बुधवार, 30 नवंबर 2016

फिदेल की माँ , धर्म और गरीबी

        फिदेल कास्त्रो को स्पष्टवादिता का संस्कार क्रांति से मिला। क्रांतिकारी होने के नाते वे हर बात को स्पष्ट ढ़ंग से कहते थे।फिदेल का मानना था ´क्रांतिकारी राजनीतिज्ञ हर चीज के बारे में स्पष्ट और बेबाक बोलते हैं।´ यही स्पष्टवादिता क्रांतिकारियों को अभिव्यक्ति के मामले में अन्य विचारधारा के नेताओ से अलग करती है।मार्क्सवादियों में धर्मसंबंधी निजी सवालों के उत्तर देते समय अनेक किस्म के विभ्रम नजर आते हैं।लेकिन फिदेल के अंदर कोई विभ्रम नजर नहीं आते।

जब एफ.बिट्टो ने फिदेल से सवाल पूछा कि आपका जन्म धार्मिक परिवार में हुआ है ॽ तो फिदेल ने कहा इस सवाल का मैं किस तरह जवाब दूँ ॽ मैं इस सवाल का इस तरह उत्तर देना चाहूँगा,पहली बात यह कि मैं एक धार्मिक राष्ट्र से आता हूँ,दूसरी बात यह कि मैं एक धार्मिक परिवार में जन्मा,मेरी माँ लीना धार्मिक महिला थीं।मेरे पिता भी धार्मिक व्यक्ति थे।गांव में मेरा जन्म हुआ और मेरी माँ भी गांव की ही रहने वाली थीं।वह क्यूबा की रहने वाली थी।जबकि पिता गलीशिया,स्पेन के अत्यंत गरीब किसान थे।

फिदेल की माँ को किसी ईसाई मिशनरी ने धर्म की शिक्षा नहीं दी थी,वह एकदम अनपढ़ थीं। लेकिन उनकी गहरी धार्मिक आस्थाएं थीं।उन्होंने वयस्क होने के बाद अपने आप लिखना-पढ़ना सीखा। फिदेल के पिता का नाम एंजेल था। फिदेल ने कहा ´मेरी माँ एकदम निरक्षर थीं,उसने अपने आप लिखना-पढ़ना सीखा,मुझे याद नहीं है कि उसको लिखना-पढना सिखाने के लिए कोई शिक्षक मिला था,क्योंकि उसने किसी भी शिक्षक का कभी कोई जिक्र नहीं किया।उसने बहुत परिश्रम करके लिखना-पढ़ना सीखा,मैंने कभी नहीं सुना कि वह कभी पढ़ने के लिए स्कूल गयी ,वह स्व-शिक्षित थी,उसने कभी किसी स्कूल और चर्च में जाकर कोई शिक्षा ग्रहण नहीं की।मेरा मानना है उसके धार्मिक विश्वासों का स्रोत उसके परिवार की धार्मिक परंपराएं थीं।खासकर उसकी माँ (फिदेल की नानी) और माँ की माँ बड़ी धार्मिक थीं।´

बिट्टो ने फिदेल से पूछा कि क्या आपकी माँ नियमित चर्च जाती थी तो फिदेल ने कहा ´ वे नियमित चर्च नहीं जाती थीं,क्योंकि मेरा जहाँ जन्म हुआ था वह इलाका शहर से बहुत दूर गांव में पड़ता था,वहां कोई चर्च नहीं था।´

फिदेल का जहां जन्म हुआ उस गांव का नाम था बीरान,इस गांव में कुछ बड़ी इमारतें थी,कुछ रिहायशी घर थे,इन सबका स्पेनिश स्थापत्य था.चूंकि फिदेल के पिता स्पेनिश थे,अतः घर का स्थापत्य स्पेनिश था।उनके पास गांव में एक टुकड़ा जमीन का प्लॉट था,जिसमें खेती होती थी और लकड़ी का घर भी था,साथ ही पशुपालन भी करते थे।जाड़ों में पशुओं को घर के अंदर रखना होता था।घर में सूअर और गाएं थीं जिनका परिवार पालन-पोषण करता था।

दिलचस्प बात है फिदेल कास्त्रो के यहां तकरीबन बीस-तीस गाएं भी थीं, वे जब छह साल की उम्र के थे तो जाडों में घर में गायों के साथ सोते थे। फिदेल का बचपन का यह दौर गाय के गोबर और दूध के बीच गुजरा।

फिदेल की माँ की मृत्यु 6अगस्त1963 को हुई,यानी क्यूबा की क्रांति के छह महिने बाद।जबकि पिता की मृत्यु पहले ही 21अक्टूबर1956 को हो चुकी थी।उस समय फिदेल 30साल और दो महिने के थे।फिदेल ने अपनी आत्मकथा ´माई लाइफः फिदेल कास्त्रो´ में लिखा है कि वे अपनी मां के धार्मिक विश्वासों और आस्थाओं का हमेशा सम्मान करते थे।उनको एक क्रांतिकारी की माँ होने के नाते बहुत कष्ट उठाने पड़े।वे अत्यंत गरीब और सहिष्णु थीं।







धर्म और फिदेल कास्त्रो

फिदेल कास्त्रो के बारे में यह सब जानते हैं कि वे क्रांतिकारी थे,मार्क्सवादी थे,लेकिन यह बहुत कम लोग जानते हैं कि फिदेल बेहतरीन धार्मिक समझ वाले व्यक्ति भी थे।फिदेल ने धर्म को लेकर जिस नजरिए को व्यक्त किया उससे बहुत कुछ सीखने की जरूरत है।यह सच है धर्म का जो रूप हम आज देखते हैं वह बहुत कुछ मूल रूप से भिन्न है।एक बेहतरीन मार्क्सवादी वह है जो धर्म को उसके सही रूप में समझे और धर्म की सही सामाजिक भूमिका पर जोर दे।
          हमारे यहां राजसत्ता और उसके संचालक धर्म के प्रचलित रूपों के सामने समर्पण करके रहते हैं, धर्म की विकृतियों के खिलाफ कभी जनता को सचेत नहीं करते,धर्म की गलत मान्यताओं को कभी चुनौती नहीं देते हैं ,धर्म का अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए दुरूपयोग करते हैं और इसके लिए सर्वधर्म समभाव की संवैधानिक समझ की आड़ लेते हैं।संविधान की आड़ लेकर धर्म की ह्रासशील प्रवृत्तियों को संरक्षण देने के कारण ही आज हमारे समाज में धर्म,संत-महंत,पंडे,पुजारी,तांत्रिक ,ढोंगी आदि का समाज में तेजी से जनाधार बढ़ा है,इन लोगों के पास अकूत संपत्ति जमा हो गई है।इसके कारण समाज में अ-सामाजिकता बढ़ी है, लोकतंत्र विरोधी ताकतें मजबूत हुई हैं।

यह सच है हम पैदा होते हैं धर्मकी छाया में और सारी जिंदगी उसकी छाया में ही पड़े रहते हैं।धर्म की छाया में रहने की बजाय उसके बाहर निकलकर समाज की छाया में रहना ज्यादा सार्थक होता है। धर्म की छाया यानी झूठ की छाया । हम सारी जिंदगी झूठ के साथ शादी करके रहते हैं,झूठ में जीवन जीते हैं,झूठ से इस कदर घिरे रहते हैं कि सत्य की आवाज हमको बहुत मुश्किल से सुनाई देती है।झूठ के साथ रहते-रहते झूठ के अभ्यस्त हो जाते हैं और फिर झूठ को ही सच मानने लगते हैं। इसका परिणाम यह निकलता है कि सत्य से हम कोसों दूर चले जाते हैं।

धर्म पर बातें करते समय उसके मूल स्वरूप पर हमेशा बातें करने की जरूरत है।धर्म को झूठ से मुक्त करने की जरूरत है।धर्म को झूठ से मुक्त करने का अर्थ है धर्म को धार्मिक प्रपंचों से बाहर ले जाकर गरीब के मुक्ति प्रयासों से जोड़ना। इन दिनों धर्म को संतों-पंडितों ने अपहृत कर लिया है।अब हम धर्म के मूल स्वरूप और मूल भूमिका के बारे में एकदम नहीं जानते लेकिन उन तमाम किस्म की भूमिकाओं को जरूर जानते हैं जिनको कालांतर में धर्म के धंधेबाजों ने पैदा किया है। सवाल यह है धर्म यदि गरीब का संबल है तो राजनीति में धर्म को गरीबों की राजनीति से रणनीतिक तौर पर जुड़ना चाहिए।लेकिन होता उलटा है गरीबों की राजनीति करने वालों की बजाय धर्म और धार्मिक संस्थानों का अमीरों की राजनीति करने वालों की राजनीति से गहरा संबंध नजर आता है।

धर्म गरीब के दुखों की अभिव्यक्ति है।मार्क्सवाद भी गरीबों के दुखों की अभिव्यक्ति है।इसलिए धर्म और मार्क्सवाद में गहरा संबंध बनता है।लेकिन धर्म और मार्क्सवाद के मानने वालों में इसे लेकर विभ्रम सहज ही देख सकते हैं। फिदेल कास्त्रो इस प्रसंग में खासतौर पर उल्लेखनीय हैं। वे धर्म की व्याख्या करते हुए गरीब को मूलाधार बनाते हैं और कहते हैं कि ईसाईयत और मार्क्सवाद दोनों के मूल में है गरीब की हिमायत करना,गरीब की रक्षा करना,गरीब को गरीबी से मुक्त करना। इसलिए ईसाईयत और मार्क्सवाद में स्थायी रणनीतिक संबंध है।इसी आधार पर वे पुख्ता नैतिक,राजनैतिकऔर सामाजिक आधार का निर्माण करते हैं।

