शुक्रवार, 31 जुलाई 2009

अस्‍ि‍मता और आत्‍मकथा की चुनौति‍यां

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में विशेष-

अस्मिता और आत्मकथा की चुनौतियां

लेखक के विजन का उसके सामयिक सरोकारों के साथ गहरा संबंध होता है। इन दिनों लेखक के बारे में जितनी भी बातें हो रही हैं वे लेखक के दार्शनिक सैध्दान्तिक नजरिए को दरकिनार करके हो रही हैं। लेखक के बारे में हम हल्के -फुलके ढ़ंग या चलताऊ ढ़ंग से सोचा जा रहा है। साहित्य और जीवन से जुड़े गंभीर सवालों से किनाराकशी चल रही है। आज हम लेखक के विजन की बातें नहीं कर रहे बल्कि हल्की-फुल्की चुटकियों के जरिए बहस कर रहे हैं। किसी भी लेखक को पढ़ने का सबसे सटीक प्रस्थान बिंदु है उसका विजन। विजन पर बातें करने का अर्थ है उसके दार्शनिक प्रकल्प में दाखिल होना। बगैर दार्शनिक प्रकल्प में दाखिल हुए किसी भी कवि की कविता या साहित्य को विश्लेषित करना संभव नहीं है।

सवाल उठता है रचना का लेखक कौन है ? अमूमन रचना व्यक्तिगत प्रयास के रूप में जानी जाती थी आज रचना का लेखक व्यक्ति नहीं है। बल्कि रचना सामूहिक सृजन की देन है। 'रश्मिरथी' में कर्ण कथा को विषयवस्तु के रूप में चुनकर लेखक ने सर्जक के नए आयाम का उद्धाटन किया है। यह महाभारत की कहानी है। महाभारत सामूहिक लेखन की देन है। इस अर्थ में दिनकर ने एकदम नयी समस्या की ओर ध्यान खींचा है आज के युग में लेखन व्यक्तिगत की बजाय सामूहिक अथवा सहयोगी होगा। कर्ण की कहानी हम वर्षों से सुनते आ रहे हैं। कहानी पुरानी है ,काव्य प्रस्तुति नयी है। 'रश्मिरथी' में कर्ण का चित्रण टाइप पात्र के रूप में हुआ है। यह पात्र हमारे मन में रमा हुआ है। टाइप पात्र के बहाने कर्ण हमारे मन की तहों को खोलता है।

टाइप पात्र होने के कारण कर्ण ने 'अस्मिता' के अन्तर्विरोधों को अभिव्यक्त किया है। 'अस्मिता' में प्रतिस्पर्धा,उत्तेजना और त्रासदी भाव प्रमुख रूप से होता है। अस्मिता की धुरी है 'अन्याय'। अस्मिता विमर्श अन्याय के सवालों को केन्द्र में लाता है। अस्मिता अमूमन संवेदनात्मक उत्तेजना से ऊर्जा ग्रहण करती है। भाषा उसका सेतु है। अस्मिता विमर्श में उत्तेजक भाषा प्रमुख उपकरण है। यही वजह है कि 'रश्मिरथी' में वीरत्व व्यंजक भाषिक संरचना का इस्तेमाल किया गया है। अस्मिता की भाषा 'व्यक्तिगत आत्महीनता' को बार-बार व्यक्त करती है। कर्ण की भाषा में इसे सहज ही देखा जा सकता है।

'रश्मिरथी' के कुछ बुनियादी तत्व हैं जो उभरते हैं पहला है अस्मिता हमेशा प्रतिस्पर्धी और बहुरूपी होती है। दूसरा तत्व है भावुकता और सामाजिक तनाव। तीसरा , आत्महीनता। चौथा ,अस्मिता का सामयिक फ्रेमवर्क । पांचवा , अस्मिता की राजनीति। अस्मिता विमर्श का सत्ता विमर्श के साथ संबंध । छठा, अस्मिता विमर्श व्यक्तिवादी विमर्श है।

अस्मिता विमर्श का इन दिनों जो रूप देखने में आ रहा है उसके दो प्रमुख आयाम है पहला है 'अन्याय' और दूसरा है ' इच्छर्ापूत्ति'। सामाजिक-सांस्कृतिक रूपों में इन दो रूपों में अस्मिता का व्यापक उपभोग हो रहा है। अस्मिता विमर्श मूलत: उत्पादक होता है। सामाजिक शिरकत को बढ़ावा देता है। पात्र क्या चाहते हैं यही इसके आख्यान की धुरी है। लेखक ने 'रश्मिरथी' में व्यक्तिगत इच्छाओं को ऐतिहासिक- राजनीतिक संरचनाओं के फ्रेमवर्क में रखकर पेश किया है। पात्र क्या चाहते हैं ? यही प्रधान बिंदु है जिसके इर्दगिर्द सारा कथानक घूमता है।

कर्ण के बहाने लेखक यह रेखांकित करना चाहता है कि किसी भी पात्र की अस्मिता एक नहीं होती बल्कि उसके व्यक्तित्व में एकाधिक अस्मिताएं होती हैं, अस्मिता वस्तुत: मुखौटा है। जिन्हें पात्र या व्यक्ति धारण किए रहता है। दूसरा संदेश है अस्मिता कभी स्वाभाविक नहीं होती। वह सामाजिक निर्मिति है। अस्मिता की धुरी है मनुष्य और मानवता। मुखौटे खोखले होते हैं,मनुष्य सारवान है। कर्ण के जितने भी मुखौटे हैं वे अप्रासंगिक हैं कर्ण की मानवीयता महान् है।

अस्मिता का कोई न मित्र है न शत्रु । अस्मिता की सारी आपत्तियां 'अन्याय' के खिलाफ हैं। 'अन्याय' के खिलाफ जंग में सामाजिक लामबंदी का उपकरण है अस्मिता। सवाल यह है अंत में अस्मिता किस बिंदु पर पहुँचती है ? क्या पुन: लौटकर अस्मिता की ओर लौटते हैं अथवा मानवता की ओर पहुँचते हैं। कर्ण के बहाने लेखक ने अपने कार्यकत्तर्ाा भाव का परिचय दिया है। वह पाठकों को सक्रिय करना चाहता है। इसी अर्थ में 'रश्मिरथी' राजनीतिक कार्रवाई है। लेखक बताना चाहता है अस्मिता मूलत: राजनीतिक मंशा की देन है। अस्मिता पर राजनीति के बिना चर्चा संभव नहीं है। अस्मिता में निहित व्यक्तिगत और सामाजिक इच्छाओं को अभिव्यक्त किया है।

अस्मिता विमर्श का इतिहास से गहरा संबंध है। इतिहास में जाए बिना इसका चित्रण और विवेचन संभव नहीं है। साथ ही अस्मिता हमेशा विकल्प को व्यक्त करती है। 'रश्मिरथी' में भी अस्मिता के विकल्प की तलाश की गयी है। जाति के इतिहास और विकल्प को बड़ी ही सुंदरता के साथ प्रस्तुत किया है। कर्ण की पहचान का आधार है जाति संबंध। इसकी परिणति है कर्ण की अपमानभरी त्रासद जिंदगी। लेखक का मुख्य लक्ष्य है कर्ण,अर्जुन आदि पात्रों की अस्मिता की निरर्थकता को उद्धाटित करना। अस्मिता की पर्तों को खोलते-खोलते कर्ण को सामान्य मनुष्य के रूप में प्रतिष्ठित करने में लेखक को सफलता मिली है।

कर्ण सभ्य है। स्त्री और मित्रता का सम्मान करता है। संवेदनशील और उदार है। कर्ण के मानवता, दानवीरता, उदारता, मित्रता, संवेदनशीलता आदि गुणों की आज भी महत्ता है। कर्ण के अनुभव अन्य पात्रों के अनुभवों से भिन्ना हैं। पात्रों में अनुभवों की भिन्नाता स्वाभाविक चीज है। अस्वाभाविक है इस भिन्नाता को छिपाना। जाति,धर्म,वैभव आदि को लेकर कर्ण की भिन्ना राय है। वह परंपरागत सामाजिकता का निषेध करता है। वह अस्मिता संघर्ष के जरिए एक ओर अपनी पहचान बदलता है दूसरी ओर अपनी आर्थिक अवस्था का अतिक्रमण करता है। कर्ण क्रमश:अवैध संतान ,सूतपुत्र,वीर,राजा, कौरव सेनापति बना। कर्ण स्वनिर्मित ,आत्मनिर्भर या सेल्फमेड है।

कर्ण मर्द है। वीरता पर गर्वित है। पुरूषार्थ उसकी संपदा है। पुरूषार्थ के बल पर भाग्य पर विजय हासिल करता है। पुरूष पात्र पुरूषार्थ जरिए भाग्य को पछाड़ते हैं। इसके विपरीत दिनकर ने कुंती के बहाने औरत की नियति का चित्रण किया है। स्त्री का अपने भवितव्य पर नियंत्रण नहीं होता फलत: वह अपनी कहानी सेंसर करती है। वीरता के कारण कर्ण भाषा ,संस्कृति और जाति की सीमाओं का अतिक्रमण करता है। कर्ण के पक्षधर और विरोधी दोनों में उसकी वीरता निर्विवाद है। वह कौरवों को एकजुट रखने में सफल रहता है। वीरता के कारण कर्ण को महाभारत के अद्वितीय चरित्रों की कोटि में रखा जाता है। दुर्योधन का पांडवों के साथ युध्द का फैसला बहुत कुछ कण्र्ा के ऊपर ही निर्भर था। महाभारत को अर्थपूर्ण बनाने में कर्ण की निर्णायक भूमिका है। कर्ण की सृष्टि के बिना महाभारत लिखा ही नहीं जाता। महाभारत में वीरों के वैभव का जो विराट रूप सामने आता है उसकी धुरी है कर्ण। कर्ण महाभारत के कथानक को बांधने वाला महत्वपूर्ण ,निर्णायक और विवादास्पद पात्र है। महाभारत में दो पात्र हैं जो अस्मिता विमर्श के स्रोत हैं पहला ,द्रौपदी और दूसरा कर्ण। दोनों ही पितृसत्ता के लिए चुनौती हैं।

कर्ण पितृसत्ता को चुनौती देता है। पितृसत्ता के सांस्थानिक रूप जाति व्यवस्था की अमानवीयता को उद्धाटित करता है। दलित,राजा,मर्द,वीर आदि सब रूपों का अतिक्रमण करते हुए 'मित्रता' 'आत्मनिर्भरता' और 'प्रेम' के प्रतीक रूप में सामने आता है। किसी को कर्ण का जाति विमर्श अपील करता है,किसी को वीरता, उदारता,मित्रता और वचनबध्दता अपील करती है। कर्ण उन वर्गों और सामाजिक समूहों को प्रभावित करते हैं जो अपना रूपान्तरण करना चाहते हैं। जो प्रतिवादी भावना के साथ सामाजिक विकास करना चाहते हैं। कर्ण की सबसे ज्यादा अपील वंचितों और दलितों में है। सबसे ज्यादा अपील उनमें है जो वर्ग अपनी पहचान अथवा अस्मिता की तलाश में हैं। अस्मिता के प्रचलित मानकों का कर्ण अनुकरण नहीं करता। अस्मिता मानकों में निहित खोखलेपन को सामने लाता है।

जाति,लिंग,नस्ल,त्वचा,धर्म आदि पर आधारित अस्मिता की सीमित भूमिका होती है। अस्मिता का मूलाधार है मानवता। मनुष्य ही प्रधान अस्मिता है। बाकी इसके मुखौटे हैं। कर्ण का संघर्ष मुखौटों के खिलाफ है। वह मुखौटे उतार फेंकता है। अस्मिता के मुखौटों में कर्ण का दम घुटता है। अस्मिता के मुखौटों को नष्ट करने के साथ कर्ण का उदारमना मानवीय मन सामने आता है। कर्ण की खूबी है दूसरों के प्रति त्याग भावना। 'रश्मिरथी' में जिस युध्द का वर्णन है यह मूलत: अस्मिता युध्द है। यह अस्मिता संघर्ष में निहित आत्मघाती भावबोध की भी अभिव्यक्ति है। अस्मिता आमतौर पर स्वयं को नष्ट करती है। वह 'स्व' को नष्ट करती है।

'रश्मिरथी' कर्ण की आत्मकथा है। आत्मकथा में आत्म-स्वीकृति,आत्म-उद्धाटन और शिरकत का तत्व रहता है। आत्मकथा में वे चीजें बतायी जाती हैं जिन्हें लोग नहीं जानते। जो जानते हैं उसे आत्मकथा में नहीं चाहते। आत्मकथा के छह मूल तत्व हैं। इन तत्वों के आधार पर 'रश्मिरथी' का समग्र ताना-बाना टिका है।

आत्मकथा का पहला तत्व है व्यक्तिगत अस्मिता और निर्वैयक्तिकता। कर्ण की कहानी व्यक्तिगत है, प्रस्तुति निर्वैयक्तिक है। कर्ण की निर्वैयक्तिक छवि निर्मित करने में भाषा प्रमुख कारक है। भाषा के जरिए कर्ण के प्रति ज्ञान में इजाफा होता है। रश्मिरथी' में कविता और कहानी दोनों के मिश्रित प्रयोग मिलते हैं। कर्ण की कथा और कविता मिलकर अस्मिता का बोध निर्मित करती है। अस्मिता एक नहीं अनेकरूपा है। सर्जनात्मक संभावनाओं से भरी है। कर्ण की आत्मनिष्ठ छवि के सामाजिक आयाम पर जोर देने में लेखक को सफलता मिली है। दूसरी महत्वपूर्ण यह है कि अस्मिता का शरीर के साथ गहरा संबंध है। कर्ण के कवच-कुंडल और कर्ण के शरीर का अंत ,'रश्मिरथी' को उत्तर आधुनिक अस्मिता विमर्श में ले जाता है। टेरी इगिलटन के अनुसार 'उत्तर आधुनिक व्यक्ति की अस्मिता के साथ उसका शरीर अन्तर्ग्रथित है।'

आत्मकथा का दूसरा तत्व है उपस्थिति,वर्तमान और प्रस्तुति। रोलां बार्थ के शब्दों में आत्मकथा को उपन्यास के चरित्रों के माध्यम से व्यक्त होना चाहिए। 'रश्मिरथी' में कर्ण की आत्मकथा विभिन्ना चरित्रों के माध्यम से सामने आती है। आत्मकथा लिखते समय चिर-परिचित क्षेत्र हमेशा परेशान करते हैं। चिर-परिचित वातावरण समस्या पैदा करता है। चिर-परिचित यथार्थ है भारत की जाति समस्या। जाति समस्या लेखक को परेशान और उत्तेजित दोनों ही करती है। जातिप्रथा को करीब से जानने के कारण लेखक को इसके बारे में सटीक वर्णन ,विवरण और ब्यौरे तैयार करने में मदद मिली है। लेखक को जातिप्रथा की अनेक 'दरारें' नजर आती हैं। आत्मकथा में 'दरारों' की केन्द्रीय भूमिका होती है। 'दरारें' पुराने व्यक्तित्व की जगह नए व्यक्तित्व को सामने लाने का काम करती हैं। कर्ण की जाति पीड़ा जितनी बार व्यक्त हुई है उतनी ही बार कर्ण का नया रूप सामने आया है। पुराना कर्ण बदला है। लेखक कहीं पर भी कण्र्ा के पुराने रूप को स्थापित करने का प्रयास नहीं करता। हमेशा नए रूप को सामने लाता है। कर्ण पुराने रूप के साथ सामंजस्य बिठाने की बजाय 'दरारों' और 'अंतरालों' के बीच में से नए रूप में सामने आता है। रोलां बार्थ ने आत्मकथा के बारे में लिखा है आत्मकथा में आप स्वयं को नहीं देखते बल्कि इमेज को देखते हैं। अपनी आंखों को नहीं देखते। आत्मकथा लेखन हमेशा विचलनभरा होता है। विचलन के ऊबड़ खाबड़ पैरामीटर सर्किल बनाते हैं। इन रास्तों से गुजरने के बाद एक ही संदेश संप्रेषित होता है कि जिंदगी अर्थपूर्ण है। आत्मकथा का केन्द्र बिंदु कौन सा है ? यह खोजने की जरूरत है।

आत्मकथा में विश्वास सबसे बड़ी चीज है। आस्था के साथ लिखी आत्मकथा इमेज बनाती है। आत्मकथा में चित्रण के लिए चित्रण नहीं होता बल्कि प्रस्तुति पर जोर रहता है। आत्मकथा चिर-परिचित यथार्थ की प्रस्तुति होती है। प्रस्तुति में अंतराल ज्यादा साफ नजर आते हैं। क्योंकि आत्मकथा में समग्रता के तत्व का पालन नहीं होता।

आत्मकथा में न्यूनतम अनुकरण, उद्धाटन ,विवरण और आख्यान होता है। आत्मकथा में नामों का जिक्र और नामों के साथ जुड़े अनुभवों का वर्णन होता है। फलत: आत्मकथा के दायरे में अनेक मील के पत्थर और पैरामीटर होते है। आत्मकथा के रूप में यदि 'रश्मिरथी' को देखा जाए तो पाएंगे कि वहां भाषा ही आत्मकथा है। भाषा का संसार ही है जिसके कारण यह कृति अपील करती है। भाषा के माध्यम से ही कर्ण की विभिन्ना पर्तों को लेखक ने खोला है।

आत्मकथा में भाषा बहुत बड़ा आधार है। आत्मकथा की भाषा में प्रस्तुति 'मैं' के अंत की घोषणा है। ''मैं'' संकेत मात्र होकर रह जाता है। भाषा सामूहिक प्रयासों से बनती है। आत्मकथा के 'मैं' का राजनीतिक - दार्शनिक चीजों में लोप हो जाता है। भाषाविज्ञान में लोप हो जाता है। आत्मकथा में '' मैं'' हमेशा घुला मिला होता है। आत्मकथा में जैसे 'तुम','वह','हम' होते हैं वैसे ही 'मैं' भी होता है। आत्मकथा में सब्जेक्ट और ऑब्जेक्ट दोनों एक हो जाते हैं। वक्ता और विषय एक हो जाते हैं।

आत्मकथा का तीसरा प्रमुख तत्व है सुसंगत अनुभूति। दिनकर ने कर्ण के चरित्र को सामने लाकर पात्र के जीवन के तथ्यों को सीधे बगैर किसी लाग-लपेट के पेश किया है। आत्मकथा में तथ्यों को बगैर चासनी के पेश किया है। बगैर किसी कृत्रिमता के पेश किया है। तथ्यों को अकृत्रिम भाव से पेश करना आत्मकथा का उत्तर आधुनिक फिनोमिना है। उत्तर आधुनिक आत्मकथा में अनिश्चितता,विचलन आदि को सहज ही देख सकते हैं। इसमें भाषा और विमर्श प्रभावशाली होते हैं।

साहित्य में सत्य नहीं 'फिक्शन' होता है। साहित्य सत्य नहीं गल्प है। सत्य का आख्यान कभी गल्प के बिना नहीं बनता। 'रश्मिरथी' गल्प है। आत्मकथा में जीवन सुंदर और साफसुथरा दिखता है वास्तव में वैसा नहीं होता। बल्कि बेहद जटिल और उलझनों से भरा होता है। आत्मकथा में जीवन का जो पैटर्न और संतुलन नजर आता है वह जीवन में नहीं होता। आत्मकथा हमेशा उन अनुभवों का प्रतिवाद करती है जो हमारे इर्द-गिर्द होते हैं। अनुभवों के जरिए जीवन के सवाल उठाए जाते हैं। उन चीजों को शक्ल प्रदान की जाती है जिनकी कोई पहचान नहीं है। जो शक्लविहीन हैं। संवेदनात्मक तौर पर जिन्हें हम महसूस नहीं करते उन चीजों को अभिव्यक्त करने की कोशिश की जाती है।

