हाल ही में बाबा रामदेव का तमाशा खत्म हुआ है उसके पहले अन्ना हजारे का तमाशा देखा था। ये सारे इवेंट टीवी कवरेज को ध्यान में रखकर किए जा रहे हैं। इनमें मसले से ज्यादा महत्वपूर्ण प्रचार अभियान और मीडिया कवरेज। टीवी चैनलों की बाढ़ ने हमें नागरिक की बजाय तमाशबीन बना दिया है।
बाबा रामदेव को कल पुलिस ने रामलीला मैदान के अनशन स्थल पर जाकर गिरफ्तार कर लिया। बाबा की गिरफ्तारी के लिए पुलिस को जमकर लाठीचार्ज करना पड़ा और आंसू गैस के गोले भी छोड़ने पड़े। बाबा की कानूनभंजक राजनीति का इससे बेहतर अंत नहीं हो सकता था।बाबा रामदेव के आंदोलन का पहला निष्कर्ष है कि यह नियोजित आंदोलन था। दूसरा, किसी आंदोलन के संदर्भ में संचार क्रांति के टांय-टांय फिस्स के
आदर्श के रूप में इस घटना को जाना जाएगा। तीसरा. पापुलिज्म और फेकनेस बहुत ज्यादा समय तक बने नहीं रहते। चौथा,फेक और नेक में हमें अंतर करने की समझ पैदा करनी चाहिए।पांचवां, संघ परिवार अपनी राष्ट्रतोड़क-अराजक राजनीति में प्रच्छन्न ढ़ंग से सक्रिय है। छठा, सत्ता यदि साम्प्रदायिक ताकतों के प्रति सख्ती से पेश आए तो वे भाग खड़े होते हैं। सातवां,बाबा के 50 हजार के जमावड़े को पुलिस
ने जिस कौशल से मात्र डेढ़ घंटे में रामलीला मैदान से भगा दिया उससे यह भी पता चलता है कि बाबा आंदोलन के नाम पर सरल-सीधे लोगों को ,बहला-फुसलाकर ले आए थे। इन लोगों ने कोई खास प्रतिवाद नहीं किया।आठवां, दिल्ली पुलिस ने इतने बड़े जमाबड़े को न्यूनतम लाठीचार्ज-आंसूगैस के गोले छोड़कर घटनास्थल से हटाकर भीड़ नियंत्रण की नयी मिसाल कायम की है।नौ,पुलिस एक्शन के कवरेज को कारपोरेट मीडिया में जमकर सेंसर किया गया है,पुलिस बर्बरता के दृश्य गायब हैं। ये सारा कारोबार तमाशबीनों के नजारे की तरह है।तमाशबीन की तरह देखना आधुनिक पूंजीवादी समाज का लक्षण है। यह ऐसा समाज है जहां प्रतीक (साइन) की जगह हम व्यंजित को देखते हैं। मौलिक की नकल करते हैं। यथार्थ के प्रतिनिधि होने का दावा करते हैं। असल में हम जो कुछ देख रहे हैं वह सब कल्पना है,विभ्रम है। कल्पना एक जमाने में आनंद देती थी इन दिनों भय पैदा करती है। सत्य दुर्लभ होता जा रहा है और कल्पना का विस्तार हो रहा है। पूंजीवादी समाज में जितना कल्पना का विस्तार होता है उसी मात्र में भय का विस्तार भी होता है। भय और कल्पना की इस अन्तर्क्रिया ने समूची सामाजिक चेतना को आच्छादित कर लिया है। फलतः सत्य छोटा हो गया है और कल्पना बड़ी हो गयी हैं।आज भारत में उत्पादन के आधुनिक साधनों का वर्चस्व है। उत्पादन के आधुनिक उपकरणों का वर्चस्व ही है जो हम सबको तमाशबीन बना रहा है। इसके कारण बड़े पैमाने पर नजारे देखने को मिलते हैं। अब हम जो कुछ देखते हैं वह सब इमेजों में देखते हैं,इमेजों के जरिए ही समाज समझते हैं। अब व्यक्ति का नहीं इमेजों को देखते हैं। जिन इमेजों को देखते हैं उनका सामान्य जीवन से कोई संबंध नहीं
