शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

राष्ट्रवादी नंगई के प्रतिवाद में

        कल से मोदी के अंधभक्तों ने फेसबुक से लेकर टीवी चैनलों तक जो राष्ट्रवादी नंगई दिखाई है वह शर्मनाक है।ये सारी चीजें हम सबके लिए बार-बार आगाह कर रही हैं कि देश को हमारी जनता ने कितने खतरनाक लोगों के हाथों में सौंप दिया है.इससे एक निष्कर्ष यह भी निकलता है कि टीवी न्यूज चैनल समाचार देने के लक्ष्य से काफी दूर जा चुके हैं।जो लोग मोदी के हाथों में देश को सुरक्षित देख रहे थे ,वे भी चिन्तित हैं कि किस कम-अक्ल नेता के पल्ले पड़े हैं !

सवाल किए जा रहे है आप सर्जीकल स्ट्राइक के पक्ष में हैं ॽआप इसका स्वागत करते हैं ॽमेरा मानना है ये दोनों ही सवाल बेतुके और गलत मंशा से प्रेरित हैं। लेखकों-बुद्धिजीवियों और अमनपसंद जनता कभी भी इस तरह के सवालों को पसंद नहीं करती।लेखक के नाते हम सब समय जनता के साथ हैं और शांति के पक्ष में हैं।हमारे लिए राष्ट्र,राष्ट्रवाद,सेना आदि से शांति का दर्जा बहुत ऊपर हैं।जेनुइन लेखक कभी भी सेना ,सरकार और युद्ध के साथ नहीं रहे।जेनुइन लेखकों ने हर अवस्था में आतंकियों और साम्प्रदायिक ताकतों का जमकर विरोध किया।सिर्फ भाड़े के कलमघिस्सु ही युद्ध और उन्माद के पक्ष में हैं ।

जेनुइन लेखक की चिन्ताएं सत्य और शांति के साथ जुड़ी हैं,इस सत्य को फेसबुक और मीडिया में सक्रिय मतांधों की भीड़ नहीं समझ सकती। दिलचस्प पहलू यह है टीवी मीडिया इन मतांधों को व्यापक और अहर्निश कवरेज दे रहा है इसने देश में शांति के वातावरण को गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त किया है। टीवी न्यूज चैनल और मोदी के अंधभक्त,जिनमें पेड नेटदल भी शामिल है,उनकी विगत तीन साल से यह कोशिश है कि हर हालत में अशान्ति बनाए रखी जाय,दुखद बात यह है केन्द्र सरकार भी इन मतांधों के इशारों पर हरकतें कर रही है। केन्द्र सरकार के मंत्री भी मतांधों की तरह बोल रहे हैं।

भारत-पाक के बीच के तनाव में हम सब यही चाहते हैं कि शान्ति हर हाल में बहाल हो।लेकिन संघ परिवार यह चाहता है कि अशान्ति बनाए रखी जाय।इसके लिए पाक विरोधी घृणा पैदा करने के लिए संघ के प्रचारतंत्र के जरिए रोज नए मुद्दे छोड़े जा रहे हैं ,इन मुद्दों को नियोजित ढ़ंग से टीवी न्यूज चैनलों से प्राइम टाइम में प्रक्षेपित किया जा रहा है,अधिकांश टीवी चैनलों के टॉक टाइम की ठेके पर खरीददारी हो चुकी है,हर चैनल संघी झूठ का बेहतरीन प्रस्तोता बनने की होड़ में लगा है।संघी प्रचारतंत्र का इस तरह इलैक्ट्रोनिकतंत्र खड़ा कर दिया गया है ।हम सबके लिए यह गंभीर चुनौती है।हमने कभी सोचा ही नहीं था कि टीवी न्यूज चैनल इस तरह संघी प्रचारतंत्र का अंग बनकर अहर्निश आम जनता के ऊपर हमले करेंगे,शांति के पक्षधरो पर हमले करेंगे.जनता के ऊपर ये हमले सभी किस्म के संचार के नियमों और संहिताओं को तोड़कर किए जा रहे हैं।कायदे से टीवी न्यूज चैनलों के इस तरह के रवैय्ये के खिलाफ संयुक्त भाव से लेखकों-बुद्धिजीवियों और मीडियाकर्मियों को एकजुट होकर प्रतिवाद करना चाहिए।आम जनता में रोज इन चैनलों को बेनकाब करना चाहिए।राज्यों से लेकर जिलों तक न्यूज चैनलों के खिलाफ कन्वेंशन और सभाएं आयोजित की जानी चाहिए।आम जमता को इन न्यूज चैनलों की हरकतों के खिलाफ सचेत करने और गोलबंद करने की सख्त जरूरत है।आज माध्यम साक्षरता को प्रधान एजेण्डा बनाने की जरूरत है।

भारत-पाक में सामान्य संबंध कैसे बहाल हों इस पर सरकार सोचे,लेकिन दिलचस्प बात यह है कि दोनों ही देशों में सरकारें उन्मादियों,आतंकियों और साम्प्रदायिक ताकतों के हाथों में हैं।ये लोग अमेरिका के पिछलग्गू हैं।अमेरिका चाहता है भारत और उसके आसपास के मुल्कों में मित्रतापूर्ण वातावरण खत्म हो जाय।संयोग से दोनों सरकारें सचेत रूप से भारतीय उपमहाद्वीप का माहौल बिगाडने में लगी हैं।



लेखकों की यह जिम्मेदारी नहीं है कि वे मोदी सरकार और सेना के साथ खड़े हों।लेखकों की जिम्मेदारी है वे आम जनता के साथ खड़े हों।भारतीय उपमहाद्वीप की जनता के साथ खड़े हों।उन तमाम प्रयासों का समर्थन करें जिनसे इस उपमहाद्वीप में शांति बहाल करने में मदद मिले।सेना आतंकियों को मारे,देश की सीमाओं की रक्षा करे,यह उसका नियमित काम है।इसके लिए सेना की जय हो जय हो करने की जरूरत नहीं है।मसलन्,मैं एक शिक्षक हूँ,नियमित कक्षा में जाकर पढाना मेरी नौकरी का हिस्सा है,मैं यह काम करके कोई महान् कार्य नहीं करता,इसके लिए मेरी प्रशंसा नहीं होनी चाहिए।इसी तरह सेना का काम है सीमाओं की चौकसी करना,शांति बहाल रखना,आतंकियों के हमलों को विफल करना,सेना यह काम करती रही है।सेना ने पहले भी अनेक बार सर्जीकल स्ट्राइक की हैं।यह विशिष्ट किस्म की हमलावर कार्रवाई है,लेकिन इसके लिए युद्धोन्माद की कोई जरूरत नहीं है।भारत की शांतिपसंद जनता,धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों,जेएनयू,जादवपुर,हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्रों पर वैचारिक हमले करने की कोई जरूरत नहीं है।कल मैं जब टाइम्स नाउ देख रहा था तो अर्णव गोस्वामी को मैंने देश के शांतिपसंद लोगों पर हमले करते पाया,जेएनयू आदि पर हमले करते हुए पाया,इस तरह के हमले बताते हैं कि आरएसएस के लोग अंदर तक कितने बर्बर हो चुके हैं और दिमागी तौर पर दिवालिया हो चुके हैं,अर्णव गोस्वमी जब मतांधों की तरह बोलता है तो वह वस्तुतःवही कह रहा होता है जो आरएसएस के लोग उसे बोलने के लिए कहते हैं,वह तो बेचारा संघ का भोंपू है,उसके जरिए आप संघ की प्रचार प्रणाली,राष्ट्रविरोधी प्रचार सामग्री को सहज ही देख सकते हैं।हो सकता है इतने दिनों तक संघ के इशारों पर नाचते-नाचते वह स्वाभाविक तौर पर मतांध हो गया हो !

गुरुवार, 29 सितंबर 2016

वे 27साल और कलकत्ते का हिन्दी छंद


आज से 27 साल पहले कलकत्ते में मेरी शिक्षक के रूप में पहली और आखिरी पक्की नौकरी लगी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में 22अप्रैल 1989 को प्रवक्ता के रूप में मैंने नौकरी आरंभ की।बाद में सन् 1993 में रीडर और 2001 में प्रोफेसर बना। जिस समय नौकरी आरंभ की थी तो मेरे पास 2शोध डिग्रियां थीं,उनके शोध –प्रबंध थे,वे अप्रकाशित थे।जेएनयू में पढ़ने और छात्र राजनीति में सक्रिय रहने के कारण सारे देश में कमोबेश प्रगतिशील खेमे से जुड़े लोग मुझे जानते थे।मैं शुरू से ही रिजर्व प्रकृति का रहा हूँ।कोई बोलता है तो बोलता हूं,हलो करता है तो हलो करता हूँ,अधिकतम समय घर पर रहना और पढ़ना-लिखना,यही मेरी दिनचर्या रही।इस चक्कर में कलकत्ते में 27साल तक रहने के बाद भी मैं न तो बहुत सारे लोगों को नहीं जानता और न मेरी मित्रता है।

