला समर्थन। यह समर्थन पिछली सरकार की नीतियों के क्रम में ही आया है। ममता सरकार ने विधानसभा में जो बजट पेश किया है वह कमोबश पुरानी सरकार का बनाया हुआ है। इसमें कोई नई चीज नहीं है। बल्कि कुछ लोग जो नए की उम्मीद कर रहे थे उन्हें निराशा हाथ लगी है। बजट प्रस्तावों में प्रत्येक मद में औसतन 10फीसदी की बढोतरी का वाम जमाने का फार्मूला बरकरार है। नए वित्तमंत्री ने पुराने वित्तमंत्री द्वारा बनाई लक्ष्मणरेखा का अतिक्रमण नहीं किया है। एक नई चीज है राज्य में 17 नए औद्योगिक केन्द्रों का निर्माण। सवाल यह है कि राज्य के अंदर क्या इतने बड़े पैमाने पर औद्योगिक विकास की संभावनाएं हैं ?
वाम शासन ने एक जमाने में इस दिशा में सोचा था लेकिन यह योजना बुरी तरह पिट गयी। ममता सरकार को कायदे से पहले उन तमाम व्यापारिक समझौतों को उठाना चाहिए जो पिछली सरकार ने किए थे। उन प्रकल्पों में काम आरंभ करने के प्रयास करने चाहिए जिनको तृणमूल कांग्रेस के नेताओं-माओवादियों ने धमकी देकर बंद करा दिया था। इनमें सबसे महत्वपूर्ण है जिंदल ग्रुप का सालबनी इस्पात प्रकल्प। यह प्रकल्प चालू कराने में यदि ममता सरकार सफल होती है जो इससे राज्य में उद्योग जगत का विश्वास लौटेगा साथ ही ममता सरकार को माओवादियों का भी कद छोटा करने का मौका मिलेगा। साथ ही उन कारखानों के निर्माण पर जोर देना चाहिए जहां विवाद नहीं है। विवाद के क्षेत्रों से बचना चाहिए। ममता सरकार की अच्छी बात है कि इसमें नव्य आर्थिक उदारीकरण के पक्षधर और विरोधी दोनों ही वामविरोध के कारण शामिल हैं। इससे नव्य आर्थिक उदारीकरण के खिलाफ चले आ रहे प्रचार अभियान को धराशायी करने में उन्हें मदद मिलेगी। इससे अमेरिका,ब्रिटेन आदि खुश होंगे और यहां पर विदेशी पूंजी निवेश भी बढ़ेगा।
ममता सरकार ने जिस तरह केन्द्र सरकार द्वारा गैस के दामों में 50 रूपये की बढ़ोतरी को अस्वीकार किया और राज्य में गैस पर 16 रूपये कम किए हैं। उससे वामशासन की वैट कम करने की नीति का ही विस्तार हुआ है। वामशासन ने एकबार पेट्रोल-डीजल के दामों पर एक रूपया वैट कम करने का फैसला किया था इसी मार्ग पर चलते हुए राज्य सरकार ने गैस पर 16 रूपये कम करने का फैसला किया है। कायदे से केन्द्र में तृणमूल कांग्रेस को दबाब की कोशिश करनी चाहिए थी,लेकिन केन्द्र सरकार पर दबाब न डालकर ममता सरकार ने संदेश दिया है कि वह डीजल-गैस-कैरोसीन के दामों में की गई बढोतरी के बारे में एकमत है, लेकिन स्थानीय राजनीतिक दबाब और पापुलिज्म के एजेण्डे के चलते 16 रूपये कम कर रही है।  नई बढ़ोतरी से गैस के दामों में नाममात्र की राहत मिलेगी लेकिन इससे फंड के लिए परेशान राज्य को 75 करोड़ रूपये का नुकसान उठाना पड़ेगा।
    ममता सरकार को पापुलिज्म पर अंकुश लगाना होगा। पापुलिज्म के आधार पर भीड़ जुटायी जा सकती है। आंदोलन हो सकता है लेकिन अर्थव्यवस्था को नहीं चलाया जा सकता। आने वाले महिनों में गैस ,डीजल और पेट्रोल के दामों में और भी बढोतरी होगी तब राज्य सरकार क्या करेगी ? ममता सरकार को आर्थिक नीतियों के मामले में तदर्थवाद से बचना चाहिए। इसी तरह पिछली वाम सरकार द्वारा अधिग्रहीत जमीन के मामले में भी पापुलिज्म से बचना होगा। ममता सरकार ने नई भूमिनीति के तहत राजारहाट इलाके में 1,795 एकड़ जमीन के सरकारी अधिग्रहण नोटिसों को वापस ले लिया है। इस संदर्भ में उन्हें यह पक्ष ध्यान में रखना चाहिए कि जिन जमीनों का अधिग्रहण वापस लिया है उससे क्या औद्योगिक घरानों के पूंजी निवेश और चालू योजनाओं पर असर होगा ? ममता सरकार का भूमि अधिग्रहण नोटिस वापस लेना स्वयं में अनेक बुनियादी किस्म की समस्याओं को जन्म देगा ? मसलन् राज्य में उद्योगों के लिए राज्य सरकार ने जो जमीनें विगत वर्षों में किसानों  से अधिग्रहीत की हैं क्या वे सब जमीनें भी किसानों को वापस देदी जाएंगी ? क्या इससे औद्योगिक विकास होगा ? अथवा वामशासन में पैदा हुआ निरूद्योगीकरण और बढ़ेगा ? एक जमाने में वाम मोर्चा यही सोचता था कि किसानों की जमीन उनके पास रहे और वे उसका जैसे चाहें इस्तेमाल करें। लेकिन इससे राज्य लगातार पिछड़ता चला गया,किसानी में गिरावट आयी।
बड़ी संख्या में किसानों ने खेती बंद कर दी है। खेती से उनका गुजर-बसर नहीं हो रहा है। राज्य में विगत 34 सालों में खेती करने वाले किसानों की संख्या में कमी आयी है। ममता सरकार यदि किसानों को जमीनें वापस दिलाकर खेती के काम में ठेलना चाहती है तो इससे किसानों के जीवन में खुशहाली नहीं आएगी।  आज के दौर में किसानी फायदे का सौदा नहीं है।नेशनल सेम्पिल सर्वे के अनुसार राज्य में सन् 1987-88 में 39.6 प्रतिशत भूमिहीन मजदूर परिवार थे जो सन् 1993-94 में बढ़कर 41.6 प्रतिशत और 1999-2000 में 49.8 प्रतिशत हो गए। पश्चिम बंगाल में विभिन्न कारणों से पट्टादार और बर्गादार का जमीन से संबंध टूटा है। तेजी से पट्टादार और बरगादार किसानी छोड रहे हैं। सन् 2001 तक 13 प्रतिशत पट्टादार और 14 प्रतिशत बर्गादार खेती छोड़ चुके थे। दक्षिण 24 परगना में 22 प्रतिशत पट्टादार ,11 प्रतिशत बरगादार ,उत्तर 24 परगना में 17 प्रतिशत पट्टादार , 17 प्रतिशत बरगादार,बर्धमान में 12 प्रतिशत पट्टादार,15 फीसदी बरगादार,उत्तर दिनाजपुर में  23 प्रतिशत पट्टादार और 32 प्रतिशत बर्गादार, दक्षिण दिनाजपुर में 20 प्रतिशत पट्टादार और 31 प्रतिशत बरगादार ,दार्जिलिंग में 15 प्रतिशत पट्टादार और 16 प्रतिशत बरगादार,जलपाईगुड़ी में 17 प्रतिशत पट्टादार और 32 प्रतिशत बरगादार,कूचबिहार में 13 प्रतिशत पट्टादार और 31 फीसदी बरगादार, मालदा में 11 फीसदी पट्टादार 7 फीसदी बरगादार,मुर्शिदाबाद में 16 प्रतिशत पट्टादार और 19 प्रतिशत बरगादार खेती करना छोड़ चुके हैं। यानी जब किसानों में किसानी का रूझान घट रहा तब उन्हें किसानी की ओर धकेलने के प्रयास सफल नहीं हो सकते।

