सोमवार, 31 दिसंबर 2012

फेसबुक और स्त्रीमुक्ति

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स्त्री अपनी पहचान अर्जित करे इसके लिए जरूरी है कि झूठी भावनाओं और लालसाओं से मुक्त होकर स्वयं को देखे। विभ्रमों से दूर रहे।

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स्त्री की मुक्ति का अर्थ है -स्त्रियों को आत्म-निर्णय का अधिकार होना चाहिए।

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औरत की स्वायत्तता की रक्षा के लिए उससे बात बात पर स्पष्टीकरण मांगना बंद करें।

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स्त्री की मुक्ति का मार्ग आरंभ होता है उसकी स्वायत्तता मानने से । हम उसे अपने अनुकूल ढालना बंद करें। स्त्री को अनुकूल ढालने का अर्थ है उसे मातहत बनाना।

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टीवी चैनल लगे हुए हैं कि समाज को बदलने के लिए क्या करें और पंडितलोग बता रहे हैं यह करो, यह न करो। समाज बदले इसके लिए पहली शर्त्त है कि औरत के जीवन में हस्तक्षेप बंद हो।

हर स्तर पर स्त्री पर समाज और परिवार का हस्तक्षेप सबसे बड़ी बाधा है। हमें स्त्री पर विश्वास करना चाहिए। उस पर संदेह करना छोडें। स्त्री को निषेध और हस्तक्षेप की जरूरत नहीं है।

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कथाकार रमेश उपाध्याय का सुझाव है कि- सबसे पहले हिंदी की स्त्री और स्त्री अंगों से सम्बंधित गालियों के खिलाफ जंग ज़रूरी है.

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भारतीय मनोदशा में जड़ जमाए हुए स्त्री के रूढ़बद्ध रूपों के खिलाफ जंग करने जरूरत है। इसमें सबसे जनप्रिय है रमणी , काली औरत, गोरी औरत,सुंदरी आदि।

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भारतीय मध्यकालीनबोध का आदर्शरूप है बातूनीपन। भारतीयलोग बात करने के लिए प्रसिद्ध हैं। वे खूब बोलते हैं। तर्क करते हैं। लेकिन अधिकांश बातों को ठंड़े बस्ते में बंद कर देते हैं। हमें बातूनी भारतीय की जगह एक्शन वाले भारतीय की जरूरत है ,जो बात करें उसका पालन करें।

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ग्राम्य संस्कृति में अनेक स्त्रीविरोधी बातें हैं जो हमें संस्कारों में मिली हैं। उनमें से एक है कुलच्छनी लड़की की धारणा। उसे तरह तरह के तर्कों से शुचिता से जोड़ा गया। साथ ही अनेक किस्म की नैतिकता संबंधी मान्यताएं इस कुलच्छनी लड़की की धारणा में आरोपित करके लड़की के ऊपर थोप दी गयी हैं। जो ग्राम्यसमाज हमें कुलच्छनी लड़की की धारणा में बांधता है उसके क्षय की हम कामना करते हैं। लडकी कुलच्छनी नहीं होती।

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फेसबुक पर जो लोग आएदिन ग्राम्यसंस्कृति का महिमामंडन करते रहते हैं वे ग्राम्य संस्कृति में निहित कुसंस्कृति की हमेशा अनदेखी करते हैं। ग्राम्य संस्कृति की बल्गर कल्चर का आदर्श रूप है हलकट जवानी ,जलेबीबाई, चिकनी चमेली आदि के रूप में प्रचलित आइटम फिल्मी गाने। भोजपुरी आदि के लोकगीतों में कालांतर में आई वल्गर कल्चर को हिन्दी और भोजपुरी सिनेमा ने खूब भुनाया है। ये सारे हमारे ग्राम्यजीवन के पतन के सांस्कृतिक साक्ष्य भी हैं। इस तरह की प्रस्तुतियों ने स्त्री के भोग्यारूप को प्रतिष्ठा दिलायी है। स्त्री की वल्गर कल्चर का उपभोग अंततः मर्दानगी का नया पाठ रच रहा है।

लोककला के एक नहीं अनेकस्तर हैं। जैसे लोग होगें ,वैसे ही लोककला के स्तर भी होंगे। लोककला में इकसार जैसी चीज नहीं होती।इसलिए वह बदलती रही है। समाज में जितने सांस्कृतिक स्तर होगे के उतने ही लोककलाओं में भी स्तर होंगे। लोककला वल्गर संस्कृति का शिकार कब और किन सामाजिक समूहों के संपर्क और प्रभाव से हुआ है इसके अलग-अलग स्थानों के लिए अलग कारण हैं। लोकगीत किसी न किसी व्यक्ति की ही देन है। लोकसर्जक की प्रतिभा व्यक्तिगत होती है। उसमें समूह की भूमिका देखना सही नहीं होगा। जितने भी कला इतिहासकार हैं उन्होंने इस तथ्य को समानरूप से रेखांकित किया है। फलतः इसमें सर्जक व्यक्ति अनुभतियां और विचारधारा भी अभिव्यक्त हुई है।



हाउजर ने लोककला को कृषककला से अलगाया है। लिखा है- लेोककला जैसे कृषक कला के समरूप नहीं होती उसी तरह कस्बाई कला के भी समरूप नहीं होती। लोककला के सर्वाधिक उल्लेखनीय लक्षणों में एक शहरों और सांस्कृतिक केन्द्रों की कला से इसका वैपरीत्य है,यद्यपि सारतः यह गैर-शहरी कला है, लेकिन वह ऐसी कला नहीं जो शहरी होना चाहती है मगर हो नहीं सकती।... लोक कला हालांकि अपने आप शहरों,दरबारों और मठों में उत्पादित कला पर निर्भर करती है,पर कभी सचेतन रूप से, उद्देश्यपूर्वक या गुलाम ढ़ंग से उससे होड़ नहीं करती।हालांकि यह दोयमदर्जे की कला होती है।( कला का इतिहास दर्शन,पृ.258)



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भारतीय ग्राम्य मानसिकता है कि अपराध करो और भूल जाओ। मर्द अपराध करता है और समाज-परिवार लड़की से कहता है चुप रह,किसी से मत कहना,छोड़ जाने दे,भूल जा। दूसरी ओर अपराधी हाथ-पैर जोड़ने लगता है।रोने-बिसूरने लगता है। माफी चाहता है और कहता है भूल जाओ-माफ करो। इस मानसिकता ने अपराध की मानसिकता को सामाजिक समर्थन दिलाया है। अपराध की अनदेखी करने की आदत पैदा की है।

अपराध की अनदेखी अंततःअपराधी को अपराधी मनोदशा में बांधे रखती है। वह अपराध करना नहीं छोड़ता। स्त्री-संबंधी अपराधों को इसी कारण हल्के ढ़ंग से लिया जाता है।

आधुनिककाल आने के बाद स्त्री ने ज्योंही निर्ममता से पेश आना आरंभ किया और प्रतिवाद किया तो स्त्रीरक्षा के विभिन्न कानूनों का जन्म हुआ।

यह अचानक नहीं है कि पुराने जमाने में स्त्री हिंसा के खिलाफ कभी भी न तो कड़े कानून बने और न कभी हिंसकों को दण्डित किया गया। बल्कि स्त्री अपहरण को वीरता से विभूषित किया गया।

स्त्री को मर्द की जिन हरकतों से परेशानी होती है उनको सहन करने की शिक्षा हमारा समाज सदियों से देता रहा है और यह ग्रामीण समाज था ।अतःग्रामीण समाज में चली आ रही स्त्रीविरोधी मानसिकता को निशाना बनाने की जरूरत है।

नए मध्यवर्ग में मर्द की अनेक सामंतीदौर की कुप्रथाएं चली आई हैं। उनमें से एक है अपराध करो और भूल जाओ। औरत से कहा जाता है सहन करो और सो जाओ।

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स्त्री की सामाजिक और आर्थिक परनिर्भरता ने मर्दों के आतंक के खिलाफ स्त्री की लडाई को कमजोर किया है। इसके कारण औरत बेबस हुई है। औरत की बेबसी का आलम यह है कि यदि किसी लड़की के साथ किसी परिवारीजन के द्वारा बदतमीजी की हरकत की जाती है तो लड़की अपनी माँ से कहती है, पिता से नहीं। माँ कहती है तू चुप रह,वेबजह कलह होगी,सिर फूटेंगे,गोली चलेंगी,तेरी शादी-ब्याह का मसला भी उलझन में फंस जाएगा। यानी औरत को हमेशा अन्य की इज्जत की रक्षा दुहाई देकर अपनी इज्जत लुटने देने के लिए कहा जाता है। स्त्री के प्रति समाज का ग्राम्यबोध ही है जो औरत की इज्जत को इज्जत नहीं मानता ,मर्दों की इज्जत को इज्जत मानता है. परिवार,पंचायत,जाति,धर्म आदि सबकी इज्जत की रक्षा करने के नाम पर स्त्री की इज्जत को लूटा गया है।

स्त्री की इज्जत के सवाल हमें इसीलिए कभी उद्वेलित नहीं करते हम उनको बड़े बारीक -बारीक बहानों के जरिए टालते रहे हैं। स्त्री की इज्जत समाज की इज्जत है। समाज की इज्जत, स्त्री की इज्जत नहीं है। हमें ऐसे समाज से घिन आती है जो बहानों के जरिए स्त्री की इज्जत को हाशिए पर डालता रहा है। स्त्री की पूजा करने से हम बाज आएं ,उसकी इज्जत करना सीखें। स्त्री के प्रति पूजाभाव ग्राम्यबोध की देन है। स्त्री को इज्जत देना आधुनिकभावबोध से जुड़ा है।हम चाहते हैं स्त्री के प्रति चले आरहे ग्राम्यभावबोध का अंत हो।

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भारत में स्त्रियों पर बढ़ते हुए हमलों का एक वैचारिक पहलू धर्मनिरपेक्षता (कांग्रेस मार्का) और छद्म धर्मनिरपेक्षता (संघ परिवार-भाजपा मार्का) दो छोरों में बंधा हुआ है। धर्मनिरपेक्षता की आड़ में हमने देश में कभी भी पितृसत्ता के बारे में सवाल ही खड़े नहीं किए। आज भी हम पुलिस,कानून,सरकार आदि की बातें कर रहे हैं पितृसत्ता की परतों को खोलने के लिए तैयार नहीं हैं। धर्मनिरपेक्षता के बारे में राजा राममोहन राय की धारणा असल में पितृसत्ता को बरकरार रखती है। उससे मुक्ति के बारे में हमने कभी सोचा ही नहीं। कम से कम स्त्री के नजरिए से हमने धर्मनिरपेक्षता पर कभी पुनर्विचार नहीं किया। यहांतक कि कम्युनिस्ट चिंतकों ने भी इस पहलू की उपेक्षा की है। क्योंकि मार्क्सवाद की आड़ में भी पितृसत्ता बनी रहती है। यही हाल संघ परिवार की विचारधारा का है वे तो पितृसत्ता के घृणिततम रूपों की भी हिमायत करते रहे हैं और औरत के बारे में हिटलर के विचारों का प्रचार करते रहे हैं। स्त्री पर हमले न हों इसके लिए जरूरी है पितृसत्ता का क्षय हो।उसके सभी रूपों के खिलाफ समझौताहीन दीर्घकालिक संघर्ष चलाया जाय।

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शहरों में गैर कानूनी गुजर बसर के वे इलाके भी देखे जाने चाहिए जिनको हम झुग्गी-झोंपडी के इलाके कहते हैं। ये समानान्तर इलाके हैं इनमें कानून का शासन नहीं चलता,यहां पर सामान्य नागरिक सुविधाएं भी नहीं हैं और ये समानान्तर अर्थव्यवस्था के बड़े क्षेत्र हैं। स्त्री पर शहरों में बढ़ते हमलों से लेकर तमाम किस्म के अवैध-धंधों के ये इलाके हैं,इन इलाकों में रहने वालों को दबंग किस्म के नेता-माफिया नियंत्रित करते हैं और ये वोटबैंक भी हैं। स्त्रियों पर हमले की घटनाएं इन इलाकों में रहने वाले मर्दों ने ज्यादा की हैं।



इसके अलावा शहरी मध्यवर्ग में जिनलोगों ने स्त्री को संपत्ति मानकर संबंध बनाए हैं वहां पर स्त्री पर हमले बढ़े हैं। स्त्री को निजी संपत्ति के रूप में देखने वालों में अच्छा-खासा तबका खाते-पीते मध्यवर्ग और निम्नमध्यवर्ग से आता है और स्त्री उत्पीडन का यह बड़ा सामाजिक क्षेत्र है। स्त्री स्वस्थ और सुखी रहे इसके लिए जरूरी है स्त्री को संपदा न समझा जाय और शादी-ब्याह में संपदा की मांग न की जाय।

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दिल्ली में आए दिन होने वाली बलात्कार की घटनाओं में जिन सामाजिक कारकों की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है उन पर कोई बात नहीं कर रहा।

दिल्ली में बड़े पैमाने पर माइग्रेटेड लोग गांवों से आ गए हैं और बड़े पैमाने पर गांवों को भी एनसीआर के दायरे में समेट लिया गया है। इसके कारण बडी मात्रा में गैर-शहरी जनता का एक अच्छा खासा असभ्य तबका शहरी संरचना में आ मिला है उसे महानगर की रौनक,उदारता,मूल्यबोध और आदतों का ज्ञान नहीं है और वह अपने पिछड़े भावबोध के साथ शहरी लोगों को खासतौर पर औरतों को औचक और असभ्यभाव से देखता है। इसी वर्ग में नशा करके चलने और शारीरिक हमले करने वालों की बड़ी संख्या पायी गयी है।

इसमें एकवर्ग वह भी है जो संपदा के लिहाज से मध्यवर्ग में आ गया है लेकिन सामाजिक चरित्र उसका ग्रामीण है और सामंती मूल्यों को जीता है। सामंती मूल्यबोध का घृणिततम रूप है स्त्री पर हमला।

सामंतों के लिए स्त्रियां कभी मनुष्य नहीं रही हैं। वे उनको मसलने की चीज समझते रहे हैं यही वजह है कि औरतों पर इन असभ्यों के हमले बढे हैं।

रविवार, 30 दिसंबर 2012

दामिनी प्रकरण पर फेसबुक कवरेज का असर

दामिनी प्रसंग में हमने अनेक मांगें ,सुझाव और अनेक विचार रखे । इनमें अनेक मांगें और सुझाव केन्द्र सरकार के नेताओं ने माने हैं।अनेक सुझावों को मीडिया में प्रचार के लिए इस्तेमाल किया गया और यही विचारों का आदान-प्रदान फेसबुक लेखन की बड़ी उपलब्धि है। इस प्रसंग में उन सभी टिप्पणियों को यहां नए सिरे से पढ़ने की जरूरत है। 

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दामिनी का पार्थिव शरीर आज तड़के सुबह विशेष विमान के जरिए दिल्ली आ चुका है। हवाई अड्डे पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी मौजूद थीं। हम सब दामिनी को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

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औरतों पर अत्याचार थमें इसके लिए जरूरी है कि पुलिस फोर्स में खाली पड़े स्थानों को तत्काल भरा जाय। प्रत्येक थाने के प्रतिदिन के फोन रिकॉर्ड रखे जाएं। प्रत्येक थाने में स्त्री विरोधी मानसिकता के खिलाफ पुलिसकर्मियों को शिक्षित किया जाय।

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केन्द्र सरकार को औरतों पर बढ़ते हुए अत्याचारों को देखते हुए तुरंत एक नयी योजना घोषित करनी चाहिए जिसके तहत देश में औरतों के खिलाफ चल रहे उत्पीड़न के मुकदमों को विशेष अदालतों के हवाले करके तत्काल न्याय की व्यवस्था करनी चाहिए। इन अदालतों के अलावा महिला आयोगों को अधिकार संपन्न बनाया जाना चाहिए। महिला आयोगों के जरिए स्थानीय स्तर पर न्याय की व्यवस्था की जानी चाहिए और इसके लिए राज्य और केन्द्र महिला आयोगों को कानूनी और संवैधानिक अधिकार दिए जाने चाहिए।

