रविवार, 29 नवंबर 2015

आम्बेडकर ने दूसरी शादी क्यों की ?




भारत के संविधान की कच्ची रुपरेखा तैयार करने के बाद बाबासाहब भीमराव आम्बेडकर की तबियत अचानक खराब हो गयी,वे लंबे समय से विश्राम की जरुरत महसूस कर रहे थे लेकिन उनको विश्राम नहीं मिल रहा था।उस समय इलाज के लिए वे बम्बई आए।बुढ़ापे में अपनी देखभाल करने के लिए उनको साथी चाहिए था।जिस अस्पताल में वे इलाज के लिए गए वहां पर कुमारी शारदा कबीर नाम की  महिला काम कर रही थी। उनका व्यवहार और बातचीत आम्बेडकर को पसंद आए और उन्होंने आपसी सहमति से शादी का फैसला ले लिया।

आम्बेडकर को अगस्त1947 से उनको नींद आनी बंद हो गयी थी।एक पत्र में उन्होने लिखा कि उनको 15दिनों से नींद नहीं आ रही।उन पर किसी औषधि का असर नहीं हो रहा। उसी पीड़ा के दौरान उन्होंने सहयोगी के रुप में शारदा कबीर से दूसरी शादी का निर्णय लिय़ा था। अपने मित्र कमलाकांत और भाऊराव गायकवाड को पत्र लिखकर अपने फैसले से अवगत कराया।भाऊराव गायकवाड़ को लिखे पत्र में उन्होंने लिखा “पहली पत्नी के निधन के उपरान्त पुनःविवाह न करने का मैंने निर्णय किया था। किन्तु अब दूसरा विवाह करने का मैंने निर्णय किया है।जो सुगृहिणी होकर वैद्यकशास्त्र में प्रवीण है,ऐसी पत्नी की मुझे जरुरत है।दलित समाज में ऐसी स्त्री मिलना असंभव होने से मैंने सारस्वत महिला को चुना है।” आम्बेडकर के इस फैसले से उनका एक मित्र परेशान था और उसने उनके बेटे यशवन्त और शारदा कबीर में झगड़ा लगाने की काफी कोशिश की। इस झगड़े के आगे बढ़ने के पहले ही आम्बेडकर ने 15अप्रैल1948 को विवाह करने का फैसला किया।उस समय उन्होंने बेटे को 80हजार रुपये कीमत का एक मकान और नकद 30हजार रुपये दिए।जिससे वह आराम से जीवनयापन कर सके।आम्बेडकर ने जब दूसरा विवाह किया तो वे दो दिन पहले ही 56साल पूरे करके 57वें वर्ष में दाखिल हुए थे.विवाह के उपलक्ष में दोपहर को प्रीतिभोज भी दिया गया।यह शादी दिल्ली के हार्डिज एवेन्यू स्थित उनके निवास पर सम्पन्न हुई।

आम्बेडकर की पत्नी निष्ठा -

  

   आम्बेडकर की पहली शादी के बारे में धनंजय कीर ने लिखा है “शादी के समय भीमराव की आयु सत्रह वर्ष की थी।लड़की की आयु नौ वर्ष की थी।लड़की का ससुराल का नाम रमाबाई रखा गया।लड़की उम्र में छोटी लेकिन स्वभाव से शांत और सुस्वभावी थी।वह गरीब लेकिन सदाचारी घराने की थी।वह अपने पिता की कनिष्ठ लड़की थी। उसके पिता का नाम भिकू धत्रे था।दाभोल के समीप स्थित वनंद गाँव का वह निवासी था। वह दाभोल बंदरगाह में कुली का काम करता था। लड़की के बचपन में ही माँ-बाप चल बसे थे। उसका और उसके भाई-बहनों का पालन-पोषण उनकी चाची और मामा ने किया था।” रमाबाई स्वभाव से सहृदय और कर्तव्यदक्ष थी।वे लंबे समय तक बीमार रहीं और लंबी बीमारी के बाद उनका 27मई1935 को निधन हो गया।
     धनंजय कीर ने लिखा है कि पत्नी के स्वास्थ्य में सुधार हो इसलिए बाबासाहब ने काफी प्रयास किए,लेकिन उनको कोई दवा नहीं लगी। “ वैवाहिक जीवन के प्रारंभिक समय में उन पर भुखमरी,शारीरिक कष्ट,दुःख और दरिद्रता की जो घटनाएं गुजरी थीं,उनका मुकाबला उन्होंने अपने जन्मजात मनोबल से किया”, “जीवन का अधिकतर समय उस साध्वी ने असह्य दरिद्रता ,पति की सुरक्षा के बारे में लगने वाली चिंता में व्यतीत किया था।इसके लिए उस देवी ने उपवास,तप,जप,और अनुष्ठान किए थे।शनिवार को तो वे पूरी तरह से निराहार रहती थीं।सिर्फ पानी और उड़द की दाल पर निर्वास कर वे ईश्वर की आराधना करती थीं।वे पूनम के दिन उपवास करती थीं।अपने पतिराज पर ईश्वर का वरदहस्त रहे,इसलिए वे हमेशा प्रार्थना करती रहती थीं।” रमाबाई की मृत्यु ने आम्बेडकर को अंदर तक दुखी किया। आम्बेडकर अपनी पत्नी के विचारों,धार्मिक भावनाओं और आस्थाओं को पूरा सम्मान देते थे। उनकी मृत्यु पर उन्होंने बाकायदा हिंदू पद्धति के अनुसार उनका अंतिम संस्कार करवाया।उनके बचपन के दोस्त थे शंभू मोरे ,वे महार उपाध्याय थे,उन्होंने हिन्दू रीति से अंतिम संस्कार कराया। पत्नी का अंतिम  संस्कार कराने के लिए बाबासाहब ने मुंडन कराया, भगवा कफनी पहनी । बाबासाहब अपनी पत्नी की मृत्यु से बेहद दुखी हुए थे और श्मशान से लौटकर घर पर एक सप्ताह तक फूट-फूटकर रोए थे।

   बाबासाहब ने पत्नी के मृत्यु से तकरीबन सात साल पहले “बहिष्कृत भारत” में लिखा, “प्रस्तुत लेखक जब विदेश में था,तब रात-दिन जिसने परिवार की देखभाल की और जिसे वह अब भी करनी पड़ती है तथा उसके स्वदेश आने पर उसकी विपन्न दशा में गोबर का बोझ खुद के माथे पर रखकर लाने का काम करने के लिए जिसने आगे पीछे नहीं देखा,उस अत्यंत ममत्व प्रधान ,सुशील,और पूज्य स्त्री के साथ दिन के 24 घंटों में से आधा घंटा भी वह बिता नहीं सका।” 

धर्मनिरपेक्षता,धर्म की स्वतंत्रता और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र


           
संसद में इन दिनों भीमराव आम्बेडकर के 125वें जन्मदिन के मौके पर दो दिवसीय बहस हो रही है, इस बहस ने संविधान के सवालों को नए सिरे उठा दिया है।खासकर “धर्मनिरपेक्षता” के सवाल को प्रमुख सवाल बनाकर खड़ा कर दिया है। सत्ताधारी भाजपा को “धर्मनिरपेक्षता” को लेकर पहले से आपत्तियां थीं,लेकिन पहले वे कभी-कभार बोलते थे, लेकिन मोदी सरकार बनने के बाद वे बार-बार “सेकुलर” शब्द पर आपत्ति कर रहे हैं,उसके खिलाफ घृणा अभियान चलाए हुए हैं, लोकसभा चुनाव में प्रचार अभियान के दौरान उन्होंने सबसे घटिया ढ़ंग से “धर्मनिरपेक्षता” पर हमला किया।

हाल ही में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने संसद में भीमराव आम्बेडकर के 125वें जन्मदिन के मौके पर संसद में चल रही बहस में भी “धर्मनिरपेक्षता” को निशाना बनाया, प्रधानमंत्री तो” सेकुलर “ शब्द का इस्तेमाल ही नहीं करते। यही वह संदर्भ है जिसमें संविधान निर्माण के समय “धर्मनिरपेक्षता” पर चली बहस के कुछ पहलुओं का नए सिरे से मूल्यांकन करना बेहद जरुरी है।संविधान के प्रति प्रतिबद्धता जताने के लिए केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा है “देश में 'सेक्युलर' शब्द का सबसे ज़्यादा दुरुपयोग हुआ है और इसे बंद किया जाना चाहिए.” उन्होंने यह भी कहा कि 42वें संविधान संशोधन के जरिए आपातकाल में संविधान के प्रियम्बुल में धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद को जोड़ा गया। राजनाथ सिंह के बयान में कई मसले निहित हैं। इस प्रसंग में पहली बात यह कि 42वें संविधान संशोधन के सभी काले कानूनों को 44वें संविधान संशोधन के जरिए हमेशा के दफ्न कर दिया गया,उस समय जनता पार्टी की सरकार थी।वह आपातकाल विरोध की आंधी पर सवार होकर आई थी, लेकिन संविधान की प्रस्तावना से “धर्मनिरपेक्षता” और “समाजवाद” को नहीं निकाला गया। क्योंकि ये दोनों धारणाएं प्रासंगिक,संवैधानिक और वैध हैं। संविधान का क ख ग जानने वाला व्यक्ति भी इस तथ्य को जानता है,इसके बावजूद आरएसएस और उनकी भजनमंडली “धर्मनरपेक्षता” और “समाजवाद” के खिलाफ विषवमन करती रही है। लोकतंत्र,धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद हासिल करना हमारे संविधान का मूल लक्ष्य है। इस लक्ष्य से देश को विचलित नहीं किया जा सकता। अब थोड़ा उस पहलू पर विचार करें जो संघियों को परेशान किए हुए हैं।

“धर्मनिरपेक्षता” के प्रसंग में स्व. प्रोफेसर के.टी शाह का जिक्र करना जरुरी है। वे संविधान सभा परिषद के सदस्य थे. उन्होंने दो बार यह कोशिश की थी कि संविधान में “सेकुलर” पदबंध को बुनियादी अधिकारों में शामिल कर लिया जाय, लेकिन उनको सफलता नहीं। अपने दूसरे प्रयास में उनके द्वारा प्रस्तुत संशोधन पर संविधान परिषद में विचार जरुर हुआ, उनके द्वारा प्रस्तावित संशोधन था “ The state in India being secular shall have no concern with any religion ,creed or profession of faith.” शाह का मानना था कि देश में साम्प्रदायिक ताकतें सिर उठा रही हैं और उनके कारण देश को भयानक त्रासदी झेलनी पड़ रही है ऐसी स्थिति में संविधान में राज्य के धर्मनिरपेक्ष चरित्र के बारे में स्पष्ट ढ़ंग से जरुर लिखा जाना चाहिए. यह अफसोस की बात है कि कानूनमंत्री को उनका संशोधन मान्य नहीं था और उनका संविधान संशोधन परिषद ने खारिज कर दिया।

हाल ही में राजनाथ सिंह एंड कंपनी ने जो बहस आरंभ की है और उसके पहले से संघ के लोग सवाल खड़े करते रहे हैं कि वे भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य नहीं मानते। वे तो हिन्दूराष्ट्र मानते रहे हैं।असल में भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को परिभाषित करने के लिए जरुरी है कि संविधान में वर्णित धर्म की स्वतंत्रता, नागरिकता और राज्य और धर्म के अन्तस्संबंध से जुड़े सवालों नए सिरे से विचार करें।

हमारा संविधान व्यक्ति और समुदाय दोनों ही स्तरों पर धर्म की स्वतंत्रता को सुनिश्चित बनाता है। धर्म की साझा आस्थाओं, रीतियों, और अनुशासनों को स्वतंत्रता देता है। मजेदार बात है कि धर्म की स्वंत्रता मात्र व्यक्ति तक सीमित नहीं है,बल्कि “ सभी व्यक्तियों” तक इसका विस्तार किया गया है। यानी भारत में देश के बाहर से आकर रहने वालों को भी धर्म की स्वतंत्रता है। यही वजह है कि भारत के बाहर से आए ईसाई संत और मिशनरियों को भी धर्म की स्वतंत्रता का संवैधानिक लाभ मिलता है। धर्म की स्वतंत्रता का संविधान में प्रावधान असल में कांग्रेस के 1931 के करांची अधिवेशन में पारित मूलभूत अधिकार संबंधी प्रस्ताव से सीधे लिया गया है,यहां तक कि दोनों की भाषा में भी समानता है। उस समय अनेक हिन्दुत्व समर्थकों ने धर्म के प्रचार की स्वतंत्रता का यह कहकर विरोध किया था कि ईसाई मिशनरियों के द्वारा इसका दुरुपयोग हो सकता है।वे इसके बहाने धर्मान्तरण कर सकते हैं। उनके इन सब तर्कों को संविधान सभा ने नहीं माना।

धर्म की स्वतंत्रता में धर्मचेतना का प्रचार प्रसार शामिल है। लेकिन संविधान निर्माताओं ने इसमें एक राज्य का नियंत्रण भी लगाया ,मसलन्, यदि धर्म के प्रचार से कानून-व्यवस्था में बाधाएं खड़ी हों,नैतिक और स्वास्थ्य संबंधी गड़बड़ी पैदा हो तो धर्म के प्रचार को राज्य रोक सकता है।इसी क्रम में बताया गया कि धार्मिक प्रचार नियमन के दायरे में आता है।जबकि धर्मचेतना के बारे में राज्य को व्यक्ति के जीवन में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार संविधान नहीं देता। इस प्रसंग में राज्य की भूमिका सामाजिक जीवन को सामान्य बनाए रखने की है। लेकिन धर्मचेतना के बारे में व्यक्ति के अधिकार एकदम सुरक्षित माने गए हैं,उसमें राज्य हस्तक्षेप नहीं कर सकता। इसी तरह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 295-98 में धर्म संबंधी अनेक अपराधों का जिक्र किया गया है ।

संविधान के प्रसंग में यह सवाल भी उठा कि “धर्म” क्या है ? इसे कौन परिभाषित करेगा ? संविधान के अनुच्छेद 25(1) में इसे परिभाषित किया गया है । सवाल यह है धर्म को व्यक्ति,धार्मिक संस्था और राज्य कौन परिभाषित करेगा ? इस धारा के प्रसंग में दर्जनों अदालती फैसले आ चुके हैं और न्यायालय संविधान सम्मत निर्देशों के पालन पर अनेकबार राजसत्ता को निर्देश दे चुका है। न्यायालयों ने आम्बेडकर की धारणाओं में भी संशोधन किए हैं। आम्बेडकर ने पर्सनल लॉ के प्रसंग में संविधान सभा में बहस में बोलते हुए कहा था कि हमारे देश में धर्म की अवधारणा जन्म से मृत्यु पर्यन्त फैली हुई है।यहां कोई चीज ऐसी नहीं है जिसे धर्म न कहते हों,हमें यदि पर्सनल लॉ की रक्षा करनी है तो सामाजिक विषयों पर इस गतिरोध से निकलना होगा।यहां संस्कार और आस्था धर्म में गिने जाते हैं,अतः धार्मिक संस्कार-उत्सव तक तो यह ठीक है, लेकिन उत्तराधिकार, संपत्ति के अधिकार आदि में धार्मिक मान्यताओं के अनुसार व्यापक अधिकार नहीं दिए जा सकते। यही वजह है कि आम्बेडकर ने धार्मिक संस्कारों और समारोहों को तो धर्म के दायरे में रखा।

