-1-
एक लड़की से माँ की तरह बनने की आशा की जाती है,पिता की तरह नहीं। लड़का जहाँ पिता की श्रेष्ठता को एक चुनौती की तरह लेता है,वहीं लड़की एक लाचरीभरी प्रशंसा पिता के प्रति समर्पित करती है। अपनी वैयक्तिकता को बिलकुल त्यागकर वह समर्पण की वस्तु बन जाती है।
-2-
भारतीय समाज पुरानी रूढ़ियों में इस कदर बंधा है कि स्त्री को जीते जी स्वतंत्रता नहीं देता।यहां तककि मरने के बाद भी औरत को स्वतंत्रता नहीं देता। स्त्री के मरने के बाद भी उसकी मिट्टी,संपत्ति आदि पर पुरूष का कब्जा बना रहता है।
जबकि भारतीय संविधान ऐसा नहीं मानता। त्रासद यह है कि जो मर्द संविधान मानते हैं वे स्त्री,परिवार आदि के संदर्भ में संविधान में बतायी गयी बातों को नहीं मानते। इसके कारण स्त्री विरोधी मनोदशा अभी तक हमारे सोच में बनी हुई है।
-3-
फेसबुकवीरों को अनेक नए विषयों पर जोर आजमाइश करते देखा है। लेकिन परिवार और स्त्री की संविधानविरोधी स्थितियों पर कभी भी बहस करते नहीं देखा।
स्त्रियों के रसीले वाक्य,सुंदर फोटो,लोकलुभावन कथन से भी ज्यादा मूल्यवान है स्त्री के प्रति आधुनिक नजरिया। यह नजरिया भारत के संविधान में प्रदत्त अधिकारों के दायरे में नए सिरे से बहस में लाने की जरूरत है।
-4-
स्त्री का रहस्यमय रूप ही पुरूष को सबसे अधिक मान्य है। जिसका हम वर्णन नहीं कर पाते उसे रहस्यमय बना देते हैं। रहस्यमय बनाने का अर्थ है स्त्री को न समझना। यह काम हमारे फेसबुक मित्र भी खूब करते हैं,इस काम में स्त्रियां भी फेसबुक पर उनकी मदद करती हैं।
-5-
भारतीय स्त्री की मनोदशा यह है कि निज व्यक्तित्व के उद्धार के प्रयत्नशील होने की बजाय चुपचाप गुलामी की स्थिति को स्वीकार कर लेना आसान समझती है। हमारे यहां जीवित से अधिक मृतक के अनुकूल बना लेने में स्वर्गानुभूति मिलती है। यह मनोदशा स्त्री के कष्ट की जड़ है। किसी भी रूप में अतीत की स्थिति को स्वीकार करना न तो वांछित है और न सही है। स्त्री अपने लिए जीना सीखें बंधनों और निषेधों के लिए जीना बंद करे।
-6-
भारत में परिवार नामक संस्था की आड़ में आएदिन परिवार के सदस्यों (व्यक्ति) की स्वायत्तता ,स्वतंत्रता और निजता पर आएदिन हमले होते रहते हैं, प्रतिदिन लाखों युवाओं को अकल्पनीय दुख दिए जाते हैं। इसके बावजूद हम परिवार नामक संस्था की जय-जयकार करते हैं। भारत में परिवार नामक परंपरागत फंडामेंटलिज्म का बड़ा स्रोत है। उसकी खुलकर आलोचना होनी चाहिए। आधुनिक मनुष्य के लिए नए किस्म के परिवार की जरूरत है जो व्यक्ति की निजता और स्वतंत्रता को माने और परिवारीजनों में समानता के आधार पर टिका हो।
-7-
भारत में स्त्री को पुरूष के साथ नत्थी करके देखने का रिवाज है।यह रिवाज बदले। स्त्री को हम व्यक्ति के रूप में देखें। स्त्री को जब एक स्वतंत्र व्यक्ति माना जाता है तो ,उसे उसकी इच्छा के विरूद्ध वश में नहीं किया जा सकता।
एक लड़की से माँ की तरह बनने की आशा की जाती है,पिता की तरह नहीं। लड़का जहाँ पिता की श्रेष्ठता को एक चुनौती की तरह लेता है,वहीं लड़की एक लाचरीभरी प्रशंसा पिता के प्रति समर्पित करती है। अपनी वैयक्तिकता को बिलकुल त्यागकर वह समर्पण की वस्तु बन जाती है।