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अभी खबर आई है कि बारासात( कोलकाता) में एक महिला के साथ गैंग रेप हुआ है और उसके बाद उसे अपराधियों ने जान से मार डाला है। यह घटना शाम को साढ़े 6बजे हुई है।

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बलात्कार के खिलाफ अमेरिका में सख्त कानून हैं और अपराधियों को दण्ड भी जल्दी मिलता है लेकिन वहां पर अभी तक बलात्कार थमे नहीं हैं। एक आंकड़ा देखे- अमेरिका में 1992-2000 के दशक के आंकड़ों के अनुसार एक साल में एक लाख हजार औरतों के साथ बलात्कार हुआ। तकरीबन एक लाख 10 हजार औरतों के साथ बलात्कार की कोशिश की गई।

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पोर्नोग्राफी में बलात्कार पूरी योजना के तहत होता है। इसमें प्रत्येक चरण, भाव-भंगिमा, आसन यानि कि क्रियान्वयन के सभी रूप तय होते हैं जो क्रमवार ढ़ंग से पूर्ण उत्तेजना उत्पन्न करने में सक्षम होते हैं। स्त्री के सामूहिक बलात्कार में पोर्नोग्राफी की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। 'डीप थ्रोट' कार्यक्रम आने के बाद थ्रोट रेप जैसी घटनाएँ और भी बढ़ी हैं। ऐसे उपक्रमों द्वारा पुरुष के इस विश्वास की पुष्टि होती है कि वह स्त्री को गहरे भेद सकता है, उसके बिल्कुल अंदर प्रवेश कर सकता है। पोर्नोग्राफी से उपजे असामान्य व्यवहारों ने औरतों के खिलाफ हिंसक अपराधों को जन्म दिया है। ऐसे कुकृत्य स्त्री के प्रति गुलाम मानसिकता व उन्हें प्रताड़ित करने की प्रवृत्ति से प्रेरित होते हैं।

हमने विगत आठ वर्षों में देखा है कि बलात्कार के दौरान कैमरे के इस्तेमाल में वृद्धि हुई है। कैमरे द्वारा उतारे गए बलात्कार के दृश्य त्वरित वेग से बाज़ार में उपलब्ध होते हैं। यह ही असली रेप है जो छुपे, नितांत एकायामी आनंद के रूप में सामने आता है। औरतों का उत्पीड़न हर जगह हो रहा है, गैर पारंपरिक रोजगार के क्षेत्र में, शिक्षा में, घर में। घर के भयप्रद, असुरक्षित, आज्ञाकारी परिवेश में महिलाएँ सबसे ज्यादा हिंसा की शिकार होती हैं। पोर्नोग्राफी का इस्तेमाल बच्चों पर भी किया जाता है ताकि उनका तीव्र अनुकूलन किया जा सके। ऐसा उन स्थानों पर अधिक होता है जहाँ दूसरी जगहों से आकर बस गए लोग अपनी इच्छा पूर्ति के लिए पास-पड़ोस के बच्चों व स्त्रियों पर वाचिक, शारीरिक हमले करते हैं।

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सामान्यतौर पर जो लोग और संगठन अपनी विचारधारा के प्रचार के लिए स्त्री के परंपरागत रूप की हिमायत करते हैं और उसे परंपरागत दायरे में कैद रखना चाहते हैं वे मूलतः स्त्री को मातहत रखना चाहते हैं।

स्त्री को मातहतभाव से मुक्त करने के लिए जरूरी है कि माँ,बहन,पत्नी आदि संबंधों के आगे जाकर स्त्री को नागरिक की पहचान देने की जरूरत है। स्त्री को नागरिक की पहचान मिलने के साथ ही नागरिक हकों का बोध होता है।

हमारे परंपरापूजक लोग स्त्री को सब कुछ बनाना चाहते लेकिन नागरिक नहीं बनने देना चाहते। आज स्त्री को नागरिक पहचान देने की जरूरत है। आज स्त्रियां जो आंदोलन कर रही हैं वे नागरिक अधिकारों के परिप्रेक्ष्य में ही बलात्कारकांड की जांच की मांग कर रही हैं।

हम स्त्री को पहले नागरिक मानें और उसके नागरिक हकों को परिवार से लेकर बाहर समाज तक लागू करें।

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क्या गऊ को माता मानने और पूजने से औरतों पर हो रहे जुल्म हंद हो जाएंगे ? क्या गऊमाता के संरक्षण और पालन-पोषण से भारतीय मूल्यों की रक्षा होती है ?

असल में गऊमाता की पूजा की आड़ में भारत में पितृसत्ता का वैचारिकतंत्र काम करता रहा है। आज भी गऊमाता के संरक्षण के नाम पर तमाम किस्म के वैचारिक पिछड़ेपन की संघ परिवार वकालत करता रहा है। गऊमाता के साथ जो लोग स्त्री की तुलना करते हैं वे वस्तुतः स्त्री को पशु से बेहतर अवस्था में नहीं रखते। धिक्कार है उनको जो गऊ को गऊ न कहकर गऊमाता कहते हैं और औरत को अपमानित करते हैं।

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ये निर्देश यदि मान लिए गए हैं तो फिर उसके इलाज के लिए सिंगापुर भेजे जाने पर सवाल खड़े क्यों कर रहे हैं मीडिया धुरंधर और तथाकथित समाजसेवक ? पीड़ित कहां इलाज कराए यह उसके परिवार का निजी फैसला है। उसको लेकर बतंगड़ मचाने की जरूरत नहीं है। इलाज कैसे हो और कहां हो यह भी प्राइवेसी में आता है।

Ajit Anjum:

''सभी न्यूज चैनलों ने आपसी सहमति से ये फैसला किया है कि हम उस लड़की के परिवार, उसके गांव, उसके अंतिम संस्कार की तस्वीरें नहीं दिखाएंगे . हम नहीं चाहते कि जिस परिवार की बेटी के साथ इतना दर्दनाक हादसा हुआ है , उसकी निजता का उलंघन हो . न्यूज चैनलों की आपसी सहमति के बाद बीईए ने एक गाइडलाइंस तैयार की है .....

1.No OB and teams at the funeral or home town or airport

2.do not show the funeral.

3. Do not show shots of home or family.

4. No shot of arrival of body.

5.no shots of transportation of body. And if course no chasing of the funeral van .

6. No interview with any relative .

7. Info about arrival of body and funeral should be given. However, location of funeral should not be given.

8. The above guidelines are exhaustive. There could be situations not covered in above points. In such cases, pl follow the guiding principle of protecting the IDENTITY , DIGNITY and PRIVACY of the girl.''

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केन्द्र सरकार यदि बलात्कार कांड पर सहानुभूति रखती थी तो उसमे मेट्रो के दरवाजे बंद क्यों किए ? जीन्यूज के एंकर ने सवाल उठाया है,एंकर कह रहा है जिस तरह इलाज के लिए पीड़िता को सिंगापुर भेजा उसी तरह न्याय के लिए दोषियों को सउदीअरब भेज दिया जाए।

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टाइम्स नाउ के अर्णव गोस्वामी ने स्त्री उत्पीडन के मसले को अ-राजनीतिक बनाने की असफल कोशिश की है। चैनल के संपादक और एंकर के नाते उनका यह कहना गलत है कि यह आंदोलन अ-राजनीतिक है।

इस आंदोलन में विभिन्न रंगत की राजनीतिक विचारधाराएं शामिल हैं, विभिन्न विचारधारा के संगठन शामिल हैं। इसमें अनेक महिला संगठन शामिल हैं इसके अलावा अनेक संगठन भी शामिल हैं। ऐसी स्थिति में चंतर-मंतर पर चल रहा आंदोलन अ-राजनीतिक नहीं है। यहां तक कि टाइम्स नाउ के पैनल में आम आदमी पार्टी के दो लोग इस समय टॉकशो में भाग ले रहे हैं। इससे भी बड़ी बात यह कि स्त्री के सवाल अ-राजनीतिक नहीं होते। स्त्री के सवाल राजनीतिक होते हैं।इनके राजनीतिक समाधान होने चाहिए।

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दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित अचानक अभी जंतर-मंतर गयीं। उनका वहां जाना राजनीतिक गलती है। जंतर-मंतर पर लोग प्रतिवाद कर रहे हैं और वे शोक में डूबे हुए हैं। शीला दीक्षित को शोक ही व्यक्त करना है तो पीड़ित लड़की के घर जातीं और कांग्रेस के द्वारा आयोजित शोकसभा में जातीं।

दामिनी की मौत भारत के युवाओं के लिए बहुत बड़ा धक्का लगा है। भारत के युवा उसकी मौत में आकंठ ङूबे हुए हैं। स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि दिल्ली सरकार की इस घटना के बाद नींद गायब हो गयी है। कांग्रेसी नेताओं को इस घटना पर प्रतिवाद का कोई अधिकार नहीं है। वे प्रच्छन्न रूप से प्रशासनिक असफलता के जिम्मेदार हैं।

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दामिनी की बॉडी जब सिंगापुर से दिल्ली आए तो भारत सरकार और दिल्ली सरकार को अपने उच्च अधिकारियों और मंत्रियों को हवाई अड्डे पर श्रद्धांजलि देने के लिए भेजना चाहिए। साथ ही पूरे राजकीय सम्मान के साथ उसका अंतिम संस्कार किया जाना चाहिए ।

जिस समय अंतिम संस्कार हो उस समय सारे टीवी चैनल प्रतीकात्मक तौर पर कुछ मिनट के लिए अपने प्रसारण शोक मनाते हुए बंद करें। केन्द्र सरकार को दामिनी की मौत पर संभव हृो तो राजकीय शोक की घोषणा करनी चाहिए।

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जेएनयू के छात्रों ने दिल्ली बलात्कार कांड के खिलाफ जिस तरह अग्रणी कतारों में भूमिका अदा की है वह हमारे देश के छात्र आंदोलन की मूल्यवान संपदा है।

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इंग्लैंड और वेल्स में सन् 2010-11 में एक मिलियन औरतें घरेलू उत्पीडन और हिंसा की शिकार हुई हैं। पूंजीवादी समाज में बलात्कार असल में व्यवस्था की देन है। ब्रिटिश क्राइम ब्यूरो के अनुसार ब्रिटेन में सालाना 80हजार औरतें बलात्कार की शिकार हुई हैं।

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भारत में रेप के खिलाफ गुस्सा क्यों फूटा क्योंकि भारत में प्रति 54 मिनट पर एक बलात्कार होता है। प्रति 51 मिनट पर छेड़खानी की घटना ,प्रति 43 मिनट पर अपहरण की घटना , प्रति 26 मिनट पर औरत पर शारीरिक हमला और हर सातवें मिनट पर औरत के खिलाफ अपराध की घटना होती है। हमें शर्म आती है ऐसे लोकतंत्र और उसके शासकों पर जहां औरत अहर्निश हमलों की शिकार है। ये आंकड़े बताते हैं कि औरत की यातना को कानूनी सुधारों से रोकना संभव नहीं है। जरूरत इस बात की है समूचे समाज का दिलो-दिमाग बदला जाय।

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दामिनी की मौत का एक ही संदेश है कि परवर्ती पूंजीवाद में औरतें सुरक्षित नहीं हैं। पूंजीवाद को कानूनी थेगड़ियों के जरिए बचाया नहीं जा सकता।

दामिनी की मौत का प्रतिकार तब ही संभव है जब हमारे मन में परवर्ती पूंजीवाद के प्रति तीव्र घृणा और आक्रोश हो। दामिनी की मौत का अर्थ महज कानूनी सुधार करना नहीं है।

दामिनी की मौत परवर्ती पूंजीवाद में तिल-तिलकर मर रही स्त्री की मौत का प्रतीक है। वह अपनी मौत के साथ हमारे सामने पूंजीवादी तंत्र को नंगा कर गयी है। दामिनी की मौत के सामने पीएम से लेकर संसद तक सब बौने और बेमानी महसूस हो रहे हैं।

समूचे पूंजीवादी सिस्टम के प्रति घृणा व्यक्त हो रही है। परवर्ती पूंजीवाद के खिलाफ एक स्त्री की मौत पर इतनी तीव्र घृणा को मैंने पहले कभी महसूस नहीं किया। असल में बलात्कार तो परवर्ती पूंजीवाद का सबसे महत्वपूर्ण बायप्रोडक्ट है। दामिनी तुम बार बार याद आओगी कि परवर्ती पूंजीवाद कितना बर्बर और नृशंस है।

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दामिनी मरकर अमर हो गई है। वह भारत के नागरिकों की आंखों में एक सपना है। यह सपना है उत्पीडनमुक्त स्त्री की जिंदगी का। वह मरकर हम सबके मन में प्रवेश कर गई है। उसने मरकर हम सबके मन में छिपे आक्रोश और सामाजिक परिवर्तन के जज्बे को जगा दिया है। उसकी मौत हमें प्रेरणा देती रहेगी। वह भावी स्त्रीउत्पीडन मुक्त भारत का स्वप्न है।

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दिल्ली बलात्कार कांड की शिकार लड़की का सिंगापुर में निधन हो गया। हमारी विनम्र श्रद्धांजलि।

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आम जनता को दामिनी बलात्कार कांड के बाद नए सिरे अपने इलाके के सांसद-विधायक के सांस्कृतिकबोध की पड़ताल करनी चाहिए। चुने हुए प्रतिनिधियों का सांस्कृतिकबोध उतना ही महत्वपूर्ण होता है जितना राजनीतिकबोध । इनकी दबंगई को जब तक लोकतंत्र के कब्रिस्तान में दफन नहीं करते तब तक ये लोग रह-रहकर अपनी गंदीभाषा और पुंसवाद को अभिव्यक्त करते रहेंगे।

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आज ममता के दल की एक महिला सांसद ने पार्कस्ट्रीट बलात्कार कांड की शिकार महिला के खिलाफ अशोभनीय टिप्पणी की है। सवाल यह है कि ये सांसद इस मौके पर अपने अंदर छिपे मर्दवाद को क्यों व्यक्त कर रहे हैं ?

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स्त्री उत्पीडक राक्षस पुरूष के मन में रहता है। समाज में तो उसके क्लोन हरकतें करते नजर आ रहे हैं।

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भाजपा से लेकर माकपा, कांग्रेस से सपा तक तक सभी दलों के नेताओं के इनदिनों औरतों के बारे में घटिया बयान सामने आए हैं ये बयान बताते हैं किकि राजनेता किस तरह सड़ गए हैं।

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स्त्री पर शारीरिक हमले सत्ता के लोकतांत्रिक संस्थानों के पितृसत्तात्मक रवैय्ये से प्रश्रय पाते रहे हैं। अनेक मामलों में अदालतें भी पुंसवादी नजरिए से फैसले देती रही हैं। संसद से लेकर अदालत तक हालत यह है कि स्त्री न्याय के लिए सालों भटकती रहती है लेकिन उसे न्याय नहीं मिलता। आज सुप्रीमकोर्ट ने बलात्कार के मामले दो महीनों में निबटाने का आदेश दिया है। यह फैसला इस बात की सूटना भी है कि बलात्कार के मामलों पर अदालतें समय रहते फैसले नहीं कर रहीं। जो न्याय सोया हुआ है उसे जगाने के लिए अदालतों के बाहर भी जुलूस निकाले जाने चाहिए।

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लोकतंत्र और भारत के संविधान के तहत प्राप्त अधिकारों के आधार पर औरतों की बदहाल स्थिति में कोई सुधार नहीं आया। लोकतंत्र की आयरनी यह है कि इसमें पुंसवाद का स्वतः अंत नहीं होता। लोकतंत्र में समानता के दावे के बाद भी पितृसत्ता बनी रहती है।लोकतंत्र में स्त्री की सजगता के बिना लिंगभेद और भी गहरा होता है।

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स्त्री की सुरक्षा के लिए कानूनी संशोधन जरूरी हैं लेकिन इसके साथ ही स्त्री के प्रति घर से लेकर बाहर तक नजरिए को बदलने की जरूरत है। स्त्री को हम व्यक्ति और नागरिक के रूप में देखें। स्त्री को कानूनों के साथ नागरिक के रूप में तब्दील करने की जरूरत है। हम स्त्री को नागरिक के रूप में नहीं देखते। स्त्री को नागरिक के रूप में देखें और मानें तो सारे समाज में परिवर्तन की लहर सीधी दिशा में जाती नजर आएगी। कानूनोंसे औरत की पहचान नहीं बनती।

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मीडिया में मर्दानगी का किस तरह विचारधारात्मक महिमामंडन होता है इसे देखना हो तो आज आप प्रत्येक चैनल पर हिन्दी सिनेमा के महामर्द सलमान खान का जन्मदिन का महाकवरेज देखें। चैनलों को इस तरह के कार्यक्रमों से घिन क्यों नहीं आती ?