मनुष्य की अनेक धार्मिक गतिविधियां धर्मनिरपेक्ष गतिविधि के दायरे में आती हैं,यह भी हो सकता है कि धर्म के धर्मनिरपेक्ष आयाम भी हों,ऐसी स्थिति में धर्मनिरपेक्ष धार्मिक गतिविधियों को धर्म का अंग नहीं माना जाना चाहिए। यही बात आस्था और विश्वास के साथ जुड़े सवालों पर भी लागू होती है। संविधान इस मामले में एकदम साफ है कि नागरिक के आस्था और विश्वासों को धार्मिक संस्थाएं नियमित और नियंत्रित नहीं कर सकतीं। पूजा-अर्चना,खानपान और पहनावे के मामले में धार्मिक मान्यताओं को संविधान मानता है लेकिन अन्य मामलों में नहीं।मसलन्,मंदिर में पूजा कैसे होगी,क्या प्रसाद चढ़ाया जाएगा,मंदिर में क्या पहनकर जाएं ,मंदिर में पुजारी किस तरह के वस्त्र पहनेगा,मंदिर कब खुलेगा,कब बंद होगा,मंदिर में उत्सव कब मनाए जाएंगे,भगवान क्या पहनेंगे और कैसे पहनेंगे , कौन से मंत्र पढ़े जाएंगे आदि चीजों का फैसला संबंधित धार्मिक संस्था करेगी,उसमें राज्य दखल नहीं देगा,न्यायालय भी दखल नहीं देगा। लेकिन किसी व्यक्ति के नागरिक अधिकार क्या होंगे यह धर्म तय नहीं करेगा।

उल्लेखनीय है धर्म के दायरे में क्या आता है इसका दायरा संविधान बनाने के बाद से अदालतों की व्याख्याओं के बाद बढ़ा है। यह भी ध्यान रहे कि संविधान धर्म की स्वतंत्रता देता है तो संविधान के अनुच्छेद धारा25(2) के तहत राजसत्ता को धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप का अधिकार भी है। इस प्रावधान के तहत ही कई मामलों में मंदिर प्रबंधन आदि के अधिकार राजसत्ता ने अपने हाथ में ले लिए । इसी के आधार पर बड़े पैमाने पर हिन्दू पर्सनल लॉ (शादी,तलाक,गोद लेने का कानू,उत्तराधिकार आदि) में परिवर्तन किए गए। संविधान के अनुच्छेद 25(2) के तहत राजसत्ता को समाजसुधार से संबंधित कानून बनाने का अधिकार भी है। इसके आधार पर ही हिन्दुओं में बहुपत्नीप्रथा समाप्ति के लिए कानून बनाया।जबकि हिन्दूधर्म के अनुसार बहुपत्नी प्रथा वैध थी। मंदिर में हरिजन प्रवेश को वैधता दी गयी।अछूत परंपराओं के खिलाफ कानून बनाए गए।जबकि हिन्दू धर्म में हरिजनों का मंदिर प्रवेश निषिद्ध था,अछूत प्रथा वैध थी।हिन्दुओं के पर्सनल लॉ में लाए गए सुधारों ने सबके लिए समान नागरिक अधिकारों की मांग का बहुत बड़ा आधार निर्मित किया है।

संविधान के तहत राजसत्ता के पास धार्मिक संस्थानों के वित्तीय क्षेत्र को नियंत्रित करने का हक भी है। उल्लेखनीय है मध्यकाल में अनेक राज्यों में राजाओं का मंदिरों के वित्तीय क्षेत्र पर नियंत्रण और स्वामित्व था।



धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का एक छोर धर्म की स्वतंत्रता से जुड़ा है तो दूसरा छोर नागरिकों के अधिकारों और नागरिकता की अवधारणा से जुड़ा है। हमारा संविधान व्यक्ति को आधारभूत सामाजिक इकाई मानकर नागरिकता पर विचार करता है, वह समूह या समुदाय को आधारभूत यूनिट मानकर विचार नहीं करता। हमारे यहां नागरिक का आधार व्यक्ति है,समूह,जाति या समुदाय या धर्म नहीं है। राज्य ने संविधान के तहत व्यक्ति के अधिकारों और जिम्मेदारियों दोनों का खुलासा किया है।इसे हम व्यक्ति और राजसत्ता के अन्तस्संबंध के रुप में देख सकते हैं।

शनिवार, 28 नवंबर 2015

वर्चुअल नायक की औसत वाणी



   
आज मैं यू-ट्यूब के कारण पीएम नरेन्द्र मोदी का संसद में कल दिया गया भाषण सुन पाया। उदयप्रकाश जैसे प्रखर लेखक की राय उनके भाषण की प्रशंसा में पढ़ चुका था इसलिए और भी उत्सुकता थी कि आखिर मोदी ने ऐसा क्या कहा जिसने उदयप्रकाश जैसे लेखक को प्रभावित कर लिया,मुग्ध कर लिया। पहली बात यह कि पीएम मोदी को अपने भाषण में कांग्रेस और उसके नेताओं की भूमिका का नाम लेकर जिक्र करने से परेशानी हो रही थी,उन्होंने अपनी संघी परंपरा का निर्वाह करते हुए संविधान निर्माण में एक भी बार पंडित नेहरु या कांग्रेस पार्टी का नामोल्लेख तक नहीं किया।

पीएम मोदी के लिए संविधान का असल में क्या अर्थ है यह तो वे ही जानें लेकिन यदि उनके कल के भाषण में जो कहा गया है वह यदि संविधान का अर्थ है तो हम विनम्रतापूर्वक कहना चाहते हैं कि पीएम ने हमें निराश किया है।वे संविधान के मर्म को समझ नहीं पाए हैं,दूसरी बात यह कि जिस व्यक्ति ने भी पीएम का भाषण लिखा था उसे कम से कम अच्छा भाषण लिखना नहीं आता।

पीएम मोदी ने अपने भाषण में “सरलीकरण” और “सामूहिकीकरण” के भाषिक पदबंधों का असल मंतव्य पर पर्दा डालने के लिए कौशलपूर्ण ढ़ंग से इस्तेमाल किया। जैसे “राष्ट्र के महापुरुष” ,”सबने अपनी भावना प्रकट की”,”मैं भी अपनी भावना प्रकट कर रहा हूँ”,,”संविधान की पवित्रता”, “संविधान की सर्वोच्चता”,”, कईयों की तपस्या”,”संविधान की शक्ति”,”गौरवगान”,”उत्तम संविधान”,”संविधान के मूल्य”,”संविधान सदन तक सीमित न रह जाय” आदि। जिन लोगों को उद्धृत किया और नाम लिया ,वे हैं, आम्बेडकर,ग्रेन विले आस्टीन, राधाकृष्णन, गजेन्द्र गडकर, सच्चिदानंद सिंह,अटल बिहारी बाजपेयी,एक सांसद, राजा राममोहन राय,ईश्वरचन्द्र विद्यासागर,राममनोहर लोहिया और उनके बहाने पंडित नेहरु,राजेन्द्र प्रसाद, महात्मा गांधी और अंत में संस्कृत की उन पंक्तियों और नारों का जिक्र किया जो कई सालों से सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों और संस्थाओं के प्रतीक के रुप में प्रचलन में हैं।भक्ति आंदोलन से लेकर नवजागरण तक का जिक्र किया लेकिन बहुत सारे लोगों को वे अपनी सुविधा और विचारधारात्मक सीमाओं के कारण छोड़ते चले गए।

मोदी के अनुसार संविधान का नया अर्थ- “डिग्नी फॉर इण्डियन, यूनिटी फॉर इण्डिया,” सरकार का एक धर्म “इण्डिया फर्स्ट”, भारत का संविधान प्रथम। इस समूची प्रस्तुति को देखकर आपको आभास ही नहीं होगा कि भारत के संविधान का धर्मनिरपेक्षता,लोकतंत्र और समाजवाद के लक्ष्यों से कोई संबंध है। समूचे भाषण में एक बार “पंथ-निरपेक्षता” पदबंध का पीएम ने इस्तेमाल किया। संक्षेप में कहें तो यह संविधान की नए सिरे से सौगंध लेने के बहाने संविधान से आँखें चुराने वाली बातें ज्यादा नजर आईं। पीएम ने यह बात जरुर कही कि उनकी सरकार संविधान बदलने के बारे में नहीं सोच रही,आरक्षण खत्म करने के बारे में नहीं सोच रही । लेकिन वे आर्थिक विकास की सुस्तदशा,अभिव्यक्ति की आजादी पर हो रहे हमलों आदि पर चुप रहे।

“अंत में आइडिया ऑफ इण्डिया” का जिक्र करते हुए पीएम मोदी ने जल्दी-जल्दी चक्की चलाते हुए संस्कृत पंक्तियों की ताबड़तोड़ वर्षा कर दी,इस क्रम में वे भूल ही गए कि वे जिन पंक्तियों को वे बोल रहे हैं उनका अर्थ क्या है ? उनका संदर्भ क्या है ? कम से कम रुककर उनके हिन्दी में अर्थ ही बता देते,वे र्थ क्यों नहीं बोल पाए हम समझने में असमर्थ हैं ! मोदी द्वारा उद्धृत संस्कृत की अनेक पंक्तियां सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों और कंपनियों के “मोटो” में हैं !

पीएम मोदी ने आम्बेडकर के साथ मनमाना व्यवहार करते हुए जो कहा है उससे आगे निकलकर हम देखें कि 25नवम्बर 1949 को आम्बेडकर ने क्या था । पता नहीं क्यों सोनिया गांधी और पीएम मोदी दोनों ने आम्बेडकर के व्यक्तिपूजा के खिलाफ कहे कथन का जिक्र करना जरुरी नहीं समझा,क्योंकि इन दोनों नेताओं में व्यक्तिपूजा के कु-संस्कार कूट-कूटकर भरे हुए हैं। इन दोनों नेताओं की मनोदशा को व्यक्तिपूजा पसंद है। दिलचस्प बात है कि दोनों ने एक ही उद्धरण पेश किया।पेश करने का तरीका अलग-अलग था।

अपने इसी भाषण में व्यक्तिपूजा के बारे में आम्बेडकर ने कहा-" जिन महान व्यक्तियों ने आजीवन राष्ट्र की सेवा की,उनके प्रति कृतग्यता रखने में कोई हर्ज़ नहीं।किंतु उस कृतग्यता की भी कुछ सीमा होती है।आयरिश देशभक्त ओकानेल के कथन के अनुसार अपनी आत्मप्रतिष्ठा की बलि देकर कोई भी पुरुष कृतग्य नहीं रह सकता; कोई भी नारी अपना सतीत्व भंग करवाकर कृतग्य नहीं रह सकती; और अपनी अपनी स्वतंत्रता की बलि देकर कोई भी राष्ट्र कृतग्य नहीं रह सकता।अन्य किसी भी देश की अपेक्खा भारत में यह सावधानी बरतना अत्यंत आवश्यक है; क्योंकि भारत की राजनीति में व्यक्तिपूजा का इतना जबर्दस्त असर पड़ता है कि वैसा असर विश्व के किसी भी अन्य देश की राजनीति पर नहीं पड़ता। हो सकता है,धर्म में भक्ति आत्मा की मुक्ति का मार्ग दिखा सकती हो,किन्तु राजनीति में भक्ति या व्यक्तिपूजा अधोगति का या अन्त में तानाशाही का निश्चित मार्ग है,यह ध्यान में रखें।"

आम्बेडकर ने अपने भाषण में संविधान लिखने में मदद करने वाले संविधान लेखकों के नामों का जिक्र किया है। संविधान के बारे में बोलते हुए आम्बेडकर ने कहा “ संविधान में बुने गए तत्व विद्यमान पीढ़ी के मत हैं। और मेरा यह विधान शायद अतिरंजित लगे,तो यह स्वीकार किया जाए कि यह मत सदन का है। संविधान कितना भी अच्छा या बुरा हो,तोभी वह अच्छा है या बुरा है, यह आखिरकार में राज्यकर्ताओं के संविधान के इस्तेमाल करने पर ही निर्भर होगा। ” आम्बेडकर ने यह भी कहा “ लोगों को पहली बात यह करनी चाहिए कि अपने सामाजिक और आर्थिक उद्देश्य सफल बनाते समय संविधानात्मक साधनों का मार्ग स्वीकार करना चाहिए। असहयोग,कानूनभंग और सत्याग्रह के मार्ग छोड़ दें;क्योंकि संविधानबाह्य मार्ग यानी केवल अराजकता का व्याकरण है।” दिलचस्प बात यह है मोदी ने आज उपरोक्त बातों का अपने भाषण में जिक्र किया,इसमें पहले वाले उद्धरण का मोदी और सोनिया दोनों ने जिक्र किया लेकिन व्यक्तिपूजा की बात को छोड़ दिया।



आम्बेडकर ने अपने भाषण में सबसे महत्वपूर्ण यह कही ,जिसका मोदी-सोनिया ने जिक्र ही नहीं किया,यह बात हम सबके लिए आज भी प्रासंगिक है,आम्बेडकर ने कहा, “भारतीय लोकतंत्र की रक्षा करते समय भारतीयों को तीसरी बात यह करनी चाहिए कि वे राजनीतिक लोकतंत्र से संतुष्ट न रहें।उनको राजनीतिक लोकतंत्र का सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र में रुपान्तरण करना चाहिए।अगर राजनीतिक लोकतंत्र सामाजिक लोकतंत्र पर अधिष्ठित नहीं किया गया ,तो वह टिक ही नहीं सकता; क्योंकि सामाजिक लोकतंत्र स्वतंत्रता,समता और बंधुभाव को जीवन के तत्वों के रुप में पहचानता है।स्वतंत्रता,समता और बंधुभाव एक अखण्ड और अभंग त्रिमूर्ति है। अगर सामाजिक समता न होगी तो स्वतंत्रता का अर्थ मुट्ठीभर लोगोंका आम जनता पर राज्य करना होगा।अगर समता स्वतंत्रताविरहित होगी,तो व्यक्ति के जीवन की स्वयंप्रेरणा नष्ट करेगी।अगर बंधुभाव न होगा तो स्वतंत्रता और समता की वृद्धि सहजता से नहीं होगी।भारतीय जनता को एक बात स्वीकार करनी चाहिए कि भारतीय समाज में दो बातों का अभाव है।ये दो बातें हैं- सामाजिक समता और आर्थिकसमता।” अपने आवेशपूर्ण भाषण में आम्बेडकर ने यह भी कहा “ 26जनवरी1950 को हमें राजनीतिक समता प्राप्त होगी। किन्तु सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता रहेगी। अगर यह विसंगति यथासंभव दूर करने का प्रयास हमने नहीं किया,तो विषमता की आँच लगी हुई है,वे लोग संविधान समिति द्वारा बड़े परिश्रम से बनाए इस राजनीतिक लोकतंत्र की मीनार मिट्टी में मिलाए बिना नहीं रहेंगे।” अपने इसी भाषण में आम्बेडकर ने जातिभेद पर हमला किया था। अफसोस की बात है इस पहलू की ओर पीएम मोदी का ध्यान ही नहीं गया। आम्बेडकर ने 40 मिनट तक अपना भाषण दिया था। संविधान समिति ने 26 नवम्बर को संविधान स्वीकार किया था,इसलिए इस तिथि का महत्व है । आम्बेडकर ने अपने बिगड़े हुए स्वास्थ्य की अवस्था में संविधान निर्माण के काम को पूरा किया था। संविधान का मसौदा किस अवस्था में तैयार हुआ इस पर 5नवम्बर1948 को संविधान समिति के सदस्य टी.टी.कृष्णमाचारी ने संविधान समिति के सामने जो कहा वह बेहद महत्वपूर्ण है,उन्होंने कहा, “ सदन को शायद यह मालूम हुआ होगा कि आपके चुने हुए सात सदस्यों में से एक ने इस्तीफा दे दिया उसकी जगह रिक्त ही रही।एक सदस्य की मृत्यु हुई।उसकी जगह भी रिक्त ही रही।एक अमेरिका गए,उनकी जगह भी वैसे ही खाली पड़ी रही।चौथे सदस्य रियासत संबंधी कामकाज में व्यस्त रहे।इसलिए वे सदस्य होकर भी नहीं के बराबर थे।दो-एक सदस्य दिल्ली से दूरी पर थे।उनका स्वास्थ्य बिगड़ने से वे भी उपस्थित न हो सके।आखिर यह हुआ कि संविधान बनाने का सारा बोझ अकेले डॉ.आम्बेडकर पर ही पड़ा।इस स्थिति में उन्होंने जिस पद्धति से वह काम पूरा किया, उसके लिए हम उनके हमेशा ऋणी रहेंगे।” संविधान समिति की अनेक बैठकों में आम्बेडकर और उनके कार्यवाहक ही सिर्फ उपस्थित रहते थे.इस दृष्टि से संविधान का सारा मसौदा अकेले आम्बेडकर ने बेहद कष्ट की अवस्था में पूरा किया।

