शनिवार, 27 अप्रैल 2013

अस्मिता,आम्बेडकर और रामविलास शर्मा


रामविलास शर्मा के लेखन में अस्मिता विमर्श को मार्क्सवादी नजरिए से देखा गया है। वे वर्गीय नजरिए से जातिप्रथा पर विचार करते हैं। आमतौर पर अस्मिता साहित्य पर जब भी बात होती है तो उस पर हमें बार-बार बाबासाहेब के विचारों का स्मरण आता है। दलित लेखक अपने तरीके से दलित अस्मिता की रक्षा के नाम बाबा साहेब के विचारों का प्रयोग करते हैं। दलित लेखकों ने जिन सवालों को उठाया है उन पर बड़ी ही शिद्दत के साथ विचार करने की आवश्यकता है। आम्बेडकर-ज्योतिबा फुले का महान योगदान है कि उन्होंने दलित को सामाजिक विमर्श और सामाजिक मुक्ति का प्रधान विषय बनाया।

अस्मिता विमर्श का एक छोर महाराष्ट्र के दलित आंदोलन और उसकी सांस्कृतिक प्रक्रियाओं से जुड़ा है ,दूसरा छोर यू.पी-बिहार की दलित राजनीति और सांस्कृतिक प्रक्रिया से जुड़ा है। अस्मिता विमर्श का तीसरा आयाम मासमीडिया और मासकल्चर के राष्ट्रव्यापी उभार से जुड़ा है। इन तीनों आयामों को मद्देनजर रखते हुए अस्मिता की राजनीति और अस्मिता साहित्य पर बहस करने की जरूरत है।

अस्मिता के सवाल आधुनिकयुग की देन हैं। आधुनिक युग के पहले अस्मिता की धारणा का जन्म नहीं होता। आधुनिककाल आने के साथ व्यक्तिगत को सामाजिक करने और अपने अतीत को जानने-खोजने का जो सिलसिला आरंभ हुआ उसने अस्मिता विमर्श को संभव बनाया।

अस्मिता राजनीति में विगत 150 सालों में व्यापक परिवर्तन हुए हैं।खासकर नव्य आर्थिक उदारीकरण और उपग्रह मीडिया प्रसारण आने बाद परिवर्तनों का सिलसिला तेज हुआ है। खासकर उत्तर आधुनिकतावाद आने के साथ सारी दुनिया में उत्तर आधुनिक अस्मिता की धारणा का तो बबंडर ही चल निकला।मसलन् अस्मिता निर्माण के उपरकरणों के रूप में मोबाइल,आई पोड,मर्दानगी आदि पर जमकर चर्चाएं हुई हैं।

उत्तर आधुनिकता के साथ आई अस्मिता ने सेल्फ (निज ) के तरल, विखंडित, विश्रृंखलित,अ-केन्द्रित, अवसादमय, वर्णशंकर, रूपों को जन्म दिया। उत्तर आधुनिक अस्मिता का अर्थ है तर्क,सत्य,प्रगति और सार्वभौम स्वतंत्रता वाले आधुनिक आख्यान का अंत। इन दिनों अस्मिता के छोटे छोटे आख्यान केन्द्र में आ गए हैं। स्त्री से लेकर दलित तक,भाषा से लेकर संस्कृति तक, साम्प्रदायिकता, पृथकतावाद, राष्ट्रवाद आदि तक अस्मिता की राजनीति का विमर्श फैला हुआ है।

आखिरकार आधुनिक युग में अछूत कैसे जीएंगे हम नहीं जानते थे। हम कबीर को जानते थे,रैदास को जानते थे। ये हमारे लिए कवि थे। साहित्यकार थे। संत थे। किंतु ये अछूत थे और इसके कारण इनका संसार भिन्न किस्म का था यह सब हम नहीं जानते थे। अछूत की खोज आधुनिकयुग की महानतम सामाजिक उपलब्धि है।

अछूत के उद्धाटन के बाद पहलीबार देश के विचारकों को पता चला वे भारत को कितना कम जानते हैं। भारत एक खोज को अछूत की खोज ने ढंक दिया। आज भारत एक खोज सिर्फ किताब है, सीरियल है,एक प्रधानमंत्री के द्वारा लिखी मूल्यवान किताब है। इस किताब में भी अछूत गायब है। उसका इतिहास और अस्तित्व गायब है। आंबेडकर ने भारत को सभ्यता की मीनारों पर चढ़कर नहीं देखा बल्कि शूद्र के आधार पर देखा। शूद्र के नजरिए से भारत के इतिहास को देखा, शूद्र की संस्कृतिहीन अवस्था के आधार पर खड़े होकर देखा। इसी अर्थ में आंबेडकर की अछूत की खोज आधुनिक भारत की सबसे मूल्यवान खोज है।

भारत एक खोज से सभ्यता विमर्श सामने आया,अछूत खोज ने परंपरा और इतिहास की असभ्य और बर्बरता की परतों को खोला। आंबेडकर इस अर्थ में सचमुच में बाबासाहेब हैं कि उन्होंने भारत के आधुनिक एजेण्डे के रूप में अछूत को प्रतिष्ठित किया। आधुनिक युग की सबसे जटिल समस्या के रूप में अछूत समस्या को पेश किया।

आधुनिकाल में किसी के लिए स्वाधीनता,किसी के लिए समाजसुधार, किसी के लिए औद्योगिक विकास , किसी के लिए क्रांति और साम्यवादी समाज से जुड़ी समस्याएं प्रधान समस्या थीं किंतु आंबेडकर ने इन सबसे अलग अछूत समस्या को प्रधान समस्या बनाया।

अछूत समस्या पर बातें करने ,पोजीशन लेने का अर्थ था अपने बंद विचारधारात्मक कैदघरों से बाहर आना। जो कुछ सोचा और समझा था उसे त्यागना। अछूत और उसकी समस्याओं पर संघर्ष का अर्थ है पहले के तयशुदा विचारधारात्मक आधार को त्यागना और अपने को नए रूप में तैयार करना। अछूत समस्या से संघर्ष किसी क्रांति के लिए किए गए संघर्ष से भी ज्यादा दुष्कर है। आधुनिककाल में क्रांति संभव है,आधुनिकता संभव है,औद्योगिक क्रांति संभव है किंतु आधुनिक काल में अछूत समस्या का समाधान तब ही संभव है जब मानवाधिकार के प्रकल्प को आधार बनाया जाए।

बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर के बारे में रामविलास शर्मा ने जिस नजरिए से विचार किया है उसके आधार पर अस्मिता की राजनीति को समझने में हमें मदद मिल सकती है। इस प्रसंग में रामविलास शर्मा की 'गाँधी,आम्बेडकर ,लोहिया और इतिहास की समस्याएँ' (2000) किताब बेहद महत्वपूर्ण है।

सामंतवाद,साम्राज्यवाद ,क्रांति,आधुनिकता,औद्योगिक क्रांति इन सबका आधार मानवाधिकार नहीं हैं। बल्कि किसी न किसी रूप में इनमें मानवाधिकारों का हनन होता है। अछूत समस्या मानवीय समस्या है इसके खिलाफ संघर्ष करने का अर्थ है स्वयं के खिलाफ संघर्ष करना और इससे हमारा बौध्दिकवर्ग, राजनीतिज्ञ और मध्यवर्ग भागता रहा है। ये वर्ग किसी भी चीज के लिए संघर्ष कर सकते हैं किंतु अछूत समस्या के लिए संघर्ष नहीं कर सकते। अछूत समस्या अभी भी मध्यवर्ग और पूंजीपतिवर्ग के चिन्तन को स्पर्श नहीं करती। अछूत समस्या को वे महज घटना के रूप में दर्शकीय भाव से देखते हैं। अछूत समस्या न तो घटना है और न परिघटना और न संवृत्ति ही है। बल्कि मानवीय समस्या है मानवाधिकार की समस्या है। मानवाधिकारों के विकास की समस्या है। हमारे समाज में मानवाधिकारों के विकास को लेकर जितनी जागृति पैदा होगी अछूत समस्या उतनी ही कम होती जाएगी। जिस समाज में मानवाधिकारों का अभाव होगा वहां पर अछूत समस्या,बहिष्कार की समस्या उतनी प्रबल रूप में नजर आएगी।

रामविलास शर्मा ने लिखा है '' भारत में वर्ग हैं, जाति बिरादरी हैं।दोनों यथार्थ हैं। परंतु वर्ग ऐसा य़थार्थ है जो जीवंत है,जो आगे बढ़ रहा है और जाति बिरादरी ऐसा यथार्थ है जो मर रहा है और पिछड़ रहा है। आम्बेडकर ने कहा थाः जब परिवर्तन आरंभ होता है,तब सदा पुराने पुराने और नए के बीच संघर्ष होता है। नए का समर्थन न किया जाए तो यह खतरा बना रहता है कि वह इस संघर्ष में निरस्त कर दिया जाएगा।"[1]

रामविलास शर्मा ने आम्बेडकर की विश्वदृष्टि की खोज करते हुए रेखांकित किया कि उनके दृष्टिकोण का आधार वर्ग हैं।मजदूरवर्ग है। न कि जाति। उन्होंने लिखा है, " यदि इस समय अभ्युदयशील वर्गों का समर्थन न किया गया, जाति-बिरादरी का समर्थन किया गया, तो यह संभव है,जाति-बिरादरी बनी रहे और वर्गों की भूमिका पीछे छूट जाए। जाति-बिरादरी के भेद वर्गों के संगठन और वर्ग संघर्ष द्वारा ही संभव किए जा सकते हैं।आम्बेडकर ने कहा था,मजदूरवर्ग को मार्गदर्शक की भूमिका निभानी चाहिए। उन्होंने यह भी कहा थाःमजदूरों को केवल अपने संघ कायम करने से संतोष नहीं करना चाहिए उन्हें घोषित करना चाहिए कि उनका उद्देश्य शासन-तंत्र पर अधिकार करना है।"[2] दुखद बात यह है कि आम्बेडकर की वर्गीय दृष्टि की बजाय अस्मिता की राजनीति करने वालों ने जाति और वर्ण के बारे में लिखी बातों को अपना लिया है और बाकी सारी बातों को त्याग दिया है।

भारतीय समाज में शूद्र सिर्फ अछूत नहीं है। बल्कि गुमशुदा भी है। हम उसे कम से कम जानते हैं। हम उसे देखकर भी अनदेखा करते हैं। उसका कम से कम वर्णन करते हैं। अछूतों के जीवन के व्यापक ब्यौरे तब ही आए जब हमें आधुनिककाल में ज्योतिबा फुले और आंबेडकर जैसे प्रतिभाशाली विचारक मिले। यह सोचने वाली चीज है कि आंबेडकर ने जाति व्यवस्था के मर्म का उद्धाटन करते हुए जितने विस्तार के साथ अछूतों की पीड़ा को सामने रखा और उससे मुक्त होने के लिए सामाजिक-राजनीतिक प्रयास आरंभ किए वैसे प्रयास पहले कभी नहीं हुए।

आधुनिककाल के पहले शूद्र हैं किंतु अनुपस्थित और अदृश्य हैं। जातिव्यवस्था है किंतु जातिव्यवस्था के अनुभव गायब हैं। जाति सिर्फ मनोवैज्ञानिक चीज नहीं है। उसका ठोस आर्थिक आधार है। जाति के ठोस आर्थिक आधार को बदले बगैर जाति की संरचनाओं को बदलना संभव नहीं है। संत और भक्त कवियों के यहां जाति एक मनोदशा के रूप में दाखिल होती है। मनोदशा के धरातल पर ही ईश्वर सबका था और सब ईश्वर के थे। भक्ति में भेदभाव नहीं था। भक्ति का सर्वोच्च रूप वह था जो मनसा भक्ति से जुड़ा था। वास्तविकता इसके एकदम विपरीत थी। ईश्वर और धर्म की सत्ता के वर्चस्व के कारण भेद और वैषम्य के सभी समाधान मनोदशा के धरातल पर ही तलाशे गए। मन में ही सामाजिक समस्याओं के समाधान तलाशे गए। सामाजिक यथार्थ से भक्त कवियों का लगाव एकदम नहीं था। यही वजह है कि वे जातिभेद के सामाजिक रूपों को देखने में असमर्थ रहे। इस कमजोरी के बावजूद भक्तकवियों ने जातिभेद के खिलाफ मनोदशा के स्तर पर संघर्ष करके कम से कम सामंजस्य का वातावरण तो बनाया। यह दीगर बात है कि सामंजस्य के पीछे वर्चस्वशाली वर्गों की हजम कर जाने की मंशा काम कर रही थी। उल्लेखनीय है सामंजस्य की बात तब उठती है जब अन्तर्विरोध हों, टकराव हो,तनाव हो। वरना सामंजस्य पर इतना जोर क्यों ?

अनेक विचारक वर्णभेद को नस्लभेद के रूप में चित्रित करते हैं। इस चित्रण को बड़े ही चलताऊ ढ़ंग से साहित्य में इस्तेंमाल किया जा रहा है। आम्बेडकर के नजरिए की पहली विशेषता है कि वे वर्णव्यवस्था को नस्लभेद के पैमाने से नहीं देखते।[3] दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि आम्बेडकर की चिंतन-प्रक्रिया स्थिर या जड़ नहीं थी ,वे लगातार अपने विचारों का विकास करते हैं। विचारों की विकासशाल प्रक्रिया के दौरान ही हमें उस विकासशील सत्य के भी दर्शन होंगे जो वे बताना चाहते थे। आम्बेडकर के विचारों को निरंतरता या गतिशीलता के आधार पर पढ़ना चाहिए। आमतौर पर हम यह मानते हैं कि आर्य एक जाति थी,नस्ल थी। आमेहेडकर ने इस धारणा का खंडन किया है। आर्य एक समुदाय था। "आम्बेडकर ने लिखाः आर्य एक जन समुदाय का नाम है। जो चीज उन्हें आपस में बैंधे हुए थी,वह एक विशेष संस्कृति,जो आर्य संस्कृति कहलाती थी,को सुरक्षित रखने में उनकी दिलचस्पी थी। जो भी आर्य संस्कृति स्वीकार करता था,वह आर्य था।आर्य नाम की कोई नस्ल नहीं थी।"[4] आम्बेडकर ने यह भी लिखा है कि " आर्यों में रंग संबंधी द्वेषभाव था जिससे उनकी समाज व्यवस्था निर्धारित हुई,यह बात निहायत बेसिर-पैर की है।यदि कोई ऐसा जन-समुदाय था जिसमें रंग सम्बन्धी द्वेषभाव का अभाव था तो वह आर्यों का समुदाय था और ऐसा इसलिए कि उनमें कोई ऐसा रंग प्रधान नहीं था जिससे वे अलग पहचाने जाते।"[5]

भीमराव आम्बेडकर ने इस धारणा का भी खंडन किया है कि दस्यु लोग अनार्य थे।[6] वे यह भी नहीं मानते कि आर्य भारत के बाहर से आए थे। वे यह भी मानते हैं कि शूद्र भी आर्य हुआ करते थे।

भीमराव आम्बेडकर ने सन् 1946 में 'शूद्र कौन थे ?' ( हू वेयर द शूद्राज ) नामक किताब लिखी। इस किताब में पश्चिमी विद्वानों की तमाम धारणाओं का उन्होंने खंडन किया। " आम्बेडकर ने इन विद्वानों की 7 मुख्य स्थापनाएँ प्रसुत की हैः 1. जिन लोगों ने वैदिक साहित्य रचा था, वे आर्य नस्ल के थे। 2. यह आर्य नस्ल बाहर से आई थी और उसने भारत पर आक्रमण किया था ।3. भारत के निवासी दास और दस्यु के रूप में जाने जाते थे और ये आर्यों से नस्ल के विचार से भिन्न थे।4. आर्य श्वेत नस्ल के थे, दास और दस्यु काली नस्ल के थे।5. आर्यों ने दासों और दस्युओं पर विजय प्राप्त की।6.दास और दस्यु विजित होने के बाद दास बना लिए गए और शूद्र कहलाए।7. आर्यों में रंगभेद की भावना थी और इसलिए उन्होंने चातुर्वर्ण्य का निर्माण किया। इसके द्वारा उन्होंने श्वेत नस्ल को काली नस्ल से, यथा दासों और दस्युओं से अलग किया। आगे आम्बेडकर ने इन सातों स्थापनाओं का खंडन किया।"[7] इन सभी मतों का इन दिनों प्राच्यवादी पश्चिमी विचारक खूब प्रचार कर रहे हैं।इन विचारों से हिंदी लेखकों का एक तबका भी प्रभावित है।

