सोमवार, 28 सितंबर 2015

मां के आंसू और निर्दयी नायक!

         मां बचपन में क्या करती थी ? किस तरह कमरतोड़ मेहनत करती थी,घर घर जाकर बर्तन मांजती थी,काम करती थी,ये वाक्य दुख नहीं गर्व पैदा करते हैं,मां की कुर्बानियां इस रुप में याद करने से शक्ति मिलती है,आंसू नहीं निकलते!
नायक,तुमने देखा होगा कि कोई भी सीईओ तुम्हारे आंसू देखकर रोया नहीं! नायक रोते नहीं हैं!
आंसू इसलिए निकले क्योंकि मां को आप अपने साथ नहीं रखते,मां का प्यार नहीं मिल रहा इसलिए मन दुखी हो गया होगा!
सवाल यह है मां से यदि इतना ही प्यार है तो साथ क्यों नहीं रखते ? मां को त्यागकर सरकारी वैभव में खोए क्यों हो ?
हास्यास्पद है बटुक भी पिघल रहे हैं लेकिन नायक से मांग नहीं करते कि मां को साथ रखो,यह कैसा ढोंग है जिसमें मां साथ नहीं रहती ! यह एकदम फिल्मी मेलोड्रामा है बटुक! नायक के आंसू कभी उसे सहृदय नहीं बना सकते! वैसे भी तुमको मां के आंसू की पीड़ा को लेकर कोई ग्यान नहीं ,ग्लानि नहीं,वरना सैंकडों माताओं की गोद सूनी हुई थी २००२ के दंगों में ,किसी मां के आंसू पोंछते तुमको हमने नहीं देखा,रोते भी नहीं देखा! कम से उस समय रो लेते तो भी देश याद रखता कि तुम कितने सहृदय हो,लेकिन तुम्हारे आंसू नहीं निकले,क्यों नहीं निकले आंसू ? क्यों तुमने सैंकडों माताओ की गोद सूनी हो जाने पर भी दुख में पदत्याग नहीं किया ? माताओं के आंसू बड़े हैं या सत्ता ?