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स्त्री की सुरक्षा के लिए कानूनी संशोधन जरूरी हैं लेकिन इसके साथ ही स्त्री के प्रति घर से लेकर बाहर तक नजरिए को बदलने की जरूरत है। स्त्री को हम व्यक्ति और नागरिक के रूप में देखें। स्त्री को कानूनों के साथ नागरिक के रूप में तब्दील करने की जरूरत है। हम स्त्री को नागरिक के रूप में नहीं देखते। स्त्री को नागरिक के रूप में देखें और मानें तो सारे समाज में परिवर्तन की लहर सीधी दिशा में जाती नजर आएगी। कानूनोंसे औरत की पहचान नहीं बनती।

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प्रियदर्शन (सीनियर न्यूज एडीटर एनडीटीवी) ने एनडीटीवी इंडिया चैनल पर अभी टीवी टॉकशो में कहा कि देश में मर्दों को अपनी मानसिकता बदलने की जरूरत ,हमें यह समझना होगा कि औरत बदल रही है। हमें स्त्री के बारे में पुरानी धारणा से बाहर निकलना होगा।

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कांग्रेसी सांसद अभिजीत मुखर्जी के स्त्रीविरोधी बयान दिए जाने और बाद में माफी जाने के साथ एक चीज साफ हो गई है कि कांग्रेस के अंदर हरियाणा से लेकर पश्चिम बंगाल तक सांसदों की एक ऐसी लॉबी है जो औरत के प्रति आधुनिक नजरिया नहीं रखती बल्कि यह कहना सही होगा कि कांग्रेस के नेता और नेत्रियां स्त्री को घर की चौखट के बाहर राजनीतिक प्रतिवाद करते हुए देखना नहीं चाहते। उनके लिए सोनिया गांधी राजनीति करे तो जायज मध्यवर्ग की लड़कियां अपने हकों के लिए संघर्ष करें जो ये लोग औरतों की खिल्लियां उडाते हैं।

कायदे से औरतों के खिलाफ जो सांसद -विधायक अपमानजनक बयान दे उसकी संसद या विधानसभा सदस्यता तत्काल प्रभाव से खारिज कर दी जानी चाहिए। सांसदों-विधायकों और नेताओं में जो भी स्त्रीविरोधी बयान दे उसे मतदान करने के अधिकार से वंचित कर दिया जाना चाहिए।

नेताओं-बुद्धिजीवियों और तथाकथित गणमान्य नागरिकों ने स्त्रियों के खिलाफ बोलने-लिखने का फैशन बनाया हुआ है। स्त्री के खिलाफ लिखना और बोलना अपराध घोषित किया जाय और इसके लिए सटीक कानून बनाया जाय।

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भारत की राजनीतिक बिडम्बना है यहां रेप के खिलाफ जितना तेज प्रतिवाद दिख रहा है वैसा तेज प्रतिवाद बैंकिंग बिल के पास होने के खिलाफ नजर नहीं आया। देश के लिए स्त्री के सम्मान और सामाजिक सुरक्षा के सवाल जितने महत्वपूर्ण हैं उतना ही देश की आर्थिक बदहाली और नव्य आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के खिलाफ जंग के सवाल भी महत्वपूर्ण हैं। लेकिन त्रासदी है हमारे समाज में अभी तक कानून व्यवस्था के सवालों से आगे जाकर राजनीतिकचेतना विकसित नहीं हो पाई है।

स्त्री के हित हों या बैंकिंग बिल के खिलाफ संघर्ष हो, इसके लिए सटीक राजनीतिकचेतना के लिए नागरिकचेतना का विकास करने की जरूरत है। स्त्री पर हो रहे हमलों के खिलाफ संघर्ष को नागरिकचेतना निर्मित करने के स्तर तक ले जाना जरूरी है।

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एनडीटीवी इंडिया ने सुभाष तोमर की मौत के चश्मदीद गवाह की बातों पर यकीन कर लिया है और वह बार बार इस गवाह को पेश करके साफ कर देने पर आमादा है कि चश्मदीद गवाह का सत्य परमसत्य है।

गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

बलात्कारकांड ,सुभाष तोमर की मौत और फेसबुक पर उठे सवाल


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मीडिया कवरेज में जनता के असभ्य व्यवहार को कवरेज देकर भीड़ को उकसाया है। लाइव कवरेज के नाम पर अधिकांश टीवी चैनलों में संपादकीय नीति अनुपस्थित थी। मसलन् सरकारी संपत्ति तोड़ती भीड़ को कवरेज दिया।भीड़ में फांसी की मांग करने वालों को कवरेज देकर सही नहीं किया। टीवी पत्रकारों ने लगातार उत्तेजना पैदा करने का काम किया। पत्रकारों ने अपनी जिम्मेदारी को संयम के साथ नहीं निभाया। बलात्कार की घटना पर मीडिया ने उत्तेजना पैदा करने का काम करने जनता की अपूर्णीय क्षति की है। हाल ही में अमेरिका में 27 बच्चों की हत्या की घटना पर मीडिया ने वहां पर आम जनता को संयम बरतने और धैर्य से काम लेने की भूमिका अदा की। भारत में सामूहिक बलात्कार काड पर आम जनता को उत्तेजित करने से बचा जाना चाहिए। पहले से ही उत्तेजित भीड़ को भड़काया है।

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दैनिक हिन्दू अखबार ने लिखा है-यह रिपोर्ट उन सभी दावों को खारिज करती है जिनके जरिए आम आदमी पार्टी अपने नए तर्कशास्त्र गढ़ रही है।पढें रिपोर्ट-

A controversy raged on Wednesday over the cause of death of constable Subhash Tomar during violent demonstrations last Sunday with eyewitnesses and a government hospital claiming there were no injuries on his person while the post mortem report contradicted these versions.
The Delhi Police late in the evening released excerpts of report of the post mortem done by a Board of Doctors in the government-run Ram Manohar Lohia (RML) Hospital, where he died on Tuesday. 
Following contradictory versions, Delhi Police asked its Crime Branch to investigate the case in which murder charges have been invoked. 
“Myocardial infarction (cardiac arrest) and its complications that could be precipitated by multiple ante-mortem (before death) injuries to neck and chest produced by blunt force impact,” Additional Commissioner of Police (New Delhi) K.C. Dwivedi said quoting from the report as the cause of 47-year-old Tomar’s death. 
The Delhi Police statement came on a day when various claims emerged about the cause of Tomar’s death with two eyewitnesses claiming that they did not spot any injuries on his person when they tried to revive him after he collapsed near India Gate during violent protests against the gang-rape of a girl in a moving bus on December 16. 
To add to this, Medical Superintendent of RML Dr. T.S. Sidhu, said, there were “no major external injury marks except for some cuts and bruises. …In all our records, there are no severe internal injuries recorded but the post-mortem will tell everything.” 
Asked whether it was a case of cardiac arrest, Dr. Sidhu said, “I don’t know. That is not my comment. He came, he was in serious shock and we revived him. He came in a state of total collapse.” 
Yogendra, a journalism student, and his friend Paoline, who have rushed Tomar to the hospital, contradicted the police version that the constable was beaten up by protesters leading to his death. He fell down on his own, they said. 
Mr. Yogendra claimed, “I was at India Gate with a female friend who was injured. I saw one policeman who was running after protesters and then suddenly collapsing. We rushed towards him and some policemen were also there. Suddenly, policemen started running after other protesters. 
“So I rushed to a nearby PCR van. They took him to hospital. I also went in the same vehicle. I saw him in hospital and his body didn’t have any injuries. He wasn’t trampled by a mob, he wasn’t assaulted. The claims of police are false. I am surprised to hear that eight were arrested over Tomar’s death.” 

Ms. Paoline said she saw him falling down. “We removed his jacket and shoes. I asked whether he can hear me and then I asked him to breathe... He was sweating profusely and there were no injuries on his body. If we had not been there, he would have been dead on the spot,” she said. 
Tomar’s family refuted the eyewitness claims, saying he died after suffering injuries caused in the chaos. 
“My father died because of the chaos during the protests at India Gate. Protesters pushed him, they trampled upon him. He had internal injuries. The claims that he did not receive injuries are false,” Tomar’s son Aditya said. 
Tomar’s family claimed that the policeman did not have a history of heart problems. “Tomar was attacked by protesters. He did not suffer from any heart-related problems,” Tomar’s relative Naveen Chaudhary said. 
The post-mortem report said Tomar’s third, fourth and fifth ribs on left side had fractures and there was “mid-calibaculur bleeding” at several places. 
Police sources said effusion of blood was present in tissues and neck muscles and ante-mortem injuries were caused when the body suffered heavy blows from a blunt object. 
“He had a lot of injuries. His ribs had fractures. These multiple injuries aggravated his condition and led to cardiac arrest,” Mr. Dwivedi, the Additional Commissioner of Police, said. 
Asked whether after the post mortem report, police would initiate action against doctors at RML, Mr. Dwivedi said he has no comments to offer as investigations were with Crime Branch. “I can’t comment on doctors or eyewitness comments,” he said. 
Police have slapped murder charges in the case. Earlier, eight persons, including an activist of the Arvind Kejriwal-led Aam Aadmi Party (AAP) were arrested on Monday on charges of attempt to murder. 
Following the claims of the eyewitnesses, the AAP demanded sacking of Delhi Police Commissioner Neeraj Kumar alleging that police was misleading people by arresting eight “innocent youth” in connection with the incident. 
Mr. Kejriwal said Mr. Yogendra’s account was opposite of what police said. “Is police lying,” he asked. 
AAP chief spokesperson Manish Sisodia alleged police was “politicising” Tomar’s death to cover their mistakes and demanded that Mr. Kumar be sacked. 

“Delhi Police should have dealt with the matter with sensitivity and honoured the constable’s death. But, the police have politicised the death to cover their own mistakes. We feel that the Delhi Police are involved in a conspiracy. The Police Commissioner should be sacked,” he said. 
Meanwhile, the Home Ministry has announced an ex-gratia of Rs. 10 lakh to the next of kin of Tomar. 

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दिल्ली पुलिस के सिपाही सुभाष तोमर की मौत की वजहों को लेकर हो रहे अलग-अलग दावों से यह गुत्थी लगातार उलझती जा रही है। इस मामले में ताजा घटना यह है कि पुलिस ने पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट के हवाले से दावा किया है कि मौत की वजह सीने पर लगी चोट है। चोट के बाद ही उन्हें दिल का दौरा पड़ा जिससे उनकी मौत हुई। 
कायदे से इस रिपोर्ट के आने के बाद टीवी ट्रायल बंद कर दिए जाने चाहिए। अदालत को जांच करने दें और देश के अन्य मसले पर ध्यान दे मीडिया। इस प्रसंग में आम आदमी पार्टी के नेताओं का बार बार टीवी पर बहसों में उलझना अनेक सवाल खड़े करता है। अन्य दल इस मसले पर तकरीबन चुप हैं। 

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सुभाष यादव की हत्या के आरोप में पकड़े गए आठों में 4 लोगों ने एनडीटीवी को बताया कि वे निर्दोष हैं और घटना के समय घटनास्थल पर नहीं थे। टीवी चैनल की इस तरह की प्रस्तुतियां अदालत के काम में हस्तक्षेप कही जा सकती हैं।

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दिल्ली पुलिस के पीआरओ भगत ने कहा कि कुछ भी कहना प्रिमेच्योर होगा। कमिश्नर ने सीधे कहा कि सुभाष के किन किन अंगों पर चोट लगी है।जीन्यूज के अनुसार यह अन्तर्विरोध गैंगरेप कांड से ध्यान हटाने की कोशिश है।

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यूपी में एक माह में ऑनलाइन के जरिए स्त्री उत्पीडन की 61 हजार शिकायतें आई हैं, इनमें14 हजार फोन पर अश्लील बातें करने की शिकायतें हैं। हाय रे भारतमाता। कैसे कुपूत हैं तेरे देश में।

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अजीब स्थिति है कि योगेन्द्र के बयान के साथ जीन्यूज ने अपनी पोजीशन रख दी है कि वे उसके बयान से सहमत नहीं हैं।

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दूसरी चश्मदीद पाओलीन ने कहा कि सुभाषतोमर लोगों को हटाने के चक्कर में पहुँचे उनके गिरते ही 2मिनट में पुलिस वाले पहुँच गए थे। एबीपी न्यूज का खुलासा।

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राममनोहर लोहिया अस्पताल के डाक्टर ने कहा है सुभाष तोमर के शरीर पर गंभीरचोट के निशान नहीं थे। एक्सरे में हड्डी टूटने वाली बात नहीं।

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सुभाष तोमर की मौत के बाद जिस तरह के अन्तर्विरोधी बयान आ रहे हैं उनके कारण सुभाष तोमर की निष्पक्ष-पेशेवर मेडीकल जांच कराकर तथ्यों को सरकार उजागर करे। हेडलाइन टुडे के अनुसार अभी तक दिल्ली पुलिसकर्मियों ने सुभाष के परिवार को अपनी एकदिन की पगार सहायता के रूप में देने के लिए दो करोड़ रूपये एकत्रित किए हैं।

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एनडीटीवी इंडिया ने सुभाष तोमर की मौत के चश्मदीद गवाह की बातों पर यकीन कर लिया है और वह बार बार इस गवाह को पेश करके साफ कर देने पर आमादा है कि चश्मदीद गवाह का सत्य परमसत्य है।
आज सुबह भी उसे लाइव कवरेज के लिए इस्तेमाल किया गया। यह सीधे केजरीवाल एंड कंपनी द्वारा मीडिया उडान में पुलिस कवरेज को पछाड़कर बढ़त लेने या प्रौपेगैण्डा करने की योजना का अभिन्न अंग लगता है।

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एनडीटीवी पर चश्मदीद गवाह ने माना- " ये गिर गए वहां पर मैं इनको लेकर चला आया। " यह बात योगेन्द्र ने अस्पताल में उसी दिन कही थी। एनडीटीवी रिपोर्टर ने अभी पुलिस सूत्रों के हवाले कहा कि सुभाष तोमर को पीसीआर बैन अस्पताल लेकर गई।जबकि लड़के ने पहले कहा कि वो लेकर गया। यह उसने अपने बयान पहला झूठ बोला। अभी उसने ( योगेन्द्र) पलटा खाया और कहा कि पीसीआर बैन लेकर गयी।

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अफसोस यह है कि मीडिया से लेकर फेसबुक तक प्रबुद्धलोगों का एक वर्ग है जो सुभाष तोमर की मौत पर एक युवा की बातों को तोमर की मौत के संदर्भ में प्रमाण के रूप में पेश कर रहा है।

स्थिति की अतिरंजना का आलम यह है कि लोग गांधी को भी इस मौके पर याद कर रहे हैं। साथ ही सूचना के दुरूपयोग की संभावनाओं को एकसिरे से खारिज कर रहे हैं। आज के दौर में कैमरे के सामने किसी घटना विशेष के बारे जो व्यक्ति बोल रहा है और प्रमाणस्वरूप इमेजों को पेश कर रहा है। उसके बारे में कोई भी मूल्य निर्णय करना सही नहीं होगा। हो सकता है उस युवक का दावा तहकीकात में प्रमाणित ही न हो पाए।

होसकता है तहकीकात में पुलिस का दावा गलत साबित हो, लेकिन इसकी तहकीकात के लिए सबसे उपयुक्त स्थान अदालत है मीडिया नहीं।

जिस लड़के के पास ये प्रमाण हैं उन प्रमाणों को अपनी डिफेंस में वे लोग अदालत में पेश करें जो गिरफ्तार किए गए हैं।

