आज मैं यू-ट्यूब के कारण पीएम नरेन्द्र मोदी का संसद में कल दिया गया भाषण सुन पाया। उदयप्रकाश जैसे प्रखर लेखक की राय उनके भाषण की प्रशंसा में पढ़ चुका था इसलिए और भी उत्सुकता थी कि आखिर मोदी ने ऐसा क्या कहा जिसने उदयप्रकाश जैसे लेखक को प्रभावित कर लिया,मुग्ध कर लिया। पहली बात यह कि पीएम मोदी को अपने भाषण में कांग्रेस और उसके नेताओं की भूमिका का नाम लेकर जिक्र करने से परेशानी हो रही थी,उन्होंने अपनी संघी परंपरा का निर्वाह करते हुए संविधान निर्माण में एक भी बार पंडित नेहरु या कांग्रेस पार्टी का नामोल्लेख तक नहीं किया।
पीएम मोदी के लिए संविधान का असल में क्या अर्थ है यह तो वे ही जानें लेकिन यदि उनके कल के भाषण में जो कहा गया है वह यदि संविधान का अर्थ है तो हम विनम्रतापूर्वक कहना चाहते हैं कि पीएम ने हमें निराश किया है।वे संविधान के मर्म को समझ नहीं पाए हैं,दूसरी बात यह कि जिस व्यक्ति ने भी पीएम का भाषण लिखा था उसे कम से कम अच्छा भाषण लिखना नहीं आता।
पीएम मोदी ने अपने भाषण में “सरलीकरण” और “सामूहिकीकरण” के भाषिक पदबंधों का असल मंतव्य पर पर्दा डालने के लिए कौशलपूर्ण ढ़ंग से इस्तेमाल किया। जैसे “राष्ट्र के महापुरुष” ,”सबने अपनी भावना प्रकट की”,”मैं भी अपनी भावना प्रकट कर रहा हूँ”,,”संविधान की पवित्रता”, “संविधान की सर्वोच्चता”,”, कईयों की तपस्या”,”संविधान की शक्ति”,”गौरवगान”,”उत्तम संविधान”,”संविधान के मूल्य”,”संविधान सदन तक सीमित न रह जाय” आदि। जिन लोगों को उद्धृत किया और नाम लिया ,वे हैं, आम्बेडकर,ग्रेन विले आस्टीन, राधाकृष्णन, गजेन्द्र गडकर, सच्चिदानंद सिंह,अटल बिहारी बाजपेयी,एक सांसद, राजा राममोहन राय,ईश्वरचन्द्र विद्यासागर,राममनोहर लोहिया और उनके बहाने पंडित नेहरु,राजेन्द्र प्रसाद, महात्मा गांधी और अंत में संस्कृत की उन पंक्तियों और नारों का जिक्र किया जो कई सालों से सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों और संस्थाओं के प्रतीक के रुप में प्रचलन में हैं।भक्ति आंदोलन से लेकर नवजागरण तक का जिक्र किया लेकिन बहुत सारे लोगों को वे अपनी सुविधा और विचारधारात्मक सीमाओं के कारण छोड़ते चले गए।
मोदी के अनुसार संविधान का नया अर्थ- “डिग्नी फॉर इण्डियन, यूनिटी फॉर इण्डिया,” सरकार का एक धर्म “इण्डिया फर्स्ट”, भारत का संविधान प्रथम। इस समूची प्रस्तुति को देखकर आपको आभास ही नहीं होगा कि भारत के संविधान का धर्मनिरपेक्षता,लोकतंत्र और समाजवाद के लक्ष्यों से कोई संबंध है। समूचे भाषण में एक बार “पंथ-निरपेक्षता” पदबंध का पीएम ने इस्तेमाल किया। संक्षेप में कहें तो यह संविधान की नए सिरे से सौगंध लेने के बहाने संविधान से आँखें चुराने वाली बातें ज्यादा नजर आईं। पीएम ने यह बात जरुर कही कि उनकी सरकार संविधान बदलने के बारे में नहीं सोच रही,आरक्षण खत्म करने के बारे में नहीं सोच रही । लेकिन वे आर्थिक विकास की सुस्तदशा,अभिव्यक्ति की आजादी पर हो रहे हमलों आदि पर चुप रहे।
“अंत में आइडिया ऑफ इण्डिया” का जिक्र करते हुए पीएम मोदी ने जल्दी-जल्दी चक्की चलाते हुए संस्कृत पंक्तियों की ताबड़तोड़ वर्षा कर दी,इस क्रम में वे भूल ही गए कि वे जिन पंक्तियों को वे बोल रहे हैं उनका अर्थ क्या है ? उनका संदर्भ क्या है ? कम से कम रुककर उनके हिन्दी में अर्थ ही बता देते,वे र्थ क्यों नहीं बोल पाए हम समझने में असमर्थ हैं ! मोदी द्वारा उद्धृत संस्कृत की अनेक पंक्तियां सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों और कंपनियों के “मोटो” में हैं !