फिदेल के धर्म संबंधी नजरिए को अभिव्यंजित करने वाली शानदार किताब है ´फिदेल एंड रिलीजन´,यह किताब FREI BETTO ने लिखी है।इसमें फिदेल से उनकी 23घंटे तक चली बातचीत का विस्तृत लेखाजोखा है।यह किताब मूलतःक्यूबा और लैटिन अमेरिका में धर्म और मार्क्सवाद,धर्म और क्रांतिकारियों के अंतस्संबंधों पर विस्तार से रोशनी डालती है।इस बातचीत में फिदेल से 9 घंटे तक सिर्फ धर्म संबंधी सवालों को पूछा गया।धर्म और मार्क्सवाद के अन्तस्संबंध को समझने के लिए यह पुस्तक मददगार साबित हो सकती है।इस किताब को भारत में पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस ने 1987 में अंग्रेजी में छापा था। इस किताब में लिए गए इंटरव्यू कई बैठकों में संपन्न हुए।ये इंटरव्यू 1985 में लिए गए थे।ये किसी समाजवादी राष्ट्र राष्ट्राध्यक्ष के द्वारा धर्म पर दिए गए पहले विस्तृत साक्षात्कार हैं। आमतौर पर मार्क्सवादी शासकों ने धर्म पर इस तरह के इंटरव्यू नहीं दिए हैं।













मंगलवार, 29 नवंबर 2016

नंगे का अर्थशास्त्र

         मोदीजी ने जब से नोटबंदी लागू की है,उसने हम सबके अंदर के डरपोक और अज्ञानी मनुष्य को एकदम नंगा कर दिया है।कहने के लिए हम सब पढ़-लिखे,शिक्षित लोग हैं लेकिन हम सबमें सच को देखने के साहस का अभाव है।सच कोई आंकड़ा मात्र नहीं होता,सच तो जीवन की वास्तविकता है और जीवन की वास्तविकता या यथार्थ को तब ही समझ सकते हैं जब जनता के जीवन को अपने मन,सुख और वैभव को मोहपाश से मुक्त होकर नंगी आंखों से देखें।

हम सबमें एक बड़ा वर्ग है जो मान चुका है कि मोदीजी अच्छा कर रहे हैं,कालेधन पर छापा मार रहे हैं,कालाधन सरकार के पास आएगा तो सरकार सड़क बनाएगी ,स्कूल खोलेगी,कारखाने खोलेगी,बैंकों से घरों के लिए सस्ता कर्ज मिलेगा,महंगाई कम हो जाएगी,हर चीज सस्ती होगी,सब ईमानदार हो जाएंगे,चारों ओर ईमानदारी का ही माहौल होगा,इत्यादि बातों को आम जनता के बहुत बड़े हिस्से के दिलो-दिमाग में बैठा दिया गया है,अब जनता इंतजार कर रही है कि कालेधन की मुहिम पचास दिन पूरे कर ले,फिर हम सब ईमानदारी के समुद्र में तैरेंगे ! ये सारी बातें फार्मूला फिल्म की तरह आम जनता के बीच में संप्रेषित करके उनको मोदी-अफीम के नशे में डुबो दिया गया है।

तकरीबन इसी तरह का नशा एक जमाने में नव्य-आर्थिक उदारीकरण की नीतियों को लागू करते समय सारे मीडिया ने हम सबके मन में उतारा था,वह नशा कुछ कम हो रहा था कि अचानक मोदी अफीम के नशे में जनता को फिर से डुबो दिया गया है। हम विनम्रतापूर्वक कहना चाहते हैं जो नीति जनता के विवेक का अपहरण करके लागू की जाती है वह कभी भी जनहित में नहीं हो सकती। जनता के विवेक को दफ्न करके मोदीजी जिस नीति को लागू कर रहे हैं वह सारे देश के लिए समग्रता में विध्वंसक साबित होगी।

फिदेल कास्त्रो ने ऐसे ही नशीले माहौल को मद्देनजर रखकर कहा था ,´ हममें से जो विद्वान नहीं हैं उनको भी साहस की खुराक चाहिए। दुनिया में जो कुछ हो रहा है उसे अधिकाधिक जान लेने की कोशिश के बावजूद कभी-कभी हमारे पास यह जानने के लिए समय नहीं होता कि हम जिस अद्वितीय इतिहास प्रक्रिया से गुजर रहे हैं उसके बारे में क्या नए तथ्य और विचार उभरकर सामने आ रहे हैं और हमारे सामने खड़ा अनिश्चित भविष्य कैसा होगा? ´

कालेधन को बाहर निकालने के प्रयास पहले भी विभिन्न सरकारों ने किए हैं,मोदीजी इस मामले में नया कुछ नहीं कर रहे। उन्होंने जो नया काम किया है वह है नोटबंदी।नोटबंदी से कालेधन वालों पर कोई खास असर नहीं होगा।यही वजह है कि उन्होंने नोटबंदी के 20दिन बाद अचानक स्वैच्छिक आय घोषणा योजना-2 की घोषणा की है उसके लिए आयकर कानून में कुछ संशोधन सुझाए हैं। ये संशोधन लागू हो जाने पर भी कालेधन पर कोई अंकुश नहीं लगेगा और कालाधन बाहर नहीं आएगा।

इस प्रसंग मे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारे देश की अर्थव्यवस्था कम से कम कालेधन से नहीं चल रही,कालाधन समानान्तर अर्थव्यवस्था जरूर है लेकिन देश की मूल अर्थव्यवस्था नहीं है।मोदी सरकार आने के बाद सबसे बड़ी समस्या यह हुई है कि मूल अर्थव्यवस्था पंगु हो गयी है।कहीं पर कोई परिणाम नजर नहीं आ रहे।बेकारी और विकास में कोई परिवर्तन नहीं आया।इससे ध्यान हटाने के लिए मोदी सरकार ने नोट नीति की घोषणा की और 500 और 1000 के नोट अमान्य घोषित कर दिए। अब समस्या यह है वे इस नोटबंदी पर सवाल उठाने वालों को देशद्रोही,कालेधन के समर्थक आदि के तमगे लगा रहे हैं। हम जानना चाहते हैं यह कौन सा अर्थशास्त्र है जिसमें सवाल नहीं खड़े कर सकते ॽ

मोदीजी ने जो नोट नीति बनायी है उस पर समानता के आधार पर विभिन्न मतों के अनुसार सवाल उठाने की इजाजत सरकार दे, नीति पर बहस की बजाय सरकार और मीडिया मिलकर नोट नीति के खिलाफ सवाल खड़े करने वालों को अपमानित कर रहे हैं ,सवाल उठाने को ही देशद्रोह और कालेधन की हिमायत कह रहे हैं।यह तो देश की प्रतिभा और जनतांत्रिक मतभिन्नता का अपमान है,यह तानाशाही है और अल्पविवेक का शासन है।

मोदीजी को मालूम होना चाहिए भारत में अर्थशास्त्र की बड़े पैमाने पर पढायी होती है और हमारे यहां सभी किस्म के मत पढाए जाते हैं,विभिन्न किस्म के मतों का अध्ययन करके आने वाले लोगों की यह पहली जिम्मेदारी बनती है कि वे नोट नीति पर खुलकर बोलें,विभिन्न राजनीतिक दलों की भी यह जिम्मेदारी है वे अपने मतों को खुलकर व्यक्त करें। मीडिया और सरकार दोनों मिलकर मतविभन्नता का गला घोंटकर खत्म कर देना चाहते हैं।यह पारदर्शिता का हनन है।



मोदी-मीडिया मिलकर प्रचार कर रहे हैं कि नीति के मामले में हर हालत में अनुशान पैदा करने की जरूरत है,नीति से विचलन और मत-भिन्नता मोदी के लेखे अनुशासनहीनता है,यह देशद्रोह है,कालेधन की सेवा है।इस तरह के तर्क बुनियादी तौर पर फासिस्ट तर्क हैं।किसी भी नीति पर बहस के लिए अनुशासन की शर्त लगाना गलत ही नहीं अ-लोकतांत्रिक भी है।पारदर्शिता और खुलेपन के लिए अनुशासन की विदाई करना पहली जरूरत है।सरकार ने जो नीति जारी की है तो उससे संबंधित सूचनाएं भी जारी करे,नीति पर विभिन्न दृष्टियों से बहस हो,विभिन्न विचारों की रोशऩी में नीति को परखा जाए,विभिन्न कसौटियों पर कसा जाए,यह किए बिना नोट नीति को सीधे लागू करना तानाशाही है। सब जानते हैं मीडिया पर सरकार का संपूर्ण वर्चस्व है और वह इस वर्चस्व का खुला दुरूपयोग कर रही है।नोट नीति लागू करते समय सरकार की शर्त है हमारी बात मानो,नहीं मानोगे तो देशद्रोही कहलाओगे।यह बुनियादी नजरिया लोकतंत्र विरोधी है।

रविवार, 27 नवंबर 2016

फिदेल की औरतें और चंडूखाने के चंडूबाज


            हिन्दू फंडामेंटलिस्टों और समाजवाद विरोधियों का जनप्रिय धंधा है चरित्र-हनन अभियान चलाना। पहले ये लोग स्वायत्त ढ़ंग से यह काम करते थे, लोकल थे,लेकिन मोदी के उभार के बाद हिन्दू फंडामेंटलिस्टों ने भी तालिबानियों की तरह साइबर तरक्की की है, वे अब लोकल नहीं रहे,साइबर में आते ही ग्लोबल हो गए हैं। हिन्दू फंडामेंटलिस्टों का फेसबुक पर प्रिय धंधा है कम्युनिस्टों के खिलाफ मिथ्या प्रचार करना,समाजवाद के बारे में,समाजवादी नेताओं और विचारकों के बारे में कपोल-कल्पित कहानियां प्रचारित-प्रसारित करना।ये सल में चंडूबाज हैं।