मीडिया मेंउस लड़के का महाप्रमाण के रूप में आना सारे मसले को मीडिया तथ्य नें नहीं गॉसिप में बदल रहा है।

सुभाष तोमर के बेटे का बयान भी इस प्रसंग में देखें जिसमें वह बार बार कह रहा है कि उसके पिता को गहरी चोटें आई थीं। अफसोस है कि केजरीवाल एंड कंपनी के लोग इस कांड में धरे गए हैं, होसकता है पुलिस ने गलत लोगों को पकड़ा हो, यह भी हो सकता है सही लोग धरे गए हों, हमें उन पुलिस वालों के बयानों पर भी गौर करना होगा जिन्होंने इन 8 लोगों को मौके से पकड़ा है। अंततः फैसला मीडिया में नहीं अदालत में होगा गांधी या अन्य के विचारों की रोशनी में अदालत विचार नहीं करती, वहां ठोस प्रमाण की जरूरत होती है मीडिया गॉसिप की नहीं।

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मीडिया को छेड़खानी का कवरेज देते समय स्त्री का फोटो दिखना से बचना चाहिए, उसे शोहदों के ऊपर केन्द्रित करना चाहिए। इस तरह के मसले पर ध्यान हटाने से भी बचने की जरूरत है शोहदों पर न्यूज का केन्द्रित होना जरूरी है। मुश्किल यह है कि टीवीवाले पुलिस-नेताओं को पीटने लगते हैं।इससे मूल मसले से ध्यान हट जाता है। पुलिस -नेताओं को पीटने से भी ज्यादा जरूरी है शोहदों को पीटना। हाल ही में बलात्कार कांड के खिलाफ जो आंदोलन कवरेज आया उसमें उन लोगों पर कम जानकारी आई जो अपराधी हैं।

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छेड़खानी हो या स्त्री उत्पीडन के अन्य रूप हों मीडिया को उनको व्यापक कवरेज देना चाहिए और अपराध में शामिल लोगों के चेहरे बार बार दिखाए जाने चाहिए और प्रत्येक चैनल को अपनी बेवसाइट पर मनचले शोहदों की स्वतंत्र सीरीज चलानी चाहिए।

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सुभाष तोमर की मौत पर एनडीटीवी पर टीवी ट्रायल चल रहा है। एक चश्मदीद गवाह आया है जो विस्तार से विवरण दे रहा है। कायदे से मौत के बाद इस तरह का ट्रायल सही नहीं है। पुलिस मुखिया नीरज कुमार ने कहा कि गरदन,पेट और सीने पर गहरी चोट लगी हैं। असल में यह फैसला अदालत करे टीवीवाले नहीं। यह अदालत के काम में हस्तक्षेप है और अनैतिक है।

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सिपाही सुभाष तोमर की मौत के बाद 8लोगों पर हत्या के केस लगाए गए हैं।

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दिल्ली पुलिस का महाझूठ कि रेप विरोधी आंदोलन की आड़ में आतंकी इंडियागेट पर हमला कर सकते हैं।

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तीन विदेशी कंपनियों के एरिया मैनेजर साकेत मॉल में लड़कियों के साथ छेड़खानी करतेहुए धरे गए।

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दिल्ली के बर्बर बलात्कारकांड ने कामकाजी महिलाओं के आत्मविश्वास को हिला दिया है। कवरेज में हिंसा पर नहीं न्याय और दण्ड पर जोर दिया जाना चाहिए।पढें इकोनॉमिक टाइम्स (24दिसम्बर 2012)-

The horrendous rape case in Delhi has not only shaken the confidence of working women in the National Capital Region (NCR) but also in other major cities, a survey has said.



Most of the respondents felt that it is the time the quality of governance should be improved and the obsession of the police "bandobast" with the VVIPs be changed, Assocham said in a survey.



"Majority of respondents, who are working in companies located in Gurgaon, Noida, Delhi, Sonepat and Faridabad, said they have begun insisting on leaving offices on dot, immediately after duty hours following the atmosphere of insecurity," it said.



After the brutal gang-rape of a 23-year-old girl in a moving bus about a week back, people in many parts of the country have been demanding quick justice for her and also to make stringent laws against rape cases.



"About 88 per cent of women respondents said the anxiety is more among the guardians of those women who travel by chartered buses," the survey said.



These respondents said that now they get more calls while at work from home -- parents or husbands -- after the incident, it added.



The chamber said that it surveyed about 2,500 women and men in various cities.



The survey said those who use the Delhi Metro feel relatively secure as long as they are within the premises of the metro stations.



However, they said the moment they deboard the train, their anxiety levels increase as the basic infrastructure from the stations to the colonies is found lacking.



The survey said majority of respondents feel that the deployment of more police personnels would be there for few days and after that everything will be back to usual, the survey said.



"It is not difficult to wire the major and vulnerable parts of the region with CCTVs, which should be properly monitored and action taken," Assocham Secretary General D S Rawat said.



The fear of law must be instilled among those who are prone to commit heinous crime, he added.



The chamber said that accountability must be fixed not among the junior functionaries but also among the higher-ups. Those found guilty of incompetence and complacency should be simply sacked. "The fear of losing job would work."



Besides, the survey said that if the confidence of workforce is shaken, the NCR would lose its eminent position among even investors.



The respondents also wanted companies human resource departments to devise new ways of ensuring increased staff security, especially among those who work on night duties, it said.

मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

दामिनी बलात्कारकांड और फेसबुक

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देश में सारी व्यवस्था चरमरा गयी है,देश में न तो पर्याप्त जज हैं और न अदालतें हैं , न अदालतों की सुविधाएं हैं, ऊपर से करोड़ों केस हैं जो लंबित पड़े हैं। लोग परेशान हैं और लुट रहे हैं लेकिन सरकार सोई है,जजों ने कान में तेल डाला हुआ है। आखिर कब तक लोग इंतजार करेंगे,मनमोहन सरकार ने यदि न्यायव्यवस्था को दुरूस्त और सक्षम नहीं बनाया तो वह दिन दूर नहीं जब जजों से लेकर सांसदों तक लोग घेरेंगे और कानून अपने हाथ में लेंगे। न्याय अब अदृश्य है उसे दृश्य बनाने का काम सरकार का है। जो काम वर्मा कमीशन अभी करेगा वह काम काफी पहले क्यों नहीं किया गया, क्या सरकार नहीं जानती कि सालाना डेढ़ लाख से ज्यादा सालाना बलात्कार हो रहे हैं। जनता के लिए सरकार का निकम्मापन अब असहनीय महसूस हो रहा है इसलिए वो सड़कों पर निकल रही है।

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इंडियागेट पर तैनात कांस्टेबिल सुभाष की मौत की खबर आई है। यह मौत बहुत ही दुखद है। सुभाष की मौत के जिम्मेदार लोगों को जेल में पहुँचाया जाना चाहिए।

इंडियागेट पर हाल ही में जो आंदोलन चला उसके आखिरी दिन सुभाष को चारों ओर से घेरकर आंदोलनकारियों ने सिर में लट्ठों से मार-मारकर अधमरा कर दिया था,आज सिपाही सुभाष ने दम तोड़ दिया है।

यह असामान्य मौत है । यह मौत संदेश दे रही है कि जुनूनी लोग हिंसक भी हो सकते हैं। वैसे आंदोलनकर्ताओं को ईमानदारी से काम लेना चाहिए और उन लोगों को पुलिस के हवाले करना चाहिए जिनलोगों का सुभाष की मौत में हाथ है।

सरकार ने लाठीचार्ज करनेवालों पर एक्शन लिए हैं और जांच चल रही है । कायदे से टीवीवालों को ईमानदारी से उसशाम के सारे फुटेज सरकार को सौंपने चाहिए जिससे सुभाष पर हमला करने वालों की शिनाख्त हो सके।हमें उनलोगों की भी शिनाख्त करनी चाहिए जो इस आंदोलन में हिंसा फैला रहे थे।

मनमोहन सरकार ने जो कदम आंदोलन के दबाब में उठाए उनको यदि पहले ही उठाते तो यह नौबत ही नहीं आती। सरकार के निकम्मेपन को नंगा किया है इस आंदोलन ने। हिंसा हुई वह निंदनीय है। लेकिन दैनन्दिन बलात्कार हो रहे हैं और मनमोहन सरकार कोई कदम नहीं उठा रही,इस पहलू पर सोचें।यह भी सोचें कि भारत में मनमोहनजी 9साल से शासन में हैं वे कोई कदम बिना दबाब के क्यों नहीं उठाते? लोकतंत्र में सरकार की पहलकदमी का महत्वपूर्ण है सरकार का काम है नेतृत्व करना। यहां उल्टा हो रहा है सरकार को जनता डिक्टेट कर रही है।

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रेप पर फांसी की सजा लागू होने पर अनेकदलों के नेता झूलते नजर आएंगे। साथी इन सभी नेताओं के ऊपर लगे रेप केसों को भी फास्ट ट्रैक कोर्ट के हवाले कर देना चाहिए। देखते हैं मोदी की विधानसभा और देश की लोकसभा से कितने नेता अंदर जाते हैं।

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औरत होने की सजा

सीताराम येचुरी (माकपा पोलित ब्यूरो सदस्य)



देश की राजधानी के भीड़-भाड़ वाले इलाके में एक चलती बस में हुई सामूहिक बलात्कार तथा नृशंसता की घटना ने पूरे देश की अंतरात्मा को झकझोर कर रख दिया है। पीड़िता अस्पताल में जिंदगी और मौत की लड़ाई लड़ रही है, तथा देश भर में विक्षुब्ध जनता स्वतःस्फूर्त तरीके से विरोध के लिए उठ खड़ी हुई है।



इसकी प्रतिध्वनि संसद के दोनों सदनों में भी हुई और सांसदों ने गृहमंत्री को यह भरोसा दिलाने के लिए मजबूर किया कि दोषियों के खिलाफ तत्परता से कार्रवाई की जाएगी और कानून व व्यवस्था को मजबूत करने के लिए सभी जरूरी कदम उठाए जाएंगे। हालांकि ऐसे आश्वासन लोगों के मन में कोई खास भरोसा शायद ही पैदा कर पाएंगे।
इसकी वजह तो यही है कि ताजातरीन घटना कोई अकेली नहीं है। महिलाओं के खिलाफ यौन अपराध देश भर में चिंताजनक रफ्तार से बढ़ते जा रहे हैं। हरियाणा में ही पिछले कुछ महीनों में नृशंस बलात्कार के एक के बाद एक पंद्रह मामले सामने आए थे, जिनमें ज्यादातर सामूहिक बलात्कार के थे। 
इसी तरह, इसी महीने की शुरुआत में अमृतसर में एक पुलिस अधिकारी की सिर्फ इसलिए हत्या कर दी गई, क्योंकि वह यौन उत्पीड़न से अपनी बेटी को बचाने की कोशिश कर रहा था। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के ताजा आंकड़े दिखाते हैं कि 1953 से 2011 के बीच बलात्कार की घटनाओं में 873 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। बलात्कार की वारदातों की बढ़ोतरी की रफ्तार, तमाम संज्ञेय अपराधों की संख्या से तीन गुना ज्यादा बैठती है और हत्याओं में बढ़ोतरी की रफ्तार से साढ़े तीन गुना ज्यादा। पिछले पांच वर्षों में (2007 से 2011 के बीच) ही बलात्कार की वारदातों में 9.7 फीसद की वृद्धि हुई है। 
कुछ हफ्ते पहले ब्रिटिश अखबार द गार्जियन ने भारत को औरतों के लिए जी-20 के सभी देशों में बदतरीन जगह बताया था। महिला अधिकारों के लिए काम करने वाले सूचना व सहायता केंद्र, थॉमस रायटर्स ट्रस्ट लॉ वीमेन के एक सर्वे के अनुसार, भारत महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक जगहों में आता है और इस श्रेणी में उसका साथ देने वाले अन्य देश हैं, अफगानिस्तान, कांगो तथा सोमालिया। 

भारत में औसतन हर चालीस मिनट में एक महिला को देश में कहीं न कहीं अपहरण और बलात्कार का निशाना बनाया जा रहा होता है। महानगरों में दिल्ली शर्मनाक तरीके से बलात्कार की घटनाओं के मामले में सबसे आगे है। वर्ष 2007 से 2011 के बीच राजधानी में बलात्कार की 2,620 घटनाएं दर्ज हुई थीं। इसकी तुलना में मुंबई में 1,033, बंगलूरू में 383, चेन्नई में 293 और कोलकाता में 200 वारदातें ही दर्ज की गई थीं। इससे भी बदतर यह कि 2002 से 2011 के बीच, राजधानी में ही बलात्कार के चार में से तीन मामलों में आरोपी सजा से बचकर निकल गए थे। 
2002 से 2011 के बीच, यानी पिछले एक दशक में बलात्कार के 5,337 मामलों में फैसले आए थे और इनमें से 3,860 मामलों में आरोपियों को या तो बरी ही कर दिया गया था या फिर समुचित साक्ष्यों के अभाव में अदालतों ने छोड़ दिया। निवारक सजा की तो बात दूर, ऐसा लगता है कि हमारे देश में अपराध के लिए सजा दिए जाने का रिकॉर्ड इतना खराब होने के चलते ही, अपराधियों के मन में अब कानून का कोई डर ही नहीं रह गया है। 

कुछ ही महीने पहले देश के गृह सचिव आर के सिंह ने यह कुबूल किया था कि अब वक्त आ गया है, ‘कानून और व्यवस्था की बात करना बंद कर, न्याय दिलाए जाने की बात करना शुरू किया जाए।’वास्तव में, तफ्तीश का काम पूरा होने के बाद मुकदमों की तेजी से सुनवाई करने के लिए पर्याप्त जज ही हमारे देश में नहीं हैं। 
1987 में विधि आयोग ने इसका खाका तैयार किया था कि किस तरह पांच वर्ष में न्यायाधीश-आबादी अनुपात, एक लाख की आबादी पर 1.05 न्यायाधीश से बढ़ाकर पांच न्यायाधीश के स्तर पर पहुंचाया जाना चाहिए। लेकिन, उसके बाद पच्चीस बरस गुजर चुके हैं और यह अनुपात एक लाख की आबादी पर 1.4 न्यायाधीश से ऊपर नहीं ले जाया जा सका है। 
इसे देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय का ताजा हस्तक्षेप भी भरोसा नहीं जगाता है। सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को निर्देश दिया है कि महिलाओं की हिफाजत करने के लिए सभी जरूरी कदम उठाएं, जैसे सादा वर्दी में महिला पुलिस अधिकारियों को तैनात करना, सार्वजनिक परिवहन साधनों में क्लोज्ड सर्किट कैमरे लगाना और हैल्प लाइन स्थापित करना आदि। 
सचाई यही है कि हमारे देश के सभी राज्यों में और जाहिर है कि देश के स्तर पर भी, आबादी और पुलिस का अनुपात, दुनिया भर में सबसे निचले स्तर पर है। जब तक कानून का पालन कराने वाले बलों की कतारों में उल्लेखनीय बढ़ोतरी करने तथा उन्हें समुचित प्रशिक्षण मुहैया कराने के लिए कदम नहीं उठाए जाते हैं, हालात सुधरने वाले नहीं हैं। 
द गार्जियन ने महिलाओं के लिए भारत के बदतरीन जगह होने के तथ्य को दर्ज करने के बाद एक सवाल पूछा हैः एक ऐसे देश में, जो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने पर अपनी पीठ ठोंकता है, आखिर वहां ऐसा कैसे हो सकता है?’ ऐसा इसलिए हो रहा है कि कानून का पालन कराने वाली संस्थाएं तथा हमारी न्यायिक प्रणालियां बहुत ही खस्ता हालत में हैं। 
यह जरूरी है कि महिलाओं के खिलाफ ऐसे अमानवीय जुर्म करने वालों को जल्दी से जल्दी सजा दिलाने के लिए, विशेष अदालतें कायम की जाएं। साथ ही, उनकी सजा ऐसी होनी चाहिए, जो दूसरों को ऐसे अपराध करने से रोक सके और संभावित अपराधियों के मन में डर पैदा करने में समर्थ हो। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह ताजा जघन्यता देश को झकझोर कर तंद्रा से जगाएगी और यह सुनिश्चित करेगी कि भारत अब महिलाओं के विरुद्ध अपराधों के प्रति शून्य सहिष्णुता की इच्छा दिखाएगा। 