शनिवार, 26 सितंबर 2015

बैंकिंग सेवा और भाषा समस्या

भारत में राष्ट्रीयकृत बैंक मूलत मासबैंकिंग का अंग हैं। यहाँ पर जनता के व्यापकतम समूहों की सक्रियता सहज ही देखी जा सकती है। सामान्यतौर पर बैंकिंग में अंग्रेज़ी मूल भाषा है। लेकिन जनता के लिए बंगला,हिन्दी आदि के उपयोग की व्यवस्था है। यह सच है कि हिन्दी और लोकल भाषा का प्रयोग बढ़ा है। लेकिन सच यह है बैंकिंग में लोकल भाषाओं का क्षय हुआ है। हिन्दी का प्रतीकात्मक उपयोग बढ़ा है।
समस्या यह है कि बैंकिंग सिस्टम में लोकल भाषाओं का ह्रास कैसे रोका जाय ? बैंकिंग भाषा समस्या को हमने मानकीकरण के ज़रिए हल करने की कोशिश की है। मानकीकरण से संचार तो होता है लेकिन जातीय और लोकल बोली और भाषा का विकास बाधित होता है। इस तरह मानकीकरण के कारण जो भाषायी अन्तर्विरोध पैदा होता है वह अंतत: मानक भाषा को बढ़त दिलाता है और स्थानीय भाषा और बोलियों को क्षतिग्रस्त करता है।
सिस्टम में मानक भाषा के विकास के साइड इफ़ेक्ट के बारे में हमने कभी खोज ख़बर नहीं ली। बैंकिंग सिस्टम ने कभी भाषायी समृद्धि के विकल्पों की खोज नहीं की। मसलन्, बैंकों ने भाषा और साहित्य के विकास की मूलभूत संरचनाओं के निर्माण की ओर कभी ध्यान नहीं दिया। बैंकों ने सामाजिक विकास की अन्य परियोजनाओं में सक्रिय भूमिका अदा की है, अनेक विश्वविद्यालयों में प्रोफ़ेसर चेयर भी हैं। लेकिन भाषा और बोलियों के विकास और शोध के लिए बैंकों ने कभी कोई फ़ंड आवंटित नहीं किया। क़ायदे से विभिन्न प्रान्तों में बैंकों के ज़रिए भाषा - साहित्य के विभाग स्थापित किए जाएँ और वहाँ से ही इसकी पेशेवर शिक्षा के विकास के बारे में प्रयास किए जाएँ।
बैंकिंग भाषा की अनेक समस्याएँ हैं इनको हम उपहार, प्रमोशन आदि के ज़रिए नज़रअन्दाज़ करते रहे हैं। मसलन्, हमने बैंक की भाषा समस्या को कभी विश्लेषित ही नहीं किया, बैंक की भाषा समस्या हिन्दी अधिकारी की नियुक्ति की समस्या नहीं है। पहली समस्या यह है कि कम्प्यूटरीकरण के कारण उत्पन्न स्तरीकरण से कैसे निबटें। मसलन् , डिजिटलीकरण ने मानवीय सहयोग को पूरी तरह अपदस्थ कर दिया है। अब कम्प्यूटर जो कहता है वह सही है । मसलन् आपके हस्ताक्षर में यदि कोई त्रुटि है तो मशीन तुरंत भुगतान रोक देगी। चैक क्लीयर नहीं होगा। बैंकों के द्वारा संचालित लाइब्रेरी नेटवर्क का होना जरुरी है जिसमें तमाम क़िस्म की ज़रूरत की किताबें सहज रुप में उपलब्ध हों ।
बैंकिंग सिस्टम वस्तुत: गुलाब के फूल की तरह है। जिस तरह गुलाब जहाँ खिलता है वहाँ न तो फूल लगाने वाला नज़र आता है और न बाहर का ही कोई व्यक्ति नज़र आता है। सिर्फ़ बैंक रुपी गुलाब नज़र आता है। बैंक अपनी ख़ुशी का गान स्वयं गाती रहती हैं जैसे गुलाब गाता है। कोई इनके न तो दुख में शामिल होता है और नहीं सुख में शामिल होता है। बैंक हमारे सामाजिक सिस्टम के नियम क़ायदे के दायरे में नहीं आतीं, मसलन् बैंक मैनेजर छुट्टी लेकर सहज ही अवकाश पर नहीं जा सकता। नौकरी के समय और तनाव की जो अवस्था मैनेजर को झेलनी होती है यह चीज वह नौकरी मिलने के पहले नहीं जानता था। तनाव के जितने रुप बैंक मैनेजरों को झेलने पड़ते हैं वह अपने आपमें संकेत है कि बैंक का सामाजिक नियमों और परंपराओं के साथ किस तरह का अंतर्विरोध है। बैंक मैनेजरों के अनुभवों को देखें तो पता चलेगा कि सामाजिक अनुभव, परंपराएँ आदि के साथ बैंकिंग सिस्टम का किस तरह का अंतर्विरोध है।
बैंक कर्मचारी को मैंने कभी हँसते हुए नहीं देखा। ख़ासकर बैंक में काम करते समय अधिकांश बैंक कर्मचारी हँसते नज़र नहीं आते। बैंक कर्मचारी की हँसी कहाँ ग़ायब हो गयी ? क्यों ग़ायब हो गयी ?
बैंक की सबसे बड़ी समाज सेवा यह है कि उसने सामाजिक विकास में बहुत बड़ी भूमिका अदा की और उसकी सबसे खराब कुसेवा है क़र्ज़ में डूबा हुआ धन। इसने बड़े पैमाने पर भ्रष्ट लोगों की मदद की। नॉन प्रिफार्मिंग एसिट के रुप में जो धन डूबा पड़ा है वह बैंकिंग सिस्टम का नकारात्मक तत्व है।
बैंकों में देशज भाषाएँ व्यवहार में तब आएँगी जब बैंकिंग सिस्टम देशज भाषा में संचार पहल करे। मसलन् एसएमएस से लेकर समस्त कम्युनिकेशन देशज भाषा में हो, भाषा के संरक्षण के लिए विभिन्न विश्वविद्यालयों में भाषा विभाग बनाए जाएँ जो बैंकों के लिए कुशल लोग तैयार करें और भाषा की स्थानीय स्तर पर जानकारियाँ एकत्रित करें।

शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

सुब्रह्मण्यम स्वामी के कु-विचार


भाजपा नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी आरएसएस के विचारों की ताजा गंध देते हैं। स्वामी का कहना है " दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) में एक एंटी नारकोटिक्स ब्यूरो और सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ़) का एक कैंप होना चाहिए." इस बात के बहाने स्वामी बताना चाहते हैं कि उनकी मंशाएं साफ हैं वे जेएनयू को "नरक" के रुप में देखते हैं। उनके लेखे वहां छात्र पढ़ने लिखने नहीं जाते ,बल्कि अन्य किस्म के कामों के लिए जाते हैं।
स्वामी ने अपने ट्विटर हैंडल @Swamy39 पर लिखा, "जेएनयू कैंपस में छापा मारकर नक्सलियों, जिहादियों को पकड़ने के लिए बीएसएफ़ कैंप और एंटी नारकोटिक्स ब्यूरो होना चाहिए."
सवाल यह है मोदी पुलिस को एक्शन लेने से किसने रोका है ?पुलिस जेएनयू कैम्पस में जाती क्यों नहीं है ? छापे क्यों नहीं मारते मोदी पुलिस के दस्ते ?किसने रोका है नक्सलियों को पकड़ने से ,डेढ़ साल में एक भी दिन पुलिस भेजने का भी समय नहीं मिला बटुक नायक को!!धिक्कार है 56 इंच के सीने को !
हम जानना चाहते हैं कि स्वामी की सूचनाओं का स्रोत क्या है ? उनको किसने बताया कि जेएनयू में नक्सली,जेहादी और नशेड़ी भरे पड़े हैं ? स्वामी को किसने खबर दी कि जेएनयू में राष्ट्रविरोधी छात्र हैं,यदि ऐसा है तो स्वामी के नायक मोदी क्या कर रहे हैं ? वे अब तक शांत क्यों हैं ? क्या उनका अब तक शांत रहना यह नहीं बताता कि वे निकम्मे हैं और राष्ट्रविरोधी तत्वों के खिलाफ एक्शन लेने में असमर्थ हैं !
हमें यह तो मालूम है देश में भगवा चंडूखाना है जिसमें इस तरह कु-संस्कृत विचार बटुकों के मन में उतारे जाते हैं। हम सबसे पहले स्वामी से कहेंगे कि वो एबीबीपी के छात्रों से कहें कि वे जेएनयू छोड़कर चले जाएं,उनको ऐसे वि वि में नहीं पढ़ना चाहिए जहां नक्सली हों,नशेड़ी हों,जेहादी हों! उनको किसी देशभक्त विवि में चले जाना चाहिए। स्वामी के पास ऐसे छात्रों की जितनी भी सूचनाएं हैं वे जल्द ही प्रधानमंत्री कार्यालय को लिखित में दें जिससे तुरंत कार्रवाई हो सके ।

गुरुवार, 24 सितंबर 2015

बर्बर बंगाल और कलंकित जनतंत्र


      सुनने में अटपटा लगता है लेकिन सच है कि पश्चिम बंगाल निरंतर बर्बरता की ओर कदम बढ़ा रहा है। गांवों से लेकर कस्बों तक प्रेम करने वाले युवाओं पर संगठित हमले हो रहे हैं। इन संगठित हमलों में संस्था के रुप में सालिसी सभाएं अग्रणी भूमिका अदा कर रही हैं। पश्चिमी बंगाल में वाम जमाने में बनायी गयी सालिसी सभाएं इन दिनों बर्बरता के मामले में चरम पर हैं,सालिसी सभाओं के जरिए गांवों में तमाम किस्म के यंत्रणादायी दण्ड नियमित दिए जा रहे हैं,कल एक तरुण की सभा की पब्लिक सुनवाई में सरेआम हत्या कर दी गयी, बांकुड़ा में कल सालिसी सभा में लड़की के पिता ने लड़के की चाकू मारकर हत्या कर दी,बंगाल में अब तक सालिसी सभा ने हजारों प्रेमियों को बर्बर दण्ड दिए हैं,हम मांग करते हैं ये सभाएं तुरंत खत्म की जाएं, अब तक सैंकडों प्रेमियों को ये सभाएं विभिन्न किस्म के बर्बर दण्ड दे चुकी हैं,लेकिन राजनीतिकदलों के मुँह पर ताला लगा है,वे सालिसी सभाओं के फैसलों के खिलाफ कभी नहीं बोलते।
     उल्लेखनीय है वामशासन में बर्बर यंत्रणा के लिए बनायी गयी ये सालिसी सभाएं वाम के कलंकित कर्म का आदर्श प्रमाण हैं,टीएमसी ने शासन में आने के बाद सालिसी सभाओं को भंग नहीं किया। यह उसने गलत किया। अब समय आ गया है कि सालिसी सभाओं को भंग किया जाय,पश्चिम बंगाल के गांवों में यह तालिबानी सिस्टम का एक रुप है।
     सालिसी सभाओं के जरिए आए दिन प्रेम करने वाले युवाओं से लाखों रुपये जुर्माने के तौर पर वसूले गए हैं। गांव निष्कासन के कारण सैंकड़ों युवा शिकार हुए हैं। दर्जनों युवाओं को मौत के घाट उतारा गया है। इसके बावजूद सालिसी सभाओं के खिलाफ राजनीतिक दलों का मिलकर कोई कदम न उठाना चौंकाने वाली चीज है। मुश्किल यह है कि सालिसी सभाओं के जरिए पहले माकपा हमदर्द  दण्ड देते थे इन दिनों टीएमसी के समर्थक यह काम कर रहे हैं। यही वजह है सालिसी सभाओं के खिलाफ राज्य में कोई आंदोलन तक नजर नहीं आता। सालिसी सभा के किसी फैसले की मीडिया में खबर जब भी आती है तो ध्यान जाता है लेकिन आमतौर पर अधिकांश फैसले मीडिया में खबर नहीं बन पाते। लोकतंत्र की मांग है कि सालिसी सभाओं को तुरंत प्रतिबंधित किया जाय।