फिदेल कास्त्रो की मौत के बाद सारी दुनिया में फिदेल के चरित्र-हनन की आंधी चल रही है।इस आंधी में अनेक रंगत के लोग शामिल हैं,इनमें जेएनयू के पुराने प्रतिक्रियावादी और मोदीभक्त भी शामिल हैं।ये लोग जब जेएनयू में पढ़ते थे,तब भी इनको समाजवाद और साम्यवाद से एलर्जी थी,आज भी है,कहने को ये शिक्षित हैं,लेकिन साम्यवाद को लेकर ये लोग किताब,विचार,विमर्श,तथ्य और सत्य किसी से संबंध नहीं रखते,सिर्फ चंडूबाजों की तरह फेसबुक पर लिख रहे हैं।इनके अलावा अनेक आरएसएस के सक्रिय कार्यकर्ता भी हैं जो आए दिन अपनी साम्यवाद विरोधी चंडू आवाजें सुनाते रहते हैं। हाल में इन लोगों ने फिदेल कास्त्रो के निजी जीवन को लेकर घटिया किस्म की चंडूखाने की खबरें प्रसारित की हैं।इनमें कोई सच्चाई नहीं है।

यह सच है फिदेल कास्त्रो की निजी जिंदगी के बारे में दुनिया बहुत कम जानती है।स्वयं जिन परिस्थितियों में कास्त्रो जैसे क्रांतिकारी काम करते रहे हैं उसमें सब कुछ सार्वजनिक करके रखकर सत्ता चलाना बहुत ही मुश्किल काम है,खासकर जब सामने सीआईए और बहुराष्ट्रीय मीडिया घराने जहर उगलने के लिए खड़े हों। इस स्थिति से निबटने का सबसे बेहतर तरीका यही होता कि स्वयं कास्त्रो अपने परिवार,पत्नी,बच्चे,माँ-बाप,भाई आदि के बारे में स्वयं ही कुछ लिखते,इससे विभ्रम पैदा नहीं होता।

मेरा मानना है क्रांतिकारियों को अपने परिवार और परिवारीजनों के बारे में स्वयं लिखना चाहिए,इससे तथ्य और सत्य के बीच किसी तरह के विभ्रम की संभावनाएं नहीं रहतीं।इसके बावजूद यह सच है कि फिदेल कास्त्रो अनुशासित क्रांतिकारी थे।निजी और सार्वजनिक जीवन में औरतों के प्रति उनके मन में गहरा सम्मान था और समानता का भाव था।इस नजरिए को क्यूबा के सामाजिक यथार्थ की रोशनी में देखना चाहिए,न कि सीआईए के प्रचार अभियान के नजरिए से।

सवाल यह है क्यूबा में क्रांति के पहले औरतों का जीवन स्तर क्या था और आज क्या है ॽ अथवा फिदेल कास्त्रो के जमाने में क्या था ॽ जो फिदेल की 25हजार रखैलों का फेसबुक पर बार-बार जिक्र कर रहे हैं वे यह नहीं बताते कि उनकी सूचना का स्रोत क्या है ॽ उलेखनीय है सीआईए के फिदेल के खिलाफ जब सारे मिथ्या प्रचार अभियान धराशायी हो गए तब अंतिम अस्त्र के रूप में 25हजार रखैलों की खबर को चंडूबाजों ने मीडिया में प्रसारित किया।

क्यूबा और फिदेल पर बातें करते समय यह ध्यान रखें कि अमेरिका में एक बहुत बड़ा तंत्र है जिसको फिदेल और क्यूबा के खिलाफ मनगढ़ंत कहानियां गढ़ने के लिए ही अरबों रूपये दिए जाते हैं। इन मनगढ़ंत कहानियों को सबसे पहले सीआईए के चंडूबाज तैयार करते हैं और उसके बाद सारी दुनिया में मीडिया एक ही झटके में प्रचारित-प्रसारित कर देता है। फिदेल की 25 हजार रखैलों की कहानी इसी सीआईए के कारखाने की देन है।इस कहानी का जन्मस्थान है मियामी।

ध्यान रहे फिदेल की मौत के बाद फिदेल के किलाफ सबसे ज्यादा घृणाभरे जुलूस और नारे मियामी में लगे हैं।मियामी उन तमाम क्यूबाईयों का बसेरा है जो क्यूबा को छोड़कर चले आए या फिर जिनके क्यूबा के प्रशासन से मतैक्य नहीं था या फिर जिनको क्यूबा में मानवाधिकार हनन नजर आ रहा था,इस तरह के लोगों को अमेरिका ने क्रांति के बाद के समय से ही हर स्तर पर प्रलोभन देकर प्रोत्साहित किया और उनको फिदेल और क्यूबा की क्रांति के खिलाफ प्रचार के औजार की तरह इस्तेमाल किया। सीआईए किस मनगढ़ंत कहानियां बनाता रहा है इस पर फिर कभी चर्चा करेंगे।





फिदेल और सीआईए के मेढ़क -

       कल फिदेल कास्त्रो की मौत हुई,क्रांति के हमदर्दों को इससे दुख पहुंचा,वे फेसबुक पर उन पर लिख रहे हैं, सारी दुनिया में फिदेल की मौत की खबर प्रमुख खबर बनी,लेकिन हमारे देश में क्रांति विरोधी,समाजवाद विरोधी और मोदीपंथी लोग फिदेल के खिलाफ जहर उगलते हुए सक्रिय हो गए।

अरे भाई,जब फिदेल से कोई लेना-देना नहीं है तो फिर उनकी मौत पर यह मेढ़कों की तरह टर्र-टर्र क्यों ? मरे फिदेल हैं लेकिन आप लोगों के दिमाग का कैंसर क्यों फट पड़ा?

हिन्दू सभ्यता की परंपरा मान्यता है जब भी कोई व्यक्ति मरता है तो उसके गुण बताए जाते हैं,लेकिन इन दिनों मोदीपंथी जंगलियों की एक नई पौध पैदा हुई है जो उनकी मौत पर घृणा अभियान चला रहे हैं।लगता है इन लोगों के अंदर हिन्दुस्तान और हिन्दू धर्म की सभ्यता का कोई असर ही नहीं है !

कल से जिन लोगों ने फिदेल के बारे गंदा,जहरीला प्रचार किया है ,वे वस्तुतःन तो क्यूबा को जानते हैं और फिदेल को जानते हैं।उनको यदि जानकारी है तो सीआईए द्वारा पेश की गयी सूचनाओं की,वे सीआईए गुलामों की तरह फेसबुक से लेकर मीडिया तक फिदेल के बारे में सफेद झूठ की वर्षा कर रहे हैं। इस तरह के लोग क्यूबा के बारे में भारत की सर्वमान्य नीति की मुखालफत कर रहे हैं और सीआईए के एजेंट का काम कर रहे हैं।मोदीपंथियों की यह देशभक्ति नहीं बल्कि देशद्रोही हरकत है।

फिदेल कास्त्रो क्या थे और क्या बन गए ,क्यूबा क्या था और आज किस रूप में सारी दुनिया के सामने खड़ा है,वह अकल्पनीय मिसाल है सामाजिक परिवर्तन की।

क्यूबा की अमेरिका द्वारा पांच दशक तक की गयी लंबी आर्थिक नाकेबंदी ,सीआईएके षडयंत्र ,भाड़े के सैनिकों और बुद्धिजीवियों की विश्वव्यापी फौज और बहुराष्ट्रीय मीडिया कंपनियों के संगठित अभियान के बाद भी फिदेल और क्यूबा का सामाजिक परिवर्तन के रास्ते पर आगे बढ़ते जाना और दुनिया में क्यूबा का एक समर्थ राष्ट्र के रूप में खड़े रहना अपने आपमें प्रशासनिक -कूटनीतिक कौशल की शानदार मिसाल है।

फिदेल का भारत के साथ खास संबंध था,जेएनयू के साथ खास संबंध था, जेएनयू के छात्र आंदोलन के प्रेरकों में फिदेल अग्रणी थे,देश में क्यूबा को लेकर जितने अभियान चले हैं उनमें भारत के नौजवानों की केन्द्रीय भूमिका रही है।

क्यूबा के कष्ट के दिनों में भारत की जनता और सरकार फिदेल कास्त्रो और क्यूबा की जनता के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी रही है।लाखों नौजवानों ने चंदा देकर,किसानों ने गेंहूँ देकर,मजदूरों ने अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई से चंदा देकर क्यूबा की क्रांतिकारी सरकार की कठिन समय में रक्षा की है।समाजवाद और क्रांति के पक्ष में इस तरह की पक्षधरता विरल है।

खासकर सोवियत संघ के विघटन के बाद क्यूबा की क्रांतिकारी सत्ता को बचाने में भारत की सरकार और जनता की शानदार भूमिका रही है।



भारत - क्यूबा मित्रता का मूलाधार है फिदेल कास्त्रो और उनका नजरिया।फिदेल के नजरिए और भारत के नजरिए में अनेक स्तरों पर नीतिगत साम्य रहा है,भारत के कम्युनिस्टों और उदारवादियों के साथ क्यूबा की गहरी मित्रता रही है,यह ऐसी मित्रता है जो कठिन चुनौतीपूर्ण समय में खरी उतरी है।इस मित्रता को अमेरिकी दवाब तक तोड़ नहीं पाया।

