विगत शुक्रवार को प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय में चांसलर और राज्य के राज्यपाल एम.के नारायणन ने छात्रों से कैम्पस में हुई तोड़फोड़ और हिंसा से छात्रों की रक्षा न कर पाने के लिए माफी मांगी। चांसलर का स्वर पीड़ा से भरा था लेकिन वे भरोसा पैदा नहीं कर पा रहे थे।कायदे से मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को माफी मांगनी चाहिए लेकिन यह काम राज्यपाल से कराया गया।
प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय में टीएमसी के कार्यकर्त्ताओं ने बुधवार को प्रतिवाद करते हुए हिंसा का ताण्डव किया ,कैम्पस में गेट का ताला तोड़कर प्रवेश किया,छात्र-छात्राओं पर हमले किए, ऐतिहासिक बेकर लैव में जाकर तोड़फोड़ की। उपकुलपति मालविका सरकार ने इस हिंसक ताण्डव को अपनी आंखों से देखा, रजिस्ट्रार ने पुलिस से हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया लेकिन पुलिस मूकदर्शक बनी रही।
उल्लेखनीय है 9 अप्रैल को दिल्ली में योजना आयोग भवन के अहाते में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनके साहयोगी मंत्रियों के खिलाफ एसएफआई ने प्रदर्शन किया था वे मांग कर रहे थे सुदीप्त गुप्ता की पुलिस कस्टैडी में हुई मौत की न्यायिक जांच करायी जाय, उस समय किन्हीं कारणों से एसएफआई कार्यकर्त्ता उत्तेजित हो गए और उन्होंने ममता बनर्जी और उनके सहयोगी मंत्रियों के साथ धींगामुश्ती की,हमला किया,जिसमें राज्य के वित्तमंत्री के कपड़े फट गए और उनको सिर में चोट भी आई। यह निंदनीय घटना थी और लोकतांत्रिक प्रतिवाद की सभी घोषित प्रतिज्ञाओं का खुला उल्लंघन भी। इस घटना के समय मौके पर आंदोलनकारियों में माकपा का दिल्ली नेतृत्व मौजूद था। स्वयं माकपा के राज्यसचिव और एसएफआई के महासचिव जुलूस में मौजूद थे,इसके बाबजूद इस तरह की अशोभनीय घटना घटी। इस घटना के तत्काल बाद समूचे पश्चिम बंगाल में टीएमसी के कार्यकर्त्ताओं ने माकपा के दफ्तरों पर हमले किए,तोड़फोड़ की,आग लगायी।
यहां पर यह उल्लेखनीय है कि पश्चिम बंगाल में 34 साल के वामशासन में कभी भी मुख्यमंत्री के ऊपर शारीरिक हमला नहीं किया गया,यहां तक कि दिल्ली में भी कभी ज्योति बसु या बुद्धदेव भट्टाचार्य के खिलाफ हिंसक प्रतिवाद उनके विरोधियों ने नहीं किया। जबकि वामशासन में विपक्ष के हजारों कार्यकर्ताओं की माकपा के लोगों के हाथों मौत हुई है। एसएफआई का दिल्ली में हिंसक प्रतिवाद निंदनीय है । इस प्रतिवाद से पता चलता है कि माकपा के अंदर असहिष्णुता और हिंसा की दीमक लग चुकी है। माकपा ने जल्द ही इसका समाधान नहीं खोजा तो जिस तरह हिन्दीभाषी राज्यों में माकपा अस्तित्वहीन हो गयी है कालान्तर में पश्चिम बंगाल में भी उसके अस्तित्वहीन हो जाने का खतरा है। आज स्थिति यह है कि ममता के कुशासन के बाबजूद माकपा पर जनता विश्वास नहीं करती।