बुधवार, 23 सितंबर 2015

भ्रष्टाचार और माकपा



माकपा के पश्चिम बंगाल में निरंतर ह्रास के कारणों की पड़ताल की जानी चाहिए। बिना गंभीर पड़ताल के यह पता लगाना मुश्किल है कि माकपा इस दुर्दशापूर्ण अवस्था में कैसे पहुँची।   माकपा के अंदर और माकपा के बाहर बहुस्तरीय भ्रष्टाचार हमने करीब से देखा है। मैं 2005 तक पार्टी में था,बाद में पार्टी छोड़ दी। मसलन्, राज्य के विश्वविद्यालय सिस्टम में पेशागत सीनियरटी का कोई महत्व नहीं है। वाम जमाने में ऐसा सिस्टम बनाया गया कि उसमें पार्टी वफादार ही सीनियर होता था,उसे ही पदों पर बिठाया गया।विश्वविद्यालय के अंदर लोकतांत्रिकीकरण के नाम पर दलीय आदेश पर विभिन्न पदों पर लोग बिठाए गए और उनका मनमाफिक ढ़ंग से इस्तेमाल किया गया। किसी भी किस्म की सीनियरटी और अकादमिक विद्वत्ता को कभी भी माकपा ने कोई जगह नहीं दी। इस तरह के लोगों  को पश्चिम बंगाल में प्रोफेसर बनाया गया जिन्होंने एक निबंध लिखा,किसी विद्यार्थी को पीएचडी तक नहीं करायी,न स्वयं पीएचडी की। इस तरह की पदोन्नति और नियुक्ति पाने वाले लोगों में भाजपा से लेकर माकपा के लोग शामिल हैं,सभी किस्म की पदोन्नतियों और नियुक्तियों में माकपा का होना या माकपा की सिफारिश का होना ही एकमात्र शर्त थी। इस तरह के लोगों को उपकुलपति बनाया गया जिनका औसत अकादमिक रिकॉर्ड था। स्थिति की भयावहता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि यूजीसी के द्वारा प्रस्तावित अनेक नियमों की खुलेआम अवहेलना की गयी। विश्वविद्यालय के स्तर पर बनने वाली तमाम कमेटियों में उन लोगों को संयोजक और सदस्य बनाकर रखा गया जिनको नियमानुसार उसमें नहीं होना चाहिए। मसलन्, 60साल की उम्र पर रिटायर होने के बाद विश्वविद्यालय और विभाग की विभिन्न कमेटियों में वफादारों को बिठाकर रखा गया।यह काम इतने निर्लज्ज ढ़ंग से किया गया कि इसकी मिसाल सारे देश में मिलना संभव नहीं है। मैं यहां सभ्यता के नाते नाम नहीं लिख रहा । मेरे लिए दुखद बात यह भी रही है कि नियम-भंग की घटनाओं को विश्वविद्यालय प्रशासन की जानकारी में लाने के बावजूद कोई सुधार नहीं हुआ,यहां तक कि नियम-भंग में शामिल प्रोफेसरगण भी 60साल के बाद कमेटियों से कहने के बावजूद नहीं हटे। इस तरह माकपा ने लालझंड़े को तो कलंकित किया ही समूची अकादमिक व्यवस्था को भ्रष्ट लोगों से भर दिया।जिसके कारण राज्य में उच्चशिक्षा का समूचा ढ़ांचा बुरी तरह चरमरा गया । 

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...