शुक्रवार, 25 नवंबर 2016

विध्वंस के स्तूप बनाते मोदीजी

           पीएम मोदी की विशेषता है जो कहते हैं उससे एकदम उलटा आचरण करते हैं,नोटबंदी उनकी इसी खासियत का परिणाम है।पहले वायदा किया था कि पांच सौ और हजार के नोट 30दिसम्बर तक बदले जा सकेंगे, लेकिन आज सरकार ने घोषणा की है कि पुराने नोट अब बदले नहीं जाएंगे।इसी तरह पहले कहा करते थे संसद सर्वोच्च है अब कहते हैं ट्विटर और एप सर्वोच्च हैं ! नोट नीति के पक्ष में उन्होंने जो सर्वे किया है उसमें करोड़ों पीड़ित किसानों की राय शामिल नहीं है। सवाल है ये पाँच लाख कौन हैं जो जनता के कष्ट को सही मान रहे हैं? जनता की तकलीफ़ों को जायज ठहराने की मोदी एप सर्वे ने जो कोशिश की है उससे एक बात साफ़ है कि यह सर्वे तयशुदा ढंग से तैयार किया गया है। यह जनता की नेचुरल राय का प्रतिनिधित्व नहीं करता। इस सर्वे का लक्ष्य है नोटबंदी के फैसले में निहित संविधानविरोधी फैसले को छिपाना और मोदी के नोटबंदी के फासिस्ट और संविधान विरोधी फैसले को वैध ठहराना।मोदी एप सर्वे में वे ही लोग शामिल हैं जो स्मार्टफ़ोन वाले हैं। देश की अधिकांश जनता के पास न स्मार्टफ़ोन हैं और न इंटरनेट है। करोड़ों दैनिक मज़ूरी करने वालों की राय का इस सर्वे से कोई लेना देना नहीं है। नोटबंदी से यह वर्ग सबसे ज्यादा प्रभावित है।

कालेधन और नोटबंदी पर अर्थशास्त्रियों की राय महत्वपूर्ण होगी लेकिन इसबार कहा जा रहा है संसद नहीं, अर्थशास्त्री नहीं, राजनीतिक दल नहीं, सिर्फ भाजपा,सिर्फ पाँच लाख मोदी यूजर तय करेंगे कि मोदी की नोट नीति सही है। मोदीभक्तों को जवाब देना चाहिए कि भाजपा करोड़ों सदस्यों वाला दल है उसमें से मात्र पाँच लाख लोग ही मोदी एप में वोट देने क्यों आए ? करोड़ों मोदी भक्त कहाँ हैं ? क्या मोदी एप के सर्वे का भाजपा सदस्यों ने बहिष्कार किया है? दिलचस्प बात है जो अर्थशास्त्र नहीं जानते, नोट नीति के बारे में नहीं जानते , वे बता रहे हैं नोटबंदी सही है, मोदी एप सर्वे की धुरी इसी तरह के लोग हैं।

संसद में पूर्ण बहुमत होने के बाद भी नोटबंदी का प्रस्ताव संसद में पेश करने से मोदी सरकार क्यों भाग रही है? मोदीजी क्यों डरे हुए हैं? मात्र पाँच लाख लोगों ने मोदी एप पर नोटबंदी पर पीएम के सर्वे का जवाब दिया। 125 करोड़ की आबादी में मात्र इतने कम लोगों के प्राथमिकतौर पर रिएक्शन सामने आए हैं। करोड़ों रूपये सोशलमीडिया पर ख़र्च करने बाद मात्र पाँच लाख लोगों ने सर्वे में भाग लिया है। इससे मोदी की इंटरनेट जनता पर बहुत कम लोगों तक पकड़ का अंदाज़ा लगता है।मात्र पाँच लाख लोग मोदी नीति के पक्ष में बोले हैं।बाकी जनता जो चुप है वह साथ नहीं है।

नोटबंदी के कारण अब तक 75 से ज्यादा लोग मारे गए हैं,इनमें 17लोग अस्पताल में पुराने नोट न लेने और इलाज के अभाव में मारे गए हैं।८नवम्बर के बाद पुराने नोट नहीं लिए जा रहे, खासकर निजी अस्पताल में पुराने नोट नहीं लिए जा रहे हैं।सवाल यह है सरकार ने पुराने नोटों को सरकारी अस्पताल में वैध रखा लेकिन निजी अस्पताल में वैध क्यों नहीं रखा ?

हम माँग करते हैं कि जिन लोगों के पास आधारकार्ड और जनधन खाता है और राशन ख़रीदने के पैसे नहीं हैं उनको केन्द्र सरकार गेहूँ,आटा, दाल, तेल और सब्ज़ी उधार दे । नोट नीति की तबाही थमने वाली नहीं है।इसके अलावा जिसके पास आधार कार्ड और जनधन खाता है उसे सरकारी और निजी अस्पताल में मुफ्त दवा और इलाज की सुविधा दी जाय ।

रिजर्व बैंक ने संविधान प्रदत्त अधिकारों , स्वायत्तता और जवाबदेही का जिस तरह त्याग किया है और रिजर्व बैंक के गवर्नर ऊर्जित पटेल ने जिस तरह की गैर ज़िम्मेदाराना और संविधानविरोधी भूमिका अदा की है उसका हर स्तर पर प्रतिवाद होना चाहिए, साथ ही पीएम की नोटबंदी के असंवैधानिक निर्णय का भी प्रतिवाद होना चाहिए। आज बैंक कर्मचारी सबसे ज्यादा संकट में घिरे हैं। अब बैंक कर्मचारियों को संघर्ष का एलान करना चाहिए और साफ कहना चाहिए कि उनको अकारण असंवैधानिक और जनविरोधी नोट नीति का अंग बना दिया गया है।आप जरा बैंक कर्मचारियों की मुश्किलों और बैंकिंग व्यवस्था के बारे में सोचें नोट नीति के कारण विगत दस दिनों से बैंकों का सारा कारोबार ठप्प पड़ा है। फिलहाल बैंक रूपये लेने देने के काम में लगे हैं।बैंकों की आमदनी ठप्प पड़ी है, कर्मचारियों पर काम का बोझ बढ़ गया है। कर्मचारी बेहद तनाव में काम कर रहे हैं।बैंकों के समूचे कामकाज के ठप्प हो जाने से प्रतिदिन कितने हजार रूपये की क्षति हो रही है ? विगत दस दिनों से जो काम बंद पड़े हैं उस बक़ाया काम को समाप्त करने में बैंक कर्मचारियों को कितने हजार घंटे काम करना पड़ेगा ?यही हालात यदि कुछ सप्ताह और रहते हैं तो बैंक कर्मचारी शारीरिक तौर पर भयानक दवाब में आ जाएंगे।

फेडरेशन ऑफ राजस्थान ट्रेड ऐंड इंडस्‍ट्री (फोर्टी) का मानना है नोटबंदी से राजस्थान में आगामी दो माह में करीब एक लाख करोड़ रुपये का कारोबार प्रभावित होगा, समाचार पत्रों, सोशल मीडिया आदि के जरिये भ्रांति व भय के माहौल में व्यापारी वर्ग डरा हुआ है तथा मजदूर वर्ग को रोजगार की उपलब्धता के बावजूद भी आर्थिक तंगी का सामना करना पड रहा है। फोर्टी ने प्रधानमंत्री के नाम एक ज्ञापन राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह को कल सौंपा है जिसमें प्रधानमंत्री से व्यापार व उद्योग जगत के साथ-साथ आमजन को राहत पहुंचाने की मांग की गई है। उन्होंने कहा कि नोट बंदी के कारण विनिर्माण क्षेत्र और खुदरा क्षेत्र में बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है। मजदूरों को मजदूरी का भुगतान करने के लिए पर्याप्‍त नकदी उपलब्ध नहीं होने के कारण उत्पादन पर भी असर पडा है।





मोदी सरकार की असंवैधानिक और विध्वंसक नोट नीति-

            पीएम नरेन्द्र मोदी डर के मारे संसद में नहीं बोल रहे,डर के मारे बैंक पीड़ितों से नहीं मिल रहे, आत्महत्या कर रहे किसानों से नहीं मिल रहे,उनके अंदर का डर इस कदर हावी है कि रिजर्व बैंक को स्वायत्त ढ़ंग से काम नहीं करने दे रहे।इसके विपरीत राहुल गांधी एकदम निडर और निस्संकोच आम जनता में जाकर मिल रहे हैं,बैंक और एटीएम की लाइन में लगे लोगों से मिल रहे हैं,कर्ज से पीड़ित किसानों से मिल रहे हैं ।आंदोलनकारी पूर्व सैनिकों से मिल रहे हैं।लोकतंत्र में तानाशाह और लोकतांत्रिक नेता का अंतर देखना हो तो डर के पैमाने से देखो,डरा नेता जनता से दूर रहता है, हिटलर की तरह हमेशा सभा मंच पर नजर आता है जनता से दूर रहता है,जबकि लोकतांत्रिक नेता हमेशा जनता में नजर आता है।

जिस तरह आपातकाल ने उत्तरभारत में कांग्रेस की कमर तोड़ी थी वैसे ही नोटबंदी ने भाजपा की पूरे देश में रीढ़ तोड़ दी है। आपातकाल के लाभ विपक्ष ने उठाए उसी तरह नोटबंदी से पैदा हुई तबाही का लाभ विपक्ष को मिलना तय है। नोटबंदी के मायने हैं " नो अपील नो वकील और नो दलील" । यही आपातकाल का मोटो था।जिसे सुप्रीम कोर्ट में उस जमाने के महान्यायवादी ने व्यक्त किया था।