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जनांदोलन का दबाब किस तरह काम करता है और सरकार किस तरह सोई थी इस पर सोचें और पढ़ें कि आंदोलन से दुनिया में किस तरह असर होता है। बहुचर्चित दिल्ली गैंगरेप मामले में जल्द न्याय सुनिश्चित करने की कोशिशों के तहत इस मामले का ट्रायल 3 जनवरी से शुरू करने का फैसला किया गया है। इस मामले की रोज सुनवाई होगी। इसके साथ ही दिल्ली हाईकोर्ट ने सरकार से निर्देश जारी किया है कि सरकार रेप के सभी मामले में फास्ट ट्रैक अदालतों में रोज सुनवाई के आधार पर मामला चलाया जाए।

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दिल्ली गैंगरेप मामले में एसीपी (ट्रैफिक) मोहन सिंह डबास और एसीपी (पीसीआर) यादराम को सस्पेंड कर दिया गया। अधिकारियों को ड्यूटी में लापरवाही के चलते सस्पेंड कर किया गया। दिल्ली के उप राज्यपाल ले. तेजिंदर खन्ना ने सोमवार को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस बात की जानकारी दी। हालांकि इसी बीच दिल्ली पुलिस ने रविवार को प्रदर्शन के दौरान हुए उपद्रवों पर भी अपना रुख और कड़ा करते हुए पूर्व सेनाध्यक्ष लेफ्टिनेंट जनरल वी के सिंह के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया है। सवाल यह है कि जिस इलाके में यह घटना हुई थी उस इलाके के जिम्मेदार थानेदार और पेट्रोलिंग पुलिस अफसर को अभी तक न तो सस्पेंड किया है और न बर्खास्त किया गया है। केन्द्र सरकार को इस मामले में तेजी से ऊपर से नीचे तक कदम उठाने चाहिए।

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इंडियागेट पर चले बलात्कार कांड विरोधी आंदोलन में 78 पुलिस वाले 65 आंदोलनकारी घायल हुए हैं। इससे यह बात साफ है कि 6दिन चले इस आंदोलन की दिशा अहिंसक नहीं थी। इतने लोग हाल-फिलहाल में किसी आंदोलन में घायल नहीं हुए। पुलिस की हिंसा इसकी जड़ में है।

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इंडियागेट आंदोलन पर केन्द्र सरकार ने लाठीचार्ज के एक घंटे बाद ही पुलिस एक्शन के लिए पीड़ितों और आंदोलनकारियों से माफी मांगकर सही किया है। इससे यह पता चलता है कि जनता की कराह सरकार के कानों तक जा रही है।

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बलात्कार कांड के खिलाफ आम लोगों का आक्रोश जायज है कल रात(रविवार) को प्रधानमंत्री ने भी आंदोलन की भावनाओं को शेयर करते हुए बयान दिया है। पीड़िता के शीघ्र स्वस्थ हो जाने की कामना की है और आंदोलनकारियों से शांति बनाए रखने की अपील की है। यह स्वागतयोग्य बयान है।हम उम्मीद करते हैं कि गृहमंत्री ने जो आश्वासन दिए हैं उनको पूरा करने की दिशा में सरकार जल्द ही प्रयास करेगी।

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मणिपुर में एक अभिनेत्री के साथ एक नागा आतंकी ने झेड़खानी की और उसके प्रतिवाद में वहां आज दूसरे दिन भी आंदोलन जारी है। आज वहां एक पत्रकार नानो सिंह की पुलिस फायरिंग में मौत हो गयी। दिल्ली में मीडिया पर पुलिस ने जमकर हमले किए हैं पुलिस का मीडिया विरोधी रवैय्या निंदनीय है। बड़े चैनल चुप क्यों हैं ?

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हमारे मित्र है रणधीरसिंह सुमन ,एडवोकेट, उन्होंने जरूरी सवाल उठाए हैं,लिखा है-

देश बहुत बड़ा है। दिल्ली तक ही सीमित नहीं है। देश में तरह-तरह के लोग रहते हैं। एक थाने में लगभग 200 बलात्कार के प्रार्थना पत्र पेंडिंग हैं। इस क्षेत्र में विरोधियों के ऊपर बलात्कार के मुक़दमे दर्ज कराने का रिवाज है। किसी विरोधी को लोग कायदे से ठीक करना चाहते हैं तो कोई औरत खड़ी कर बलात्कार का मुकदमा दर्ज करा देते हैं। यदि सभी लिख लिए जाए तो 200 अगले दिन फिर आ जायेंगे। इसकी रोकथाम कैसे करोगे। न्याय के कुछ सिद्धांत हैं उनको बने रहने दो। तभी देश चलेगा। हर आदमी दंड देने का अधिकारी अगर हो जायेगा तो कुछ नहीं बचेगा। आज एक घटना को लेकर जन उभार मौजूद है लेकिन देश के अन्दर सोनी आदिवासी महिला के साथ जो हुआ उसके लिए कोई कुछ नहीं बोला। माननीय उच्चतम न्यायलय की जानकारी में सोनी का सम्पूर्ण प्रकरण है। अभी तक कोई कार्यवाई विशेष नहीं हुई है। सम्बंधित पुलिस अधिकारी को सरकार से इनाम मिल चूका है। मणिपुर में भारतीय सेना के बलात्कारों से ऊब कर महिलाओं का नग्न प्रदर्शन तक हो चुका है। दिल्ली गैंग रेप के मामले में सम्बंधित बस क्या उस वक्त यात्रियों को ले जाने के लिए अधिकृत थी ? बस का परमिट कहीं का बनता है और बस चलती कहीं और है। दिल्ली में पुलिस और प्रशासन की मेहेरबानी से अनाधिकृत वाहन चलते रहते हैं। जनता उसमें सफ़र करती रहती है। मीडिया को कुछ लोगों का प्रदर्शन तहरीर चौक का प्रदर्शन लगने लगता है और लाखों लोगो का प्रदर्शन जब होता है तब उसके बारे में एक लाइन भी नहीं लिखी जाती है। प्रदर्शनकारी क्या यह चाहते हैं कि अभियुक्तों को उनको सौप दिया जाए और वह सजा देंगे। अन्ना केजरीवाल के आन्दोलन के बाद कुछ लोगों की समझ में यह गलतफ़हमी हो गयी है कि वह पूरे देश का प्रतिनिधित्व करते है। दंड की मात्रा कितनी हो उसके भी सिद्धांत हैं और उन्ही सिद्धांतो पर कार्य होना चाहिए। फांसी की सजा अंतर्गत धारा 376 आई पी सी में बढ़ा देने से क्या बलात्कार रुक जायेंगे। प्रदर्शनकारियों को भी ईसा की कहानी याद रखनी चाहिए की जिसमे एक औरत पर छिनारा का आरोप था। उस समय सजा यह थी कि उस औरत को पत्थरों से पीट कर मार डाला जाए। ईशा ने कहा पहला पत्थर वह व्यक्ति मारे जिसने मन से, वचन से, कर्म से, इस काम के बारे में न सोचा हो। किसी ने भी एक पत्थर नहीं मारा और भीड़ चली गयी। नौ सौ चूहे खा कर बिल्ली हज नहीं जाती है। समाज की स्तिथियाँ क्या हैं उसके बारे में भी सोच समझ कर बात करनी चाहिए।

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एक मित्र ने अभी अभी ख़बर दी है कि इंडिया गेट के सारे रास्ते बंद कर दिए गए हैं और जंतर-मंतर पर जहाँ पर प्रदर्शनकारी खड़े हैं वहां की स्ट्रीट लाइट बंद कर दी गई है। प्रदर्शन स्थल पर अधिकतर विद्यार्थी और शिक्षक हैं।

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इंडिया गेट पर आमतौर पर लोग तफरीहबाजी के लिए आते हैं और छुट्टी के दिन काफी हलचल रहती है। आज चूंकि वहां पर बलात्कार विरोधी आंदोलन भी चल रहा था अतः उनलोगों को अंदाजा ही नहीं था कि पुलिस के एक्शन के कारण उनकी तफरीबाजी तकलीफ में तब्दील हो जाएगी। कम से कम आंदोलन की जगह को तफरीबाजी की जगह न समझें।

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इंडियागेट पुलिस एक्शन की सबसे निंदनीय घटना है मीडियाकर्मियों पर हमले, कई मीडियाकर्मियों को चोटें आई हैं और कई के सामान को पुलिस ने नष्ट किया है। सबसे खराब पक्ष है मध्यवर्ग युवाओं के मुँह से तालिबानी भाषा का निकलना।वे मांग कर रहे हैं बलात्कारी को सरेआम फांसी दो। ये लोग नहीं जानते कि जिन देशों में सीधे फांसी दी जाती हैं वहां औरत सबसे ज्यादा तकलीफ में है। अफगानिस्तान इसका आदर्श प्रमाण है।

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।दामिनी बलात्कार कांड के खिलाफ दिल्ली में चले 6दिवसीय आंदोलन का आरंभ स्वतःस्फूर्त्त ढ़ंग से हुआ था लेकिन धीरे धीरे इस पर केजरीवाल,रामदेव और संघ परिवार के अ-नियोजित मंच ने कब्जा जमा लिया। यह मंच अराजकतावादी राजनीति की अभिव्यक्ति साबित हुआ है। खासकर इस आंदोलन के दौरान अंत में शाम को इंडिया गेट पर आज जो लाठीचार्ज हुआ उसकी सारी जिम्मेदारी आंदोलनकारियों के निर्णय न लेने की स्थिति ने पैदा की। किसी भी जेनुइन आंदोलन को ये लोग अराजकता में तब्दील करने में सफल रहे। जनतंत्र के लिए वे लोग खतरनाक हैं जो जनता को आंदोलन के दौरान अनाथ छोड देते हैं।

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केजरीवाल,रामदेव और संघ परिवार के अ-नियोजित मंच ने इंडियागेट पर एक ही काम किया-जो तेरा है वो मेरा है।

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इंडियागेट पर पुलिस लाठीचार्ज और आंसूगैस के गोले छोड़ने के बाद सारा माहौल रणक्षेत्र में बदल गया है।इंडियागेट से लोग हटाए जा चुके हैं। कायदे से इस स्थिति से बचना चाहिए था। लेकिन केजरीवाल,रामदेव और संघ परिवार के लोगों के अनियोजित मंच ने निर्णय लेने में देरी की और पुलिस के हाथों आंदोलन का आज समापन करा दिया।

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इंडियागेट आंदोलन हिंसक और अराजक होने की ओर जा रहा है। इंडियागेट के एक तरफ शांतिपूर्ण आंदोलनकर्मी हैं दूसरी ओर हिंसक भीड़ है जो सार्वजनिक संपत्ति की तोड़फोड़ कर रही है। पुलिस पर पथराव कर रही है।

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नई दिल्ली में नए किस्म की युवा राजनीतिक कतारबंदी उभरकर आई है ,यह कतारबंदी अन्ना आंदोलन के गर्भ से जन्मी है। इसमें कई रंगत के संगठन हैं इन संगठनों की सक्रियता प्रशंसनीय है लेकिन ये लोग आंदोलन आरंभ करके पीछे हटना नहीं जानते या सुचिंतित मंशा के तहत पीछे नहीं हटते।

युवा आंदोलन को संघर्ष के हित में आगे जाने के साथ पीछे हटने का राजनीतिक कौशल भी आना चाहिए। वरना युवा आंदोलन के नष्ट होने की संभावनाएं हैं।

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अभी कुछ देर पहले धर्मेन्द्र कुमार (विशेष पुलिस कमिश्नर दिल्ली )ने एक प्रेस कॉफ्रेंस में कहा है कि बलात्कार कांड के खिलाफ जो आदोलन चल रहा है उसकी तीनों मांगें मान ली गयी हैं , इसके बाद भी लोग आंदोलन करना चाहते हैं तो वे शांति से आंदोलन करें। शांति से एक स्थान पर बैठकर आंदोलन करें। कमिश्नर ने कहा कि वे आंदोलनकारियों को नहीं हटाएंगे।

आंदोलनकारियों में एक तबका उन लोगों का है जो सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचा चुके हैं। ये लोग मांग कर रहे हैं बलात्कारियों को सीधे फांसी की सजा जब तक नहीं दी जाती तब तक वे आंदोलन करते रहेंगे। हम यही कहना चाहते हैं कानूनी कार्रवाई इंडियागेट पर नहीं होगी। गृहमंत्री के आश्वासन पर विश्वास करके आंदोलन को तुरंत वापस लिया जाना चाहिए।

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युवाओं के आंदोलन के दबाब केन्द्र सरकार ने दिल्ली गैंग रेपकांड के संदर्भ में अधिकांश मांगे मान ली हैं। इसके बाद इन युवाओं को अपना आंदोलन खत्म कर देना चाहिए। उनको इंतजार करना चाहिए कि आगे क्या होता है।

वे जिस तरह से अघोषित ढ़ंग से इंडिया गेट पर जमा हैं। उससे उनके आंदोलन में से अब कुछ नया तत्व निकलने वाला नहीं है। उनकी सारी मांगें मान ली गयी हैं तो उनको अपना आंदोलन वापस ले लेना चाहिए। यदि वे आंदोलन वापस नहीं लेते हैं तो इस आंदोलन के पीछे सक्रिय राजनीतिक ताकतें अपने निहित स्वार्थों के लिए दुरूपयोग करने से बाज नहीं आएंगी।

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कहां सोए है टीवी चैनलवाले,

संजय निरूपम के स्मृति ईरानी को अपमानित करने वाले बयान पर सकारात्मक हस्तक्षेप करने वाले चैनलों से अपील है कि सुषमाजी पर दबाब बनाएं और भाजपानेत्री सुषमा स्वराज को बलात्कार की शिकार लड़की को जिंदा लाश कहने के लिए माफी मांगनी चाहिए। किसी भी नेता या नेत्री को स्त्री को अपमानित करने का हक नहीं है।

Girish Mishra ने लिखा- What Nirupam said was stupid but why was there no condemnation of Modi's utterance as regards Tharoor's wife and that of RSS's characterisation of Indira Gandhi?