9अप्रैल के दिल्लीकांड ने एक अन्य संदेश दिया है कि पश्चिम बंगाल इनदिनों अपने विलोम में जी रहा है। एक जमाना था जब बंगाली समाज शांतिप्रिय, विद्वत्तापसंद, राजनीतिक सचेतन और लोकतंत्र पसंद था। यही चेतना यहां के राजनेताओं में थी। लेकिन इनदिनों यह राज्य एकदम विलोम अवस्था में जी रहा है।
इनदिनों बंगाल का अर्थ है अशांत और असामान्य राज्य। यहां लंपट कल्चर ने सभ्य -लोकतांत्रिक संस्कृति को पदस्थ कर दिया है। नियमहीनता इस राज्य का प्रधान मूल्य है। राजनीति से लेकर प्रशासन के विभिन्न स्तरों और विभागों तक, शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य-उद्योग और जनसेवा के क्षेत्रों तक नियमहीनता और धन वसूली ने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है।
वामशासन में पार्टी के आदेश पर काम होता था इनदिनों घूस के आदेश पर काम होता है। वामशासन में हिंसा थी इनदिनों अराजकता है। वामशासन में सत्ता पक्ष और विपक्ष में संवादहीनता और निजी हिंसा थी इनदिनों संवादहीनता और सामाजिक हिंसा है। पश्चिम बंगाल में जिस तरह के हालात बन गए हैं उसमें शांति या सामान्य स्थिति की निकट भविष्य में संभावनाएं नजर नहीं आतीं।
चौंतीस साल के वामशासन के अवसान के बाद यह माना जा रहा था कि राज्य में हिंसा ,बमबाजी, तोड़फोड़, धमकी देना,धन वसूलना आदि बंद होगा लेकिन अब यह सब स्वप्न लगता है। समूची राजनीति को उत्पाती मानसिकता ने घेर लिया है।
पश्चिम बंगाल का सामान्य फिनोमिना है उलटा चलो। उलटा चलो या उलटा करो की संस्कृति तब पैदा होती है जब कान बंद हो जाएं,आंखों से दिखाई न दे और बुद्धि का आंख-कान में संबंध खत्म हो जाय। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से लेकर विमान बसु तक सभी में उलटा चलो की संस्कृति को सहज ही देखा जा सकता है।
उल्लेखनीय है पश्चिम बंगाल में हिंसा की संस्कृति को कांग्रेस ने रोपा,नक्सलियों ने सींचा,माकपा ने हिंसा के खेतों की रखवाली की और इसकी कई फसलें उठायीं और इनदिनों ममता सरकार उसी हिंसा की फसल के आधार पर अपने राजनीतिक कद का विस्तार करना चाहती हैं।
हिंसा के आधार पर राजनीति कद का विस्तार करने की कला का बीजवपन कांग्रेस ने 1971-72 में किया था,कालान्तर में इस फसल से राजनीतिक लाभ लेने की सभीदलों ने कोशिश की। हिंसा के आधार पर राजनीतिक लाभ लेने के चक्कर में कांग्रेस का यहां अस्तित्व समाप्त हो गया और अब वामदलों का जनाधार तेजी से सिकुड़ रहा है,कालान्तर में ममता और उनके दल को भी अप्रासंगिक होना पड़ेगा। ऐसी अवस्था में राज्य में अपराधी गिरोहों की गुटबाजी में राज्य की राजनीति में फंसकर रह जाएगी।
राजनीतिक दलों के हिंसक होने का अर्थ है माफियातंत्र की प्रतिष्ठा। लोकतंत्र में हिंसा तात्कालिक बढ़त देती है लेकिन दीर्घकालिक तौर पर अप्रासंगिक बना देती है। दुर्भाग्य से पश्चिम बंगाल इन दिनों भद्रलोक से निकलकर माफियालोक की ओर जा रहा है। माफिया गिरोहों के सामने माकपा से लेकर टीएमसी तक सभी बौने नजर आ रहे हैं। माफिया गिरोह जिस तरफ इच्छा होती है उधर चीजों को मोड़ रहे हैं। माफिया मानसिकता ने विगत दो दशक पहले माकपा के पार्टीतंत्र में प्रवेश किया था और आज वह पूरे समाज में छायी हुई है।आज सभी दल इसके सामने नतमस्तक हैं।