पी एम नरेन्द्र मोदी लगातार झूठ बोल रहे हैं,वे कह रहे हैं नोट बंदी का कुछ दिन तक ही बुरा असर रहेगा,सच यह है इसका बहुत ज्यादा दिनों, कई महिने और कई साल तक बुरा असर रहेगा।भारत की सारी दुनिया में इससे मट्टी पलीत हुई है।अब विदेशी पूंजी निवेश कम से कम भारत में निकट भविष्य में नहीं आएगा।सारी दुनिया जान गयी है भारत में इस समय ऐसा पीएम है जिसके पास स्नातक स्तर के ज्ञानधारी देशभक्त और नौकरशाह हैं।

सारी दुनिया में जितने पीएम हैं वे बेहतरीन शिक्षितों से विभिन्न पहलुओं पर सलाह करके नीति बनाते हैं लेकिन मोदीजी ज्ञानी और विद्वानों से कोसों दूर रहते हैं ,उनके पास नौकरशाह सलाहकार हैं,ये नौकरशाह सलाहकार अधिक से अधिक स्नातक हैं और इनकी कोई विशेष योग्यता नहीं है।इसके अलावा यह भी पता चला है कि नोट नीति बनाते समय कुछ ही लोगों से सलाह करके फैसला लिया गया,ये कुछ लोग कौन हैं यह भी सामने आना बाकी है,उनके काम करने की पद्धति वही है जो आपातकाल में श्रीमती गांधी की थी,वे चंडाल चौकड़ी से घिरी हुई थीं,सारे फैसले चंडाल चौकड़ी लेती थी, मंत्रीमंडल कागजी था,संविधान फालतू था।मोदीजी भी चंडाल चौकड़ी से घिरे हैं और वही देश को संचालित कर रही है।नोट बंदी का फैसला इसी चंडाल चौकड़ी ने लिया है।अखबारों में अभी जो नाम आ रहे हैं वे सब गलत हैं।असली नाम कुछ और हैं।नोट बंदी का फैसला न तो रिजर्व बैंक ने लिया है और न मंत्रीमंडल ने विस्तार से बहस करके लिया है,यह फैसला मूलतःपीएम का है और उसे सारे देश पर थोप दिया गया है। नियमानुसार यह फैसला संसद और रिजर्व बैंक को लेना था,लेकिन संसद को ठेंगे पर रखा गया है,रिजर्व बैंक को रबड़ स्टैम्प की तरह इस्तेमाल किया गया है।इस सबको नाम दिया गया सीक्रेसी का।

जो नीति सारे देश पर लागू होनी है उस पर सीक्रेसी की क्या जरूरत यह बात हमारी समझ में नहीं आती।यह कैसी नीति है जिस पर रिजर्व बैंक बहस न करे,संसद बहस न करे,मंत्रीमंडल में बहस न हो,देश में बहस न हो और देश से कह दिया जाए कि तुम नीति का पालन करो।यही तो अधिनायकवाद है।



नोट नीति के जरिए पीएम मोदी की जनता में पहलीबार प्रशासनिक दक्षता परीक्षा हुई और वे इसमें बुरी तरह फेल हुए हैं।जबकि वे प्रशासनिक दक्षता और ईमानदारी के दावे पर वे लोकसभा का चुनाव जीतकर आए थे। इस नीति के पहले उनकी नीतिगत तौर पर जनता में कोई परीक्षा नहीं हुई थी,यहां तक कि जिन जनधन खाता धारकों के करोड़ों खाते खुलवाने का वे दावा करते हैं उसमें बैंक कर्मचारियों की बड़ी भूमिका थी,इसमें मोदीजी की प्रशासनिक क्षमता नजर नहीं आती,जिस तरह वे खाते खुले हैं,सारा देश जानता है, उनकी अक्षमता,मूर्खता और जनविरोधी भावनाओं को आम जनता में नंगा करके रख दिया है।कल राज्यसभा में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने विमुद्रीकरण की नीति को सटीक आलोचना करते हुए तबाही के जिस मंजर का खाका पेश किया है वह हम सबके लिए चिन्ता की बात है।इसके विपरीत कल वित्तमंत्री अरूण जेटली की पूर्व पीएम मनमोहन सिंह पर हमला करने वाली प्रेस कॉंफ़्रेंस देखकर यह विश्वास हो गया है कि मोदी सरकार सभ्यता और लोकतंत्र की सभी सीमाएँ लांघ चुकी है और असहिष्णुता के शिखर पर बैठी है। जेटली के बयान का मर्म यह था कि मनमोहन सिंह को बोलने का कोई हक नहीं है।क्योंकि उनके शासन में कालाधन आया , सबसे ज्यादा घोटाले हुए , वे महान पापी हैं! जो महान पापी हैं उनको मोदीजी जैसे चरित्रवान,ईमानदार, बेदाग़ नए कपड़े पहने वाले नेता की नीति की आलोचना करने का कोई हक नहीं है।मोदी जी इतने महान हैं कि विगत सत्तर साल में इस तरह का चरित्रवान और पुण्यात्मा कोई पीएम नहीं बना है! सच तो यह है उनसे बेहतर कोई पीएम न तो सोच सकता है और न बोल ही सकता है!!
मोदीजी महान हैं! क्योंकि वे संविधान के बंधनों से मुक्त हैं! हमेशा १२५ करोड लोगों के बंधन में बँधे रहते हैं। १२५ करोड लोगों की तरह ही सोचते हैं, हँसते हैं, गाते हैं ,खाते हैं, रोते हैं!!उनके मन और तन में १२५ करोड़ मनुष्य वास करते हैं!करोड़ों जीव-जन्तु-पशु-पक्षी उनके हृदय में निवास करते हैं !
उनका मन मंदिर है और हृदय जंगल है।वे इस जंगल के बेताज बादशाह हैं। वे वैसे ही अक्लमंद हैं जैसे जंगल में पशु -पक्षी अक्लमंद होते हैं।जिस तरह १२५ करोड जनता कभी किसी अर्थशास्त्री से राय नहीं लेती जो मन में आए काम करती है मोदीजी भी ठीक वैसे ही काम करते हैं।यही वजह है मोदीजी महान हैं! मोदीजी की आलोचना वही कर सकता है जो उनके जैसा महान हो ! मनमोहन चूँकि मोदीजैसे महान नहीं हैं इसलिए उनकी बातों को गंभीरता से दरकिनार करने की जरूरत है।रही बात संसद की तो संसद नक्षत्रों से भरी है उसमें मोदी जैसा सूर्य मिसफ़िट है। यही वजह मोदी जैसा सूर्य हमेशा संसद के बाहर ही चमकता है , कल पंजाब में दिखाई देंगे ।

गुरुवार, 24 नवंबर 2016

नोट बंदी यानी मोदी सरकार ठप्प है !

            पीएम नरेन्द्र मोदी ने 9नवम्बर से नोटबंदी की नीति लागू करते समय आम जनता से पचास दिन मांगे हैं।कहा है पचास दिन में यह नीति अभीप्सित लक्ष्य हासिल न कर पाए तो जनता पीएम को दण्डित कर सकती है।सवाल यह है नोट बंदी के पहले जो वायदे पूरे करने की बात थी उनका क्या हुआ ॽ क्या उन वायदों को भी 50दिन के लिए स्थगित कर दिया जाय ॽ सवाल यह है नोटबंदी की घोषणा के बाद सरकार ठप्प क्यों हो गयी ॽ

यह सच है नोटबंदी के कारण सब कुछ ठहर गया है। नोटबंदी के बारे में जो कुछ कहा गया उससे उलट परिणाम सामने आने शुरू हो गए हैं।मसलन् यह नहीं कहा गया कि नोटबंदी से कामगारों को बेकारी का सामना करना पड़ेगा,खासकर दैनिक मजूरी करने वालों को तत्काल रोजी-रोटी से हाथ धोना पडेगा।बाजार में सन्नाटा पसर जाएगा।बैंकिंग के नियमित कामकाज बंद हो जाएंगे।आयकर विभाग के नियमित काम ठप्प हो जाएंगे।पुराने नोटों का कालाधन धंधा शुरू हो जाएगा,मुद्रा दलालों की चाँदी ही चाँदी होगी।निर्माण कार्य,विकास कार्य,सरकारी योजनाओं का कार्यान्वयन ठप्प हो जाएगा।

नोटबंदी लागू करने के साथ यह कहा गया इससे काले धन पर रोक लगेगी।लेकिन व्यवहार में ठीक उलटा हुआ है।व्यवहार में मुद्रा दलालों ने बड़ी मात्रा में बैंकरों की मदद से करोड़ों रूपये का धंधा किया है।अभी तक किसी ने यह नहीं बताया कि पुराने खारिज नोट कितनी बड़ी संख्या में मुद्रा दलालों के जरिए बदले गए हैं।अभी तक जन-धन एकाउंट में 21हजार करोड़ रूपये जमा होने की बात केन्द्र सरकार ने मानी है।लेकिन दलालों ने अमान्य मुद्रा में से कितनी मुद्रा को परिवर्तित कराने में मदद की,इसका कोई आंकड़ा सरकार नहीं दे पायी है।जन-धन एकाउंट में अवैध पैसा जमा होने वाली बात भी इसलिए कही जा रही है जिससे ममता बनर्जी और राहुल गांधी को इस मुहिम से जोड़ा जाए,क्योंकि जन-धन एकाउंट में बड़े पैमाने पर पैसा सरकार के मुताबिक बंगाल और कर्नाटक में ही जमा हुआ है।

