फिदेल कास्त्रो के बारे में यह सब जानते हैं कि वे क्रांतिकारी थे,मार्क्सवादी थे,लेकिन यह बहुत कम लोग जानते हैं कि फिदेल बेहतरीन धार्मिक समझ वाले व्यक्ति भी थे।फिदेल ने धर्म को लेकर जिस नजरिए को व्यक्त किया उससे बहुत कुछ सीखने की जरूरत है।यह सच है धर्म का जो रूप हम आज देखते हैं वह बहुत कुछ मूल रूप से भिन्न है।एक बेहतरीन मार्क्सवादी वह है जो धर्म को उसके सही रूप में समझे और धर्म की सही सामाजिक भूमिका पर जोर दे।
हमारे यहां राजसत्ता और उसके संचालक धर्म के प्रचलित रूपों के सामने समर्पण करके रहते हैं, धर्म की विकृतियों के खिलाफ कभी जनता को सचेत नहीं करते,धर्म की गलत मान्यताओं को कभी चुनौती नहीं देते हैं ,धर्म का अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए दुरूपयोग करते हैं और इसके लिए सर्वधर्म समभाव की संवैधानिक समझ की आड़ लेते हैं।संविधान की आड़ लेकर धर्म की ह्रासशील प्रवृत्तियों को संरक्षण देने के कारण ही आज हमारे समाज में धर्म,संत-महंत,पंडे,पुजारी,तांत्रिक ,ढोंगी आदि का समाज में तेजी से जनाधार बढ़ा है,इन लोगों के पास अकूत संपत्ति जमा हो गई है।इसके कारण समाज में अ-सामाजिकता बढ़ी है, लोकतंत्र विरोधी ताकतें मजबूत हुई हैं।
यह सच है हम पैदा होते हैं धर्मकी छाया में और सारी जिंदगी उसकी छाया में ही पड़े रहते हैं।धर्म की छाया में रहने की बजाय उसके बाहर निकलकर समाज की छाया में रहना ज्यादा सार्थक होता है। धर्म की छाया यानी झूठ की छाया । हम सारी जिंदगी झूठ के साथ शादी करके रहते हैं,झूठ में जीवन जीते हैं,झूठ से इस कदर घिरे रहते हैं कि सत्य की आवाज हमको बहुत मुश्किल से सुनाई देती है।झूठ के साथ रहते-रहते झूठ के अभ्यस्त हो जाते हैं और फिर झूठ को ही सच मानने लगते हैं। इसका परिणाम यह निकलता है कि सत्य से हम कोसों दूर चले जाते हैं।
धर्म पर बातें करते समय उसके मूल स्वरूप पर हमेशा बातें करने की जरूरत है।धर्म को झूठ से मुक्त करने की जरूरत है।धर्म को झूठ से मुक्त करने का अर्थ है धर्म को धार्मिक प्रपंचों से बाहर ले जाकर गरीब के मुक्ति प्रयासों से जोड़ना। इन दिनों धर्म को संतों-पंडितों ने अपहृत कर लिया है।अब हम धर्म के मूल स्वरूप और मूल भूमिका के बारे में एकदम नहीं जानते लेकिन उन तमाम किस्म की भूमिकाओं को जरूर जानते हैं जिनको कालांतर में धर्म के धंधेबाजों ने पैदा किया है। सवाल यह है धर्म यदि गरीब का संबल है तो राजनीति में धर्म को गरीबों की राजनीति से रणनीतिक तौर पर जुड़ना चाहिए।लेकिन होता उलटा है गरीबों की राजनीति करने वालों की बजाय धर्म और धार्मिक संस्थानों का अमीरों की राजनीति करने वालों की राजनीति से गहरा संबंध नजर आता है।
धर्म गरीब के दुखों की अभिव्यक्ति है।मार्क्सवाद भी गरीबों के दुखों की अभिव्यक्ति है।इसलिए धर्म और मार्क्सवाद में गहरा संबंध बनता है।लेकिन धर्म और मार्क्सवाद के मानने वालों में इसे लेकर विभ्रम सहज ही देख सकते हैं। फिदेल कास्त्रो इस प्रसंग में खासतौर पर उल्लेखनीय हैं। वे धर्म की व्याख्या करते हुए गरीब को मूलाधार बनाते हैं और कहते हैं कि ईसाईयत और मार्क्सवाद दोनों के मूल में है गरीब की हिमायत करना,गरीब की रक्षा करना,गरीब को गरीबी से मुक्त करना। इसलिए ईसाईयत और मार्क्सवाद में स्थायी रणनीतिक संबंध है।इसी आधार पर वे पुख्ता नैतिक,राजनैतिकऔर सामाजिक आधार का निर्माण करते हैं।
फिदेल के धर्म संबंधी नजरिए को अभिव्यंजित करने वाली शानदार किताब है ´फिदेल एंड रिलीजन´,यह किताब FREI BETTO ने लिखी है।इसमें फिदेल से उनकी 23घंटे तक चली बातचीत का विस्तृत लेखाजोखा है।यह किताब मूलतःक्यूबा और लैटिन अमेरिका में धर्म और मार्क्सवाद,धर्म और क्रांतिकारियों के अंतस्संबंधों पर विस्तार से रोशनी डालती है।इस बातचीत में फिदेल से 9 घंटे तक सिर्फ धर्म संबंधी सवालों को पूछा गया।धर्म और मार्क्सवाद के अन्तस्संबंध को समझने के लिए यह पुस्तक मददगार साबित हो सकती है।इस किताब को भारत में पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस ने 1987 में अंग्रेजी में छापा था। इस किताब में लिए गए इंटरव्यू कई बैठकों में संपन्न हुए।ये इंटरव्यू 1985 में लिए गए थे।ये किसी समाजवादी राष्ट्र राष्ट्राध्यक्ष के द्वारा धर्म पर दिए गए पहले विस्तृत साक्षात्कार हैं। आमतौर पर मार्क्सवादी शासकों ने धर्म पर इस तरह के इंटरव्यू नहीं दिए हैं।