रामविलास शर्मा ने सवाल उठाया है कि शूद्र अनार्य नहीं थे तो वे कौन थे ? इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने आम्बेडकर के विचारों का निचोड़ पेश करते हुए लिखा है, " इस प्रश्न के उत्तर में आम्बेडकर की तीन स्थापनाएँ हैः (1) शूद्र आर्य थे।(2) शूद्र क्षत्रिय थे। (3) क्षत्रियों में शूद्र ऐसे महत्वपूर्ण वर्ग के थे कि प्राचीन आर्य समुदायों के कुछ सबसे प्रसिद्ध और शक्तिशाली राजा शूद्र हुए थे।"[8]

रामविलास शर्मा ने आम्बेडकर का मूल्यांकन करते हुए अनेक महत्वपूर्ण धारणाएं दी हैं। ये अवधारणाएं अनेक मामलों में आम्बेडकर के चिंतन से भिन्न मार्क्सवादी नजरिए को व्यक्त करती हैं। रामविलास शर्मा ने लिखा है, " आम्बेडकर के विचार से हिंदुओं का जो साहित्य पवित्र या धार्मक कहलाता है,वह प्रायःसबका सब ब्राह्मणों का रचा हुआ है।ब्राह्मण विद्वान् उसका आदर करें, यह स्वाभाविक है।उसी तरह अब्राह्मण विद्वान उसके प्रति आदर प्रकट न करें, यह भी स्वाभाविक है। यहाँ ब्राह्मण और अब्राह्मण का भेद करने के बदले पुरोहित और अपुरोहित का भेद करना उचित होगा। बहुत से ब्राह्मणों ने पुरोहित वर्ग के विरुद्ध साहित्य रचा है।इसके सिवा प्राचीन साहित्य का कुछ अंश क्षत्रियों का रचा हुआ भी है।और जो सबसे पवित्र ग्रंथ ऋग्वेद है,उसे रचने वाले सामंती व्यवस्था के ब्राह्मण थे,इसका कोई प्रमाण नहीं है। ब्राह्मण और क्षत्रिय जब अवकाशभोगी वर्ग बनते हैं,तब उत्पादन से उनका संबंध टूट जाता है। अपने से भिन्न श्रमिक वर्ग के बिना वे अवकाश में जीवन बिता नहीं सकते। ऋग्वेद में शूद्र शब्द केवल एक बार पुरूष सूक्त में आया है और वह सूक्त बाद में जोडा गया है,यह बहुत से लोगों की मान्यता है।यदि ऋग्वेद में शूद्र नहीं हैं, तो उस में ब्राह्मण और क्षत्रिय भी नहीं हैं।"[9]

रामविलास शर्मा इस धारणा का भी खंडन किया है कि साहित्य का उदभव किसी धार्मिक पाठ से हुआ है। वे मानते हैं कि साहित्य का उदभव लौकिक या सेक्युलर होता है। इस मिथ का भी खंडन किया है कि प्राचीनकाल में ब्राह्णणों की प्रधानता थी। उनका मानना है कि " भारयीय समाज में पहले क्षत्रियों की प्रधानता थी,ब्राह्मणों की नहीं,यह उस साहित्य से प्रमाणित होता है जिसे ब्राह्मणों का रचा हुआ माना जाता है।" [10]

रामविलास शर्मा ने यह भी लिखा है कि रामायण,महाभारत के नायक क्षत्रिय माने गए हैं।किसी भी प्राचीन महाकाव्य का नायक ब्राह्मण नहीं है। यही नहीं, महाभारत में धर्म और ज्ञान का उपदेश देने वाले अब्राह्मण ही हैं। युधिष्ठिर को धर्म और राजनीति की बातें भीष्म समझाते हैं और अर्जुन को दर्शन और धर्म का ज्ञान कृष्ण देते हैं। महाभारत में एक प्रसिद्ध ब्राह्मण है द्रोणाचार्य। वह राजकुमारों को धनुर्विद्या सिखाते हैं और युद्ध में सेनापति का कार्य करते हैं।इन कथाओं में शस्त्रयुक्त क्षत्रिय और शस्त्रविहीन ब्राह्मण वर्गों का अस्तित्व नहीं है।"[11]

बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर ने शूद्रों के बारे में प्रचलित मतों का खंडन करते हुए लिखा "शूद्रों के लिए कहा जाता है कि वे अनार्य थे,आर्यों के शत्रु थे।आर्यों ने उन्हें जीता था और दास बना लिया। ऐसा था तो यजुर्वेद और अथर्ववेद के ऋषि शूद्रों के लिए गौरव की कामना क्यों करते हैं ? शूद्रों का अनुग्रह पाने की इच्छा प्रकट क्यों करते हैं ?शूद्रों के लिए कहा जाता है कि उन्हें वेदों के अध्ययन का अधिकार नहीं है। ऐसा था तो शूद्र सुदास् ऋग्वेद के मंत्रों के रचनाकार कैसे हुए ? शूद्रों के लिए कहा जाता है, उन्हें यज्ञ करने का अधिकार नहीं है। ऐसा था तो सुदास् ने अश्वमेध कैसे किया ?शतपथ ब्राह्मण शूद्र को यज्ञकर्ता के रूप में कैसे प्रस्तुत करता है ? और उसे कैसे सम्बोधन करना चाहिए,इसके लिए शब्द भी बताता है।शूद्रों के लिए कहा जाता है कि उन्हें उपनयन संस्कार का अधिकार नहीं है।यदि आरंभ में ऐसा था तो इस बारे में विवाद क्यों उठा ? बदरि और संस्कार गणपति क्यों कहते हैं कि उसे उपनयन का अधिकार है? शूद्र के लिए कहा जाता है कि वह संपत्ति संग्रह नहीं कर सकता।ऐसा था तो मैत्रायणी और कठक संहिताओं में धनी और समृद्ध शूद्रों उल्लेख कैसे है ? शूद्र के लिए कहा जाता है कि वह राज्य का पदाधिकारी नहीं हो सकता। ऐसा था तो महाभारत के राजाओं के मंत्री शूद्र थे,ऐसा क्यों कहा गया ? शूद्र के लिए कहा जाता है कि सेवक के रूप में तीनों वर्णों की सेवा करना उसका काम है। यदि ऐसा था तो शूद्र राजा कैसे हुए जैसा कि सुदास् के उदाहरण से,तथा सायण द्वारा दिए गए अन्य उदाहरणों से मालूम होता है।"[12]

आधुनिकाल आने के बाद पहलीबार ईश्वर की विदाई होती है। धर्म के वैचारिक आवरण के बाहर पहलीबार मनुष्य झांकता है। उसे सारी दुनिया और अपनी परंपराएं, सामाजिक यथार्थ वास्तव रूप में दिखाई देता है और उसकी वास्तव रूप में ही अभिव्यक्ति भी करता है। आधुनिककाल में दुख पहले गद्य में अभिव्यक्त होता है। मध्यकाल में दुख पद्य में अभिव्यक्त होता है। दुख और अन्तर्विरोध की अभिव्यक्ति गद्य में हुई या पद्य में इससे भी दुख के संप्रेषण की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। मध्यकाल में मनुष्य अपने दुख और पिछडेपन के लिए भाग्य को दोष देता था,पुनर्जन्म के कर्मों को दोष देता था,ईश्वर की कृपा को दोषी ठहराता था। किंतु आधुनिक युग में मनुष्य को पहलीबार अपने दुख और कष्ट के कारण के तौर पर शिक्षा का अभाव सबसे बड़ी चीज नजर आती है। यही वजह है कि शूद्रों में सामाजिक समानता,उन्नति के मंत्र के तौर पर शिक्षा को प्राथमिक महत्व पहलीबार ज्योतिबा फुले ने दिया। सन् 1948 में पुणे में फुले ने एक पाठशाला खोली, यह शूद्रों की पहली पाठशाला थी। भारत के ढाई हजार साल के इतिहास में शूद्रों की यह पहली पाठशाला थी। असल में पाठशाला तो प्रतीकमात्र है उस आने वाले तूफान का जो ज्योतिबा फुले महसूस कर रहे थे।

सन् 1848 में शूद्रों की शिक्षा का आरंभ करके कितना बड़ा क्रांतिकारी कार्य किया था यह बात आज कोई नहीं समझ सकता। उस समय शूद्रों को पढ़ाने के लिए शिक्षक नहीं मिलते थे अत: ज्योतिबा फुले ने अपनी अशिक्षित पत्नी को सुशिक्षित कर अध्यापिका बना दिया। इस उदाहरण में अनेक अर्थ छिपे हैं। पहला अर्थ यह कि शूद्रों के साथ अतीत में सबकुछ अच्छा नहीं होता रहा है। भारत का अतीत जाति सामंजस्य की बजाय जातीय घृणा के आधार पर टिका हुआ था। जातीय घृणा के कारण शूद्रों के लिए स्वतंत्र शिक्षा की व्यवस्था करनी पड़ी। दूसरा अर्थ यह संप्रेषित होता है कि शूद्र सामाजिक तौर पर अति पिछडे थे। तीसरा अर्थ यह कि भारत में शूद्रों के पठन-पाठन की परंपरा ही नहीं थी। सामंजस्य और भक्ति के नाम पर सामाजिकभेदों से जुड़ी सभी चीजों को छिपाया हुआ था। यही वजह है कि शूद्रों के लिए शिक्षा की व्यवस्था की शुरूआत की गई तो चारों ओर जबर्दस्त हंगामा हुआ।

आधुनिककाल में पहलीबार शूद्रों को यह बात समझाने में ज्योतिबा फुले को सफलता मिली कि मनुष्य के अस्तित्व की पहचान शिक्षा से होती है। शिक्षा के अभाव में मनुष्य पशु समान होता है। शूद्रों के लिए शिक्षा का अर्थ वही नहीं था जो सवर्णों के लिए था। शूद्रों के लिए शिक्षा अस्तित्वरक्षा, स्वाभिमान, आत्मनिर्भरता और आत्मोध्दार के साथ अस्मिता की स्थापना का उपकरण भी थी। यही वजह है कि शिक्षा का शूद्रों में जितना प्रसार हुआ है अस्मिता की राजनीति का भी उतना ही प्रसार हुआ है।

ज्योतिबाफुले -आंबेडकर के द्वारा शुरू की गई अस्मिता की राजनीति विदेश से लायी गई चीज नहीं है। साम्राज्यवादी साजिश का अंग नहीं है। बल्कि यह तो भारत के संतुलित विकास के परिप्रेक्ष्य के गर्भ से उपजी राजनीति है। इसका आयातित अस्मिता की मौजूदा राजनीति के साथ तुलना करना सही नहीं होगा। शूद्रों की शिक्षा का लक्ष्य था, सामाजिक भेदभाव को खत्म करना, मानवाधिकारों के प्रति सचेतनता पैदा करना और समानता को व्यापक मूल्य के रूप में स्थापित करना।

आम्बेडकर ने अछूत के रूप में जिन जातियों को रखा उनका चयन अंग्रेजों ने किया था।सन् 1935 के कानून में उन जातियों की सूची बना दी गयी जिनको अनुसूचित जातियां कहा जाता है। इस तरह के वर्गीकरण पर रामविलास शर्मा ने लिखा है "अछूत हमेसा अचूत बने रहें,यह स्थिति अंग्रेज पक्की कर रहे थे।"[13] अछूतप्रथा से हिंदुओं को आर्थिक लाभ था और यह धर्म पर आधारित थी। आम्बेडकर का मानना था कि हिंदू सामाजिक गठन की विशेषता है और वह अन्य सभी जन समुदायों से हिन्दुओं को अलग करती है।[14]

अछूत समस्या हमारे देश में कई हजार सालों से है। किंतु इसके खिलाफ कभी सामाजिक आंदोलन नहीं हुए। आखिरकार क्या कारण है कि भारत में विगत ढाई हजार सालों में कभी क्रांति नहीं हुई ? क्या अछूत समस्या को खत्म किए बगैर क्रांति संभव है ? क्या वजह है कि आधुनिककाल में ही अछूत समस्या के खिलाफ सामाजिक आंदोलन संभव हो पाया ? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या भारत में जातिभेद खत्म हो सकता है ? इन सभी सवालों का एक-दूसरे के साथ गहरा संबंध है।

भारत में जातिव्यवस्था के खिलाफ क्रांति अथवा सामाजिक क्रांति न हो पाने के तीन प्रधान कारण हैं , पहला ,अंधविश्वासों में आस्था,दूसरा ,पुनर्जन्म की धारणा में विश्वास और तीसरा ,कर्मफल के सिध्दान्त के प्रति विश्वास। इन तीन विचारधारात्मक बाधाओं के कारण भारत में सामाजिक क्रांति नहीं हो पायी। अंधविश्वासों में आस्था के कारण हमने कभी जातिभेद क्यों है ? गरीब गरीब क्यों है और अमीर अमीर क्यों है ? क्या पीपल के पेड़ को पूजने से मनोकामना पूरी होती है ? क्या साहित्य में जो रूढ़ियां चलन में हैं वे वास्तव में भी हैं ? इत्यादि चीजों को यथार्थ में कभी परखा नहीं। हम यही मानकर चलते रहे हैं कि मनुष्य गरीब इसलिए है क्योंकि पहले जन्म में कभी बुरे कर्म किए थे। उसका ही फल है कि इस जन्म में गरीब है। अमीर इसलिए अमीर है क्योंकि वह पहले जन्म में पुण्य करके आया है।

अच्छे कर्म करोगे अच्छे घर में जन्म लोगे। बुरे कर्म करोगे नीच कुल में जन्म होगा। निचली जाति में उन्हीं लोगों का जन्म होता है जिन्होंने पहले बुरे कर्म किए थे। निचली जातियों को नरक के प्रतीक के रूप में चित्रित किया गया और एक नए किस्म के प्रचार अभियान की शुरूआत हुई। इससे जातिभेद को वैधता मिली। कर्मफल के सिध्दान्त की सबसे बड़ी किताब है श्रीमद्भगवतगीता इसके आधार पर कर्मफल के सिध्दान्त को खूब प्रचारित किया गया। कर्म किए जा फल की चिन्ता मत कर। उल्लेखनीय है गीता को आदर्श दार्शनिक किताब के रूप में तिलक से लेकर गांधी तक सभी ने प्रधानदर्जा दिया था। गीता आज भी मध्यवर्ग की आदर्श किताब है।

उल्लेखनीय है कि बाबासाहेब आंबेडकर ने जातिप्रथा को इन तीनों विचारधारात्मक बाधाओं के दायरे बाहर निकालकर पेश किया। संभवत: बाबासाहेब अकेले बड़े स्वाधीनतासेनानी थे जिनकी कर्मफल के सिध्दान्त,पुनर्जन्म और अंधविश्वासों में आस्था नहीं थी। यदि इन तीनों चीजों में आस्था रही होती तो अछूत समस्या को राष्ट्रीय समस्या बनाना संभव ही न होता। कहने का तात्पर्य यह है अछूत समस्या से मुक्ति के लिए, जातिप्रथा से मुक्ति के लिए चार प्रमुख कार्य किए जाने चाहिए।

