रामनाथ कोविंद के राष्ट्रपति बनने के साथ ही आरएसएस का देश के सर्वोच्च का शिखर पर पहुँचने का सपना पूरा हो गया।यह संघ का बाल स्वप्न था। इस सपने में अनेक अंतर्विरोधी चीजें शामिल हैं। इनको सिलसिलेबार ढ़ंग से समझें। पहली बात यह कि कोविंद का राष्ट्रपति बनना ,दलित वोटबैंक राजनीति में कोई मदद नहीं करेगा।क्योंकि इस पदपर दलित को बिठाकर कांग्रेस को कोई दलित वोट नहीं मिला।दूसरी बात यह कि कोविंद के राष्ट्रपति बनने के पहले से ही सुरक्षित सीटों पर भाजपा की बेहतर स्थिति रही है।इसलिए आरक्षित सीटों में 19-20 का अंतर ही आएगा।
एक अन्य भय पैदा किया जा रहा है कि भारत का संविधान अब सुरक्षित नहीं है। यह भय निराधार है। भारत में मौजूदा स्थिति में आरएसएस का लक्ष्य संविधान नहीं है बल्कि सत्ता है और सत्ता की विभिन्न संरचनाओं को वे अपने अनुसार चलाने की कोशिश करेंगे। संविधान परिवर्तन करना इनके बूते के बाहर है और यह फिलहाल लक्ष्य नहीं है।
आरएसएस की मौजूदा मुहिम को दक्षिणपंथी क्रांति कहना समीचीन होगा।यह ऐसी क्रांति है जिसके बनियान और अंडरबियर आरएसएस के हैं और ऊपरी सभी कपड़े कांग्रेसी हैं। मोदी सरकार पूरी निष्ठा के साथ नव्य आर्थिक नीतियों को लागू कर रही है।इससे यह भ्रम नहीं रखना चाहिए कि संघ के लोग देशी नीति को लागू करने में विश्वास करते हैं।आरएसएस ने अपने स्वदेशी जागरण मंच के जरिए जितनी भी घोषणाएं की थीं उन सबको मोदी सरकार के जरिए कब्रिस्तान पहुँचा दिया है।
कोविंद के सत्तारूढ़ होने से आरएसएस की धर्मनिरपेक्षताविरोधी इमेज को कुछ हद तक साफ करने में मदद जरूर मिलेगी। आरएसएस के लोग केन्द्र की सत्ता में लंबी पारी खेलने के मूड में हैं। लेकिन मोदीजी के निजी रूख और नजरिए ने आरएसएस की लंबी पारी खेलने की आशाओं पर वैसे ही पानी फेर दिया है जैसे मनमोहन सिंह ने गांधी परिवार के सत्तारूढ़ होने के सपनों पर पानी फेरा था।
कोविंद-नायडू-सुमित्रा महाजन ये तीनों उस इलाके से आते हैं जहां आरएसएस कमजोर है।मोदीजी ने चालाकी के साथ मजबूत इलाकों के नेताओं को संवैधानिक पदों पर नहीं आने दिया है।इससे आरएसएस की लंबी पारी खेलने की संभावनाएं धूमिल हो गयी हैं।
दूसरी एक बात और वह यह कि समाज और मीडिया में हिंदू राष्ट्रवाद के प्रधान एजेंडा बन जाने के बाद विकास का एजेंडा गायब हो गया है।जबकि 2014 का चुनाव विकास के मुद्दे पर लड़ा गया था,लेकिन 2019 में विकास नहीं हिंदू राष्ट्रवाद प्रधान मसला होगा और वैसी स्थिति में 2019 में मोदीजी की वापसी संभव नहीं है। मोदी के बाद सिर्फ दो विकल्प होंगे ,पहला देश फिर से उदारतावाद की ओर लौटे या मोदी से ज्यादा कट्टरपंथी को शासनारूढ़ करे।
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एक अन्य भय पैदा किया जा रहा है कि भारत का संविधान अब सुरक्षित नहीं है। यह भय निराधार है। भारत में मौजूदा स्थिति में आरएसएस का लक्ष्य संविधान नहीं है बल्कि सत्ता है और सत्ता की विभिन्न संरचनाओं को वे अपने अनुसार चलाने की कोशिश करेंगे। संविधान परिवर्तन करना इनके बूते के बाहर है और यह फिलहाल लक्ष्य नहीं है।
आरएसएस की मौजूदा मुहिम को दक्षिणपंथी क्रांति कहना समीचीन होगा।यह ऐसी क्रांति है जिसके बनियान और अंडरबियर आरएसएस के हैं और ऊपरी सभी कपड़े कांग्रेसी हैं। मोदी सरकार पूरी निष्ठा के साथ नव्य आर्थिक नीतियों को लागू कर रही है।इससे यह भ्रम नहीं रखना चाहिए कि संघ के लोग देशी नीति को लागू करने में विश्वास करते हैं।आरएसएस ने अपने स्वदेशी जागरण मंच के जरिए जितनी भी घोषणाएं की थीं उन सबको मोदी सरकार के जरिए कब्रिस्तान पहुँचा दिया है।
कोविंद के सत्तारूढ़ होने से आरएसएस की धर्मनिरपेक्षताविरोधी इमेज को कुछ हद तक साफ करने में मदद जरूर मिलेगी। आरएसएस के लोग केन्द्र की सत्ता में लंबी पारी खेलने के मूड में हैं। लेकिन मोदीजी के निजी रूख और नजरिए ने आरएसएस की लंबी पारी खेलने की आशाओं पर वैसे ही पानी फेर दिया है जैसे मनमोहन सिंह ने गांधी परिवार के सत्तारूढ़ होने के सपनों पर पानी फेरा था।
कोविंद-नायडू-सुमित्रा महाजन ये तीनों उस इलाके से आते हैं जहां आरएसएस कमजोर है।मोदीजी ने चालाकी के साथ मजबूत इलाकों के नेताओं को संवैधानिक पदों पर नहीं आने दिया है।इससे आरएसएस की लंबी पारी खेलने की संभावनाएं धूमिल हो गयी हैं।
दूसरी एक बात और वह यह कि समाज और मीडिया में हिंदू राष्ट्रवाद के प्रधान एजेंडा बन जाने के बाद विकास का एजेंडा गायब हो गया है।जबकि 2014 का चुनाव विकास के मुद्दे पर लड़ा गया था,लेकिन 2019 में विकास नहीं हिंदू राष्ट्रवाद प्रधान मसला होगा और वैसी स्थिति में 2019 में मोदीजी की वापसी संभव नहीं है। मोदी के बाद सिर्फ दो विकल्प होंगे ,पहला देश फिर से उदारतावाद की ओर लौटे या मोदी से ज्यादा कट्टरपंथी को शासनारूढ़ करे।
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