हमारे यहां राजसत्ता और उसके संचालक धर्म के प्रचलित रूपों के सामने समर्पण करके रहते हैं, धर्म की विकृतियों के खिलाफ कभी जनता को सचेत नहीं करते,धर्म की गलत मान्यताओं को कभी चुनौती नहीं देते हैं ,धर्म का अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए दुरूपयोग करते हैं और इसके लिए सर्वधर्म समभाव की संवैधानिक समझ की आड़ लेते हैं।संविधान की आड़ लेकर धर्म की ह्रासशील प्रवृत्तियों को संरक्षण देने के कारण ही आज हमारे समाज में धर्म,संत-महंत,पंडे,पुजारी,तांत्रिक ,ढोंगी आदि का समाज में तेजी से जनाधार बढ़ा है,इन लोगों के पास अकूत संपत्ति जमा हो गई है।इसके कारण समाज में अ-सामाजिकता बढ़ी है, लोकतंत्र विरोधी ताकतें मजबूत हुई हैं।
यह सच है हम पैदा होते हैं धर्मकी छाया में और सारी जिंदगी उसकी छाया में ही पड़े रहते हैं।धर्म की छाया में रहने की बजाय उसके बाहर निकलकर समाज की छाया में रहना ज्यादा सार्थक होता है। धर्म की छाया यानी झूठ की छाया । हम सारी जिंदगी झूठ के साथ शादी करके रहते हैं,झूठ में जीवन जीते हैं,झूठ से इस कदर घिरे रहते हैं कि सत्य की आवाज हमको बहुत मुश्किल से सुनाई देती है।झूठ के साथ रहते-रहते झूठ के अभ्यस्त हो जाते हैं और फिर झूठ को ही सच मानने लगते हैं। इसका परिणाम यह निकलता है कि सत्य से हम कोसों दूर चले जाते हैं।
धर्म पर बातें करते समय उसके मूल स्वरूप पर हमेशा बातें करने की जरूरत है।धर्म को झूठ से मुक्त करने की जरूरत है।धर्म को झूठ से मुक्त करने का अर्थ है धर्म को धार्मिक प्रपंचों से बाहर ले जाकर गरीब के मुक्ति प्रयासों से जोड़ना। इन दिनों धर्म को संतों-पंडितों ने अपहृत कर लिया है।अब हम धर्म के मूल स्वरूप और मूल भूमिका के बारे में एकदम नहीं जानते लेकिन उन तमाम किस्म की भूमिकाओं को जरूर जानते हैं जिनको कालांतर में धर्म के धंधेबाजों ने पैदा किया है। सवाल यह है धर्म यदि गरीब का संबल है तो राजनीति में धर्म को गरीबों की राजनीति से रणनीतिक तौर पर जुड़ना चाहिए।लेकिन होता उलटा है गरीबों की राजनीति करने वालों की बजाय धर्म और धार्मिक संस्थानों का अमीरों की राजनीति करने वालों की राजनीति से गहरा संबंध नजर आता है।
धर्म गरीब के दुखों की अभिव्यक्ति है।मार्क्सवाद भी गरीबों के दुखों की अभिव्यक्ति है।इसलिए धर्म और मार्क्सवाद में गहरा संबंध बनता है।लेकिन धर्म और मार्क्सवाद के मानने वालों में इसे लेकर विभ्रम सहज ही देख सकते हैं। फिदेल कास्त्रो इस प्रसंग में खासतौर पर उल्लेखनीय हैं। वे धर्म की व्याख्या करते हुए गरीब को मूलाधार बनाते हैं और कहते हैं कि ईसाईयत और मार्क्सवाद दोनों के मूल में है गरीब की हिमायत करना,गरीब की रक्षा करना,गरीब को गरीबी से मुक्त करना। इसलिए ईसाईयत और मार्क्सवाद में स्थायी रणनीतिक संबंध है।इसी आधार पर वे पुख्ता नैतिक,राजनैतिकऔर सामाजिक आधार का निर्माण करते हैं।
फिदेल के धर्म संबंधी नजरिए को अभिव्यंजित करने वाली शानदार किताब है ´फिदेल एंड रिलीजन´,यह किताब FREI BETTO ने लिखी है।इसमें फिदेल से उनकी 23घंटे तक चली बातचीत का विस्तृत लेखाजोखा है।यह किताब मूलतःक्यूबा और लैटिन अमेरिका में धर्म और मार्क्सवाद,धर्म और क्रांतिकारियों के अंतस्संबंधों पर विस्तार से रोशनी डालती है।इस बातचीत में फिदेल से 9 घंटे तक सिर्फ धर्म संबंधी सवालों को पूछा गया।धर्म और मार्क्सवाद के अन्तस्संबंध को समझने के लिए यह पुस्तक मददगार साबित हो सकती है।इस किताब को भारत में पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस ने 1987 में अंग्रेजी में छापा था। इस किताब में लिए गए इंटरव्यू कई बैठकों में संपन्न हुए।ये इंटरव्यू 1985 में लिए गए थे।ये किसी समाजवादी राष्ट्र राष्ट्राध्यक्ष के द्वारा धर्म पर दिए गए पहले विस्तृत साक्षात्कार हैं। आमतौर पर मार्क्सवादी शासकों ने धर्म पर इस तरह के इंटरव्यू नहीं दिए हैं।
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