पहला- अंधविश्वासों के खिलाफ जंग।

दूसरा- पुनर्जन्म की धारणा के खिलाफ जनजागरण।

तीसरा- कर्मफल के सिध्दान्त के खिलाफ सचेतनता।

चौथा- अछूत जातियों के साथ रोटी-बेटी के संबंध और पक्की दोस्ती।

ये चारों कार्यभार एक-दूसरे से अविच्छिन्न रूप से जुड़े हैं। इनमें से किसी एक को भी त्यागना संभव नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है शिक्षा ,नौकरी अथवा आरक्षण मात्र से अछूत समस्या का समाधान संभव नहीं है। अछूत समस्या को खत्म करने के लिए आमलोगों में खासकर दलितों में विज्ञानसम्मत चेतना का प्रसार करना बेहद जरूरी है। विज्ञानसम्मतचेतना के अभाव में दलित हमेशा दलित रहेगा। उसकी दलितचेतना से मुक्ति नहीं होगी। जातिभेद कभी खत्म नहीं होगा। हमें इस तथ्य पर ध्यान देना चाहिए कि हमारी शिक्षा हमें कितना विज्ञानसम्मत विवेक देती है ? सच यही है कि हमारी शिक्षा में कूपमंडूकता कूटकूटकर भरी पड़ी है। पैंतीस साल के शासन के वाबजूद पश्चिम बंगाल की शिक्षा व्यवस्था में से कूपमंडूकता को पूरी तरह विदा नहीं कर पाए हैं।

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जातिप्रथा एक तरह का पुराने किस्म का सामाजिक अलगाव है। जातिप्रथा को आज नष्ट करने के लिए सामाजिक अलगाव को नष्ट करना बेहद जरूरी है। सामाजिक अलगाव आज के दौर में व्यापक शक्ल में सामने आया है। हम एक-दूसरे के दुख-सुख में साझीदार नहीं बनते। कभी एक-दूसरे के बारे में खबर-सुध नहीं लेते। यही सामाजिक अलगाव पहले जातियों में भी था। खासकर निचली कही जाने वाली जातियों के प्रति सामाजिक अलगाव यकायक पैदा नहीं हुआ। बल्कि इसे पैदा होने में सैंकड़ों साल लगे। सामाजिक अलगाव को अब हमने वैधता प्रदान कर दी है। सामाजिक अलगाव को हम स्वाभाविक मानने लगे हैं। नए युग की विशेषता मानने लगे हैं। नए आधुनिक जीवन संबंधों की अनिवार्य परिणति मानने लगे हैं। सामाजिक अलगाव की अवस्था में जातिभेद और जातिघृणा बढ़ेगी। क्योंकि सामाजिक अलगाव से जातिघृणा को ऊर्जा मिलती है। यह अचानक नहीं है कि सन् 1970 के बाद के वर्षों में पूंजीवादी विकास जितना तेज गति से हुआ है। सामाजिक अलगाव में भी इजाफा हुआ है। जाति संगठनों में भी इजाफा हुआ है। जातिघृणा और जाति संघर्ष बढ़े हैं। जातिघृणा,जातिसंघर्ष और जातिगत तनाव तब ही पैदा होते हैं जब हम अलगाव की अवस्था में होते हैं।

सामाजिक अलगाव पूंजीवादी विकास की स्वाभाविक परिणति है ,इसका सचेत रूप से प्रतिवाद किया जाना चाहिए। अचेत रूप से सामाजिक अलगाव को स्वीकार लेने का अर्थ है आपसी अलगाव में इजाफा। अलगाव खत्म होगा तो संगठन की महत्ताा भी समझ में आती है। सामाजिक शिरकत,सामाजिक साझेदारी, व्यक्तिगत और सामाजिक भावनात्मक विनिमय और आर्थिक सहयोग ये चीजें जितनी बढ़ेंगी उतनी ही भेद की दीवार गिरेगी।

हमें सोचना चाहिए आरक्षण किया,संविधान में संरक्षण दिया, तमाम किस्म के कानून बनाए,सभी दल इन कानूनों के प्रति वचनबध्द हैं,इसके बावजूद जाति उत्पीड़न थमने का नाम नहीं लेरहा। एससी,एसटी का अलगाव कम नहीं हो रहा। उनकी असुरक्षा की भावना कम नहीं हो रही। इस प्रसंग में पश्चिम बंगाल के उदाहरण से समझाना चाहूँगा।यहां पर जातियाँ हैं। जातिभेद भी है। किंतु निचले स्तर पर कम्युनिस्ट पार्टियों के संगठनों का तंत्र इस कदर फैला हुआ है कि आप उसकी परिधि के बाहर जा नहीं सकते। यह तंत्र सामाजिक संपर्क,सामाजिक संबंध और आपसी भाईचारा बनाए रखने और विनिमय का काम करता है। इसका सुफल यह निकला है कि आमलोगों में अभी शिरकत और सहयोग का भाव बचा हुआ है। वे एक-दूसरे के सुख-दुख में सहयोग करते हैं। यही वजह है पश्चिम बंगाल में जातिगत तनाव और जाति संघर्ष नहीं हैं।

जबकि सच यह है आरक्षण यहां कम लागू हुआ है। राजनीति में दलितों का नहीं सवर्णों का बोलवाला है। इसके बावजूद जातिसंघर्ष नहीं हैं। यथासंभव निचली जातियों को जमीन का हिस्सा भी मिला है। संगठन के कारण उनकी आवाज सुनी भी जाती है। इसके कारण उत्पीडन करने की हिम्मत नहीं होती। आंबेडकर ने स्वयं संगठन को महत्ता दी थी, संगठन के तौर पर आदर्श सांगठनिक संरचना कम्युनिस्टों के पास है। मुश्किल यहां से शुरू होती है। कम्युनिस्ट कतारें अभी भी उपरोक्त तीन विचारधारात्मक बाधाओं को नष्ट नहीं कर पायी हैं। अभी भी कम्युनिस्ट कतारों में अंधविश्वासों में आस्था रखने वाले, पुनर्जन्म में विश्वास करने वाले,कर्मफल के सिध्दान्त में विश्वास करने वाले बचे हुए हैं। किंतु इनकी संख्या में तुलनात्मक तौर पर गिरावट आयी है।

किंतु एक चीज जरूर हुई है कि जातिभेद का जितना प्रत्यक्ष तांडव देश के अन्य इलाकों में नजर आता है वैसा यहां नजर नहीं आता। इसका प्रधान कारण है सामाजिक रूप से कम्युनिस्ट संगठनों का सामाजिक संरचनाओं में घुलामिला रहना। आंबेडकर के इस विचार को कि जातिप्रथा को नष्ट करने के लिए जरूरी है कि शूद्रों और गैर शूद्रों में रोटी-बेटी के संबंध हों। यही चीज कमोबेश पश्चिम बंगाल में लागू करने में वामपंथियों को सफलता मिली है। इस अर्थ में वे इस राज्य में सामाजिक क्रांति में एककदम आगे जा पाए हैं। दूसरी बात यह है कि दलितों पर उत्पीडन की घटनाएं इस राज्य में कम से कम होती हैं। यदि कभी दलित उत्पीड़न की कोई घटना प्रकाश में आती है तो प्रशासन से लेकर राजनीतिक स्तर तक ,यहां तक कि मध्यवर्गीय कतारों में भी उसके खिलाफ तीव्र प्रतिक्रिया होती है। यह इस बात का संकेत है कि सामाजिक संवेदनशीलता अभी बची हुई है। अन्य राज्यों में स्थिति बेहद खराब है।

जिस राज्य में दलित मुख्यमंत्री हो,दलित पार्टी का शासन हो,वहां दलित उत्पीडन की घटनाएं रोजमर्रा की बात हो गयी हैं। इन घटनाओं के प्रति आम जनता में संवेदनशीलता कहीं पर भी नजर नहीं आती। क्योंकि उन राज्यों में सामाजिक अलगाव को कम करने का कोई भी प्रयास राजनीतिक दल नहीं करते। बल्कि राजनीतिक लाभ और क्षुद्र सांगठनिक लाभ हेतु सामाजिक अलगाव का इस्तेमाल करते हैं।

एक वाक्य में कहें तो उत्तरप्रदेश,बिहार आदि राज्यों में जातिदलों ने सामाजिक अलगाव को अपनी राजनीतिक पूंजी में तब्दील कर दिया है। वे सामाजिक अलगाव का निहितस्वार्थी लक्ष्यों को अर्जित करने के लिए दुरूपयोग कर रहे हैं। इससे जातिसंघर्ष बढ़े हैं। सामाजिक असुरक्षा बढ़ी है। सामाजिक अस्थिरता बढ़ी है। अछूत समस्या बढ़ी है। अछूत समस्या को खत्म करने के लिए सामाजिक अलगाव को खत्म करना बेहद जरूरी है। सामाजिक अलगाव का राजनीतिक दुरूपयोग बंद करना जरूरी है।

दलित का राजनीतिक दुरूपयोग सामाजिक टकराव और तनावों को बनाए रखता है और विगत साठ सालों में हमारे विभिन्न राजनीतिक दलों ने दलित समस्या के समाधान के नाम पर यही किया है। उनके लिए दलित मनुष्य नहीं है बल्कि वोट है। एक अमूर्त पहचान है। बेजान चीज है। सत्ताा का स्रोत है। यही दलित की आयरनी भी है। अब हम दलित को मनुष्य के तौर पर नहीं वोटबैंक के तौर पर जानते हैं। आरक्षण के नाम से जानते हैं। वोटबैंक और आरक्षण में दलित की पहचान का रूपान्तरण दलित को वर्चुअल बना देता है। दलित का वर्चुअल बनना मूलत: मध्यकाल में लौटना है। वर्चुअल बनने के बाद दलित और भी दुर्लभ हो गया है। हमें दलित को वर्चुअल होने से बचाना होगा। दलित के वर्चुअल बनने का अर्थ है वह है भी और नहीं भी। वर्चुअल दलित मायावती जैसे नेताओं की पूंजी है। ये दोनों एक-दूसरे के चौखटे में फिट बैठते हैं। मायावती के यहां दलित वर्चुअल है। ठोस हाड़मांस का इन्सान नहीं है। यही वजह है दलित की किसी भी समस्या को ठोस रूप में मायावती अपने चुनावी घोषणापत्र में व्यक्त नहीं करती। बल्कि यह कहना सही होगा कि मायावती स्वयं वर्चुअल है। उसने कोई भी ठोस चुनावी घोषणापत्र भी जारी नहीं किया। यही हाल दलितों के मसीहा लालू-मुलायम का है। ये दलितों के हैं और दलितों के नहीं भी हैं। दलित इनके यहां वर्चुअल है और दलित के लिए ये वर्चुअल हैं। कहने का तात्पर्य यह है दलित को वर्चुअल होने से बचाना होगा। दलित के वर्चुअल होने का अर्थ है दलित का लोप । यह एक तरह से बेहद त्रासद और भयावह है।





































रविवार, 14 अप्रैल 2013

पश्चिम बंगाल के माफियातंत्र के सामने बौने लग रहे हैं भद्रलोकनेता

विगत शुक्रवार को प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय में चांसलर और राज्य के राज्यपाल एम.के नारायणन ने छात्रों से कैम्पस में हुई तोड़फोड़ और हिंसा से छात्रों की रक्षा न कर पाने के लिए माफी मांगी। चांसलर का स्वर पीड़ा से भरा था लेकिन वे भरोसा पैदा नहीं कर पा रहे थे।कायदे से मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को माफी मांगनी चाहिए लेकिन यह काम राज्यपाल से कराया गया।


प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय में टीएमसी के कार्यकर्त्ताओं ने बुधवार को प्रतिवाद करते हुए हिंसा का ताण्डव किया ,कैम्पस में गेट का ताला तोड़कर प्रवेश किया,छात्र-छात्राओं पर हमले किए, ऐतिहासिक बेकर लैव में जाकर तोड़फोड़ की। उपकुलपति मालविका सरकार ने इस हिंसक ताण्डव को अपनी आंखों से देखा, रजिस्ट्रार ने पुलिस से हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया लेकिन पुलिस मूकदर्शक बनी रही।


उल्लेखनीय है 9 अप्रैल को दिल्ली में योजना आयोग भवन के अहाते में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनके साहयोगी मंत्रियों के खिलाफ एसएफआई ने प्रदर्शन किया था वे मांग कर रहे थे सुदीप्त गुप्ता की पुलिस कस्टैडी में हुई मौत की न्यायिक जांच करायी जाय, उस समय किन्हीं कारणों से एसएफआई कार्यकर्त्ता उत्तेजित हो गए और उन्होंने ममता बनर्जी और उनके सहयोगी मंत्रियों के साथ धींगामुश्ती की,हमला किया,जिसमें राज्य के वित्तमंत्री के कपड़े फट गए और उनको सिर में चोट भी आई। यह निंदनीय घटना थी और लोकतांत्रिक प्रतिवाद की सभी घोषित प्रतिज्ञाओं का खुला उल्लंघन भी। इस घटना के समय मौके पर आंदोलनकारियों में माकपा का दिल्ली नेतृत्व मौजूद था। स्वयं माकपा के राज्यसचिव और एसएफआई के महासचिव जुलूस में मौजूद थे,इसके बाबजूद इस तरह की अशोभनीय घटना घटी। इस घटना के तत्काल बाद समूचे पश्चिम बंगाल में टीएमसी के कार्यकर्त्ताओं ने माकपा के दफ्तरों पर हमले किए,तोड़फोड़ की,आग लगायी।


यहां पर यह उल्लेखनीय है कि पश्चिम बंगाल में 34 साल के वामशासन में कभी भी मुख्यमंत्री के ऊपर शारीरिक हमला नहीं किया गया,यहां तक कि दिल्ली में भी कभी ज्योति बसु या बुद्धदेव भट्टाचार्य के खिलाफ हिंसक प्रतिवाद उनके विरोधियों ने नहीं किया। जबकि वामशासन में विपक्ष के हजारों कार्यकर्ताओं की माकपा के लोगों के हाथों मौत हुई है। एसएफआई का दिल्ली में हिंसक प्रतिवाद निंदनीय है । इस प्रतिवाद से पता चलता है कि माकपा के अंदर असहिष्णुता और हिंसा की दीमक लग चुकी है। माकपा ने जल्द ही इसका समाधान नहीं खोजा तो जिस तरह हिन्दीभाषी राज्यों में माकपा अस्तित्वहीन हो गयी है कालान्तर में पश्चिम बंगाल में भी उसके अस्तित्वहीन हो जाने का खतरा है। आज स्थिति यह है कि ममता के कुशासन के बाबजूद माकपा पर जनता विश्वास नहीं करती।


9अप्रैल के दिल्लीकांड ने एक अन्य संदेश दिया है कि पश्चिम बंगाल इनदिनों अपने विलोम में जी रहा है। एक जमाना था जब बंगाली समाज शांतिप्रिय, विद्वत्तापसंद, राजनीतिक सचेतन और लोकतंत्र पसंद था। यही चेतना यहां के राजनेताओं में थी। लेकिन इनदिनों यह राज्य एकदम विलोम अवस्था में जी रहा है।


इनदिनों बंगाल का अर्थ है अशांत और असामान्य राज्य। यहां लंपट कल्चर ने सभ्य -लोकतांत्रिक संस्कृति को पदस्थ कर दिया है। नियमहीनता इस राज्य का प्रधान मूल्य है। राजनीति से लेकर प्रशासन के विभिन्न स्तरों और विभागों तक, शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य-उद्योग और जनसेवा के क्षेत्रों तक नियमहीनता और धन वसूली ने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है।


वामशासन में पार्टी के आदेश पर काम होता था इनदिनों घूस के आदेश पर काम होता है। वामशासन में हिंसा थी इनदिनों अराजकता है। वामशासन में सत्ता पक्ष और विपक्ष में संवादहीनता और निजी हिंसा थी इनदिनों संवादहीनता और सामाजिक हिंसा है। पश्चिम बंगाल में जिस तरह के हालात बन गए हैं उसमें शांति या सामान्य स्थिति की निकट भविष्य में संभावनाएं नजर नहीं आतीं।