उपन्यास,कविता ,कहानी आदि सर्जनात्मक विधारूप में जब आत्मकथा लिखी जाती है तो उसमें कल्पनाशीलता की बड़ी भूमिका होती है। कहानी,आत्मकथा,काव्य,सैध्दान्तिकी,वादविवाद आदि सबको 'इच्छा' में शरण लेनी होती है। अनुभव,संवेदना और शिक्षा को रूपान्तरित करने के लिए कल्पना का सहारा लिया जाता है। कल्पना में तयशुदा सीमाओं का अतिक्रमण होता है। आत्मकथा में संस्मरण के दाखिल होते ही कहानी तेजी से बदलती है। कर्ण के साथ कुंती और कृष्ण की मुलाकात कहानी को बुनियादी तौर पर बदल देती है। राजसभा में जब कर्ण के पिता और जाति का नाम पूछा जाता है तो कहानी में बदलाव आता है। कहानी शैली भी बदल जाती है। संस्मरणों के जरिए कहानी में आए बदलाव इस बात का संकेत हैं लेखक सांस्कृतिक बाधाओं अथवा सांस्कृतिक टेबुओं का अतिक्रमण करना चाहता है।

कहानी की सीधे और प्रामाणिक प्रस्तुति का अर्थ है संबंधित व्यक्ति ने अपनी निजी अनुभूति को विकसित कर लिया है। निजी अनुभूति के आधार पर सांस्कृतिक संदेहों का अतिक्रमण करता है। दिनकर ने 'रश्मिरथी' में जातिप्रथा संबंधी निजी अनुभूतियों के आधार पर कर्ण के जीवन में व्याप्त 'अन्याय' को उद्धाटित किया है। इसके ही आधार पर विमर्श की संरचनाओं और कर्ण की अस्मिता का निर्माण किया है। कहने का तात्पर्य यह कि अनुभूति,विमर्श संरचनाएं और अस्मिता के अन्तस्संबंध के आधार पर ही हमारी समझ,व्याख्या,प्रतिक्रिया,विचार आदि बनते हैं। समाज प्रदत्त विमर्श शैली और फ्रेम द्वारा अस्मिता निर्मित होती है और यह उसकी सीमा भी है।

दूसरी ओर लेखक कुछ चीजों को विमर्श में शामिल नहीं करता। उन पर पाबंदी लगाता है। आत्मकथा में सुचिंतित और सुनियोजित भाव से विमर्शों को चुनौती दी जाती है। फलत: आत्मकथा जोखिमभरा लेखन है। आत्मकथा में लेखक जो जोखिम उठाता है उसमें वह आंतरिक सांस्कृतिक कोड का उद्धाटन करता है। ये सांस्कृतिक कोड जीवनानुभवों को देखने में मदद करते हैं। 'रश्मिरथी' की विषयवस्तु महाकाव्य की कहानी है। उसे काव्य 'पाठ' के रूप में रूपान्तरित करके नए किस्म के विधा विमर्श को प्रस्तुत किया है।

दिनकर ने 'रश्मिरथी' में कर्ण की कहानी को व्यापक जाति विमर्श के कैनवास पर रखा है। सामाजिक भेद के व्यापक फलक पर कर्ण के चरित्र का विकास करने के कारण ही हमें पता चलता है कि जाति को लोग कैसे देख रहे हैं और किस तरह देखना चाहिए। साथ ही यह भी सीखने की जरूरत है कि आत्मकथा में निजी अनुभूतियों को कैसे व्यक्त करें। दिनकर ने बताया है कि कर्ण कैसा था, कर्ण की मूल समस्या क्या है, कर्ण से जुड़ा मूल विमर्श या विवाद क्या है, उसे किस तरह देखें। कर्ण के कथानक के सबक क्या हैं और इस समूचे कथानक का हमारे सांस्कृतिक मानकों और सामाजिक कोड्स से क्या संबंध है और इनको कैसे बदलें ?

'रश्मिरथी' के प्रसंग में कहानी और अनुभव के अन्तस्संबंध के बारे में भी सवाल उठता है। कहानी में चीजें तय होती हैं। शक्ल,रूपरेखा और सीमा तय है। जबकि अनुभव अचानक व्यक्त होता है और दिख रही चीजों और तदनुरूप अनुभवों में घुलमिल जाता है। कहानी को हमेशा सरल ,विस्तृत विवरणों और भावनाओं के ज्वार से मुक्त होना चाहिए। कहानी में पैटर्न,प्लाट और अर्थ होता है। फलत: हम कहानी में प्रासंगिक अर्थ खोजते हैं। प्रासंगिक अर्थ के बिना कहानी लिखना संभव नहीं है। प्रत्येक कहानी में रूपान्तरण होता है। प्रत्येक कहानी परिवर्तन और विनिमय करती है। चयन और चुनाव करती है। आत्मकथा में अतीत का सृजन नहीं होता बल्कि आत्म या स्वानुभूतियों का सृजन होता है। अतीत के अनुभवों को नए तरीके से व्यक्त किया जाता है।

आत्मकथा का चौथा तत्व है संप्रेषण और सामूहिकता। लेखक का स्व किसी शून्य में निवास नहीं करता। आत्मकथा लिखते समय अन्य को तबाह करना, अन्य के नजरिए को तबाह करना लक्ष्य नहीं होता। जैसाकि इन दिनों अनेक लेखिकाओं की आत्मकथा में देखने को मिलता है। आत्मकथा का लक्ष्य अन्य को तबाह करके अपना स्थान बनाना नहीं है। विद्वतापूर्ण लेखन में अन्य के प्रति ज्यादा मानवीयता और सम्मान का भाव होता है। मैंने अनेक लेखकों की रचनाएं पढ़ी हैं उनसे असहमत भी रहा हूँ। किंतु उनसे एक बात जरूर सीखी है कि हमें दूसरों की बात सम्मान के साथ सुननी चाहिए। लेखन सिर्फ संप्रेषण नहीं है बल्कि सामूहिकता का एक रूप भी है। यही वह जगह है जहां आप अन्य लेखकों को अपने पास पाते हैं। किसी भी लेखक के लेखन को खारिज करने के भाव से नहीं पढ़ा जाना चाहिए बल्कि स्वीकारने और गहरी जिज्ञासा के साथ पढ़ा जाना चाहिए। जिससे संवाद किया जा सके। लेखन कभी भी स्वयं के लिए नहीं होता अन्य के लिए होता है। दूसरों के लिए होता है। इसी अर्थ में लेखन सामूहिकता बोध पैदा करता है। सामूहिकता को अभिव्यक्त करता है। लेखन कहने के लिए 'स्व' से आरंभ होता है किंतु 'स्व' के लिए नहीं होता। सबके लिए होता है।

आत्मकथा को 'आत्म' या 'निज' को हीन या महान बनाने या सहानुभूति जुटाने के औजार के तौर पर नहीं लिखा जाता। आत्मकथा आत्माभिव्यंजना की खोज है। यह उनके साथ संवाद है जो अन्य की बात सुनने के लिए सहमत हैं । प्रतिक्रिया व्यक्त करने को तैयार हैं। अपनी आत्मकथा खोज रहे हैं।

आत्म को व्यक्त करते समय व्यक्ति 'स्व' में कैद नहीं रहता। बल्कि अपने अलगाव और अज्ञान को दूर करने में आत्म की मदद लेता है। आत्मकथा का मकसद आत्म सत्य को बताना नहीं है। उसका मकसद है आत्मसत्य का खंडन करना। आत्म की बंद गलियों के बाहर आना और उन तमाम चीजों का खंडन करना जिनसे आत्म भिन्ना नजर आता है।

प्रत्येक कहानी में जाति गुण होते हैं। इनके बिना कहानी लिखी नहीं जाती। अथवा शुध्द कहानी जैसी कोई चीज नहीं होती। कहानी हमेशा अर्थ से संचालित होती है। अर्थ के बिना कहानी नहीं होती। अर्थहीन कहानी महज घटनाक्रम है। कहानी में चार चीजें प्रमुख हैं: पहला है ,कहानीपन। दूसरा, कैसे व्यक्त करते हैं। तीसरा ,क्या शिक्षा देते हैं। चौथा कैसे आनंद प्राप्त करते हैं। ये चीजें अलग भी हो सकती हैं और किसी कहानी में एक साथ भी हो सकती हैं। कहानी में ऐसे बिंदु भी आते हैं जहां तथ्य और अनुभूति का मिलन होता है। आत्मकथा निश्चित रूप से व्यक्ति का आख्यान है,यह पेशेवर आत्मस्वीकृति है। यह मनुष्य की आत्मस्वीकृति है जो कि हमेशा संप्रेषण और सामूहिकता की प्रक्रियाओं में रहता है।

आत्मकथा का पांचवां तत्व है छवि,काल्पनिक छवि और कल्पना। वाल्टर वूगीमैन के अनुसार '' वैध ज्ञान की पध्दति कल्पना का अंत है।'' कहानी में शब्द,भाषा और भाषण चेतना निर्मित करते हैं। यथार्थ परिभाषित करते हैं। कल्पना के जरिए रूढिबध्दता से अपने को मुक्त करते हैं। अन्य किस्म का व्यक्तित्व निर्मित करते हैं। कल्पना के जरिए ही सामाजिक-साहित्यिक रूढियों को खारिज करने में मदद मिलती है। मनुष्य का रूपान्तरण होता है। यह रूपान्तरण सामंजस्य बिठाकर नहीं होता। कर्ण क्या है और कर्ण की क्या छवि बन रही है इसकी प्रस्तुति के दौरान दिनकर ने कर्ण को कहीं से भी रूढिबध्द रूप में चित्रित नहीं किया है। कर्ण को चित्रित करते हुए पूर्ण स्वतंत्रता और कल्पना का इस्तेमाल किया है। स्वतंत्रता और कल्पना के प्रयोग के कारण ही आत्मकथा ऊर्जा से भरी होती है। पढ़ने वालों के मन में ऊर्जा का संचार करती है। साहस और आस्था के साथ जोखिम उठाने की प्रेरणा देती है।

आत्मकथा का छठा तत्व है विमर्श,उद्धाटन और समापन। आत्मकथा में आत्म को उद्धाटित करने के लिए साहस की जरूरत होती है। अनेक लेखकों में साहस का अभाव होता है। आत्मविश्वास और साहस के बिना आत्मकथा लिखना संभव नहीं है। जो लेखन में जोखिम उठाते हैं और अपनी बात कहते हैं। वे अपना बोझ हलका करते हैं साथ ही समाज को भी खुली हवा में सांस लेने का मौका देते हैं।

आत्म के बहाने लेखक लंबे समय से बंद कमरों को खोलता है। आत्मकथा में उद्धाटित करते समय लेखक डरता है, डरता है कि कहीं पकड़ा न जाऊँ ? अन्य के सामने नंगे खड़े होने का डर रहता है। यह शर्म और डर कहां से आता है ? असल में जो बौनेपन के शिकार होते हैं वे शर्माते हैं, डरते हैं। औसत बुध्दि के लेखक शर्माते और डरते हैं। इनमें से ज्यादातर रूढियों में जीते और तयशुदा मार्ग पर चलते हैं। 'क्लीचे' में जीते और बातें करते हैं।

मजेदार बात यह है आत्मकथा में आत्म को बताना तो बहुत दूर की बात है लोग कहां जा रहे हैं यह तक साफतौर पर नहीं बताते। वे सामान्य सी चीज को बताने में डरते हैं, शरमाते हैं। उन्हें डर लगता है यदि अपनी बात बता देंगे तो पता नहीं क्या हो जाएगा। अमूमन हमें न बताने की आदत है। छिपाने की आदत है। छिपाना हमारी प्रकृत्ति है। जो छिपाया जा रहा है वह जितना महत्वपूर्ण है उतना ही वह भी महत्वपूर्ण है जो बताया जा रहा है। आत्मकथा को लिखने का मकसद होता है बंद अनुभूतियों को खोलना। छिपे हुए को सामने लाना। आत्मकथा के वातावरण को विभिन्ना परिप्रेक्ष्य में देखना । निष्कर्ष निकालने से बचना । निष्कर्ष आत्मकथा को बंदगली में ले जाते हैं।

आत्मकथा का मार्ग खुला होता है उसे निष्कर्ष के बहाने बंद करना आत्मकथा विधा के मानकों की अवहेलना है। लेखन को इस बात से आंकना चाहिए कि आप कितना भूलते हैं और कितना क्षमा करते हैं। लेखन में अनुभवों की संभावनाओं का कभी अंत नहीं होता। कहानी में कुछ चुनते हैं और कुछ छिपाते हैं। क्या बताएं और क्या छिपाएं ? इसका फैसला कैसे करें ? किसी भी चीज को बताने के लिए कहानी का होना बेहद जरूरी है कहानी के बिना कुछ भी कहना संभव नहीं है। यही वजह है दिनकर भी जब कर्ण पर लिखने गए तो उन्हें कहानी में कहने की कोशिश की है। दिनकर ने लिखा है ''कथाकाव्य का आनंन्द खेतों में देशी पध्दति से जई उपजाने के आनन्द के समान है ; यानी इस पध्दति से जई के दाने तो मिलते ही हैं, कुछ घास और भूसा भी हाथ आता है ,कुछ लहलहाती हुई हरियाली देखने का भी सुख प्राप्त होता है और हल चलाने में जो मेहनत करनी पड़ती है ,उससे कुछ तन्दुरूस्ती भी बनती है।''