मोदी सरकार ने सब कुछ जानते हुए भी कि किनके पास अवैध कालाधन कैश में घरों रखा हुआ है उनके यहां घरों पर छापे न मारकर नोटबंदी का रास्ता चुना।सरकार यदि कालेधन के मगरमच्छों को पकड़ना चाहती तो आसानी से पकड़ सकती थी लेकिन उसने यह सब करना जरूरी नहीं समझा,उलटे उनको जन-धन एकाउंट के जरिए धन जमा करने की सुविधा मुहैय्या करायी।जिस तरह अनाप-शनाप तरीकों से जन-धन एकाउंट खुलवाए गए थे उस समय अनेक लोगों ने इन खातों के दुरूपयोग होने की ओर ध्यान खींचा था लेकिन सरकार ने एक भी बात नहीं मानी।आज यही जन-धन एकाउंट कालेधन को बैंकों में जमा करने के सबसे बड़े स्रोत बनकर सामने आए हैं।

नोटबंदी के बाद बैंकों में पारदर्शिता दिखनी चाहिए। केन्द्र सरकार तुरंत अब तक छापे गए और बैंक से दिए गए नोटों का हिसाब सार्वजनिक करे और बताए कि नए नोट कितनी संख्या में जारी किए गए हैं ॽइस समूची प्रक्रिया की गहराई में जाकर जांच करने की जरूरत है।दिलचस्प बात है मोदी सरकार नोटबंदी की नीति लागू होने के बाद एक भी मुद्रा दलाल को अवैध मुद्रा के लेन-देन के चक्कर में पकड़ नहीं पायी है।इसका प्रधान कारण हमारे यहां अवैध,खारिज,फटे-पुराने नोट आदि का कारोबार करने वाले पचासों वर्षों से यह धंधा कर रहे हैं और वैध ढ़ंग से वे अपना काम करते रहे हैं। सवाल यह है जब उनका धंधा वैध है तब आप कालेधन वाले को पकड़ेंगे कैसे ॽ

दूसरा सवाल यह है जुलाई से सितम्बर माह 2016 के बीच में बैंकों में जमा पूंजी में जबर्दस्त उछाल आया है,वे कौन लोग हैं जिन्होंने अचानक बैंकों में बड़ी मात्रा में धन जमा किया है ॽ बैंकों के सारे खातों को खंगालने की जरूरत है, साथ ही राजनीतिक दलों के खातों को भी खंगालने की जरूरत है। इस अवधि के बीच में जिन लोगों ने पांच लाख ,दस लाख,पचास लाख या उससे ऊपर धन जमा किया है उन लोगों कि शिनाख्त की जानी चाहिए,उनसे आय के स्रोतों की जानकारी देने के लिए कहा जाना चाहिए।इसके अलावा दो लाख से ऊपर के गहने खरीदने वालों की जांच हो।खासकर उन लोगों की जिन्होंने हठात् 8नवम्बर के बाद से महंगे दाम पर सोना खरीदा है, विगत 15दिनों में सोना खरीदने वालों के नाम तो सरकार जारी कर ही सकती है।यह कैसे संभव है कि जिन लोगों ने पहले सोना नहीं खरीदा अचानक 8नवम्बर की 8बजे की घोषणा के बाद ही सोना खरीदा ! उन कंपनियों और ठेकेदारों की भी खोज की जाए जिन्होंने एडवांस में अपने मजदूरों को कई महिने की पगार दे दी और अपना कालाधन सफेद कर लिया। ये बातें उस गोरखधंधे की एक झलक देती हैं जो नोटबंदी के नाम पर विगत 15 दिनों से हो रहा है और मोदी सरकार की इसे रोकने में कोई दिलचस्पी नजर नहीं आती,उलटे हुआ यह है कि नोट बंदी के बाद सरकार के सभी विभाग ठप्प हो गए हैं। नोटबंदी को यदि अचानक लागू करना था तो सरकारी विभाग ठप्प क्यों हो गए ॽ







बुधवार, 23 नवंबर 2016

मोदी एप सर्वे यानी फ़्रॉड का फ़्रॉड -

   

  नोटबंदी पर मोदी एप सर्वे में विपक्ष ने भाग नहीं लिया,सिर्फ भाजपा-आरएसएस ने इसमें भाग लिया, मोदीजी की साइबरमंडली-मीडिया मंडली ने जनमत जुटाने का काम किया और इसके बाद १२५करोड की आबादी में वे मात्र पाँच लाख लोगों की राय ही वे जुटा पाए, इससे एक बात साफ है कि अधिकांश भाजपाईयों ने इस सर्वे का बहिष्कार किया है, भाजपा यदि पूरी तरह दिलचस्पी लेती तो यह सर्वे कबीं ज्यादा बड़ी संख्या में लोगों की पाय जुटा पाता। 
       इस तरह के सर्वे की सबसे बडी कमज़ोरी यह है कि सर्वे कर्ता मानकर चल रहा है कि सर्वे में जो लोग भाग ले रहे हैं वे कालेधन,भ्रष्टाचार और नोटबंदी के सभी पहलुओं से वाक़िफ़ हैं।जबकि सच इसके एकदम विपरीत है। अधिकतर लोगों की बात छोड़ दें सिर्फ ९नवम्बर से कल तक के अखबार उठाकर देखेंगे तो उपरोक्त विषयों से संबंधित बहुत कम सामग्री इनमें मिलेगी। इतनी कम जानकारी के आधार देश की महत्वपूर्ण नीति के बारे में जन समर्थन का दावा करना गलत है, अवैज्ञानिक है।
     सवाल यह है जिस व्यक्ति को नोट बंदी का बेसिक नहीं मालूम उसकी राय को सही कैसे कहते हैं ? स्वयं पीएम मोदीजी ने आज तक नहीं बताया कि नोटबंदी का फैसला उन्होंने कैसे और किस अधिकार से लिया? जबकि संवैधानिक तौर पर ने यह फैसला वे नहीं ले सकते। नोटबंदी का फैसला लेने का एकमात्र संवैधानिक हक रिजर्व बैंक के पास है और सच यह है कि रिजर्व बैंक ने नोटबंदी का फैसला नहीं लिया बल्कि रिजर्व बैंक पर मोदीजी ने अपना फैसला थोप दिया और आदेश दिया कि इसे लागू करो।यह कदम अपने आपमें असंवैधानिक है।
        मोदीजी अपने असंवैधानिक फैसले को छिपाने के लिए मोदी एप सर्वे का मुखौटे के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं। सवाल यह भी है मोदीजी ने स्वयं सर्वे क्यों किया ? कभी भी कोई नीति निर्धारक स्वयं सर्वे नहीं करता । तटस्थ संस्थाएँ सर्वे करती हैं ।उससे  जनमत की सही भावनाएँ सामने आती हैं। सर्वे के पहले जनमत को  विवादास्पद मसले पर शिक्षित किया जाता है उसके बाद राय ली जाती है, मोदीजी यह मानकर चल रहे हैं कि नोटबंदी पर जनता सब कुछ जानती है और उससे सीधे सवाल किए जाने चाहिए। हालात यह है कि स्वयं मोदीजी ने आज तक विस्तार से कालेधन और नोट नीति के संवैधानिक पहलुओं पर किसी भी पेशेवर पत्रकार के सवालों के सीधे जवाब नहीं दिए हैं, क्योंकि वे जानते नहीं हैं। सवाल यह है जब पीएम अपनी नीति के बारे में अज्ञानी हो तब आम जनता कैसे ज्ञानी हो सकती है? 

नोटबंदी और मीडिया के अक्षम्य अपराध-


          नोटबंदी के आतंकियों और माओवादियों पर असर की झूठी खबरों से मीडिया भरा पड़ा है,जबकि आँखों के सामने भारत के प्रत्येक नागरिक के यहां तबाही मची हुई है,कम से कम पचास लाख घरों में शादियां हो रही हैं और वहां सभी एकस्वर से मोदी सरकार की निंदा कर रहे हैं लेकिन मीडिया में यह सब गायब है , नोटबंदी का आतंकियों पर क्या असर हुआ है,यह बताने में मीडिया मगन है,जबकि मीडिया को किसी आतंकी से कोई पुष्ट और प्रामाणिक जानकारी नहीं मिली है।इनमें सारे फोटो पुराने हैं,सिर्फ ऑफिस में बैठकर गप्पें तैयार की जा रही हैं।नोटबंदी ने समूचे बैंकिंग सिस्टम को पंक्चर कर दिया है।आयकर विभाग परेशान है कि कैसे काम करे,मुश्किल से दस लोगों को आयकर विभाग ने नोटिस भेजा और उससे यह आभास पैदा किया गया कि पता नहीं कितना बड़ा तीर मार लिया गया,जबकि आयकर विभाग को मालूम है कि वह हाथ पर हाथ धरे बैठा है।

मोदी जी सरेआम मायावती और दूसरे नेताओं पर हमले कर रहे हैं और सफेद झूठ बोल रहे हैं।नोटबंदी से इन नेताओं पर कोई खास असर नहीं पड़ा है।कम से कम अब तक 14 दिनों में मोदीजी ने किसी नेता के यहां छापा मारकर एक लाख के अमान्य नोट तक नहीं पकड़े हैं,उलटे आयकर विभाग ने 91लाख के नोट महाराष्ट्र के भाजपा विधायक और मंत्री की कार से पकड़े हैं।नोटबंदी लागू होने के कुछ समय पूर्व भाजपा के खाते में कोलकाता में 3करोड़ रूपये के नोट जमा कराए गए हैं।इसके बाद भी यह हल्ला कि विपक्ष के पास कालाधन है और उसको नोटबंदी से नष्ट कर दिया गया है।यह पहला मौका है जब मीडिया पीएम और वित्तमंत्री के बयानों की तथ्यपरक जांच नहीं कर रहा। उसका कमर कसकर अफवाह अभियान में जुट जाना इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी है।