चौंतीस साल के वामशासन के अवसान के बाद यह माना जा रहा था कि राज्य में हिंसा ,बमबाजी, तोड़फोड़, धमकी देना,धन वसूलना आदि बंद होगा लेकिन अब यह सब स्वप्न लगता है। समूची राजनीति को उत्पाती मानसिकता ने घेर लिया है।


पश्चिम बंगाल का सामान्य फिनोमिना है उलटा चलो। उलटा चलो या उलटा करो की संस्कृति तब पैदा होती है जब कान बंद हो जाएं,आंखों से दिखाई न दे और बुद्धि का आंख-कान में संबंध खत्म हो जाय। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से लेकर विमान बसु तक सभी में उलटा चलो की संस्कृति को सहज ही देखा जा सकता है।


उल्लेखनीय है पश्चिम बंगाल में हिंसा की संस्कृति को कांग्रेस ने रोपा,नक्सलियों ने सींचा,माकपा ने हिंसा के खेतों की रखवाली की और इसकी कई फसलें उठायीं और इनदिनों ममता सरकार उसी हिंसा की फसल के आधार पर अपने राजनीतिक कद का विस्तार करना चाहती हैं।


हिंसा के आधार पर राजनीति कद का विस्तार करने की कला का बीजवपन कांग्रेस ने 1971-72 में किया था,कालान्तर में इस फसल से राजनीतिक लाभ लेने की सभीदलों ने कोशिश की। हिंसा के आधार पर राजनीतिक लाभ लेने के चक्कर में कांग्रेस का यहां अस्तित्व समाप्त हो गया और अब वामदलों का जनाधार तेजी से सिकुड़ रहा है,कालान्तर में ममता और उनके दल को भी अप्रासंगिक होना पड़ेगा। ऐसी अवस्था में राज्य में अपराधी गिरोहों की गुटबाजी में राज्य की राजनीति में फंसकर रह जाएगी।


राजनीतिक दलों के हिंसक होने का अर्थ है माफियातंत्र की प्रतिष्ठा। लोकतंत्र में हिंसा तात्कालिक बढ़त देती है लेकिन दीर्घकालिक तौर पर अप्रासंगिक बना देती है। दुर्भाग्य से पश्चिम बंगाल इन दिनों भद्रलोक से निकलकर माफियालोक की ओर जा रहा है। माफिया गिरोहों के सामने माकपा से लेकर टीएमसी तक सभी बौने नजर आ रहे हैं। माफिया गिरोह जिस तरफ इच्छा होती है उधर चीजों को मोड़ रहे हैं। माफिया मानसिकता ने विगत दो दशक पहले माकपा के पार्टीतंत्र में प्रवेश किया था और आज वह पूरे समाज में छायी हुई है।आज सभी दल इसके सामने नतमस्तक हैं।

रविवार, 7 अप्रैल 2013

नरेन्द्र मोदी के मीडिया उन्माद और राहुल के समावेशी मॉडल में भिडंत


  

         मोदी को लेकर इनदिनों जो मीडिया उन्माद चल रहा है वह भाजपा के लिए आत्मघाती साबित हो सकता है। 2014 के लोकसभा चुनाव अभी एक साल बाद होंगे लेकिन भाजपा और मोदी की प्रधानमंत्री पद को पाने की बेचैनी देखने लायक है।
   एक जमाने में इंडिया साइनिंग के नाम से जिस तरह का भाजपा ने मीडिया उन्माद पैदा किया था ठीक वैसा ही मीडिया उन्माद इन दिनों मोदी को लेकर पैदा किया जा रहा है। प्रतिस्पर्धा साफ दिख रही है। कांग्रेस ने भावी प्रधानमंत्री के रूप में राहुल गांधी के लिए मन बना लिया है। सीआईआई के अधिवेशन में काग्रेस उपाध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी पहलीबार सार्वजनिक तौर पर बोले। उनके भाषण में एक युवानेता के सपने,ख्याल,भारत की तस्वीर और भारत की लाइफलाइन की ध्वनि वायवीय रूप में उभरकर सामने आई।
   सीआईआई के सम्मेलन में देश 1500से ज्यादा उद्योगपति भाग रहे हैं और वे धैर्य के साथ सभी दलों के नेताओं को सुन रहे हैं उसमें राहुल गांधी का भाषण काल्पनिक ज्यादा था.व्यापारी जगत काल्पनिक दुनिया में जीने का आदी नहीं है। उसे ठोस बातें करने और सुनने की आदत है।
राहुल और उनके भक्तों को जानना चाहिए भारत कोई आख्यान नहीं है। यह एक जीता-जागता देश है और इसमें जिंदादिल लोग रहते हैं।उनकी धड़कनें हैं,कम से कम राहुल के भाषण में युवामन, दलितमन, स्त्रीमन, मुस्लिम मन की अभिव्यंजना कहीं पर भी दिखाई नहीं दे रही थी।राहुल गांधी के भाषण में न किसी की आलोचना न किसी की निंदा,न नीति की आलोचना न व्यक्ति की आलोचना।इसके विपरीत व्यापारियों को क्या करना चाहिए और उन्होंने क्या नहीं किया। इसी पैराडाइम पर पूरा भाषण केन्द्रित था। प्रच्छन्नतः कहा कि मनमोहन सरकार पर उंगली मत उठाओ ,यह देखो तुमने क्या नहीं किया।
मसलन् लोगों को ट्रेंड करने का काम तुम्हारा है, संरचना बनाने का काम तुम्हारा है,गांव के प्रधान को फैसलेकुन कमेटी में लाने का काम तुम्हारा है,तुम यह नहीं जानते ,तुम वह नहीं जानते,देश इसके कारण ऊर्जा के रहते पिछड़ रहा है, राजनीतिक व्यवस्था का समाज से अलगाव हो गया है। राहुल गांधी के भाषण में आत्मालोचन एकसिरे से गायब था।
राहुलगांधी के भाषण के कुछ घंटे बाद गुजरात के  मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का गुजरात से भाषण टीवी चैनलों के जरिए सीधे लाइव प्रसारित कराया गया। इससे यह तो साफ है कि भाजपा ने मोदी को 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए प्रधानमंत्री के रुप में खड़ा करने का मन बना लिया है। मोदी ने अपने भाषण में एक मार्के की बात कही कि मैंने गुजरात का कर्ज उतारा है, अब देश का कर्ज उतारना है। प्रतीकात्मक तौर पर मोदी कहना चाहते हैं कि वे प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में मन बना चुके हैं। प्रधानमंत्री पद के लिए स्वयं को पेश करना यह अपने आप में भारत में विरल घटना है। भाजपा ने आधिकारिकतौर पर उनको अपना उम्मीदवार घोषित नहीं किया है और नहीं एनडीए ने। चूंकि मोदी बार-बार गुजरात मॉडल की बात कह रहे हैं अतःगुजरात के प्रसंग में कुछ तथ्य उल्लेखनीय हैं। गरीबी में आई कमी के आधार पर गुजरात 20 राज्यों की सूची में 10वें पायदान पर है। मजदूरी और इसमें बढ़ोतरी के मामले में 20 बड़े राज्यों में क्रमश: 14वें और 15वें स्थान पर आता है जो संपन्न और विपन्न लोगों के बीच बढ़ती दूरी को दर्शाता है।
मोदी के शासन में शिक्षा क्षेत्र में तबाही चल रही है।  एक गैर सरकारी संगठन के मुताबिक ग्रामीण गुजरात में करीब 95 फीसदी बच्चे विद्यालयों में पंजीकृत हैं लेकिन ज्ञान का स्तर काफी कम है। पांचवीं कक्षा में पढऩे वाले करीब 55 फीसदी बच्चे दूसरी कक्षा के पाठ्यक्रम नहीं पढ़ पाते हैं। लगभग 65 फीसदी बच्चे ऐसे हैं जो गणित के सामान्य जोड़ घटाव भी नहीं कर पाते हैं।
बहुत सारे लोगों का कहना है कि सरकारी स्कूलों में शिक्षक शराब पीकर आते हैं और ताश खेलते हैं। बारिया में बच्चों के लिए साल में 24 दिन का शिविर चलाने वाली हार्डीकर कहती हैं कि पांचवीं कक्षा के बच्चे अक्षर भी नहीं पहचान पाते हैं। उच्च शिक्षा की स्थिति के बारे में अर्थशास्त्री वाई .के .अलघ कहते हैं कि इसकी हालत भी खस्ता है। अहमदाबाद के समाज विज्ञानियों के मुताबिक ज्यादातर कॉलेज और विश्वविद्यालय ठगों और नाकाम प्रशासकों द्वारा चलाए जा रहे हैं। तकनीकी कॉलेजों में ही थोड़ी बहुत क्षमता है।
स्वास्थ्य के क्षेत्र में 96 गांवों को सेवाएं देने वाले राज्य द्वारा संचालित सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में पिछले सात साल से किसी बाल रोग विशेषज्ञ और स्त्री प्रसूति विशेषज्ञ चिकित्सक की तैनाती नहीं हुई है। गुजरात में 44.6 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। हालांकि शिशु मृत्यु दर में कमी जरूर आई है लेकिन इस दर में गिरावट राष्ट्रीय औसत की तुलना में काफी कम है। करीब 65 फीसदी ग्रामीण परिवारों और 40 फीसदी शहरी परिवारों के पास शौचालय की व्यवस्था नहीं है और उन्हें मजबूरी में खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है। राज्य में पुरुष महिला अनुपात कम है यानी 1000 पुरुषों पर 918 स्त्रियों का औसत है। यह भी राष्ट्रीय औसत से कम है।मुसलमानों की वास्तव जिंदगी देखें तो भाजपा-मोदी की पोल खुल जाती है।मसलन् गरीबी की बात करें तो शहरी मुसलमान ऊंची जाति के हिंदुओं की तुलना में करीब 8 गुना ज्यादा गरीब हैं।
सामाजिक विकास के आड़ में मुसलमानों को मैनस्ट्रीम विकास से काटकर अलग कर दिया गया है। दूसरी बात यह कि मोदी समावेशी विकास की बात नहीं करते। मसलन् 2002 के दंगों में मारे गए लोगों को कोई आर्थिक सहायता राज्य ने नहीं दी। मुसलमानों की अरबों की संपत्ति देगों में नष्ट हुई थी लेकिन उनके पुनर्वास के लिए राज्य सरकार ने समुचित कदम नहीं उठाए। दंगों में शामिल दोषियों के खिलाफ कार्रवाई तब हुई जब सुप्रीमकोर्ट ने हस्तक्षेप किया और राज्य के बाहर दंगों से संबंधित मुकदमे चलाने का आदेश दिया। यही वह प्रसंग है जिसमें राहुल गांधी का समावेशी विकास का मॉडल मोदी के मॉडल पर भारी पड़ता है। राहुल गांधी ने समावेशी मॉडल को भविष्य का प्रधान एजेण्डा बनाकर पहल मोदी के हाथ से छीन ली है।




बुधवार, 3 अप्रैल 2013

आधुनिक रीतिवाद के प्रतिवाद में



    रामविलास शर्मा के जन्मशती के मौके पर इस संवाद के बहाने हमें हिंदी आलोचना पर नए सिरे से विचार करने का मौका मिला है।  फलतः नई-पुरानी सभी धारणाओं को नए पैराडाइम के आधार पर देखा जाना जाना चाहिए। रामविलासजी को याद करने का अर्थ उनकी मान्यताएं दोहराना या उनकी जीरोक्स कॉपी पेश करना या धारणाओं का स्तवन मात्र करना नहीं है।इसे साहित्य में आधुनिक रीतिवाद कहते हैं ,और रामविलास शर्मा को रीतिवादी रूझानों से सख्त नफरत थी।आलोचना की पहली समस्या है कि उसे आधुनिक रीतिवाद या स्टीरियोटाइप से बचाया जाए। दुर्भाग्य की बात है कि जिनके कंधों पर विकल्प खोजने की जिम्मेदारी है ,वे ही साहित्य में आधुनिक रीतिवाद के पुरोधा बने हुए हैं। इनकी मुश्किल यह है कि वे नए मसलों और अवधारणाओं पर सोचने के लिए तैयार नजर नहीं आते।
       आधुनिक आलोचना में रीतिवाद के प्रभाववश ही अब प्रगतिशीलों के लिखे पर कोई विवाद नहीं होता। वे मिलते हैं तो पूछते हैं कैसे हो, क्या लिख रहे हो,कहां जा रहे हो, कौन क्या कर रहा है, किसे इनाम मिला, फलां-फलां लेखक क्या कर रहा है,या इसी तरह के व्यक्तिगत और गैर-साहित्यिक सवालों पर संवाद ज्यादा होता है। इसके कारण आलोचना खत्म हो गयी है। संवाद की स्वतंत्रता खत्म हो गयी है। वे सामाजिक सरोकारों और व्यक्तिगत सहृदयता से जुड़े सरोकारों पर बातें नहीं करते। पहले वे यह काम करते थे। लेकिन इधर यह काम बंद हो गया है। अब लेखक आपस में जो भी बात करते हैं वह मजबूरी में की गई हल्की-फुल्की चर्चा है। उसे संवाद कहना सही नहीं होगा।
    ये लोग इसे आलोचना का पतन नहीं उत्थान मानते हैं। अपने पतन को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। तथाकथित साहित्यिक सक्रियता के नाम पर अब उत्सवधर्मी गोष्ठियां या साहित्यिक आयोजन हो रहे हैं। यह मीडिया रीतिवाद है। इन आयोजनों में भी हम व्यक्तिगत अस्तित्व और सम्मान बचाने की खातिर शामिल होते हैं। आलोचना से लेकर सभामंचों पर दिए गए वक्तव्यों तक हमने अपने को छोटी-छोटी बातों की वैधता को सिद्ध करने के विभ्रम में बांध दिया है। भाषणों में हम आलोचनात्मक नजरिए से पेश नहीं आते। सिर्फ सहमति के नजरिए को व्यक्त करते हैं।
     सहमति और समीक्षा के नाम पर कूपमंडूकता का पालन-पोषण हो रहा है। कूपमंडूकता के आधार पर आलोचकगण संस्कृति से लेकर साहित्य तक सभी क्षेत्रों में सांस्कृतिक मृगतृष्णा में भटक रहे हैं। उनके लेखन में वैचारिक गरमाहट खत्म हो गयी है। आलोचना में विचारधारा के शिखर गिर रहे हैं। उनकी जगह साहित्यिक मिलनमंडलियों ने ले ली है। रामविलास शर्मा ठीक इसी बिंदु पर हमें प्रेरणा देते हैं। वे साहित्य को मित्रमंडलियों और साहित्य के सामयिक जन-संपर्क अभियान के खिलाफ औजार की तरह इस्तेमाल करते रहे हैं। इस क्रम में उन्होंने जो चीज हमें सौंपी है वह है लेखन। लेखन ही महान है। मित्रमंडलियां और साहित्यिक रीतिवाद नहीं।
  एक अन्य फिनोमिना नजर आ रहा है, लेखकों में भीड़तंत्र की मनोदशा आ गयी है। एक जमाना था लेखकों में दिमाग की कद्र थी।आज लेखकों में दिमाग की कद्र नहीं होती, इनाम और पद की कद्र होती है।दिमाग की कद्र सिर्फ भीड़ नहीं करती। भीड़ पागलों की हद तक दिमाग से घृणा करती है। भीड़ में जिस तरह लोग एक-दूसरे के पीछे खड़े होते हैं, चल रहे होते हैं। ऐसी अवस्था में आप अपने सामने वाले की पीठ से आगे कुछ भी नहीं देख पाते।आज स्थिति यह है कि हर कोई अपने पीछे वाले की आँखों में उदाहरण बनने लायक होकर गर्व महसूस कर रहा है।
   साहित्य में इनदिनों वार्तालाप नहीं होता बल्कि हम खामोश पार्टनर की तरह उनमें हिस्सा लेते हैं। हम गोष्ठियों में बोलने के लिए बोलते हैं। जबकि कायदे से एक अच्छा वक्ता अपने को बदलने के लिए बोलता है। वक्ता के लिए बोलना अपने को बदलना है। एक अच्छा संवाद वह है जो श्रोता के खालीपन को अपने शब्दों से भर दे। प्रभावी संवाद वह है जो वार्तालाप पैदा करे,चुप्पी को तोड़े।अनालाप को खत्म करे। संवाद वह है जो श्रोता को नई भाषा और नई समझ दे।
    हमारी गोष्ठियों और आपसी बातचीत में एक अन्य पहलु भी है कि वहां संवाद के नाम पर सदभावनापूर्ण बातचीत वस्तुतः प्रार्थना है।
       हिंदी की वक्तृताशैली का यह कौशल है कि अधिकांश वक्ता अनुत्पादक की तरह   बोलते हैं। यह ऐसा वक्ता है जिसे किसी की आवाज सुनाई नहीं देती और न यह सामाजिक चुप्पियों की सुनता है। वह विचारधारा और नए की उत्तेजना से अपने को वैसे ही बचाता है जैसे कोई अपने को कामोत्तेजना से बचाता है और सोचता है कि कहीं मेरा कौमार्य भंग न हो जाए। वह अन्य को न तो देखता है और न सुनता,न समझता और न समझाता, वह तो सिर्फ अपने आप को सुनता और सुनाता है। अन्य के प्रति वह हमेशा अबोध बना रहता है। वह एक स्पेस में अपने ही शब्दों की आवाज सुनता रहता है। अपने लिखे में ही गुम रहता है। इस तरह के भावबोध की अमूमन अभिव्यक्ति का तरीका है- मैंने यह लिखा था, मैंने फलां जगह यह कहा था, मैंने पहले यह सोचा था,देखो मेरी बात कितनी सही है। इस तरह लेखक सिर्फ अपने ही शब्दों को सुनता रहता है। यह अनालाप है संवाद नहीं है।