प्रेमचंद जयंती पर विशेष- इति‍हास का आधार प्रेमचंद क्‍यों नहीं

प्रेमचंद जयंती पर विशेष-

इति‍हास का आधार प्रेमचंद क्‍यों नहीं

हिन्दी साहित्य के दो महत्वपूर्ण इतिहास ग्रंथ रामचन्द्र शुक्ल का 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखित ' हिन्दी साहित्य की भूमिका' का प्रकाशन एक दशक के दौरान होता है, यह दशक प्रेमचंद के साहित्य का चरमोत्कर्ष भी है। शुक्लजी और द्विवेदीजी ने प्रेमचंद की उपेक्षा करके क्रमश: तुलसीदास और कबीर को इतिहासदृष्टि का आधार क्यों बनाया ? शुक्लजी ने छायावाद से 'कल्पना' और द्विवेदीजी ने प्रगतिशील आंदोलन से 'विचारधारा' को ग्रहण करते हुए अपनी इतिहासदृष्टि का निर्माण किया। आज ये दोनों ही तत्व अप्रासंगिक हैं। मजेदार बात यह है कि उस समय भी ये दोनों तत्व प्रेमचंद के सामने बौने थे। ऐसी अवस्था में प्रेमचंद को इतिहासदृष्टि का आधार न बनाकर तुलसी और कबीर के आधार पर हिंदी को कैसी इतिहासदृष्टि मिली ? क्या इससे मध्यकालीनबोध पुख्ता हुआ या कमजोर हुआ ? छायावाद और प्रगतिशील आंदोलन अब इतिहास की चीज हैं। किंतु प्रेमचंद नहीं हैं ?
हिंदी के आलोचकगण प्रेमचंद को अपनी इतिहासदृष्टि का आधार बनाने से कन्नी क्यों काट रहे हैं ? प्रेमचंद के नजरिए के बुनियादी तत्वों को आत्मसात करके साहित्येतिहास लिखा जाएगा तो ज्यादा बेहतर इतिहास बनेगा। बुनियादी सवाल है क्या प्रेमचंद को आधार बनाकर साहित्येतिहासदृष्टि का निर्माण संभव है ? जी हां संभव है।
प्रेमचंद पूरी तरह आधुनिक लेखक है। कम्पलीट आधुनिक लेखक के उपलब्ध रहते हुए आखिरकार इतिहासकारों को मध्ययुगीन साहित्यकार को अपनी इतिहासदृष्टि का आधार बनाने की जरूरत क्यों पड़ी ? तुलसी या कबीर के नजरिए से प्रभावित इतिहासदृष्टि मौजूदा युग के लिहाज से एकदम अप्रासंगिक है। इसमें मध्यकालीनता के दबाव चले आए हैं। इनका तमाम किस्म की प्रतिक्रियावादी ताकतें और निहित स्वार्थी तत्व सांस्थानिक तौर पर दुरूपयोग कर रहे हैं। यही वजह है मध्यकालीनता आज भी हिंदी विभाग गढ़ बने हुए हैं।
इतिहास आधुनिक अनुशासन है। इसके निर्माण का नजरिया भी आधुनिकयुग से ही लिया जाना चाहिए। सम्प्रति इतिहासदृष्टि के अनिवार्य तत्व हैं बहुभाषिकता, बहुस्तरीय यथार्थ ,संपर्क और संवाद। इन चारों तत्वों के आधार पर साहित्येतिहास पर विचार किया जाना चाहिए। ये चारों तत्व प्रेमचंद के यहां व्यापक रूप में मिलते हैं। इन तत्वों को लागू करने से मौजूदा दौर में इतिहास के सामने जो चुनौतियां आ रही हैं उनके सटीक समाधान खोजने में मदद मिलेगी। खासकर साहित्येतिहास को लेकर जो रूढिवाद पैदा हुआ है उससे मुक्ति मिलेगी। साथ ही उन तमाम विवादास्पद क्षेत्रों को भी साहित्य का अंग बनाने में मदद मिलेगी जिन्हें हम दलित साहित्य,स्त्री साहित्य,शीतयुध्दीय साहित्य,जनवादी साहित्य आदि कहते हैं।
प्रेमचंद ने खुले पाठ की हिमायत की है। पारदश्र्शिता को पाठ का अनिवार्य हिस्सा बनाया है। इस परिप्रेक्ष्य में हमें प्रत्येक को पाठ खोलना चाहिए। पाठ के खुलेपन की बात करनी चाहिए। व्याख्याकार हमेशा पाठ से संवाद के दौरान बाहर होता है। अर्थ के बाहर होता है। पाठ का अर्थ संदर्भ हमेशा दृश्य अर्थ संदर्भ से जुड़ता है। वक्तृता में अनेक अर्थ होते हैं। पाठ अनेक ध्वनियों से भरा होता है। भाषिक अर्थ अमूमन गुप्त होता है। संबंधित युग का भाषिक अर्थ सांस्कृतिक संदर्भ के उद्धाटन से ही बाहर आता है। पाठ को पाठक केन्द्रित नजरिए से पढ़ा जाना चाहिए। पाठक केन्द्रित रणनीति के कारण डाटा को आप भिन्न नजरिए से देखते हैं।
प्रेमचंद जिस समय उपन्यास लिख रहे थे वह समय बहुस्तरीय यथार्थ के रूपायन का युग है। उस युग में अनेक आवाजें हैं। ये आवाजें उनके विभिन्न उपन्यासों में देखी जा सकती हैं। वहां एक ही विचारधारा का चित्रण नहीं है, एक ही वर्ग अथवा सिर्फ पसंदीदा वर्ग का चित्रण नहीं है। वह एक ही साथ विषय और चेतना के विभिन्न रूपों को चित्रित करते हैं। उनमें 'सहस्थिति' और 'संपर्क' का चित्रण करते हैं। सामाजिक जीवन की अनेक ध्वनियों को अभिव्यंजित करते हैं। बहुस्तरीय अन्तर्विरोधी चीजों में शिरकत करते हैं। उनके यहां विभिन्न वर्गों के बीच 'तनाव' ,'अन्तर्विरोध' और 'संपर्क' एक ही साथ देख सकते हैं। उनके उपन्यासों की बहुस्तरीय चेतना एक-दूसरे के साथ संपर्क करती है। पूंजीवादी वातावरण की अनछुई चीजों, विभिन्न लोगों और सामाजिक समूहों को पहलीबार साहित्य में अभिव्यक्ति मिलती है। उनके इस तरह के चित्रण से व्यक्तिगत अलगाव कम होता है।
प्रेमचंद पहले बड़े लेखक हैं जिन्होंने सामाजिक जीवन में बहुस्तरीय यथार्थ को स्वीकृति दी है,उसकी तमाम संभावनाओं को समानता के धरातल पर खोला है। वह यथार्थ के किसी भी रूप के साथ भेदभाव नहीं करते। वह इस तथ्य को भी चित्रित करते हैं कि विभिन्न वर्गों में 'सहस्थिति' और 'संपर्क' है। इस तरह की प्रस्तुतियों के आधार पर हमें साहित्येतिहास के अंतरालों और अन्तर्क्रियाओं को खोलने में मदद मिल सकती है।
प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों में 'टाइम' की बजाय 'स्पेस' के संदर्भ में चीजों को प्रस्तुत किया है। इस परिप्रेक्ष्य के कारण ''प्रत्येक चीज सह-अवस्थान '' में दिखाई देती है। अनेक चीजों को एक ही साथ देखते हैं। जो चीजें 'टाइम' में अवस्थित हैं उनके स्पेस का नाटकीय रूपायन करते हैं। स्पेस में प्रस्तुति के कारण आंतरिक अन्तर्विरोधों और व्यक्ति के विकास के आंतरिक चरणों का चित्रण करते हैं।
प्रेमचंद के पाठ में एकल और बहुअर्थी आवाजें एक ही साथ देखी जा सकती हैं। एक ही वातावरण और एक ही वर्ग में विभिन्न रंगत के चरित्रों की बजाय बहुरंगी और बहुवर्गीय चरित्रों का चित्रण किया है। प्रेमचंद जितनी गहराई में जाकर किसान का चित्रण करते हैं उतनी ही गहराई में जाकर जमींदार का भी चित्रण करते हैं। इस तरह की सहस्थिति प्रेमचंद को बहुलतावादी बनाती है। तुलसी और कबीर का नजरिया इस अर्थ में आज बहुलतावाद के संदर्भ में हमारी वैसी मदद नहीं करता जैसा प्रेमचंद करते हैं। प्रेमचंद अन्य प्रगतिशील लेखकों से भी इसलिए भिन्न हैं क्योंकि प्रगतिशील लेखकों की दृष्टि एकल आवाज को अभिव्यक्त करने में लगी रही है इसके विपरीत प्रेमचंद ने बहुअर्थी आवाजों को अभिव्यक्ति दी है। एकल आवाज का लेखक अपनी रचना को महज एक वस्तु में तब्दील कर देता है जबकि बहुअर्थी आवाज रचना को जनप्रिय बना देती है। एकल अभिव्यक्ति में पात्र निष्पन्न रूप में आते हैं। वे लेखक की आवाज को व्यक्त करते हैं। कहानी के सभी स्तर लेखक के नजरिए का विस्तार हैं। इससे यह भी संदेश निकलता है लेखक पाठ के बाहर होता है। सृजन के बाहर होता है। फलत: विचार सुचिंतित,निष्पन्न, और नियोजित एकल आवाज में व्यक्त होते हैं। बहुअर्थी रचना में दाखिल होते समय पाठक चाहे तो अपने लिए एकल अर्थ भी खोज सकता है और चाहे तो उसके बाहर बहुअर्थी आवाजों को सुन सकता है।
प्रेमचंद की दुनिया धार्मिक वैविध्य के साथ संपर्क करती है,उसके साथ सह-अवस्थान करती है। इससे वह एकीकृत स्प्रिट पैदा करने की कोशिश नहीं करते। इस तरह का वातावरण मानवीय चेतना के गहरे स्तरों को उद्धाटित करने में मददगार साबित होता है। उनके दृष्टिकोण का लक्ष्य चेतना को विकसित करके विचार के स्तर तक ले जाता है ये विचार अन्य की चेतना के साथ संपर्क करते हैं। मानवीय यथार्थ के आंतरिक और बाहरी अनुभवों को एक साथ चित्रित करते हैं।
प्रेमचंद ने सृजन में कलात्मक रूपों का इस्तेमाल किया है।एक लेखक के नाते प्रेमचंद ने जिंदगी की चेतना और उसके जीवंत रूपों को जीवंत सह-अवस्थान के साथ प्रस्तुत किया है। उनकी रचनाओं में ऐसी भी सामग्री है जो समाजशास्त्रियों के भी काम आ सकती है।
लेखक कहानी संदर्भ बनाता है। जिसमें चरित्र और विभिन्न किस्म की आवाजें शामिल रहती हैं। उनके अंतिम वाक्य पर नियंत्रण रखता है। कालक्रम निर्धारित करता है। फलत: हम तक आवाजें पहुँचती हैं। इन आवाजों को वह हीरो के इर्दगिर्द एकत्रित करते हुए सघन और प्रच्छन्न अभिव्यक्ति के वातावरण को निर्मित करता है।
कहानी का सत्य हीरो की चेतना का सत्य बनकर सामने आता है। इस तरह की प्रस्तुति में अनुपस्थित को खोजना मूलकार्य नहीं है बल्कि लेखक की पोजीशन में जो बुनियादी परिवर्तन आए हैं उन्हें देखना चाहिए। जो लोग नजरिए को देखते हैं उन्हें जिंदगी के बहुरंगेपन और बहुअर्थीपन को ध्यान में रखना चाहिए। उपन्यास में सामाजिक जगत की बहुअर्थी दुनिया के साथ महान् संवाद भी रहते हैं। जिनका उपन्यासकार सृजन करता है।
प्रेमचंद की कहानियों में पाठक जब अपने नजरिए के आधार पर बाहर से भीतर की ओर प्रवेश करता है तब क्या होता है ? ऐसे में लेखक का एकल नजरिया और एकल चेतना गायब हो जाती है। वह कहानी के चरित्रों की विश्वचेतना से अपने को जोड़ता है। अपने निजी नजरिए के साथ तुलना करता है। इस क्रम में वह बदलता है। फलत: पाठक को पढ़ने का सुख और परिवर्तन का सुख ये दोनों ही किस्म के सुख पाठक को प्राप्त होते हैं। प्रेमचंद की कहानियों की व्यापक व्याख्याएं हुई हैं। मूल्यांकन का यह वैविध्य एक ही संदेश देता है कि कहानी का अंतिम सत्य तय नहीं किया जा सकता। चरित्रों का अपने अंतिम वाक्य पर नियंत्रण नहीं रहता। पाठकों का बहुरंगी नजरिया कहानी के बहुअर्थीपन के साथ सामंजस्य बिठाकर नए अर्थ की सृष्टि करता है।
प्रेमचंद की सबसे बड़ी देन है कि हम उनके युग की आवाजें सुन रहे हैं। उनके युग के संवाद सुनना बहुत बड़ी उपलब्धि है। उनके लेखन में से एकल आवाज को खोज निकालना उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना महत्वपूर्ण है विभिन्न आवाजों के बीच का संवाद। इस क्रम में युग का स्वर मुखर हो उठा है। इन आवाजों में प्रभुत्वशाली विचार हैं, साथ ही कमजोर आवाजें भी हैं। ऐसे विचार भी हैं जो अभी विकसित नहीं हुए हैं। ऐसी आवाजें हैं जिन्हें लेखक के अलावा कोई नहीं सुनता। ऐसे विचार भी हैं जिनका अभी श्रीगणेश हुआ है। इनमें भावी विश्वदृष्टि छिपी है। उनके यहां तात्कालिक तौर पर यथार्थ खत्म नहीं होता। बल्कि यथार्थ का व्यापक हिस्सा लटका रहता है, जिसमें भावी जगत नजर आता है। कहानी स्पेस और सामाजिक स्पेस के बीच संपर्क होता है, आदान-प्रदान होता है। इस प्रक्रिया के दौरान ही प्रेमचंद अपने साहित्य को सामाजिक-ऐतिहासिक पुनर्निर्माण के काम की सामग्री बना देते हैं। प्रेमचंद का समग्र लेखन संवाद है। जीवन भी संवाद है। यही संवादात्मक वैपरीत्य है। प्रेमचंद जब सभी चीजों को संवाद बनाते हैं तो उन्हें दार्शनिक भी बनाते हैं। प्रत्येक चीज को सरल बनाते हैं। सरल को संसार बनाते हैं। संसार को सरल बनाते हैं। संसार की जटिल और संश्लिष्ट संरचनाओं को सरल बनाते हैं। उनकी प्रत्येक आवाज में दो आवाजें सुन सकते हैं। एक-दूसरे को चुनौती देने वाली आवाजें भी सुन सकते हैं। प्रत्येक अभिव्यक्ति का रूप तुरंत ही टूटता है और आगे जाकर अन्तर्विरोधी अभिव्यक्ति बन जाता है। प्रत्येक भाव-भंगिमा में आत्मविश्वास झलकता है साथ ही आत्मविश्वास का अभाव भी झलकता है। प्रत्येक फिनोमिना में प्रेमचंद दुविधा और अस्पष्टता चित्रित करते हैं। बहुस्तरीय दुविधा छोड़ते हैं। प्रेमचंद एकमात्र ऐसे लेखक हैं जिनकी संवादात्मक प्रकृति है। प्रेमचंद की भाषा 'संवादात्मक संबंधों' पर टिकी है। फलत: उससे सभी किस्म का मानवीय संप्रेषण होता है। प्रेमचंद का 'संवादात्मक' रूप व्यक्तिवाद विरोधी है। यह देखना बड़ा ही दिलचस्प होगा कि प्रेमचंद ने अपनी कहानी और उपन्यास में व्यापक पैमाने पर 'संवाद' का इस्तेमाल क्यों किया ?