मैं जब दिल्ली में जेएनयू में पढ़ता था तो 1979 से 1987 के बीच में मेरा अधिकतर समय जेएनयू कैम्पस में ही गुजरा,दिल्ली के लेखकों में बहुत कम आना जाना होता था,जब कभी जनवादी लेखक संघ के ऑफिस जाता तो वहां लेखकों से मुलाकात हो जाती थी,बातें हो जाती थीं।उससे ज्यादा लेखकों से मिलने का मौका मुझे नहीं मिला।कलकत्ता आया तो मेरे मन में दो लोगों से मिलने की इच्छा थी वे हैं सत्यजित राय और उत्पल दत्त।इन दोनों से मैं इनके घर जाकर मिला और बातें कीं।इनमें उत्पल दत्त से दो बार मिला।बाकी बंगला बुद्धिजीवियों से गणतांत्रिक लेखक-शिल्पी संघ के दो-तीन कार्यक्रमों में सामान्य शिष्टाचार के नाते मुलाकात जरूर हुई। चूंकि मैं माकपा का सक्रिय सदस्य था,इस नाते लोकसभा-विधानसभा चुनावों के समय 1989 से 2005 तक मैंने वाममोर्चे और माकपा की चुनावी सभाओं में जमकर हिस्सा लिया और उसी के बहाने पश्चिम बंगाल को करीब से गैर-कम्युनिस्ट की नजर से देखा।माकपा की चुनाव सभाओं में अधिकतर दलितों-मुसलमानों और हिन्दीभाषी बस्तियों में सभाएं करने जाता था।इसके कारण इन समुदायों के जीवन को बहुत करीब से देखने का मौका मिला। इसके अलावा जनवादी लेखक संघ और पश्चिम बंग हिन्दी अकादमी की गतिविधियों में भी हिस्सा लेता रहा,क्योंकि इन दोनो में एक दौर में जिम्मेदार पदों पर काम कर रहा था। यही ले-देकर अपना 27 साल का राजनीतिक-सामाजिक लेखा-जोखा है।मेरी इस दौरान किसी भी नेता ,मंत्री आदि से कोई मित्रता नहीं हो पायी।जबकि मैं बहुत सारे मंत्रियों-नेताओं आदि को जानता था।

कलकत्ता विश्वविद्यालय में मैंने जब पढ़ाना आरंभ किया तो उस समय मेरे दो लक्ष्य थे,पहला था मीडिया को एकदम नए नजरिए से देखा और लिखा जाए जिससे हिन्दी में मासमीडिया के पठन-पाठन को बदला जाए,उस समय यह लग रहा था कि यह बड़ा क्षेत्र है जो आने वाले दौर में अकादमिक और सामाजिक तौर पर बहुत गर्म रहेगा।इसी चीज को मद्देनजर रखते हुए मीडिया पर नियोजित ढ़ंग से काम आरंभ किया।खासकर मीडिया के राजनीतिक अर्थशास्त्र,संरचना और विचारधारा के सवालों को 1960 के बाद सारी दुनिया में पैदा हुए वामपंथी विचारकों के विचारों की रोशनी में विश्लेषित करने की कोशिश की,संभवतः पहलीबार हिन्दी को मीडिया में वाम विचारकों का परिचय मेरी किताबों के माध्यम से हुआ।किताबें कब और कैसे लिखी गयीं इन पर बाद में कभी विस्तार से लिखूँगा।

यह एक विलक्षण संयोग है कि मैंने मीडिया पर जितना भी लिखा निरूद्देश्य लिखा,किसी पाठ्यक्रम के लिए नहीं लिखा,मैंने जिन विषयों पर लिखा वे विषय पाठ्यक्रम में कहीं पर भी पढ़ाए नहीं जाते थे, लेकिन बाद में किताब बाजार में आने के बाद अनेक विश्वविद्यालयों के मीडिया पाठ्यक्रम बदले गए और आज स्थिति तुलनात्मक तौर पर बहुत बेहतर है।संतोष की बात है मेरी सभी किताबें बिना किसी प्रचार के बिकी हैं,एक किताब को छोड़कर कोई किताब सरकारी खरीद में नहीं ली गयी,सारी किताबें छात्रों-शिक्षकों और पाठकों ने खरीदीं और मुझे संतोष दिया।

मैंने रॉयल्टी के लिए लेखन आरंभ नहीं किया।बल्कि यह कहना सही होगा कि किताब लिखने में मेरे पैसे ज्यादा खर्च हुए,संतोष यह था कोई किताब मैंने अपने पैसे नहीं छपवाई,प्रकाशक को जैसे उचित लगा उसने किताबें बेचीं,मैंने कभी हिसाब नहीं मांगा,उसने मन मर्जी से जो दे दिया वह मैंने ले लिया।क्योंकि मुझे बाजार की हकीकत का अंदाजा है। बाजार का सत्य यह है कि किताब की रायल्टी से मेरा एक महिने का खर्चा नहीं उठ सकता।मैंने फिर भी किताबें लिखीं ,क्योंकि यह मेरी सामाजिक जिम्मेदारी का अंग है।लेखन को मैं लाइफ लाइन मानता हूँ। जो लिखता नहीं है वह मर जाता है।सन् 1989 में कोई किताब नहीं थी,आज तकरीबन 50 किताबें हैं।यही ले-देकर मेरा सबसे बड़ा सुख है।यही मेरा संतति-सुख भी है।यह पिछले 27साल की सामान्य गतिविधि का लेखा-जोखा है।

मेरा दूसरा लक्ष्य था विभाग के सहकर्मियों के साथ न्यूनतम मतभेद रखकर काम किया जाय।मैं जब कोलकाता आया था तो मेरा बाहरी व्यक्ति के रूप में,पार्टी कैडर के रूप में जमकर प्रचार किया गया, बहुत ही विपरीत माहौल था।आज भी है। संभवतःबंगाल में हिन्दी में मैं पहला पार्टी मेम्बर था जिसकी नियुक्ति हुई थी।उस समय माकपा के सारे देश के विश्वविद्यालयों में चंद शिक्षक थे जो पार्टी मेम्बर थे।मेरे नौकरी जॉयन के करने के साथ ही स्थानीय अखबारों में खूब उलटा-पुलटा छपवाया गया,इसकी कहानियां बाद में फिर कभी लिखूँगा।लेकिन यह सच है कि मैंने 27 साल एकदम विपरीत माहौल में काम किया ।मैंने कभी सहकर्मियों के साथ संवाद बंद नहीं किया । साथ में काम करना है तो इतना स्पेस छोड़ना होगा कि सहकर्मी अपने मन की कर सकें।कुल मिलाकर विभाग में दो बार विभाग की अध्यक्षता पूरे समय रही ,इसके अलावा कार्यवाहक अध्यक्ष का काम मुझे लेक्चरर के रूप में ही मिल गया जो कि वि.वि. में थोड़ा विरल है।मैं अपने 27 साल के कार्यकाल में कभी किसी भी काम से वीसी से नहीं मिला।मेरी प्रकृति है मैं अधिकारियों से दूर रहता हूँ। मुझे अपना काम पसंद है अधिकारियों से मिलना-जुलना,उनकी गुडबुक में रहना,चमचागिरी करना यह मेरी प्रकृति में नहीं है। मैंने इसकी कीमत भी दी,लेकिन कीमत बहुत कम है।मेरा मानना है एक शिक्षक को अपना स्वाभिमान और निजता की हर हाल में रक्षा करनी चाहिए।

मैंने अपनी 27 साल की नौकरी में एक नियमित शिक्षक के रूप में काम किया,इसका मुझे फल मिला,छात्रों और शिक्षकों का भरपूर सहयोग मिला।मैंने जब नौकरी आरंभ की उस समय विष्णुकांत शास्त्री,पीएन सिंह,शंभुनाथ पढा रहे थे,चन्द्रा पाडेय ने मेरे साथ ही नौकरी आरंभ की इस विभाग में।बाद में अमरनाथजी आए, उसके बाद सोमा बंध्योपाध्याय,राजश्री शुक्ला,राम आह्लाद चौधरी ने विभाग में सहकर्मी के रूप में काम करना शुरू किया।इस समय अमरनाथ ,सोमा बंध्योपाध्याय,राजश्री शुक्ला,राम आह्लाद चौधरी साथ काम कर रहे हैं।इन सभी को बहुत शुक्रिया।यही 27 साल की कहानी है।





रविवार, 25 सितंबर 2016

दिल्ली की बर्बरता का रहस्य

         दिल्ली ने बर्बरता के नए मानक बनाए हैं।दिल्ली में केन्द्र सरकार है,संसद है,सुप्रीम कोर्ट है, पुलिस है,सेना है,सबसे ज्यादा लेखक-बुद्धिजीवी है,राजनीतिक नेताओं का जमघट है।आईआईटी,एम्स,जामिया,डीयू जैसे संस्थान हैं। लेकिन दिल्ली में बर्बर समाज है।ऐसा बर्बर समाज जिसकी रोज दिल दहलाने वाली कहानियां मीडिया में आ रही हैं,आखिर दिल्ली इतनी बर्बर कैसे हो गयी,एक सभ्य शहर असभ्य और बर्बर शहर कैसे हो गया,इसके लक्षणों पर हम बहस क्यों नहीं करते,दिल्ली में बर्बरता के खिलाफ आम लोगों का गुस्सा कहां मर गया,वे कौन सी चीजें हैं जिनसे दिल्ली में बर्बर समाज बना है,वे कौन लोग हैं जो बर्बरता के संरक्षक हैं,क्या हो गया दिल्ली में सक्रिय राजनीतिकदलों और स्वयंसेवी संगठनों को.वे चुप क्यों हैं ?