      हम यहां रामविलास शर्मा पर संवाद के लिए एकत्रित हुए हैं।  संवाद क्यों करना चाहते हैं ? साहित्य पर संवादक्यों करना चाहते हैं ? साहित्य पर जब संवाद करते हैं तो क्या हम खुलेमन से बातें करते हैं ? साहित्य की खोज करते हुए या साहित्य के सवालों पर बहस करते हुए हम अपनी मंशाओं को छोड़ देते हैं ? साहित्य पर संवाद करते समय हम कठमुल्ले,रीतिवादी या रूढ़िवादी ढ़ंग से बातें करते हैं या पलायनवादी ढ़ंग से बात करते हैं ? मूल सवाल यह है कि साहित्य पर कैसे संवाद करें ?
    यहां पर हम एक आलोचक-लेखक के ऊपर संवाद करने एकत्रित हुए हैं। खासकर आलोचना पर संवाद करने के लिए एकत्रित हुए हैं। आलोचना पर संवाद करके हम क्या हासिल करना चाहते हैं ? क्या इससे हम मन को संतोष देना चाहते हैं ? क्या इससे रामविलास शर्मा के समग्रलेखन का लेखा-जोखा हासिल करना चाहते हैं ?
     रामविलास शर्मा ने अपनी आलोचना के जरिए हिन्दी आलोचना और इतिहास के अकादमिक जगत को बुनियादी तौर पर बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। इसके लिए जरूरी है कि कुछ बुनियादी सवालों की ओर ध्यान दें।
     समाज में अनेक बातें हैं जिनका हम अकादमिक स्तर पर खासकर हिंदीविभागों में अध्ययन नहीं करना चाहते फिर साहित्य का अकादमिक स्तर पर अध्ययन क्यों करना चाहते हैं ? साहित्य को ही अकादमिक स्तर अध्ययन करने का रूतबा क्यों हासिल है ?
      मूल सवाल यह है कि हिंदीसाहित्य या साहित्य का अकादमिक स्तर पर अध्ययन क्यों करना चाहते हैं और इस अध्ययन के जरिए क्या निकालना चाहते हैं ? पहला सच तो यह है कि साहित्य का अध्ययन अब अकादमिक संस्थाओं तक सीमित होकर रह गया है। हिंदी का अकादमिक सांस्थानिक रूप निश्चय कर रहा है कि साहित्य क्या है और उसे कैसे पढ़ें और पढ़ाएं । इसका प्रकाशन पर भी असर पड़ा है।
    विज्ञान में खासकर प्रकृतिविज्ञान ने अकादमिक जगत में वैज्ञानिक खोजों के प्रकाशन की नींव डाली और उसके साथ ही यह माना गया कि अकादमिक जगत में वही महत्वपूर्ण है जो प्रकाशित होता है। यदि साहित्य में कुछ करना है तो प्रकाशित करो। प्रकृतिविज्ञान की खोजों के प्रकाशन ने साहित्य में भी वैज्ञानिक ढ़ंग से लिखने और खोज करने की भावना पैदा की।  वैज्ञानिक परिणामों को उसकी खास पारिभाषिक शब्दावली में लिखने की परंपरा आरंभ हुई तो साहित्य में भी पारिभाषिक शब्दावली और अकादमिक शैली या साहित्यिकशैली में लिखने की परंपरा आरंभ हुई।  लेकिन इससे सामान्य पाठक डरता है। इससे साहित्य के अकादमिक अध्ययन को वैधता मिली। साहित्य के अकादमिक अध्ययन-अध्यापन से साहित्य कितना लाभान्वित हुआ है और उसकी किनकी क्षति हुई है इसकी ओर हमने कभी ध्यान ही नहीं दिया।
      साहित्य पर संवाद का अर्थ है उसके सांस्थानिक-अकादमिक फ्रेमवर्क के आधार पर संवाद करना । यह संवाद स्वयं में समस्यामूलक है। साहित्य के सांस्थानिक संवाद में साहित्य के आधुनिकीकरण की भावना काम करती है। किस तरह साहित्य को आधुनिक वैज्ञानिक नजरिए से पढ़ें,पढ़ाएं और लिखें।इस क्रम में विज्ञान हमारे अकादमिक साहित्य विमर्श पर ध्यान खींचता है।
     रामविलास शर्मा के अकादमिक लेखन में राजनीतिक प्रासंगिकता का नजरिया हावी है। कालान्तर में प्रगतिशील आलोचना का अधिकांश लेखन इसके दायरे में ही विकसित हुआ है। इस क्रम में मार्क्सवाद से लेकर आधुनिकतावाद और उत्तर आधुनिकतावाद के सभी रूपों जैसे स्त्रीसाहित्य,दलितसाहित्य आदि पर जितनी भी बहसें हुई हैं उनके केन्द्र में राजनीतिक प्रासंगिकता का तत्व हावी है। इस क्रम में कार्ल मार्क्स से लेकर फ्रॉयड तक सबकी आधी अधूरी व्याख्याएं सामने आई हैं। देरिदा से लेकर ल्योतार तक,रोलां बार्थ से लेकर लांका तक सबके चिन्तन का अंश रूप ही सामने आया है। इन विषयों पर संवाद कम से कम हुआ है।
   संवाद करना हो तो हमें औरत से सीखना चाहिए। स्त्री की संवादशैली महानतापंथी संवादशैली का अंत है। स्त्री की खूबी है कि वह हमेशा अतीत से अनुप्राणित होती है,किसी भी हाल में उसका वर्तमान नहीं होता।इसीलिए वह समझ से अर्थ को बचाती है,वह शब्दों को दुरूपयोग से बचाती है,और अपना दुरूपयोग किए जाने से इंकार करती है। वह सुरक्षा करती है न केवल दैनन्दिन जीवननिधि की,बल्कि रात की और सबसे अच्छे की। वह वार्तालाप को तुच्छता से बचाती है। महानता का उसका कोई दावा नहीं होता बल्कि महानता का अंत हो जाता है जब उसके साथ मुठभेड़ होती है।
    रामविलास शर्मा की लेखन पद्धति में स्त्री संवाद के उपरोक्त गुण कूट-कूटकर भरे हैं। उन्होंने हिन्दी साहित्य के दुरूपयोग और गलत व्याख्याओं के खिलाफ बेहद तीखे ढ़ंग से लिखा है। उन्हें स्त्री की तरह बार बार अतीत अनुप्राणित करता है। उनको एकबार पढ़ने के बाद अपने पुराने विचारों पर कायम नहीं रह सकते। उनका सबसे बड़ा योगदान है हिन्दी साहित्य के इतिहास में पाठ,अवधारणाओं,साहित्यांदोलनों की कु-व्याख्याओं का अंत। एक स्त्री जिस तरह पालती-पोसती है ,ठीक वैसे ही रामविलास शर्मा अपनी धारणाओं और व्याख्याओं को पालते-पोसते हैं। उनकी देखभाल करते हैं। उन पर होने वाले हमलों का प्रतिकार करते हैं।
      बुद्धिजीवी- सामान्यतौर पर बुद्धिजीवी की अवधारणा में वे सभी लोग आते हैं जो दिमागीश्रम करते हैं लेकिन यह कोई वर्ग नहीं है। रामविलास शर्मा ने इस प्रसंग में कई स्थानों पर अपने नजरिए को व्यक्त किया है।यह धारणा काफी विवादास्पद है। लेकिन यह बुद्धिजीवी की अवधारणा पर नए सिरे से विचार करने की संभावनाओं के मार्ग खोलती है। 
    रामविलास शर्मा ने 1953-54 के आसपास लिखे लेख ' जन-आन्दोलन और बुद्धिजीवी वर्ग' में लिखा है  "बुद्धिजीवी मध्यमवर्ग के होते हैं या पूंजीवादी वर्ग के या सर्वहारा वर्ग के। जब हम किसी को 'पेटी बुर्जुआ इंटेलेक्चुअल' (मध्यवर्गी बुद्धिजीवी) कहते हैं ,तो हमारा मतलब उसकी मध्यवर्गी जहनियत से होता है।जब हम किसी को सर्वहारा या सोशलिस्ट कहते हैं तो हमारा मतलब होता है कि उसने सर्वहारा वर्ग और समाजवाद की जहनियत को अपना लिया है।  सामाजिक दृष्टि से कार्ल मार्क्स और एंगेल्स पूँजीवादी बुद्धिजीवियों में से थे। 'क्या करें' में लेनिन ने लिखा हैः "अपनी सामाजिक स्थिति के के हिसाब से आधुनिक समाजवाद के जन्मदाता खुद पूँजीवादी बुद्धिजीवी वर्ग के थे।" वे वैज्ञानिक समाजवाद के जन्मदाता थे,इसलिए उन्हें सोशलिस्ट बुद्धिजीवी या ,सर्वहारा बुद्धिजीवी कहना उचित होगा।"  
   रामविलास शर्मा ने इस लेख में इस बात पर जोर दिया है कि "मजदूर-वर्ग का साथ देकर ही बुद्धिजीवी अपने चिन्तन को उपयोगी बना सकता है। और सब रास्ते उसे पतन और गुलामी की तरफ ही ले जाएंगे।शर्माजी का इस तरह का नजरिया बुद्धिजीवियों की एकांगी भूमिका को देखता है।साथ अलोकतांत्रिक और सर्वसत्तावादी राजनीति का आधार बनाता है।
इसी निबंध में उन्होंने एक अन्य विवादास्पद बात कही है,लिखा है, " इसलिए यह भरम दूर करना चाहिए कि बुद्धिजीवी समाज के आर्थिक ढ़ाँचे से ऊपर उठकर अपनी सिद्धान्त-रचना या साहित्य-रचना या कला की रचना कर सकते हैं। वे अपने साहित्य और कला से सामाजिक परिस्थितियों पर तभी जबर्दस्त असर डाल सकते हैं जब वे इन परिस्थितियों को समझें और उनके बदलते हुए रूप को अपनी रचनाओं में जगह दें।
     इस पूरे निबंध में रामविलास शर्मा ने लेनिन के बुद्धिजीवियों के प्रति रवैय्ये से जुड़े अनेक उद्धरण दिए हैं। इस क्रम में वे मध्यवर्गीय जहनियत को लेकर लेनिन की मान्यताओं को बार बार उद्धृत करते हैं। इस क्रम में वे सोवियत संघ में क्रांति की प्रक्रिया के दौरान चली बहसों को भारत में और खासकर हिन्दी लेखकों के बीच ले आते हैं और उनके आधार पर यहां के बुद्धिजीवियों की आलोचना करते हैं। लेनिन ने समाजवादी समाज के प्रसंग में बुद्धिजीवियों की भूमिका पर लिखा है। भारत में समाजवाद नहीं है बल्कि लोकतंत्र है। लोकतंत्र में लेखकों और आम जनता को व्यापक अधिकार मिले हुए हैं। ये अधिकार समाजवाद में नहीं थे। अभिव्यक्ति की आजादी का हक,विचारों की स्वतंत्रता का हक,विचारगत वैविध्य का हक,कुछ भी लिखने बोलने की आजादी ,प्रकाशन की आजादी आदि। ये सारा आजादियां समाजवाद में नहीं थीं।
    इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि काउत्स्की का मानना था कि मजदूर संगठनों को राज संगठनों का रूप लेना चाहिए। वे सत्ता और वर्गीय संगठनों,जनसंगठनों आदि में अंतर रखने के पक्ष में थे। लेनिन चाहते थे कि सर्वहारा की सत्ता के साथ एकीकृत होकर जनसंगठन काम करें। इसके कारण कालान्तर में सत्ता और कम्युनिस्ट पार्टी का भेद खत्म हो गया। राष्ट्रपति वही होता था जो पार्टी महासचिव होता था। इस प्रक्रिया के कारण कम्युनिस्ट पार्टी ने राज्य की पहचान के साथ अपनी पहचान को एकमेक कर दिया। सत्ता को कम्युनिस्ट पार्टी का पर्याय बना दिया और कम्युनिस्ट पार्टी को समाज का पर्याय बना दिया। अंततः कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने विरोधियों को ठिकाने लगाने के लिए सत्ता का व्यापक दुरूपयोग किया।गैर कम्युनिस्टों की हत्याएं की गयीं, उन्हें यंत्रणाएं दी गयीं। घोषित कर दिया गया कि समाज में एक ही किस्म का नजरिया प्रचलन में रहेगा और एक ही किस्म की जहनियत स्वीकार्य है। अन्य के लिए कोई जगह नहीं है।  इस तरह के तजुर्बे अन्यत्र भी देखे गए हैं।
    रामविलास शर्मा के इस निबंध की सबसे बड़ी कमजोरी है कि इसमें भारत के लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य में सोचने का प्रयास ही नहीं किया है। सवाल यह है क्या सोवियतसंघ के संदर्भों के आधार पर भारत के बुद्धिजीवियों की भूमिका को परिभाषित करना सही होगा ? यहीं पर हमारे विमर्श की अनेक विडम्बनाएं छिपी हैं। यही वह बिंदु है जहां पर रामविलास शर्मा के यहां मार्क्सवादी फंडामेंटलिज्म दाखिल होता है। यह संकीर्णतावादी और विभाजनकारी है। यह मार्क्सवाद की यांत्रिक समझ पर आधारित है।