मंगलवार, 28 जुलाई 2009

जेएनयू के महाख्यान की स्मृतियां

- जेएनयू के महाख्यान की स्मृतियां -
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छात्र राजनीति का महाख्यान है जेएनयू। छात्र अस्मिता की राजनीति का आरंभ सन् 65-66 में बीएचयू में समाजवादियों ने किया और जेएनयू ने उसे सन् 1972-73के बाद से नई बुलंदियों तक पहुँचाया। देश में छात्र अस्मिता और छात्र राजनीति को लोकतांत्रिक बोध देने में एसएफआई की बड़ी भूमिका रही है, खासकर जेएनयू में। जेएनयू लोकतांत्रिक छात्र राजनीति की प्रयोगशाला है। इस प्रयोगशाला के निर्माण में माक्र्सवादियों, समाजवादियों और फ्री थिंकरों की केन्द्रीय भूमिका रही है।
आमतौर पर शिक्षा का देश में जो वातावरण है वह छात्रों को सामाजिक जड़ताओं और रूढियों से मुक्त नहीं करता। इसके विपरीत जेएनयू के संस्थापकों का सपना था शिक्षा को रूढियों और सभी किस्म की वर्जनाओं से मुक्ति का अस्त्र बनाया जाए। शिक्षा केन्द्र वर्जनाओं से मुक्ति के तीर्थ बनें। जेएनयू के वातावरण में सभी किस्म की वर्जनाओं से मुक्ति का संदेश छिपा है। जेएनयू में पढ़ने वाला छात्र सामान्य प्रयत्न से सामाजिक रूढियों और वर्जनाओं से मुक्त होता है । जेएनयू की संरचना में वर्जना और अछूतभाव के लिए जगह नहीं है।
भारतीय समाज की सबसे बड़ी बाधा है वर्जनाएं ,अछूतभाव और भेदभाव की सभ्यता। जेएनयू का इसी सभ्यता के साथ विचारधारात्मक संघर्ष है। जेएनयू का वातावरण निषेधों और वर्जनाओं के वातावरण का विकल्प देता और इस विकल्प को तैयार करने में जेएनयू के छात्रों और छात्र राजनीति की केन्द्रीय भूमिका रही है। यह वातावरण किसी एक नेता, प्रशासक, संगठन आदि की देन नहीं है बल्कि सामुदायिक प्रयासों की देन है। सामुदायिक प्रयासों ने जाने-अनजाने जेएनयू की धुरी बायनरी अपोजीशन को बना दिया। यहां पर छोटा बड़ा और बड़ा छोटा बन जाता है। भेदों की अनुभूति गायब है।
भारतीय समाज में तरह-तरह के भेद हैं किंतु जेएनयू में अभेद का वैभव है। जेएनयू भेदों को समझता है किंतु मानता नहीं है। बाकी विश्वविद्यालय भेदों को समझने के साथ भेदों में जीते हैं। शिक्षा के लिए भेद और वर्जनाएं सबसे बुरी चीजें हैं। इन्हीं दोनों चीजों को जेएनयू ने निशाना बनाया है। जेएनयू वास्तव अर्थों में संस्थान है यहां प्रत्येक स्तर पर सभी वर्ग शिरकत करते हैं। खासकर छात्रों की शिरकत अभूतपूर्व है। देश के किसी भी विश्वविद्यालय में प्रत्येक स्तर पर छात्रों की शिरकत, सम्मान और साख वैसी नहीं है जैसी जेएनयू में है। फैसलेकुन कमेटियों में सभी स्तरों पर छात्रों की शिरकत और छात्रों की राय का सम्मान जेएनयू की सबसे बड़ी पूंजी है।
जेएनयू का कोई भी आख्यान छात्रों के बिना नहीं बनता। जेएनयू छात्रों की पहचान ज्ञान ,राजनीति और लोकतांत्रिक नजरिए से बनी है। लोकतंत्र की महानता का जैसा आख्यान जेएनयू ने तैयार किया है वैसा दुनिया के किसी भी देश में देखने को नहीं मिलता। जेएनयू के छात्रों के पास दुनिया को देखने का एक विशिष्ट नजरिया है,जीवनशैली और स्वायत्ताता बोध है। यही वजह है जेएनयू का छात्र भिन्न नजर आता है।
जेएनयू के वातावरण में व्यक्तित्व रूपान्तरण की अद्भुत शक्ति है। आप किसी भी पृष्ठभूमि के हों जेएनयू में दाखिला लेने के बाद बदले बिना नहीं रह सकते। व्यक्तित्व रूपान्तरण की इतनी जबर्दस्त स्वाभाविक शक्ति अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलती। आखिरकार परिवर्तन की यह शक्ति आती कहां से है ?
मैं अपने छोटे से तजुर्बे के आधार पर कह सकता हूँ कि जेएनयू की स्वाभाविक धारा में शामिल होने के बाद कोई भी छात्र और अध्यापक अपने को बदले बिना नहीं रह सकता। जो बदल नहीं पाते थे वे संग्रहालय की धरोहर नजर आते थे। बदलो या धरोहर बनो। यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां से जेएनयू का वातावरण किसी भी छात्र की जीवनशैली और नजरिए को प्रभावित करता है।
जेएनयू में सन् 1979 में जब प्रवेश परीक्षा देने आया तो सबसे पहले गंगा ढाबे पर अनिल चौधरी से परिचय हुआ। वह उस समय एसएफआई के और छात्र संघ के महासचिव थे। उनसे मिलने का प्रधान कारण था वह मथुरा के थे। मैं भी मथुरा का था। उन्होंने बड़े ही आत्मीयभाव से स्वागत किया और अनौपचारिक ढ़ंग से व्यवहार किया। अनिल के अंदाज में खासकिस्म का गर्वीला ठेठ देसी भाव था जो अपनी चाल-ढाल और बातचीत की भाषा में अभिजात्य भावबोध को चुनौती देता था। वह तीक्ष्णबुध्दि और तेजतर्रार छात्रनेता था। अनेक विलायत पलट नेता उसके नजरिए के सामने बौने नजर आते थे। समस्याओं को सुलझाने की उसकी अपनी देशी शैली थी और भाषण का स्थानीय मथुरिया अंदाज था।
मथुरिया अंदाज की विशेषता है बेबाकी मुखरता। अंग्रेजी भाषी अभिजात्य पृष्ठभूमि के लोग उसकी पारदर्शी बुध्दि की दाद देते थे। अनेक बार छात्र आन्दोलन के संकट के क्षणों में अनिल की मेधा बिजली की चमक की तरह दिखती थी, अनिल की हमदर्दी और संवेदनशीलता के सारे कॉमरेड कायल थे और अपने सुख-दुख का उसे साथी मानते थे।
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जेएनयू के दाखिले की प्रक्रिया बड़ी ही दिलचस्प हुआ करती थी, पहले टेस्ट और बाद में इंटरव्यू ,इन दोनों के आधार पर ही दाखिला होता था। मैंने जब फार्मभरा तो अनेक मिथ, भय, दुविधा और विभ्रम थे। पहला मिथ था जिसके ज्यादा अच्छे नम्बर होते हैं उसका ही दाखिला होता है। खैर मेरा दाखिला होते ही यह भ्रम टूट गया क्योंकि शास्त्री में मेरे मात्र पचास फीसद नम्बर थे। दूसरा मिथ था जेएनयू मेधावियों का केन्द्र है ,दाखिले के बाद बड़ी मात्रा में औसत दर्जे के छात्रों को देखकर यह मिथ भी खत्म हो गया। यह मिथ भी टूटा कि जेएनयू में सभी शिक्षक बड़े ज्ञानी होते हैं। हिंदी में कई औसत शिक्षक भी थे और जीनियस शिक्षकों में नामवरसिंह, मैनेजर पाण्डेय और केदारनाथसिंह प्रमुख थे। जेएनयू के बारे में एक अन्य मिथ था नामवरसिंह ऐसे किसी भी छात्र को हिन्दी में दाखिला नहीं देते जहां के किसी छात्र का एसएफआई या सीपीएम से संबंध हो। मेरे मामा कविवर मनमोहन और अनिल चौधरी दोनों का एसएफआई और मथुरा से संबंध था अत: यह भय था कि मथुरा का पता दोगे तो दाखिला नहीं होगा। काफी बुध्दि खर्च करने के बाद अपने ज्योतिष गुरू संकटाप्रसाद उपाध्याय के बनारस के घर का पता दिया। चूंकि मैं अंग्रेजी नहीं जानता था अत: फार्म भरने का काम मनमोहन और हरिवंश ने मिलकर किया। जेएनयू का प्रवेश फार्म भी मजेदार था उसमें अनेक रोचक कॉलम थे ,उनमें एक कॉलम था कि आप किस शहर के वाशिंदा हैं और उसमें कितनी तहसील हैं। तकलीफ तब हुई जब बनारस में कितनी तहसील हैं इस कॉलम को मुश्किल से इधर-उधर से पूछकर भरा गया। मैं साक्षात्कार के समय डरा हुआ था कहीं नामवरजी बनारस के बारे कुछ पूछ न लें। खैर उन्होंने परेशान नहीं किया उलटे वे खुश थे कि कोई सिध्दान्त ज्योतिष से प्रथमश्रेणी में आचार्य करके हिंदी पढ़ने आया है।
मेरे पिता जेएनयू में दाखिले के सख्त खिलाफ थे क्योंकि मेरे मामा मनमोहन ने अंतर्जाजीय विवाह जेएनयू की एक छात्रा शुभा शर्मा से किया था। चौबों के लिए यह विवाह सामाजिक धक्के की तरह था। टेस्ट के बाद जब इंटरव्यू हुआ तो मुझे पहलीबार नामवरसिंह, केदारनाथ सिंह, मैनेजर पाण्डेय, सावित्री चन्द्र शोभा, चिन्तामणि, डा.सुधेशजी आदि के दर्शन का मौका मिला। 50 मिनट के करीब सवाल जबाव हुए और ज्योंही मैं इण्टरव्यू खत्म करके कमरे से निकल रहा था कि अचानक मेरे प्रवेश फार्म में आंखे गड़ाए बैठे डा. चिन्तामणिजी ने मजेदार कमजोरी खोज निकाली , तुरंत लौटने को कहा और सवाल किया कि आपकी शिक्षा मथुरा की है ,घर भी मथुरा में है, किंतु संपर्क का पता बनारस का क्यों है ? मेरे पास इसका कोई सटीक जबाव नहीं था अचानक मैंने कहानी बनायी कि मेरे पिता ने दूसरी शादी कर ली और विमाता के कारण मुझे अपने ज्योतिष गुरू के घर बनारस रहना पड़ रहा है। यह उल्लेखनीय है कि मैं कभी बनारस में नहीं रहा और मेरे पिता ने दूसरी शादी नहीं की। उसी समय नामवरजी ने मार्के का दूसरा सवाल किया आपने सिध्दान्त ज्योतिष से आचार्य किया है आप पीएचडी में दाखिल ले सकते हैं। मैंने तुरंत कहा मुझे एमए में दाखिला चाहिए, नामवरजी का सवाल था क्यों ? मैंने कहा कि मैं हजारीप्रसाद द्विवेदीजी की तरह हिंदी पढ़ाना चाहता हूँ। संभवत: मेरा यह उत्तर डूबे को तिनके के सहारे की तरह मददगार साबित हुआ और मैं जेएनयू पहुँच गया।
हिन्दी विभाग के दो छात्रों का व्यक्तित्व मुझे बड़ा ही दिलचस्प लगता था इनमें एक थे घनश्याम मिश्र और दूसरे थे चौधरी रामबीर सिंह। इन दोनों के व्यक्तित्व के साथ जेएनयू के हिंदी विभाग की पहचान भी जुड़ी थी। ये दोनों ही मस्त पहलवान किस्म के छात्र थे। जेएनयू के इकहरे बदन के छात्रों में इन्हें विलक्षण माना जाता था। एक बार मजेदार वाकया भी हुआ जब काशी वि.वि. में अन्तर्विश्वविद्यालय कुश्ती प्रतियोगिता के लिए चौधरी रामबीर सिंह को भेज दिया गया, जेएनयू के इतिहास में यह अद्भुत क्षण था क्योंकि जेएनयू के छात्रों में खेलों के प्रति कभी गहरी दिलचस्पी नहीं थी। खेल को वे बेकार मानते थे, ऊर्जा का अपव्यय मानते थे। चौधरी रामबीर सिंह का कुश्ती प्रतियोगिता में काशी जाना और वहां से हार के आना भी एक खबर बन गया। हिंदी विभाग जिस केन्द्र के तहत था उसे भारतीय भाषा केन्द्र कहते थे, यह भाषा संस्थान का हिस्सा था। उन दिनों विभाग में सबसे दिलचस्प और धाकड़ छात्र था कुलदीपकुमार वह घोषित तौर पर कम से कम कक्षाएं करता था और कभी समय पर अपने टर्मपेपर ,टयूटोरियल वगैरह जमा नहीं करता था। हर बार उसका एक ग्रेड नामवरजी काटते थे। नामवरजी का नियम था जो छात्र देर से टर्मपेपर वगैरह देगा उसका एक ग्रेड काट लिया जाएगा। कुलदीप ग्रेड कटवाता था और उसके बावजूद 'ए माइनस ' ग्रेड पाता था। मैंने ग्रेड कटवाने वाला छात्र अपने जीवन में नहीं देखा। भारतीय भाषा केन्द्र में दूसरे दो बड़े ही अच्छे दोस्त थे राजेन्द्र शर्मा और असद जैदी। राजेन्द्र हिंदी में था,असद उर्दू में था। दोनों के गुण अलग थे। राजेन्द्र की खूबी थी जिसे एसएफआई की राय से सहमत करने के लिए जाता था उसे विपक्ष में करके आता था। असद के पोस्टर स्वयं में उसकी कला के प्रदर्शन का केन्द्र थे।
मनमोहन के बारे में चर्चा किए बिना भारतीय भाषा केन्द्र की चर्चा खत्म नहीं हो सकती। मनमोहन अपनी मेधा, सरलता, सहजता और बेबाकी के कारण भारतीय भाषा केन्द्र के विद्याार्थियों में प्रसिध्द था। उसे बचपन से ही कविताएं लिखने का शौक था। विचारों की दुनिया में रमण करने में उसे मजा आता था। माक्र्सवाद की बारीकियों, साहित्य की कल्पनाशीलता को वह आज भी साक्षात अपने जीवन में जीता है। कवि और साहित्यकार होने के बावजूद उसकी समूची व्यवहारिक जिंदगी कवि के तामझाम के बाहर है। कविरूप में जेएनयू के अंदर ही नहीं समूचे देश में उसने प्रसिध्दि अर्जित की। खासकर आपात्काल के दौरान मनमोहन की लिखी कविताएं बेहद लोकप्रिय हुईं। इनमें जिस कविता ने सभी को आकर्षित किया वह थी 'आ राजा का बाजा बजा।'
जेएनयू में पढ़ते हुए छात्रों में मनमोहन की जनप्रियता उस समय देखने लायक थी जब एसएफआई का पैनल एसएफसी चुनावों में भारतीय भाषा केन्द्र में पांचों सीटों पर सन् 1979 में एसएफआई विरोधी हवा होने के बावजूद जीत गया। मैंने दाखिला लिया ही था और समूचे कैम्पस में खासकर भारतीय भाषा केन्द्र में एसएफआई के खिलाफ नामवरजी से दर्ुव्यवहार करने के कारण तनावपूर्ण वातावरण था उसमें एआईएसएफ के समूचे पैनल का हारना अपने आप में बहुत बड़ी बात थी। उस साल (1979) छात्रसंघ चुनाव में डी.रघुनंदन ने अध्यक्ष पद पर जीत हासिल की थी और दिग्विजय सिंह ने महासचिव पद पर जीत दर्ज की थी। दिग्विजय सिंह को सभी छात्र दादा कहकर पुकारते थे, दादा का व्यवहार भी सचमुच दादा जैसा था, वे सभी छात्रों से बेहद स्नेह करते थे, बिहार से आने वाले छात्रों को तुलनात्मक तौर पर ज्यादा प्यार करते थे। दिग्विजय सिंह ने समाजवादी युवजनसभा की ओर से चुनाव जीता था और उनकी लोकतांत्रिक मूल्यों और लोहिया के विचारों के प्रति गहरी निष्ठा सभी को प्रभावित करती थी। भाषा संस्थान से छात्रसंघ की राजनीति में मुख्यपद पर जीतने वाले दादा पहले नेता थे। दादा के पहले छात्रसंघ में भाषा संस्थान का मुख्यपदों (अध्यक्ष और महासचिव पद) पर कभी भी कोई उम्मीदवार नहीं जीता था, बाद में सन् 1983 में रूसी भाषा केन्द्र की रश्मि दोराईस्वामी अध्यक्ष बनी और उसके बाद मैं अध्यक्ष पद पर सन् 1984 में चुना गया। इसके बाद तो भाषा संस्थान से अनेक नेता पैदा हुए जो छात्रसंघ अध्यक्ष चुने गए। छात्रसंघ के इतिहास में मैं पहला अध्यक्ष था जिसने अपनी पीएचडी समय पर जमा की, मैंने मात्र साढ़े छह साल में एम.ए,एम.फिल् और पीएचडी का कोर्स पूरा किया। जेएनयू की सारी डिग्रियों (एमए,एमफिल् और पीएचडी) की पढ़ाई निर्धारित समय में मुझसे पहले किसी भी छात्रसंघ अध्यक्ष ने पूरा नहीं किया।
भारतीय भाषा केन्द्र का कोई भी आख्यान नामवरसिंह के बिना संपन्न नहीं होता। नामवरजी की कक्षा करना निश्चित रूप से एक विशिष्ट अनुभव से गुजरना था। उनकी क्लास विचारोत्तोजक और प्रेरक हुआ करती थी। नामवरजी के व्यक्तित्व को लेकर अनेक किस्म का वादविवाद हो सकता है किंतु एक चीज निर्विवाद है उनकी भाषणकला, बेहतरीन शिक्षक की इमेज और छात्रों में आलोचनात्मक विवेक पैदा करने की क्षमता। आलोचनात्मक विवेक पैदा करने का काम सबसे कठिन काम था। आयरनी यह थी कि नामवरजी अपने प्रभाव से आलोचनात्मक विवेक पैदा करते थे किंतु अंदर से आलोचना नापसंद करते थे। स्वभाव से नामवरजी को आज्ञाकारी भाव ही पसंद था किंतु अपने भाषणों और कक्षा में वक्तृता के जरिए उन्होंने सैंकड़ों विवेकवान छात्र तैयार किए हैं। संभवत: हिंदी में किसी एक शिक्षक ने उच्चशिक्षा के स्तर पर इतना व्यापक योगदान अभी तक नहीं किया है। आप नामवरजी से नफरत करते हों किंतु उनका लोहा मानने को मजबूर होंगे। नामवरजी का यह लोहा मनवाने वाला हुनर उनकी आलोचनात्मक विवेक पैदा करने वाली कला के गर्भ से पैदा हुआ है। यह कला नामवरजी ने माक्र्सवादी परंपरा से सीखी। उसे आम जीवन की आलोचना में बदला है। नामवर सिंह पढ़ाते समय जिस चीज को सबसे ज्यादा पसंद करते थे और प्रशंसा भी करते थे वह था आलोचनात्मक विवेक। नामवरजी अगर किसी चीज पर फिदा थे तो छात्रों के आलोचनात्मक विवेक पर। वे बार-बार उन छात्रों की प्रशंसा करते थे जो आलोचनात्मक विवेक की कसौटी पर खरे उतरते थे। वे ऐसे भी छात्रों की प्रशंसा करते थे जिनके बारे में प्रसिध्द था कि वे नामवरजी के कटु आलोचक हैं। छात्रों के साथ समानता और सभ्यता के धरातल पर बात करने वाले वह विरल शिक्षक हैं।
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जेएनयू की एक आयरनी है कि इसमें आइकॉन विरोधी भावबोध है। इसके बावजूद कुछ छात्रनेता ऐसे भी हुए जो अपने को जेएनयू के आइकॉन या प्रतीक पुरूष के रूप में प्रतिष्ठित करने में सफल रहे। इनमें जिसने सबसे ज्यादा शोहरत और साख हासिल की है वह देवी प्रसाद त्रिपाठी यानी डीपीटी। इन दिनों वह राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव हैं। देवी प्रसाद त्रिपाठी से मेरी पहली मुलाकात सन् 1979 के अक्टूबर महिने में छात्रसंघ के चुनाव के मौके पर हुई। त्रिपाठीजी के बारे में मैं लगातार अन्तर्विरोधी बातें सुनता रहता था। खासकर जेएनयू आने के बाद अनेक एसएफआई नेता थे जो नहीं चाहते थे कि त्रिपाठी जी को कभी भी एसएफआई और उससे जुड़े मंचों पर बुलाया जाए। मजेदार बात यह थी कि ये नेतागण उनके बारे में तरह-तरह की कानाफूसी भी किया करते थे। एक अवस्था तो यह भी आयी कि माकपा के दिल्ली राज्य नेतृत्व से यह तय करा लिया गया कि त्रिपाठी को कभी जेएनयू चुनाव में प्रचार के लिए नहीं बुलाया जाएगा। सन् 1979 में डी.रघुनंदन को एसएफआई ने अध्यक्ष पद पर लड़ाने का फैसला लिया। आखिरी समय में स्थितियां एसएफआई के अनुकूल नहीं थीं। उस साल एआईएसएफ के साथ चुनावी समझौता भी नहीं हो पाया था। अंत में झक मारकर जेएनयू पार्टी ब्रांच ने निर्णय लिया कि देवीप्रसाद त्रिपाठी को प्रचार के लिए इलाहाबाद से बुलाया जाए।
देवी प्रसाद त्रिपाठी उस समय इलाहाबाद विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान विभाग में अध्यापन कार्य कर रहे थे और माकपा के उ.प्र. राज्य कमेटी सदस्य थे। इलाहाबाद में पार्टी का काम मूलत: उन्हीं के जिम्मे था। उल्लेखनीय है उनके इलाहाबाद में पार्टी कार्य देखने के दौरान ही पहलीबार इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यक्ष पद पर एसएफआई ने चुनाव जीता था। त्रिपाठीजी की इन सारी स्थितियों के बावजूद जेएनयू के कुछ नेताओं का उनके प्रति गुटपरस्तभाव मुझे आज तक समझ में नहीं आया। मेरी समझ है जब एक व्यक्ति पार्टी का सदस्य है तो उसके प्रति पार्टी के अंदर भेदभाव नहीं होना चाहिए।
डीपीटी के संदर्भ में माकपा के अंदर भेदभाव और गुटपरस्ती को मैंने पहलीबार जब देखा तो माथा ठनका था। कई बार इस मसले को लेकर पार्टी में गर्मागर्म बहसें भी हुईं और उसका यह सुपरिणाम था कि मैं त्रिपाठीजी को देखना चाहता था, मैंने कुलदीपकुमार से अपनी इच्छा व्यक्त की मेरी डीपीटी से मुलाकात करा दो। कुलदीप ने कहा वे रघु के चुनाव प्रचार के लिए आ रहे हैं तुम मेरे साथ रहना मुलाकात हो जाएगी और त्रिपाठी आए तो सबसे पहले उन्हें खाना खिलाने के लिए हम दोनों डाउन कैम्पस में कटवारिया सराय में एक रेस्टोरैंट में ले गए हम तीनों ने जमकर खाना खाया और खूब बातें की। अंत में खाना खाकर तकरीबन ग्यारह बजे रात को हम ऊपर कैम्पस में आए और गोदावरी होस्टल (लड़कियों का) में चुनावसभा स्थल पर पहुँचे और तकरीबन एक बजे करीब डीपीटी ने अपना भाषण शुरू किया जो तकरीबन ढाई घंटे का था । इतना लंबा धारावाहिक, आकर्षक, विचारों से भरा भाषण्ा सुनकर सभी छात्र मुग्ध थे, मेरे लिए यह विलक्षण अनुभव था। मैंने अनेक नेताओं के भाषण सुने थे, सबसे लंबे भाषण के रूप में जयप्रकाशनारायण और चन्द्रशेखर का भाषण मैं मथुरा में सुन चुका था। किंतु डीपीटी के भाषण के बाद जो अनुभूति भाषणकला के प्रति पैदा हुई वह आनंददायी थी।
डीपीटी का भाषण आकर्षक,सरस, मानवीय और विचारधारात्मक था। यह भाषण द्विभाषी था। अधिकांश समय अंग्रेजी को मिला तकरीबन आधा घंटा हिन्दी में भी बोले। अनिलचौधरी और रमेश दधीचि के अलावा त्रिपाठीजी तीसरे छात्र नेता थे जो हिन्दी में भी थोड़ा समय बोलते थे। रघु के चुनाव की यह अंतिम सभा थी और इसमें प्रकाश कारात, सीताराम येचुरी ने भी भाषण दिया और जब त्रिपाठीजी बोल रहे थे वे दोनों मुग्धभाव से सुन रहे थे और बार-बार यह संकेत भी कर रहे थे कि त्रिपाठी को सुनना एक आनंद से कम नहीं है। मजेदार बात यह थी कि उन्हें इतना मजा आ रहा था कि प्रत्येक बीस मिनट के बाद एक स्लिप डीपीटी की ओर बढ़ा देते थे कि बीस मिनट और बोलो। किसी नेता के भाषण के प्रति किसी नेता का यह आग्रह निश्चित रूप से विरल चीज थी।
डीपीटी के भाषण शुरू होने के बाद कैम्पस में और कहीं पर किसी भी संगठन को अपनी चुनावी सभा जारी रखने में जबर्दस्त मुश्किलों का सामना करना पड़ता था। विपक्ष के सभी नेता और कार्यकत्तर्ाा अपनी सभा खत्म करके उनका भाषण सुनने चले आते थे ,रघु की चुनाव सभा में कहने को मंच पर प्रकाश कारात और सीताराम येचुरी बैठे थे वे पहले ही भाषण दे चुके थे उनके भाषणों के दौरान वह हलचल और सुनने की बेचैनी नहीं देखी गयी जो त्रिपाठी के भाषण के समय देखी गयी। त्रिपाठी को लंबे समय तक विपक्ष की सभाभंग करने वाले वक्ता के रूप में भी जाना जाता था। त्रिपाठी के भाषण के प्रति आम छात्रों में एक तरह का पागलपन था। मैंने अनेक छात्रों से पूछा कि भाई ऐसा क्या है जो पागल की तरह सुनने आ गए, सभी एक ही बात कहते थे कि त्रिपाठी को सुनने में मजा आता है। त्रिपाठी के भाषण के बाद जाना कि भाषण को आनंद देने वाला होना चाहिए। अमूमन नेतागण भाषणों के जरिए बोर करते हैं।
त्रिपाठी के भाषणों में रस होता था। त्रिपाठी ने अपनी भाषणकला में राजनीतिक भाषण कला में समाजवादी, कम्युनिस्ट और पंडितों की कथाशैली का सम्मिश्रण करके एक ऐसा फॉरमेट तैयार किया था जिसमें समाजवादियों की तरह विचारधारात्मक विवाद थे, कथाओं की तरह आनंद और आख्यान था साथ ही कम्युनिस्टों की समाहार शैली भी थी। त्रिपाठी की कोशिश हुआ करती थी कि श्रोताओं को कुछ देर के लिए दैनन्दिन जंजाल के बाहर ज्ञान के जंजाल में आनंद लेने को तैयार किया जाए। फलत: भाषण में विवाद ,समाहार,और आनंद की त्रिवेणी का एक अच्छी विचारोत्तोजक सुबह में मिलन होता था। त्रिपाठी का भाषण आधी रात के बाद कभी शुरू होता था और सुबह सूर्योदय के पहले तक चलता था। रघु के चुनाव के समय जो जलवा था वही जलवा अगले साल वी. भास्कर के चुनाव के समय भी था और दोनों ही मौकों पर मैन ऑफ द मैच त्रिपाठी थे। त्रिपाठी का हिन्दी का देशी ठाठ हिन्दीभाषी प्रान्तों के छात्रों को बेहद अपील करता था। डीपीटी अकेले वक्ता थे जिनकी अभिजन और गैर अभिजनों में समान अपील और सम्मान था। रघु की चुनाव सभा खत्म करने के बाद डीपीटी और मै,ं कुलदीपकुमार के पेरियार होस्टल स्थित कमरे में चले आए तब त्रिपाठीजी ने अपने हंसी-मजाक वाले अंदाज में ही मुझसे अपनी ज्योतिष संबंधी जिज्ञासाएं रखीं और इस तरह मैंने पहलीबार किसी माक्र्सवादी को ज्योतिषी से प्रश्न करते पाया।
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जेएनयू के प्रतीक पुरूषों में तीन कॉमरेडों का नाम आता है ये हैं देवीप्रसाद त्रिपाठी, प्रकाश कारात और सीताराम येचुरी। इनमें से एकमात्र देवी प्रसाद त्रिपाठी ने सबसे ज्यादा कुर्बानियां दीं। आपातकाल में 18 महीनों तक जेल में रहे। जबकि बाकी दोनों का किसी भी किस्म की कुर्बानी देने का रिकॉर्ड नहीं है। यह बात दीगर है कि प्रकाशकारात और सीताराम येचुरी को माकपा के शीर्ष नेतृत्व में जगह मिली। इन दोनों नेताओं के व्यक्तित्व की अपनी-अपनी निजी विशेषताएं हैं। किंतु कुछ साझा विशेषताएं भी हैं। दोनों माक्र्सवाद की किताबी भाषा से अच्छी तरह वाकिफ हैं। दोनों का माक्र्सवाद और हिंदुस्तान के प्रति दर्शकीय संबंध है। प्रकाश कारात ने जेएनयू में सन् 1980 में भास्कर वेंकटरमन के अध्यक्ष पद हेतु आखिरी चुनाव प्रचार सभा की। तब से प्रकाशकारात ने कभी छात्र चुनाव सभाओं में हिस्सा नहीं लिया।
प्रकाश कारात का भाषण पार्टी प्रेस विज्ञप्ति, पार्टी कक्षा और पार्टी के संपादकीय शैली का मिश्रित रूप था ,उसके भाषणों में जिंदगी की धड़कनों का अभाव खटकता था, चाहकर भी वह अंत तक इस कमजोरी से मुक्त हो पाया। प्रकाश के इस स्वभाव का जीवन और पार्टी के प्रति यांत्रिक और संवेदनाहीन समझ से गहरा संबंध है। कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर जो लोग स्टालिन टाइप व्यक्तित्व से प्रभावित हैं उन्हें प्रकाश अपील करता है। साधारण छात्रों में उसके भाषण्ाों की न्यूनतम अपील होती थी, सिर्फ एसएफआई के सदस्यों का एक हिस्सा ही उसे आदर्श वक्ता के रूप में पसंद करता था।
इसके विपरीत सीताराम येचुरी के भाषणों में पब्लिक स्कूल के डिबेटरों की शैली थी, यह शैली जेएनयू के पब्लिक स्कूल मार्का छात्रों को अपील करती थी, इसी शैली के कारण सीताराम को मीडिया में भी ज्यादा पसंद किया जाता है। पब्लिक स्कूल मार्का वक्तृता शैली मूलत: आभिजात्य पापुलिज्म को संबोधित करती है। आभिजात्य पृष्ठभूमि के छात्रों में सीताराम की जनप्रियता जबर्दस्त थी ।
उल्लेखनीय है आभिजात्य की जनप्रियता खोखली और अस्थायी होती है। यही वजह है सीता के भाषणों का क्षणिक प्रभाव होता था। वह जिस क्षण बोलता है तत्काल ही प्रभावहीन हो जाता है। आप जब तक भाषण सुनते हैं अच्छा लगता है, भाषण बंद और प्रभाव भी खत्म। इसके विपरीत डीपीटी के भाषणों में आख्यान और विचार की सम्मिश्रित पध्दति का प्रयोग था। डीपीटी का भाषण सुनते हुए छात्र आनंद लेते थे बाद में उसे स्मरण करके बहस करते थे। बहस अंतर्वस्तु और भाषणकला दोनों को लेकर होती थी।
जेएनयू की वामपंथी छात्र संस्कृति को बनाने में जिन छात्रों की भूमिका महत्वपूर्ण थी और जो आइकॉन नहीं थे किंतु अपने जमाने के जेएनयू के बेहतरीन छात्र होने के साथ बेहतरीन संगठनकत्तर्ाा थे इनमें सर्वप्रथम दो नाम आते हैं पहला रमेश दीक्षित का और दूसरा है सुनीत चोपड़ा का। इन दोनों ने अपने-अपने तरीके से जेएनयू के छात्र आंदोलन की बुनियाद का निर्माण किया। साथ ही देश में एसएफआई जैसे विशाल छात्र संगठन के संस्थापक सदस्यों में भी बने। सुनीत इन दिनों माकपा के केन्द्रीय कमेटी के सदस्य हैं जबकि रमेश दीक्षित राष्ट्रवादी कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व का अंग हैं। इन दोनों छात्रनेताओं ने लंबे समय तक जेएनयू के उदात्त मानवीय चरित्र को अपने दैनन्दिन व्यवहार और विचारधारात्मक कार्यों से प्रस्तुत किया। इनके अलावा उस जमाने में छात्र आंदोलन के अग्रणी नेताओं में दिनेश अवरोल, प्रबीर पुरकायस्थ, अशोक लता जैन, इंदु अग्निहोत्री,सुहेल हाशमी, दिलीप उपाध्याय ,सीताराम प्रसाद सिंह, कैशर शमीम, रमेश दधीचि आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।


