सोमवार, 16 नवंबर 2015

नए संन्यासी और पुराने संन्यासी

आरएसएस का सबसे बड़ा असर सन्यासियों पर पड़ा है। संघ ने अपनी विचारधारा के प्रभाव से संन्यासियों की क्रांतिकारी विरासत को संन्यासियों में एकसिरे से खत्म कर दिया और सन्यासियोंको अपने निहित स्वार्थी हिन्दुत्ववादी लक्ष्यों से जोड़ लिया है।
आज के संन्यासीगण जिस तरह सत्तापरस्ती,साम्प्रदायिकतापरस्ती और पूंजीपरस्ती की गिरफ्त में बंधे हैं उसे देखकर तो यही लगेगा कि भारत में कभी सन्यासी प्रगतिशील नहीं थे। जबकि बात यह नहीं है।
स्वाधीनता संग्राम में संन्यासी विद्रोह अपने आप में बहुत बड़ी परिघटना है। स्वयं बंकिमचंद्र चटर्जी ने संन्यासी विद्रोह पर 'आनन्दमठ ' जैसी महान रचना लिखी। बंकिम के बारे में बहुतों की धारणा है कि वे हिन्दू पुनरुत्थानवादी थे,लेकिन सत्य यह नहीं है, 'आनंदमठ' उपन्यास में रामसिंह के निवेदन पर विचार करें, "कोई पाठक अपने मन में यह न समझे कि हिंदू ,मुसलमान में किसी प्रकार का भेदभाव सिद्ध करना इस ग्रंथ का उद्देश्य है। हिंदू होने से ही कोई अच्छे नहीं होते; मुसलमान होने से ही कोई बुरे नहीं होते;अथवा हिंदू होने से ही बुरे नहीं होते,मुसलमान होने से ही अच्छे नहीं होते।अच्छे बुरे दोनों में समान रुप से हैं, बल्कि यह स्वीकार करना पड़ता है कि जब मुसलमान शताब्दियों से भारतवर्ष के प्रभु थे,तब राजकीय गुणों में मुसलमान सम-सामयिक हिंदुओं की अपेक्षा श्रेष्ठ थे।"
आज के हिंदू-मुसलमान पुनरुत्थानवादी इससे ठीक उलटी बात करते हैं।

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