दिल्ली के बर्बर समाज का प्रधान कारण है दिल्ली के लोगों और संगठनों का दिल्ली के अंदर न झांकना,दिल्ली से अलगाव,स्वयं से अलगाव, वे हमेशा दिल्ली के बाहर झांकते हैं,बाहर जो हो रहा है,उस पर प्रतिक्रिया देते हैं,वे मानकर चल रहे हैं कि दिल्ली में तो सब ठीक है,गड़बड़ी तो यूपी-बिहार-हरियाणा-पंजाब आदि में है,वे मानकर चल रहे हैं,दिल्ली के समाज के अंदर नहीं देश के अंदर झांकने की जरूरत है।

यह बाहर झांकने के बहाने दिल्ली के यथार्थ से आंखें चुराने की जो आदत है वही पहली बड़ी समस्या है।

दिल्ली के बाशिंदों खासकर बुद्धिजीवियों-लेखकों-राजनेताओं में राजधानी में रहने का थोथा अहंकार है,श्रेष्ठताबोध है,दूसरे से ऊँचा दिखने की उनमें थोथी होड़ है,इसने दिल्ली के यथार्थ से उनको पूरी तरह काट दिया है।

मसलन्,दिल्ली में पढ़ाने वाला हर हिन्दी का प्रोफेसर अपने को सरस्वती का पुत्र समझता है जबकि सच यह है कि वह एसएमएस खोलना तक ठीक से नहीं जानता।जहां बुद्धि का इस तरह का अहंकार हो,वहां यदि शिक्षितों का यथार्थ से अलगाव हो जाए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

दिल्ली के लोगों की खुशहाली,उनकी गाड़ी,शानो-शौकत,उनकी अदाएं सतह पर देखने में अच्छी लगती हैं लेकिन ये चीजें पूरे दिल्ली समाज को चिढ़ाती भी हैं।यह जिंदगी के नकलीपन का एक रूप है।

दिल्ली की जिन्दगी में नकलीपन की परतों को कायदे से खोला जाना चाहिए।नकलीपन की सबसे बड़ी परत है ग्राम्य बर्बरता का बचे रहना।यह गांवों को समाहित करके बसाया गया महानगर है।इस शहर में बाहर से लाखों लोग गांवों से आकर बस गए हैं।वे भी अपने साथ ग्राम्य बर्बरता के रूपों को लेकर आए हैं।हमने ग्राम्य बर्बरता को संस्कृति के लिए खतरे के रूप में देखा ही नहीं कभी उसके खिलाफ जंग नहीं लड़ी।बल्कि यों कहें दिल्ली ने ग्राम्य बर्बरता के साथ घोषित तौर पर सांस्कृतिक समझौता कर लिया। ग्राम्य बर्बरता असल में समूचे देश की समस्या है,लेकिन हमने कभी इसके खिलाफ कोई कार्ययोजना न तो संस्कृति में बनायी और न राजनीति में बनायी,उलटे गांवों के महिमामंडन का आड़ में ग्राम्य बर्बरता का महिमामंडन किया है। लोकसंस्कृति,लोकगीत,लोक संगीत की आड़ में उसे छिपाया है,उसके सवालों से आँखें चुरायी हैं।सवाल यह है ग्राम्य बर्बरता से क्या आज भी लड़ना चाहते हैं ?

दिल्ली के बर्बर समाज की धुरी है लंपटवर्ग।यह वह वर्ग है जिसने अपराध, असामाजिकता,ग्राम्य बर्बरता और आधुनिकता के मिश्रण से एक विलक्षण सामाजिक रसायन तैयार किया है,इस सामाजिक रसायन की निर्माण प्रक्रिया या उसके कारकों की विस्तार के साथ खुलकर चर्चा होनी चाहिए।

लंपटवर्ग की संस्कृति का समाज के विभिन्न सामाजिक समूहों पर प्रत्यक्ष प्रभाव देखा जा सकता है।यह नया उदीयमान वर्ग है इसका आपातकाल के बाद सारे देश में तेजी से विकास हुआ है।लंपटवर्ग में गांव से लेकर शहर तक के लोग शामिल हैं,इनकी संख्या लगातार बढ़ रही है।दंगों से लेकर दैनंदिन बर्बर हिंसाचार तक इस वर्ग की इमेजों को हम आए दिन मीडिया में देखते रहे हैं।लंपटवर्ग की ताकत बहुत बड़ी है।इसने धीरे धीरे नियोजित संगठित छोटे-छोटे गिरोहों की शक्ल में अपना विकास किया है।इस गिरोह का नैटवर्क केबल नैटवर्क वसूली से लेकर जाति पंचायतों तक फैला हुआ है।

सामान्य तौर पर हम लोग लंपटवर्ग की सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक शक्ति के सवालों पर बात करने से भागते रहे हैं।लेकिन सच्चाई यह है कि लंपटवर्ग आज सबसे शक्तिशाली है,भले ही वह सतह पर एकाकी नजर आता हो।लेकिन वह अकेला नहीं है,उसका अपना समाज है,उसके पास सामाजिक समर्थन है। इस लंपटवर्ग को वैचारिक खाद्य मासमीडिया और मासकल्चर के विभिन्न रूपों से मिलती रही है।

दिल्ली की महागनरीय संस्कृति के विकास के साथ लंपटवर्ग का समानान्तर विकास हुआ है । दिल्ली में लंपटवर्ग का पहला बर्बर हमला 1984 में सिख जनसंहार के समय देखने को मिला।यही वह लंपटवर्ग है जिसको हाल ही में हरियाणा के जाट आरक्षण आंदोलन में समूचे हरियाणा में लूटपाट करते देखा गया,हरियाणा,यूपी,आदि की विभिन्न जाति पंचायतों की हजारों की भीड़ में देखा गया। यही वह वर्ग है जो हठात् साम्प्रदायिक दंगे के समय हजारों की भीड़ में विभिन्न शहरों में हिंसा,आगजनी,लूटपाट करते देखा गया है।सवाल यह है लंपटवर्ग ,लंपट संस्कृति और लंपट समाज के आर्थिक स्रोत कौन से हैं और किस तरह की संस्कृति से वह संजीवनी प्राप्त करता है।



भारत में लोगों की आदत है हर चीज में जाति खोजने की।लेकिन लंपट समूह जातिरहित समूह है।लंपटों की कोई जाति नहीं होती।वे तो सिर्फ लंपट होते हैं।लंपट समूह ने एक नए किस्म की अ-लिखित आचार संहिता को जन्म दिया है।



दिल्ली की बर्बरता पर बातें करेंगे तो नेतागण तुरंत उसे गांव बनाम शहर,झोंपड पट्टी बनाम कालोनी,गरीब बनाम अमीर,निम्न जाति बनाम उच्चजाति आदि में बांट देंगे।लंपट समाज को इस तरह के वर्गीकरण में बांटकर नहीं देखा जाना चाहिए।लंपट समाज की पहली बड़ी विशेषता है संस्कृतिहीनता, प्रचलित सभी किस्म के सांस्कृतिक मूल्यों का अस्वीकार।

युद्ध का मतलब है राजनीतिक पराभव !

      कल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब कोझीकोड में बोल रहे थे तो उनके चेहरे पर चिन्ताएं साफ नजर आ रही थीं,उनकी स्वाभाविक मुस्कान गायब थी,उनके ऊपर मीडिया का उन्मादी दवाब है।यह उन्मादी दवाब और किसी ने नहीं उनकी ढोल पार्टी ने ही पैदा किया है।इसे स्वनिर्मित मीडिया कैद भी कह सकते हैं। यह सच है कि भारत ने आतंकियों के उडी में हुए हमले में अपने 18बेहतरीन सैनिकों को खोया है।ये सैनिक न मारे जाते तब भी मीडिया उन्माद रहता।क्योंकि मोदी सरकार के पास विकास की कोई योजना नहीं है,उनकी सरकार को ढाई साल होने को आए वे अभी तक आम जनता को यह विश्वास नहीं दिला पाए हैं कि वे अच्छे प्रशासक हैं।अच्छे प्रशासक का मतलब अपने मंत्रियों में आतंक पैदा करना नहीं है,उनके अधिकार छीनकर पंगु बनाना नहीं है।मोदी ने सत्ता संभालते ही सभी मंत्रियों को अधिकारहीन बनाकर सबसे घटिया प्रशासक का परिचय दिया और आरंभ में ही साफ कर दिया कि वे एक बदनाम प्रधानमंत्री के रूप में ही सत्ता के गलियारों में जाने जाएंगे।

मैंने आज तक एक भी ऐसा अफसर नहीं देखा जो उनकी कार्यशैली की प्रशंसा करता हो।उनकी कार्यशैली ने चमचाशाही पैदा की है।नौकरशाहों में वफादारों की भीड़ पैदा की है लेकिन ईमानदार नौकरशाह मोदीजी से दूर रहना ही पसंद करते हैं। बाबा नागार्जुन के शब्दों को उधार लेकर कहूँ तो मोदी जी की विशेषता है ´तानाशाही तामझाम है लोकतंत्र का नारा।´यही वह परिप्रेक्ष्य है जिसमें हमें कश्मीर समस्या और पाक तनाव को देखने की जरूरत है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जानते हैं कि युद्ध के बाद कोई प्रधानमंत्री भारतीय राजनीति में साबुत नहीं बचा है।सन् 1962 के बाद नेहरू की वह इमेज नहीं रही जो पहले थी,सन्1965 के युद्ध के बाद लाल बहादुर शास्त्रीजी टूट गए,कांग्रेस पूरी तरह कमजोर हो गयी,सन् 1971 में पाक को पराजित करके बंगलादेश बनाकर श्रीमती इंदिरा गांधी की आम जनता में सारी इमेज चंद सालों में ही भ्रष्टनेता की होकर रह गयी और बाबू जयप्रकाशनारायण,मोरारजी देसाई के हाथों उनको बिहार और गुजरात के साथ देश में मुँह की खानी पड़ी,स्थिति यहां तक बदतर हो गयी कि उनको अपनी रक्षा के लिए आपातकाल लगाना पड़ा।सन् 1971 की विजय के बाद इंदिरा गांधी और कांग्रेस वही नहीं रहे जो 1971 के पहले थे।कांग्रेस बुरी तरह टूटी ,देशभर में हारी।यही हाल कारगिल युद्ध में जीत के बाद भाजपा का हुआ,अटलजी को इस विजय के बाद हम देख नहीं पाए हैं।भाजपा के सारे ढोल-नगाड़े पराजय में बदल गए मनमोहन सिंह नए प्रधानमंत्री के रूप में सामने आए।कहने का अर्थ यह है कि युद्ध के बाद कोई भी पार्टी विजेता नहीं रही,सन् 1971 जैसी जीत किसी को नहीं मिली,लेकिन आपातकाल जैसा बदनाम कदम भी किसी और ने नहीं इंदिरा गांधी ने ही उठाया,आम जनता से सबसे ज्यादा कांग्रेस 1971 के बाद ही कटनी शुरू हुई है उसके बाद वह कभी टिकाऊ ढ़ंग से आम जनता में अपनी जड़ें नहीं बना पायी।