आओ मोदी हम ढोएंगे पालकी

             पीएम नरेन्द्र मोदी के कल संसद में दिए भाषण पर लेखक उदयप्रकाश की फेसबुक टिप्पणी पढ़कर बेहद शर्मिंदगी का एहसास हुआ। यह कैसा समय है जिसमें लेखक टुकड़ों में देखता है,भाषिक अंशों में देखता है,राजनीति और विचारधारा के बिना देखता है। निश्चित रुप से यह लेखकों के लिए बहुत संकट की घड़ी है। कल का मोदीजी का भाषण न तो ऐतिहासिक था और बेजोड़ था। उदयप्रकाश के राजनीतिक नजरिए पर फेसबुक पर बहुत बहस होती रही है लेकिन उनकी ताजा फेसबुक टिप्पणी ने एक बात जरुर संप्रेषित कर दी है कि हमारे लेखकों के पास फासिज्म के खिलाफ जंग करने की कोई न तो दीर्घकालिक समझ है और न सही विवेक ही है।

उदयप्रकाश ने क्या कहा पहले वह ध्यान से पढ़ें-

“आज हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का संसद में संविधान पर दिया गया भाषण किसी ऐतिहासिक अभिलेख की, किसी महत्वपूर्ण राजकीय दस्तावेज़ की तरह महत्वपूर्ण है। इतना लोकतांत्रिक, समावेशी, उदार और विनम्र संभाषण कम से कम इस प्रभावी शैली में मैंने अपने जीवन में नहीं सुना।
बिना किसी पूर्वाग्रह के अपने पूर्ववर्ती राजनेताओं के योगदान को जिस पारदर्शिता के साथ उन्होंने स्वीकार किया, देश के प्रथम प्रधानमंत्री की लोकतांत्रिक सहिष्णुता, ईमानदारी और तार्किक विवेक की उन्होंने प्रशंसा की, इसके अलावा संविधान की मूल प्रस्तावना के अलावा इसके परवर्ती संशोधनों को, जिसमें 'धर्मनिरपेक्षता' और 'समाजवाद' के अलावा 'आरक्षण' की अनिवार्यता को जिस तरह उन्होंने अपनी सम्मति और समर्थन दिया, वह उन्हें पक्ष और विपक्ष की दोनों सरहदों के आरपार एक सर्वस्वीकृत राजनेता के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए, भावुकता के साथ पर्याप्त था।
मैंने पहले भी कहा है कि अपनी वक्तृता में संभवत: वे सिद्धहस्त अटलबिहारी वाजपेयी जी से भी कई क़दम आगे हैं।
वे अपने व्याख्यानों में शायद, तथ्यों और इतिहास संबंधी भ्रमों-भूलों और हास्यास्पद ग़लतियों के बावजूद, अब तक के एक बेजोड़ वक़्ता- प्रधानमंत्री हैं।
संसद में बाबा साहेब अंबेडकर की स्मृति और संविधान की मूल भावनाओं के पक्ष में दिया गया उनका यह भाषण अप्रत्याशित रूप से प्रशंसनीय ही नहीं, सामयिक और महत्वपूर्ण था।
यह वक्तव्य एक झटके में उनके ही गृहमंत्री राजनाथ सिंह तथा वित्तमंत्री जेटली से उनकी दूरी को प्रदर्शित करने वाला था।
उनका यह संभाषण भारत की विविधता, बहुसांख्यिकता,बहुलता के प्रति उनके सम्मान को प्रकट करने वाला था।
बहुत ख़ुशी हुई। अब उम्मीद है वे अपने सांप्रदायिक, जातिवादी, हिंसक, असामाजिक और उग्र हिंदुत्ववादी तत्वों को भी क़ानून और संविधान के दायरे में ला कर उन पर सख़्त कार्रवाई करेंगे।
लेकिन कहीं यह देश के बदलते हुए मानस को भाँप कर किसी रणनीति के तहत, चतुराई के साथ, अपने दल के 'सरहदी' उग्र सांप्रदायिक और जातिवादी गिरोहों की हरकतों से होने वाली अपनी और अपने दल की गिरती हुई छवि और साख को बचाने की कोई हार को जीत में बदलने वाली चालाक युक्ति तो नहीं है?
या कहीं जनरल सर्विस टैक्स से लेकर कई ऐसे बिलों को, अपने कार्पोरेट मित्रों और सहयोगियों के लाभ के लिए, विपक्ष की मदद से, संसद के इसी सत्र में पारित करा लेने के लिये एक सोची समझी चालाकी तो नहीं है?
आज एक ओर जब प्रधानमंत्री निवास में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी जी उनके साथ चाय पी रहे हैं, ठीक उसी समय चंदन मित्र और शेखर गुप्ता, दोनोंसंविधान में 'धर्मनिरपेक्षता' और 'समाजवाद' के प्रक्षेपण पर राजनाथ सिंह के तर्क के अनुसार बहस की शुरुआत कर रहे हैं।

मुझे तो यही लगता है कि संविधान की मूल आत्मा की हिफ़ाज़त देश की जनता को अपनी एकजुटता के साथ करनी होगी।

राजनीति जिन हाथों में है, पता नहीं क्यों अभी भी दोस्तो, उस पर विश्वास नहीं होता।”

उदयजी आप जानते हैं कि पीएम के नाते मोदी के पास संसद में संविधान की वैचारिक सरहदों के बाहर जाने का कोई मार्ग नहीं है। संसद में बोलना है तो संसद, संविधान और घोषित नीतियों के फ्रेमवर्क में ही बोलना होगा।इस नजरिए से देखें तो पीएम मोदी जो कुछ भी कह रहे थे वह मजबूरी में कह रहे थे,यह उनकी स्वाभाविक वैचारिक भाषा और विचारधारा नहीं है। प्रधानमंत्री के रुप में संसद में मोदी या मुख्यमंत्री के रुप में गुजरात विधानसभा के अंदर मोदी हमेशा संविधान की सरहदों में कैद होकर ही बोलते रहे हैं। यह मोदी की महानता नहीं बल्कि राजनीतिक कौशल है। संसद में बोलते हुए कोई भी पीएम घोषित नीतियों,संविधान की मान्यताओं और धारणाओं के खिलाफ नहीं बोल सकता,यदि वह ऐसा करता है तो उसको गंभीर संवैधानिक संकट और चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।

सवाल यह है कि यही मोदी संसद के बाहर आम जनता में किस भाषा,विचारधारा और नजरिए से बोलता है। सवाल यह भी है कि यही मोदी एक पीएम के नाते कितना लोकतांत्रिक व्यवहार अपने मंत्रीमंडल सहयोगियों के साथ करता है। समूची सत्ता को पीएम कार्यालय में केन्द्रित कर लेने वाले को लोकतांत्रिक और उदार कहना सही नहीं है बल्कि यह तो सर्वसत्तावादी नायक के लक्षण हैं। एक ऐसे नायक के लक्षण हैं जिसने लोकतंत्र के पग-पग पर धुर्रे उडाए हैं,लेखकों का अपमान किया है,लेखकों के प्रतिवाद का अपमान किया है,वह किसी भी दृष्टि से अपने राजनीतिक आचरण में लोकतांत्रिक और उदार नहीं है। इसके बावजूद उदयजी आपका उसको लोकतांत्रिक और उदार कहना गले नहीं उतरता।

सवाल यह है हम किसी नेता के संसद में दिए गए भाषण के बल पर उसके बारे में राय बनाएं या उसकी समग्र भूमिका के आधार पर राय बनाएं ? उदयजी आपने जल्दी कर दी। पीएम मोदी राजनीतिक कौशल से लैस बड़ा दुष्ट खिलाड़ी है,वह अटलजी जैसा या उनसे बेहतर नहीं है,न तो नजरिए में ,न राजनीतिक आचरण में ,इसके बावजूद आपकी प्रशंसा का कोई सामयिक तर्क मैं अभी तक खोज नहीं पा रहा हूँ।आपकी फेसबुक टिप्पणी ने यह सवाल केन्द्र में लाकर खड़ा कर दिया है कि क्या किसी नेता के भाषण को एकल स्वायत्त रुप में देखें या फिर उसके समग्र राजनीतिककर्म के फ्लो की संगति में देखें। लोकतांत्रिक नजरिया हमें समग्र फ्लो में रखकर देखने के लिए कहता है।

उदयजी आप अच्छी तरह जानते हैं कि पीएम मोदी विनम्र नहीं हैं। उनकी भाषा,आचरण और मूल्यबोध में विनम्रता दूर –दूर तक नहीं है।इसे सहज ही उनकी इमेजों के जरिए पढ़ा जा सकता है,जिनलोगों ने उसे करीब से देखा है वे भी बार-बार इसके विपरीत ही कहते रहे हैं।आपने पत्रकार अरुण शॉरी के मोदी के शासन पर दिए गए बयान पढ़े होंगे और भी बहुत सारी चीजें आप बेहतर ढ़ंग से जानते हैं इसके बावजूद आपने विनम्रता को मोदी में खोज लिया ।सच में कहना होगा आपके पास पारखी नजर है जो लालकृष्ण आडवाणी को नजर नहीं आई लेकिन आपको दिख गयी !



शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

आईएसआईएस और उसके सहयोगी राष्ट्र

सामान्य तौर पर मीडिया देखकर यही लगता है आईएस के आतंकियों का स्वायत्त नेटवर्क है और वे सच में पश्चिम के शत्रु हैं,लेकिन पिछले दिन रुस के राष्ट्रपति पुतिन ने आईएस के 40 मददगार देशों की सूची जारी करके साफ कर दिया कि आईएस के पीछे किन ताकतों का हाथ है। इराक में सद्दाम हुसैन के जुल्मों से इराकी जनता को निजात दिलाने और इराक जनसंहारक अस्त्रों के जखीरे को नष्ट करने के बहाने अमेरिका और नाटो संगठन ने इराक पर हमला किया उससे इराक में शांति तो नहीं लौटी,विनाशलीला और आईएस जैसे दानव का जन्म जरुर हुआ। आईएस को निर्मित करने में सऊदीअरब,अमेरिका,कतार,तुर्की,इस्रायल, ब्रिटेन और फ्रांस आदि देशों के नाम पुतिन ने अपनी सूची में प्रमाण सहित पेश किए हैं। आईएस के आतंकियों को तुर्की ,जोर्डन,कतार,इराक और सऊदी अरब से सीधे सैन्य मदद मिल रही है।हथियारों की अबाध सप्लाई का काम अमेरिकी प्रशासन कर रहा है। सीरिया युद्ध में जिस तरह आईएस उलझा हुआ है और नाटो सैन्य संगठन उनकी मदद कर रहा है उस समूची योजना को रुस के सैन्य अभियान ने पूरी तरह पंक्चर कर दिया है, आईएस के जरिए सीरिया के तेल कुओं पर नाटो देशों खासकर तुर्की ने कब्जा जमाया हुआ है,यही बुनियादी वजह है कि आईएस के साथ पश्चिमी देशों की अघोषित मित्रता है।

   रुस के सुखोई बमबर्षक विमान को तुर्की द्वारा अवैध रुप से गिराए जाने के साथ यह कयास लगाया जा रहा था कि रुस का आईएस के खिलाफ अभियान कमजोर हो जाएगा,लेकिन ऐसा नहीं हुआ,रुस ने उस घटना के बाद सीरिया के इलाके में आईएस के शिविरों और कब्जे वाले लाके में जमकर बमबारी की है। तुर्की किस तरह आईएस के आतंकियों से जुड़ा रहा है और उनके लिए हथियारों की सप्लाई कर रहा है उसके प्रमाण अखबारों एवं अन्य मीडिया में आने लगे हैं। तुर्की के प्रसिद्ध अखबार “Cumhuriyet’s” ने मई 2014 में लिखा कि तुर्की के सरकारी ट्रकों के जरिए आईएस के सीरियाई आतंकियों को सैन्य सामग्री की बहुत बड़ी खेप की सप्लाई भेजी गयी, इसमें 1,000 तोप के गोले,, 50,000 मशीनगन गोलियां,  30,000 भारी मशीनगन गोलियां, 1,000 मोर्टार तोप के गोले थे। कालांतर में इस अखबार के संपादक को तुर्की प्रशासन जेल में डाल दिया,लेकिन इस अखबार ने प्रमाणसहित यह खबर प्रकाशित करके तुर्की सरकार को बेनकाव कर दिया। इस समय सारी दुनिया के सामने रुसी बमवर्षक विमान को तुर्की द्वारा मार गिराए जाने के सभी प्रमाण आ गए हैं जिनसे यह साबित होता है कि रुसी विमान तुर्की की नहीं सीरिया की सीमा में था और तुर्की ने कोई चेतावनी नहीं दी थी। 