( लेखक,, सन् 1984 में जेएनयू छात्र संघ अध्यक्ष )

मार्शल मैकलुहान और ग्लोबल विलेज

जगदीश्वर चतुर्वेदी
सुधा सिंह



मैकलुहान ने ग्लोबल विलेज की जब धारणा पेश की तो ज्यादातर विचारकों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया । आज सारी दुनिया में ग्लोबल विलेज की धारणा का धडल्ले से प्रयोग हो रहा है। ग्लोबल विलेज अथवा भूमंडलीय गांव रुपक है। इसके जरिए परवर्ती पूंजीवादी विकास और तद्जनित मीडिया वातावरण और सामाजिक संरचनाओं के अध्ययन में मदद मिलती है। ग्लोबल विलेज में टीवी को आधार बनाकर धारणा पेश की गई थी, इसके अलावा मासकल्चर के विकास को भी इस धारणा को जोड़कर देखना चाहिए। ग्लोबल विलेज का निर्माण ग्लोबल मीडिया प्रसारण और ग्लोबल मासकल्चर के प्रसार के साथ जुड़ा हुआ है।
मैकलुहान ने लिखा '' आज,इलैक्ट्रिक तकनीक के आने के एक शताब्दी से भी ज्यादा समय गुजर जाने के बाद हमने अपने केन्द्रीय नरवस सिस्टम को ग्लोबल के हवाले किया है, भूमंडल के संदर्भ में स्पेस और टाइम दोनों का लोप हो गया है।'' इस नजरिए से यदि बीसवीं शताब्दी को देखें तो एकदम भिन्ना नजारा दिखाई देगा। यही वह शताब्दी है जिसमें दो विश्वयुध्द हुए, संयुक्त राष्ट्र संघ,विश्व बैंक,अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष,यूरोपीय यूनियन,नाटो जैसी संस्थाओं का जन्म हुआ। यूरोपीय देशों की साझा मुद्रा का जन्म हुआ। उपग्रह तकनीकी का विकास हुआ और उपग्रह के जरिए सारी दुनिया में टीवी प्रसारण संभव हुआ। आधुनिकता और फिर उत्तार आधुनिकता का पथ ग्रहण किया।
सारी दुनिया को ग्लोबल विलेज के रुपक में बांधने का काम किया टीवी और उपग्रह ने। टीवी ने विश्व समुदाय को जन्म दिया,आज हमारे बीच में ज्यादा से ज्यादा बहुराष्ट्रीय चैनल आ रहे हैं। इंटरनेट ने इस प्रक्रिया को नई ऊचाईयां दीं। पहले हमारे पास परंपरागत टीवी था,जिसमें स्थानीय स्तर पर एक साथ कार्यक्रम का आनंद ले सकते थे,राष्ट्रीय अनुभूति में बंध सकते थे, किंतु सैटेलाइट के इस्तेमाल ने टीवी और सामाजिक संरचनाओं का स्वभाव ही बदल दिया। इसका मानवीय व्यवहार पर गहरा असर हुआ। आज संसार पहले की तुलना में एक-दूसरे से ज्यादा जुड़ा है। ग्लोबल विलेज का आधार है ग्लोबल संपर्क, ग्लोबल संवाद,ग्लोबल संस्कृति। ग्लोबल होने का यह अर्थ नहीं है कि स्थानीय वैशिष्ट्य खत्म हो जाएंगे,बल्कि इसका अर्थ यह है कि स्थानीय वैशिष्टय के लिए भी ग्लोबल आधार उपलब्ध रहेगा। स्थानीय भी ग्लोबल हो सकता है। ग्लोबल का अर्थ लोकल का लोप नहीं है,बल्कि ग्लोबल लोकल के बिना आधार ही नहीं बनाता, ग्लोबल का लोकल से बैर नहीं है, बल्कि लोकल के लिए नयी संभावनाएं पैदा करता है। इस अर्थ में ग्लोबल एक प्रगतिशील कदम है,प्रतिगामी कदम नहीं है।
ग्लोबल मीडिया के कारण लोकल लोगों में संवाद और संपर्क और भी मजबूत बनता है। ग्लोबल का दूसरा वैशिष्ट्य यह है कि लोकल ग्लोबल आर्थिक गतिविधि का हिस्सा बनता है, ग्लोबल आर्थिक संरचनाओं के साथ अन्तर्ग्रथित करता है, इसका अर्थ यह नहीं है कि लोकल आर्थिक गतिविधियों को खत्म कर देता है, बल्कि लोकल को भी ग्लोबल आधार देता है। इस क्रम में आर्थिक गतिविधि की राष्ट्रीय सीमाओं को खत्म कर देता है,सीमाहीन विकास, राष्ट्र की सीमा के परे जाकर विकास की नयी संभावनाओं के द्वार खोलता है। कोई देश ग्लोबल विलेज बनता है या नहीं यह सब कुछ स्थानीय राजनीतिक -आर्थिक संरचनाओं के ग्लोबल संरचनाओं के साथ अन्तर्ग्रथन पर निर्भर करता है। लोकल के ग्लोबल होने की पहली शर्त है सभी किस्म राष्ट्रीय बंधनों,सीमाओं और कानून में ग्लोबल आर्थिक या वित्ताीय संस्थानों के अनुकूल बुनियादी परिवर्तन। ग्लोबल विलेज के रुपक का मूलाधार है ग्लोबल संपर्क की संरचनाएं,ग्लोबल वित्ताीय संरचनाएं,ग्लोबल संचार प्रणाली। इसका आधार है सैटेलाइट, टीवी,इंटरनेट आदि के जरिए संपर्क,संबंध और संवाद। ग्लोबल का लक्ष्य है वर्चुअल समाज,वर्चुअल संस्कृति ,वर्चुअल आनंद,वर्चुअल इतिहास के जरिए सारी दुनिया के बीच नये संबंध ,संपर्क और संवाद का निर्माण।
ग्लोबल विलेज में आने या रहने अथवा इस रुपक को महसूस करने का अर्थ यह नहीं है कि भौतिक जगत में वैषम्य का लोप हो गया है,बल्कि ग्लोबल विलेज वैषम्य,सामाजिक वैषम्य,राष्ट्रों के वैषम्य,संस्कृतियों के वैषम्य,जीवन की आधारभूत परिस्थितियों के बीच वैषम्य की प्रकृति को बदलता है, वैषम्य को बढ़ाता है, वैषम्य को छिपाता है। ग्लोबल विलेज का अर्थ यह नहीं है कि सारी दुनिया एक जैसी हो गयी है,एक ही गांव में रहती है, बल्कि ग्लोबल विलेज वैषम्य के सवाल को सम्बोधित ही नहीं करता। ग्लोबल विलेज एक सुंदर रुपक है ,यह सच को छिपाता है,सच को उद्धाटित भी करता है,काल और देश के भेद के बिना यह काम करता है। पहले वैषम्य स्थानीय था,अब वैषम्य ग्लोबल है। स्थानीय वैषम्य को ग्लोबल वैषम्य के परिप्रेक्ष्य में देखने का सिलसिला शुरू हो जाता है। ग्लोबल विलेज में यदि ग्लोबल उपभोग,ग्लोबल संवाद, ग्लोबल संचार के सवाल प्रमुख हैं तो ग्लोबल हिंसाचार,ग्लोबल वैषम्य,ग्लोबल लूट और उत्पीड़न के सवाल प्रमुख हैं।
ग्लोबल में कोई भी सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक तत्व छिपा नहीं रहता,ग्लोबल विलेज में सबको सबकी खबर लेने,जानने का हक है,संभावनाएं हैं और हस्तक्षेप करने का अधिकार भी है। ग्लोबल हमें सीमाबध्दता,स्थानीयता,स्थानीयबोध और कूपमंडूकता से मुक्त करता है। इस अर्थ में यह सकारात्मक धारणा है। इसका यह अर्थ नहीं है कि जो ग्लोबल नहीं है वह कूपमंडूक है, और जो ग्लोबल है वह अक्लमंद है। यह भी संभव है कि खान-पान में ग्लोबल हों,ज्ञान में लोकल हों। ज्ञान में ग्लोबल हों,जीवनशैली में लोकल हों। ग्लोबल में सब कुछ खुला है तो बहुत कुछ अनखुला भी है,उदार वातावरण है तो अनुदार वातावरण भी है , लोचदार समझ का समाज है तो कट्टरपंथी समाज भी है। कहने का अर्थ यह है ग्लोबल अन्तर्विरोधी है। मूलत: वर्चस्ववादी है, इसमें मुक्ति की क्षमता नहीं है। किंतु संपर्क की क्षमता,संवाद की अपार क्षमता जरूर है।
मैकलुहान ने जब ग्लोबल विलेज की धारणा दी थी तब वह दृश्य ,व्यक्तिवादी प्रिंट संस्कृति की समाप्ति को देख रहे थे, यही वजह है उन्होने '' इलैक्ट्रोनिक इंटरडिपेंडेंस'' की बात कही थी। यही वह दौर था जब इलैक्ट्रोनिक मीडिया ने दृश्य संस्कृति के जरिए युगीन और वाचिक संस्कृति को अपदस्थ किया था। इलैक्ट्रोनिक युग में मनुष्य व्यक्तिवाद से निकलकर फ्रेगमेंटेशन या विखंडन के युग में दाखिल होता है। सामुदायिक अस्मिता के युग में दाखिल होता है। इसका आदिवासी चरित्र था। मैकलुहान ने ऐसी अवस्था में नए किस्म के सामाजिक संगठनों की बात कही। नया सामाजिक संगठन ग्लोबल विलेज के रूप में सामने आया। हम अलैक्जेंडरियन लाइब्रेरी की ओर जाने की बजाय कम्प्यूटर की ओर चले गए, इलैक्ट्रोनिक दिमाग की ओर चले गए,एक तरह से साइंस फिक्शन के प्रति पागल हो उठे। इस समूचे परिवर्तन को सही ढ़ंग से समझे बिना हम आतंककारी दर्द के शिकार हो गए। हम ऐसे जगत में आ गए जिसमें समग्रता में अन्तर्निर्भरता बनी रही। इसके ऊपर सह-अस्तित्व को आरोपित कर दिया गया।
वाचिक समाज में आतंक एक अनिवार्य और नार्मल तत्व है। इसमें प्रत्येक चीज प्रत्येक चीज को प्रभावित करती है। हमारी पश्चिमी मानसिकता यह मानने को तैयार ही नहीं थी कि हम जनजातीय चेतना से घिर चुके हैं। मैकलुहान ने जब ग्लोबल विलेज की बात कही थी तो उसका इशारा मीडियम के ज्ञानात्मक प्रभाव की ओर था। मैकलुहान का मानना था कि मीडिया के प्रभाव को लेकर हम यदि सतर्क नहीं होते तो ग्लोबल विलेज सर्वसत्ताावाद और आतंक के राज में तब्दील होने की क्षमता रखता है। मैकलुहान की यह बात अब तक के ग्लोबल यथार्थ में सच साबित हुई है। सन् 1980 के बाद से सारी दुनिया में आतंक,सर्वसत्ताावाद का एक नया उभार देख रहे हैं। खास किस्म की आदिमचेतना और आदिम मानसिकता का प्रसार देख रहे हैं।
मैकलुहान की बुनियादी धारणा थी तकनीकी को नैतिक नजरिए से मत देखो, यह उपकरण है और व्यक्ति का निर्माण करता है। यह समाज की आत्म-समझ (सेल्फ-कनसेप्शन) और अनुभूति की अभिव्यक्ति है। तकनीकी के आधार पर सोचने पर नैतिक समस्याएं भी आतीं हैं, नैतिक समस्याओं का आना स्वाभाविक है। प्रिंट या मुद्रण शब्द संस्कृति का चरमोत्कर्ष है। यह मनुष्य का गैर-जनजातीयकरण करती है।
मैकलुहान ने तकनीक और मनुष्य के अन्तस्संबंध को जोड़ते हुए एक नए किस्म के डिजिटल मानवतावाद की परिकल्पना पेश की है। जिसे आर्थर क्रोकर ने '' टैक्नोलॉजी एंड दि कनाडियन माइण्ड'' नामक कृति में विस्तार से विवेचित किया है। मैकलुहान के लेखन में मीडिया के प्रत्येक रुप का किस न किसी मानवीय गतिविधि के साथ जोड़कर विवेचन किया गया है। वह तकनीकी रुपों और मनुष्य के बीच के संबंध को निर्धारित संस्कृति के तर्कों के जरिए खोलता है। एक सुनिश्चित परिप्रेक्ष्य बनाता है। मसलन् मनुष्य की रीडिंग की आदत कलात्मक कल्पनाशीलता के लिहाज से सबवर्सिव गतिविधि है। निर्धारित या तयशुदा या नियमानुसार रीडिंग को अस्त-व्यस्त करने वाली गतिविधि है। तकनीकजनित संवेदनशीलता प्रतिवादी मसाला तैयार करती है,यह हमारी चेतना के सतही रुप को प्रभावित करती है और अंतर्निहित शांत नियमों को भी प्रभावित करती है। तकनीकजनित माहौल बंद होता है और प्रक्रिया में सम्पन्ना होता है।
तकनीकजनित माहौल का आप इसके बाहर रहकर बोध या समझ नहीं बना सकते। हम सिर्फ यही जान सकते हैं कि इलैक्ट्रोनिक युग में कैसे अनुभव को पैदा किया जाता है। सभी किस्म के मीडिया की भूमिका निष्पन्ना हो चुकी है, वह व्यक्तिगत,राजनीतिक, आर्थिक, सौंदर्यबोधीय,मनोवैज्ञानिक,नैतिक, नीतिगत, और सामाजिक परिणाम अभी तक स्पर्शविहीन हैं। अप्रभावित हैं। अपरिवर्तनीय हैं। माध्यम ही संदेश है,किसी भी किस्म की सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन की समझ मीडिया के वातावरण की समझ के बिना असंभव है क्योंकि मीडिया एक तरह से वातावरण की तरह काम करता है। मैकलुहान के नजरिए का बुनियादी आधार है तकनीकी और बायोलॉजी का अंतस्संबंध। यही वजह है कि मैकलुहान ने लिखा '' मीडिया ...प्रकृति है।'' यही वजह है कि तकनीकी को मनुष्य के शरीर,संवेदनाओं ,सामाजिक और मनोवैज्ञानिक के विस्तार के रूप में विश्लेषित किया। मैकलुहान का मानना है '' अवचेतन के संवेदनाश्रयी रुप सामाजिक चेतना की शक्ल अख्तियार करते हैं।'' ''काउण्टर ब्लास्ट'' में मैकलुहान ने लिखा '' पर्यावरण या माहौल प्रक्रिया है, यह कंटेनर या बंद डिब्बा नहीं है।'' इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक तकनीक अपना प्रभाव आरोपित करती है,यह काम वह चुपचाप और प्रतिगामी ढ़ंग से करती है। उसके अन्तर्निहित अनुमान मनुष्य की मनोदशा में अनुभूति के अनुपात में दुबारा काम करते हैं। मैकलुहान के शब्दों में '' सभी मीडिया मानवीय फैकल्टी के मानसिक अथवा शारीरिक रुप का विस्तार है। मीडिया हमारे वातावरण को जब बदलता है,उलटता है तो हमारी देखने की अनुभूतियों में आनुपातिक परिवर्तन आता है। किसी भी किस्म की अनुभूति का विस्तार हमारे सोचने और व्यवहार के रवैयये को भी परिवर्तित करता है। दुनिया को देखने का हमारा नजरिया उसी अनुपात में तब्दील होता है जिस अनुपात में हमारी अनुभूति बदलती है। मनुष्य बदलता है।''
मैकलुहान के अनुसार मौजूदा संसार अग्रगामी संसार है। इसमें सहजजात-स्वर्तस्फूत्ता सूचना गतिविधियां चल रही हैं। हम पहले मनुष्य हैं जो तकनीकी संरचनाओं की मध्यस्थता से निर्मित वातावरण में जी रहे हैं। ऐसे में तकनीकी संरचना की 'अंतर्वस्तु' पूरी तरह अप्रासंगिक है। मीडिया की अंतर्वस्तु को एक-दूसरे मीडिया के संदर्भ में देखें तो पाएंगे कि वह उसकी सीमा का अतिक्रमण करके आगे जा रही है। नयी तकनीक की अंतर्वस्तु हमेशा तकनीक ही होती है,वह अतिक्रमण करती है,फिल्म का टीवी की अंतर्वस्तु,उपन्यास की अंतर्वस्तु फिल्म का अतिक्रमण कर जाती है। बल्कि यों कहें तो सटीक होगा कि हम यह भूल जाते हैं कि वातावरण में रह रहे हैं अथवा मीडियम में रह रहे हैं। नयी तकनीक की यही भूमिका है कि वह हमारा इस चीज की तरफ से ध्यान हटा देती है। जबकि इसी के आधार पर मानवीय योजनाएं बन रही हैं। मैकलुहान का मानना है ''नयी तकनीक हमारे विचार और अनुभूतियों को निर्मित कर रही है।'' इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो मैकलुहान के यहां टैकनोलॉजी ,बायोलॉजी का विस्तार है। इलैक्ट्रोनिक मीडिया 'रूपक' या 'वातावरण' है। इस वातावरण की विशेषता है कि इसने हमारे केन्द्रीय स्नायु जगत (नरवस सिस्टम) को उद्धाटित कर दिया है। अब हम तकनीकीगत अनुकरण की प्रक्रिया से गुजरने लगे हैं। तकनीकी संस्कृति में सघन रूप से और नियमित हिस्सा ले रहे हैं। समग्रता में कहें तो मैकलुहान तकनीक को आंतरिक की बजाय बाहरी विस्तार के रूप में देखता है।
मैकलुहान का मानना है तकनीकी संस्कृति स्वयं का विस्तार है अथवा पुनरावृत्तिा है। '' दि गजट लवर'' नामक निबंध में मैकलुहान ने लिखा है जिस तरह मनुष्य जल में अपनी छाया देखकर आकर्षित होता है,अथवा आईने में स्वयं को देखकर आकर्षित होता है ,इसका अर्थ यह है कि वह स्वयं से अलग किसी अन्य तत्व को देखकर मोहित होता है। यह जादुई असर है तकनीक का। तकनीकजनित संवेदनात्मकता का जादुई असर होता है,इसे सिध्द करने के लिए हंसी,दुविधा,तुलनात्मक विवेचन,अमूर्तता आदि के जरिए समग्र प्रभाव को देखा जा सकता है।
