शुक्रवार, 10 जुलाई 2009

नव्‍य उदारतावाद और लेखक का अवमूल्‍यन

मौजूदा दौर लेखक और लेखन के अवमूल्यन का दौर है। इस दौर में लेखन का मूल्य आंकना सबसे मुश्किल काम है। लेखकीय प्रमोशन लेखन के बल पर नहीं होरहा बल्कि प्रमोशन योजनाओं के जरिए हो रहा है। लेखकों में आज के सवाल और आज का साहित्य गंभीरता के साथ विश्लेषित नहीं हो रहा बल्कि प्रचार अभियान में शिरकत का महत्व बढ़ गया है। सब कुछ प्रायोजित हो रहा है। समीक्षा से लेकर सम्मेलन के बहस-मुबाहिसों तक प्रायोजन का चक्र चल रहा है।
वर्चुअल यथार्थ के दौर में लेखक और लेखक और लेखन के किस तरह के सवालों से हम दो-चार हो रहे हैं ? आज हम बुर्जुअा विचारधारा पर बातें करने की बजाय निहितस्वार्थ के सवालों पर बातें कर रहे हैं। भुखमरी और मजदूरों की कम पगार ,छंटनी आदि के सवालों पर बातें करने की बजाय श्रम के कमोडिफिकेशन पर बातें कर रहे हैं। प्रति व्यक्ति स्कूल और कॉलेज में क्या व्यय किया जा रहा है उन पर बातें कर रहे हैं। अथवा हम स्वयं को महत्व देने वाले सवालों पर ज्यादा चर्चा कर रहे हैं। हम अन्य के बारे में बातें करने की फुरसत ही नहीं है। अथवा जब मौका मिल जसता है तो माक्र्सवाद को कैसे बदनाम किया जाए अथवा माक्र्सवादी चिन्तन की साख कैसे नष्ट हो रही है अथवा कैसे उसकी साख नष्ट की जाए ,इसके बारे में मशगूल हैं। इस तरह का विमर्श अच्छे बौध्दिक परिवेश का लक्षण नहीं है।
स्लोवाक ज़ीजेक के शब्दों को उधार लेकर कहें तो यह फैंटेसी की महामारी का दौर है। इमेजों ने हमारी तर्कबुध्दि को पूरी तरह घेर लिया है। ऑडियो-वीडियो मीडिया ने इसे चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया है। हमारी समूची कार्यप्रणाली पर सीडीरूम पध्दति हावी हो गयी है। सीडीरूम पध्दति का अर्थ है '' यहां क्लिक करो, वहां जाओ, इस फ्रेगमेंट का इस्तेमाल करो, अथवा इस स्टोरी और सीन का इस्तेमाल करो।'' फैंटेसी की महामारी का व्यवहार में परिणाम यह निकला है कि अब प्रत्येक काम अर्जेंसी के रूप में किया जाता है। इस युग की मुख्य लाक्षणिक विशेषता है कि इसमें पूर्व-आधुनिक विचारधाराएं हठात् केन्द्र में आ जाती हैं। इसके अलावा ुंडामेंटलिज्म,राष्ट्रवाद, जनजातिवाद आदि तमाम किस्म की इरेशनल विचारधाराएं केन्द्र में आ जाती हैं। प्रगति अमूर्त हो जाती है। व्यवहारवादी तर्क केन्द्र होते हैं। इससे भी बड़ी बात यह है कॉमनसेंस का प्रभुत्व बढ़ जाता है। यह '' गैर-विचारधारा'' अथवा '' उत्तार-विचारधारा '' का क्षेत्र है। फलत: लोग यह भी कहने लगतेहैं कि विचारधारा के युग का अंत हो गया है। जबकि सच यह है कि यह सब भी विचारधारा का क्षेत्र है।
समाजवादी समाज के पतन के बाद मार्क्‍सवाद का भी पतन हुआ और 'उत्तर-विचारधारा'' के युग का श्रीगणेश हुआ। इसमें आत्म की प्रस्तुति पर सबसे ज्यादा जोर दिया जाने लगा। आत्म पर जोर के कारण प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष किसी न किसी रूप में विचारधारा के सवालों को हमने त्याग दिया। मैं और सिर्फ मैं। मेरी और सिर्फ मेरी भूमिका ही महत्वपूर्ण होकर रह गयी। विचारधारात्मक सरोकारों की जगह निजी सरोकारों ने ले ली। निजी रूचि,इच्छा,मंशा ने ले ली। अब विचारधारा को सांस्कृतिक विश्लेषण के एक उपकरण के रूप में हमने इस्तेमाल करना बंद कर दिया है। आत्म अथवा मैं पर जोर देने के कारण हमारे लेखक अब उदारतवादी राजनीति की सेवा में लग गए हैं।अब उन्होंने विचारधारा की सेवा करनी बंद कर दी है। इसमें हमारे वामपंथी लेखकों का अधिकांश हिस्सा शामिल है।