शब्दों के कातिल


     देश बहुत बुरे दौर में दाखिल हो चुका है,हमारे शासक और उनके भक्तगण असहिष्णु हो चुके हैं। उन्हें शब्द अच्छे नहीं लगते,वे खुलेआम कह रहे हैं “सेकुलरिज्म” का दुरुपयोग बंद करो।कल तक वे “सेकुलर” की आत्मा और शरीर पर हमले कर रहे थे,अब वे “धर्मनिरपेक्ष” शब्द के इस्तेमाल को बंद करने की मांग कर रहे हैं।मजेदार बात यह है कि राजनाथ सिंह के बोलते ही उनके फेसबुकगण “पंथ-निरपेक्षता” का नाम लेकर भाषाज्ञान कराने उतर पड़े हैं। इससे एक बात का पता तो चलता है कि “सेकुलरिज्म” को लेकर इनके अंदर किस कदर घृणा भरी हुई है।
      समाज में शब्दों की हत्या जब होने लगती है तो समझो सत्ता और समाज असहिष्णु हो गया है।मनुष्य के नाते शब्द हमारे हैं और हम शब्दों के हैं।हमने कभी नहीं कहा कि फलां शब्द का इस्तेमाल न करो। सत्ता के शिखर से पहले किसी ने नहीं कहा कि देश में “सेकुलरिज्म” या “धर्मनिरपेक्ष” पदबंध का इस्तेमाल न करो । सत्ता के कर्ताओं की शब्दविशेष को लेकर घृणा पहलीबार नजर में आई है। यह पहलीबार हुआ है कि सत्ता ने शब्द को ललकारा है,एक ऐसे शब्द को ललकारा है जिसमें 125करोड़ लोगों की आत्मा निवास करती है।पहले यह कभी नहीं हुआ कि सत्ता के शिखर से कहा गया हो कि धर्मनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग बंद हो।
     सवाल यह है धर्मनिरपेक्ष शब्द ने क्या बिगाड़ा है संघी सत्ताधारियों का ? इस शब्द से क्यों कांप रहे हैं ये लोग ? इस शब्द के क्यों पीछे पड़े हैं? कल जब संविधान दिवस पर संसद में गृहमंत्री राजनाथ सिंह बोल रहे थे तो वे “सेकुलर” शब्द के खिलाफ बोल रहे थे,वे कह रहे थे,इस शब्द का प्रयोग बंद होना चाहिए। राजनाथ सिंह भूल गए कि शब्द महज शब्द नहीं होता ,उसके साथ विचार भी होता है,मूल्य भी होता है,संवेदनाएं भी होती हैं,शब्द महज शब्दकोश का शब्द नहीं होता। सवाल यह है “सेकुलर” शब्द में निहित विचार,संवेदना, अनुभूति आदि पर राजनाथ सिंह क्या सोचते हैं ? क्या उसे भी त्याग दें ?
     ध्यान रहे संविधान दिवस के संदर्भ में सारी बहसें हो रही हैं। कुछ देर बाद वे बोले “सेकुलर” का हिन्दी में संवैधानिक अनुवाद है पंथ निरपेक्षता। धर्मनिरपेक्षता का दुरुपयोग बंद करो। राजनाथ सिंह ने जाने-अनजाने “सेकुलरिज्म” के प्रति अपनी समस्त बुरी भावनाएं व्यक्त करके यह साबित कर दिया। राजनाथ सिंह पढ़े-लिखे व्यक्ति हैं,जिम्मेदार नागरिक हैं,अनेक बार संविधान की सौगंध खा चुके हैं,हम जानना चाहते हैं कि उनको “सेकुलरिज्म” से क्या परेशानी है ? यदि परेशानी है तो काहे को “सेकुलर”राज्य का शासन संभालने गए ? किसने कहा था  “सेकुलर” राष्ट्र की बागड़ोर संभालो,”सेकुलर” राजनीति करो।“सेकुलर संविधान” की सौगंध खाओ।
    “सेकुलरिज्म” से इतनी ही चिढ़,विरोध और घृणा मन में भरी है तो सीधे भाजपा के संविधान में लिखो कि भाजपा “सेकुलरिज्म” को नहीं मानती,उसकी “सेकुलरिज्म” में आस्था नहीं है, उसकी भारत के “सेकुलर स्टेट” में आस्था नहीं है,उसकी भारत के “सेकुलर सामाजिक ताने-बाने में आस्था” नहीं है। किसने रोका है भाजपा और आरएसएस को खुलेआम “सेकुलरिज्म” का नाम लेकर विरोध करने से। संघ को धर्मनिरपेक्षता पर छद्म रुपों में हमले बंद करने चाहिए।  हमारे देश में उनको भी स्वतंत्रता प्राप्त है जो इस देश से नफरत करते हैं,”सेकुलर स्टेट” से नफरत करते हैं। भाजपा तो “स्वतंत्रचेता” नेताओं का  दल है उसे सबसे पहले अपने राजनीतिक कार्यक्रम में से “सेकुलरिज्म” का प्रयोग बंद करना चाहिए। आम जनता से “सेकुलरिज्म” के खिलाफ अपने “मन की बातें” चुनाव घोषणापत्र के जरिए कह देनी चाहिए। वैसे बहुत ही बारीकी से “मन की बात” का नायक यह काम कर रहा है,लेकिन हम चाहते हैं कि “सेकुलरिज्म” को लेकर संघ-भाजपा और मोदी सरकार एकदम पारदर्शी रुप में आचरण करे। संघी मंत्री-सांसद ईमानदारी से खुलकर “सेकुलरिज्म” का विरोध करें। उन तमाम सरकारी किताबों और दस्तावेजों से “सेकुलरिज्म” शब्द निकालने का आदेश दें जो पहले छप चुके हैं।
   राजनाथ सिंह जब कल “धर्मनिरपेक्षता” शब्द का विरोध करते हुए “पंथ-निरपेक्षता” का विकल्प सुझा रहे थे तो मन में यह सवाल भी उठा कि “पंथ निरपेक्षता” पदबंध समाज में प्रचलन में क्यों नहीं आ पाया क्यों धर्मनिरपेक्षता पदबंध आम जनता के जीवन का कण्ठहार बन गया ? कभी इस पहलू पर गंभीरता से राजनाथ सिंह संसद के आधिकारिक दस्तावेजों का सर्वे सराएं कि संसद में “धर्मनिरपेक्षता” और “पंथ-निरपेक्षता” का हमारे सांसदों ने कितनीबार प्रयोग किया है ? इससे यह बात साफ हो जाएगी कि आम जनता के नेता अनुवाद की भाषा में बात करते हैं या मौलिक मन की भाषा में बात करते हैं !

सच्चाई यह है हिन्दी में ही नहीं भारत की किसी भी भाषा में “सेकुलरिज्म” का सटीक पर्यायवाची शब्द उपलब्ध नहीं है। स्वयं पंडित जवाहरलाल नेहरु ने इस समस्या पर  संभवतः1961 में कहा भी था कि यह आश्चर्य की बात है कि हिन्दी में “सेकुलर” शब्द का सटीक पर्यायवाची शब्द नहीं है। राजनाथ सिंह जिस बात को लेकर अड़े हैं वह रुख सही नहीं है।  उपन्यासकार बंकिम चन्द्र चटर्जी ने बहुत पहले एक जगह लिखा था कि अनुवाद का मतलब यह नहीं होता कि अंग्रेजी के एक शब्द का हिन्दी या बंगला में पर्यायवाची ढूँढ लें।शब्द का पर्यायवाची तो ढूँढ लेंगे लेकिन उस “आइडिया” का क्या करोगे जो शब्द में निहित होता है।  सवाल यह है कि राजनाथ सिंह और उनकी समस्तसंघी मंडली से हम जानना चाहते हैं कि वे “सेकुलर” के पीछे निहित विचार के बारे में क्या सोचते हैं ? क्या भारत “सेकुलर राष्ट्र है” ? क्या भारत “सेकुलर समाज है” ? क्या भारत में रहने के लिए “सेकुलर आइडिया” के प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिए ? 

बुधवार, 25 नवंबर 2015

गुरु नानकदेव और उनकी विश्वदृष्टि


संत गुरु नाननदेव मेरे सबसे प्रिय संत-कवि हैं। उनकी रचनाएं और जीवनशैली देखने के बाद नए किस्म के व्यक्ति और नए किस्म के मूल्यबोध की सृष्टि होती है। नानक उन संतों में हैं जिसने गाना गाकर सब कुछ पा लिया। गाना इतनी तल्लीनता के साथ गाया कि गान ही जीवन का सर्वस्व बन गया। पूरे मन-प्राण से गाने से उनको जो मिला वह अपने आपमें बहुत बड़ी उपलब्धि है। इसलिए जो भी काम करें प्राण लगाकर करें तो सफलता जरुर मिलती है।प्राण लगाकर एक गीत गा दो सफलता मिलेगी।नाच लो सफलता मिलेगी,कक्षा पढाओ सफलता मिलेगी,भाषण दो तो लोग प्रशंसा करेंगे।

नानक की विश्वदृष्टि का मूलाधार है “जपुजी”,

आदि सचु जुगादि सचु

मंत्र:

इक ओंकार सतिनाम

करता पुरखु निरभउ निरवैर।

अकाल मूरित अजूनी सैभं गुरु प्रसाद।।

जपु:

आदि सचु जुगादि सचु।

है भी सचु नानक होसी भी सचु।।

पउड़ी: 1

सोचे सोचि न होवई जे सोची लख बार।

चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिवतार।

भु.खया भुख न उतरी जे बंना पुरीआं भार।

सहस सियाणपा लख होहि, त इक न चले नालि।

किव सचियारा होइए, किव कूड़ै तुटै पालि।

हुकिम रजाई चलणा 'नानक' लिखिआ नालि।

अर्थात् -आदि सचु जुगादि सचु।

है भी सचु नानक होसी भी सचु।।

'वह आदि में सत्य है, युगों के आरंभ में सत्य है, अभी सत्य है। नानक कहते हैं, वह सदा सत्य है।

भविष्य में भी सत्य है।'



'वह एक है, ओंकार स्वरुप है, सत नाम है, कर्ता पुरुष है, भय से रहित है, वैर से रहित है, कालातीत-

मूर्त्ति है, अयोनि है, स्वयंभू है, गुरु की कृपा से प्राप्त होता है।'

एक है--इक ओंकार सतिनाम।

जो भी हमें दिखाई पड़ता है वह अनेक है। जहां भी तुम देखते हो, भेद दिखाई पड़ता है। जहां तुम्हारी आंख

पड़ती है, अनेक दिखाई पड़ता है। सागर के किनारे जाते हो, लहरें दिखाई पड़ती हैं। सागर दिखाई नहीं पड़ता।

हालांकि सागर ही है। लहरें तो ऊपर-ऊपर हैं।

किसी भी बात को कहने के लिए कहानी में कहो तो बात बेहतर ढ़ंग से संप्रेषित होती है, कहानी सच है और कहानी कल्पना भी है।कहानी हमेशा प्रतीक के बहाने संप्रेषित होती है। नानक की कहानी में भी प्रतीक का बड़ा महत्व है।जब भी कोई गहरी बात कहनी हो प्रतीक के माध्यम से कहो तो बेहतर ढ़ंग से संप्रेषित होगी। प्रतीकात्मक कहानी यह है कि नानकदेव अपने मित्र मरदाना के साथ नदी किनारे बैठे हुए बातें कर रहे थे, अचानक उन्होंने अपने कपड़े उतारे और नदी में कूद गए,मरदाना ने काफी खोजबीन की लेकिन नानक का कोई पता नहीं चला। गांव लौटकर सब गांववालों को खबर दी कि नानक नदी में नहाने गए तो निकले ही नहीं। सारा गांव नदी किनारे एकत्रित हो गया,नानक की कहीं कोई खबर नहीं मिल रही थी, सब रो रहे थे,क्योंकि सारा गांव नानक को बहुत प्यार करता था।तीन दिन बीत गए लोगों ने मान लिया कि नानक डूब गए या फिर किसी जानवर ने उनको खा लिया। सब यही सोच रहे थे कि वे अब नहीं लौटेंगे। लेकिन तीसरे दिन अचानक नानक प्रकट हुए। गांववालों की खुशी का ठिकाना न रहा।प्रकट होने पर “जपुजी” नामक पहला अमृत वचन कहा। कहने को यह कहानी बहुत छोटी है लेकिन बेहद मारक है। इस कहानी के मर्म में प्रवेश करने की जरुरत है। यह कहानी इसलिए नहीं बता रहे हैं कि हम नानक के जरिए चमत्कार चर्चा करना चाहते हैं,बल्कि हम तो इसमें निहित संदेश को जानना चाहते हैं। इसका पहला संदेश है कि जब तक तुम खो न जाओ,मिट न जाओ तुमको परमात्मा नहीं मिलता। तुम्हारा खो जाना ही उसको पाना है। नानक को खो जाने में तीन दिन लगे,तीन दिन बाद परमात्मा को पाया। अजीब संयोग है कि जब भी कोई आदमी मरता है तो उसके सूतक से मुक्त होने में तीन दिन लगते हैं।मृतक का तीसरा मनाते हैं। तीसरा इसलिए मनाते हैं क्योंकि मरने की घटना को घटित होने में तीन दिन लगते हैं। कहने का आशय यह कि जब तुम किसी के सामने मरते हो तो सामने वाला ही परमात्मा होता है। नानक की भी यही दशा थी। मनुष्य के परमात्मा में लोप की पहली सीढ़ी है अहंकार का लोप।यह मनुष्यत्व को पाने की पहली सीढ़ी है।

सिक्ख वह है जो गृहस्थ भी है और सन्यासी भी है। सिक्ख वह है जो सीखने वाला है। सिक्ख का मतलब है गृहस्थ और सन्यासी का एक साथ होना। गृहस्थ होकर सन्यासी होना बड़ा टेढ़ा मामला है।लोग गृहस्थी से भागकर सन्यासी होते हैं। लेकिन नानक ने गृहस्थी से भागकर संत पद नहीं पाया,वे गृहस्थ रहकर सन्यासी बने।यानी रहना घर में लेकिन ऐसे रहना जैसे सन्यासी हो।यानी रहना घर में लेकिन ऐसे रहना जैसे नहीं रहते हो। हिमालय पर रहते हो। नानक ने सन्यासी की यह परिभाषा निर्मित की इसने समूचे भक्ति आंदोलन के चरित्र को प्रभावित किया।हमारे अनेक संत कवि सपरिवार रहते थे और संत थे। नानक इस संसार से भागने के शिक्षा नहीं देते बल्कि इस संसार से प्रेम करने की शिक्षा देते हैं।

सोचे सोचि न होवई जे सोची लख बार।

चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिवतार।

भुखिया भुख न उतररी जे बंना पुरीआं भार।

सहस सियाणपा लख होहि, त इक न चले नालि।

किव सचियारा होइए, किव कूड़ै तुटै पालि।

हुकिम रजाई चलणा नानक लिखिआ नालि।

यह बड़ा कीमती, बहुमूल्य सूत्र है। यह नानक के नजरिए का सार है। भगवान सोचने से या चिन्तन से नहीं मिलता, चिन्तन करोगे तो भटक जाओगे। सवाल सोचने का नहीं है देखने का है। देखने के लिए निर्मल आँखें चाहिए। विचारों से भरी आँखों से देखोगे तो चीजें समझ में नहीं आएंगी।भगवान को सोचकर पाया नहीं जा सकता। भगवान के पक्ष में बनाए गए विचारों की यह सबसे गंभीर आलोचना है। हम बार-बार भगवान की सत्ता सिद्द करने के लिए विचारों की मदद लेते हैं जो कि गलत है। नानक की अकाट्य पद्धति थी जिसके जरिए वे विवेकवाद की ओर मुड़ते थे,एक नमूना देखें-

नानक एक मुसलमान नवाब के घर मेहमान थे। नानक को क्या हिंदू क्या मुसलमान! जो ज्ञानी है, उसके लिए

कोई सम्प्रदाय की सीमा नहीं। उस नवाब ने नानक को कहा कि अगर तुम सच ही कहते हो कि न कोई हिंदू न

कोई मुसलमान, तो आज शुक्रवार का दिन है, हमारे साथ नमाज पढ़ने चलो। नानक राजी हो गए। पर उन्होंने

कहा कि अगर तुम नमाज पढ़ोगे तो हम भी पढ़ेंगे। नवाब ने कहा, यह भी कोई शर्त की बात हुई? हम पढ़ने

ही जा रहे हैं। पूरा गांव इकट्ठा हो गया। मुसलमान-हिंदू सब इकट्ठे हो गए। हिंदुओं में तहलका मच गया। नानक के घर के लोग भी पहुंच गए कि यह क्या कर रहे हो? लोगों को लगा कि नानक मुसलमान होने जा रहे हैं। लोग अपने भय से ही दूसरे के भय को भी तौलते हैं।नानक मस्जिद गए। नमाज पढ़ी गई। नवाब बहुत नाराज हुआ। बीच-बीच में लौट-लौट कर देखता था कि नानक न तो झुके, न नमाज पढ़ी। बस खड़े रहे । लोगों ने जल्दी-जल्दी नमाज पूरी की, लेकिन क्रोध में कहीं नमाज पूरी हो सकती है । किसी तरह नमाज पूरी करके लोग नानक पर टूट पड़े।और उन्होंने कहा कि तुम धोखेबाज हो।कैसे साधु ,कैसे संत हो ! तुमने वचन दिया नमाज पढ़ने का लेकिन तुमने नमाज की नहीं।

नानक ने कहा, वचन दिया था, शर्त आप भूल गए। कहा था कि आप नमाज पढोगे तो मैं भी पढूँगा। आपने नहीं पढ़ी तो मैं कैसे पढ़ता ? नवाब ने कहा, क्या कह रहे हो? होश में तो हो ? इतने लोग गवाह हैं कि हम नमाज पढ़ रहे थे।नानक ने कहा इनकी गवाही मैं नहीं मानता,क्योंकि मैं आपको देख रहा था कि भीतर क्या चल रहा है।आप काबुल में घोड़े खरीद रहे थे। नवाब थोड़ा हैरान हुआ;क्योंकि खरीद वह घोड़े ही रहा था।उसका सबसे अच्छा घोड़ा मर गया था उसी दिन सुबह।वह उसी की पीड़ा से भरा था।नमाज क्या खाक पढ़ता !वह नमाज पढ़ते हुए मन में यही सोच रहा था कि जल्दी से काबुल जाऊँ और बढिया घोड़ा खरीदकर लाऊँ।क्योंकि वही घोड़ा उसी शान था,इज्जत था।और नाननक ने कहा कि यह जो मौलवी है तुम्हारा,जो नमाज पढ़वा रहा था,यह खेत में अपनी फसल काट रहा था। और यह बात सच थी।मौलवी ने भी कहा कि बात तो सच है।फसल पक गयी है और काटने का दिन आ गया है।गांव में मजदूर नहीं मिल रहे हैं और मन पर चिंता सवार है। तो नानक ने कहा ,अब तुम बोलो,तुमने नमाज पढ़ी जो मैं साथ दूँ ? इस कहानी का आशय एकदम साफ है। तुम जबर्दस्ती नमाज पढ लो,पूजा-उपासना कर लो, इस सबका कोई मूल्य नहीं है।पहले सोचो तुम्हारे मन में क्या चल रहा है ? पत्थर की तरह मूर्ति के सामने बैठ जाने से ईश्वर या मन सधेगा ?