मैकलुहान को इस बात का श्रेय जाता है उन्होने मीडिया का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन किया। अपने आरंभिक निबंध '' ए हिस्टोरिकल एप्रोच टु दि मीडिया'' (1955) में मैकलुहान ने लिखा - ''हमें असहाय अशिक्षितों की मदद करनी चाहिए।'' तकनीकी की दुनिया में पेसिव पीड़ित हैं,क्योंकि ''मीडिया स्वयं ही सीधे हमारी आंतरिक आत्म-चेतना को निर्मित कर रहा है।'' ऐसी अवस्था में हमें कलाकार का रवैयया अपनाना चाहिए। ''कलाकार का दिमाग हमेशा ज्यादा से ज्यादा संवेदनशील बनाने की ओर रहता है। वह सामान्य संस्कृति में वैकल्पिक यथार्थ के उद्धाटन के संसाधन के रूप में काम करता है।'' मैकलुहान के अनुसार ''कलाकार को अन्वेषक और जासूस होना चाहिए।'' तकनीक के इतिहास से आलोचनात्मक परिप्रेक्ष्य ग्रहण करना चाहिए।
मैकलुहान अपने चिन्तन में बारोक कलाओं की कल्पनाशीलता के कायल थे,वहीं दूसरी ओर मीडियम के रूप में विश्लेषित करते हुए ''अनुभव की रणनीति'' निर्मित करने के लिए बारोक कला के अनुभवों को आधार बनाया,इसी के आधार पर मैकलुहान ने तकनीक के संदेश का मूल्यांकन किया। मैकलुहान का मानना है कि मीडियम का अनुभव को पुनर्निर्मित करने के लिए स्पेस को प्रक्रिया की तरह इस्तेमाल करना चाहिए। साथ ही प्रतिवादी सामग्री को इसमें शामिल कर देने के लिए कलात्मक कल्पनाशीलता की जरूरत होती है। तकनीकी समाज में तर्क की सत्ताा की स्थापना के लिए सभ्यता को संरक्षित रखना होगा।
मैकलुहान के अनुसार मौजूदा युग उत्सुकता ख् ंदगपमजल, का युग है। पर्याप्त समझ के अभाव में अचानक उद्धाटन के कारण नयी सूचना व्यवस्था स्वत: अन्त:स्फोट कर रही है। 'माध्यम ही संदेश है' धारण के माध्यम से तकनीक के द्वारा मुक्ति की अनंत संभावनाओं और वर्चस्व की संभावनाएं पैदा की हैं। इस स्थिति में सबसे प्रभावी तकनीकी मानवतावाद ही है। उसके जरिए ही केन्द्रीय सांस्कृतिक प्रवृत्तिायों को संभाला जा सकता है। बीसवीं शताब्दी में तकनीकी अनुभव बताता है कि उसने वातावरण की भूमिका अदा की है,विकासमूलक सिध्दान्त का निर्माण किया है, हमारी दूसरी प्रकृति की भूमिका अदा की है। मैकलुहान के अनुसार
'' पर्यावरण पेसिव कवच नहीं है बल्कि इसकी सक्रिय प्रक्रियाएं पूरी तरह सक्रिय रहती हैं, अनुभूतियों पर उसका किस अनुपात में चुपचाप प्रभाव पड़ता है ,उसको देखना चाहिए। किंतु पर्यावरण अदृश्य रहता है। उसके आधारभूत नियम,प्रतिगामी संरचनाएं और समग्र पैटर्न सहज ही देख सकते हैं।'' कैथोलिक मान्यताओं की रोशनी में मैकलुहान तकनीकी अनुभवों की व्याख्या करते हुए विकल्प तलाश करते हैं। कैथोलिक मान्यता के अनुसार तर्क को व्याख्या के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए,तकनीक के अनुभवों को सभ्यता के निर्माण के काम में लगाया जाना चाहिए। यही वह बुनियादी बिंदु है जिस पर मैकलुहान अपनी प्रत्येक किताब में बार-बार लौटते हैं। इसी के आधार पर तकनीकी संस्कृति की व्याख्या पेश करते हैं।
मैकलुहान का मानना है तकनीकी समाज आधुनिक शताब्दी का धर्मनिरपेक्ष विमर्श तैयार कर रहा है। मीडिया विमर्श,तकनीकी विमर्श आदि का आधार है तर्क। इस युग में तर्क के ही आधार पर मूल्यांकन करते हैं। मैकलुहान की राजनीतिक समझ का आधार है तर्क के आधार पर निर्मित मानवता। मैकलुहान की राजनीति सभ्यता की हिमायत में खड़ी होती है। वे इसके आधार पर मीडिया की अतार्किकता का विरोध करते हैं। मैकलुहान विश्व दृष्टिकोण पर जोर देते हैं। उनकी विश्वदृष्टि का लक्ष्य है मीडिया की '' काव्यात्मक प्रक्रियाओं'' की खोज करना। इसके लिए जरूरी है कि मीडिया को ऐतिहासिक नजरिए से देखा जाए,विवेचित किया जाए। जिससे तकनीकी समाज के जादू का उद्धाटन किया जा सके, उसके अर्थ का उद्धाटन किया जा सके। मैकलुहान ने ''तकनीकी मानवतावाद'' की धारणा के विकास के लिए '' काव्यात्मक प्रक्रियाओं'' को ही आधार बनाया है। काव्यात्मक प्रक्रियाएं ही बाह्य जगत को हमारे अंदर मन में उतारती हैं। हमारी ज्ञानात्मक क्षमता का विकास होता है। मनुष्य अपने को नए रूप में अर्जित कर पाता है। काव्यात्मक प्रक्रिया के जादू को साधारण मानवीय नजरिए का हिस्सा बनाता है।
बौध्दिक रणनीति चुप रहने पर निर्भर नहीं करती,बल्कि यह वस्तु विशेष में सक्रिय हिस्सेदारी के लिए उद्बुध्द करती है। हमें देखना होगा कि मीडिया की ज्ञानात्मक संरचनाएं किस तरह मानव अनुभवों को उभारती हैं,अभिव्यक्ति देती हैं,ऊँचाई प्रदान करती हैं। तकनीकी समाज जादुई समाज है। इस जादुई समाज को विश्लेषित करते समय मैकलुहान इस तथ्य पर विचार करता है कि किस अनुपात में तकनीकी समाज बोध (सेंसेज) को प्रभावित करता है।
मैकलुहान का मानना है मशीन की दुनिया में आदमी सिर्फ सेक्स ऑर्गन बनकर रह गया है। यह वैसे ही है जैसे हम पौधों की दुनिया में हों, इसमें हम नए रूप में अपना विकास नहीं कर सकते,मशीन की दुनिया आदमी के प्रेम को तेजी से शुभेच्छाओं और इच्छाओं में विस्तारित करती है, उसे संपदा कहकर यह सब किया जा रहा है।
मैकलुहान के नजरिए पर प्राचीनकालीन औषधी विज्ञान का भी गहरा असर था,इस प्रभाव की व्याख्या करते हुए ऑर्थर क्रोकर ने लिखा है कि मैकलुहान के नजरिए पर प्राचीन औषधि विज्ञान की पध्दति का गहरा असर था, औषधि विज्ञान की पध्दति के तीन सूत्रों को मीडिया के अध्ययन की पध्दति के रूप में लागू किया,प्राचीन औषधि के सूत्रों को लागू करते हुए मैकलुहान पहले लक्षण सुनिश्चित करता है,उनका वर्गीकरण करता है, 2. इलाज करता है, 3.समाधान या थैरपी करता है। मैकलुहान मीडिया में पहले लक्षणों का वर्गीकरण करता है,दूसरा सूत्र है समाधान खोजता है फिर उसे सहेजता है। मैकलुहान आपत्तिा पेश करता है, प्रत्युत्तार देता है, आपत्तिायों के उत्तार देता है। यह एक तरह से प्रयोगमूलक औषघिशास्त्र की पध्दति है।
मैकलुहान ऐतिहासिक अनुभव के साथ संवाद करता है,बहस करता है, गंभीरता के साथ पुनर्सृजित करता है। उसका सारा जोर इतिहासकार पर है। वह सांस्कृतिक इतिहासकार या डाक्टर के रूप में सामने आता है। मैकलुहान सांस्कृतिक इतिहासकार के नाते '' खोज और पुन: खोज'' करता है। तकनीकी अनुभवों को मानवीय परिप्रेक्ष्य में पेश करता है। मैकलुहान का मीडिया संबंधी मूल्यांकन जहां एक ओर मानवीय नजरिए की करीब से पड़ताल करता है वहीं दूसरी ओर मीडिया के प्रभावों के प्रति तटस्थ बनाता है। मीडिया के प्रभाववश साधारण आदमी को शॉक से भी गुजरना पड़ता है, परेशानियों से गुजरना पड़ता है। दबावों से बचने के लिए प्रतिवाद अथवा प्रतिरोध के रूप में तकनीकी के ही सुझाव दिए जाते हैं। जिससे कि संवेदनात्मक स्तर पर प्रतिरोध किया जा सके। ये तकनीकी विकल्प ऐसे समय में आते हैं जब हम पूरी तरह थक चुके होते हैं। मैकलुहान का मानना है कि मौजूदा शताब्दी पूरी तरह तकनीकी मीडिया के प्रभाव के प्रति अचेत है। मैकलुहान के शब्दों में '' नया मीडिया बड़े पैमाने पर बेबी पाउडर उड़ा रहा है,यह नए आदमी के ऊपर भी गिर रहा है,इसकी धूल हमारी आंखों में भी पड़ रही है।''
मैकलुहान ने तकनीकी खोज के बारे में मानवीय नजरिए से विचार किया,इस क्रम में वाचन से लेकर लेखन तक की यात्रा का मूल्यांकन किया, तकनीकी की मेडीकल समझ को पेश किया,तकनीकी का औषधिविज्ञान की पध्दति के आधार पर मूल्यांकन किया,हमारे अदृश्य वातावरण के अनेक गुप्त क्षेत्रों का उद्धाटन किया, इस क्रम में मौलिकता को सर्वोपरि स्थान दिया, अपना मौलिक चिन्तन पेश किया। इलैक्ट्रोनिक तकनीकी के अप्रत्यक्ष अनुमानों का उद्धाटन किया, तकनीकी के द्रोहकारी प्रभाव का उद्धाटन किया, इस क्रम में इलैक्ट्रोनिक युग की विशिष्ट चीजों को जिज्ञासा के रूप में पेश किया, इसे उसने कोड,भाषा और तकनीकी माध्यम के जरिए पेश किया ,ये ही हमारे रूपान्तरण,भावान्तरण की समस्त जादुई संपदा का आधार है। वह नए युग के नीचे जा रहे रूपों को टेलीविजन इमेजों के हिस्सेदार के नाते एक्सरे के जरिए सामने लाता है। मैकलुहान तकनीकी पर ऐतिहासिक नजरिए से विचार करते हुए उसकी तमाम खोजों का मूल्यांकन करता है, उसके दुष्प्रभाव के बारे में आगाह करता है,साथ ही उसके समानान्तर पैदा हो रहे प्रतिरोध का उद्धाटन करता है।
मैकलुहान के अनुसार फिल्म और टीवी ने मानवीय संवेदनाओं का पूरी तरह मशीनीकृत रूप पेश किया है, कम्प्यूटर ने मनुष्य के दिमाग को आत्मसात् करके अपना विकास किया है। तकनीकी खोज के प्रति उत्प्रेरित करने वाली शक्ति हमेशा रक्षात्मक और बायोलॉजिकल होती है। मीडिया की भूमिका के द्वारा हमारा नरवस सिस्टम प्रभावित होता है। इसी अर्थ में इलैक्ट्रोनिक युग ज्यादा खतरनाक है। यह हमें आत्महत्या की हद तक ले जा सकता है। आधुनिक समाज हमारे सार्वजनिक स्नायु तंत्र के साथ खेलता है। उसकी परिस्थितियों से खेलता है। मैकलुहान का प्रमुख अवदान यह है कि उसने सर्जनात्मक स्वतंत्रता को प्रमुख एजेण्डा बनाया, उसे सकारात्मक सार्वजनिक मूल्य बनाया, उसने व्यक्तिवाद पर नए सिरे से जोर दिया, व्यक्तिवाद को राजनीतिक समुदाय और सर्जनात्मकता इन दोनों के लिए आवश्यक माना। इसी के आधार पर तकनीकी अनुभवों को हासिल किया जा सकता है। मैकलुहान ने परंपरागत उदारतावादी विचारों को तकनीकी अनुभव और इतिहासलेखन में इस्तेमाल किया। परंपरागत उदारता के तर्क के आधार पर तार्किक सार्वभौम राजनीतिक समुदाय की व्याख्या पेश की, तर्क और तकनीकी के संबंध की व्याख्या को मानव मुक्ति तक विस्तार दिया।
मैकलुहान की मीडिया थ्योरी पर कैथोलिकपंथ का गहरा असर है। वह अपनी धार्मिक संवेदनाओं का मीडिया की व्याख्या के संदर्भ में इस्तेमाल करता है। इसी से उसकी बौध्दिक विद्वत्ताा प्रेरित है। उसकी प्रधान चिन्ता है आधुनिक शताब्दी में सर्जनात्मक स्वतंत्रता की कैसे रक्षा की जाय। तकनीकी के दबाव से सर्जनात्मक स्वतंत्रता पर ही सबसे ज्यादा दबाव पड़ रहा है। उसे बचाना ही केन्द्रीय लक्ष्य है। मैकलुहान ने लिखा व्यक्तिगत स्वतंत्रता,नागरिक संस्कृति आदि आज तकनीकी संस्कृति के सामने भिखारी बनकर रह गई है। इसी आधार पर मैकलुहान तकनीकी को चुनौती देता है और तकनीकी अनुभवों को मानव मुक्ति के बृहत्तार प्रयासों से जोड़कर देखता है।
मैकलुहान की केन्द्रीय कमजोरी है तकनीकी और अर्थशास्त्र के अन्तस्संबंध की अनदेखी। उसने संचार और परिवहन के बीच अन्तस्संबंध स्थापित किया, मसलन् चश्मा,साईकिल और रेडियो के साथ संबंध जोड़कर देखा। तकनीक हमारी संवेदना और व्यक्तित्व को प्रभावित करती है, व्यक्तित्व के जरिए सामाजिक संगठन प्रभावित होते हैं। उसने तकनीक को मनुष्य की संवेदना और इन्द्रियों के विस्तार के रूप में देखा। वह यह नहीं मानता कि विभिन्ना मीडिया रूप एक दूसरे को अपदस्थ करते हैं,बल्कि वह इनके बीच संबंध देखता था,साथ ही यह भी बल दिया कि प्रत्येक नया मीडिया समाज में नए परिवर्तन लेकर आता है। इसी अर्थ में वह अपने को तकनीकी की सामाजिक परिवर्तनकारी भूमिका को रेखांकित करता है। मैकलुहान की सबसे उत्तोजक धारणा थी कि शब्द के जरिए लिखने की तकनीक ,खासकर प्रिंट तकनीक ने मनुष्य के दिमाग को दृश्य प्रक्रियाओं को रेखीय क्रम में देखने के लिए प्रशिक्षित किया। रेखीय चिन्तन - डिटर्मिनेशन, केजुअल्टी , लॉजिक, डिटेचमेंट और विलम्बित विस्तार को सारी जिन्दगी लागू करते हैं। प्रिंट की रेखीयता सामाजिक नजरिए और विचारों का समाजीकरण करती है। खासकर एक ही दृष्टिकोण के (बहुआयामी नजरिए की बजाय) जरिए व्यक्तित्व का निर्माण होता है। एक ही नजरिए में आस्था, एक की बात मानो, एक ही परंपरा में विश्वास करो, एक ही धर्म में आस्था रखो,इत्यादि चीजें प्रिंट तकनीक के आने के बाद पैदा हुए रेखीय चिन्तन की देन हैं। इससे एकायामी व्यक्तित्व तैयार हुआ। नजरिए की एकायामिता मनुष्य के अंदर कला के प्रति परिप्रेक्ष्यगत सोच पैदा नहीं होने देती। औद्योगिक उत्पादन के लिए एसेम्बली लाइन और व्यापार के रेल लाइन,विज्ञान में सीधा सोचने की प्रक्रिया आदि को जन्म देती है।
इलैक्ट्रोनिक मीडिया के आने के बाद इस तरह सोचने,देखने और काम करने का नजरिया पूरी तरह बदल जाता है। इसी अर्थ में मैकलुहान कहता है '' माध्यम ही संदेश है।'' वह कहता है कि माध्यम की अंतर्वस्तु पर ध्यान दो, उसकी तकनीक पर ध्यान मत दो। संदेश से उसका तात्पर्य है कि मीडिया बताता है कैसे सोचें। वह यह नहीं बताता कि क्या सोचें। एक अन्य जगह लिखा है मीडिया 'फिगर' यानी 'शरीर' है या 'ठोस शक्ल' है,वह वातावरण के 'ग्राउण्ड' यानी आधार को बदल देता है। मसलन् कम्प्यूटर को ही लें,वह ऑफिस के रूटिन को बदल देता है। लेखन के इतिहास को बदल देता है,काम का विकेन्द्रीकरण कर देता है।
मैकलुहान ने अपने जमाने में तकनीक के बदले हुए रूपों के बारे में तेजी से रोशनी डाली साथ ही यह भी बताने की कोशिश की कि तकनीक हमारे मन को ही नहीें हमारे हृदय को भी प्रभावित करती है,बदलती है। इस क्रम में मीडिया के हृदय और मन में कंट्रास्ट दिखाने की कोशिश की है। इसी कंट्रास्ट के आधार पर पहले वाचिक परंपरा,बाद में श्रव्य परंपरा,इसके बाद मीडिया के हृदय को खोला। मैकलुहान के नजरिए से प्रिंट ने व्यक्तिवादिता को पैदा किया, मौखिक शब्दों ने सामाजिकता,बहुलता,खिलंदड भाव,पीढियों की पक्षधरता पैदा की, जबकि प्रिंट ने विशेषज्ञता, वर्गीकृत सूचना, ध्वन्यात्मक अनुभव में जीने वाले मनुष्य के समानान्तर अनुभव संसार को पैदा किया। यह ऐसा मनुष्य है तो क्रमश: महसूस नहीं करता था,उस समय प्रतिस्पर्धा नहीं थी, एक ही फ्रेम में सोचने वालों में प्रतिस्पर्धा नहीं थी। वाचिक शब्द के युग में जीने वालों का पीढ़ियों के साथ कम्युनिकेशन था,धर्म और परंपरा के साथ कम्युनिकेशन था। एक ही शब्द में कहें तो टाइम के साथ संवाद था। जबकि प्रिंट ने कम्युनिकेशन को स्पेस में ठेल दिया, और इसके कारण ही राष्ट्र और साम्राज्य का विकास हुआ।