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सोनिया गांधी ने देर से ही सही लेकिन सही कदम उठाया है वे प्रतिवादी युवाओं से मिली हैं, कायदे से प्रधानमंत्री को हस्तक्षेप करके युवाओं को बुलाना चाहिए और उनकी मांगों पर आश्वासन देना चाहिए। जागो मनमोहन जागो। इसके अलावा राष्ट्र के नाम सीधे संदेश देना चाहिए। इस तरह के मामलों पर अति सक्रिय होकर हस्तक्षेप करने की जरूरत है।

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बलात्कार कांड पर युवाओं में जायज आक्रोश है और वे ठीक कर रहे हैं कि निरंतर आंदोलन कर रहे हैं और पीड़ित लड़की के लिए तुरंत न्याय की मांग कर रहे हैं। लेकिन बलात्कार की समस्या कानून की समस्या मात्र नहीं है। समाज में बलात्कार न हों इसके लिए जरूरी है कि हम इस समाज को ही बदलें। राजनीतिकतौर पर सजकता और सक्रियता बढ़ाएं। राजनीति से दूर न रहें बल्कि लोकतांत्रिक छात्र-युवा राजनीति में शिरकत करें।

इसके अलावा अपने परिवार के ढ़ाँचे को लोकतांत्रिक बनाएं,परिवार को लोकतांत्रिक बनाने से समाज भी लोकतांत्रिक बनेगा। परिवार को लोकतांत्रिक बनाने का अर्थ है परिवार में सभी सदस्य समान हों,कोई न छोटा होगा और बड़ा होगा। प्रत्येक सदस्य की स्वायत्तता और निजता का सम्मान किया जाय,साथ ही उसके विवेक पर विश्वास किया जाय। दबाब,हस्तक्षेप आदि से परिवार को पूरी तरह मुक्त किया जाए।

परिवार में किसी का वर्चस्व न हो।यहां तक कि माता-पिता का भी नहीं। सब मिलकर तय करें और प्रत्येक सदस्य की स्वायत्तता और भावनाओं का दिल से सम्मान करें। स्त्री के प्रति दुर्व्यवहार परिवार से आरंभ होता है। अतःपरिवार को बदलने की जरूरत है। परिवार बदलेगा तो समाज बदलेगा।

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भाजपानेत्री सुषमा स्वराज ने बलात्कार की शिकार लड़की को जिंदा लाश कहकर अपने मन में बैठे प्रतिक्रियावादी भावबोध की अभिव्यक्ति की है। प्रतिक्रियावादी भावबोध के अनुसार बलात्कार कलंक है और स्त्री कलंकित स्त्री है।फलतः वह समाज में बहिष्कृत है। जबकि सच यह है बलात्कारी कलंकित है और अपराधी है और उसका बहिष्कार किया जाना चाहिए। उसे जिंदा लाश कहा जाना चाहिए। पीड़िता तो निर्दोष और निष्कलंक है।वह इस समाज की जीती-जागती सदस्य है।

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प्रतिवाद को राजनीतिक लक्ष्यों से दूर रखें आंदोलनकारी युवा। सोनिया गांधी जब बोल रही हैं तो उनकी बात पर विश्वास किया जाना चाहिए और इंतजार करना चाहिए कि सरकार क्या करती है।

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कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने एक महिला के नाते बड़ी ही संजीदगी के साथ दिल्ली बलात्कार कांड की निंदा की है और शीघ्र एक्शन की मांग की है। सवाल यह है कि वे घर के बाहर निकलें और प्रदर्शनकारियों से मिलें। यह पत्र देकर एक्शन कराने का समय नहीं है। सरकारी बाधाओं से बाहर आकर मिलने और बयान देने का समय है।

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बलात्कार की घटनाएं रूकें और औरतों पर शारीरिक हमले न हों इसके लिए जरूरी है कि राजनीतिक तौर पर नार्मल सक्रिय माहौल बनाया जाय। एक्शन केन्द्रित माहौल अस्थायी होता है। आज की दो बड़ी बलात्कार की खबरें हैं जो टाइम्स ऑफ इण्डिया में बेव पर हैं।

1. Woman gang-raped, stripped naked in Tripura; seven arrested .

2.Three-year-old girl raped in Delhi playschool, owner's husband held



बलात्कार का मसला राष्ट्रीय मसला है यह स्त्री के प्रति समग्र नजरिए को बदलने की मांग करता है। भारत में जो लोग औरत को परिवार और परंपरा की बंदिशों में बांधे रखना चाहते हैं वे ही सबसे ज्यादा औरतों पर हमले करते हैं। औरत पर शारीरिक हमले से भी ज्यादा पीड़ादायक हैं वाचिक हमले।

औरत के सम्मान के लिए उसे परंपरा और परिवार के पुंस वर्चस्व से मुक्त करे समाज। साथ ही औरत पर शारीरिक और वाचिक हमले बंद किए जाएं।

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आश्चर्य की बात है कि बलात्कार कांड पर राहुल गांधी ने कोई बयान तक जारी नहीं किया।

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बलात्कार कांड की घटना के प्रतिवाद में हजारों युवाओं के बलात्कार विरोधी आक्रोश को जिस तरह टीवी चैनलों ने पॉजिटिव कवरेज दिया है उसने युवाओं के आक्रोश की मात्रा में इजाफा किया है। अपराध के खिलाफ समाचार चैनलों की इसी तरह आक्रामक भूमिका की भारत को जरूरत है।

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दिल्ली के इतिहास में यह विलक्षण दृश्य है कि कई दिनों से हजारों युवा बलात्कार कांड और दिल्ली में कानून-व्यवस्था के बिगडने के खिलाफ गुस्से का इजहार कर रहे हैं।

अभी भी हजारों युवा विजयचौक पर जमे हुए हैं। केन्द्र सरकार को संबंधित पुलिस अधिकारियों के खिलाफ तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए। आज जिन अधिकारियों ने जनविरोधी एक्शन लिया है उनको सस्पेंड किया जाय।

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दिल्ली बलात्कार काड की पीड़ित लड़की की हालत में सुधार आ रहा है। आज उसने जूस पिया है और उसके चेहरे पर कोई निराशा नहीं है।

हम चाहते हैं कि वो जल्दी ठीक होकर सामान्य जीवनयापन करे। दिल्ली में औरतों का सुरक्षित जीवन सरकार सुनिश्चित करे।

औरतों के खिलाफ शोहदों की हरकतों को पुलिस सख्ती से रोके और शोहदों को पकड़ते ही थाने में बंद करने के पहले शहर में गधे पर बिठाकर घुमाया जाय जिससे इस तरह के अपराध के खिलाफ आमलोगों में सचेतनता बढायी जाय।

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आज दिल्ली में बलात्कार कांड के खिलाफ व्यापक जनरोष दिखाई दिया। हजारों युवाओं ने प्रदर्शन किया। मनमोहन सरकार ने इन युवाओं के खिलाफ पुलिस का निर्ममता के साथ दुरूपयोग किया है।

त्रासद पहलू है कि लाठीचार्ज,आंसूगैस के गोले ,पानी की बौछारें फेंककर सैंकड़ों युवाओं को घायल कर दिया गया।

कायदे से केन्द्रीय गृहमंत्री को इन आंदोलनकारी युवाओं से बाहर आकर मिलना चाहिए। इस तरह के मसले पर कमरों में नेताओं के द्वारा बैठना लोकतंत्र का अपमान है ।

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'The protest I participated in the morning was hijacked later in the afternoon by self-serving politicians and people who perhaps had other agendas to pursue,' Aseem Chhabra notes in this first person account of what happened:



The messages had been mixed from the beginning of the protests, following last week's shocking gang-rape of a 23-year-old young woman in a moving bus in south Delhi [ Images ].



Even during the quieter candlelight vigils at India [ Images ] Gate, there were loud voices of hysteria calling for death penalty for the alleged rapists, and disturbing demands like chemical castration, which would probably turn the Indian democracy into a State with Taliban [ Images ] form of justice.



But this whole week, while I was in Delhi, I was more than curious about the protests that were growing larger by the day at India Gate. The latest tragedy and growing cases of rape in and around Delhi and other parts of India called for major action -- greater police protection for women, faster legal responses to the crimes and, most important, a drastic change in Indian society where women are often treated as commodities, as second grade citizens to be tossed around by the men in their lives.

On Saturday the protestors had attempted to reach all the way up to Rashtrapati Bhavan [ Images ] and the Delhi police used teargas, water cannon and even a lathi-charge to disperse them. But still, on Sunday morning, when a friend sent out a tweet saying that protestors were gathering near Humayun's tomb, I decided to join the group.



At noon there were about 100 people gathered at the meeting point, mostly students from Delhi's Jawaharlal Nehru [ Images ] University -- my alma mater. Wrapped in jackets, sweaters and scarves, they were prepared with large signs and placards. The surprise for me was to meet two JNU professors, who were my peers at the university 31 years ago.



In half hour the group got bigger, as a busload of JNU students joined us and we started the march to India Gate on the flyover that leads to Dr Zakir Hussain [ Images ] Marg. The JNU Student Union president -- a member of the Students Federation of India, the student wing of the Communist Party of India-Marxist -- was there, along with many participants from the All India Students' Association and All India Progressive Women's Association -- both groups affiliated with the CPI-Marxist-Leninist.



My life had come full circle. Just as three decades ago, I was again on the streets of Delhi with left-wing student groups and surrounded by spirited slogans that had not changed over time. Another JNU professor handed me a small placard that said in Hindi that the death sentence and hanging were not the solution to increasing cases of rape in India.



Walking among a large number of red flags, and even a couple of Indian national flags, I heard the marchers yell out 'Lal Salaam', 'Inquilab Zindabad', 'Dilli police Hai-Hai', and 'Dilli police sharm karo. And there were calls for azaadi, women asking for freedom from patriarchy, and the desire to dress as they wanted to and whenever they wanted to without being questioned by society.



The Delhi police had reportedly imposed Section 144 of the Criminal Procedure Code, banning gatherings in the India Gate area, but we were able to walk peacefully all the way up to Delhi's central section.



We did see some police along the way, outside the Golf Club -- perhaps assuring security for Delhi's elite -- but the protest was peaceful. The protestors were spirited, somewhat angry after Saturday's clashes with the police and naturally about the issue of rape, but they were under control.



As we reached India Gate, I made it clear to a friend who was marching with me, along with his two European tourist friends, that I would leave the gathering if things turned violent. I had no plans to get arrested, or lathi-charged.



At India Gate, suddenly the picture became clearer. There was indeed a massive police presence, along with several television vans and large cameras. There were also many more protestors who had gathered.



In one such group I saw many protestors carrying placards that called for the death sentence and hanging of the alleged rapists in the gang rape case. I saw two young girls standing with placards that boldly stated the word 'castration'. And I wondered if they even knew the meaning of the word or what the act entails.



We stood along with our original group of protestors looking straight at Rajpath all the way up to Rashtrapati Bhavan. And although it was a cold foggy day, one thing was clear -- the police had completely shut down the entire Rajpath. It was a very surreal sight.



That is when I first heard a loud explosion, perhaps like a gunshot. It was followed by smoke at a distance. "That's teargas," I told the two Europeans, who started to run. Within seconds there was another explosion and I saw a smoking teargas shell land just five feet away from me.



And so I ran too, back to India Gate where things appeared a lot calmer, although there were other dispirited groups yelling slogans such as 'We Want Justice.' Some had decided to sit on the street right besides India Gate.



We heard another tear gas being shot towards the protestors and that was enough indication for us to leave the area altogether. I spent the rest of the afternoon at home following reports of more and more violence as the protestors were joined by Arvind Kejriwal, Baba Ramdev [ Images ] and then according to one media outlet youth groups affiliated with the Bharatiya Janata Party [ Images ] also showed up.



By the evening one police constable was fighting for his life and over 40 protestors were injured. Images from India Gate showed that what started off as a peaceful protest had turned the area into a war-like zone.



Bloggers and other folks on Twitter were trying to figure out which political groups were responsible for the protests turning violent.



I had joined the protest hoping something good would come out from the demands for a change in the police's policies and practices, and society at large.



I had naively believed that for the rape-related crisis to be resolved the young protestors would have walked along with the police, with the hope of eventually working out issues with the elected officials and the law enforcement personnel.



The protest as I participated in the morning was hijacked later in the afternoon by self-serving politicians and people who perhaps had other agendas to pursue.



The day ended with a wider gap between the authorities and the protestors, and I do not know if there is a middle ground to resolve the crisis.

Aseem Chhabra( जेएनयूएसयू के पूर्व पदाधिकारी)






शनिवार, 22 दिसंबर 2012

नरेन्द्र मोदी का मीडिया असत्य और फेसबुक

मीडिया में लाइव कमेंट्री के दौरान पत्रकारों और राजनीतिक विशेषज्ञों ने अमूमन नरेन्द्र मोदी की जीत पर भावविभोर होकर बातें की। विश्लेषकों का भावविभोर होना सही नहीं है। विश्लेषक को टीवी पर सत्य को सामने लाने का काम करना चाहिए और उन्माद से बचना चाहिए। उन्माद से बचने के लिए विधानसभा चुनाव परिणामों के इतिहास का बारीकी से ज्ञान होना चाहिए। 

आमतौर पर विश्लेषक गुजरात और मोदी पर बात करते हुए सरलीकरण और झूठ का सहारा ले रहे थे। जो झूठ बोले गए उनमें से एक बड़ा झूठ यह है कि ‘विधानसभा चुनाव के इतिहास में मोदी ने तीसरीबार जीतकर इतिहास रचा है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ।’ यह बात एकसिरे से गलत है।यह बात गुजरात के संदर्भ में सही है लेकिन देश के संदर्भ में नहीं।

मसलन्, ज्योतिबाबू के लोकप्रियता के मानक से काफी पीछे हैं नरेन्द्रमोदी और उनकी पार्टी भाजपा। मीडियापंडितों के द्वारा मोदी की प्रशंसा में अहर्निश झूठ कहा गया। तथ्य बताते हैं कि ज्योतिबाबू 23साल मुख्यमंत्री रहे,वाममोर्चे की तीन-चौथाई बहुमत से चार बार विजय हुई।यह रिकार्ड पार करना किसी भी दल के लिए संभव नहीं है।

विद्या सुब्रहमण्यम ने हिन्दू ( 22दिसम्बर2012) में लिखा पश्चिम बंगाल में वाममोर्चे को सन् 1977 से 1996 के बीच में तीन-चौथाई बहुमत के रूप में 294 के सदन में क्रमशः 225,228,242 और 241 सीटें मिली थीं।इसके बाद वाममोर्चे के नम्बरों में कमी आई तो 1996 में उसे दो-तिहाई बहुमत मिला तो वाममोर्चे को 202 सीटें मिलीं और 68.70फीसदी वोट मिले थे। वाममोर्चे के वोट 47 प्रतिशत से लेकर 51 प्रतिशत के बीच में घूमते रहे। इसी तरह शीला दीक्षित और नवीन पटनायक भी तीसरीबार मुख्यमंत्री बने हैं।

मोदी पर बातें करते समय मोदी के अलोकतांत्रिक चरित्र को वोट की राजनीति और उनके भाषणों की बाइटस की ओट में छिपाने की कोशिश की गयी। मोदी की अलोकतांत्रिक कार्यप्रणाली का आलम यह है कि राज्य में समूचा प्रशासन दलतंत्र के मातहत कर दिया गया है। राज्य में सांस्कृतिक बहुलतावाद और जातीय बहुलतावाद को हाशिए पर डालकर सुनियोजित ढ़ंग से हिन्दुत्वकी विचारधारा के मातहत रख दिया गया है। राज्य में धर्मनिरपेक्ष विचारधारा पर राज्यप्रशासन में बैठे लोग आए दिन हमले करते रहते हैं। इसके कारण एक खासकिस्म का साम्प्रदायिक जहर आमजीवन में फैल गया है। इस दहर का ही दुष्परिणाम है कि भाजपा ने एक भी मुसलमान को विधानसभा का टिकट नहीं दिया यहां तक अपने केन्द्रीय मुस्लिम नेताओं की सार्वजनिकसभाएं नरेन्द्र मोदी के साथ नहीं कीं।

यह भी कहा गया कि मुसलमानों का मोदी ने बड़ा ख्याल रखा है। सवाल यह है 2002 में मुसलमानों की जो क्षति की है उसकी भरपायी आनेवाले 100सालों में नहीं होगी। मुसलमानों की पूरी जमी-जमायी अर्थव्यवस्था को 2002 के दंगों ने तबाह कर दिया, जिन लोगों की संपत्ति उस दौरान नष्ट हुई वे आज भी पामाली झेल रहे हैं। दूसरी बात मुसलमानों की ओर जितना पैसा अभी राज्य खर्चा करता है उसमें केन्द्र की स्कीमों से ही अधिकांश पैसा खर्च हो रहा है। राज्य की ओर से विशेष कुछ भी नहीं किया गया है। उलटे राज्य प्रशासन में मुस्लिमविरोधी जहर भर दिया है। इस जहर से न्यायपालिका तक प्रभावित हुई है इसके कारण सुप्रीमकोर्ट को आदेश देकर 2002 के दंगों के केस राज्य के बाहर सुनवाई के लिए भेजने पड़े हैं। सुप्रीमकोर्ट का इस तरह का फैसला अपने आपमें मोदी प्रशासन की अल्पसंख्यक विरोधी मानसिकता को नंगा करता है।

मोदी के इसबार के चुनावप्रचार अभियान में हाईटेक का जमकर इस्तेमाल किया गया। इंटरनेट,ब्लॉग,फेसबुक आदि का भी खूब प्रयोग हुआ है। इस प्रचार से कितना प्रभाव पड़ा यह कहना कठिन है लेकिन इंटरनेट और हाईटेक का प्रभावशाली ढ़ंग से वे इस्तेमाल करने में सफल रहे हैं। इस मामले में कांग्रेस उनसे काफी पीछे रही है।