संघ की राजनीति और फंड -


आरएसएस और उसके सहयोगी संगठन और उनसे जुड़े साइबर बटुक एक बात में अमेरिकी एजेण्डे पर चल रहे हैं,अमेरिकी एजेण्डा है धर्मनिरपेक्षता को नष्ट करो,धार्मिक फंडामेंटलिज्म को मजबूत करो। इस एजेण्डे को संघियों ने कई दशकों से सचेत रुप से अपनाया हुआ है,वे दिन-रात धर्मनिरपेक्षता को गरियाते रहते हैं,धर्मनिरपेक्ष लेखकों-बुद्धिजीवियों -नेताओं और दलों पर कीचड़ उछालते रहते हैं। इन लोगों ने धर्मनिरपेक्षता को मीडिया उन्माद के जरिए छद्म धर्मनिरपेक्षता करार दे दिया है। वे संविधान वर्णित धर्मनिरपेक्षता को भी नहीं मानते,उसे भी वे हटाने की मुहिम चला रहे हैं। इस काम के लिए वे कारपोरेट फंडिंग के जरिए काम कर रहे हैं।
आरएसएस अकेला ऐसा संगठन है जिसके फंडिंग के स्रोत का पता नहीं है।यह ऐसा संगठन है जो केन्द्र सरकार से लेकर अनेक राज्य सरकारों को नियंत्रित किए है लेकिन फंडिंग का स्रोत नहीं बताता। यही दशा अनेक फंडामेंटलिस्ट संगठनों की भी है वे भी अपनी फंडिंग को उजागर नहीं करते।आरएसएस यदि देशभक्त संगठन है तो अपने फंडिंग के सभी स्रोत उसे उजागर करने चाहिए, उसे बताना चाहिए कि उसके यहां कहां से और किन स्रोतों से पैसा आता है और उसके संगठन में उसका किस रुप में इस्तेमाल होता है। भारत में हर करदाता नागरिक सरकार को अपने आय-व्यय का हिसाब देता है लेकिन संघ नहीं देता। यदि किसी के पास आरएसएस के आय-व्यय की जानकारी है तो कृपया शेयर करें। मजेदार बात यह है कि कांग्रेस ने भी कभी आरएसएस से जानकारी उगलवाने की कोशिश नहीं की।

हाय आमिर! हाय आमिर !!

              

          कल रात से साइबर बटुक आमिरखान को साइबर जगत से गायब कर देने के जुगत में लगे हैं,कोई कह रहा है उसकी फिल्म मत देखो,कोई कह रहा है उसके गाने मत सुनो,कोई कह रहा है उसका विज्ञापन मत सुनो, कोई कह रहा है उसे यू -ट्यूब से निकालो,कोई कह रहा है उस अखबार का बहिष्कार करो जिसमें उसके बयान छप रहे हैं,कोई कह रहा है वह टीवी चैनल मत देखो जिसमें आमिर का बयान दिखाया जा रहा है,कोई कह रहा है, याहू को कहो कि आमिर खान की ईमेल सुविधाएं काट दी जाएं,कोई कह रहा है महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पर दवाब डालो की आमिर की सुरक्षा सुविधा हटा ली जाय।
    यह स्नैपडील वाला छोकरा उसकी हिम्मत तो देखो बटुकों की सुन ही नहीं रहा है तो बटुकमस्तान दवाब डाल रहे हैं कि स्नैपडील वाले के यहां कोई नौकरी न करे,कोई मोदीभक्त सामान न खरीदे,जगह-जगह आमिर के पुतले जलाओ,आमिर को औकात का ज्ञान कराओ,असभ्यसंघ ने बटुकों से कहा है कि बटुकगण अपनी साइबर क्षमता,शैक्षणिक योग्यता और सभ्यता का आमिर विरोधी गंदी-गंदी पोस्ट लिखकर परिचय दें
     असभ्यसंघ ने नए रामपत्र में आदेश दिया है कि जो साइबर बटुक कम से कम 1000पोस्ट आमिर के खिलाफ न लिखे उसे साइबर गैंग से निकालकर पोस्टकार्ड गैंग में ट्रांसफर कर दिया जाय, जो साइबर बटुक स्नैपडील एप को अपने मोबाइल में अनस्टाल न करे उसकी मोबाइल सेवाएं बेहालदशा के हवाले कर दी जाएं,स्नैपडील के सारे सामान के वितरण सिस्टम को अस्त-व्यस्त किया जाए ,डिलीबरी बॉय को राममार्ग का पथिक बनाया जाय।

    बटुकों से कहा गया है जो जितना ज्यादा आमिर के खिलाफ बोलेगा,असहिष्णुता-असहिष्णुता का नारा लगाने वालों के खिलाफ लिखेगा ,उसे उतने ही इनाम-इकराम और मोदी स्टीकर इफरात में मिलेंगे। कंपनियों से कहा जा रहा है कि अपने माल के विज्ञापन मॉडल उनको बनाएं जो दिन में कम से कम10हजार बार मोदी-मोदी कहे,रात में एक लाख बार मोदी सहस्रनाम का पाठ करे और सुबह उठते ही  नारा दे “कसम नमो की खाते हैं मंदिर वहीं बनाएंगे।” 

मंगलवार, 24 नवंबर 2015

जर्मनी से क्यों हो रही है आतंकीसेना में भरती


आज से एक साल पहले इराक में कुर्द इलाके में जब भाड़े के सैनिक-आतंकी के रुप में एक जर्मन की लाश मिली तो सारी दुनिया का ध्यान आतंकियों की भर्ती क्षमता की ओर गया। हमने कभी इस सवाल पर विचार नहीं किया कि जर्मन देश में मजबूत सरकार,मजबूत राष्ट्रवाद,उदार समाज और बेहतरीन शिक्षा के बावजूद वहां से आतंकी संगठनों के लिए भाड़े के सैनिक कैसे मिल रहे हैं ? सीरिया में आतंकियों के संगठनों में तकरीबन 600जर्मन-मुसलिम भाड़े के सैनिकों के होने का अनुमान जर्मन सरकार ने व्यक्त किया है।

उल्लेखनीय है भाड़े के सैनिकों की एक ऐसे देश से भर्ती हो रही है जिसकी प्रति व्यक्ति आय सारे यूरोप में सबसे ज्यादा है।जर्मन अधिकारियों के अनुसार सीरियाई आतंकियों के लिए काम करते हुए 60जर्मन भाड़े के सैनिक मारे जा चुके हैं और तकरीबन180वापस जर्मनी लौट चुके हैं। जर्मनों की आतंकी भाड़े के सैनिक के रुप में संघर्ष करने की लंबी परंपरा है, एक जमाने में अफगानिस्तान में भी भाड़े के जर्मन सैनिक लड़ने के लिए गए थे। भाड़े के जर्मन आतंकीसैनिकों को चेचेन्या और बोसनिया की भाड़े की सेनाओं में भी लड़ते हुए देखा गया। सवाल यह है अतिविकसित देश जर्मन अपने नागरिकों को आतंकियों-पृथकतावादियों को क्यों मुहैय्या करा रहा है ?जर्मनी में “मल्टी कल्चरल हाउस” नामक संस्था है जिसने चेचेन्या-बोसनिया आदि में भाड़े के सैनिकों की भर्ती करके आतंकियों को जर्मन-मुसलिम युवाओं की सेवाएं उपलब्ध करायीं। इसके अलावा हेमबर्ग की एक मसजिद के जरिए भी भाड़े के सैनिकों की भर्ती का काम होता रहा है। यही वह मसजिद है जिसके जरिए 9/11 के आतंकी हमले लिए भी आतंकी भर्ती किए गए थे।सन् 2009 और 2010 में अलकायदा के पाक ग्रुप के लिए भी यहाँ से भाड़े के सैनिक भर्ती किए गए। इसके अलावा यमन,सोमालिया, सीरिया और इराक में भी आतंकियों की भाड़े की सेना में जर्मनी से भर्ती युवा काम कर रहे हैं। सीरिया में काम करने वाले आतंकी संगठन “सलाफी जेहादी ऑर्गनाइजेशन मिलातु इब्राहीम” में जर्मनों की बड़ी संख्या है। इस संगठन का निर्माण अलकायदा के मीडिया फ्रंट “ग्लोबल इस्लामिक मीडिया फ्रंट” के महमूद और डेनिश कुस्पर्ट नामक एक आतंकी ने किया था। महमूद को 2007 में गिरफ्तार किया गया बाद में 2011 में उसे छोड़ दिया गया। डेनिश कुस्पर्ट इन दिनों सीरियाई आतंकियों का महत्वपूर्ण प्रचारक बना हुआ है। उनके नेटवर्क-वीडियो आदि के कामों को अंजाम दे रहा है। जर्मनों की आईएसआईएसएल में उपस्थिति कितनी महत्वपूर्ण है इसका अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं उन्होंने अपनी एक स्वतंत्र ब्रिगेड़ इस संगठन के अंदर बना ली है।

बाली में आतंकी हमला और भाड़े के सैनिकों की परंपरा


    आईएस की भाड़े की फौज को देखकर ऐसा लग रहा है कि यह नया फिनोमिना है। लेकिन सच यह है कि भाड़े की फौज खड़ी करना,आतंकी हमले करना,स्थिर सरकारों को गिराना और उनके स्थान पर कठपुतली सरकारों को बिठाने का धंधा बहुत पहले से सीआईए करता रहा है। मध्यपूर्व में दाखिल होने के पहले अनेक देशों में भाड़े के सैनिकों की भर्ती करके हमला करने,हमला गुटों को हथियार देने,पैसा देने,प्रशिक्षण देने आदि के काम भी सीआईए करता रहा है। मीडिया में आईएस और उसकी भाड़े की सेना का कवरेज कुछ इस तरह आ रहा है कि यह कोई नई बात हो। शीतयुद्ध के दौरान सीआईए ने भाड़े की सेना खड़ी करने के मामले में विशेषज्ञता हासिल कर ली थी और अनेक देशों में जनता के द्वारा चुनी गयी सरकारों को गिराया,उनके खिलाफ भाड़े के सैनिकों के जरिए युद्ध चलाए, उन देशों में अस्थिरता पैदा की ।

शीतयुद्ध की तथाकथित समाप्ति के बाद भाड़े के सैनिकों के जरिए उत्पात मचाने का सिलसिला अफगानिस्तान से सन् 1979 में आरंभ हुआ,उस समय यही कहा गया कि सोवियत सेनाओं की अफगानिस्तान में मौजूदगी का विरोध करने के लिए भाड़े की सेना बनायी जा रही है और उस सेना को खड़ा करने का ठेका फंड़ामेंटलिस्टों को बिन लादेन के नेतृत्व में आधिकारिक तौर पर सीआईए ने सौंपा,अमेरिकी राजकोष से इसके लिए धन मुहैय्या कराया गया। सीआईए के इतिहास का यह सबसे बड़ा प्रच्छन्न ऑपरेशन था, वहां से जो सिलसिला आरंभ हुआ है आज वह अब समूचे मध्यपूर्व में फैल गया है। भाड़े के सैनिकों को आतंकवाद और फंडामेंटलिज्म के विचारधारात्मक आवरण में पेश किया जा रहा है।भाड़े के सैनिकों का मुख्य काम है समूचे क्षेत्र में अस्थिरता पैदा करना। भाड़े के सैनिक जहां पर भी बर्ती किए गए हैं उन्होंने हमेशा संबंधित इलाके में अस्थिरता पैदा करने का काम किया है। इससे अमेरिकी प्रभुत्व,बहुराष्ट्रीय हथियार कंपनियों के कारोबार के प्रसार और भय के विस्तार में मदद मिलती है। इस तरह की गतिविधि का आतंकवाद तो एक ऊपरी आवरण है मूल लक्ष्य है भय और सामाजिक असुरक्षा पैदा करना,राजसत्ता को कमजोर करना।

मसलन्, हाल के माली में हुए आतंकी हमले को ही लें। इस हमले का मीडिया में कवरेज आया,लगातार रिपोर्टिंग आई,लेकिन मीडिया वालों ने यह नहीं बताया कि आखिरकार कौन संगठन है जिसने इस ऑपरेशन को अंजाम दिया। उसकी विचारधारा क्या है ,उसकी फंडिंग कहां से होती है,उसे किसने स्थापित किया,क्यों स्थापित किया आदि ।

माली के “बामको रेडीशन होटल ब्लू” पर हुए आतंकी हमले में 21लोग मारे गए, इस हमले में “इस्लामिस्ट अल-मुल्थामीन ब्रिगेड” और “अलकायदा इन दि इस्लामिक मगरिब” का हाथ था। इस संगठन को मोटे तौर पर “मुख्तार बेलमोख्तार” के नाम से जाना जाता है। “अलकायदा इन दि इस्लामिक मगरिब” संगठन का सीआईए की मदद से 2012 में लीबिया को मुक्त कराने के लिए गठन किया गया, यह संगठन आरंभ में नशीले पदार्थों की तस्करी,हथियारों की तस्करी,आतंकी हमलों ,अपहरण आदि में शामिल हुआ करता था।

न्यूयार्क टाइम्स ने 20नवम्बर2015 को माली के हमले पर लिखा-“ A member of Al Qaeda in Africa confirmed Saturday that the attack Friday on a hotel in Bamako, Mali, had been carried out by a jihadist group loyal to Mokhtar Belmokhtar, an Algerian operative for Al Qaeda. The Qaeda member, who spoke via an online chat, said that an audio message and a similar written statement in which the group claimed responsibility for the attack were authentic. The SITE Intelligence Group, which monitors jihadist groups, also confirmed the authenticity of the statement.

The Qaeda member, who refused to be named for his protection, said that Mr. Belmokhtar’s men had collaborated with the Saharan Emirate of Al Qaeda in the Islamic Maghreb, … In the audio recording, the group, known as Al Mourabitoun, says it carried out the operation in conjunction with Al Qaeda’s branch in the Islamic Maghreb.

The recording was released to the Al Jazeera network and simultaneously to Al Akhbar, … The recording states: “We, in the group of the Mourabitoun [Arabic Rebel Group], in cooperation with our brothers in Al Qaeda in Islamic Maghreb, the great desert area, claim responsibility for the hostage-taking operation in the Radisson hotel in Bamako.”