प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय में टीएमसी के कार्यकर्त्ताओं ने बुधवार को प्रतिवाद करते हुए हिंसा का ताण्डव किया ,कैम्पस में गेट का ताला तोड़कर प्रवेश किया,छात्र-छात्राओं पर हमले किए, ऐतिहासिक बेकर लैव में जाकर तोड़फोड़ की। उपकुलपति मालविका सरकार ने इस हिंसक ताण्डव को अपनी आंखों से देखा, रजिस्ट्रार ने पुलिस से हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया लेकिन पुलिस मूकदर्शक बनी रही।
उल्लेखनीय है 9 अप्रैल को दिल्ली में योजना आयोग भवन के अहाते में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनके साहयोगी मंत्रियों के खिलाफ एसएफआई ने प्रदर्शन किया था वे मांग कर रहे थे सुदीप्त गुप्ता की पुलिस कस्टैडी में हुई मौत की न्यायिक जांच करायी जाय, उस समय किन्हीं कारणों से एसएफआई कार्यकर्त्ता उत्तेजित हो गए और उन्होंने ममता बनर्जी और उनके सहयोगी मंत्रियों के साथ धींगामुश्ती की,हमला किया,जिसमें राज्य के वित्तमंत्री के कपड़े फट गए और उनको सिर में चोट भी आई। यह निंदनीय घटना थी और लोकतांत्रिक प्रतिवाद की सभी घोषित प्रतिज्ञाओं का खुला उल्लंघन भी। इस घटना के समय मौके पर आंदोलनकारियों में माकपा का दिल्ली नेतृत्व मौजूद था। स्वयं माकपा के राज्यसचिव और एसएफआई के महासचिव जुलूस में मौजूद थे,इसके बाबजूद इस तरह की अशोभनीय घटना घटी। इस घटना के तत्काल बाद समूचे पश्चिम बंगाल में टीएमसी के कार्यकर्त्ताओं ने माकपा के दफ्तरों पर हमले किए,तोड़फोड़ की,आग लगायी।
यहां पर यह उल्लेखनीय है कि पश्चिम बंगाल में 34 साल के वामशासन में कभी भी मुख्यमंत्री के ऊपर शारीरिक हमला नहीं किया गया,यहां तक कि दिल्ली में भी कभी ज्योति बसु या बुद्धदेव भट्टाचार्य के खिलाफ हिंसक प्रतिवाद उनके विरोधियों ने नहीं किया। जबकि वामशासन में विपक्ष के हजारों कार्यकर्ताओं की माकपा के लोगों के हाथों मौत हुई है। एसएफआई का दिल्ली में हिंसक प्रतिवाद निंदनीय है । इस प्रतिवाद से पता चलता है कि माकपा के अंदर असहिष्णुता और हिंसा की दीमक लग चुकी है। माकपा ने जल्द ही इसका समाधान नहीं खोजा तो जिस तरह हिन्दीभाषी राज्यों में माकपा अस्तित्वहीन हो गयी है कालान्तर में पश्चिम बंगाल में भी उसके अस्तित्वहीन हो जाने का खतरा है। आज स्थिति यह है कि ममता के कुशासन के बाबजूद माकपा पर जनता विश्वास नहीं करती।
9अप्रैल के दिल्लीकांड ने एक अन्य संदेश दिया है कि पश्चिम बंगाल इनदिनों अपने विलोम में जी रहा है। एक जमाना था जब बंगाली समाज शांतिप्रिय, विद्वत्तापसंद, राजनीतिक सचेतन और लोकतंत्र पसंद था। यही चेतना यहां के राजनेताओं में थी। लेकिन इनदिनों यह राज्य एकदम विलोम अवस्था में जी रहा है।