कहने का आशय यह कि युद्ध किसी का मित्र नहीं होता।युद्ध में कोई विजेता नहीं होता,युद्ध में कोई नायक नहीं होता।अमेरिका में देखें,इराक को तहस-नहस करने वाले अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज बुश के बारे में सोचें उनकी पार्टी इराक युद्ध के बाद लौट नहीं पाई जबकि इराक को वे जीत लिए,अफगानिस्तान को रौंद दिए।इन दो युद्धों ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था को पूरी तरह कंगाल कर दिया।इराक युद्ध के बाद अमेरिका में सबसे ज्यादा किसी से जनता यदि घृणा करती थी तो वे थे राष्ट्रपति जार्ज बुश।

चूंकि आरएसएस के लोगों का नायक हिटलर है तो देखें द्वितीय विश्वयुद्ध ने हिटलर की सारी दुनिया में किस तरह की इमेज बनायी ॽसबसे ज्यादा घृणा किए जाने वाले नेता के रूप में सारी दुनिया हिटलर को याद करती है ।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी संभवतःयह सब जानते हैं कि सन् 1962,1965,1971 और अंत में कारगिल युद्ध ने तत्कालीन नेताओं को खैरात में जनाक्रोश दिया।कम से कम जनाक्रोश की कीमत पर पाक से युद्ध करना मोदीजी पसंद नहीं करेंगे।महत्वपूर्ण यह नहीं है कि युद्ध में कौन जीतेगा,महत्वपूर्ण यह है कि युद्ध के बाद नेता ,देश और भाजपा का क्या होगा ॽ युद्ध यदि होता है तो यह तय है भारत जीतेगा,लेकिन मोदी-भाजपा आम जनता में हार जाएंगे।

मैं हाल ही में कारगिल गया था वहां लोगों से मिला,बड़ी संख्या में कारगिल युद्ध के चश्मदीद गवाहों से भी मिला,कारगिल की गरीबी और बदहाल अवस्था से सब लोग परेशान हैं।कारगिल युद्ध जीतकर भी वहां की आम जनता के दिलों में हमारे नेता अपने लिए वह स्थान नहीं बना पाए जो होना चाहिए। कारगिल का इलाका बेहद गरीब है।विगत 76दिनों से कश्मीर में कर्फ्यू लगे होने के कारण वहां की अर्थव्यवस्था पूरी तरह चौपट हो गयी है। पर्यटन ही वहां रोटी-रोजी का एकमात्र सहारा है।जो लोग कश्मीर में कर्फ्यू लगाकर खुश हैं वे कश्मीर की जनता को तो कष्ट दे ही रहे हैं,कारगिल और लद्दाख की जनता को भी तकलीफ दे रहे हैं।

आज की स्थिति में यदि युद्ध होता है तो कश्मीर-कारगिल-लेह-लद्दाख की जनता हमारी सेना के साथ खड़ी होगी इसमें संदेह है।हम सब जानते हैं कि हमने कारगिल युद्ध सिर्फ अपनी सेना के बल पर नहीं जीता,बल्कि कारगिल-लद्धाख की जनता की मदद से वह युद्ध जीता गया।



मीडिया में जो लोग युद्ध करो,पाक पर हमला करो,आतंकी ठिकानों पर हमले करो आदि सुझाव दे रहे हैं वे नहीं जानते या फिर जान-बूझकर सच्चाई को छिपा रहे हैं।कश्मीर का इलाका अशांत रखकर ,आम जनता को घरों में कैद करके भारतीय सेना के बलबूते पर कभी भी सफलता नहीं मिल सकती।हमें ध्यान रखना होगा कि कारगिल युद्ध के समय कारगिल की खास जनजातियों की मदद के बाद ही हम कारगिल युद्ध में विजय हासिल कर पाए थे।उस समय कारगिल में जनता हमारे साथ थी।आज स्थिति एकदम विपरीत है।विगत76दिनों से कश्मीर-कारगिल-लेह-लद्दाख की जनता बेहद परेशान है और उसके मन में केन्द्र सरकार और राज्य सरकार के खिलाफ जबर्दस्त गुस्सा है।जनता को विरोध में करके कोई देश युद्ध नहीं जीत पाया है।

सोमवार, 19 सितंबर 2016

कम्प्यूटर युग में हिन्दी

          

सरकार की आदत है वह कोई काम जलसे के बिना नहीं करती। सरकार की नजर प्रचार पर होती है वह जितना हिन्दीभाषा में काम करती है उससे ज्यादा ढोल पीटती है।
सवाल यह है दफ्तरी हिन्दी को प्रचार की जरूरत क्यों है ॽ जलसे की जरूरत क्यों है ॽ भाषा हमारे जीवन में रची-बसी होती है।अंग्रेजी पूरे शासनतंत्र में रची-बसी है,उसको कभी प्रचार की या हिन्दी दिवस की तरह अंग्रेजी दिवस मनाने की जरूरत महसूस नहीं हुई। भाषा को जब हम जलसे का अंग बनाते हैं तो राजनीतिक बनाते हैं।हिन्दी दिवस की सारी मुसीबत यहीं पर है।यही वह बिन्दु है जहां से भाषा और राजनीति का खेल शुरू होता है।भाषा में भाषा रहे,जन-जीवन रहे,लेकिन अब उलटा हो गया है। भाषा से जन-जीवन गायब होता जा रहा है।हम सबके जन-जीवन में हिन्दी भाषा धीरे धीरे गायब होती जा रही है,दैनंदिन लिखित आचरण से हिन्दी कम होती जा रही है।भाषा का लिखित आचरण से कम होना चिन्ता की बात है।हमारे लिखित आचरण में हिन्दी कैसे व्यापक स्थान घेरे यह हमने नहीं सोचा,उलटे हम यह सोच रहे हैं कि सरकारी कामकाज में हिन्दी कैसे जगह बनाए।यानी हम हिन्दी को दफ्तरी भाषा के रूप में देखना चाहते हैं !

हिन्दी सरकारी भाषा या दफ्तरी भाषा नहीं है। हिन्दी हमारी जीवनभाषा है,वैसे ही जैसे बंगला हमारी जीवनभाषा है।हम जिस संकट से गुजर रहे हैं ,बंगाली भी उसी संकट से गुजर रहे हैं।अंग्रेजी वाले भी संभवतः उसी संकट से गुजर रहे हैं।आज सभी भाषाएं संकटग्रस्त हैं।हमने विलक्षण खाँचे बनाए हुए हैं हम हिन्दी का दर्द तो महसूस करते हैं लेकिन बंगला का दर्द महसूस नहीं करते।भाषा और जीवन में अलगाव बढ़ा है।इसने समूचे समाज और व्यक्ति के जीवन में व्याप्त तनावों और टकरावों को और भी सघन बना दिया है।

इन दिनों हम सब अपनी -अपनी भाषा के दुखों में फंसे हुए हैं। यह सड़े हुए आदमी का दुख है।नकली दुख है।यह भाषाप्रेम नहीं ,भाषायी ढ़ोंग है।यह भाषायी पिछड़ापन है।इसके कारण हम समग्रता में भाषा के सामने उपस्थित संकट को देख ही नहीं पा रहे।हमारे लिए आज महत्वपूर्ण यह नहीं है कि भाषा और समाज का अलगाव कैसे दूर करें,हमारे लिए जरूरी हो गया है कि सरकारी भाषा की सूची में अपनी भाषा को कैसे बिठाएं।सरकारी भाषा का पद जीवन की भाषा के पद से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है और यही वह बुनियादी घटिया समझ है जिसने हमें अंधभाषा प्रेमी बना दिया है।हिन्दीवाला बना दिया है।यह भावबोध सबसे घटिया भावबोध है।यह भावबोध भाषा विशेष के श्रेष्ठत्व पर टिका है।हम जब हिन्दी को या किसी भी भाषा को सरकारी भाषा बनाने की बात करते हैं तो भाषाय़ी असमानता की हिमायत कर रहे होते हैं।हमारे लिए सभी भाषाएं और बोलियां समान हैं और सबके हक समान हैं।लेकिन हो उलटा रहा है।तेरी भाषा-मेरी भाषा के क्रम में हमने भाषायी विद्वेष को पाला-पोसा है।बेहतर यही होगा कि हम भाषायी विद्वेष से बाहर निकलें। जीवन में भाषाप्रेम पैदा करें।सभी भाषाओं और बोलियों को समान दर्जा दें।किसी भी भाषा की निंदा न करें,किसी भी भाषा के प्रति विद्वेष पैदा न करें।दुख की बात है हमने भाषा विद्वेष को अपनी संपदा बना लिया है,हम सारी जिन्दगी अंग्रेजी भाषा से विद्वेष करते हैं और अंग्रेजी का ही जीवन में आचरण करते हैं।हमने कभी सोचा नहीं कि विद्वेष के कारण भाषा समाज में आगे नहीं बढ़ी है। प्रतिस्पर्धा के आधार पर कोई भी भाषा अपना विकास नहीं कर सकती।

मेरे लिए हिन्दी जीवन की भाषा है।इसके बिना मैं जी नहीं सकता।मैं सब भाषाओं और बोलियों से वैसे ही प्यार करता हूँ जिस तरह हिन्दी से प्यार करता हूँ।हिन्दी मेरे लिए रोजी-रोटी की और विचारों की भाषा है।भाषा का संबंध आपके आचरण और लेखन से है।राजनीति से नहीं।भाषा में विचारधारा नहीं होती।भाषा किसी एक समुदाय,एक वर्ग,एक राष्ट्र की नहीं होती वह तो पूरे समाज की सृष्टि होती है।