जिस समय बिन लादेन के नेतृत्व में मुजाहिदीनों की भर्ती हो रही थी और समूची दुनिया में सोवियत विरोधी उन्माद चरम पर था तो तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने मुजाहीदीनों को आतंकी कहने की बजाय “स्वाधीनता सेनानी” कहा था। “अलकायदा” का अरबी में अर्थ है “आधार” ,इस संगठन की समूची व्यूह रचना का गोमुख है सीआईए। माली की घटना में “बेलमोख्तार” संगठन का हाथ बताया जा रहा है और इस संगठन के इतिहास के बारे में प्रसिद्ध आतंकवाद विशेषज्ञ मिशेल चोदुसोवस्की ने लिखा है माली हमले में शामिल दोनों संगठनों “इस्लामिस्ट अल-मुल्थामीन ब्रिगेड” और “अलकायदा इन दि इस्लामिक मगरिब” का गहरा संबंध है। “इस्लामिस्ट अल-मुल्थामीन ब्रिगेड” नामक संगठन “अलकायदा इन दि इस्लामिक मगरिब” के सहयोगी संगठन के रुप में जाना जाता है। “अलकायदा इन इस्लामिक मगरिब” को प्रशिक्षित करने का काम 1979-89 के बीच में अफगानिस्तान में ही हुआ था। वाशिंगटन स्थित “कौसिल ऑन फॉरेन रिलेशन” ने इनके आंतरिक संबंधों को माना है। उसने लिखा है- “Most of AQIM’s major leaders are believed to have trained in Afghanistan during the 1979-1989 war against the Soviets as part of a group of North African volunteers known as “Afghan Arabs” that returned to the region and radicalized Islamist movements in the years that followed. The group is divided into “katibas” or brigades, which are clustered into different and often independent cells.The group’s top leader, or emir, since 2004 has been Abdelmalek Droukdel, also known as Abou Mossab Abdelwadoud, a trained engineer and explosives expert who has fought in Afghanistan and has roots with the GIA in Algeria.”



भाड़े के सैनिकों की भर्ती की परंपरा में इन दिनों भारत का नाम भी आ गया है तकरीबन 29भारतीय भी आईएस की भाड़े की फौज में शामिल हो चुके हैं, जिनमें से 6 मारे जा चुके हैं, कुछ भारत वापस आ गए हैं, कुछ अभी वहीं पर लड़ रहे हैं। सीरिया-इराक के प्रसंग में भाड़े के फौजियों की भर्ती के केन्द्र के रुप में कनाडा बहुत बड़े भर्ती केन्द्र के रुप में उभरकर सामने आया है। उल्लेखनीय है कनाडा से ही बड़ी मात्रा में एक जमाने में भाड़े के आतंकी पंजाब में आतंकवाद फैलाने आए थे,आज भी पंजाब में सक्रिय आतंकियों का बहुत बड़ा केन्द्र कनाडा से ही संचालित है। यही दशा सीरिया की भी है। सीरिया में राष्ट्रपति असद के खिलाफ जो संगठन सीआईए और नाटो ने खड़े किए उनके लिए भाड़े के सैनिकों की बहुत बड़ी खेप कनाडा से ही लायी गयी। आज इराक और सीरिया में कनाड़ा से भर्ती किए गए भाड़े के सैनिक सबसे ज्यादा लड़ रहे हैं। ये लोग विभिन्न गुटों की सेनाओं में भर्ती होकर काम कर रहे हैं। उल्लेखनीय है विभिन्न आतंकी संगठनों की अपनी निजी सेनाएं है,हत्यारे गिरोह हैं जो तयशुदा निशानों और लक्ष्यों पर आदेशानुसार हमले करते हैं। सतह पर देखेंगे तो कनाड़ा शांत देश है,बहुलतावादी देश है,सारी दुनिया उसके बहुलतावाद पर गर्व करती है लेकिन आतंकी संगठनों की निजी सेनाओं के लिए भाड़े के सैनिकों की भर्ती का यह बहुत बड़ा केन्द्र भी है ।सवाल यह है कि बहुलतावाद-उदारतावाद आदि के बावजूद कनाडा से युवालोग आतंकी सेना में भाड़े के सैनिक के रुप में भर्ती क्यों किए जा रहे हैं ? कनाडा का बहुलतावाद-उदारतावाद उनको रोक क्यों नहीं पा रहा ? अमेरिका-कनाडा की सरकारें बेहतर ढ़ंग से जानते हुए भी इन युवाओं को रोकती क्यों नहीं ?

सोमवार, 23 नवंबर 2015

लोकतंत्र का अनंत और भाषिकचेतना



लोकतंत्र के बारे में छात्रों से जब भी बात होती है तो यह भाषा सुनने को मिलती है। “मैं तो चुनाव के समय राजनीतिक बहस सुनता हूँ”,”मैं कभी राजनीति में सक्रिय रुप से शामिल नहीं हुआ”,”मैंने कभी सक्रिय रुप से किसी भी मसले पर सार्वजनिक तौर पर पक्ष-विपक्ष में बहस में भाग नहीं लिया ”, “मैं खबरें सुनता हूँ लेकिन उन पर ध्यान नहीं देता,” “अपनी दैनंदिन समस्याओं से ही मुक्ति नहीं मिलती,राजनीति पर कब बात करूँ”, “मैं वोट देता हूँ,लेकिन सक्रिय राजनीति में कभी भाग नहीं लेता,”, “ मैं वोट देता हूँ,थोड़ा बहुत काम कर देता हूँ,इससे ज्यादा मेरी राजनीति में दिलचस्पी नहीं है,”, मैंने मतदान के दिन वोट दिया है लेकिन मेरी राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं है”, यानी लोकतंत्र में निरपेक्ष या साधुभाव से भाग लेने वालों की यह मनोदशा अपने-आप में बहुत कुछ कह देती है । छात्रों का एक बड़ा वर्ग लोकतंत्र का मतलब वोट देना ही समझता है। यह सीमित लोकतंत्र की समझ है। हम इस तरह की मनोदशा के मित्रों से कहना चाहेंगे कि आप इस सीमा के बाहर निकलें और किसी अंतर्राष्ट्रीय-राष्ट्रीय मसले पर नियमित वाद-विवाद-संवाद जरुर करें। यह काम करने से आपको लोकतंत्र का भिन्न रुप नजर आएगा।लोकतंत्र वोट डालना भर नहीं है , वह ज्ञानकांड भी है। इनमें से कई छात्र तो यह भी कहते मिले कि हम तो चुनाव के समय ही राजनीति पर ध्यान देते हैं ,क्योंकि वोट देने जाना होता है,सवाल यह है इस तरह के युवाओं को इस दायरे के बाहर कैसे लाया जाय ।

हमारे शिक्षकों के पास लोकतांत्रिक अकादमिक अनुभव की कमी है फलतः उनके मन में अनेक किस्म के सेंसर या भय काम करते रहते हैं।वे विवादास्पद चीजें पढ़ाने से डरते हैं,वे डरते हैं कि कहीं लेबल चस्पां न कर दिया जाय, लेकिन हमें इस सबसे डरना नहीं चाहिए,हमें डरकर विवादास्पद विषय उठाने से डरना नहीं चाहिए। हम यदि चाहते हैं कि अधिकांश छात्र सक्रिय रुप से राजनीति में भाग लें तो हमें विवादास्पद विषयों को नियमित उठाना चाहिए। इससे विवाद होगा,छात्रों की शिरकत बढ़ेगी। साथ ही सामाजिक –न्याय के लक्ष्य को अपने नजरिए के केन्द्र में रखना चाहिए। हम यह भी देखें कि हमने लोकतंत्र का जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में विकास किस रुप में किया है ? उस विकास का स्वरुप और सीमाएं क्या हैं।यह बात हमेशा ध्यान रहे कि लोकतंत्र असीम है,उसकी कोई सीमा नहीं है। इस क्रम में हमें लोकतंत्र की अवधारणात्मक समझ को भी बहस के केन्द्र रखना चाहिए। सामान्य तौर पर आम लोगों की लोकतंत्र के बारे में समझ क्या है ,नमूने देखें- “लोकतंत्र यानी स्वतंत्रता या आजादी”, “चुनने का अधिकार” , “हम लोकतांत्रिक समाज में रहते हैं,हमें पसंदीदा व्यक्ति को चुनने के बहाने अपनी राय जाहिर करने का हक है”, “हम उन सभी मसलों पर वोट करते हैं जो हमारे सामाजिक सरोकारों और आस्थाओं की अभिव्यंजना करते हैं”, लोकतंत्र की इस तरह की जनप्रिय समझ दरशाती है कि लोकतंत्र को हम अभी पूरी तरह समझ नहीं पाए हैं।

इसी तरह लोकतंत्र पर बातें करते समय “अदर” या अन्य या हाशिए के लोगों का ख्याल रखा जाना चाहिए। हम”अदर” को जितना बेहतर ढ़ंग से जानेंगे उतनी ही गहरी हमारी लोकतांत्रिक समझ बनेगी। “अदर” के प्रति हमारा अज्ञान इन दिनों चरम पर है जिसे हम हमेशा छिपाते हैं। इसने यह स्थिति पैदा की है कि हम अन्य से नफरत करने लगे हैं या फिर उसके मसलों को लेकर गंभीर नहीं हैं,उनकी उपेक्षा करते हैं। हाल में पैदा हुआ आरक्षण विरोध इस दृष्टि की ताजा अभिव्यंजना है। हमें ध्यान रखना होगा कि “स्वतंत्रता” और “लोकतंत्र” पर बातें करते समय “अदर” का ज्ञान,उसके प्रति प्रतिबद्धता का होना जरुरी है।

इन दिनों हम कह रहे हैं कि “राष्ट्रभक्ति” पर बहस हो,या “राष्ट्रभक्ति” दिखाओ, लेकिन जब आप बहस करेंगे तो आपको “राष्ट्रद्रोह” पर भी बहस करनी होगी। यह संभव ही नहीं है कि देभक्ति पर बहस हो लेकिन देशद्रोह पर बहस न हो, ये दोनों एक ही साथ बहस के केन्द्र में आएंगे,इन दिनों संघी बटुक कह रहे हैं जो देशभक्त नहीं है वह राष्ट्रद्रोही है।जो कि एकदम गलत है।

लोकतंत्र की बुनियादी शिक्षा चार बुनियादी तत्वों से जुड़ी है। ये हैं-1.नागरिकचेतना का ज्ञान, 2.नागरिकचेतना के ज्ञानात्मक उपकरणों की समझ,3.नागरिक जीवन में हर स्तर पर कौशलपूर्ण शिरकत,4.नागरिकता के प्रति समर्पणभाव। इनमें से ज्योंही किसी भी एक चीज से जुडेंगे दूसरी चीज अपने आप खुलने लगेगी।एक शिक्षक की यह जिम्मेदारी है कि वह अपने कौशल का इस्तेमाल करके इन चारों चीजों को खोले। इन चीजों को खोलते समय विवादास्पद सवाल भी आएंगे,उन सवालों को बड़े ही कौशल के साथ हल करना चाहिए। इसीलिए कहा गया है कि लोकतंत्र तो कौशल,ज्ञान,एटीट्यूट और एक्शन इन सबके संतुलन की मांग करता है।



लोकतंत्र के प्रसंग में बहुलतावाद को विगत 65 सालों में विभिन्न रुपों में पेश किया गया है।पंडित नेहरु से लेकर मोदी तक सभी बहुलतावाद की बातें कर रहे हैं। सच यह है सर्वसत्तावादी राजनीति के लिए बहुलतावाद भाषिक उपकरण से अधिक महत्व नहीं रखता। ये नेतागण कभी बहुलतावाद को आचार-व्यवहार में लागू नहीं करते,संस्कार में शामिल नहीं करते और यथार्थ से जोड़कर नहीं देखते। पंडित नेहरु की बहुलतावाद की समझ का ही यह दुष्परिणाम या खोखलापन है कि सच्चर कमीशन को बताना पड़ा कि मुसलमानों की देश में किस तरह की दुर्दशापूर्ण स्थिति है, यही हाल औरतों का भी है। यह कैसा बहुलतावाद है जो हिंसक-उत्पीडक है।हाशिए के लोगों को हाशिए के बाहर निकलने ही नहीं देता। पीएम मोदी की भी मूलतःवही स्थिति है। उनके लिए बहुलतावाद या भारत की विविधता भाषिक अलंकारमात्र है। उनके आचरण,उनके दल (संघ) के आचरण और उनकी नीतियों का बहुलतावाद के साथ तीन-तेरह का संबंध है। इसलिए लोकतंत्र में बहुलतावाद पर जब भी बातें हों तो बहुलताओं का सम्मान मात्र न करें,उसके आगे निकलें और देखें कि बहुलतावाद के विकास के लिए हमारे पास कौन सी नीतियां और योजनाएं हैं।

रविवार, 22 नवंबर 2015

शिक्षा और लोकतंत्र की चुनौतियां


        भारत की शिक्षा प्रणाली खासकर स्कूली शिक्षा पर बातें करते समय हमें बहुत ही कठिन सवालों से गुजरना होगा। मुश्किल यह है कि शिक्षा के कठिन सवालों पर देश में हमने लंबे समय से व्यापक स्तर पर कोई बहस ही नहीं चलायी है, समय-समय पर जब कोई नीति घोषित होती है तो उत्सवधर्मी भाव से कुछ सेमीनार,कन्वेंशन,संगोष्ठियां हो जाती हैं, कुछ प्रस्ताव संसद या विधानसभा में पास हो जाते हैं लेकिन गंभीर विस्तृत चर्चा नहीं होती,जनांदोलन नहीं होता। सवाल यह है कि क्या शिक्षा ऐसा विषय है जिस पर कोई बात ही न की जाए ?

हमने आजादी के बाद शिक्षा का जो ढांचा चुना और नीतिगत रास्ता चुना उस समय भी निचले स्तर पर कोई बड़ी बहस नहीं हुई। बाद में 1990-91 में भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के साथ नत्थी होकर हमारे शासकों ने जो शिक्षा का मार्ग चुना उस समय भी जनबहस नहीं हुई,इस बात को कहने का मकसद यह है कि हमारा समाज जानता ही नहीं है कि हमारे यहां शिक्षा का क्या हाल है और उसके सामने किस तरह की चुनौतियाँ हैं।

शिक्षा के विकास का नेहरु मॉडल पूरी तरह देश में असफल रहा,देश के हर कोने में और प्रत्येक समुदाय के पास शिक्षा पहुँचाने में यह मॉडल असफल रहा।इस मॉडल की सबसे बड़ी खामी यही है कि सने आरंभ से ही सीमित शिक्षा के लक्ष्य को सामने रखा । सीमित शिक्षा,सीमितचेतना और सीमित शिरकत यही इस मॉडल की विशेषता थी। “सबको शिक्षा” का नारा महज नारा ही बना रहा। सभी बच्चे स्कूल में हों यह सपना ही रह गया। बच्चों के स्कूल न जाने का अर्थ है उन्हें मानवाधिकार से वंचित रखना। हम इस पहलू पर विचार करें कि शिक्षा के जरिए मानवाधिकारों का हम कहां तक प्रसार करते हैं ?