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भारतीय समाज पुरानी रूढ़ियों में इस कदर बंधा है कि स्त्री को जीते जी स्वतंत्रता नहीं देता।यहां तककि मरने के बाद भी औरत को स्वतंत्रता नहीं देता। स्त्री के मरने के बाद भी उसकी मिट्टी,संपत्ति आदि पर पुरूष का कब्जा बना रहता है।
जबकि भारतीय संविधान ऐसा नहीं मानता। त्रासद यह है कि जो मर्द संविधान मानते हैं वे स्त्री,परिवार आदि के संदर्भ में संविधान में बतायी गयी बातों को नहीं मानते। इसके कारण स्त्री विरोधी मनोदशा अभी तक हमारे सोच में बनी हुई है।
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फेसबुकवीरों को अनेक नए विषयों पर जोर आजमाइश करते देखा है। लेकिन परिवार और स्त्री की संविधानविरोधी स्थितियों पर कभी भी बहस करते नहीं देखा।
स्त्रियों के रसीले वाक्य,सुंदर फोटो,लोकलुभावन कथन से भी ज्यादा मूल्यवान है स्त्री के प्रति आधुनिक नजरिया। यह नजरिया भारत के संविधान में प्रदत्त अधिकारों के दायरे में नए सिरे से बहस में लाने की जरूरत है।
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स्त्री का रहस्यमय रूप ही पुरूष को सबसे अधिक मान्य है। जिसका हम वर्णन नहीं कर पाते उसे रहस्यमय बना देते हैं। रहस्यमय बनाने का अर्थ है स्त्री को न समझना। यह काम हमारे फेसबुक मित्र भी खूब करते हैं,इस काम में स्त्रियां भी फेसबुक पर उनकी मदद करती हैं।
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भारतीय स्त्री की मनोदशा यह है कि निज व्यक्तित्व के उद्धार के प्रयत्नशील होने की बजाय चुपचाप गुलामी की स्थिति को स्वीकार कर लेना आसान समझती है। हमारे यहां जीवित से अधिक मृतक के अनुकूल बना लेने में स्वर्गानुभूति मिलती है। यह मनोदशा स्त्री के कष्ट की जड़ है। किसी भी रूप में अतीत की स्थिति को स्वीकार करना न तो वांछित है और न सही है। स्त्री अपने लिए जीना सीखें बंधनों और निषेधों के लिए जीना बंद करे।
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भारत में परिवार नामक संस्था की आड़ में आएदिन परिवार के सदस्यों (व्यक्ति) की स्वायत्तता ,स्वतंत्रता और निजता पर आएदिन हमले होते रहते हैं, प्रतिदिन लाखों युवाओं को अकल्पनीय दुख दिए जाते हैं। इसके बावजूद हम परिवार नामक संस्था की जय-जयकार करते हैं। भारत में परिवार नामक परंपरागत फंडामेंटलिज्म का बड़ा स्रोत है। उसकी खुलकर आलोचना होनी चाहिए। आधुनिक मनुष्य के लिए नए किस्म के परिवार की जरूरत है जो व्यक्ति की निजता और स्वतंत्रता को माने और परिवारीजनों में समानता के आधार पर टिका हो।
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भारत में स्त्री को पुरूष के साथ नत्थी करके देखने का रिवाज है।यह रिवाज बदले। स्त्री को हम व्यक्ति के रूप में देखें। स्त्री को जब एक स्वतंत्र व्यक्ति माना जाता है तो ,उसे उसकी इच्छा के विरूद्ध वश में नहीं किया जा सकता।
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