जब बाजार में कम्प्यूटर आया तो मैंने सबसे पहले उसे खरीदा,संभवतःबहुत कम हिन्दी शिक्षक और हिन्दी अधिकारी थे जो उस समय कम्प्यूटर इस्तेमाल करते थे।मैंने कम्प्यूटर की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली।मैं कम्प्यूटर के तंत्र को नहीं जानता,लेकिन मैंने अभ्यास करके कम्प्यूटर पर लिखना सीखा ,अपनी लिखने की आदत बदली,कम्प्यूटर पर पढ़ने का अभ्यास डाला।कम्प्यूटर आने के बाद से मैंने कभी हाथ से नहीं लिखा,अधिकांश समय किताबें भी डिजिटल में ही पढ़ता हूँ।जब आरंभ में लिखना शुरू किया तो उस समय यूनीकोड फॉण्ट नहीं था,कृति फॉण्ट था,उसमें ही लिखता था।बाद में जब पहलीबार ब्लॉग बनाया तो पता चला कि इंटरनेट पर यूनीकोड फॉण्ट में ही लिख सकते हैं और फिर मंगल फॉण्ट लिया,फिर लिखने की आदत बदली,और आज मंगल ही मंगल है।कहने का आशय यह कि हिन्दी या किसी भी भाषा को विकसित होना है तो उसे लेखन के विकसित तंत्र का इस्तेमाल करना चाहिए। भाषा लेखन से बदलती है,समृद्ध होती है।भाषा बोलने मात्र से समृद्ध नहीं होती।

हमारे एक मित्र हैं ,प्रोफेसर हैं,जब भी कोई उनसे पूछता है भाईसाहब आपकी विचारधारा क्या है तुरंत कहते हैं हम तो मार्क्सवादी हैं! लेकिन ज्यों ही भाषा की समस्या पर सवाल दाग दो तो उनका मार्क्सवाद मुरझा जाता है! वे उस समय आरएसएस वालों की तरह हिन्दीवादी हो जाते हैं।मार्क्सवाद और संघी विचारधारा के इस खेल ने ही हिन्दी को कमजोर बनाया है।हिन्दी को कमजोर संवैधानिक भाषादृष्टि ने भी बनाया है।हम संविधान में अपनी भाषा के अलावा और किसी भाषा को देखना नहीं चाहते।हम भूल जाते हैं कि हिन्दी संविधान या राष्ट्रवाद या राष्ट्र की नहीं जनता की भाषा है।वह भाषायी मित्रता और समानता में जी रही है,संविधान में नहीं।





मित्रता के मायने

        एक जमाना था जब राजनीति देखकर मित्र बनाया जाता था।मित्रता की राजनीति पर बातें होती थीं,केदारनाथ अग्रवाल और रामविलास शर्मा के बीच का मित्र संवाद जगजाहिर है।

मित्रता में राजनीति की तलाश का दौर क्या अब खत्म हो गया है ?मुझे लगता है अब खत्म हो गया है,अब स्वार्थों की मित्रता रह गयी है।यह उत्तर शीतयुद्धीय मित्रता का दौर है।इसमें मित्रता नहीं स्वार्थ बड़ा है।

सबसे अच्छी मित्रता वह है जो अज्ञात से ज्ञात की ओर ले जाए,लेकिन इन दिनों बीमारी यह है कि मित्रता में हम ज्ञात से ज्ञात की ओर ही जाते हैं।इस क्रम में वर्षों दोस्त रहते हैं लेकिन एक-दूसरे से कुछ नहीं सीखते। इस तरह के मित्र अज्ञात से डरते हैं,अज्ञात सामने आता है तो नाराज हो जाते हैं,बुरा मान जाते हैं।मुक्तिबोध के शब्दों में कहें " यह तो अपनी ही कील पर अपने ही आसपास घूमते रहना है।यह अच्छा नहीं है।इसलिए अज्ञात से डरने की जरूरत नहीं है। "

मुक्तिबोध ने मित्रता की पेचीदगियों के समाधान के रूप में बहुत महत्वपूर्ण समाधान पेश किया है,मैं स्वयं भी मुक्तिबोध के समाधान का कायल रहा हूँ और इसका पालन करता रहा हूँ।

मुक्तिबोध के अनुसार- "हम अपने जीवन को एक-उपन्यास समझ लें,और हमारे जीवन में आनेवाले लोगों को केवल पात्र,तो ज्यादा युक्ति-युक्त होगा और हमारा जीवन भी अधिक रसमय हो जाएगा।"

सवाल यह उठता है मैं आज यह सब क्यों लिख रहा हूँ इसलिए कि आज की जिन्दगी में एक-दूसरे को लेकर जहर बहुत उगला जा रहा है,इस जहर से बचने का एकमात्र रास्ता है मुक्तिबोधीय समाधान।

हमारे जो मित्र साहित्य में सत्य खोज रहे हैं ,सत्य की कसौटी खोज रहे हैं,साहित्य की प्रासंगिकता के सवालों के उत्तर खोज रहे हैं,वे एकायामी नजरिए के शिकार हैं। सत्य की कसौटी साहित्य नहीं ,मनुष्य का जीवन है,उसका अन्तर्जगत है।

साहित्य में सत्य नहीं होता,सत्य का आभास होता है।इसी तरह जो मित्र साहित्य में प्रकाश ही प्रकाश खोज रहे हैं,वे भूल कर रहे हैं,साहित्य का प्रकाश सत्य से भिन्न होता है। इसी प्रसंग में मुक्तिबोध ने एक बहुत ही मार्के की बात कही है, "साहित्य पर आवश्यकता से अधिक भरोसा रखना मूर्खता है।"

मुक्तिबोध के अनुसार "आत्म-साक्षात्कार बहुत आसान है,स्वयं का चरित्र साक्षात्कार अत्यन्त कठिन है।" यहीं पर हमारी मित्रता की अनेक गुत्थियों के सवालों के उत्तर छिपे हैं।

अनेक मित्र मेरी तरह-तरह से आलोचना और विश्लेषण करते हैं,मैं उनकी बातों को आमतौर पर चुप सुन लेता हूँ ,बाद में सोचता हूँ,उसमें कोई बात ऐसी लगे जो मेरी कमजोरियों को सामने लाए तो तत्काल मान भी लेता हूँ।लेकिन मैं किसी भी मित्र के द्वारा किए गए व्यक्तित्व विश्लेषण को अंतिम मानने को तैयार नहीं हूँ।क्योंकि मैंने अपने को लगातार सुधारा है। लेकिन मुझे मुक्तिबोध की ही तरह स्वयं-कृत व्यक्तित्व विश्लेषण अविवेकपूर्ण लगता है।मौजूदा दौर उसी का है।

इस दौर में हमारे मित्र स्वयं-कृत व्यक्तित्व विश्लेषण को बड़ी निष्ठा और दृढ़ आस्था के साथ करते हैं।इस तरह के विश्लेषण को मुक्तिबोध ने अविवेकपूर्ण माना है।

मित्रता के लिए जरूरी है "मैं" भाव को न छोड़ें।अनेक मित्र हैं जो अपने स्वार्थ के लिए मुझे "मैं" भाव से दूर ले जाना चाहते हैं।इसके कारण अविवेकपूर्ण अधिकार भावना का भी प्रदर्शन करते हैं,इससे बचने की सलाह मुक्तिबोध देते हैं।नए दौर में मित्रता का मुहावरा सीखना हो तो मुक्तिबोध से सीखना चाहिए।

मित्रता में जब प्यार नाटकीय रूपों में व्यक्त होने लगे तो समझो मित्रता गयी पानी भरने ! मुक्तिबोध को घिन आती थी ऐसी मित्रता और इस तरह के मित्रों से ! इस तरह की मित्रता घरघोर आत्मबद्ध भाव की शिकार होती है।वह इल्जाजिक पर सवार होकर आती है।इस तरह की मित्रता तथाकथित "हृदय की गाथाओं" से गुजरकर हम तक आती है।इसमें अहंकार कूट-कूटकर भरा है।इसमें खास किस्म का मनोवैज्ञानिक स्वार्थ भी है।

मित्रता का नया पैमाना है आत्मरक्षा और उसके संबंध में अपनी दृढता के भावबोध का प्रदर्शन,मुक्तिबोध इसके गहरे आलोचक थे।

सबसे अच्छी दोस्त होती है माँ! दोस्त बनना है तो माँ जैसा त्याग और निस्वार्थ प्रेम पैदा करो।

सबसे अच्छा दोस्त वह जो एकांत दे!

सबसे अच्छा मित्र वह जो परेशान न करे !