साहित्य में मीडिया गॉसिप का असर -
    साहित्य अध्ययन के अधिकांश प्रयास मांग-पू्र्ति,विधेयवादी और आत्मकथावादी नजरिए से प्रभावित हैं। मांग-पूर्ति के आधार पर साहित्य के विद्यार्थियों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर खूब लिखा गया और इस तरह के उपयोगितावादी साहित्य और समीक्षा की किताबों से बाजार भरा पड़ा है। हमने कभी न तो विस्तार से मार्क्सवादी समीक्षा पर बहस की और न कभी आधुनिकतावाद,रूसी रूपवाद,चिन्हशास्त्र या मनोशास्त्र पर बहस की। हम साहित्य को कार्य-कारण संबंधों और आलोचक के निजी जीवन के अनुभवों के दायरों के आधार पर विकसित करते रहे हैं। मसलन् आलोचकों ने उन विषयों पर ज्यादा लिखा है जो उसे पसंद हैं या जो उसकी वैचारिक विचरण स्थली रहे हैं या जिन क्षेत्रों और विषयों पर वह आंदोलन करता रहा है। इस समूची प्रक्रिया में मूल जोर है हिंदी के पिछड़े माहौल को आधुनिक बनाने पर।
      विधेयवादी नजरिए से साहित्य मीमांसा की पद्धति के आधार पर जीवन,इतिहास,मनोविज्ञान,लेखन आदि के बीच के अन्तस्संबंध को स्थापित किया गया। कृति और उसके संदर्भ या वातावरण को विस्तार दिया गया। तमाम किस्म के गैर जरूरी तथ्यों को उभारा गया। समाजशास्त्रीय संकुचन और बेबकूफियों का सहारा लिया गया। बिना जाने-समझे विदेशी धारणाओं को अतार्किक लोकल धारणाओं के जरिए चुनौती देने की भौंडी कोशिशें की गईं।
     साहित्य में वाद से वाद की ओर यात्रा नहीं हो सकती। जो लोग ऐसा कर रहे हैं वे साहित्य के स्वाभाविक रूझानों को समझ नहीं पा रहे हैं। हमें मूल्यांकन के लिए ऐतिहासिक नजरिए की आवश्यकता है । साथ ही साहित्य सैद्धान्तिकी के विभिन्न स्कूलों की भी आवश्यकता है। हमें शोध भी चाहिए और व्याख्या,सैद्धान्तिकसमीक्षा और समीक्षाओं की भी जरूरत है। लेकिन यह काम पाठ के आधार पर होना चाहिए।
    हिंदी समीक्षा का आम रिवाज है यहां चर्चा गंभीर समस्याओं से आरंभ होती है ,और समाहार व्यक्तिगत फजीहत अथवा निजी अनुभववाद या सतही अप्रासंगिक बातों में जाकर होता है। प्रगतिवाद से लेकर दलित साहित्य तक की बहस के केन्द्र में इस फिनोमिना को सहज ही देखा जा सकता है। आपस में किसी भी आलोचक पर बात करने का भी हम सबका यही तरीका है। हम आलोचक की कृति से आरंभ करते हैं और फिर कृति को छोड़कर उसके जीवन के आधारहीन पहलुओं में रस लेने लगते हैं। इससे साहित्य कम गॉसिप ज्यादा पैदा होता है। यह एक तरह से आलोचना और साहित्य दोनों को पूर्व-आधुनिकयुग में ले जाने वाली हरकत है। यह साहित्य में मीडिया गॉसिप का सीधा प्रभाव है।
    हिन्दी में अनेक समीक्षक बिना जाने-समझे नई अवधारणाओं का मनमाने और चलताऊ ढ़ंग से इस्तेमाल करते हैं। इससे साहित्यालोचना का स्तर गिरा है। फलतः आलोचना हमेशा शून्य से आरंभ होकर शून्य पर ही खत्म होती है। इन लोगों ने आलोचना को मेनीपुलेशन की चीज बना दिया है।
   टेरी इगिलटन के शब्दों में कहें तो साहित्य को शब्दों का लोकतंत्र होना चाहिए। इसमें आलोचना रमण करे। आलोचना को पारिभाषिक शब्दावली और जॉर्गन से मुक्ति दिलायी जाए.साहित्य समीक्षा को अपने अकादमिक सहधर्मियों का सम्मान करना चाहिए साथ ही संभावित जनता या पाठकवर्ग का भी सम्मान करना चाहिए। हमें साहित्य विभागों के दायरे को व्यापक बनाने की जरूरत है। इसकी प्राथमिक शर्त है कि अच्छा लिखा जाए।
      'घटना' या लेखन - साहित्य से लेकर राजनीति तक,इतिहास से लेकर पुराकथाओं तक हर चीज सामान्य हो गई है। किसी भी घटना,संवृत्ति आदि का आभामंडल खत्म हो गया है। पहले हर चीजें प्रतीकों में थीं, उसका आभामंडल भी था। इसके कारण उसमें कुछ काल तक बने रहने का भाव भी था। इसकी जगह पहचान या अस्मिता ने ले ली है।
    आज जब किसी लेखक की कृति आती है तो हम उस पर इवेंट की तरह घटना की तरह बातें करते हैं। पहले कृति के आने पर उसकी इतिहास में उसके स्थान को लेकर चिंताएं हुआ करती थीं ,आज उससे भिन्न सोचते हैं। इतिहास के संदर्भ में कृति पर सोचते थे तो उसके संदर्भ और कारणों पर भी गंभीरता से विचार करते थे। लेकिन विगत 50-60 सालों में इतिहास के परिप्रेक्ष्य में देखने की प्रक्रिया संकुचित होती चली गई है। फलतः किसी भी कृति या संवृत्ति के कारकों की खोज का काम भी तदर्थभाव से करने लगे हैं। कृति को हमने घटना की तरह देखना कब से आरंभ किया, हमें नहीं मालूम लेकिन आज कृति को घटना की तरह देखने की दृष्टि पूरी तरह प्रभुत्व बनाए हुए है। हाल ही में प्रलेसं के 75वें जन्मदिन के समारोह या कारपोरेट घरानों द्वारा आयोजित जयपुर साहित्यमेला मूलतः घटना के रूप में आए हैं। घटना के रूप में जब हम किसी चीज को देखते हैं तो भावी दृश्यों के बारे में जो अनुमान लगाए गए हैं उसके परे नहीं जाते। उसका प्रभाव रीयल टाइम में ही देख सकते हैं।कृति का आना या कार्यक्रम विशेष का होना स्वयं में ऐतिहासिक घटना है। यही वह बिंदु है जिसको साहित्य में असली अर्थ में इतिहास का अंत या तर्क का अंत या इतिहास का तर्क कहते हैं। उल्लेखनीय है रामविलास शर्मा ने अपने को साहित्य के सार्वजनिक जीवन से अलग कर लिया था वे कहीं पर भी नहीं जाते थे। इसके पीछे कहीं न कहीं साहित्य के घटना बनने की प्रक्रिया को वे भांप गए थे और उसकी निरर्थकता भी समझ गए थे। साहित्य को जब घटना बना देते हैं तो उसके कई परिणाम हो सकते हैं। यह संभव है इतिहास गायब हो जाए। इतिहास के गायब होने का अर्थ है नकारात्मक श्रम काअंत,राजनीतिक तर्क का अंत,किसी घटना की इज्जत का अंत।
     इसके समानान्तर यह संवृत्ति भी दिखाई देती है कि इतिहास में इजाफा हो रहा है। खूब किताबें लिखी जा रही हैं, हर क्षेत्र में भीड़ है जमा हो गई है। हर बार नई किताब की मांग हो रही है,नए लेखक की मांग हो रही है। नई घटना की मांग बढ़ गयी है। जो भी किताब आ रही है वो बहुत जल्दी बाजार से गायब होती जा रही है। जिस मसलेपर बहस हो रही है वह भी जल्दी गायब होते जा रहे हैं। आलोचना में बाजार में 'सेल सेल ' की और प्रमोशन की भाषा अपना ली है। समाजवाद के पराभव के ऐतिहासिक कारण थे लेकिन उन कारणों पर चर्चा करने की बजाय इस पराभव को भी इवेंट की तरह इतिहास का अंत के नाम से हजम कर लिया।
      साहित्य से लेकर जीवन तक हम एडवांस में पलायन कर रहे हैं। इसके चलते सबसे अच्छा है पुरानी बहसों को उठाना, अब हम हर पुरानी चीज को उठा रहे हैं,अतीत की बहसों को उठा रहे हैं और अतीत की बहसों को जितने बड़े पैमाने पर रामविलास शर्मा ने उठाया है वह अपने आप में चौंकाने वाला है। वे बड़े ही मजे में अतीत की पुरानी बहसों को उठाते रहे हैं और हम पढ़ते रहे हैं। यह बीमारी खाली रामविलास शर्मा तक ही नहीं फैली है बल्कि नामवर सिंह,पुरूषोत्तम अग्रवाल आदि भी इसकी चपेट में आ गए हैं। वे भी पुराने पाठों और बहसों को लेकर आए हैं। नामवर सिंह की 4साल पहले पुराने लेख-भाषणों की 4 किताबें आ गईं,पुरूषोत्तम अग्रवाल की कबीर पर किताब आ गयी।  यह साहित्य के अंत करने का होम्योपैथी मार्ग है। रामविलास शर्मा ने अतीत के विमर्शों पर जो किताबें लिखीं उन पर न्यूनतम चर्चा तक नहीं हुई।
       किताबों के आने पर हम थोड़ा उत्सवधर्मी हो जाते हैं।लेकिन असली उत्सव तो तब है जब आपकी किताब का पाठक उपयोग करें। खरीदें और पढ़ें। इन दिनों दो तरह से हम चीजों को भूल रहे हैं। एक है धीरे से भूलना। दूसरा है हिंसा के जरिए भूलना।  हिंसा के माध्यम से भूलने का अर्थ है कि दृश्य स्पेस को विज्ञापन के हवाले कर देना। मीडिया के हवाले कर देना। ऐतिहासिक स्पेस तैयार करने की बजाय मीडिया में स्पेस तैयार करना। मसलन् हमने हिन्दी के अधिकांश आलोचकों ने लिखकर, रिसर्च करके अपने हिंदी विभागों में साहित्य का ऐतिहासिक स्पेस तैयार नहीं किया। सारे देश के हिंदी विभागों के शिक्षकों ने मिलकर जो काम नहीं किया वह काम अकेले रामविलास शर्मा ने किया। साहित्य की किताब की ऐतिहासिक जगह है साहित्य के विभाग। उन पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। इसके विपरीत उत्सव,समारोह,मीडिया कवरेज आदि पर ध्यान दिया गया। इस रणनीति से तात्कालिक लाभ होता है। दीर्घकालिक क्षति होती है। इस तरह की प्रस्तुतियों में बार बार आने से लेखक के अंदर यह भ्रम पैदा होता है कि वह साहित्य के लिए बहुत कुछ कर रहा है। प्रसिद्ध मार्क्सवादी ज़ीन बौद्रिलार्द ने इसे हिंसाचार की  संज्ञा दी है। मीडिया इमेजों के जरिए,मीडिया  बयानों के जरिए हम अपने को सजाने,संवारने लगे हैं,जिसकी मीडिया में जितनी ज्यादा प्रस्तुति वह उतना ही बड़ा आलोचक-साहित्यकार, असल में यह स्मृति के साथ हिंसाचार है।
मीडिया प्रस्तुतियों से जब इमेज बनती है तो वह दर्शक या पाठक की आदिमचेतना के संदर्भों को जगाती है। इससे मिथ बनाने में मदद मिलती है। इससे रीयल इवेंट यानी सामाजिक परिवर्तन से लेखक की दूरी बनती है। यही वजह है कि क्रांति अब साहित्य का प्रधान एजेंडा नहीं है। इन दिनों हमारी पूरी व्यवस्था नकारात्मक कल्पनाओं में विश्राम कर रही है हमने इतिहासलेखन बंद कर दिया है।हम साहित्य लिख रहे हैं और उसका मीडिया इवेंट बना रहे हैं। इतिहास को विश्राम दे दिया गया है। अब हम क्रांति के सवालों पर बात नहीं कर रहे बल्कि उनकी जगह मानवाधिकारहनन के सवालों ने ले ली है।
       साहित्य में सामयिक यथार्थ पर कम लिखा जा रहा है। पुराने अतीत पर ज्यादा लिखा जा रहा है। इतिहास की खोज करते करते हम अतीत में जा रहे हैं।पुराने मूल्य,पुरानी संस्कृति, सभ्यता आदि की गुफों में जा रहे हैं। अतीत की गुफाओं में घूमते घूमते हम खुद गुफावासी हो गए हैं।इतिहास भी गुफावासी हो गया है। दूसरी ओर हर चीज को सतह पर देखने की उत्तेजना ने द्वंद्ववादी नजरिए से देखने से वंचित कर दिया है। साहित्य में बड़े पैमाने पर ऐसे विचार पेश किए जा रहे हैं जो अप्रासंगिक हैं। बोगस विचारधाराओं का जमकर प्रचार हो रहा है। मृत अवधारणाओं को पेश किया जा रहा है। यह एक तरह से ऐतिहासिक और बौद्धिक कचरा है।यह औद्योगिक कचरे से भी ज्यादा खतरनाक है। इस कचरे की सफाई करने की जरूरत है इससे धर्मनिरपेक्ष बेबकूफियों से भी निजात मिलेगी।


