रविवार, 29 नवंबर 2015

धर्मनिरपेक्षता,धर्म की स्वतंत्रता और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र


           
संसद में इन दिनों भीमराव आम्बेडकर के 125वें जन्मदिन के मौके पर दो दिवसीय बहस हो रही है, इस बहस ने संविधान के सवालों को नए सिरे उठा दिया है।खासकर “धर्मनिरपेक्षता” के सवाल को प्रमुख सवाल बनाकर खड़ा कर दिया है। सत्ताधारी भाजपा को “धर्मनिरपेक्षता” को लेकर पहले से आपत्तियां थीं,लेकिन पहले वे कभी-कभार बोलते थे, लेकिन मोदी सरकार बनने के बाद वे बार-बार “सेकुलर” शब्द पर आपत्ति कर रहे हैं,उसके खिलाफ घृणा अभियान चलाए हुए हैं, लोकसभा चुनाव में प्रचार अभियान के दौरान उन्होंने सबसे घटिया ढ़ंग से “धर्मनिरपेक्षता” पर हमला किया।

हाल ही में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने संसद में भीमराव आम्बेडकर के 125वें जन्मदिन के मौके पर संसद में चल रही बहस में भी “धर्मनिरपेक्षता” को निशाना बनाया, प्रधानमंत्री तो” सेकुलर “ शब्द का इस्तेमाल ही नहीं करते। यही वह संदर्भ है जिसमें संविधान निर्माण के समय “धर्मनिरपेक्षता” पर चली बहस के कुछ पहलुओं का नए सिरे से मूल्यांकन करना बेहद जरुरी है।संविधान के प्रति प्रतिबद्धता जताने के लिए केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा है “देश में 'सेक्युलर' शब्द का सबसे ज़्यादा दुरुपयोग हुआ है और इसे बंद किया जाना चाहिए.” उन्होंने यह भी कहा कि 42वें संविधान संशोधन के जरिए आपातकाल में संविधान के प्रियम्बुल में धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद को जोड़ा गया। राजनाथ सिंह के बयान में कई मसले निहित हैं। इस प्रसंग में पहली बात यह कि 42वें संविधान संशोधन के सभी काले कानूनों को 44वें संविधान संशोधन के जरिए हमेशा के दफ्न कर दिया गया,उस समय जनता पार्टी की सरकार थी।वह आपातकाल विरोध की आंधी पर सवार होकर आई थी, लेकिन संविधान की प्रस्तावना से “धर्मनिरपेक्षता” और “समाजवाद” को नहीं निकाला गया। क्योंकि ये दोनों धारणाएं प्रासंगिक,संवैधानिक और वैध हैं। संविधान का क ख ग जानने वाला व्यक्ति भी इस तथ्य को जानता है,इसके बावजूद आरएसएस और उनकी भजनमंडली “धर्मनरपेक्षता” और “समाजवाद” के खिलाफ विषवमन करती रही है। लोकतंत्र,धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद हासिल करना हमारे संविधान का मूल लक्ष्य है। इस लक्ष्य से देश को विचलित नहीं किया जा सकता। अब थोड़ा उस पहलू पर विचार करें जो संघियों को परेशान किए हुए हैं।

“धर्मनिरपेक्षता” के प्रसंग में स्व. प्रोफेसर के.टी शाह का जिक्र करना जरुरी है। वे संविधान सभा परिषद के सदस्य थे. उन्होंने दो बार यह कोशिश की थी कि संविधान में “सेकुलर” पदबंध को बुनियादी अधिकारों में शामिल कर लिया जाय, लेकिन उनको सफलता नहीं। अपने दूसरे प्रयास में उनके द्वारा प्रस्तुत संशोधन पर संविधान परिषद में विचार जरुर हुआ, उनके द्वारा प्रस्तावित संशोधन था “ The state in India being secular shall have no concern with any religion ,creed or profession of faith.” शाह का मानना था कि देश में साम्प्रदायिक ताकतें सिर उठा रही हैं और उनके कारण देश को भयानक त्रासदी झेलनी पड़ रही है ऐसी स्थिति में संविधान में राज्य के धर्मनिरपेक्ष चरित्र के बारे में स्पष्ट ढ़ंग से जरुर लिखा जाना चाहिए. यह अफसोस की बात है कि कानूनमंत्री को उनका संशोधन मान्य नहीं था और उनका संविधान संशोधन परिषद ने खारिज कर दिया।