शनिवार, 17 सितंबर 2016

जेएनयू और हम


        मैं१९८०-८१ में जेएनयू छात्रसंघ के चुनाव में कौंसलर पद पर एक वोट से जीता था। वी. भास्कर अध्यक्ष चुने गए।उस समय जेएनयू के बाइस चांसलर वाय. नायडुम्मा साहब थे, वे श्रीमती गांधी के भरोसे के व्यक्ति थे विश्वविख्यात चमड़ा विशेषज्ञ थे। स्वभाव से बहुत ही शानदार, उदार और वैज्ञानिक मिज़ाज के थे। बीएचयू से पढ़े थे।भास्कर के साथ पूरी यूनियन उनसे मिलने गयी, सबने उनको अपना परिचय अंग्रेज़ी में दिया मैंने हिन्दी में दिया , क्योंकि मैं अंग्रेज़ी में परिचय देना नहीं जानता था।
नायडुम्मा साहब अंग्रेज़ी में परिचय सुनते हुए एकाग्र हो चुके थे मैंने ज्योंही हिन्दी में परिचय दिया सारा माहौल बदल गया, वे तुरंत टूटी फूटी हिन्दी में शुरू हो गए और बोले आज मैं कई दशक बाद हिन्दी बोल रहा हूँ। तुमने मेरी बीएचयू की यादें ताज़ा कर दीं। इसके बाद मैं उनसे भास्कर के साथ विभिन्न समस्याओं को लेकर अनेकबार मिला वे भास्कर को बीच में टोकते और कहते जगदीश्वर को बोलने दो, मुझे हिन्दी सुनना अच्छा लगता है कहते इसके बहाने मैं काशी में लौट जाता हूं। वे जानते थे मैं सम्पूर्णानंद वि वि से सिद्धांतज्यौतिषाचार्य कर चुका हूं, मेरा बनारस से संबंध है। कहते जेएनयू में तुम मेरे हिन्दी और बनारस के सेतु हो।
मैं बहुत पान खाता था,नायडुम्मा को मेरा पान खाना बहुत पसंद था। जेएनयू में नामवरजी के बाद वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने मुझसे पान खाने के लिए माँगा।नायडुम्मा साहब ने कहा जिस दिन अगलीबार आओ तो बिना समस्या के आना, पान लेकर आना बैठकर बातें करेंगे।
मैं एकदिन पान लेकर उनके पास गया और जमकर बातें कीं।अंत में बोले कोई काम हो तो बोलो,मैंने कहा जेएनयू में बडे पैमाने पर जाली इनकम सर्टिफ़िकेट दाख़िले के समय जमा हो रहे हैं आप दुस्साहस करके छात्रों के कमरों में छापे डलवा दें और रेण्डम तरीक़े से इंकम सर्टिफ़िकेट की जाँच करवा दे । वे बोले यूनियन के लोगों के यहाँ भी छापे पड़ेंगे।तुम वायदा करो बाहर कहोगे नहीं , आय सर्टिफ़िकेट भीजांच के लिए भेजे जाएँगे । परिणाम झेलोगे , मैंने कहा हम तैयार हैं। छात्रों के कमरों की तलाशी हुई बडे पैमाने पर कई छात्रों के कमरों से नक़ली मोहरें बरामद हुईं और बड़े पैमाने पर जेएनयू की लाइब्रेरी से चुरायी गयी किताबें बरामद हुईं। आय प्रमाणपत्रों की जाँच के बाद कई सौ छात्रों के सर्टिफ़िकेट जाली पाए गए उनको विश्वविद्यालय से निकाल दिया गया।हमने वि वि का इस मामले में साथ दिया।

जेएनयू में मेरा पहला मुकाबला नामवरजी से हुआ और यह बेहद मजेदार,शिक्षित करने वाला था।जेएनयू में 1979 में संस्कृत पाठशाला की अकादमिक पृष्ठभूमि से आने वाला मैं पहला छात्र था।मेरे शास्त्री यानी स्नातक में मात्र50फीसदी अंक थे।संभवतःइतने कम अंक पर किसी का वहां दाखिला नहीं हुआ था,मैंने प्रवेश परीक्षा और इंटरव्यू बहुत अच्छा दिया और मुझे दाखिला मिल गया।

कक्षाएं शुरू होने के 10दिन बाद पहला टेस्ट घोषित हो गया,उसके लिए गुरूवर नामवरजी ने दो विषय दिए,पहला,जॉन क्रौरैंसम का न्यू क्रिटिसिज्म ,दूसरा संस्कृत काव्यशास्त्र में रूपवाद।संभवतःपहलीबार मेरे लिए नामवरजी ने संस्कृत काव्यशास्त्र पढाया।खैर ,मैंने परीक्षा दी और अपने लिए न्यू क्रिटिसिज्म को चुना।उत्तर सही दिया।लेकिन गुरूदेव का दिल नहीं जीत पाया।उन्होंने मुझे बी-प्लस ग्रेड दिया।मैं खैर खुश था ,चलो फेल तो नहीं हुआ।कक्षा में उत्तरपुस्तिका दी गयी,सभी छात्र अपनी पुस्तिका पर नामवरजी के कमेंटस पढ़ रहे थे।मेरी उत्तर पुस्तिका पर लालपैन से सही का निशान था और नामवरजी का कोई कमेंटस नहीं था,सिर्फ बी प्लस ग्रेड लिखा था।

बातचीत में नामवरजी प्रत्येक छात्र को एक-एक करके बता रहे थे कि उसके लेखन में क्या कमी है,ऐसे नहीं वैसे लिखो,दिलचस्प बात यह थी कि जिस छात्र को ए प्लस दिया था उसकी उत्तर पुस्तिका में काफी कांट-छांट किया था नामवरजी ने।मेरा नम्बर आया तो मैंने व्यंग्य में कहा,सर,आपने इतने ज्यादा अंक दिए हैं ! इतने नम्बर तो कभी नहीं मिले ! वे तुरंत बोले मैं आपसे नाराज हूँ,मैंने पूछा क्यों,बोले आपने संस्कृत काव्यशास्त्र में रूपवाद वाले सवाल पर क्यों नहीं लिखा, ,मैंने संस्कृत काव्यशास्त्र आपके लिए खासतौर पर तैयार करके पढ़ाया था,मैंने कहा सर,मैं संस्कृत पढ़ते हुए बोर गया था इसलिए न्यू क्रिटिसिज्म पर लिखा ,बोले ,मैं परेशान हूँ कि आप अंग्रेजी नहीं जानते न्यू क्रिटिसिज्म पर कैसे लिख सकते हैं ! मैंने झूठ कहा कि सर आपके क्लास नोटस से तैयार करके परीक्षा दी है,वे बोले नहीं,मैंने तोड़ती पत्थर कविता का उदाहरण कक्षा में नहीं बताया,लेकिन आपने लिखा है।मैंने पूछा ,सर,यह बताइए जो लिखा है वह सही है या गलत लिखा है,वे बोले सही लिखा है,मैंने फिर पूछा जो उदाहरण दिया है वह सही है या गलत,बोले सही है,मैंने पूछा कि फिर समस्या कहां पर है ,वे बोले न्यू क्रिटिसिज्म किताब पढ़ कैसे सकते हो,मैंने बताया ,उस किताब को पढ़कर सुनाया मित्र असद जैदी और कुलदीपकुमार ने,वह किताब कुलदीप के पास थी,इन दोनों ने टेस्ट के पहली वाली रात को सारी रात जगकर न्यू क्रिटिसिज्म को मुझे सुनाया और मैंने सुबह जाकर परीक्षा दे दी।इसके बाद गुरूदेव चुप थे।मैंने कहा सर,मैंने कहा था अंग्रेजी समस्या नहीं है,समझ में नहीं आएगा तो मित्रों से समझ लेंगे।इस तरह मेरे लिए अंग्रेजी मित्रभाषा आज भी बनी हुई है।

मैंने अपने छात्र जीवन में अंग्रेजी न जानते हुए इराकी, ईरानी, फ्रेंच, फिलिस्तीनी, अफ्रीकी,मणिपुरी,नागा आदि जातियों के छात्रों के साथ गहरी मित्रता की और उनका दिल जीता।

मेरा जेएनयू में पहला रूममेट एक दक्षिण अफ्रीकी छात्र था,मैं और वो एक ही साथ सोशल साइंस बिल्डिंग ( आज की पुराने सोशल साइंस इमारत) में जो कि 1979 में बनकर तैयार हुई थी,उसमें एक साथ रहे।उसके बाद दूसरे सेमिस्टर में सतलज होस्टल में मेरा रूममेट एक नागा लड़का था। यानी एमए का पहला वर्ष इन दोनों के साथ गुजरा। दोनों हिन्दी नहीं जानते थे,अंग्रेजी भी बहुत कम जानते थे।अफ्रीकी छात्र कालांतर में नेल्सन मंडेला के मंत्रीमंडल में मंत्री बना,नागा लडका बड़ा नागानेता बना।इनके अलावा जो फिलिस्तीनी लड़का सबसे अच्छा मित्र था वह लंबे समय तक फिलीस्तीनी नेता यासिर अराफात का निजी सचिव था। इन सबके साथ रहते हुए भाषा कभी समस्या के रूप में महसूस नहीं हुई।

मैं जब जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष पद के लिए 1984 में चुनाव लड़ रहा था,तो उस समय कुछ तेलुगूभाषी छात्रों ने कहा कि वे मुझे वोट नहीं देंगे।हमारे पूर्वांचल में रहने वाले मित्रों ने संदेश दिया कि 20-25 तेलुगूभाषी छात्र हैं जो मेरे हिन्दी में बोलने के कारण नाराज हैं और वोट नहीं देंगे।मैंने कहा कि मेरी उनसे मीटिंग तय करो,मैं बैठकर सुनता हूँ,फिर देखते हैं,उनका मन बदलता है या नहीं।मेरी उन सभी तेलुगूभाषी छात्रो के साथ मीटिंग तय हुई,एक कमरे में हम बैठे,मेरी मदद के लिए तेलुगूभाषी कॉमरे़ड थे जिससे भाषा संकट न हो लेकिन तेलुगूभाषी छात्रों ने कहा कि वे मुझसे अलग से और बिना किसी भाषायी मददगार के बात करेंगे,उन्होंने सभी तेलुगू भाषी कॉमरेडों को कमरे के बाहर ही रोक दिया।अंदर कमरे में तेलुगूभाषी थे और मैं अकेला।मेरी मुश्किल यह थी कि मैं हिन्दी के अलावा कोई भाषा नहीं जानता था,वे लोग हिन्दी एकदम नहीं जानते थे।बातचीत शुरू हुई मैंने टूटू फूटी अंग्रेजी में शुरूआत की,गलत-सलत भाषा बोल रहा था,वे लगातार सवाल पर सवाल दागे जा रहे थे और मैं धारावाहिक ढ़ंग से हर सवाल का अंग्रेजी में जवाब दे रहा था,मेरी अंग्रेजी बेइंतिहा खराब,एकदम अशुद्ध लेकिन संवाद अंग्रेजी में जारी था।तकरीबन एक घंटा मैंने उनसे अंग्रेजी में अपनी बात कही और उनसे अनुरोध किया कि आप लोग एसएफआई को पैनल वोट दें,मुझे वोट जरूर दें।कमरे के बाहर तमाम कॉमरेड खडे थे और परेशान थे कि मैं अंग्रेजी नहीं जानता फलतःराजनीतिक क्षति करके ही लौटूँगा।मैं बातचीत खत्म करके बाहर हँसते हुए आया तेलुगूभाषी छात्र भी हँसते हुए बाहर निकले,बाहर खड़े तेलुगूभाषी कॉमरेडों ने उन छात्रोंसे पूछा अब बताओ किसेे वोट दोगे, वे बोले रात को मेरा भाषण सुनने के बाद बताएंगे,उनलोगों से दूसरे दिन सुबह पूछा गया कि अब बताओ जगदीश्वर को वोट दोगे या नहीं,सभी तेलुगूभाषी लड़कों ने कहा हम उसे जरूर वोट देंगे।तेलुगूभाषी कॉमरेड ने कहा आश्चर्य है मैंने समझाया तो वोट देने को राजी नहीं हुए और जगदीश्वर से बात करने के बाद उसे वोट देने को राजी कैसे हो गए ,इस पर एक छात्र ने कहा कि उसकी सम्प्रेषण शैली और दिल जीतने की कला ने हम सबको प्रभावित किया ।उससे बात करने के बाद पता चला कि भाषा भेद की नहीं जोड़ने की कला है।