           



2 टिप्‍पणियां:

  1. आज टाईम्स में खबर है कि जनेवि राष्ट्रीय स्तर का प्रतिष्ठान नहीं बन पाया ,एक मूल कारण यह बताया गया कि बिहार का प्रतिनिधित्व यहाँ बहुत अधिक है। इस डिस्प्रोपोरशन को दूर करना चाहिये। आप इस खबर को साथियों तक पहुँचायें,और उनकी राय माँगें।यह रिपोर्ट कैग के हवाले से दी गई है।
    कल सीताराम येचुरी ने कहा कि 1. भूमि सुधार से जमीन की जोत (युनिट) इतनी कम हो गयी कि किसानी ससटेनेवल रोजगार नहीं रहा।2.मारकेट इकनामि इनएविटेवेल है,किया केवल यह जा सकता है कि इससे दोनो पक्षों का लाभ हो,यह इकतरफा लूट न बनने पाये। .....[अब कर लो छठ की चौदस]..विजय शर्मा

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  2. जेएनयू में दाखिले का विज्ञापन पूरे देश के लिए निकलता है ऑलइण्डिया टेस्ट होता है इसके बाबजूद सीएजी का यह निष्कर्ष पूर्वाग्रहग्रस्त है। आईआईटी में जाने वालों में बिहार-यूपी के लोग ज्यादा हैं ,संसद में भी ज्यादा हैं,बड़े नेता भी ज्यादा है,संस्कृति-सभ्यता और असभ्यता में भी ज्यादा हैं यू.पी.-बिहार के लोग।देश की 25 प्रतिशत आबादी इन दो राज्यों में है।यू.पी-बिहार के लोग हर मामले में क्यों ज्यादा हैं यह तो भगवान ही जाने,लेकिन वे उत्पादक हैं।एक अन्य चीज वह यह कि यू.पी-बिहार के शिक्षक कम हैं जेएनयू में,कर्मचारी भी कम हैं।
    यू.पी.-बिहार लोगों का अनुपात आवेदन की तुलना में क्या है यह तो देखने पर पता लगेगा लेकिन पुराने अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ आवेदन और चयन किए छात्रों में में पश्चिम बंगाल और आंध्र का प्रतिशत ज्यादा था उसके बाद बिहार हुआ करता था। पुरानी अनेक पब्लिक एकाउंट कमेटी की रिपोर्ट में यही आंकड़ा रहा है
    अभी 6500हजार छात्रों में 1500से अधिक संभवतः दिल्ली से हैं,जब हम लोग पढ़ते थे तब 3हजार में 700-800 दिल्ली से थे।
    हम लोगों ने नई दाखिला नीति के लागू किए जाने के पहले 7 साल के आंकड़े जेएनयू में इकट्ठा किए थे। उन दिनों के जेएनयूएसयू के पर्चों में हैं,कई पीएसी रिपोर्ट में भी हैं।

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