इनदिनों बंगाल का अर्थ है अशांत और असामान्य राज्य। यहां लंपट कल्चर ने सभ्य -लोकतांत्रिक संस्कृति को पदस्थ कर दिया है। नियमहीनता इस राज्य का प्रधान मूल्य है। राजनीति से लेकर प्रशासन के विभिन्न स्तरों और विभागों तक, शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य-उद्योग और जनसेवा के क्षेत्रों तक नियमहीनता और धन वसूली ने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है।
वामशासन में पार्टी के आदेश पर काम होता था इनदिनों घूस के आदेश पर काम होता है। वामशासन में हिंसा थी इनदिनों अराजकता है। वामशासन में सत्ता पक्ष और विपक्ष में संवादहीनता और निजी हिंसा थी इनदिनों संवादहीनता और सामाजिक हिंसा है। पश्चिम बंगाल में जिस तरह के हालात बन गए हैं उसमें शांति या सामान्य स्थिति की निकट भविष्य में संभावनाएं नजर नहीं आतीं।
चौंतीस साल के वामशासन के अवसान के बाद यह माना जा रहा था कि राज्य में हिंसा ,बमबाजी, तोड़फोड़, धमकी देना,धन वसूलना आदि बंद होगा लेकिन अब यह सब स्वप्न लगता है। समूची राजनीति को उत्पाती मानसिकता ने घेर लिया है।
पश्चिम बंगाल का सामान्य फिनोमिना है उलटा चलो। उलटा चलो या उलटा करो की संस्कृति तब पैदा होती है जब कान बंद हो जाएं,आंखों से दिखाई न दे और बुद्धि का आंख-कान में संबंध खत्म हो जाय। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से लेकर विमान बसु तक सभी में उलटा चलो की संस्कृति को सहज ही देखा जा सकता है।
उल्लेखनीय है पश्चिम बंगाल में हिंसा की संस्कृति को कांग्रेस ने रोपा,नक्सलियों ने सींचा,माकपा ने हिंसा के खेतों की रखवाली की और इसकी कई फसलें उठायीं और इनदिनों ममता सरकार उसी हिंसा की फसल के आधार पर अपने राजनीतिक कद का विस्तार करना चाहती हैं।
हिंसा के आधार पर राजनीति कद का विस्तार करने की कला का बीजवपन कांग्रेस ने 1971-72 में किया था,कालान्तर में इस फसल से राजनीतिक लाभ लेने की सभीदलों ने कोशिश की। हिंसा के आधार पर राजनीतिक लाभ लेने के चक्कर में कांग्रेस का यहां अस्तित्व समाप्त हो गया और अब वामदलों का जनाधार तेजी से सिकुड़ रहा है,कालान्तर में ममता और उनके दल को भी अप्रासंगिक होना पड़ेगा। ऐसी अवस्था में राज्य में अपराधी गिरोहों की गुटबाजी में राज्य की राजनीति में फंसकर रह जाएगी।
राजनीतिक दलों के हिंसक होने का अर्थ है माफियातंत्र की प्रतिष्ठा। लोकतंत्र में हिंसा तात्कालिक बढ़त देती है लेकिन दीर्घकालिक तौर पर अप्रासंगिक बना देती है। दुर्भाग्य से पश्चिम बंगाल इन दिनों भद्रलोक से निकलकर माफियालोक की ओर जा रहा है। माफिया गिरोहों के सामने माकपा से लेकर टीएमसी तक सभी बौने नजर आ रहे हैं। माफिया गिरोह जिस तरफ इच्छा होती है उधर चीजों को मोड़ रहे हैं। माफिया मानसिकता ने विगत दो दशक पहले माकपा के पार्टीतंत्र में प्रवेश किया था और आज वह पूरे समाज में छायी हुई है।आज सभी दल इसके सामने नतमस्तक हैं।
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