उल्लेखनीय है मानवाधिकारों पर जिस गति से हमले बढ़ें हैं उस गति से मानवाधिकारों का प्रसार नहीं हुआ है। स्कूली शिक्षा व्यवस्था के स्वरुप पर गंभीरता से विचार करें तो पाएंगे कि भारत सरकार की प्राथमिकताओं में स्कूली शिक्षा कभी नहीं रही। आज भी नहीं है। जो लोग आए दिन शिक्षा के निजीकरण की हिमायत करते हैं वे अच्छी तरह जानते हैं कि स्कूली शिक्षा का समूचा बोझ उठाने या दायित्व पूरा करने में निजी क्षेत्र एकदम असमर्थ है। आज भी स्कूली शिक्षा का मात्र 10फीसदी नेटवर्क निजी क्षेत्र के दायरे में आता है 90फीसदी क्षेत्र सरकारी स्कूलों के दायरे में आता है। आज यदि सारे देश को स्कूली शिक्षा के दायरे में लाना है तो सालाना 73हजार करोड़ रुपये की हर साल आगामी छह वर्षों तक जरुरत होगी और केन्द्र और राज्य सरकारें यह पैसा खर्च करना नहीं चाहतीं। अकेले बिहार को स्कूली शिक्षा के दायरे में लाने के लिए आगामी नौ सालों तक प्रतिवर्ष 9,500करोड़ रुपये खर्च करने पड़ सकते हैं। इस स्थिति से एक अंदाजा सहज ही लगा सकते हैं कि स्कूली शिक्षा की अवस्था बहुत बेहतर नहीं है। हमें स्कूली शिक्षा के विकास के लिए सही नीति,समुचित संसाधन और राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरुरत है। आज ज्यादातर स्कूलों-कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पैरा टीचर बड़ी संख्या में काम कर रहे हैं। सारे देश के स्कूलों में तीन लाख से ज्यादा पैराटीचर काम कर रहे हैं। वहीं कॉलेजों में तकरीबन 50फीसदी से ज्यादा पदों पर पार्टटाइम-अतिथि शिक्षक काम कर रहे हैं। यही हाल विश्वविद्यालयों का भी है।यानी देश का बहुत बड़ा हिस्सा ठेके पर काम करने वाले शिक्षकों पर निर्भर है। यही दशा निजी क्षेत्र की है,वहां पर भी कॉन्ट्रेक्ट के आधार पर शिक्षक पढ़ा रहे हैं। स्थिति की भयीवहता का अंदाजा लगाने के लिए एक ही उदाहरण बताना यथेष्ट होगा। पश्चिम बंगाल में कुछ महिने पहले टीइटी शिक्षकों की भर्ती के लिए ऑनलाइन आवेदन मांगे गए थे,उस समय तकरीबन 22लाख छात्रों ने आवेदन किया, राज्य सरकार को इस आंकड़े को देखकर परीक्षा रद्द करनी पड़ी।क्योंकि इतनी बड़ी तादाद में परीक्षा-इंटरव्यू संपन्न करने में तकरीबन दो साल लगते।

शिक्षा ,साक्षरता और उपभोक्ता-

सन् 1990-91 के बाद से देश में स्कूली शिक्षा का अर्थ ही बदल गया है। अब शिक्षा का अर्थ बच्चे के ज्ञान और क्षमता का विकास करना नहीं है। इसके विपरीत शिक्षा का अर्थ है प्रयोजनमूलक शिक्षा या साक्षरता। यानी बाजार की जरुरत के अनुसार पढ़ो,सीखो और बाजार में उतरो। अब साक्षर बनाने पर जोर है, क्षमता बढ़ाने पर जोर नहीं है। जबकि एक जमाने में शिक्षा का अर्थ था बच्चे की ग्रहण क्षमता और ज्ञानक्षमता का विकास करना। लेकिन इन दिनों ये दोनों काम शिक्षाप्रणाली ने छोड़ दिए हैं और अब ज्यादा से ज्यादा साक्षर बनाने पर जोर दिया जा रहा है,इससे स्थिति बेहद खराब हुई है।अब प्रशिक्षित शिक्षकों को पैराटीचरों ने अपदस्थ कर दिया है।मसलन्, बिहार सरकार ने 1991 में घोषित किया कि स्कूल टीचर के लिए प्रशिक्षण आवश्यक नहीं होगा। असल में 1980 के दशक में शिक्षा को साक्षर बनाने की जो प्रक्रिया शुरु हुई वह अपना सारे देश में चक्र पूरा कर चुकी है। आज सारे देश में तकरीबन तीन से लाख से ज्यादा पैरा टीचर हैं। अब शिक्षा पर नहीं साक्षरता पर जोर है।समूची शिक्षा व्यवस्था का वस्तुकरण हो चुका है। अब बच्चों को साक्षर बनाने पर जोर है शिक्षा देकर उनकी बौद्धिक क्षमता बढ़ाने पर जोर नहीं है। जबकि शिक्षा का मकसद है छात्रों में बौद्धिक क्षमता, ग्रहण क्षमता,सामाजिकचेतना और सामाजिक जिम्मेदारी की भावना पैदा करना। आज ये सारे लक्ष्य किनारे कर दिए गए हैं और नौकरी पाना ही प्रधान लक्ष्य है। यही वजह कि अधिकांश छात्र समझ ही नहीं पाते कि समाज में सही या गलत क्या हो रहा है ? वे तो मीडिया से संचालित होकर अपनी राय बनाते हैं। वे मीडिया को ही अपना सर्वे-सर्वा मानते हैं । मीडिया और खासकर विज्ञापन और जनसंपर्क तो उनके लिए खुदा है, उसके हर वाक्य को वे आप्त वाक्य मानते हैं। यही वजह है वे साक्षरता के आगे अपनी चेतना का विकास नहीं कर पाए हैं। उनके पास डिग्री है ,लेकिन चेतना का स्तर साक्षरों के बराबर है।

नई समझ यह बनायी जा रही है कि छात्र को उपभोक्ता मानो। शिक्षा को सेवाक्षेत्र मानो। इस समझ ने छात्र की पहचान को उपभोक्ता की पहचान के जरिए अपदस्थ कर दिया है। शिक्षा का बड़े पैमाने पर व्यवसायीकरण हो रहा है ,शिक्षा को बाजार की जरुरतों के साथ जोड़ दिया है। इसके कारण शिक्षा का क्षय तो हुआ ही है,शिक्षकों का भी क्षय हुआ है,एक जमाना था शिक्षक “पब्लिक इंटेलेक्चुअल” हुआ करते थे,लेकिन आज कोई भी शिक्षक इस कोटि में नहीं है।अब शिक्षक भी एक “माल” हैं,स्कूल एक बाजार है और छात्र उसके उपभोक्ता हैं। प्राइवेट स्कूलों से लेकर निजी विश्वविद्यालयों तक छात्रों को उपभोक्ता की तरह सेवाएं प्रदान की जा रही हैं और उनसे हर सेवा के पैसे लिए जाते हैं। इस समूची प्रक्रिया ने छात्र-शिक्षक के संबंध को खत्मकर दिया है. आज शिक्षकों पर दवाब है कि वे बाजार की जरुरतों और मांगों की पूर्ति के लिए पढाएं, इस तरह का पाठ्यक्रम पढाओ जिससे छात्रों को नौकरी मिले,वे काम करे, “काम करने” को इतना महत्व दिया गया है कि सोचने-विचारने के लक्ष्य को बहुत कहीं पीछे छोड़ दिया गया है। इस क्रम में हमने कभी सोचा ही नहीं कि इससे देश ताकतवर बनेगा या कमजोर बनेगा !

सवाल यह है हम लोकतंत्र के लिए “नागरिक” चाहते हैं या “उपभोक्ता” ? यदि “उपभोक्ता” के जरिए लोकतंत्र का निर्माण करना चाहते हैं तो लोकतंत्र की प्रकृति अलग होगी.यदि नागरिक के जरिए लोकतंत्र बनाना चाहते हैं तो लोकतंत्र की प्रकृति अलग होगी। “उपभोक्ता” और “नागरिक” में गहरा अन्तर्विरोध है। “उपभोक्ता” के “अन्य” के प्रति कोई सामाजिक सरोकार नहीं होते,वह सिर्फ अपने बारे में सोचता है, निहित स्वार्थों को सामाजिकता कहता है।इसके विपरीत “नागरिक” के निजी नहीं सामाजिक स्वार्थ होते हैं,सामाजिक लक्ष्य होते हैं , उसे अपने से ज्यादा “अन्य” की चिन्ता होती है। लोकतंत्र के विकास के लिए हमें “उपभोक्ता”नहीं “नागरिक” चाहिए। लोकतंत्र कभी भी उपभोक्ता के जरिए समृद्ध नहीं होता, नागरिक और नागरिकचेतना के जरिए समृद्ध होता है। शिक्षा के सेवाक्षेत्र में जाने और छात्र के उपभोक्ता बन जाने का प्रकारान्तर से असर यह हुआ कि छात्र-शिक्षक का संबंध खत्म हो गया। दूसरा, “छात्र(उपभोक्ता) हमेशा सही होता है”,इस धारणा को बल मिला। यही वह धारणा है जिसके आधार पर कहा जा रहा है कि शिक्षकों की भूमिका का छात्र मूल्यांकन करेंगे।यह असल में बाजार की मांग-पूर्ति के गर्भ से उपजा प्रपंच है।तीसरा,दवाब यह है कि शिक्षक वही पढाएं जो छात्र को बाजार में खड़े होने में मदद करे,प्रतिस्पर्धा में खड़े होने में मदद करे। चौथा, यह भ्रम निकाल दें कि निजी स्कूल,निजी क्षेत्र में खुल रहे विश्वविद्यालय आदि शिक्षा के मंदिर हैं ,ये तो “नौकरी” देने वाले संस्थान हैं,शिक्षा देना इनका मकसद नहीं है।निजी क्षेत्र में चल रहे विश्वविद्यालय और स्कूल आदि तो शिक्षा की गुणवत्ता के आधार पर नहीं चल रहे ये तो मीडिया निर्मित इमेज और जनसंपर्क अभियान के जरिए चल रहे हैं। ये कारपोरेट फंडिंग,अनुदान,व्यवसायिक हिस्सेदारी,मुनाफे और नियंत्रण पर आधारित हैं। इन संस्थानों में किसी भी स्तर पर लोकतांत्रिक संरचनाएं और लोकतांत्रिक माहौल नहीं हैं।

देश में स्कूली शिक्षा की स्थिति बेहद खराब है। कक्षा एक से पांच के बीच पढाई के दौरान बीच में ही पढ़ाई छोड़ देने वाले विद्यार्थियों की संख्या तकरीबन 61 प्रतिशत है।यही संख्या बिहार में 75प्रतिशत है।इनमें अनुसूचित जाति-जनजाति के छात्रों की संख्या काफी ज्यादा है। इनमें अनुसूचित जाति के 70फीसदी और जनजाति के 78प्रतिशत छात्र बीच में ही पढाई छोड़ जाते हैं। आज भी 30प्रतिशत बच्चे स्कूल नहीं पहुँच पाए हैं। बिहार में 50फीसदी बच्चे स्कूल के बाहर हैं। बच्चों को स्कूल से बाहर रखने का अर्थ है उनको मानवाधिकार से वंचित करना। इसी प्रसंग में हम निजी और सरकारी क्षेत्र की भूमिका पर भी सोचें। आज हकीकत यह है कि 90फीसदी स्कूल सरकारी क्षेत्र में हैं और मात्र 10फीसदी स्कूल निजी क्षेत्र में हैं। निजी क्षेत्र में सब बच्चों को पढ़ाने की क्षमता ही नहीं है। मौटे तौर पर स्कूली शिक्षा का स्तर बेहद खराब है।

लोकतांत्रिक शिक्षा व्यवस्था-

सवाल उठता है कि छात्रों को इतिहास,अंग्रेजी और विज्ञान पढ़ाएंगे तो क्या देश का विकास होगा या देश में लोकतंत्र को मजबूत करने में मदद मिलेगी ? क्या विज्ञानसम्मत पाठ्यक्रम पढ़ाने मात्र से बेहतर व्यक्ति पैदा होता है ? उत्तर होगा नहीं। वास्तविकता यह है कि हमारे पाठ्यक्रम,छात्र,शिक्षक और शिक्षा व्यवस्था का “सामाजिक न्याय” की अवधारणा के साथ गहरा अन्तर्विरोध है। हमारे शिक्षक-छात्रों में से अधिकांश कभी सामाजिक न्याय के नजरिए से न तो समाज के बारे में सोचते हैं और न शिक्षा व्यवस्था के बारे में सोचते हैं। हमने तो “मैं” या व्यक्तिवाद के आधार शिक्षा का समूचा ढाँचा तैयार किया है। हम जो पाठ्यक्रम पढ़ाते हैं वह सामाजिक यथार्थ जोड़ता नहीं है। मसलन्, हमारे छात्र कहीं पर भी यह नहीं जान पाते कि आखिर गेंहूं की बाली कैसी होती है,चमेली का पौधा कैसा होता है। प्रयोजनमूलक किताब और अंततःकिताब ही उनके ज्ञान का सर्वस्व है। इसके कारण एक कमाऊ व्यक्ति तो शिक्षा बना देती है,सिस्टम के लिए आदमी बना देती है लेकिन समाज के लिए “नागरिक” नहीं बना पाती। शिक्षानीति का आधार जब तक “सामाजिक न्याय” और नागरिकचेतना” को नहीं बनाते हम शिक्षा को बाजार के दवाब से मुक्त नहीं कर सकते। समाज में सर्वसत्तावादी राजनीति को हमेशा उपभोक्ता-छात्र से मदद मिलती रही है,यही वह छात्र है जो “अ-राजनीति” की राजनीति रहा है और खुलेआम सर्वसत्तावादी राजनीति के साथ खड़ा नजर आता है।जबकि वैकल्पिक राजनीति करने वालों के लिए जरुरी है कि वे छात्र को नागरिक बनाएं,मानवाधिकारों की चेतना दें,उसे छात्र जीवन में ,शिक्षा में राजनीति करने,शिक्षा के लोकतांत्रिकीकरण की प्रक्रिया का अंग बनाने और लोकतांत्रिक राजनीति करने के लिए तैयार करें। आज बड़े पैमाने पर जिस संविधानविरोधी और धर्मनिरपेक्षताविरोधी चेतना को युवाओं के एक बड़े समूह में सरेआम देख रहे हैं यह असल में वही समुदाय है जिसे उपभोक्ता-छात्र राजनीति ने तैयार किया है। मुश्किल यह है कि सर्वसत्तावाद की राजनीति करने वाले दोनों प्रधान दल कांग्रेस और भाजपा दोनों को “अ-राजनीति” की राजनीति सही लगती है,वे उसकी दैनंदिन अकादमिक जीवन में वकालत करते हैं और इन्हीं दोनों दलों के बीच उपभोक्ता छात्रों का बड़ा समूह आज आपको खड़ा दिखाई देगा।

देशकी शिक्षा नीति राजनीतिक दल और संसद तय कर रहे हैं,फंड भी राजनीतिक नजरिए से तय हो रहा है,संसाधनों का आवंटन भी राजनीति के आधार पर हो रहा है तो फिर स्कूल-कॉलेज और विश्वविद्यालय के स्तर पर छात्रों को राजनीति करने से मना क्यों किया जा रहा है ? कायदे से शिक्षा संस्थानों में संविधानसम्मत राजनीति की गंभीरता के साथ शिक्षा देनी चाहिए। संविधानसम्मत लक्ष्यों के अनुरुप शिक्षकों के दिलो-दिमाग को रुपान्तरित करने, लोकतांत्रिक नजरिया,लोकतांत्रिक संस्कार और आदतें विकसित करने के प्रयास किए जाने चाहिए। आज देश को संविधानसम्मत विवेक से लैस लोकतांत्रिक शिक्षक चाहिए।

सवाल यह है हम शिक्षा के जरिए किस तरह का व्यक्ति निर्मित करना चाहते हैं ? हम “नागरिक बनाना चाहते हैं या धार्मिक प्राणी या फिर उपभोक्ता बनाना चाहते हैं ? लोकतंत्र के विकास की बुनियाद है “नागरिक” और लोकतंत्र की विचारधारा है मानवाधिकार या संविधानप्रदत्त अधिकार। “नागरिक” बनाए वगैर संविधान प्रदत्त अधिकारों की रक्षा करना संभव नहीं है। आज स्थिति यह है कि शिक्षितों में बहुत बड़ा अंश है जो “नागरिकबोध” से वंचित है,देश में रहते हैं,देश का उपभोग कर रहे हैं लेकिन नागरिकचेतना से शून्य हैं। इसने इफ़रात में मध्यवर्ग के अंदर सर्वसत्तावादी राजनीति का आधार बनाया है।इस तरह के लोग जाने-अनजाने संविधान,लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ आए दिन आचरण करते नजर आते हैं।

आज जो शिक्षित है उसे लोकतंत्र नहीं ,तानाशाही अच्छी लगती है। यही हमारी शिक्षा की आयरनी है। यह वर्ग अपने निहित-स्वार्थों से आगे जाकर देख ही नहीं रहा। यही वह वर्ग है जिसको “सामाजिक न्याय” के नजरिए से चिढ़ है।यही वह वर्ग है जो शिक्षा और समाज के प्रति अपनी जवाबदेही से भागता है। उपेक्षितों से इसने खास दूरी बनायी है। समय-समय उनके हितों पर हमले किए हैं। आज देश में आरक्षण, धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर सबसे ज्यादा वैचारिक और राजनीतिक हमले इसी वर्ग की ओर से हो रहे हैं और देश के सबसे घृणित राजनीतिक समूह (हिन्दुत्ववादियों) के द्वारा इस समूचे घृणा अभियान को शिक्षितों में नियोजित ढ़ंग से चलाया जा रहा है।एक जमाने में यही वर्ग आपातकाल में श्रीमती इंदिरागांधी और मनमोहन सिंह सरकार के साथ खड़ा था।