मैकलुहान ने मीडिया का 'हॉट' और 'कूल' के रूप में वर्गीकरण किया है, इस वर्गीकरण का मीडिया की भिन्नाता से गहरा संबंध है। मीडिया के खुलेपन और अस्पष्टता के साथ गहरा संबंध है। इसी तत्व को मैकलुहान ऑडिएंस की सक्रिय हिस्सेदारी तक विस्तार दे देता है। सघन और असंबंधित अनुकरण,ऑडिएंस की कम से कम शिरकत ,जिसे प्रेस ने वर्गीकृत किया, रेडियो ने कायारहित विस्तार दिया, यही वजह है कि वह 'हॉट' है,क्योंकि उसकी तकनीक की एकक केन्द्रित मानसिकता(सिंगल माइण्डनेस) है। जबकि भाषण और टेलीविजन ''कूल'' हैं,तकनीकी के अर्थ में। मैकलुहान कहता है टीवी दर्शक को अवचेतन में टीवी की डॉट या बिंदुओं से अपने को जोड़ना पड़ता है जिससे वह पिक्चर को पूरा देख सके। फलत: वह ज्यादा शिरकत करता है। टीवी मनुष्य की बहुआयामी संवेदनाओं को सम्बोधित करता है। वह ज्यादा शिरकत कराता है। इसी तरह भाषण की बहुआयामी छाप ऑडिएंस की शिरकत को बढ़ा देती है। भाषण में हाव-भाव, मंशा, शारीरिक मुद्राएं आदि के कारण श्रोता की शिरकत बढ़ जाती है। टीवी का आना,एक तरह से वाचिक परंपरा की संस्कृति का पुनरागमन है। इसी अर्थ में रेडियो 'हॉट' मीडियम है, जबकि टीवी 'कूल' मीडियम है।
मैकलुहान के यहां 'हॉट' और 'कूल' मीडिया का फर्क इस बात पर निर्भर करता है कि उसमें यूजर की कितनी शिरकत जरूरी है। कूल मीडियम में मसलन् कार्टून में हमें बहुत कम सूचना मिलती है। वह दर्शक को खाली छोड़ देता है, दर्शक के पास कुछ भी नहीं होता,जबकि आपको हिस्सेदारी के लिए अंतर्वस्तु की जरूरत होती है जिसके आधार पर आप शिरकत करते हैं। यही वजह है कार्टून में दर्शक को खाली (ब्लैंक) जगह भरनी होती है। दूसरी ओर फोटोग्राफ हॉट मीडियम है , इसमें दर्शक की कम शिरकत होती है,इसे पूरा करने में रीडर के नजरिए की जरूरत होती है। चूंकि हॉट मीडियम में शिरकत कम होती है अत: कूल मीडियम की तुलना में आप इससे कम सीखते हैं, कम शिरकत करते हैं।आप सेमीनार से ज्यादा सीखते हैं, क्योंकि वह कोल्ड मीडियम है,क्योंकि उसमें शिरकत ज्यादा होती है। जबकि लेक्चर से सेमीनार की तुलना में कम सीखते हैं क्योंकि उसमें शिरकत कम होती है। इसीलिए लेक्चर को हॉट मीडियम कहा गया है।
इस वर्गीकरण में 'शिरकत' वाला तत्व प्रधान है। किसी भी मीडियम का अनुभव नयी किस्म की शिरकत का माहौल बनाता है। वह हमारे पहले के मीडिया अनुभव को ठेलता है,नए अनुभव में शामिल होते ही पुराना अनुभव अपदस्थ होना शुरू हो जाता है। अथवा सेंसर कर देते हैं। सेंसर की अवस्था में हमारे मूल्य और व्यवस्था बची रहती हैं, उनका संरक्षण होता रहता है। यह स्थिति नयी तकनीकी लागू होती है । नयी तकनीक के आने के समय सीखने की बजाय लोगों को ठंडा रखने की कोशिश की जाती है। रेडियो को जब लागू किया गया तब समाज को उसने गैर-जनजातीय भावना में बांधा, जबकि टीवी ने जनजातीय भावना में बांधा। बिजली और टीवी ने संरचनाओं को सघन शिरकत के कारण पुन: स्थापित किया। नयी तकनीकी का ज्ञानात्मक संवेदना और समाज पर व्यापक असर पड़ा, प्रिंट तकनीक ने हमारी दृश्य आदतें बदलीं, दृश्य अनुभवों को एकरूप बनाया। सामाजिक संपर्क में इजाफा किया। उसने ऐसी मानसिकता तैयार की जो विशेषज्ञता की धारणा का प्रतिरोध करती थी, आधुनिक समाज के अनेक साइलेंट ट्रेड पैदा किए,जिन्हें हम पूंजीवाद, जनतंत्र, राष्ट्रवाद आदि के नाम से जानते हैं।
हमारा समाज जब इलैक्ट्रोनिक मीडिया के युग में दाखिल हुआ तो उसने हमारी बहुआयामी संवेदनशीलता को जन्म दिया। बहुआयामी शिरकत को जन्म दिया। हमारे समाज, समुदाय, राष्ट्र,भूमंडल आदि में क्या हो रहा है उसके बारे में ज्यादा बेहतर ढ़ंग से जानने लगे। स्वयं के बारे में भी समझ बनायी ,स्वयं के बारे में जागरूकता पैदा की। अन्य लोगों के बारे में भी जागरूकता पैदा की। यही वह बिंदु है जहां पर मैकलुहान 'ग्लोबल विलेज' की धारणा लेकर आते हैं। इसी संदर्भ में मैकलुहान ने प्रिंट कल्चर के निहितस्वार्थीपन के कंट्रास्ट में इलैक्ट्रोनिक कल्चर के जनजातीयबोध को पेश किया है। यही वह धारणा है जहां मैकलुहान स्वयं अपनी ध्वन्यात्मक संस्कृति के बारे में निर्मित धारण्ााओं के खिलाफ चले जाते हैं और बताते हैं कि ध्वनि,हृदय,समानान्तरता,बहुआयामी नजरिया आदि अपना ख्याल स्वयं रखने लगते हैं। मसलन् दृश्य संस्कृति आत्म का विकास सामूहिकता की कीमत पर करती है। इसी तरह 'अंतर्वस्तु' के बारे में मैकलुहान का मानना था प्रत्येक माध्यम अन्य माध्यम के लिए अंतर्वस्तु प्रदान करता है। मसलन् सिनेमा की अंतर्वस्तु उपन्यास से आयी, फोनोग्राफ रिकॉर्ड को रेडियो ने अंतर्वस्तु प्रदान की,टीवी को अंतर्वस्तु फिल्म ने दी,इस तरह से देखें तो प्रत्येक मीडिया अपने सौंदर्य का विस्तार करता गया, महानगरीय टेलीविजन ने पुराने पश्चिमी सौंदर्य का विकास किया,सैटेलाइट के जरिए जब हम चन्द्रमा से पृथ्वी को देखते हैं पृथ्वी अपूर्व सुंदर लगती है।
मैकलुहान के नजरिए पर हेरोल्ड एन्नाीस, ममफोर्ड, आई.ए. रिचर्डस,एफ.आर.लीविस , हॉपकिंस,यीट्स, टी.एस. इलियट का गहरा असर था,साथ ही कैथोलिक संस्कारों ने भी अपनी छाप छोड़ी। हॉपकिंस,यीटस आदि के प्रभाववश ही मैकलुहान ने वाचिक परंपरा और दृश्य परंपरा में अंतर करने की कला सीखी, 'आलोचनात्मक तर्क' की धारणा का मीडिया के तकनीकी रूपों की व्याख्या के लिए इस्तेमाल किया। दृश्य संस्कृति का मूल्यांकन किया। पर्सुएशन और शब्द की शक्ति की धारण्ाा के आधार पर ध्वन्यात्मक मीडिया का मूल्यांकन किया, ये तीनों ही पध्दतिगत विशेषताएं मैकलुहान के नजरिए में अन्तर्गृथित हैं। एफ.आर.लीविस के नजरिए का उल्लंघन करके मैकलुहान ने पापुलर कल्चर के बारे में अपनी राय व्यक्त की और बताया कि कैसे पापुलर कल्चर व्यक्ति को मुक्त करती है।
मैकलुहान को जनप्रियता दिलाई उसकी पापुलर कल्चर संबंधी मान्यताओं ने, उसने बताया कि कैसे मनुष्य का मशीनीकरण हो चुका है,मनुष्य के मशीनीकरण के उद्धाटन ने जनप्रियता के शिखर पर पहुँचा दिया। मैकलुहान ने बताया कैसे विज्ञापनों के जरिए प्रतीकात्मक संसार रचा जा रहा है और नयी संस्कृति पैदा हो रही है। टीवी ने प्रिंट युग की विदाई कर दी है। यही वह बिंदु था जिसके आधार पर खड़े होकर मैकलुहान सारी दुनिया में चर्चित हो उठा। मैकलुहान ने टीवी के आधार पर ग्लोबल विलेज की धारणा दी। यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां से राष्ट्र-राज्य का क्षय आरंभ होता है। मैकलुहान ने कहा लोग एकबार फिर सारी दुनिया के ज्ञाता बन सकेंगे। टीवी को देखने के कारण ही लोगों में बहुस्तरीय परिप्रेक्ष्य भी पैदा हुआ। इसने विश्व समुदाय की भावना पैदा की। विश्व समुदाय की भावना, बहुआयामी और बहुस्तरीय परिप्रेक्ष्य का टीवी के समानान्तर देखने की प्रक्रिया के साथ गहरा संबंध है। इसके कारण बहुआयामी अनुभूतियों और संवेदनाओं का भी निर्माण हुआ। इससे मनुष्य और भी ज्यादा शक्तिशाली बना,यही ग्लोबल विलेज का आधार है।
टीवी युग में दर्शक अपने को कम से कम अपराधी मानता है,कम से कम गिल्टी महसूस करता है। खासकर टीवी देखने पर समय खर्च करने के मामले में। इसके कारण मासमीडिया के मालिक और कार्यक्रम निर्माता के ऊपर हमारी आलोचना का बिंदु खिसक जाता है। अंतर्वस्तु के प्रभाव के लिए हम उसे जिम्मेदार ठहरा देते हैं। अंतर्वस्तु के प्रभाव की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेने की बजाय उसके ऊपर थोप देते हैं। यह सवाल भी पैदा हुआ कि क्या सही है और क्या गलत है ? अकादमिक जगत के लिए मैकलुहान ने सभी विज्ञानों की रानी के रूप में कम्युनिकेशन को स्थापित कर दिया। तकनीकी के रूप में मीडिया ज्ञानात्मक चेतना,व्यक्तित्व और सामाजिक संगठनों को ज्यादा प्रभावित करता है। मैकलुहान अपने समूचे लेखन में यह संदेश नहीं देना चाहते कि मीडिया को समझो। जैसा उनकी एक किताब के '' अण्डरस्टैंडिंग मीडिया'' से लगता है। बल्कि मैकलुहान बताता है कि सांस्कृतिक इतिहास और सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में कैसे मीडिया वर्चस्व बना रहा है ,उसे समझो। मैकलुहान ने विस्तार के साथ मीडिया के दुरूपयोग की क्षमता का भी खुलासा किया।
मैकलुहान ने ग्लोबल विलेज की धारणा का निर्माण टेलीविजन को केन्द्र में रखकर किया था। सवाल उठता है ग्लोबल विलेज की धारणा को कैसे अर्जित करता है। टीवी के साथ शिरकत करने से दर्शक की स्थिति कैसे बदलती है ?अथवा दर्शक की शिरकत से समाज कैसे बदलता है ? अंतरालों को भरने के लिए किस तरह की शिरकत जरूरी है ?
मैकलुहान का मानना था टीवी कूल है, प्रिंट हॉट है। हॉट अतीत है,कूल भविष्य है।टीवी को जब मैकलुहान ने हॉट कहा था तो उनका आशय ध्वन्यात्मक था। अर्थात् हमारे आधुनिक पश्चिमी समाजों का निर्माण ,भारत का भी निर्माण्ा प्रेस के युग में हुआ है। यह वह युग था था जिसमें शब्द की महत्ताा थी, शब्द ने ही सारे संसार में बगावत का बिगुल बजाया। यह अब अतीत का हिस्सा है। आज का युग शब्दों की गर्मी का है, शब्दों की ध्वनि का है। ये ऐसी ध्वनियां हैं जो अर्थहीन हैं। ऐसे शब्द हैं जो अर्थहीन हैं, अर्थहीन ध्वनियों के साथ अन्तर्क्रियाएं कर रहे हैं। इसी अर्थ में मैकलुहान ने टीवी को हॉट कहा था, टीवी का जन्म वाचिक परंपरा के क्रम में हुआ ,हॉट विजुअल समाज शब्दों की लिखित दुनिया के पहले की वाचिक परंपरा, यानी ध्वनि परंपरा के आधार पर हुआ था, ध्वन्यात्मक भाषाएं हॉट हुआ करती थीं, इन्हें हॉट इसलिए कहते हैं क्योंकि ध्वन्यात्मकता एक ही अर्थ में अपना विस्तार करती है,एक ही सेंस में अपना विस्तार करती है। विजुअल का मूल गुण ही यही है कि वह अन्य को बहिष्कृत करता है, उसे शामिल नहीं करता। इसमें शिरकत कम होती है। शिरकत कम इसलिए होती है कि इसमें जो सूचनाएं दी जाती हैं वे एक ही दिशा पर केन्द्रित होती हैं। दृश्यबोध का विस्तार रेखीय रूप में विचारों को निर्मित करता है।
गुटेनवर्ग की खोजों के बाद विजुअल समाज का तकनीकी पुनरावृत्तिायों के जरिए विस्तार किया जाता है। इसी के परिणामस्वरूप प्रिंट बुक रेखीयता को सघन बनाती है। सुनिश्चित परिप्रेक्ष्य बनाती है। निश्चित नजरिया बनाती है। यही वह बिंदु है जहां से मैकलुहान बताते हैं कि अब स्पेस विजुअल के रूप में सामने आता है। यह यूनीफार्म और निरंतरता बनाए रखते हुए सामने आता है। यह रेखीयता पर आधारित मशीन तकनीक का विस्तार है,उस पर किया गया हमला है,जो निरंतर केन्द्र और हाशिए के संबंधों को विस्तार देता है। गुटेनवर्ग का विकास मूलत: सभी किस्म की तकनीकी खोजों का वैनगार्ड है। अग्रणी दस्ता है। इसी तरह तकनीकी खोजों के जरिए हम शरीर के रेखीय विस्तार को अभिव्यक्ति देते हैं। अघोषित लक्ष्यों को सुसंगत रूप में अभिव्यक्ति देते हैं। इस क्रम में सुसंगतता, पुनरावृत्तिा, पृथक्करण और विशिष्ट भूमिका को वह अदा करता है।
मैकलुहान ने लिखा '' सामाजिक तौर पर मनुष्य का टाइपोग्राफिक विस्तार राष्ट्रवाद, औद्योगिकीकरण , मास मार्केट और सार्वभौम साक्षरता और शिक्षा'' को लेकर आता है। किंतु विशिष्ट तौर पर विजुअल पर जोर का अर्थ है मानवीय संवेदनाओं के साथ पूरी तरह असम्बध्दता। पश्चिमी दुनिया के व्यक्ति ने जगत में बगैर शामिल हुए उपलब्धियां हासिल की हैं। मैकलुहान कहता है '' यह संभव है कि बगैर बोले भूमिका अदा की जाए।'' मैकलुहान के शब्दों में '' इलैक्ट्रिक टैक्नोलॉजी में अन्तर्विरोध हैं।'' यह भविष्य है। इसके कारण हमारा समग्र विकास का रूप पूरी तरह बदल चुका है।
मैकलुहान का मानना था ''मनुष्य मशीनीजगत का कामांग है।'' इसका अर्थ यह है कि नयी तकनीकी का विकास अनिवार्यत: अबाधित ढ़ंग से व्यक्ति और समाज के व्यवहार और चिन्तन को बदलता है। इस परिवर्तन को लाने के लिए वह किसी की अनुमति हासिल नहीं करता। इस तरह के परिवर्तन अन्त:स्फोट (इमप्लोजन) को जन्म देते हैं विस्फोट (एक्सप्लोजन) को नहीं। यह जगत स्वयं पर ही टिका है। सारा भूमंडल इलैक्ट्रिक तारों की व्यवस्था के जरिए जुड़ा है। ये तार ही हैं जो ं रक्त संचार करते हैं। फलत: सारा भूमंडल सिमटकर एक छोटा समुदाय बन गया है। यह ऐसा समुदाय है जिसे इसमें शामिल सभी चीजों का ज्ञान है। अन्तस्फोट के कारण ही इस विश्व के एक हिस्से में रहने वाले लोग दूसरे हिस्से के लोगों के साथ जुड़ रहे हैं। एक-दूसरे के भाई-बहन बन रहे हैं। जगत चूंकि छोटा हो चुका है अत: इसने समय को खत्म कर दिया है। आज दुनिया में समय की प्रासंगिकता नहीं रह गयी है। आज समय के कारण किसी को रोका नहीं जा सकता। सारा विश्व नींद से जाग चुका है। उसने अपने सारे कदम उठा लिए हैं। टाइम और स्पेस समयरहित और स्थानरहित हो गए हैं। ग्लोबल विलेज वाचिक युग की एकाकी चेतना पर आधारित है। इस जगत में प्रत्येक व्यक्ति प्रतिबध्द है । मनुष्यता हमारी त्वचा की तरह है। समाज अब आदिवासी युग की ओर लौट रहा है। आदमी के व्यवहार में अब आदिवासी जगत की चीजें साफतौर पर दिखाई देनी चाहिए।
ग्लोबल विलेज की धारणा को साकार करने में टेलीविजन की केन्द्रीय भूमिका थी, टेलीविजन इलैक्ट्रोनिक तरक्की का मानक है। कम्प्यूटर तकनीकी अभी भी नयी है और उसका व्यापक प्रसार नहीं हुआ है, इसकी तुलना में टेलीविजन ज्यादा लोगों के पास है। आज जो कम्प्यूटर का इस्तेमाल कर रहे हैं वे पहले कभी एकबार जरूर टीवी खरीद चुके हैं। मैकलुहान का मानना है कि ग्लोबल विलेज का लक्ष्य हासिल करने में टीवी की केन्द्रीय भूमिका है। मैकलुहान ने 'ग्लोबल विलेज' का विचार जोसुआ मिरोविटज,इरविंग गुफमैन और एडवर्ड हाल के विचारों के आधार पर निर्मित किया था। टीवी का प्रथम कार्य था टीवी देखना और उसके साथ अन्त:वैयक्तिक संपर्क बनाना, और उसके अनुभवों के आधार पर टीवी की तरफ ध्यान लगाए रखना।