JNU में कईबार वाम हारा है,लेकिन उसने हार को सम्मान और सभ्यता के साथ स्वीकार किया है,हार के कारणों की खोज करके अपने को दुरूस्त किया है।इसबार जो लोग हारे हैं वे वाम से सीखें कि कैसे हार को स्वीकार करके छात्रों के लिए एकताबद्ध होकर काम किया जाय।

हमने पहले भी कहा है जेएनयू में सब वाम नहीं है। अधिकांश छात्र वाम को नहीं मानते। इसबार का चुनाव और उसके परिणाम देख लें,आज भी बहुसंख्यक छात्र ऐसे हैं जो वाम की विचारधारा को नहीं मानते।इसके बावजूद लोकतंत्र में चुनाव के जरिए वाम चुनाव जीतकर आता है तो यही कहेंगे वाम में कुछ तो है जो बार बार उसको जेएनयू के छात्र अपने छात्रसंघ का नेतृत्व करने की जिम्मेदारी देते हैं।

वाम यहां नोट,सरकार ,जाति और लट्ठ के बल पर चुनाव नहीं लड़ता,बल्कि विचारधारा और संघर्ष के इतिहास के आधार पर चुनाव लड़ता रहा है।

जेएनयू कैंपस में लोकतांत्रिक राजनीतिक परिवेश बनाए रखने में वाम की केन्द्रीय भूमिका रही है।विश्व में कहीं पर भी यह परिवेश उपलब्ध नहीं है।यह परिवेश एक दिन में नहीं बना बल्कि इसे बनाने में सभी छात्रों की अग्रणी भूमिका रही है।सभी छात्रों को इस परिवेश के लिए संगठित करने का काम वाम ने किया है,यही वजह है कि अधिकांश समय वाम के पास ही नेतृत्व रहा है।जेएनयू के परिवेश का वाम से बेहतर संरक्षक कोई और नहीं हो सकता,यही इसबार के चुनाव का संदेश है।

जेएनयू में वाम एकता मंच की 2016 में जिस तरह जीत हुई है उसे अनेक लोग हजम नहीं कर पा रहे हैं।हम फिर दोहरा रहे हैं कि जेएनयू के छात्रों की दैनंदिन राजनीति में ,दैनंदिन समस्याओं पर हुए संघर्ष में जो संगठन खरे उतरते हैं आमतौर पर जेएनयू के छात्र उनको ही चुनते हैं।

वे सवर्ण-असवर्ण देखकर वोट नहीं देते।यदि किसी संगठन की विचारधारा दलितों-मुसलमानों के पक्ष में है तो इस आधार पर जेएनयू के छात्र वोट नहीं देते,वे वोट छात्रों के लिए घोषित कार्यक्रम और उसके दैनंदिन जीवन में अमल के आधार पर तय करते हैं।

सतह पर देखेंगे तो कागज में सभी संगठन एक जैसी विचारधारात्मक बातें कहते हैं।मसलन्,आम्बेडकर-फुले को लेकर भाजपा -आरएसएस आज जितना कागज पर सक्रिय है ,मीडिया में सक्रिय है उससे उसकी दलित पक्षधरता तय नहीं होती।दलित पक्षधरता तय होगी तब जब वास्तव में दलितों का मुद्दा सामने आए और वह जमकर संघर्ष करे।

वाम ने हमेशा दलितों के हितों की रक्षा के सवाल को जेएनयू में उठाया है,उसके लिए लड़ाई लड़ी है।दलितों के हितों की हर स्तर पर रक्षा की है।यदि उनसे कभी चूक हुई है तो छात्रों ने सबक भी सिखाया है।

जेएनयू के प्रसंग में दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि जेएनयू में भी जातिवाद की समस्या है,जेएनयू के शिक्षकों से लेकर छात्रों तक एक वर्ग में जातिवाद का असर है,यह असर पहले भी था,मैं जब पढ़ता था उस समय भी था,आज भी है।

जब दलितों के हितों के खिलाफ प्रशासन ने कभी कोई कदम उठाया ,छात्रसंघ ने हमेशा उसका पुरजोर विरोध किया।यदि लीडरशिप से कभी चूक हुई तो छात्रों की सेंटर से लेकर स्कूल और फिर विश्वविद्यालय स्तर की आम सभा ने प्रस्ताव पास करके संघर्ष की रूपरेखा तैयार करके दी और छात्रसंघ ने लड़ाई लड़ी।

यह सच है जेएनयू में पहले भी अनेक शिक्षक ऐसे रहे हैं जो भूमिहार या ब्राह्मण जाति के छात्रों को प्राथमिकता से दाखिले से लेकर नम्बर तक देते थे,फैलोशिप भी देते थे।लेकिन छात्रसंघ ने हमेशा इस तरह के फैसलों के खिलाफ एकजुट संघर्ष करके इस तरह के शिक्षकों और उनके फैसलों को बेनकाब किया।इसलिए यह कहना कि वाम सवर्णवादी है,एकसिरे से गलत है।छात्र सिर्फ छात्र रहें,वे छात्रचेतना से लैस हों,प्रगतिशील विचारधाराओं के करीब रहें,यही वामदलों का प्रयास रहा है।

जेएनयू को जो संगठन हिन्दुत्व और इसी तरह की बेगानी विचारधाराओं में डुबोना चाहते थे उनको निराशा हाथ लगी है। जेएनयू का स्वाभाविक भावबोध वामपंथी है। वाम के अलावा यहाँ बाक़ी विचारधाराएँ फ़ैशन की तरह हैं ।

वाम की जेएनयू में जन्म से लेकर आज तक निरंतरता रही है। बाक़ी विचारधाराएँ फ़ैशन की तरह आती जाती रहती हैं।यहाँ जातिवाद टूटा है,धर्म भी टूटा है। धर्मनिरपेक्षता के अनेक रंगों का यहाँ प्रचार होता रहा है।

जेएनयू में जाति महत्वपूर्ण नहीं है, वर्ग भी महत्वपूर्ण नहीं है। छात्र अस्मिता महत्वपूर्ण है। एलीट और एलीट विरोधी, आईएएस और क्रांतिकारी आदि सबने यहाँ लोकतंत्र का पाठ पढ़ा है।लोकतंत्र का पाठ जातिचेतना या वर्गचेतना से निर्मित नहीं होता। छात्रों के प्रति प्रेम से पैदा होता है।

छात्रप्रेम के लिए आम्बेडकर- ज्योतिबा फुले -मार्क्स की नहीं छात्रों को समझने , उनकी समस्याएँ समझने और उनके लिए एकजुट संघर्ष की भावना से पैदा होती हैं।

जेएनयू में छात्रसंघ महत्वपूर्ण है। यह सभी छात्रों के हितों का यह साझा मंच है। छात्रसंघ में चुने जाने का मतलब है सबका छात्र प्रतिनिधि।पार्टीजान ढंग से छात्रसंघ काम नहीं करता। यही वह चीज़ है जिसने कैम्पस में छात्रजीवन, छात्र और साझा मंच की धारणा को जन्म दिया है। समूची प्रक्रिया इतना व्यापक रसायन बनाती है कि मार्क्स-माओ-आम्बेडकर आदि की विचारधाराएँ इस प्रक्रिया के संगम में विलीन हो जाती हैं। यही वजह है कि जेएनयू में लोकतांत्रिक प्रक्रिया महत्वपूर्ण है। विचारधारा, जाति, वर्ग,धर्म आदि गौण बन जाते हैं।

जेएनयू में नए संगठन आते रहे हैं, चुनाव में भी भाग लेते हैं। इनमें विभिन्न रंगत के संगठन रहे हैं , जेएनयू में ऐसे उम्मीदवार भी रहे हैं जिनका कोई संगठन नहीं था लेकिन बडी संख्या में छात्र सुनने जाते थे। इस तरह के संगठन आज भी हैं जिनमें गंभीर विचारधारात्मक अंतर हैं, यही चीज़ जेएनयू को जेएनयू बनाती है। यह जेएनयू और वाम के मिश्रित सम्मिश्रण से बनी ज़मीन है जिस पर जेएनयू में हज़ार विचारधाराओं को खिलने दो के आधार पर विशाल जेएनयू खड़ा है। जेएनयू में विचारधारा नहीं छात्र एकता महत्वपूर्ण है। वही विचारधारा वहाँ बची रही है जो छात्रों में जेएनयू स्प्रिट बनाए रखने में मदद करे।

कैम्पसबोध - लोकतांत्रिकबोध इसकी धुरी है। जो लोग नायकों के झुनझुना लिए घूम रहे हैं वे जान लें कि छात्रएकता के सामने सभी नायक नतमस्तक हैं।



जेएनयू में नायक नहीं, विचारधारा नहीं ,छात्रों की व्यापक एकता महत्वपूर्णहै। इस एकता के सामने मार्क्स-एंगेल्स-माओ -ट्रास्टस्की--आम्बेडकर -जयप्रकाश नारायण -लोहिया आदि की विचारधाराओं को नतमस्तक होते देखा है, हर बार नई विचारधारा के संगठनों को यह कैम्पस देख चुका है।इसीलिए तो यह जेएनयू है।