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भारतीय लोकतंत्र को हठधर्मी और अलोकतांत्रिक दिमाग ने घेर लिया है। कांग्रेस को गुजरात में अपनी हार को शालीनता से मान लेना चाहिए। वहीं पर भाजपा को हिमाचल में अपनी हार को स्वीकार कर लेना चाहिए।

सबको शालीनता का पाठ पढ़ाने वाले इन दोनों दलों के नेताओं में कोई शालीनता नजर नहीं आती। मसलन् गुजरात में हारकर भी कांग्रेस के नेताओं को मोदी को बधाई देनी चाहिए। यही स्थिति हिमाचल में भाजपा को भी करना चाहिए। धूमलजी को वीरभद्र सिंह को बधाई घर जाकर देनी चाहिए। मैं कल सारे दिन टीवी देखता रहा लेकिन एक-दूसरे को बधाई देने वाले दृश्य नहीं देख पाया।

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मोदी को किसी ने यूपी में प्रचार करते नहीं देखा, वे उत्तराखंड भी नहीं गए,पंजाब भी नहीं गए, हिमाचल भी नहीं गए. फिर वे देश में अपनी शक्ति का कब प्रदर्शन करेंगे।

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टाइम्स नाउ चैनल पर अभी एक पत्रकार (जे.स्वामीनाथन अय्यर) ने कहा- "गुजरात का शेर हिमाचल का बकरा।" योगेन्द्र यादव ने कहा कि भावी परिणाम के रूप में मोदी की जीत लोकतंत्र का डार्कसाइड है।

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गुजरात में भाजपा को 115,कांग्रेस को 61 सीटें मिली हैं। सन् 1985 के बाद पहलीबार कांग्रेस को 60 से ऊपर सीटें मिली हैं। भाजपा को रिकॉर्ड 51 फीसदी मत मिले हैं। तकरीबन एक बार वाममोर्चे को भी पश्चिम बंगाल में 52 फीसदी मत मिले थे। अतः मोदी का यह कहना सही नहीं है वे अकेले नेता हैं जो इतिहास बना रहे हैं।

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हिन्दी में बोलना राष्ट्रीय नेता होना नहीं है। मोदी का हिन्दी स्पीच से चुनाव प्रचार का आरंभ और समापन हुआ। हिन्दी बोलने से पीएम बनना आसान होता तो अटलजी को 40साल न लगते पीएम बनने में और आडवाणी तो अभी भी इंतजार में हैं ,लेकिन देवगौड़ा पीएम बन गए बिना हिन्दी जाने। हिन्दी में बोलने का मतलब है हिन्दी चैनलों के लिए बोलना।

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मोदी ने कहा कि मेरे खिलाफ झूठ का बबंडर चला है। वे (मीडियावाले) मेरे खिलाफ गंदी भाषा बोल रहे थे।

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फेसबुक पर बातें करते समय दलीय बुद्धि से नहीं । बुद्धि से काम लें मित्रलोग। दलीय नजरिए के लिए वे अपने अपने दल के वॉल पर जाएं ,यहां पर वस्तुगत बहस के लिए आएं।

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अहमदाबाद में नरेन्द्र मोदी ने विजय रैली में सुंदर भाषण दिया। उनके भाषण का निचोड़ यही है वे गुजरात छोड़ने नहीं जा रहे। इस रैली में उन्होंने मीडिया आलोचकों की कड़ी आलोचना की। अपने आलोचकों की बातों को मोदी ने बौद्धिक व्यभिचार की संज्ञा दी।

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गुजरात में भाजपा की यह पांचवीं जीत है। मोदी की तीसरी जीत है। इसके बावजूद हिमाचल में क्यों हारे मोदी के नायकत्व से हिमाचल में मदद नहीं मिली,तो यूपी-बिहार में क्या मोदी से 2014 में मदद मिलेगी ?

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गुजरात के बारे में एग्जिट पोल सर्वे की तुलना करें तो सच और कल्पना का अंतर साफ नजर आएगा। पहली बात यह कि मोदी को 51 फीसद वोट मिले हैं ,कांग्रेस को 41 फीसदी वोट मिले हैं , अधिकांश सर्वे जो सीटें बता रहे थे उससे भी परिणाम का मेल नहीं बैठता। खासकर कांग्रेस की सीटों के बारे में अधिकांष अनुमान गलत साबित हुए हैं। एग्जिट पोल देखें-



टाइम्स नाउ के लिए सी-वोटर द्वारा कराए गए एग्जिट पोल में भाजपा को गुजरात की कुल 182 सीटों में से 119 से 129 सीटें तथा कांग्रेस को 49 से 59 सीटें मिलने का अनुमान लगाया गया है।
न्यूज 24 ने दिखाया कि भाजपा को वर्ष 2007 में 117 सीटों के मुकाबले इस बार 140 सीटें मिलने की संभावना है। ऐसा इसलिए क्योंकि पार्टी को कुल पड़े मतों में से 46 प्रतिशत मिलने की संभावना है। चैनल के लिए एग्जिट पोल चाणक्य द्वारा कराया गया। इसमें अनुमान लगाया गया है कि कांग्रेस को 40 सीटें मिलेंगी, जो उसे वर्ष 2007 में मिली 59 सीटों से 19 कम होंगी। 
हेडलाइंस टुडे ने अनुमान लगाया कि भाजपा को 118 से 128 के बीच सीटें मिलेंगी जबकि कांग्रेस को 50 से 56 सीटें मिलने की संभावना है। कांग्रेस को कुल पड़े मतों में से 37 प्रतिशत मिलने की संभावना है। 
एबीपी न्यूज ने अनुमान लगाया कि भाजपा को इस चुनाव में 126 सीटें मिलेंगी और कांग्रेस 50 सीटों पर जीत दर्ज करेगी। भाजपा के बागी केशुभाई की जीपीपी को मात्र 2 सीटें, जबकि अन्य के खाते में 4 सीटें जाने का अनुमान है। सी-वोटर ने अनुमान लगाया कि भाजपा को कुल पड़े मतों में से 46 प्रतिशत और कांग्रेस को 37 प्रतिशत मत मिलेंगे। वहीं चाणक्य ने कहा कि भाजपा को 50 प्रतिशत वोट जबकि कांग्रेस को 35 प्रतिशत वोट मिलेंगे। 

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हिमाचल के बारे में एग्जिट पोल सर्वे गलत साबित हुए हैं। इन सर्वेक्षणों में जो अनुमान भाजपा के बारे में लगाए गए थे वे सही साबित नहीं हुए हैं। मसलन्

सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटी द्वारा कराए गए सर्वे के मुताबिक कांग्रेस और भाजपा में कड़ी टक्कर है। इस सर्वे में कांग्रेस को 41 फीसद और भाजपा को 40 फीसद वोट मिलने की बात कही गई है। सीटों के हिसाब से देखें तो इस सर्वे में कांग्रेस को 29-35 सीटों पर जीत दिखाई गई है तो भाजपा को भी कमोबेश इतनी ही सीटें दी गई हैं। वहीं सीवोटर्स द्वारा कराए गए सर्वे में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत हासिल करते हुए दिखाया गया है। इसमें कांग्रेस को 40 सीटों पर विजयी दिखाया गया है जबकि भाजपा के खाते में कुल 24 सीटें ही दिखाई गई हैं। वहीं सीएनएन आईबीएन के सर्वे में भी कांग्रेस और भाजपा में कड़ी टक्कर होने की बात सामने आई है। इस सर्वे में कांग्रेस को कुल मतों का 41 फीसद और भाजपा को 40 फीसद मत मिलने का दावा किया गया है।
न्यूज 24 के सर्वे में हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत दिया है। इस सर्वे में कांग्रेस को 40 सीट और भाजपा को 23 सीटें दी गई हैं। 
ताजा परिणाम बताते हैं कि भाजपा को 26 और कांग्रेस को 36 सीटें मिली हैं। 

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कहा जा रहा है कांग्रेस में व्यक्तिपूजा होती है भाजपा में नहीं, अरे विज्ञजनों कांग्रेस में सोनिया-राहुल हैं ,तो भाजपा में आडवाणी-मोदी आदि हैं ।

व्यक्तिपूजा के बिना बुर्जुआ समाज में राजनीति संभव ही नहीं है।

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हिमाचल और गुजरात में पहले भाजपा की राज्य सरकार थी, इसबार वे हिमाचल में हारे हैं। इसबार के चुनाव भाजपा के लिए वाटरलू साबित हुए हैं। भाजपा अपने किले नहीं बचा पायी है। यह हाल तब है जब कांग्रेस के खिलाफ व्यापक गुस्सा रहा है।

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हमने फेसबुक पर 18तारीख को लिखा था-
एग्जिट पोल के परिणाम कई बिंदुओं पर सही साबित नहीं हो सकते।हमारा व्यक्तिगत अनुमान है रि भाजपा सरकार तो बनाएगी लेकिन उसके मतों और सीटों में गिरावट आने की संभावनाएं हैं। कांग्रेस और अन्यदलों ने जिस तरह की ढ़ीला प्रचार किया है उसने मोदी की जीत को काफी आसान कर दिया है। लेकिन आम वोटरों में मतों के पैटर्न में बदलाव आएगा। यह चुनाव मोदी के राजनीतिक ह्रास के आरंभ का प्रस्थान बिंदु है। 
हमारी राय गुजरात परिणामों से सही साबित हुई है। 

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मोदी तीसरीबार गुजरात के मुख्यंत्री बनेंगे ,सवाल यह है कि जब वे पिछलीबार जीतकर केन्द्र में भाजपा को नहीं ला पाए तो इसबार ले ही आएंगे ,इसका आधार क्या है ?

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मोदी शेर हैं तो धूमल क्या हैं ? गुजरात की जीत पर भाजपा के लोग नाच रहे हैं ,लेकिन हिमाचल की हार पर रोनेवाले कहां हैं टीवी इमेजों में .

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मोदी को नायक बनाया भाजपा ने,मीडिया ने भी उछाला,लेकिन हिमाचल पर मोदी का कोई असर नहीं पड़ा, ऐसे में देश पर कितना असर होगा कल्पना कर सकते हैं।

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भाजपा का दावा था उन्होंने हिमाचल-गुजरात में विकास किया, लेकिन जनता ने हिमाचल में हराया और गुजरात में जिताया है। क्या यह भाजपा मार्का विकास की जीत है ? शायद नहीं.

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मोदी ने मुसलमानों को भाजपा की ओर से गुजरात में मौका न देकर साफ कर दिया है कि यदि वे केन्द्र की राजनीति में आते हैं तो मुस्लिम विरोधी एजेण्डा जारी रखेंगे।

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गुजरात में कांग्रेस 60सीटों के ऊपर पहलीबार जाती दिख रही है। यह भाजपा के पैर में कांटा है।

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गुजरात में कांग्रेस यदि अपनी पुरानी सीटें बनाए रखती है और वोट बढ़ा ले जाती है तो यह उसकी सफलता मानी जाएगी। कांग्रेस पर मीडिया का कोई असर नहीं हुआ लगता है।

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जो लोग कह रहे हैं कि चुनाव में भ्रष्टाचार मुद्दा बना है, वे गलतफहमी में हैं , राज्य विधानसभा चुनाव में लोकल कारक प्रधान कारक हैं,राष्ट्रीय भ्रष्टाचार प्रधान कारक नहीं है।

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आने वाले दिनों में भाजपा का भविष्य क्या होगा इसे हिमाचलप्रदेश की हवा से पहचान सकते हैं।गुजरात की तुलना में हिमाचल का हिन्दीभाषीक्षेत्रों पर असर ज्यादा होगा।

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मजेदार बात यह है कल तक जो लोग टीवी चैनलों में मोदी को भावी प्रधानमंत्री बना रहे थे आज किसी भी चैनल पर उनको प्रधानमंत्री बनाने की बात नहीं कर रहे। भाजपा के लिए दो राज्यों (गुजरात, हिमाचलप्रदेश) के परिणाम कई सबक देते हैं। पहला यह कि कोई क्षेत्रीयनेता राष्ट्रीयनेता नहीं बन सकता। मोदी-धूमल लोकल नेता है।

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टीवी चैनलों पर बैठे राजनीति विशेषज्ञों का हाल यह है कि वे लोकल को जानते नहीं है लेकिन सरलीकरण के जरिए व्याख्याएं कर रहे हैं। विधानसभा चुनाव अंततः लोकल मसले पर होते हैं,लोकल कारक प्रधान होते हैं। विचारधारात्मक कारक गौण होते हैं।

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टीवी पर मोदी विमर्श का खोखलापन यह है कि उसमें से गुजरात में पूंजीवाद का असमान विकास कभी प्रमुख एजेण्डा नहीं बन पाया।

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समाचार प्रस्तुति की नई शैली एबीपी न्यूज में देखें कि किस तरह दीपक चौरसिया बोल रहे हैं, जैसे कोई शेयर मार्केट में आवाज लगाते 5-5, 6 और 6 ,ये लोग कहां ले जाएंगे खबरों को ? 


शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

राजारहाट –न्यूटाउन के प्रति ममता की बेरूखी


मुख्यमंत्री ममता बनर्जी धीरे धीरे समझ रही है कि उनके हाथ से समय निकलता जा रहा है। वे अपने सांगठनिक पचड़ों और अपनी पुरानी राजनीतिक मनोदशा के जंजाल से मुक्त होने के बारे में नए सिरे से संगठित होने की कोशिश कर रही हैं। इस कोशिश के क्रम में उन्होंने विगत सोमवार को शहरी इंफ्रास्ट्रक्चर समिति के अफसरों ,उद्योगपतियों और भवन निर्माताओं के प्रतिनिधियों के साथ मीटिंग की। पश्चिम बंगाल के शहरों में शहरी सुविधाओं का व्यापक अभाव है। राज्य के शहरों से जुड़े इलाकों में सामान्य शहरी इंफ्रास्ट्रक्चर की न्यूनतम सुविधाओं का अभाव आज एक ठोस वास्तविकता है। मुख्यमंत्री के साथ हुई इस बैठक में शहरी विकास मंत्रालय के अधिकारियों के अलावा भवन निर्माताओं के प्रतिनिधियों ने भी हिस्सा लिया था। 

भवन निर्माताओं ने मुख्यमंत्री से शहरी लैण्डशिलिंग एक्ट को तुरंत समाप्त करने की मांग रखी और कहा कि देश के अधिकांश शहरों में यह कानून खत्म किया जा चुका है लेकिन कोलकाता में अभी तक यह खत्म नहीं हुआ है। इस कानून के कारण भवन निर्माण के क्षेत्र में तेजी लाने में मुश्किलें आ रही हैं। साथ ही नए पूंजी निवेश का मार्ग भी रूका हुआ है। कई भवननिर्माताओं ने राजारहाट-न्यूटाउन में सिंडीकेट की दादागिरी का मसला भी उठाया और यह कहा कि मुख्यमंत्री के सिंडीकेट के खिलाफ बयान दिए जाने के बाबजूद सिंडीकेट की दादागिरी कम नहीं हुई है। मुख्यमंत्री ने इनलोगों की बातों को गंभीरता से सुना और तुरंत कार्रवाई का वायदा किया। उल्लेखनीय है कि यह मीटिंग हाल में सम्पन्न बंगाल विल्ड कॉन्क्लेव के अग्रिम कदम के तौर पर बुलाई गई थी।

राजारहाट न्यूटाउन के प्रसंग में कई प्रमुख तथ्य हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। पहली सच्चाई यह है कि इस नए शहर में सिंडीकेट का आतंक है। सिंडीकेट के बिना कोई काम नहीं किया जा सकता। सिंडीकेट की दादागिरी ममताशासन आने के बाद पैदा नहीं हुई है बल्कि यह वामशासन के दौर में ही इसका जन्म हुआ था। सिंडीकेट दादाओं ने वामपंथी शासकों से लेकर ममता शासन तक सबको ठेंगा दिखाकर रखा है और इस इलाके में उनकी समानान्तर सत्ता है। इसका समूचे इलाके के विकास पर बुरा असर पड़ा है। ममताशासन को खासतौर पर इस संदर्भ में कुछ अप्रिय फैसले लेने होंगे। सिंडीकेट सरगनाओं के खिलाफ स्थानीय पुलिस प्रशासन को सख्ती से निबटने के आदेश दिए जाने चाहिए। साथ ही इस इलाके में सिंडीकेट के आतंक के खिलाफ राज्य के विभिन्न दलों के नेतागण सिंडीकेट दादाओं के समर्थन की नीति त्यागें।