होता।फलतःजीवन की एकीकृत धारणा भी नहीं बना पाते। जीवन में चीजों के बीच अन्तस्संबंध नहीं बना पाते। यथार्थ हमेशा अधखुला नजर आता है। यथार्थ अपनी आंतरिक एकता से कटा नजर आता है। जिस दुनिया को देखते हैं वह छद्म होती है। जिन वस्तुओं को देखते हैं वे उलझन पैदा करती हैं। जब इमेजों के संसार में विशिष्टिकृत इमेजों को रच लेते हैं तो इमेजों का स्वायत्त संसार पूर्णता प्राप्त कर लेताहै। जिंदगीरहित चीजें स्वायत्त विचरण करने लगती हैं।
मौजूदा समाज में इमेजों को देखना और उनमें ही जीना सामान्य बात हो गयी हो गयी है। ऐसे में नज़ारे ही प्रमुखता अर्जित कर लेते हैं। इमेज और उनके नजारे ही एकता के सूत्र बन जाते हैं। अब हम नज़ारों को देखते हैं,नज़ारे हमें देखते हैं। एक-दूसरे को देखना ही एकीकरण का मंत्र बन जाता है। नज़ारे ही समाज को जोड़ने का उपकरण बन जाते हैं। समाज में जहां जाओ सब एक-दूसरे को घूर रहे हैं। अब घूरना ही चेतना का निर्धारक तत्व बन गया है। घूरना छद्मचेतना का प्रभावशाली आधार है। वंचित और समर्थ सभी एक-दूसरे को घूर रहे हैं। नज़ारों और घूरने के आधार पर ही हमारी चेतना बन रही है।
हम जब इमेज देखते हैं तो सिर्फ इमेजों को ही नहीं देखते बल्कि इमेजों के जरिए जनता के बीच के सामाजिक संबंधों को देखते हैं। जनता के सामाजिक संबंधों के बीच में सेतु का काम इमेज करती हैं। इमेजों को विज़न के दुरूपयोग के जरिए नहीं समझा जा सकता। बल्कि इमेजों का उत्पादन जनोत्पादन की तकनीक के गर्भ से होता है। हम जिन इमेजों को मीडिया के विभिन्न रूपों के माध्यम से देखते हैं वे सभी सामाजिक वर्चस्व वाले मॉडल का प्रतिनिधित्व करती हैं। अब हमारे सामने तयशुदा चीजें पैदा करके रख दी गयी हैं और हमें अब इनमें से ही चुनना होता है। यह तय है कि किसमें से चुनना है, कितना चुनना है और क्यों चुनना है। यह सब पहले ही निर्धारित है।
नागरिकों को उपलब्ध उत्पादन संबंधों में से ही चुनना होता है। हम जो चुनते हैं वह अवास्तविक होता है,काल्पनिक होता है। जो चुनते हैं वह वास्तव सामाजिक यथार्थ में कुछ भी नया नहीं जोड़ता। इसमें हम सिर्फ जो उपलब्ध कराया जा रहा है उसमें से ही चुनते हैं। उपभोग करते हैं। विचार,प्रचार,विज्ञापन,मनोरंजनआदि का उभोग करते हुए सामाजिक वर्चस्व का ही उपभोग करते हैं। फलतः सामाजिक वर्चस्व का हिस्सा मात्र बनकर रह जाते हैं। हम जिन नज़ारों को देखते हैं वे रूप और अन्तर्वस्तु में मौजूदा व्यवस्था की वैधता को ही हमारे ज़ेहन में उतारते हैं। मौजूदा व्यवस्था के लक्ष्य और परिस्थितियों की वैधता को पुष्ट करते हैं। नज़ारे हमारे मन में व्यवस्था के लक्ष्य और परिस्थितियों के प्रति स्थायी वैधता पैदा करते हैं।
चतुर्वेदी जी ,आज के तमाम दुरभिसंधियों ,विपर्ययों ,विडम्बनाओं और अभावों के परिवेश में अगर प्रौद्योगिकी हमें फंतासी में रख रही है तो क्या यह एक निर्वाण पथ नहीं है ? लेख अच्छा लगा!
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