मैकलुहान का मानना है पुरानी मशीनी तकनीक दृश्य रेखीयता पर आधारित है। यह कायिक और सामाजिक तौर पर स्थिर है। जबकि इलैक्ट्रोनिक तकनीकी अन्तस्संबंध, आवयविक संबंध और समग्रता में ग्लोबल विलेज बनाता है। टेलीविजन तकनीक अंतत: आदर्श तकनीक के रूप में बुनियादी और स्थायी तौर पर अवस्था को बदलती है और हमारे व्यवहार को भी बदलती है। मीडिया सिध्दान्तकार जोसुआ मिरोविट्ज ने ''नो सेंस ऑफ प्लेस: दि इम्पेक्ट ऑफ इलैक्ट्रोनिक मीडिया ऑन सोशल विहेवियर'' (1985) नामक ग्रंथ में लिखा '' सूचना व्यवस्था को रूप की बजाय कायिक अवस्था के रूप में देखें तो पाएंगे कि समाज में सामाजिक अवस्थाओं का निर्माण ,रूपान्तरण अथवा परिवर्तन बगैर किसी किस्म की दीवारों को गिराए भी हो सकता है अथवा बगैर संस्कारों को बदले और उससे जुड़े नियमों को बदले भी हो सकता है। संचार के नए माध्यम के रूपों का इस्तेमाल व्यापक परिस्थितियों का निर्माण करता है। इसके लिए नए किस्म की सामाजिक भूमिका की जरूरत है। '' अवस्था की परिभाषा अथवा उसका निर्धारण कायिक और स्थान आधारित अवस्था के आधार पर किया जाना चाहिए। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं यह सवाल करना चाहिए कि यह क्या हो रहा है ? इस सवाल का जबाव अवस्था को परिभाषित करने के बाद ही दिया जा सकता है। यह आपके ऊपर निर्भर करता है कि आप किस तरह अवस्था को परिभाषित करते हैं ? अन्तर-वैयक्तिक संपर्कों को किस तरह समझते हैं ?
प्रत्येक मर्तबा परिस्थितियां बदल जाती हैं अत: व्यक्ति को भी अपना नजरिया बदलना होता है। नजरिए (फ्रेम) के कारण ही चीजें सरल और जल्दी समझ में आती हैं। व्यक्तिगत और सामाजिक तौर पर उपयोगी नजर आती हैं। फ्रेम का चयन ही उचित नियमों के चयन में मदद करता है। प्रत्येक व्यक्ति का फ्रेम अलग होता है,परिस्थितियों की व्याख्या भी अलग होती है। प्रत्येक परिस्थिति में व्यक्ति को नया फ्रेम मिलता है और तदनुसार वह अपना नजरिया बनाता है। टीवी आने बाद समाज को असंख्य नए फ्रेम और अवस्थाएं मिली हैं, वह उनका मनमाने ढ़ंग से अनुकरण कर सकता है। एक माध्यम के तौर पर टीवी हमारी कायिक और स्पेस आधारित कमियां जो प्रिंटयुग में तैयार की गई थीं, उन कमियों को खत्म कर देता है। टीवी के अनुभव के लिए लिए प्रत्यक्ष अनुभव जरूरी है,इस प्रत्यक्ष अनुभव के लिए उस स्थान पर जाना जरूरी नहीं है।
आज हम उन स्थानों के बारे में देख,सुन सकते हैं जहां हम जा नहीं पाते हैं। हम माने या न माने मिरोविट्ज कहता है टीवी देखना वस्तुत प्रथम कोटि के अनुभव के समान ही लगता है। यह स्पष्ट है कि टेलीविजन ने व्यापक तौर पर किसी भी सामाजिक अनुभव में कायिक उपस्थिति को बदल दिया है, टेलीविजन का वैशिष्ट्य है कि वह व्यक्ति के व्यवहार में इस तथ्य को संप्रेषित कर देता है कि उसका व्यवहार विशिष्ट है और अथवा व्यक्ति का व्यवहार विशिष्ट होता है। खासकर परिस्थितियों के संदर्भ में भिन्ना होता है। यही वजह है परिस्थितियों के साथ जब व्यवहार को रखकर देखता है तो समय और स्पेस के अनुसार भिन्ना रूप में देखता है। व्यक्ति के व्यवहार की इसी भिन्नाता को वह ज्यादा व्यापक पैमाने पर पेश करता है।
टीवी में परिस्थितियों के संदर्भ में व्यक्ति को परिभाषित करने का काम बार-बार होता है। मसलन् एक शिक्षक को ज्ञान का प्रतीक माना जाता है किंतु टीवी में वही शिक्षक बार-बार कक्षा के बाहर ही नजर आता है। ऐसी स्थिति में शिक्षक को ज्ञान के प्रतीक के रूप में स्वीकार करने में असुविधा होती है। शिक्षक का कक्षा के बाहर एक 'रेगूलर' व्यक्ति के रूप में दिखाई देना ,यह दरशाता है कि इस व्यक्ति का अस्तित्व तो है किंतु इसके पास क्षमता नहीं है। क्योंकि शिक्षक की क्षमता का आधार कक्षा है। इस तरह की प्रस्तुतियां परंपरागत सीमाओं का अतिक्रमण कर जाती हैं। टेलीविजन में यथार्थ और काल्पनिक दोनों ही किस्म की प्रस्तुतियां होती हैं। जिनके कारण कायिक और सामाजिक स्पेस की बाधाएं खत्म हो जाती हैं। इस तरह की प्रस्तुति से चार किस्म की स्थितियां पैदा होती हैं-
1. टेलीविजन से प्रसारित अंतर्वस्तु सबके पास एक ही रूप में पहुँचती है अत: वह सभी ग्रुपों में इकसारता पैदा करती है।
2. टीवी कार्यक्रमों में परिस्थितिगत चित्रण पेश किया जाता है।
3. कार्यक्रम की अंतर्वस्तु नयी सूचना के शामिल होते ही बदल जाती है।
4.प्रिंट मीडिया इलैक्ट्रोनिक मीडिया को मानक बनाने के लिए मजबूर करता है। इन मानकों के आधार पर ही टीवी की अंतर्वस्तु और रूप का निर्णय लिया जाता है।
मेरीविट्ज के अनुसार '' टीवी सिर्फ व्यवहार और नजरिए को ही प्रभावित नहीं करता अपितु सामान्यतौर पर कौन सा व्यवहार आत्मसात करें ,इसे भी तय करता है। खासकर ऐसी स्थिति में जब दर्शक के सामने एकाधिक व्यवहार प्रदर्शित किए जा रहे हों। इस तरह टीवी व्यक्ति कैसे व्यवहार करे ,सिर्फ इस बात को ही प्रभावित नहीं करता बल्कि लोग वैसा ही व्यवहार क्यों करें इसे भी प्रभावित करता है।
सामान्यतौर पर टीवी के बारे में बातें करते समय उसकी अंतर्वस्तु की समीक्षा करने लगते हैं और उसके आधार पर निर्णय करते हैं। इस तरह की पध्दति की सीमाएं हैं। इस पध्दति से टीवी समझ में नहीं आता। टीवी एक कूल मीडियम होने के नाते दर्शक को बांधे रखता है, उसकी शिरकत को बढ़ाता है। दर्शक के नाते वह अंतर्वस्तु का निष्क्रिय ग्रहणकत्तर्ाा होता है। ऐसा अनेक स्कॉलरों का मानना है। इस तरह की सोच वाले यह मानते हैं कि टीवी की अंतर्वस्तु दर्शक को प्रभावित करती है, टीवी नहीं। यही वह बुनियादी समस्या है जिसे समझने की जरूरत है। मासमीडिया का आदमी बुनियादी तौर पर दर्शक होता है। वह इमेज ग्रहण करता है,ध्वनि ग्रहण करता है, मुद्रित सामग्री ग्रहण करता है। वह मासमीडिया के सीमित दायरे में परिभाषित स्वीकृति के दायरे में ही तय करता है, इसके बावजूद वह मात्र ग्रहणकत्तर्ाा है। इस धारणा की मैकलुहान ने गंभीर आलोचना की है। मैकलुहान का मानना है इस तरह की आलोचना परंपरागत शिक्षित की आलोचना है। वे टीवी के दर्शक को भी निष्क्रिय ग्रहणकत्तर्ाा मानकर चल रहे हैं, जबकि टीवी का दर्शक ऐसा नहीं होता।
टीवी सभी माध्यमों से भिन्ना है,उनसे ऊपर है, वह ऑडिएंस से रचनात्मक शिरकत की मांग करता है। दर्शक इसलिए शिरकत कर पाता है क्योंकि यह कूल मीडियम है। इस मीडियम की कूलनेस ही शिरकत को संभव बनाती है। इसमें कार्यक्रम की अंतर्वस्तु अप्रासंगिक है। क्योंकि परिभाषा के लिहाज से टीवी नीचे आता है किंतु शिरकत के लिहाज से सबसे ऊपर आता है। टीवी पिक्चर असंख्य बिंदुओं का समूह है। इसमें से चंद बिंदु ही हैं जो इमेज को बनाते हैं। फलत: यह दर्शक के लिए बहुत कम डाटा देता है। कम से कम डाटा के अभाव में दर्शक विवरणों में खो जाता है। यदि इमेज में सुधार आ जाएगा तो यह माध्यम कुछ और बन सकता है। संभवत: हॉट मीडियम हो जाए जैसे फिल्म। इसके बावजूद टीवी ने तरक्की की है, आज टीवी वह नहीं है ,जो उसे होना चाहिए था। आज उसकी पिक्चर टयूब विश्रृंखलित बिंदुओं का अंश नहीं है, बल्कि इसमें परिवर्तन आया है। आज टीवी में हायर रिजोल्यूशन दिखाई देता है। आज हाई डेफीनेशन टीवी व्यापक तौर पर उपलब्ध है। इसके कारण परिभाषा बदल रही है। इसके बावजूद टीवी अभी भी कूल मीडियम है। मैकलुहान के अनुसार परिभाषित दर्शक की रचनात्मक शिरकत वाली परिभाषा आज भी लागू की जा सकती है। आज दर्शक के सामने दृश्य मीडिया के अनेक विकल्प हैं उनमें से दर्शक कुछ भी चुन सकता है। इसके लिए भी सक्रिय रचनात्मक शिरकत की जरूरत होगी। वह किस मीडियम को चुने या अस्वीकार करे।
टीवी के प्रभाव के बारे में अनेक किस्म के नजरिए प्रचलन में हैं। मसलन् बच्चों पर टीवी का यह प्रभाव होता है कि वे अपने शरीर के गठन को बदलने पर लग जाते हैं। वे अपने शरीर की सकारात्मक इमेज बनाते हैं। समाज के मानकों का प्रदर्शन करने लगते हैं। सेक्स रोल व्यवहार को प्रदर्शित करते हैं। ये वे बच्चे हैं जो स्वतंत्रता के प्रतिनिधि हैं। यह सब कुछ तब ही संभव है जब दर्शक सक्रिय रचनात्मक नजरिए से शिरकत करे। मीडिया के द्वारा प्रचारित प्रतीकों का इतना व्यापक इस्तेमाल होने लगता है कि वे सामाजिक रूढ़ि के रूप में दिखाई देने लगते हैं। इसी अर्थ में कम्युनिकेशन परा-सामाजिक होता है। एक-दूसरे के बीच संपर्कों पर जोर देता है। यही वह बिंदु है जहां हमें मैकलुहान सही नजर आते हैं। यही वह बिंदु है जहां से सक्रिय ऑडिएंस को देखा जा सकता है। सक्रिय उपभोक्ता वह है जो इस्तेमाल करता है, विस्तार देता है। मसलन् टीवी के कार्यक्रम यह बताते हैं कि अच्छी बीबी कैसे बनें। बच्चों का पालन-पोषण कैसे करें। अपने प्रेमी से कैसे व्यवहार करें। इस तरह की बातों को बताने वाले धारावाहिकों को दर्शक काल्पनिक कहानी के रूप में नहीं बल्कि सत्य कहानी के रूप में देखते हैं।
दर्शक जितना सक्रिय होता है टीवी प्रभाव का विस्तार भी उतना ही ज्यादा होता है। सक्रिय दर्शक की भावनात्मक शिरकत भी ज्यादा होती है। हिस्सेदारी के चक्कर में वह अंतर्निहित चरित्रों पर निर्भर होने लगता है। अन्य माध्यमों की तुलना में टीवी की विशेषता है कि इसको पढ़ने या समझने के लिए किसी भी तरह के कोड को डिकोड करने की जरूरत नहीं पढ़ती, जबकि अन्य माध्यमों में ऐसा करना पड़ता है। मैकलुहान कहता है टीवी का अनुभव सभी हासिल कर सकते हैं और प्रत्येक का अनुभव अन्य के अनुभव से ज्यादा ही होता है। अन्य की समझ से ज्यादा समझता है। मैकलुहान का कहना है टीवी के अनुभव से ज्यादा महत्वपूर्ण है समझ। समझ से ही व्यवहार प्रभावित होता है, अनुभव से नहीं। खासकर मीडिया और तकनीकी के सामूहिक विषयों के संदर्भ में व्यक्ति इसके प्रभावों को लेकर एकदम अनभिज्ञ रहता है। प्रिंट से विपरीत टीवी देखने का कोई क्रम नहीं है। दर्शक कुछ भी देख सकता है, किसी भी क्रम से देख सकता है। नयी बदली हुई परिस्थितियों पर मैकलुहान ने लिखा '' आज कम्प्यूटर स्वर्त:स्फूत्ता भाव से किसी भी कोड या भाषा का अन्य किसी कोड या भाषा में स्वर्त:स्फूत्ता रूपान्तरण कर सकता है। संक्षेप में कम्प्यूटर तकनीकी के उस आधार पर खड़ा है जहां तकनीकी की संभावित क्षमताएं सामने आ रही हैं ,जिनके आधार पर सार्वभौम समझ और एकता को बनाए रख सकते हैं। इस प्रक्रिया का अगला तार्किक कदम यही होगा कि रूपान्तरण अथवा अनुवाद न करें बल्कि भाषा का सामान्य कॉस्मिक सचेतनता के पक्ष में उल्लंघन करें। '' यह बात भविष्य के संदर्भ में उपयोगी है। आज भी भाषा लोगों में अंतर स्थापित करने का बड़ा आधार है।
मैकलुहान का मानना है '' आप मेरे विचारों को पसंद नहीं भी कर सकते हैं ? किंतु मुझे तो अन्य चाहने वाले मिल रहे हैं! '' यही वह लक्ष्य था जिसने मैकलुहान को सक्रिय किया। सामान्यतौर पर यह समझ है कि मैकलुहान के विचारों को कम्प्यूटर और तद्जनित संचार माध्यमों पर लागू नहीं किया जा सकता। किंतु यह सच नहीं है,मैकलुहान ने मीडिया की जिस स्प्रिट को पकड़ा है उसने सारा मामला ही अलग दिशा में ठेल दिया है। मैकलुहान की धारणा की रोशनी में अब माध्यम विशेषज्ञ कम्प्यूटर को भी मीडिया कहने लगे हैं। कुछ अर्सा पहले तक कम्प्यूटर को सूचना तकनीक के रूप में देखा जा रहा था, किंतु कम्प्यूटर भी मीडिया के दायरे में आ गया है। पहले यह समझ थी कि कम्प्यूटर का लिखने से संबंध है। आरंभ में वह टेलीफोन से जुड़ा नहीं था,किंतु जब से कम्प्यूटर को टेलीफोन से जोड़ दिया गया, कम्प्यूटर की प्रकृति बदल गयी, अब कम्प्यूटर अभिव्यक्ति का माध्यम है। पहले कम्प्यूटर किताब लिखने का माध्यम था, आज संस्कृति का माध्यम है। जिस तरह टीवी के विकास के कारण रेखीय क्रम से सोचने की पध्दति की विदाई हुई है यह इस बात का संकेत है कि अब हम प्रिंट संस्कृति के युग के बाहर आ चुके हैं, प्रिंट संस्कृति ने रेखीय क्रम में सोचने की पध्दति का विकास किया और उसका हमें काफी लाभ भी मिला, किंतु रेखीय क्रम में सोचने की पध्दति की विदाई का श्रेय टीवी को जाता है। रेखीय क्रम में सोचने की परंपरा काफी पुरानी है, सैंकड़ों साल पुरानी परंपरा को प्रिंट संस्कृति ने आत्मसात् किया और उसका यह सुपरिणाम निकला कि ज्ञान के क्षेत्र में हमने लंबी छलांग लगायी। क्रमबध्द पंक्तियों में लिखने और सोचने की प्रिंट संस्कृति को इलैक्ट्रोनिक सूचना ने खत्म किया, इलैक्ट्रोनिक सूचना का स्रोत कम्प्यूटर है साथ ही टीवी भी है। इन दोनों में ही '' डिसकनेक्टेड एंड डिसऑर्गनाईज'' का तत्व प्रमुख है।
परंपरा के नजरिए से देखें तो वाचिक संस्कृति को प्रिंट संस्कृति में रूपान्तरित किया गया, प्रिंट संस्कृति को अब इलैक्ट्रोनिक संस्कृति में रूपान्तरित किया जा रहा है। इस क्रम में हमारा समूचा सोचने का तरीका ही बदल गया है। मैकलुहान ने लिखा '' इलैक्ट्रोनिक शिरकत की गति निजी और सार्वजनिक दोनों ही स्तरों पर जागरूकता पैदा कर रही है। हम आज सूचना और संचार के युग में रह रहे हैं। इसमें इलैक्ट्रोनिक मीडिया स्वत:र् स्फूत्ता और निरंतर ऐसी घटनाएं पैदा कर रहे हैं जिसमें सभी लोग शिरकत कर सकें। यह प्रक्रिया किसी भी घटना को समग्र संपर्क के क्षेत्र में ले आती है।'' इलैक्ट्रोनिक मीडिया ''विखंडन' और '' सहिष्णु' इन दोनों ही तत्वों को पैदा कर रहा है। मैकलुहान का संबंध विखंडन से रहा है। मैकलुहान ने प्रिंट मीडिया और मशीनयुग को विखंडन से जोड़ा है। जबकि टीवी ने अपनी तेज गति के कारण एक ही घटना को साथ ही साथ उच्चगति से सभी स्थानों पर पहुँचा दिया है। टेलीविजन लोगों को घटना के सागर में डुबो देता है। टीवी में हजारों कहानियां चलती रहती हैं, ये सारी कहानियां टुकड़ों में फैली होती हैं। दूरी के कारण हम इनकी पृथकता का अंदाजा नहीं लगा पाते। टुकड़ों में बंटे संचार को टीवी हमारे मन में सामंजस्य के साथ उतार देता है,इसी वजह से यह विश्वास पैदा होता है कि चीजें एक-दूसरे से जुड़ी हैं। वे कैसे जुड़ी हैं ? इसके कारणों की हमने कभी खोज ही नहीं की। हमने उस कनेक्शन के बारे में कभी वक्तव्य तैयार नहीं किया। अनेक विचारक मानते हैं कि टीवी यह काम तब भी करता है जब कार्यक्रम बदलता है।

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