लोकतांत्रिक शिक्षा के लिए जरुरी है कि विश्वविद्यालय से लेकर स्कूल स्तर तक शिक्षा का समूचा तंत्र लोकतांत्रिक,पारदर्शी और जनशिरकत वाला बनाया जाय। शिक्षा में शामिल लोगों की व्यक्तिगत,सामुदायिक और सामाजिक जवाबदेही तय की जाय। आज स्थिति इतनी भयावह है कि सरेआम संविधान प्रदत्त अधिकारों और मूल्यों को चुनौती दी जा रही है और शिक्षितों में से उसका प्रतिवाद नजर नहीं आ रहा,बल्कि उलटे शिक्षितों का बड़ा समूह हमले कर रहा है।आज सतह पर निजीतौर पर जिम्मेदार नागरिक,शिरकत करने वाला नागरिक और न्याय केन्द्रित नागरिक दिख जाएगा। लेकिन हमें तो ऐसा नागरिक चाहिए जो नागरिकचेना के प्रति वचनवद्ध हो। हमें टुकड़ों में नागरिक हकों से प्यार करने वाला नागरिक नहीं चाहिए। एक अन्य चीज है जिस पर गौर करने की जरुरत है वह है अनुकरण और देशभक्ति, ये दोनों तत्व बेहद दुखदायी हैं, इनसे लोकतांत्रिक लक्ष्यों को हासिल करने में मदद नहीं मिलती, उलटे बाधाएं उठ खड़ी होती हैं। इसी तरह पड़ोसी से अच्छा बर्ताव या ईमानदारी पर अतिरिक्त जोर देने की जरुरत नहीं है ये तो लोकतंत्र के अंतर्निहित गुण हैं।

हमारी शिक्षा का तंत्र वस्तुतःगूंगे-बहरों का तंत्र है। इसमें आने वाले समाज की बहसें और मसलों पर वैचारिक सरगर्मी नजर नहीं आती। क्या हम मान बैठे हैं कि यथास्थिति बनाए रखें ? भविष्य में कुछ भी बदलना नहीं चाहते ? भविष्य के सवालों और समस्याओं पर अकादमिक जगत में सन्नाटा बताता है हमारा शिक्षित समुदाय किस कदर समाज निरपेक्ष है और उसे समाज के भविष्य की कोई चिन्ता नहीं है। यह उसके परजीवी विवेक का आदर्श नमूना है। सवाल यह है हमारी शिक्षा व्यवस्था यथास्थितिवादी है या परिवर्तनशील है ? बहुलतावादी संवेदना निर्मित करती है या धार्मिकचेतना निर्मित करती है ? साम्प्रदायिक ,जातिगत और धार्मिकभेदों को यह समाप्त क्यों नहीं कर पाई ? सच तो यही है कि बहुलतावाद के ऊपरी आवरण को हटा दें तो शिक्षा ने जमीनी स्तर पर भेदों की समाप्ति करने की बजाय भेदों की सृष्टि करने वाली संस्कृति,मूल्य और मानसिकता को निर्मित किया है।

लोकतांत्रिक शिक्षा का लक्ष्य है आलोचनात्मक विवेक पैदा करना। जबकि उपभोक्ता केन्द्रित मौजूदा शिक्षा का लक्ष्य है सर्वसत्तावादी विवेक पैदा करना। इसलिए मौजूदा मॉडल को अंदर और बाहर हर स्तर पर आलोचना के केन्द्र में रखने की जरुरत है। लोकतांत्रिक शिक्षा का परिवेश सामाजिक बहस के नए मुद्दों को जन्म दे सकता है,लोकतंत्र में पॉजिटिव भूमिका निभाने का माहौल बना सकता है। शिक्षकों की पॉजिटिव इमेज बना सकता है और छात्र को नागरिक बना सकता है।

लोकतांत्रिक अध्यापक- लोकतांत्रिक शिक्षा के लिए लोकतांत्रिक परिप्रेक्ष्य,लोकतांत्रिक अकादमिक परिवेश और लोकतांत्रिक शिक्षक का होना जरुरी है। लोकतांत्रिक शिक्षक के बिना लोकतांत्रिक छात्र का निर्माण संभव नहीं है। शिक्षा को बदलने के लिए जरुरी है कि शिक्षकों के नजरिए,संस्कार,आदतें आदि को लोकतांत्रिक बनाया जाय, शिक्षक अपना कायाकल्प करें। लोकतंत्र की धारणा को स्पष्ट तौर पर समझें,लोकतंत्र का मतलब अ-राजनीतिक तंत्र नहीं है,वोट देना मात्र नहीं है,लोकतांत्रिक समाज का मतलब अ-राजनीतिक समाज नहीं है। लोकतंत्र का मतलब है राजनीतिक समाज,ऐसा समाज जिसमें समाज के सभी वर्गों और समुदायों के विकास,मूल्य ,आचार-व्यवहार आदि को लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों की कसौटी पर परखा जाय जो मूल्य खरे उतरें उन्हें बचाएं और जो अप्रासंगिक हैं उनको ठुकराएं। समानता, धर्मनिरपेक्षता ,सामाजिक न्याय और समाजवाद इसके भावी लक्ष्य हैं जिनको प्राप्त करना है।

आज हमारे बीच में इस तरह के लोग है जो शिक्षा के लोकतांत्रिकीकरण का खुलकर विरोध करते हैं और कहते हैं कि शिक्षा को राजनीति से मुक्त रखो। इस तरह के लोगों से यही कहना है कि लोकतंत्र में रहना है तो राजनीतिक होकर रहना होगा। राजनीति के बिना लोकतंत्र संभव नहीं है। लोकतांत्रिक राजनीतिक शिरकत और लोकतांत्रिक राजनीतिकबोध के बिना संवैधानिक मान्यताओं और मूल्यों की रक्षा करना संभव नहीं है। देश में राजनीतिकदलों और संसद से ऊपर है संविधान और उसकी मान्यताएं,हमें किसी भी कीमत पर संविधान के दर्जे को कम नहीं होने देना चाहिए। आज विभिन्न तरीकों से संविधान प्रदत्त मूल्यों और हकों पर हमले हो रहे हैं इन हमलों के खिलाफ आम जनता के साथ शिक्षित समुदाय को मिलकर संघर्ष करने की जरुरत है।आने वाले समय में मोदी सरकार नई शिक्षा नीति लाने जा रही है ,इस सरकार के रंग-ढ़ंग को देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है ये लोग किस रास्ते देश की शिक्षा व्यवस्था को ले जाना चाहते हैं। यही वजह है हमें अभी से शिक्षा जगत में विभिन्न स्तरों पर आने वाली शिक्षा नीति के बारे में सचेत होकर जागरण अभियान चलाने की जरुरत है। अब तक के शिक्षा के अनुभवों को शेयर करने की जरुरत है,नए हमलों को विस्तार से अकादमिक जगत को बताने की जरुरत है,क्योंकि यह वर्ग सम-सामयिक यथार्थ से पूरी तरह विच्छिन्न है और उसे सम-सामयिक यथार्थ के लोकतांत्रिक परिप्रेक्ष्य के साथ जोड़ने की जरुरत है।

शिक्षा के मौजूदा ढाँचे पर बातें करते समय एक पहलू है सरकारी नीति का,दूसरा पहलू है शिक्षक की अवधारणा का और तीसरा पहलू है छात्र के स्वरुप का। भारत में लोकतंत्र है और लोकतंत्र के बहुमुखी विकास में मदद करना हमारी शिक्षा प्रणाली का बुनियादी लक्ष्य होना चाहिए। इसके लिए जरुरी है कि हम लोकतंत्र की समझ बेहतर और गंभीर बनाएं।एक शिक्षक को आचार-व्यवहार और परिप्रेक्ष्य के लिहाज से लोकतांत्रिक होना चाहिए।वह अपने विषय़ को गंभीरता से जाने , छात्रों में अध्ययन और श्रम के प्रति गहन रुचि पैदा करने की उसमें क्षमता हो।वह पढ़ाई के अत्याधुनिक तरीकों से वाकिफ हो,अपने काम की जगह स्वच्छ और सुव्यवस्थित रखना सिखाए,पुस्तकीय सामग्री और कम्युनिकेशन उपकरणों के उपयोग के तरीकों से परिचित हो।छात्रों में सबके साझे कार्यों में शिरकत की भावना पैदा करे, सामाजिक शिरकत और पहलकदमी के लिए प्रेरित करे। साथ ही छात्रों में समाज के प्रति सही दृष्टिकोण पैदा करे। हम यह ध्यान रखें कि शिक्षक के आचार-व्यवहार का छात्रों की सक्रियता पर असर पड़ता है। जो शिक्षक अपने छात्रों को सक्रिय न कर सके ,वह कमजोर शिक्षक माना जाएगा। छात्र में सक्रियता,शिरकत और पहलकदमी की भावना निर्मित करने में स्कूल शिक्षक बुनियाद निर्माण का काम कर सकते हैं। शिक्षा में सक्रियता का अर्थ है बच्चों को सोद्देश्य बौद्धिक क्रियाओं की ओर सक्रिय करना,बौद्धिक क्रिया और वस्तुजगत की एकता पर जोर देना। यदि यह प्रक्रिया एक बार आरंभ हो जाती है तो छात्रों को सही-गलत का फैसला करने में मदद मिलती है। साथ ही श्रम के महत्व को बच्चों के आचरण का अंग बनाना भी जरुरी है। हमारे बच्चे श्रम को पसंद नहीं करते,अपना काम अपने आप नहीं करते।इससे उनके अंदर श्रम विरोधी नजरिया पैदा होता है।



शनिवार, 21 नवंबर 2015

सोया युवामन और कचड़ा संस्कृति


विगत कई दशकों से बहुराष्ट्रीय कंपनियों का युवाओं के खिलाफ विश्वयुद्ध चल रहा है। अफसोस की बात यह है कि विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में पढ़ने वाले अधिकांश युवा इस युद्ध से अनभिज्ञ हैं।कभी -कभी तो इस युद्ध के औजार के रुप में देश के मुखिया भी भाषण देते नजर आते हैं। मसलन्, अधिकांश युवाओं में श्रम - मूल्य में आ रही गिरावट को लेकर कोई गुस्सा या प्रतिवाद नजर नहीं आता। हम अपने दैनंदिन जीवन में देख रहे हैं कि श्रम का मूल्य लगातार गिरा है। दैनिक और मासिक पगार घटी है,लेकिन युवा चुप हैं। युवाओं में अपराधीकरण बढ़ रहा है लेकिन युवा चुप हैं। बच्चों और युवाओं में वस्तुओं की अनंत भूख जगा दी गयी है लेकिन युवा चुप हैं।सामाजिक स्पेस का निजीकरण कर दिया गया है लेकिन युवा चुप हैं।

अब युवा को टीवी खबरों,सोशलमीडिया,सिनेमा,रियलिटी शो,वीडियो शो आदि में मशगूल कर दिया गया है। वस्तुगत तौर पर देखें तो युवाओं का अधिकांश समय कचरा सांस्कृतिक उत्पादों में गुजरता है और युवाओं का एक बड़ा वर्ग इसको ही पाकर धन्य-धन्य घूम रहा है। इससे युवा एक तरह से बेकार-फालतू माल बन गया है जिसे कभी भी कहीं भी फेंका जा सकता है।युवाओं को बेकार-फालतू माल बना दिए जाने की इस प्रक्रिया के बारे में हमने तकरीबन बोलना ही बंद कर दिया है।

आज देश में दुर्दशापूर्ण स्थिति के लिए इस तरह के युवाओं की कचड़ाचेतना को एक हदतक जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। कायदे से होना यह चाहिए कि युवा के अंदर सामाजिक बर्बरता,असभ्यता,कुसंस्कृति आदि के प्रति तुरंत आक्रोश पैदा हो,वह अन्याय के खिलाफ तुरंत प्रतिक्रिया व्यक्त करे,लेकिन हो इसके उलट रहा है,युवाजन आँखों सामने अन्याय-बर्बरता देखते हैं,उसमें शामिल भी होते हैं,असभ्यता देखते हैं और उसका महिमामंडन भी करते हैं। खासकर फेसबुक जैसे माध्यम में यह चीज बहुत तेजी से नजर आई है।

मसलन्, हमारे अधिकांश युवाजन समूचे देश में युवाओं में बढ़ रही हिंसा और अपराध की प्रवृत्ति के खिलाफ कोई जोरदार टिकाऊ आंदोलन करना तो दूर एक बड़ी रैली तक नहीं कर पाए हैं।आज के युवा की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि वह अपने को अपने नजरिए से नहीं देख रहा बल्कि ऐसे व्यक्तियों और संगठनों के नजरिए से देख रहा है जो कहीं न कहीं बहुराष्ट्रीय कंपनियों की संस्कृति-राजनीति और सभ्यता के पैरोकार हैं। ये लोग युवा का जो खाका हमारे सामने खींच रहे हैं वही खाका आँखें बंद करके युवाजन मान रहे हैं।



मसलन्, पीएम मोदी( चाहें तो अभिजन एलीटकह सकते हैं) कह रहे हैं देश विकास कर रहा है,अधिकांश युवा मान चुका है कि देश विकास कर रहा है,वे कह रहे हैं डिजिटल इंडिया तो युवा कह रहा है डिजिटल इंडिया,वे कह रहे हैं देश के युवाओं में अपार क्षमताएं हैं,युवा मानकर चल रहे हैं अपार क्षमताएं हैं, मोदी कह रहे हैं स्कील डवलपमेंट जरुरी है,युवा भी मान चुके हैं कि जरुरी है। इस समूची प्रक्रिया में युवा के मन में यह बात बिठायी जा रही है कि उसके पास निजी दिमाग और विवेक नहीं होता,वह ठलुआ होता है,उसे जो बताया जाएगा वही मानेगा। मसलन् पीएम मोदी कहेंगे कि देश में महंगाई है तो महंगाई है ,यदि वे नहीं कहते तो देश में महंगाई नहीं है,चाहे अरहर की दाल 230रुपये किलो बिके। इस तरह की युवा मनोदशा के बारे में पीएम मोदी यह मानकर चल रहे हैं कि वे युवाओं को वे जब बताएंगे तब ही वह जानेगा। उसमें सामाजिक समस्याओं को जानने-समझने की क्षमता नहीं है। इसके कारण पीएम मोदी को यह भ्रम भी हो गया है कि वे ज्ञान के अवतार हैं और उनके जब ज्ञान चक्षु खुलेंगे तब ही युवाओं के भी ज्ञान चक्षु खुलेंगे। इस समूची प्रक्रिया ने युवाओं में “जय-हो” संस्कृति को जन्म दिया है। यह “जय हो” संस्कृति युवाओं को कचड़ा सांस्कृतिक रुपों , अनुत्पादक मूल्यों और कार्यों में बांधे रखती है।फलतःयुवा के अंदर समाज,संस्कृति,राजनीति आदि को लेकर आलोचनात्मक विवेक पैदा ही नहीं होता और युवामन अहर्निश कचड़ा संस्कृति में रस लेता रहता है। कायदे से युवाओं को कचड़ा संस्कृति के प्रति आलोचनात्मक विवेक पैदा करना चाहिए। जो कहा जा रहा है या दिखाया जा रहा है उस पर सवालिया निशान लगाकर विचारकरना चाहिए ।युवा यह सोचें कि जो कहा जा रहा है वह क्या यथार्थ से मेल खाता है ? जो चीज यथार्थ से मेल नहीं खाती उसे नहीं मानना चाहिए।

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मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

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