'' उत्तर -विचारधारा'' के युग में मीडिया निर्मित इमेजों और सेतुओं से हम गुजर रहे हैं। उन्हीं के गर्भ से जो सवाल उठ रहे हैं उनमें उलझ रहे हैं। प्रतीकों की व्यवस्था के शिकार बन रहे हैं और स्वयं भी प्रतीक बन रहे हैं। हमने विचारधारा के आधार पर विश्लेषित करना एकदम बंद कर दिया है। हम जब इस तरह करने लगते हैं तो व्यक्ति को पूरी तरह गुलाम बना देते हैं। आज जरूरत इस बात की है कि व्यक्ति के औपनिवेशिकरण को कैसे खत्म किया जाए। आज व्यक्ति और परमानंद के बीच का अंतराल खत्म हो चुका है। आनंददायी फेंटेसियों ने हमें घेरा हुआ है। हम जब चाहते हैं हमें आनंद उपलब्ध है। आनंद और व्यक्ति के बीच की दूरी का खात्मा बहुत ही बड़ी त्रासदी है। आज आप किसी भी किस्म की मनोवैज्ञानिक फैंटेसी को संगठित कर सकते हैं। उसका प्रबंधन कर सकते हैं। स्थिति किस तरह बदतर हो चुकी है कि अब युध्द भी फैंटेसी में बदल चुका है। मौत अथवा त्रासदी के आख्यान फैंटेसी का हिस्सा हैं।
उदारतावादी जनतंत्र अपने द्वारा पैदा की गई समस्याओं के अधूरे समाधान पेश कर रहा है। असमानपता अपने चरमोत्कर्ष है और असमानता को दूर करने का परवर्ती पूंजीवाद के पास कोई समाधान नहीं है। वे यह भी बता पा रहे हैं कि आखिरकार पूंजीवाद की बर्बर विजय के बावजूद निरंतर क्यों बढ़ती रही है। यहां तक कि कल्याणकारी राज्य का सपना भी असमानता को खत्म नहीं कर पाया। इतनी असफलता के बावजूद परवर्ती पूंजीवाद के विचारक दावा कर रहे हैं कि उन्होंने बाजी मार ली !
परवर्ती पूंजीवाद का सबसे बड़ा गुण है वह फेक अथवा नकली को मूल्यवान बना देता है। नकली में ही हम असली का आनंदबोध लेने लगते हैं। नकल को असल समझने लगते हैं। नकल को वर्चुअल के जरिए ग्रहण करते हैं, देखते हैं। फेक का वर्चुअल होना और वर्चुअल अभौतिक होना अथवा अप्रासंगिक होना स्वयं अनेक किस्म की समस्याओं को पैदा कर रहा है। फेक और वर्चुअल के नेटवर्क ने अपना भौतिक आधार बना लिया है। और आज वह स्वयं भौतिक शक्ति बन गया है। इसके फलस्वरूप व्यक्ति ऐतिहासिक और परा-ऐतिहासिक दोनों ही रूप में एक साथ नजर आ रहा है। वर्चुअल तकनीक ने व्यक्ति और समाज की नए किस्म की भूमिकाओं को जन्म दिया है। नए किस्म के सरोकार पैदा किए हैं। नए किस्म का आनंद और नये किस्म की ज्ञानचर्चा को जन्म दिया है। यह वर्चुअल की नयी मुक्तिदायी शक्ति है जिसे समझने की जरूरत है। हमें वर्चुअल रियलिटी के बारे में संकीर्णतावादी नजरिए से नहीं देखना चाहिए। हमें समझना चाहिए कि किस तरह नयी वर्चुअल अवस्था ,वास्तव अवस्था से भिन्ना है। किस तरह वर्चुअल यथार्थ ,सामाजिक यथार्थ से भिन्ना है।
वर्चुअल यथार्थ में और सामाजिक यथार्थ में बुनियादी अंतर है। वर्चुअल यथार्थ एक तरह से सामाजिक यथार्थ का फैंटेसीमय तर्क है। यह सामाजिक यथार्थ का चरम है। इसी वजह से परिचित और अपरिचित दोनों लगता है। वर्चुअल रियलिटी और सामाजिक यथार्थ के बीच के अंतराल को साइबरस्पेस रेडीकलाइजेशन कर देता है। यही हमारे आत्मगतबोध का निर्माता है। यहां तक कि हमारी ईगो को भी वर्चुअल बना देता है।

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