पीएम मोदी ने आम्बेडकर के साथ मनमाना व्यवहार करते हुए जो कहा है उससे आगे निकलकर हम देखें कि 25नवम्बर 1949 को आम्बेडकर ने क्या था । पता नहीं क्यों सोनिया गांधी और पीएम मोदी दोनों ने आम्बेडकर के व्यक्तिपूजा के खिलाफ कहे कथन का जिक्र करना जरुरी नहीं समझा,क्योंकि इन दोनों नेताओं में व्यक्तिपूजा के कु-संस्कार कूट-कूटकर भरे हुए हैं। इन दोनों नेताओं की मनोदशा को व्यक्तिपूजा पसंद है। दिलचस्प बात है कि दोनों ने एक ही उद्धरण पेश किया।पेश करने का तरीका अलग-अलग था।
अपने इसी भाषण में व्यक्तिपूजा के बारे में आम्बेडकर ने कहा-" जिन महान व्यक्तियों ने आजीवन राष्ट्र की सेवा की,उनके प्रति कृतग्यता रखने में कोई हर्ज़ नहीं।किंतु उस कृतग्यता की भी कुछ सीमा होती है।आयरिश देशभक्त ओकानेल के कथन के अनुसार अपनी आत्मप्रतिष्ठा की बलि देकर कोई भी पुरुष कृतग्य नहीं रह सकता; कोई भी नारी अपना सतीत्व भंग करवाकर कृतग्य नहीं रह सकती; और अपनी अपनी स्वतंत्रता की बलि देकर कोई भी राष्ट्र कृतग्य नहीं रह सकता।अन्य किसी भी देश की अपेक्खा भारत में यह सावधानी बरतना अत्यंत आवश्यक है; क्योंकि भारत की राजनीति में व्यक्तिपूजा का इतना जबर्दस्त असर पड़ता है कि वैसा असर विश्व के किसी भी अन्य देश की राजनीति पर नहीं पड़ता। हो सकता है,धर्म में भक्ति आत्मा की मुक्ति का मार्ग दिखा सकती हो,किन्तु राजनीति में भक्ति या व्यक्तिपूजा अधोगति का या अन्त में तानाशाही का निश्चित मार्ग है,यह ध्यान में रखें।"
आम्बेडकर ने अपने भाषण में संविधान लिखने में मदद करने वाले संविधान लेखकों के नामों का जिक्र किया है। संविधान के बारे में बोलते हुए आम्बेडकर ने कहा “ संविधान में बुने गए तत्व विद्यमान पीढ़ी के मत हैं। और मेरा यह विधान शायद अतिरंजित लगे,तो यह स्वीकार किया जाए कि यह मत सदन का है। संविधान कितना भी अच्छा या बुरा हो,तोभी वह अच्छा है या बुरा है, यह आखिरकार में राज्यकर्ताओं के संविधान के इस्तेमाल करने पर ही निर्भर होगा। ” आम्बेडकर ने यह भी कहा “ लोगों को पहली बात यह करनी चाहिए कि अपने सामाजिक और आर्थिक उद्देश्य सफल बनाते समय संविधानात्मक साधनों का मार्ग स्वीकार करना चाहिए। असहयोग,कानूनभंग और सत्याग्रह के मार्ग छोड़ दें;क्योंकि संविधानबाह्य मार्ग यानी केवल अराजकता का व्याकरण है।” दिलचस्प बात यह है मोदी ने आज उपरोक्त बातों का अपने भाषण में जिक्र किया,इसमें पहले वाले उद्धरण का मोदी और सोनिया दोनों ने जिक्र किया लेकिन व्यक्तिपूजा की बात को छोड़ दिया।