भारत के इतिहास में सहकारी बैंकों को कभी सामान्य बैंकिंग प्रणाली से काटकर नहीं रखा गया,लेकिन नोटबंदी के बाद सहकारी बैंकिग व्यवस्था ठप्प पड़ी है। वहां कोई लेन-देन नहीं हो रहा,कोई काम नहीं हो रहा।यहां तक कि तुलनात्मक तौर पर पोस्ट ऑफिस से भी इन बैंकों का बुरा हाल है।

इस समस्त प्रक्रिया में पेट्रोल पंप वाले से लेकर बिग बाजार के मालिक तक पर हमारी सरकार को विश्वास है ,उनको किसी न किसी रूप में दो हजार रूपये नागरिकों को निकालने की वहां से सुविधा दे दी गयी है,लेकिन सहकारी बैंकों को तो बिग बाजार और पेट्रोल पंप मालिक कंपनियों जैसे लेन-देन की भी सुविधा नहीं दी गयी है।

सवाल यह है कि ये कंपनियां क्या अपने पॉकेट से नागरिकों को दो हजार रूपये बांटेगी ?कहीं नई मुद्रा को सलेक्टिव ढ़ंग से कारपोरेट घरानों को देने की मुहिम तो नहीं चल रही ?मसलन् बिग बाजार ने दो हजार की मुद्रा डेबिड कार्ड के आधार पर नागरिक को दी तो आखिरकार वह मुद्रा बिग बाजार कहां से जुगाड़ करेगा ,जिस समय बैंकों के पास मुद्रा न हो वैसे में बिग बाजार जैसे निजी नैटवर्क को दो हजार रूपये डेबिड कार्ड के जरिए देने का फैसला नए किस्म की मोदी -कारपोरेट मिलीभगत का नमूना है।यह नोटबंदी की आड़ में चल रहा मोदी करप्शन है।

इसी तरह यह प्रचार भी तथ्यहीन है कि कैशलैस सोसायटी करप्शन मुक्त होती है।सारी दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं है जो कैशलैस हो,यहां तक कि जिन देशों में कैशलैस सिस्टम बहुत पुख्ता है वहां पर भी करचोरी बड़ी मात्रा में होती है।कैशलेस सिस्टम अंततःकैश पर ही चलता है।सिर्फ अंतर यह है कि चलमुद्रा का एक बड़ा अंश चलन से बाहर रहता है, वह बैंकों के पास रहता है।

पहले से ही एक लाख करोड़ रूपये की प्लास्टिक मनी चलन में है।यह प्लास्टिक मनी मोदीजी के पीएम बनने के पहले से ही चलन में है।प्लास्टिक मनी बाजार की पूरक मुद्रा है, विनिमय की मुद्रा है,यह वस्तुतः मुद्रा नहीं, मुद्रा का वायदा है,गारंटी है।असल मुद्रा तो इसके कारण चलन के बाहर है।

सारी दुनिया में 1.2 बिलियन लोग हैं जिनकी जिंदगी प्रतिदिन एक डॉलर से भी कम पैसे से चलती है,भारत में आबादी का बहुत बड़ा अंश है जिसकी रोज की आय तीस रूपये से भी कम है।ऐसे में कैशलैस विनिमय की बात करना अवैज्ञानिक है,साथ ही गरीबों के साथ भद्दा मजाक है।

इस दौर में आम जनता की राय को बनाने और नियंत्रित करने में मीडिया सबसे बड़ी भूमिका अदा कर रहा है अतः मीडिया की भूमिका पर व्यापक बहस होनी चाहिए।सवाल यह है मीडिया यह मानकर क्यों चल रहा है कि नोटबंदी अच्छी बात है,सही फैसला है ?बिना इस नीति की तहकीकात किए,उसके बुनियादी आधार के बारे में सवाल खड़े किए बिना मीडिया ने जिस तरह का माहौल बनाया है उससे पहली बात यह निकलती है कि मीडिया वालों में साक्षरता का अभाव है,मीडिया साक्षरता के अभाव के कारण नोटबंदी के प्रति इस तरह का अनालोचनात्मक रवैय्या पैदा होता है।आम जनता देखती है कि मीडिया समर्थन कर रहा है फलतः जनता मानकर चल रही है कि मोदीजी की नोट बंदी सही है।मीडिया बार बार असुविधाओं को चित्रित कर रहा है उसमें भी वह बड़ी कृपणता के साथ पेश आ रहा है। विगत 14 दिनों में मीडिया का समूचा कवरेज नोटबंदी के प्रति अनालोचनात्मकता से लबालब भरा रहा है।

मीडिया का काम है कि वह जनता की आवाज बने,लेकिन हमारे यहां मीडिया खुल्लमखुल्ला सरकार और कारपोरेट घरानों की आवाज के रूप में काम कर रहा है,ऐसे में मीडिया साक्षरता का काम और भी महत्वपूर्ण हो उठा है।

नोटबंदी के सवाल पर मीडिया ने दो बड़े अपराध किए हैं उसने आर्थिक सूचनाओं को छिपाया है और अ-प्रासंगिक सूचनाओं का प्रसार किया है। दूसरा अपराध यह किया है कि मीडिया अपनी भूमिका भूलकर सरकार के भोंपू की भूमिका अदा कर रहा है।हम सब जानते हैं आम जनता मीडिया द्वारा प्रसारित सूचनाओं पर पूरी तरह निर्भर है ऐसे में आम जनता से सही सूचनाएं छिपाना और सरकार की ही सिर्फ सूचनाओं को प्रसारित करना अपराध की कोटि में आता है।



















मंगलवार, 22 नवंबर 2016

नोटबंदी पर जनमत एप का मोदी पाखण्ड -

         पी एम नरेन्द्र मोदी संसद में किसी हॉल में बैठकर भाजपा सांसदों को सम्बोधित कर सकते हैं,संसद शुरू होने के बाद वे दो बार उनको सम्बोधित कर चुके हैं लेकिन वहीं पास में संसद के सदन में आकर भाषण देने में क्यों डर रहे हैं ?
वे संसद की बिल्डिंग में जा रहे हैं लेकिन सदन में नहीं जा रहे,सदन से वे कन्नी क्यों काट रहे हैं ? उनसे क्या कोई संवैधानिक चूक हुई है ?जी हां,हमने फेसबुक पर जितने भी मसले संवैधानिक उल्लंघन के रेखांकित किए थे आज वे सभी मुद्दे विपक्ष भी उठा रहा है।
मोदीजी सदन में बोलते हैं तो वे अपने बयान की संवैधानिक पुष्टि के लिए मजबूर होंगे,दिलचस्प बात है मोदी मंत्रीमंडल के सभी लोग संसद में बोलने को तैयार हैं एकमात्र मोदी बोलना नहीं चाहते,क्योंकि वे अपने को संवैधानिक जवाबदेही से बाहर रखना चाहते हैं।
मसलन्, संसद में यदि वे कहते हैं कि मैंने नोट बंदी का फैसला लिया तो यह संवैधानिक बयान होगा जो सीधे संविधान के उल्लंघन के दायरे में आता है मोदीजी को नोट बंदी का फैसला लेने का हक नहीं है,यदि वे कहते हैं मंत्रीमंडल ने फैसला लिया तो यह कहना भी असंवैधानिक होगा।यही बुनियादी वजह है कि वे संसद से बाहर बोल रहे हैं,संसद के बाहर उनके बोलने का कोई संवैधानिक मूल्य नहीं है।
जो खबरें सामने आई हैं वे ये हैं कि मोदीजी ने नोट बंदी के लिए सभी संवैधानिक नियमों और संस्थाओं को अमान्य या दरकिनार करके नोटबंदी का फैसला लिया है,वे मीडिया और सोशलमीडिया के जरिए आम जनता की राय को मेनीपुलेट करना चाहते हैं।यही वजह है कि आज उन्होंने एक एप के जरिए नोटबंदी से जुड़े 10 सवालों पर राय जानने की कोशिश की है,पीएम की ओर से जो दस सवाल नागरिकों से पूछे गए हैं,वे सवाल गलत हैं और उन सवालों को जिस क्रम से रखा गया है उनके उत्तर पहले से ही तय हैं।
कायदे से नोटबंदी को लेकर पहले सभी आधिकारिक सूचनाएं जनता को दी जाएं और फिर सवाल किए जाएं तो कुछ हद तक संतुलित राय मिलेगी।
मसलन् ,पहले जनता को यह बताया जाए कि नोटों पर पाबंदी लगाने का संवैधानिक अधिकार किस संस्था को है ,हमारे देश में अधिकतर लोग नहीं जानते,कम से कम पीएम को नोटबंदी के फैसले लेने का संवैधानिक हक नहीं है,यह रिजर्व बैंक के अधिकार क्षेत्र में आता है।
दूसरी बात यह कि रिजर्व बैंक ने यह फैसला कब लिया ,क्या यह फैसला कुछ मिनटों या घंटों में लिया यदि हां तो इस तरह का गंभीर फैसला लेने के लिए बैंक के मुखिया पर किसने दवाब डाला,नोटबंदी का फैसला सबसे बड़ा फैसला है,यह हठात नहीं लिया जा सकता।यह ऐसा फैसला है जिससे देश का हर नागरिक प्रभावित हुआ है और परेशान है,उसके संवैधानिक हक पर इस फैसले के जरिए हमला बोला गया है,बेहतर यही होगा कि रिजर्व बैंक सभी तथ्यों को आम जनता के सामने रखे।जनता को नोट बंदी से जुड़े सभी तथ्यों की जानकारी देने के बाद ही पीएम को इस फैसले पर जनमत की राय लेनी चाहिए।
दिलचस्प बात यह है कि मीडिया तक को नहीं मालूम कि किसने फैसला लिया और क्यों फैसला लिया,मीडिया एकतरफा ढ़ंग से नोटबंदी के पक्ष में प्रचार कर रहा है और उसी भाषा में प्रचार कर रहा है जिस भाषा में 8नवम्बर2016 को आठ बजे मोदीजी बोले थे।इस तरह नियोजित प्रचार और सूचनाओं के अभाव के आधार पर कोई भी जनमत की राय एकसिरे अवैज्ञानिक और निराधार ही कही जाएगी।सूचनाओं के पर्याप्त प्रचार-प्रसार के बाद ही जनमत की राय ली जानी चाहिए।
इस प्रसंग में दूसरी बात यह कि मोदीजी को हठात् जनमत के समर्थन की जरूरत क्यों है ? वे तो मानकर चल रहे हैं कि उनके साथ सारा देश खड़ा है,वे सही कर रहे हैं,जनता खुश है,बस जरा सी तकलीफ है,सब कुछ यदि पचास दिन तक ऐसे ही चलता रहा तो मोदीजी किला फतह कर लेंगे।
जनमत की राय का एप जारी करके मोदीजी ने यह साफ संकेत दे दिया है कि आम जनता और खासकर भाजपा के सांसदों-विधायकों में एक अच्छा-खासा हिस्सा उनके पक्ष में नहीं है,इसलिए उन पर दवाब पैदा करने के लिए मोदीजी ने एप के जरिए जनमत की राय का औजार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं।
दूसरा ,वे विपक्ष के खिलाफ प्रचार अभियान के अंग के रूप में इस एप को लेकर आए हैं,इसके सवालों में यह बात निहित है।
दिलचस्प बात यह है कि नोट बंदी पर रिजर्व बैंक के हक पर हमला बोला गया,संसद के हक पर हमला बोला गया,मीडिया-सोशलमीडिया के जरिए आम जनता के दिमाग पर हमले चल रहे हैं,अब एप के जरिए बमबर्षा की जाएगी।