हाल ही में राजनाथ सिंह एंड कंपनी ने जो बहस आरंभ की है और उसके पहले से संघ के लोग सवाल खड़े करते रहे हैं कि वे भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य नहीं मानते। वे तो हिन्दूराष्ट्र मानते रहे हैं।असल में भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को परिभाषित करने के लिए जरुरी है कि संविधान में वर्णित धर्म की स्वतंत्रता, नागरिकता और राज्य और धर्म के अन्तस्संबंध से जुड़े सवालों नए सिरे से विचार करें।

हमारा संविधान व्यक्ति और समुदाय दोनों ही स्तरों पर धर्म की स्वतंत्रता को सुनिश्चित बनाता है। धर्म की साझा आस्थाओं, रीतियों, और अनुशासनों को स्वतंत्रता देता है। मजेदार बात है कि धर्म की स्वंत्रता मात्र व्यक्ति तक सीमित नहीं है,बल्कि “ सभी व्यक्तियों” तक इसका विस्तार किया गया है। यानी भारत में देश के बाहर से आकर रहने वालों को भी धर्म की स्वतंत्रता है। यही वजह है कि भारत के बाहर से आए ईसाई संत और मिशनरियों को भी धर्म की स्वतंत्रता का संवैधानिक लाभ मिलता है। धर्म की स्वतंत्रता का संविधान में प्रावधान असल में कांग्रेस के 1931 के करांची अधिवेशन में पारित मूलभूत अधिकार संबंधी प्रस्ताव से सीधे लिया गया है,यहां तक कि दोनों की भाषा में भी समानता है। उस समय अनेक हिन्दुत्व समर्थकों ने धर्म के प्रचार की स्वतंत्रता का यह कहकर विरोध किया था कि ईसाई मिशनरियों के द्वारा इसका दुरुपयोग हो सकता है।वे इसके बहाने धर्मान्तरण कर सकते हैं। उनके इन सब तर्कों को संविधान सभा ने नहीं माना।

धर्म की स्वतंत्रता में धर्मचेतना का प्रचार प्रसार शामिल है। लेकिन संविधान निर्माताओं ने इसमें एक राज्य का नियंत्रण भी लगाया ,मसलन्, यदि धर्म के प्रचार से कानून-व्यवस्था में बाधाएं खड़ी हों,नैतिक और स्वास्थ्य संबंधी गड़बड़ी पैदा हो तो धर्म के प्रचार को राज्य रोक सकता है।इसी क्रम में बताया गया कि धार्मिक प्रचार नियमन के दायरे में आता है।जबकि धर्मचेतना के बारे में राज्य को व्यक्ति के जीवन में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार संविधान नहीं देता। इस प्रसंग में राज्य की भूमिका सामाजिक जीवन को सामान्य बनाए रखने की है। लेकिन धर्मचेतना के बारे में व्यक्ति के अधिकार एकदम सुरक्षित माने गए हैं,उसमें राज्य हस्तक्षेप नहीं कर सकता। इसी तरह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 295-98 में धर्म संबंधी अनेक अपराधों का जिक्र किया गया है ।

संविधान के प्रसंग में यह सवाल भी उठा कि “धर्म” क्या है ? इसे कौन परिभाषित करेगा ? संविधान के अनुच्छेद 25(1) में इसे परिभाषित किया गया है । सवाल यह है धर्म को व्यक्ति,धार्मिक संस्था और राज्य कौन परिभाषित करेगा ? इस धारा के प्रसंग में दर्जनों अदालती फैसले आ चुके हैं और न्यायालय संविधान सम्मत निर्देशों के पालन पर अनेकबार राजसत्ता को निर्देश दे चुका है। न्यायालयों ने आम्बेडकर की धारणाओं में भी संशोधन किए हैं। आम्बेडकर ने पर्सनल लॉ के प्रसंग में संविधान सभा में बहस में बोलते हुए कहा था कि हमारे देश में धर्म की अवधारणा जन्म से मृत्यु पर्यन्त फैली हुई है।यहां कोई चीज ऐसी नहीं है जिसे धर्म न कहते हों,हमें यदि पर्सनल लॉ की रक्षा करनी है तो सामाजिक विषयों पर इस गतिरोध से निकलना होगा।यहां संस्कार और आस्था धर्म में गिने जाते हैं,अतः धार्मिक संस्कार-उत्सव तक तो यह ठीक है, लेकिन उत्तराधिकार, संपत्ति के अधिकार आदि में धार्मिक मान्यताओं के अनुसार व्यापक अधिकार नहीं दिए जा सकते। यही वजह है कि आम्बेडकर ने धार्मिक संस्कारों और समारोहों को तो धर्म के दायरे में रखा।