आम्बेडकर ने अपने भाषण में सबसे महत्वपूर्ण यह कही ,जिसका मोदी-सोनिया ने जिक्र ही नहीं किया,यह बात हम सबके लिए आज भी प्रासंगिक है,आम्बेडकर ने कहा, “भारतीय लोकतंत्र की रक्षा करते समय भारतीयों को तीसरी बात यह करनी चाहिए कि वे राजनीतिक लोकतंत्र से संतुष्ट न रहें।उनको राजनीतिक लोकतंत्र का सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र में रुपान्तरण करना चाहिए।अगर राजनीतिक लोकतंत्र सामाजिक लोकतंत्र पर अधिष्ठित नहीं किया गया ,तो वह टिक ही नहीं सकता; क्योंकि सामाजिक लोकतंत्र स्वतंत्रता,समता और बंधुभाव को जीवन के तत्वों के रुप में पहचानता है।स्वतंत्रता,समता और बंधुभाव एक अखण्ड और अभंग त्रिमूर्ति है। अगर सामाजिक समता न होगी तो स्वतंत्रता का अर्थ मुट्ठीभर लोगोंका आम जनता पर राज्य करना होगा।अगर समता स्वतंत्रताविरहित होगी,तो व्यक्ति के जीवन की स्वयंप्रेरणा नष्ट करेगी।अगर बंधुभाव न होगा तो स्वतंत्रता और समता की वृद्धि सहजता से नहीं होगी।भारतीय जनता को एक बात स्वीकार करनी चाहिए कि भारतीय समाज में दो बातों का अभाव है।ये दो बातें हैं- सामाजिक समता और आर्थिकसमता।” अपने आवेशपूर्ण भाषण में आम्बेडकर ने यह भी कहा “ 26जनवरी1950 को हमें राजनीतिक समता प्राप्त होगी। किन्तु सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता रहेगी। अगर यह विसंगति यथासंभव दूर करने का प्रयास हमने नहीं किया,तो विषमता की आँच लगी हुई है,वे लोग संविधान समिति द्वारा बड़े परिश्रम से बनाए इस राजनीतिक लोकतंत्र की मीनार मिट्टी में मिलाए बिना नहीं रहेंगे।” अपने इसी भाषण में आम्बेडकर ने जातिभेद पर हमला किया था। अफसोस की बात है इस पहलू की ओर पीएम मोदी का ध्यान ही नहीं गया। आम्बेडकर ने 40 मिनट तक अपना भाषण दिया था। संविधान समिति ने 26 नवम्बर को संविधान स्वीकार किया था,इसलिए इस तिथि का महत्व है । आम्बेडकर ने अपने बिगड़े हुए स्वास्थ्य की अवस्था में संविधान निर्माण के काम को पूरा किया था। संविधान का मसौदा किस अवस्था में तैयार हुआ इस पर 5नवम्बर1948 को संविधान समिति के सदस्य टी.टी.कृष्णमाचारी ने संविधान समिति के सामने जो कहा वह बेहद महत्वपूर्ण है,उन्होंने कहा, “ सदन को शायद यह मालूम हुआ होगा कि आपके चुने हुए सात सदस्यों में से एक ने इस्तीफा दे दिया उसकी जगह रिक्त ही रही।एक सदस्य की मृत्यु हुई।उसकी जगह भी रिक्त ही रही।एक अमेरिका गए,उनकी जगह भी वैसे ही खाली पड़ी रही।चौथे सदस्य रियासत संबंधी कामकाज में व्यस्त रहे।इसलिए वे सदस्य होकर भी नहीं के बराबर थे।दो-एक सदस्य दिल्ली से दूरी पर थे।उनका स्वास्थ्य बिगड़ने से वे भी उपस्थित न हो सके।आखिर यह हुआ कि संविधान बनाने का सारा बोझ अकेले डॉ.आम्बेडकर पर ही पड़ा।इस स्थिति में उन्होंने जिस पद्धति से वह काम पूरा किया, उसके लिए हम उनके हमेशा ऋणी रहेंगे।” संविधान समिति की अनेक बैठकों में आम्बेडकर और उनके कार्यवाहक ही सिर्फ उपस्थित रहते थे.इस दृष्टि से संविधान का सारा मसौदा अकेले आम्बेडकर ने बेहद कष्ट की अवस्था में पूरा किया।
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