रविवार, 20 नवंबर 2016

यह एंटी करप्शन नहीं फासिज्म है !

       देश में भ्रष्टाचार,बेईमानी और घूसखोरी के खिलाफ जून १९७५ को लाए गए आपातकाल को भारत की जनता भूली नहीं है। इंदिरा गांधी के उन दिनों के भाषणों को देखना चाहिए। मोदीजी इन दिनों जो भाषा बोल रहे हैं वह अधिनायकवाद की भाषा है,जब आपातकाल लगा तो उस समय भी इंदिराजी के साथ एक योगी था नाम था धीरेन्द्र ब्रह्मचारी , तकरीबन वैसा ही इस समय हो रहा है, मोदी के साथ योगी रामदेव हैं।आपातकाल को विनोवा भावे ने अनुशासन पर्व कहा था और इस समय अन्ना हजारे वही भाषा बोल रहे हैं। आरएसएस ने उस समय इंदिराजी को सहयोग देने के लिए तीनपत्र लिखे थे।आज संयोग से वे देश की केन्द्र सरकार चला रहे हैं उनका नायक पीएम है।
मोदी वही भाषा बोल रहे हैं जो आपातकाल लगाते समय श्रीमती इंदिरा गांधी बोल रही थी। वे भी कठोर फैसले लेने के लिए जानी जाती हैं ,मोदीजी भी सख्त हैं।
आपातकाल में सभी अरबपति इंदिरा के साथ थे, मोदी के साथ भी कारपोरेट घराने हैं।जनता पर नसबंदी , राजनीतिक कारणों से गिरफ्तारी के बहाने बेशुमार जुल्म किए गए।

मोदीजी ने नोटबंदी के बहाने जनता जनजीवन और शांति पर सीधे हमला किया है। यह संयोग है बिडला की एक कंपनी ने "एक्टिव एप "के नाम से फासिस्ट नजरिए का विज्ञापन जारी किया है। आपातकाल में १जुलाई१९७५ को घनश्याम दास बिडला के नेतृत्व में देश के सभी अमीरों ने दिल्ली में आपातकाल और बीस सूत्री कार्यक्रम के समर्थन में जुलूस निकाला था।

जनता ने आपातकाल में असीम धैर्य का परिचय दिया था,लेकिन मन में वह कांग्रेस से नफरत करने लगी,किसी को अंदाजा नहीं लगा कि जनता नाराज है। सारा सरकारी तंत्र पीएम को यही कह रहा था जनता आपके साथ है, लेकिन चुनाव होने पर कांग्रेस बुरी तरह हार गयी। ठीक वैसा ही माहौल इन दिनों है, मोदीजी की योजना है कि जनता भडक जाए तो फिर सीधे सेना की मदद लेकर कुचल दिया जाए, मोदीजी ने जिस दिन नोटनीति घोषित की उसी दिन तीनों सेनाध्यक्षों के साथ बैठक की। हमारा अनुमान है यह बैठक पाक के सीमापर हो रहे हमलों को लेकर नहीं हुई।

आपातकाल को अध्यादेश के जरिए लागू किया गया।नोटबंदी को भी सरकारी आदेश के जरिए लागू किया गया है।दोनों ही मामलों में संसद की अवहेलना की गयी।
हम जनता के विवेक और संयम पर भरोसा करते हैं ,किसी भी अवस्था में जनता को संयम और विवेक को छोडना नहीं चाहिए।जरूरत है मोदी सरकार और आरएसएस के प्रति नफरत को और भी गहरा बनाएं और वोट और शांतिपूर्ण प्रतिवाद के जरिए अपना मन वोट में व्यक्त करें।

धिक्कार है ! नोटबंदी राष्ट्रीय अपराध है !

      जिन लोगों को बाजार नजर न आए,बैंक में लाइन नजर न आए,सूना एटीएम नजर न आए,पाकिस्तान से आए आतंकी नजर न आएं,जनता का क्रोध नजर न आए,औरतों और किसानों की पैसे की तंगी से पैदा हुई तकलीफें नजर न आएं,दैनिक मजदूरों-असंगठित मजदूरों-ठेके पर काम करने वाले मजदूरों-बैंक कर्मचारियों की परेशानियां और मौतें नजर न आएं, आश्चर्य है वे लोग बता रहे हैं वे देश जानते हैं और देश तरक्की कर रहा है !

आम जनता के जमाधन को अचल करना राष्ट्रीय अपराध है औंर यह राष्ट्रीय अपराध किया है आरएसएस-मोदी सरकार ने।
भक्त तो अंततःभक्त हैं पोंदू खोलकर महान नेता के सामने आँखें बंद करके खड़े हैं,कह रहे हैं मार ले ,जितनी चाहे मार ले,महान नेता जितनी मारता है उतने ही खुश होते हैं ,महान नेता जितना तबाह करता है खुश होते है ,महान नेता जितने ज्यादा करेंट के झटके देतां है,उतना ही जोर से कहते हैं "आई लाइक इट", लोकतंत्र में ठेठ भाषा में इसे बाट लगाना कहते हैं,लोकतंत्र की बाट लगी पड़ी है और ये लोग भविष्य की बातें कर रहे हैं,पहले कह रहे थे,परिणाम एक दो दिन में देख लेना,फिर बोले सात दिन में,ये दोनों ही समय निकल गए,परिणाम नहीं दिखा,हां,कुपरिणाम जरूर सामने आ गए हैं।
9नवम्बर से देश की अर्थ व्यवस्था में अकेला बाजार प्रतिदिन 30हजार करोड़ रूपये का नुकसान उठा रहा है, बैंकों ने कितना नुकसान उठाया है वह भी इसमें जोड़ लिया जाए तो जितना कालाधन यह सरकार पकड़ेगी उससे ज्यादा की अब तक क्षति हो चुकी है।सारे लोग कह रहे हैं 5-7लाख करोड़ रूपये से ज्यादा का कालाधन हाथ नहीं लगेगा,लेकिन इतने का तो देश का नुकसान अब तक हो चुका है।इसके बाद भी यदि आप कह रहे हैं कि नोटबंदी सही नीति है तो हम तो यही कहेंगे कि आपसे बड़ा बैसाखनंदन अब देश में दूसरा नहीं है।कम से कम मोटा गणित का हिसाब ही लगा लिया होता तो ,समझ जाते कि देश को किस दिशा में ले जा रहे हो।
मोदी सरकार की नोटबंदी की नीति मूलतः फंडामेंटलिस्ट आर्थिक नीति है,इसको उपभोग और उपभोक्तावाद से सख्त नफरत है,वे लगातार इस पर हमले करते रहते हैं,मोदीजी ने फंडामेंटलिस्टों की नीतियों के अनुरूप नोटबंदी लागू करके समूचे उपभोक्ता बाजार को ही तबाह कर दिया है ,जिस तरह बाजार और नागरिक को तबाह करके फंडामेंटलिस्ट आनंद मनाते हैं ठीक वैसा ही आनंद मोदीपंथी फंडामेंटलिस्ट मना रहे हैं।ये वे लोग हैं जो इस देश के हिन्दुत्ववादी अभियान और हमारी शिक्षा व्यवस्था के तंत्र से निकले हैं।
जनता को बिजली के करेंट के झटके देकर अर्थनीति लागू करने का फार्मूला फंडामेंटलिस्टों की देन है इसका हमारे देश के संविधान,संसद से स्वीकृत नीतियों और उदारतावादी मूल्यों से गहरा बैर है।
खतरा बड़ा है तुम तय करो किस ओर हो ,नई नोटबंदी की नीति फंडामेटलिस्ट समाज बनाने की दिशा में उठाया गया बड़ा कदम है,इसके कारण आज समूचा लोकतंत्र खतरे में है।आपलोगों ने यदि जल्द ही विवेक से काम नहीं लिया तो तय है आगे और भी तकलीफें आने वाली हैं।

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