मनुष्य की अनेक धार्मिक गतिविधियां धर्मनिरपेक्ष गतिविधि के दायरे में आती हैं,यह भी हो सकता है कि धर्म के धर्मनिरपेक्ष आयाम भी हों,ऐसी स्थिति में धर्मनिरपेक्ष धार्मिक गतिविधियों को धर्म का अंग नहीं माना जाना चाहिए। यही बात आस्था और विश्वास के साथ जुड़े सवालों पर भी लागू होती है। संविधान इस मामले में एकदम साफ है कि नागरिक के आस्था और विश्वासों को धार्मिक संस्थाएं नियमित और नियंत्रित नहीं कर सकतीं। पूजा-अर्चना,खानपान और पहनावे के मामले में धार्मिक मान्यताओं को संविधान मानता है लेकिन अन्य मामलों में नहीं।मसलन्,मंदिर में पूजा कैसे होगी,क्या प्रसाद चढ़ाया जाएगा,मंदिर में क्या पहनकर जाएं ,मंदिर में पुजारी किस तरह के वस्त्र पहनेगा,मंदिर कब खुलेगा,कब बंद होगा,मंदिर में उत्सव कब मनाए जाएंगे,भगवान क्या पहनेंगे और कैसे पहनेंगे , कौन से मंत्र पढ़े जाएंगे आदि चीजों का फैसला संबंधित धार्मिक संस्था करेगी,उसमें राज्य दखल नहीं देगा,न्यायालय भी दखल नहीं देगा। लेकिन किसी व्यक्ति के नागरिक अधिकार क्या होंगे यह धर्म तय नहीं करेगा।

उल्लेखनीय है धर्म के दायरे में क्या आता है इसका दायरा संविधान बनाने के बाद से अदालतों की व्याख्याओं के बाद बढ़ा है। यह भी ध्यान रहे कि संविधान धर्म की स्वतंत्रता देता है तो संविधान के अनुच्छेद धारा25(2) के तहत राजसत्ता को धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप का अधिकार भी है। इस प्रावधान के तहत ही कई मामलों में मंदिर प्रबंधन आदि के अधिकार राजसत्ता ने अपने हाथ में ले लिए । इसी के आधार पर बड़े पैमाने पर हिन्दू पर्सनल लॉ (शादी,तलाक,गोद लेने का कानू,उत्तराधिकार आदि) में परिवर्तन किए गए। संविधान के अनुच्छेद 25(2) के तहत राजसत्ता को समाजसुधार से संबंधित कानून बनाने का अधिकार भी है। इसके आधार पर ही हिन्दुओं में बहुपत्नीप्रथा समाप्ति के लिए कानून बनाया।जबकि हिन्दूधर्म के अनुसार बहुपत्नी प्रथा वैध थी। मंदिर में हरिजन प्रवेश को वैधता दी गयी।अछूत परंपराओं के खिलाफ कानून बनाए गए।जबकि हिन्दू धर्म में हरिजनों का मंदिर प्रवेश निषिद्ध था,अछूत प्रथा वैध थी।हिन्दुओं के पर्सनल लॉ में लाए गए सुधारों ने सबके लिए समान नागरिक अधिकारों की मांग का बहुत बड़ा आधार निर्मित किया है।

संविधान के तहत राजसत्ता के पास धार्मिक संस्थानों के वित्तीय क्षेत्र को नियंत्रित करने का हक भी है। उल्लेखनीय है मध्यकाल में अनेक राज्यों में राजाओं का मंदिरों के वित्तीय क्षेत्र पर नियंत्रण और स्वामित्व था।



धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का एक छोर धर्म की स्वतंत्रता से जुड़ा है तो दूसरा छोर नागरिकों के अधिकारों और नागरिकता की अवधारणा से जुड़ा है। हमारा संविधान व्यक्ति को आधारभूत सामाजिक इकाई मानकर नागरिकता पर विचार करता है, वह समूह या समुदाय को आधारभूत यूनिट मानकर विचार नहीं करता। हमारे यहां नागरिक का आधार व्यक्ति है,समूह,जाति या समुदाय या धर्म नहीं है। राज्य ने संविधान के तहत व्यक्ति के अधिकारों और जिम्मेदारियों दोनों का खुलासा किया है।इसे हम व्यक्ति और राजसत्ता के अन्तस्संबंध के रुप में देख सकते हैं।

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