      साहित्य की आज परिभाषा बदल गयी है। बदली हुई परिभाषा के कारण रामविलास शर्मा के साहित्यलेखन (कविता,निबंध,आलोचना,भाषा आदि) और गैर -साहित्यलेखन (इतिहास,राजनीति,दर्शन आदि) में अंतर खत्म हो गया है। एक जमाना था साहित्य में विधाओं के नाम पर वर्गीकरण बना। यह लंबे समय से चला आ रहा है। लेकिन अब साहित्य को विधाओं में बांटकर नहं पढ़ा जा सकता। पढ़ेंगे तो ज्यादा दूर तक मदद नहीं मिलेगी। कम्प्यूटर युग आने के साथ साहित्य का पैराडाइम बदला है। आधुनिक साहित्य की समस्त धारणाएं प्रेसक्रांति के आधार पर बनी हैं। यह आधार बुनियादी तौर पर बदल चुका है। आज कम्प्यूटर जीवन की चालकशक्ति है और संचार की धुरी है। हमें गंभीरता के साथ उन तमाम धारणाओं पर पुनर्विचार करना चाहिए जो कम्प्यूटर युग के पहले की हैं और साहित्य,समाजविज्ञान आदि में प्रचलित हैं।
   साहित्य की नयी परिभाषा साहित्य को विधाओं में वर्गीकृत करके नहीं देखती बल्कि लेखन के रूप में देखती है। पहले साहित्य में गैर-साहित्यिक रचनाओं को महत्वपूर्ण नहीं माना जाता था। लेकिन इस नजरिए से अपने को अलग करते हुए रामविलास शर्मा ने साहित्य और गैर-साहित्य लेखन के भेद को अस्वीकार किया और महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण नामक किताब में विस्तार के साथ द्विवेदीयुग का विवेचन किया। इस किताब में वह सामग्री भी पर्याप्त मात्रा में शामिल की गई है जो गैर-साहित्यिक है। साहित्य में साहित्यिक और गैर -साहित्यिक के भेद की समाप्ति एक नया प्रस्थान बिंदु है। मसलन् , भारतेन्दुयुग,नवजागरण या प्रेमचन्दयुग पर लिखी किताबों में वे विज्ञान, ज्योतिष, राजनीति ,अर्थनीति आदि के साहित्यलेखन के साथ अंतर को बनाए रखते हैं। लेकिन महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण(1977) किताब में यह भेद खत्म हो जाता है। यानी साहित्य की अवधारणा में बुनियादी बदलाव के बिंन्दु के रूप में सन् 1977 को रख सकते हैं। यह साल कई मायनों में महत्वपूर्ण है । इस साल आपात्काल खत्म होता है। लोकतंत्र के प्रति आम जनता की जागरूकता और प्रतिबद्धता में इजाफा होता है। नई तकनीकी क्रांति के कम्प्यूटर युग का बुनियादी आधार उल्लेखनीय है अंतरिक्ष में आर्यभट उपग्रह छोडे जाने के साथ रखा जाता है। कम्प्यूटर क्रांति कहीं पर भी उपग्रह क्रांति के बिना नहीं हुई है। आपात्काल में आर्यभट उपग्रह का सफल प्रक्षेपण भारत के लिए बुनियादी परिवर्तन की अनंत संभावनाएं लेकर आया।
      रामविलास शर्मा ने 'महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण '  में साहित्य की क्रांतिकारी भूमिका के ऊपर रोशनी डालते हुए महावीरप्रसाद द्विवेदी के जरिए लिखा, '' आँख उठाकर जरा और देशों तथा और जातियों की ओर तो देखिए।आप देखेंगे कि साहित्य ने वहाँ की सामाजिक और राजकीय स्थितियों में कैसे कैसे परिवर्तन कर डाले हैं ;साहित्य ही ने वहाँ समाज की दशा कुछ की कुछ कर दी है;शासन प्रबन्ध में बड़े उथल-पुथल कर डाले हैं;यहाँ तक कि अनुदार धार्मिक भावों को भी जड़ से उखाड़ फेंका है।साहित्य में जो शक्ति छिपी रहती हैवह तोप ,तलवार और बम्ब के गोलों में भी नहीं पाई जाती।योरप में हानिकारिणी धार्मिक रूढ़ियों का उत्पाटन और उन्नयन किसने किया है? पादाक्रान्त इटली का मस्तक किसने ऊँचा उठाया है ? साहित्य ने,साहित्य ने ,साहित्य ने। जिस साहित्य में इतनी शक्ति है,जो साहित्य मुर्दों को भी जिन्दा करनेवाली संजीवनी औषधि का आकर है,जो साहित्य पतितों को उठाने वाला और उत्थितों के मस्तक को ऊँचा करनेवाला है उसके उत्पादन और संवर्धन की चेष्टा जो जाति नहीं करती वह अज्ञानान्धकार के गर्त में पड़ी रहकर किसी दिन अपना अस्तित्व ही खो बैठती है। अतएव समर्थ होकर भी जो मनुष्य इतने महत्वशाली साहित्य की सेवा और अभिवृद्धि नहीं करता अथवा उससे अनुराग नहीं रखता वह समाजद्रोही है,देशद्रोही,वह जातिद्रोही है, किंबहुना वह आत्मद्रोही और आत्महंता भी हैं।"[1] इस उद्धरण को लिखने के बाद रामविलास शर्मा ने आधुनिक रीतिवाद पर बड़ी ही मारक टिप्पणी की है, लिखा है, " हिन्दी में आत्महन्ता लोगों की कमी नहीं है।हम देश और जाति के अंग हैं।देश-विरोधी,जाति-विरोधी दृष्टि का अर्थ है आत्मद्रोही,आत्महंता दृष्टि। वे तमाम लोग जो समाज से कटकर व्यक्तित्व-विकास की साधना में लगे हैं, वे क्रमशः व्यक्तित्व-शून्यता की ओर बढ़ते गए हैं। उनका साहित्य रूढ़ियों की आवृत्ति मात्र होकर रह गया है; वे रूढ़ियां कहीं नयी हैं,कहीं पुरानी,कहीं देशी हैं,कहीं विदेशी।"[2]
      रामविलास शर्मा के नजरिए की खूबी यह है कि वे साहित्य को जातीय साहित्य की अवधारणा तक सीमित करके नहीं देखते। वे साहित्य की बृहत्तर भूमिका में जाति साहित्य को भी शामिल करते हैं। हिन्दी में यह रूढ़िवाद चल रहा है कि जब भी साहित्य की बात होती है तो अनेक आलोचक जातीय साहित्य को साहित्य की परम चौकी मानकर बातें करते हैं। वे जातिसाहित्य की अवधारणा के बाहर बृहत्तर साहित्य की भूमिका की अनदेखी करते हैं।
    रामविलास शर्मा के अनुसार साहित्य की बुनियादी प्रकृति है कि उसे किसी भी किस्म की रूढ़ियाँ पसंन्द नहीं हैं। साहित्य स्वभावतः रूढ़ियों का विरोधी होता है।उन्होंने लिखा है , " जाति या समाज गतिरूद्ध,रूढ़िबद्ध,जड़ इकाई नहीं है। वह परिवर्तनशील, विकासमान ,अवरोध पैदा करने वाली,और अवरोधों को हटानेवाली इकाई है।यूरप की हानिकारक धार्मिक रूढ़ियाँ समाज की ही देन थीं। पोप की प्रभुता उसे समाज से ही प्राप्त हुई थी, फ्रान्स का अभिजात शासकवर्ग फ्रान्सीसी जाति का ही अंग था। किन्तु पोप की प्रभुता ,धार्मिक रूढ़ियाँ ,फ्रान्सीसी अभिजात वर्ग की प्रभुसत्ता समाज के विकास -पथ में जबर्दस्त रूकाबटें बन गई थीं।समाज के अन्य अंगों ने इन अवरोधों को दूर किया।इस संघर्ष में साहित्य तटस्थ नहीं रहता।या तो वह रूढ़िवादियों का साथ देता है या रूढ़ि-विरोधियों का। जो साहित्य गतिरूद्ध,प्रतिक्रियावादी,प्रगति-विरोधी वर्गों का साथ देता है,वह स्वयं अशक्त और निर्जीव हो जाता है। इसके विपरीत जो साहित्य सामाजिक परिवर्तन करने वाले क्रांतिकारी वर्गों का साथ देता है,उनका मार्गर्शन करता है, उन्हें संगठित होने में, दृढ़तापूर्वक अपना संघर्ष चलाने में सहायता देता है,वह समर्थ और जीवन्त होता,वह साहित्य के जातीय स्वरूप की रक्षा करते हुए उसे विकसित करता है।"[3] यहां पर रामविलास शर्मा ने साहित्य की बृहत्तर धारणा के अंग के रूप में जातीय साहित्य को रखकर देखा है।
    उपग्रह क्रांति अनेक पुरानी धारणाओं-मान्यताओं और व्यवस्थाओं, खासकर उन व्यवस्थाओं के लिए चुनौती है जो बुर्जुआ व्यवस्था की संगति में अपना विकास नहं करतीं। उन समाजों के लिए चुनौती है जो लोकतांत्रिक नहीं है। इसमें इजारेदार भाव भी है।
     विचारणीय सवाल यह है कि सोवियत संघ मे सबसे पहले उपग्रह क्रांति हुई, लेकिन ऐसे क्यों हुआ कि संचारक्रांति अमेरिका में हुई ? सोवियत संघ ने उपग्रह क्रांति को राष्ट्र की सेवा,सुरक्षा संसाधनों के विकास तक सीमित रखा।उसे आम जनता में नहीं पहुँचाया। संभवतः रूसी शासक और वैज्ञानिक जानते थे कि उपग्रह क्रांति का यदि संचार क्रांति में रूपान्तरण कर दिया जाए तो समाजवादी व्यवस्था ढह जाएगी। यह संयोग है कि समाजवाद के पतन में उपग्रह क्रांति की केन्द्रीय भूमिका रही है।
      उपग्रह क्रांति के दौर में सारी विधाएं ,मीडियम,समाजविज्ञान आदि ज्ञान-विज्ञान की तमाम शाखाओं में कनवर्जन की प्रक्रिया तेज हो जाती है। हमारी दैनंदिन जिंदगी जितनी कम्प्यूटर और उपग्रह नियंत्रित हो जाती है ,हम उतने ही पुरानी चीजों से मुक्त होते चले जाते हैं। इसका साहित्य पर असर पड़ा है। अब साहित्य और गैर साहित्य का भेद खत्म हो गया है। मीडिया और मासमडिया का अंतर खत्म हो गया है। विधाओं का अंतर खत्म हो गया है। अब सब कुछ लेखन है और सब कुछ कम्युनिकेशन है।   
    हिन्दी में साहित्य पदबंध 19वीं सदी में प्रयोग में आता है। उसके पहले काव्य था, नाटक था। लेकिन साहित्य पदबंध नहीं था। काव्य और नाटक दोनों ही आज साहित्य के अंग हैं। 19वीं सदी में प्रेस के आने के बाद साहित्य की धारणा आई। साहित्य में नई विधाएं आईं।
      रामविलास शर्मा के आलोचना में दाखिल होने के साथ बुनियादी तौर पर लोकसाहित्य जो पहले साहित्य का हिस्सा था लेकिन नए युग के साथ वह साहित्य से बाहर निकाल दिया गया था। लेकिन 1857 के संग्राम के मूल्यांकन के संदर्भ में उन्होंने लोकसाहित्य को पुनः साहित्य में प्रतिष्ठित किया। इसके पहले राहुल सांकृत्यायन यह काम कर चुके थे।
    साहित्य पदबंध के विकास के लिए साक्षरता,प्रेस और स्वायत्तता जरूरी है। साक्षरता का जितना विकास होगा साहित्य के विकास की उतनी ही संभावनाएं हैं। मध्यकाल में लेखक राज दरबार पर आश्रित था। लेकिन नए जमाने में लेखक वह माना गया जो लिखता था। चाहे वो कुछ भी लिखे। हर किस्म के लेखन को साहित्य में शामिल कर लिया गया। प्रेस और नए पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के आने साथ लेखक को राजाश्रय से मुक्ति मिली।लेखक में निजता का बोध पैदा हुआ। स्वाभिमान पैदा हुआ। प्रकाशन का व्यावसायिक वातावरण पैदा हुआ।
        रामविलास शर्मा का बड़ा योगदान है कि वे व्यापारिक पूंजीवाद और पूंजीवाद के साथ जोड़कर मध्यकाल और आधुनिककाल के साहित्य को देखते हैं। उनके पहले पूंजीवादी व्यवस्था या व्यापारिक पूंजीवाद पदबंध का साहित्य समीक्षा में इस्तेमाल नहीं होता था। साहित्य समीक्षा में मार्क्सवादी केटेगरी में विस्तार से सोचने,लिखने और वर्गीकृत करने की परंपरा आरंभ हुई। उसके पहले साहित्यसमीक्षा अवर्गीय गैर मार्क्सवादी कोटियों में सोचती थी। इसी तरह मासमीडिया में प्रकाशित सामग्री को साहित्य मानते हैं। साथ ही साहित्य में प्रचलित विधाओं के परे जाकर साहित्य की व्यापक केटेगरी में रखकर सोचते हैं।  
      सवाल यह है कि मार्क्सवाद की आधुनिक केटेगरी में सोचने से आलोचना ठोस और प्रामाणिक बनी या वायवीय बनी ? मार्क्सवादी कोटियों में लिखने का पहला परिणाम यह निकला कि साहित्य और श्रम के बीच में अलगाव खत्म हुआ।  सौंदर्य और श्रम के बीच का अलगाव खत्म हुआ।श्रम और श्रमिकवर्गों के साथ संबंध और गैर-श्रमिकवर्गों के साथ संबंध के आधार पर लेखक और साहित्य की भूमिका को नए सिरे से परिभाषित किया गया। श्रम के मानवीय और सर्जनात्मक पहलुओं की खोज का काम नए सिरे से आरंभ हुआ। श्रम और श्रमिक केटेगरी में आने वाले लोग कल तक हाशिए पर भी नहीं गिने जाते थे। रामविलास शर्मा की समीक्षादृष्टि ने उन्हें सांस्कृतिक महत्ता और सत्ता के सर्वोत्तम शिखर पर आरूढ़ कर दिया। इससे साहित्य के रहस्यमय क्षेत्रों को ठोस रूप में वर्गीय सामाजिक कोटियों में देखने का सिलसिला आरंभ हुआ।
     इसके अलावा साहित्यिक विधाओं और लेखकों को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ठोस वैज्ञानिक केटेगरी में रखकर विश्लेषित करने की परंपरा आरंभ हुई। उल्लेखनीय है आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के हिंदी साहित्य का इतिहास और हजारीप्रसाद द्विवेदी की हिंदी साहित्य की भूमिका में आधुनिक समाजशास्त्रीय शब्दावली में सोचने की परंपरा आरंभ हो चुकी थी,लेकिन इन दोनों के यहां अवर्गीय कोटियों के पदबंधों का प्रयोग ज्यादा मिलता है। नए पदबंध मिलते हैं लेकिन उनकी वर्गीय अर्थ संरचनाएं नहीं मिलतीं। रामविलास शर्मा का यह सबसे बड़ा योगदान है कि उन्होंने समीक्षाशास्त्र में नई वर्गीय शब्दावली का प्रयोग आरंभ किया और पदबंधों में निहित वर्गीय अर्थों को जनप्रिय बनाया।
       रामविलास शर्मा का दूसरा बड़ा योगदान है साहित्य और स्वाधीनता संग्राम,खासकर सन् 1857 के संग्राम के साथ साहित्य के अंतस्संबंध को स्थापित किया। कालान्तर में स्वाधीनता संग्राम और साम्राज्यवाद विरोधी जनसंघर्षों के साथ साहित्य के अन्तस्संबंध को स्थापित किया।
 प्रगतिशील साहित्य की अवधारणा और उसकी भूमिका पर रामविलास शर्मा ने लिखा '' प्रगतिशील साहित्य जनता की तरफदारी करने वाला साहित्य है...  जनता की जातीय संस्कृति और रक्षा के विकास के लिए संघर्ष उसकी स्वाधीनता और जनवादी अधिकारों के लिए संघर्ष का अभिन्न अंग है।''[4]
   रामविलास शर्मा का मानना है '' साहित्य आर्थिक परिस्थितियों से नियमित होता है लेकिन उनका सीधा प्रतिबिम्ब नहीं है। उसकी अपनी सापेक्ष स्वाधीनता है। साहित्य में सभी तत्व समान रूप से परिवर्तनशील नहीं हैं ; इन्द्रियबोध की अपेक्षा भाव और भावों की अपेक्षा  विचार अधिक परिवर्तनशील हैं।युग बदलने पर जहाँ विचारों में अधिक परिवर्तन होता है,वहाँ इन्द्रियबोध और भाव-जगत् में अपेक्षाकृत स्थायित्व रहता है।यही कारण है कि युग बदल जाने पर भी उसका साहित्य हमें अच्छा लगता है।यही कारण इस बात का भी है कि पुराने साहित्य की सभी बातें समान रूप से अच्छी नहीं लगतीं।सबसे ज्यादा मतभेद खड़ा होता है,विचारों को लेकर ,उसके बाद भावों को, और सबसे पीछे और सबसे कम इन्द्रियबोध को लेकर।हमारी साहित्यिक रुचि स्थिर न होकर विकासमान है;पुराना साहित्य अच्छा लगता है लेकिन उसी तरह नहीं जैसे पुराने लोगों को अच्छा लगा था।इसलिए मनुष्य अपनी नयी रुचि के अनुसार नये साहित्य का भी सृजन करता है।"[5]  
  