भारत में राजारहाट एक बेहतरीन नवीन शहर के रूप में विकसित होने वाला अत्याधुनिक शहर है। इसकी शहरी योजना को सभी स्तरों पर प्रशंसा मिली है। यहां तक कि यूएनओ ने भी बेहतरीन नियोजित शहर के रूप में इसकी प्लानिंग को स्वीकृति दी है।

आज राजारहाट की स्थिति बेहद खराब है वहां बुनियादी सुविधाओं और सुरक्षा का अभाव है। अनेकों बहुमंजिला भवन पूरे के पूरे बने खड़े हैं और उनमें कोई ऑफिस तक नहीं खुला है। यही हाल रिहायशी इमारतों का है। वहां पर जो लोग रह रहे हैं उनके पास न्यूनतम बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं। यहां तक कि डाकसेवा के पहुँचने की भी व्यवस्था नहीं है। दसियों हाउसिंग सोसायटी बनी खड़ी हैं लेकिन उनमें कोई रहने वाला नहीं है। स्थिति की भयावहता का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि ममता सरकार बनने के बाद अचानक इस इलाके में सिण्डीकेट का आतंक चरम पर पहुँच गया और तकरीबन समूचे इलाके में निर्माण कार्य ठप्प हो गया ।

एक अनुमान के अनुसार राजारहाट न्यूटाउन में विभिन्न कंपनियों का तकरीबन 70हजार करोड़ रूये से ज्यादा पैसा लग चुका है और सारा कमकाज जहां का तहां रूका हुआ है। कंपनियां परेशान हैं कि किस तरह इस संकट से निकला जाय। सोमवार की बैठक में बिल्डरों ने अपनी आर्थिक दुर्दशा से भी मुख्यमंत्री को अवगत कराया है। एक बिल्डर ने बताया कि मुख्यमंत्री ने हमलोगों की बातें सुनीं लेकिन कोई ठोस समाधान पेश नहीं किया। उनके सामने जब हुडको के अधिकारियों और पुलिस अफसरों की बैठक के बारे में जिक्र किया गया तो मुख्यमंत्री ने कहा कि वे बात करेंगी।

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ उद्योगपतियों को बैठक करते समय एक दिक्कत आ रही है कि मुख्यमंत्री कभी भी खुले मन से मीटिंग में शामिल नहीं होतीं। वे अपने एजेण्डे के साथ आती हैं और अपनी बात कहकर चली जाती हैं। इसके कारण उद्योग जगत के साथ राज्य प्रशासन का दुतरफा संवाद नहीं बन पा रहा है। कायदे से बिल्डरों और उद्योगपतियों के साथ बातचीत में उन समस्याओं पर बातें होनी चाहिए जिन समस्याओं को वे लोग उठाते हैं। लेकिन नौकरशाही ने सारा माहौल इस कदर खराब किया हुआ है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ खुलकर विचार विनिमय हो ही नहीं पा रहा है। अकेले में जो उद्योगपति उनसे मिलता है उसकी वे सुनती हैं लेकिन समूह में वे सिर्फ अपनी कहती हैं। राजारहाट-न्यूटाउन को लेकर ममता सरकार ने अब तक जिस बेरूखी का परिचय दिया है उससे उद्योग जगत परेशान है।

नरेन्द्र मोदी,विकास और फेसबुक

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गुजरात विधानसभा चुनाव के बारे में हाल ही में जो परिणाम पूर्व सर्वे आए हैं उनमें भाजपा फिर से सरकार बनाने जा रही है। लोकतंत्र में एकतंत्र का यह परिणाम है। इस तरह के परिणाम एक जमाने में पश्चिम बंगाल से वाम मोर्चे की जीत के छहबार आए हैं। मोदी ने सांगठनिक तौर पर गुजरात में माकपा के मॉडल को लागू किया है और विपक्ष को बेकार करके रख दिया है।

यही स्थिति एक जमाने में पश्चिम बंगाल में 1977से 2009 तक वाममोर्चे की भी रही है।

मोदीतंत्र मूलतःदलतंत्र है इसमें लोकतंत्र नहीं बिकता,दलीय वर्चस्व बिकता है। जो लोग सोच रहे हैं मोदी ठीक कर रहे हैं ,विकास कर रहे हैं वे मुगालते में हैं। यह भ्रम टूटेगा लेकिन कुछ समय लेगा।

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गरीबी में आई कमी के आधार पर गुजरात 20 राज्यों की सूची में 10वें पायदान पर है।

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सेंटर फॉर डेवलपमेंट अल्टरनेटिव्स के निदेशक और अर्थशास्त्र की प्राध्यापक इंदिरा हीरवे कहती हैं, 'गरीबी का स्तर कम हुआ है लेकिन शहरी क्षेत्रों में जहां 43 फीसदी आबादी रहती है, वहां गरीब उन्मूलन की रफ्तार सुस्त हुई है।' उनका कहना है कि गुजरात में गरीबी में आई कमी दूसरे प्रतिस्पर्धी राज्यों की तुलना में काफी कम है।

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मोदी प्रशंसक ध्यान दें- गुजरात मजदूरी और इसमें बढ़ोतरी के मामले में 20 बड़े राज्यों में क्रमश: 14वें और 15वें स्थान पर आता है जो संपन्न और विपन्न लोगों के बीच बढ़ती दूरी को दर्शाता है।

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मोदी के शासन में शिक्षा क्षेत्र में किस तरह की तबाही चल रही है इस पर बिजनेस स्टैंडर्ड ने एक गैर सरकारी संगठन के सर्वे के हवाले से चौंकाने वाली बातें कही हैं।

एक गैर सरकारी संगठन प्रथम के मुताबिक ग्रामीण गुजरात में करीब 95 फीसदी बच्चे विद्यालयों में पंजीकृत हैं लेकिन ज्ञान का स्तर काफी कम है। पांचवीं कक्षा में पढऩे वाले करीब 55 फीसदी बच्चे दूसरी कक्षा के पाठ्यक्रम नहीं पढ़ पाते हैं। लगभग 65 फीसदी बच्चे ऐसे हैं जो गणित के सामान्य जोड़ घटाव भी नहीं कर पाते हैं।

बहुत सारे लोगों का कहना है कि सरकारी स्कूलों में शिक्षक शराब पीकर आते हैं और ताश खेलते हैं। बारिया में बच्चों के लिए साल में 24 दिन का शिविर चलाने वाली हार्डीकर कहती हैं कि पांचवीं कक्षा के बच्चे अक्षर भी नहीं पहचान पाते हैं। उच्च शिक्षा की स्थिति के बारे में अर्थशास्त्री वाई के अलघ कहते हैं कि इसकी हालत भी खस्ता है। अहमदाबाद के समाज विज्ञानियों के मुताबिक ज्यादातर कॉलेज और विश्वविद्यालय ठगों और नाकाम प्रशासकों द्वारा चलाए जा रहे हैं। तकनीकी कॉलेजों में ही थोड़ी बहुत क्षमता है।

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मोदी के विकास के मॉडल की जो लोग प्रशंसा करते हैं वे जरा इस सत्य को भी देखें कि स्वास्थ्यसेवाओं का क्या हाल है। बिजनेस स्टैंडर्ड के अनुसार स्वास्थ्य के क्षेत्र में 96 गांवों को सेवाएं देने वाले राज्य द्वारा संचालित सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में पिछले सात साल से किसी बाल रोग विशेषज्ञ और स्त्री प्रसूति विशेषज्ञ चिकित्सक की तैनाती नहीं हुई है। बारिया स्थित इस प्रसूति गृह में खून चढ़ाने और नवजात शिशुओं की देखभाल की कोई व्यवस्था नहीं है। इस अस्पताल में ऐनेस्थिसिया विशेषज्ञ भी नहीं है। सबसे नजदीकी कस्बा गोधरा है जो 40 किमी दूर है और जरूरत के वक्त लोगों के पास यही विकल्प बचता है। खास बात यह है कि राज्य अस्पताल में भी स्त्री प्रसूति विशेषज्ञ की व्यवस्था नहीं है। शिक्षा क्षेत्र में भी हालत इतनी ही खराब है।

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गुजरात का स्थान मानवविकास के मामले में भी काफी पीछे है। बिजनेस स्टैंडर्ड के अनुसार असल में गुजरात की गिनती भी महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे विकसित राज्यों के साथ की जाती है जबकि मानव विकास के मामले में यह राज्य इन राज्यों की तुलना में काफी पीछे है। अभी तक आप गुजरात को उच्च विकास दर वाला राज्य मानते होंगे लेकिन शायद आप इन निराशाजनक आंकड़ों से अनजान होंगे। हमने देवगढ़ बारिया की पहाडिय़ों के बीच बसे खूबसूरत गांवों में नाइकों, भीलों और राठवों के बीच काम करने वाले आनंदी नाम के गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) की संस्थापक नीता हार्डीकर से बात की। यकीन मानिए इन जनजातियों के साफ सुथरे घरों और उनकी खूबसूरती को देखकर आप प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाएंगे। लेकिन इस ग्रामीण रमणीय जगह के पीछे भी एक सच्चाई छिपी है। हार्डीकर कहती हैं कि इन गांवों में पिछले दो महीनों के दौरान गर्भावस्था से जुड़ी करीब 10 मौतें हुई हैं। गांव वालों को स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने की कोई सरकारी व्यवस्था नहीं है। वह पूछती हैं, 'ऐसा विकास मॉडल किस काम का जो हमें सुविधाएं दे पाने में नाकाम है।'

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भाजपा के अनुसार गुजरात में खूब तरक्की हुई है ,लेकिन बिजनेस स्टैंडर्ट अखबार के अनुसार इस राज्य में 44.6 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। हालांकि शिशु मृत्यु दर में कमी जरूर आई है लेकिन इस दर में गिरावट राष्ट्रीय औसत की तुलना में काफी कम है।

करीब 65 फीसदी ग्रामीण परिवारों और 40 फीसदी शहरी परिवारों के पास शौचालय की व्यवस्था नहीं है और उन्हें मजबूरी में खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है। राज्य में पुरुष महिला अनुपात कम है यानी 1000 पुरुषों पर 918 स्त्रियों का औसत है। यह भी राष्ट्रीय औसत से कम है।

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मुसलमानों की वास्तन जिंदगी देखें तो भाजपा-मोदी की पोल खुल जाती है।मसलन् गरीबी की बात करें तो शहरी मुसलमान ऊंची जाति के हिंदुओं की तुलना में करीब 8 गुना ज्यादा गरीब हैं। सच कहा जाए तो इस राज्य को भी बिहार और मध्य प्रदेश जैसे अल्प विकसित राज्यों की कतार में शुमार किया जाना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं है।

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अमरीश मिश्रा ने टाइम्स ऑफ इण्डिया ब्लॉग में लिखा है- A lot has been made out about the roads of Gujarat, the 24 hour electricity supply, the availability of water and so on and forth. Now basics of the science of economics will tell you that good roads, power and water are essential to build an infrastructure and provide a minimum living standard to a civil society citizen. However, this is not growth. To ensure productivity, three major sectors of economy-manufacturing, services and agriculture-have to grow. What is the use of electricity if the agricultural sector-which provides employment to 60% of Gujarat's population-stagnates at 2%-lower than Bihar- annually; roads are vital to manufacture-but what good will they do if manufacturing is limited to automobiles, Gujarat's once famed cotton textile industry is dying, and new investments-including a measly $ 7 billion FDI-are concentrated in SEZs with no benefits like job creation for locals? The service sector has traditionally been weak in Gujarat. Its marginal growth helped mainly, people in the urban areas. Modi could not generate a co-operative movement in Gujarat-the land of the white revolution-that might have helped the small farmer of the state. His record in introducing welfare and distributive policies for the poor and the Adivasis remains dismal. He failed in raising the minimum price for the farmer or built new irrigation networks. The channelizing of the Narmada affects only 5-10 % of Gujarat's vast rural population.

रविवार, 9 दिसंबर 2012

सीमोन द बोउवार और फेसबुक

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एक लड़की से माँ की तरह बनने की आशा की जाती है,पिता की तरह नहीं। लड़का जहाँ पिता की श्रेष्ठता को एक चुनौती की तरह लेता है,वहीं लड़की एक लाचरीभरी प्रशंसा पिता के प्रति समर्पित करती है। अपनी वैयक्तिकता को बिलकुल त्यागकर वह समर्पण की वस्तु बन जाती है।

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भारतीय समाज पुरानी रूढ़ियों में इस कदर बंधा है कि स्त्री को जीते जी स्वतंत्रता नहीं देता।यहां तककि मरने के बाद भी औरत को स्वतंत्रता नहीं देता। स्त्री के मरने के बाद भी उसकी मिट्टी,संपत्ति आदि पर पुरूष का कब्जा बना रहता है।

जबकि भारतीय संविधान ऐसा नहीं मानता। त्रासद यह है कि जो मर्द संविधान मानते हैं वे स्त्री,परिवार आदि के संदर्भ में संविधान में बतायी गयी बातों को नहीं मानते। इसके कारण स्त्री विरोधी मनोदशा अभी तक हमारे सोच में बनी हुई है।

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फेसबुकवीरों को अनेक नए विषयों पर जोर आजमाइश करते देखा है। लेकिन परिवार और स्त्री की संविधानविरोधी स्थितियों पर कभी भी बहस करते नहीं देखा।

स्त्रियों के रसीले वाक्य,सुंदर फोटो,लोकलुभावन कथन से भी ज्यादा मूल्यवान है स्त्री के प्रति आधुनिक नजरिया। यह नजरिया भारत के संविधान में प्रदत्त अधिकारों के दायरे में नए सिरे से बहस में लाने की जरूरत है।

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स्त्री का रहस्यमय रूप ही पुरूष को सबसे अधिक मान्य है। जिसका हम वर्णन नहीं कर पाते उसे रहस्यमय बना देते हैं। रहस्यमय बनाने का अर्थ है स्त्री को न समझना। यह काम हमारे फेसबुक मित्र भी खूब करते हैं,इस काम में स्त्रियां भी फेसबुक पर उनकी मदद करती हैं।

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भारतीय स्त्री की मनोदशा यह है कि निज व्यक्तित्व के उद्धार के प्रयत्नशील होने की बजाय चुपचाप गुलामी की स्थिति को स्वीकार कर लेना आसान समझती है। हमारे यहां जीवित से अधिक मृतक के अनुकूल बना लेने में स्वर्गानुभूति मिलती है। यह मनोदशा स्त्री के कष्ट की जड़ है। किसी भी रूप में अतीत की स्थिति को स्वीकार करना न तो वांछित है और न सही है। स्त्री अपने लिए जीना सीखें बंधनों और निषेधों के लिए जीना बंद करे।

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भारत में परिवार नामक संस्था की आड़ में आएदिन परिवार के सदस्यों (व्यक्ति) की स्वायत्तता ,स्वतंत्रता और निजता पर आएदिन हमले होते रहते हैं, प्रतिदिन लाखों युवाओं को अकल्पनीय दुख दिए जाते हैं। इसके बावजूद हम परिवार नामक संस्था की जय-जयकार करते हैं। भारत में परिवार नामक परंपरागत फंडामेंटलिज्म का बड़ा स्रोत है। उसकी खुलकर आलोचना होनी चाहिए। आधुनिक मनुष्य के लिए नए किस्म के परिवार की जरूरत है जो व्यक्ति की निजता और स्वतंत्रता को माने और परिवारीजनों में समानता के आधार पर टिका हो।

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भारत में स्त्री को पुरूष के साथ नत्थी करके देखने का रिवाज है।यह रिवाज बदले। स्त्री को हम व्यक्ति के रूप में देखें। स्त्री को जब एक स्वतंत्र व्यक्ति माना जाता है तो ,उसे उसकी इच्छा के विरूद्ध वश में नहीं किया जा सकता।


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