यहां पर रामविलास शर्मा ने मार्क्सवादी आलोचनादृष्टि के आधार आधार-अधिरचना के अंतस्संबंधों को खोजते हुए अधिरचना की महत्वपूर्ण और निर्णायक विचारधारात्मक भूमिका और आधार से अधिरचना की स्वायत्त भूमिका को रेखांकित कियाहै। लेकिन थ्योरी में वे कई स्थानों पर मार्क्स-एंगेल्स के आधार-अधिरचना वाले नजरिए का अतिक्रमण नहीं कर पाते। आधार-अधिरचना में उन्होंने एक समीक्षक के नाते अधिरचना पर खास जोर दिया। इस तरह के प्रयोग करते हुए वे दो किस्म के संकट में फंसते हैं। पहला संकट है समाजव्यवस्था और साहित्य के अंतस्संबंध का। इसमें वे यांत्रिक भौतिकवादी पद्धति के शिकार होते हैं। दूसरा संकट है अधिरचना में सिर्फ साहित्य को विचारधारा मानना। आस्था और सौंदर्य नामक किताब में यह संकट दिखाई देता है। रामविलास शर्मा ललितकलाओं की विचारधारात्मक भूमिका नहीं देख पाते। यह स्थिति उनके भारतीय साहित्य की भूमिका में शामिल संगीत संबंधी निबंध में देखी जा सकती है।
    रामविलास शर्मा ने समीक्षा को सेतु (मेडीएशन) के रूप में इस्तेमाल किया है। साहित्य और पाठक के बीच में समीक्षा सेतु है। इस सेतु से गुजरे बिना साहित्य के मर्म को पकड़ना मुश्किल है। मेडीएशन के रूप में आलोचना का इस्तेमाल करते हुए आलोचना को उन्होंने प्रोडक्टिव बनाया है। नए अर्थ की सृष्टि का केन्द्र बनाया है। इस क्रम में उन्होंने साहित्य और समाज में चले आ रहे विनिमय के रूपों को उजागर किया है।
     साहित्य में कोई भी प्रवृत्ति अपने चरम पर कैसे पहुँची, उसे नए ढ़ंग से खोला है। मसलन्,सगुण हो निर्गुण काव्यधारा,भारतेन्दुयुग हो या छायावाद, इन सबके बारे में उन्होंने लेनिन के सूत्र को ख्याल करते हुए विचार किया है। मेडीएशन में लेनिन ने विपरीतों की एकता सूत्र को आधार बनाया था। रामविलास शर्मा प्रत्येक प्रवृति या लेखक पर विचार करते समय विपरीत प्रवृत्तियों को ,उनके अंतर्विरोधों को एक ही लेखक या युग में खोजते हैं और फिर उनके अंतर्विरोधी तत्वों की एकता को उभारते हैं। साथ ही अंतर्विरोध के गर्भ से किस तरह रूपान्तरण हो रहा है, इस ओर ध्यान खींचते हैं। उसके तर्क को रेखांकित करते हैं।
   रामविलास शर्मा का तीसरा बड़ा योगदान है कि लेखक,प्रवृत्ति और युग के बारे में विचारधारा की केटेगरी के आधार पर सोचने की परंपरा का जन्म होता है। पहले विचारधारा की केटेगरी में बांधकर हिंदी आलोचक कम सोचते थे।
        चौथा बड़ा योगदान है कि वे आलोचनात्मक नजरिए से सब समय काम लेते हैं। उनके लेखन में साहित्य से लेकर राजनीति तक सभी विषयों पर जो भी लिखा मिलता है उसमें आलोचनात्मक एप्रोच बराबर बनी रहती है। इस एप्रोच के एक सिरे पर मार्क्सवाद समाजवाद है ,और दूसरे सिरे पर हिंदी जाति है। इन दो की संगति-असंगति के आधार पर  अच्छी चीजों को स्वीकार कर लेते हैं और बुरी चीजों को तुरंत खारिज कर देते हैं। वे समसामयिक दौर में मार्क्सवाद को लेकर जो संदेह और संशय पैदा हुआ और साम्राज्यवाद के प्रति जो अपील पैदा हुई इससे एकदम प्रभावित नहीं होते। वे समाजवादी व्यवस्था के पराभव से निराश भी नहीं होते। लेकिन एक परिवर्तन आता है वे समाजवाद के यूटोपिया का प्रचार नहीं करते। प्रगतिशील बुद्धिजीवियों में जो एक जमाने में आकर्षण था उससे अपने को अलग करते हैं। वे साहित्य और राजनीति के सवालों पर खुले नजरिए से विचार करते हैं। प्रत्येक अवधारणा या समस्या की वैचारिक जड़ों में जाने की कोशिश करते हैं।
    साहित्य पर मार्क्सवादी कठमुल्लों की तरह आधार-अधिरचना के मॉडल के आधार पर विचार नहीं करते। बल्कि इस मॉडल का अतिक्रमण भी करते हैं। वे एक नए मॉडल को विकसित करते हैं वे साहित्य में प्रामाणिक तत्व कौन से हैं और छद्मचेतना के तत्व कौन से हैं इनके आधार पर विवेचन करते हैं। साहित्य से लेकर राजनीति तक सभी विषयों पर बार-बार विचारधारा के सवालों पर लौटते हैं। विचारधारा को जिस तरह इनदिनों आलोचना ने तिलांजलि दी हुई है उसने साहित्य की सबसे ज्यादा क्षति की है। रामविलास शर्मा ने बार-बार समाजवाद,साम्राज्यवाद,प्रगतिशील साहित्य,छायावाद,नयी कविता,साम्प्रदायिकता,बुर्जुआवर्ग,संस्कृति, मध्यवर्ग,मजदूरवर्ग,किसान,हिन्दीजाति, जातीय साहित्य, भारतीय साहित्य आदि सभी विषयों विचारधारात्मक नजरिए के मूल्यांकन को प्राथमिकता दी है।
     साहित्य से लेकर राजनीति तक,मासममीडिया से लेकर दर्शन तक,सभी विषयों में विचारधारा की खोज पर मुख्यरूप से जोर दिया है। विचारधारा के आधार पर चीजों को परखने के कारण वे संबंधित विषय का विचारधारा में संकुचन नहीं करते। वे रेखांकित करते हैं कि विचारधारा आज बेहद जरूरी है। उल्लेखनीय है आजाद भारत में साहित्य से लेकर मीडिया तक विचारधारा का क्रमशः अवमूल्यन हुआ है ।खासकर मार्क्सवादी विचारधारा को अपराधी घोषित कर दिया गया है। यही वह संदर्भ है जहां रामविलास शर्मा की शक्ति हमें नजर आती है।
    रामविलास शर्मा बार बार परंपरा या पुराने साहित्य की ओर लौटते हैं। इसके बहाने वे बताना चाहते हैं कि पुराना पूरी तरह खारिज करने लायक नहीं है। बल्कि बुर्जुआकलाओं या साहित्यरूपों की तुलना में गैर बुर्जुआ साहित्यरूपों की महत्ता को पेश करते हैं। आजादी के बाद रामविलास शर्मा अपने को सक्रिय क्रांतिकारी राजनीति और लेखकसंघ की गतिविधियों से अलग कर लेते हैं।
      द्वितीय विश्वयुद्ध में फासिज्म की पराजय,भारत विभाजन,और भारत में लोकतंत्र की स्थापना ने उनके मन में भारत में क्रांति की आशा को ही खत्म कर दिया।इस क्रम में क्रांति अब एक वैकल्पिक सिस्टम के रूप में नहीं रह गयी। वे निजी तौर पर तेलंगाना आंदोलन की असफलता के बाद बदली हुई परिस्थितियों में अपने को कम्युनिस्ट पार्टी से अलग करते हैं। लोकतंत्र के आने का अर्थ यह भी था कि अब क्रांति नहीं हो सकती। इस मान्यता ने उनको गहरे प्रभावित किया।
    लोकतंत्र के आने से क्रांति की विदाई होती है। इस बात को आज भी अनेक लोग नहीं मानते। लोकतंत्र की सामान्य विशेषता है कि वह बुनियादी सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन और बुर्जुआसमाज के परिवर्तन की संभावनाएं हमेशा के लिए खत्म कर देता है। समाजवाद के जिन आदर्शों के आधार पर विचारक समाज बदलने का सपना देख रहे थे उस सपने का अंत हो जाता है। लोकतंत्र में सामाजिक व्यवस्था परिवर्तन के सपने साकार नहीं होते।
     रामविलास शर्मा की किताबों में बड़े पैमाने पर विभिन्न किताबों के उद्धरण मिलते हैं। ये उद्धरण अनेक किस्म की उलझन पैदा करते हैं और अनेक लोग हैं जो उनकी इस पद्धति की आलोचना भी करते हैं। सवाल यह है कि वे ऐसा क्यों करते हैं ? असल में प्रामाणिक लेखन के लिए उद्धरण जरूरी हैं,दूसरी बात यह कि एक मार्क्सवादी अन्य के ज्ञान की उपेक्षा नहीं करता, उसका छद्म इस्तेमाल नहीं करता। उद्धरणों का व्यापक प्रयोग मार्क्सवादी पद्धति की विशेषता है।यह प्रामाणिक लेखन का हिस्सा है। प्रसिद्ध मार्क्सवादी वाल्टर बेंजामिन ने इस प्रसंग में जो बात कही है वह अक्षरशःरामविलास शर्मा पर लागू होती है।
       साहित्य आलोचना का कार्यक्रमनिबंध में वाल्टर बेंजामिन ने लिखा है, अच्छी आलोचना अधिकतम दो तत्वों से बनती हैःउद्धरण और आलोचनात्मक लेपन। खूब अच्छी आलोचना लेपन और उद्धरण दोनों के मेल से बनायी जा सकती है।लेकिन जिससे हर हाल में प्लेग की तरह बचना है वो है विषयवस्तु के सारांश का पुनर्कथन। इसके विपरीत ऐसी आलोचना विकसित करनी चाहिए जिसमें केवल उद्धरण हो।
 नकली आलोचना- रामविलास शर्मा की आलोचना की महत्ता तब अच्छे ढ़ंग से समझ में आएगी जब हम नकली आलोचना के वातावरण को तोड़ें। आज हिंदी में नकली आलोचना खूब लिखी जा रही है।
   इसका पहला लक्षण है ,आलोचक बिना जाने-समझे नवीनतम अवधारणाओं पर फैशन की तरह लिख रहे हैं।
  दूसरा,राजनीतिक रणनीतियों और साहित्यिक रणनीतियों में पूरी तरह अलगाव। आलोचनात्मक विचार हमारे राजनीतिक सत्य और तथ्य से पूरी तरह कट गया है।
    तीसरा, वैयक्तिक पसंद-नापंसद के आधार पर पक्षधर लेखन । आलोचना में वैयक्तिक पसंद-नापसंद के आधार पर खूब लिखा जा रहा है।माओवाद से लेकर नव्य-आर्थिक उदारीकरण पर जमकर अतिवादी ढ़ंग से नकली आलोचना लिखी जा रही है। इससे भारत की सटीक राजनीतिक तस्वीर नहीं  आंकी जा सकती।
    चौथा,आलोचना में पत्रकारिता की समीक्षाशैली का आगमन।इसके आधार पर व्यापक पैमाने पर पुस्तक समीक्षाएं लिखी जा रही हैं। पत्रकारिताशैली में लिखी आलोचनाएं या टीवी से प्रसारित पुस्तक समीक्षा वस्तुतःनकली आलोचना  का ही एक रूप हैं। इस शैली ने आलोचना की छद्म मुद्राओं को जन्म दिया है। साहित्यिक पत्रिकाओं में पुस्तक समीक्षा या समीक्षा के नाम पर ऐसी समीक्षा लिखी जा रही है। इसकी शैली है यह मेरी निजी धारणा है , आलोचना में निजी धारणा जैसी कोई चीज नहीं होती। आलोचना नेकनीयती का लेखन भी नहीं है।
   पांचवां, साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित समीक्षा में सचेत रूप से आलोचना और राजनीति के अन्तस्संबंध का विच्छेद। इस आलोचना में किसी भी किस्म की राजनीतिक प्रतिबद्धता नहीं है। यह आलोचना मनमौजी प्रतिक्रिया और तयशुदा रूप में लिखी जा रही है। इसमें प्रतिरोधी शक्ति नहीं है। फलतः आलोचना में प्रतिरोधहीनता चरम पर पहुँच गयी है।
   छठा,  समीक्षक द्वारा प्रकाशक के दायित्व का निर्वहन।मसलन् प्रमुख समीक्षकों द्वारा पसंदीदा प्रकाशक की किताबों की भूरि-भूरि प्रशंसा। प्रकाशक की सेवा में लिखी या बोली गयी इस तरह की समीक्षा को इन दिनों वस्तुगत समीक्षा कहा जा रहा है,असल में यह रीतिवाद है।  इस तरह की समीक्षा वस्तुतः मार्केटिंग रणनीति का हिस्सा।इसमें समीक्षक वस्तुतः बिचौलिए की भूमिका अदा करता है। प्रकाशक से प्रतिबद्धता वैसे ही है जैसे आलोचक की किसी लेखक संघ या राजनीतिकदल से प्रतिबद्धता होती है और वह उसके विचारों के प्रचार के लिए लिखता है।
    सातवां, राजनीतिक कार्यक्रम के आधार पर आलोचना लेखन। इस तरह की समीक्षा अवसरवादी समीक्षा है। जबकि यह क्रांतिकारी समीक्षा होने का दावा करती है। इस तरह की समीक्षा ने आलोचना के बुनियादी लक्ष्य को ही तिलांजलि दे दी है। इस समीक्षा ने राजनीतिक अंतर्वस्तु विवेचन को ही समीक्षा बना दिया है। वे कृति बाह्य संबंधों को तो देखते हैं लेकिन आंतरिक संबंधों को उदघाटित नहीं कर पाते।
   वाल्टर बेंजामिन के शब्दों में  किसी कृति की भीतरी दुनिया देखने का अर्थ है उन तरीकों का हवाला देना ,जहाँ कलाकृति का सत्य और भौतिक दुनिया का सत्य एक-दूसरे में प्रवेश करते हैं। यानी आलोचना का काम है कृति में निहित सत्य के साथ एकाकार होना। बेंजामिन कहते हैं कृति का वह आंतरिक इलाका,जहाँ सत्य का अंश और भौतिक अंश आपस में मिलते हैं। यही वह स्थान है जहां सौंदर्य के सारे संदेह गायब हो जाते हैं। 
    वाल्टर बेंजामिन के शब्दों में आलोचना  के लिए सबसे महत्वपूर्ण है कोमल स्पर्श ,वह दुलार जिसके  साथ वह रचना अपनी जड़ों समेत निकाली जाती है,क्योंकि यही वो चीज है जो ज्ञान की मिट्टी को उन्नत बनाती है।बाकी सब कुछ अपने आप होता जाएगा।क्योंकि रचना के गुण ही सर्वोत्तम अर्थों में आलोचना के नाम के हकदार हैं। 
   
     आठवां , आलोचना के नाम पर प्रशंसा की बौछार करना। प्रशंसा सबसे अधिक रचनाकार को ही संदिग्ध बना देती है। आलोचक ,अमूमन प्रशंसक या भांड की तरह वाहियात पुस्तकों की खूब प्रशंसा करते हैं। वे गंभीर पुस्तकों के साथ कोई भिन्न व्यवहार नहीं करते।
    नौवां, आस्थाओं के आधार समीक्षा लेखन। यह ऐसी समीक्षा है जो जीवनसत्य से एकदम कटी हुई है। ये ऐसी आस्थाएं हैं जो चुक गयी हैं, इनसे सामयिक यथार्थ पकड़ में नहीं आता। साहित्यिक गतिविधियों का एक बड़ा अंश इनसे संचालित है और यह पूरी तरह जीवनरहित और रिचुअल्स है।
    साहित्यिक गतिविधियां साहित्यिक माहौल नहीं बनाती और नहीं बिगाड़ती हैं , इनसे साहित्य का प्रभाव भी नहीं पड़ता। साहित्य का महत्वपूर्ण प्रभाव, सिर्फ़ लेखन और कर्म,कर्म और लेखन की नियमित अदला-बदली से ही संभव है।
   आलोचना के महत्व पर बेंजामिन के शब्दों में कहें तो समाज के विशालकाय अस्तित्व में ,मत-निर्धारण का वही महत्व है जो एक भारी मशीन के लिए तेल का होता है। कोई भी टरबाइन के सिर पर चढ़कर उसे तेल से नहीं नहलाता,बल्कि उन छोटे-छोटे तकुओं और छिपे हुए जोड़ों पर- जो सिर्फ़ उसे ही पता होते हैं-तेल की बूँदें टपकाता है।      

(रानी बिडला कॉलेज और गोयनका कॉलेज कोलकाता के संयुक्त तत्वावधान में रामविलास शर्मा पर आयोजित जन्मशती संगोष्ठी के मौके पर दिया गया बीजभाषण,यह भाषण कल के लिए पत्रिका के मार्च 2013 में प्रकाशित हुआ है ) 



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