कश्मीर पर मैनस्ट्रीम मीडिया और बुद्धिजीवी चुप क्यों हैं ॽ


        कश्मीर में कर्फ्यू लगे 70 दिन हो गए। अब 85 लोग मारे जा चुके हैं।लेकिन हमें नहीं मालूम कि वहां क्या हो रहा है,हमारे देश के बुद्धिजीवियों को भी इससे कोई परेशानी नजर नहीं आ रही,किसी भी लेखक संघ ने प्रतिवाद करते हुए आवाज बुलंद नहीं की है,समझ में नहीं आ रहा कि प्रगतिशील लेखक संघ ,जनवादी लेखक संघ आदि संगठनों में कश्मीर को लेकर चुप्पी क्यों है ॽ कश्मीर की पीड़ा हमें तकलीफ क्यों नहीं देती ॽक्या उत्तर प्रदेश या बिहार में दो महिने तक कर्फ्यू लगा रहे तो हम सब इसी तरह चुप बैठे रहते ॽ मुझे बेहद झल्लाहट हो रही है कि हमारे तमाम बेहतरीन बुद्धिजीवी और मानवाधिकार संगठन कश्मीर के मसले पर राष्ट्रीय स्तर पर कोई मुहिम अभी तक क्यों नहीं छेड़ पाए ॽ
          मैं जब कश्मीर में कुछ समय पहले वहां घूमते हुए कश्मीर के बुद्धिजीवियों-लेखकों-रंगकर्मियों और आम लोगों से बातें कर रहा था तो एक बात सबने कही कि आरएसएस और मीडिया के कश्मीर विरोधी अभियान ने कश्मीर को लंबे समय से मुख्यधारा से अलग-थलग कर रखा है।आम कश्मीरी के सुख-दुख को देस के बाकी हिस्से में रहने वाले लोग नहीं जानते ,और न मीडिया बताना चाहता है।सबसे पीड़ादायक रूख केन्द्र सरकार का है,वह एक कदम आगे बढ़कर पृथकतावादियों को बातचीत के लिए अभी तक राजी नहीं कर पायी है।इसका दुष्परिणाम यह निकला है कि आम जनता बुरी तरह से परेशान होकर रह गयी है। आम कश्मीरी अमन-चैन की जिन्दगी जीना चाहता है,लेकिन मोदी सरकार और पृथकतावादी मिलकर आम जनता को अमन के साथ रहने नहीं देना चाहते।
             हम जानना चाहते हैं कि कश्मीर के पृथकतावादी नेता और हुर्रियत (जी) के अध्यक्ष सईद अली जिलानी ने 26अगस्त2016 को जो पत्र सेना के अधिकारियों को लिखा था उस पर केन्द्र सरकार ने कोई जवाब दिया कि नहीं ॽमीडिया में उस पत्र को लेकर मोदी सरकार के रूख का कहीं कोई जिक्र नजर नहीं आता।जिलानी ने अपने पत्र में आरोप लगाया है कि सेना की कार्रवाई से अब तक कश्मीर में एक लाख लोग मारे गए हैं,दस हजार लोग गायब हैं और साठ हजार बच्चे अनाथ हो गए हैं।कम से कम इन आंकड़ों के बारे में तथ्यपूर्ण खंडन केन्द्र सरकार को जरूर देना चाहिए।वरना यही समझा जाएगा कि जिलानी सही कह रहे हैं। जिलानी का यह पत्र अनेक मामलों में बेहद खतरनाक मंशाओं से भरा हुआ है।इन मंशाओं में सबसे खतरनाक मंशा है आम कश्मीरी को दिमागी तौर पर भारत से मुक्त कर देना।
                    केन्द्र सरकार की हरकतों और पृथकतावादियों की चालों में विलक्षण साम्य है,वे जाने-अनजाने एक-दूसरे के पूरक के रूप में काम कर रहे हैं।कश्मीर में इतने लंबे समय से कर्फ्यू के लगे रहने से पृथकतावादियों को अपने मंसूबे पूरे करने में मदद मिली है।विगत कई सालों में आम कश्मीरी मुख्यधारा में लौटा था,राज्य में शांति लौटी थी लेकिन मोदी सरकार ने बुरहान वानी की हत्या करके समूची कश्मीरी जनता को पृथकतावादियों और सेना के रहमो-करम पर जीने के लिए छोड़ दिया।दो साल पहले कश्मीर में लोकतंत्र था,शांति थी,चुनाव हुए थे,सामान्य जीवन चल रहा था,लेकिन विगत दो महिने में सबकुछ बुनियादी तौर पर बदल गया ।आज आम कश्मीरी जहां एक ओर आतंकियों-पृथकतावादियों से नफरत करता है वहीं वह भारत सरकार से भी नफरत करने लगा है।मोदी सरकार ने राजनीतिक पहल न करके कश्मीर की जनता को पूरी तरह हुर्रियत और दूसरे पृथकतावादी संगठनों के हवाले कर दिया है।जबकि जरूरत यह है कि आम जनता को आतंकियों-पृथकतावादियों से अलग-थलग किया जाए।हजारों करोड़ रूपये का आर्थिक नुकसान झेलने के बाद जम्मू-कश्मीर बहुत जल्दी अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पाएगा। हमारे नीति निर्माता कहीं न कहीं यह सोचकर चल रहे हैं कि कश्मीरी जनता की आर्थिक तौर पर कमर तोड़ देंगे तो वह सीधे रास्ते पर आ जाएगी।यह धारणा गलत है।यह सोचना भी गलत है कि कश्मीरियों को उत्पीडित करके वहां शांति स्थापित हो जाएगी,पाक का असर कम हो जाएगा,आतंकियों का असर कम हो जाएगा।
           मोदी सरकार मूलतःकश्मीरी जनता के प्रति हृदयहीन भाव से पेश आ रही है।यह हृदयहीनता उनको विरासत में आरएसएस और अमेरिका से मिली है।इस हृदयहीनता का लक्ष्य है आमलोगों के दिलों में दरारें पैदा करना।आम लोगों के अंदर लोकतंत्र के प्रति नफरत गहरी करना।







रविवार, 11 सितंबर 2016

भाषा सीखना और भाषा जीना एक-दूसरे से भिन्न है

           महादेवी वर्मा पर लिखते समय हमेशा यह संकट रहता है कहां से लिखूँ।उनके विभिन्न किस्म के विचार उद्वेलित करते हैं।इधर फेसबुक-ब्लॉगिंग-मोबाइल आदि ने हम सबके संप्रेषण का मूलाधार बदल दिया है।नए दौर की समस्याएं अनेक मायनों में नई हैं।मसलन्,लेखन को ही लें,हम इन दिनों इतना लिख रहे हैं,इतना पहले कभी नहीं लिखते थे।हर व्यक्ति के लेखन की क्षमता में,भाषायी कम्युनिकेशन में कई गुना इजाफा हुआ है। इस तरह का लेखन या कम्युनिकेशन पहले कभी नहीं देखा गया,मोबाइल से लेकर फेसबुक तक भाषा का इतना व्यापक और बड़ी मात्रा में प्रयोग मनुष्य ने पहले कभी नहीं किया।

सवाल उठता है इतनी बड़ी मात्रा में भाषायी कम्युनिकेशन अंततःहमें अलगाव में क्यों रखे हुए है ॽ ऐसी भाषा क्यों लिख रहे हैं जिसमें प्राण नहीं होते ॽ संवेदनात्मकता नहीं होती ॽ कहा गया था हम संप्रेषण करेंगे तो संवेदनशीलता बढ़ेगी ,लेकिन यथार्थ में उलटा नजर आ रहा है।दावा था संवेदनशीलता के आधिक्य का लेकिन घटित एकदम उलटा हो रहा है।

संभवतः महादेवी वर्मा पहली हिन्दी लेखिका हैं जिन्होंने पूंजीवादी समाज में सबसे पहले इस आने वाले संकट को पहचाना था और रेखांकित किया कि हमारी त्रासदी का कारण है संवेदनशीलता का अभाव और भाषा से संवेदनशीलता का गायब हो जाना।



हम ऐसी भाषा बोल,लिख,सुन रहे हैं जिसमें शब्द हैं,लेकिन प्राण नहीं हैं,संवेदनाएं नहीं हैं।हमने भाषा के सवालों पर विचार करते समय तेरी भाषा,मेरी भाषा,हिन्दी भाषा,राष्ट्रीय भाषा ,जातीय भाषा आदि पर विचार किया लेकिन भाषा के दार्शनिक और संवेदनात्मक आधार से जुड़े सवालों को तिलांजलि दे दी।भाषा को प्रयोजनमूलक बना दिया।हिन्दी को प्रयोजनमूलक हिन्दी बना दिया।इससे भाषा के प्रति हमारे गंभीर सरोकारों और विमर्श का अंत हो गया। महादेवी ने लिखा है ´भाषा सीखना और भाषा जीना एक-दूसरे से भिन्न हैं तो आश्चर्य की बात नहीं।प्रत्येक भाषा अपने ज्ञान और भाव की समृद्धि के कारण ग्रहण योग्य है,परन्तु अपनी समग्र बौद्धिक और रागात्मक सत्ता के साथ जीना अपनी सांस्कृतिक भाषा के संदर्भ में ही सत्य है।´

शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

मार्क्सवादी प्रकाशक श्याम बिहारी राय

डा.श्याम बिहारी राय हिन्दी प्रकाशन जगत का जाना-पहचाना चेहरा है।हिन्दी का आदर्श प्रकाशक कैसा हो और उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए,प्रकाशन के जरिए मार्क्सवाद का प्रचार -प्रसार कैसे करें,इन सब सवालों के उत्तर लेने हैं तो राय साहब से मिलो।
राय साहब बेहद सुलझे मार्क्सवादी हैं,एमए पीएचडी हैं,हिन्दी के प्रख्यात आलोचक नंददुलारे बाजपेयी के छात्र रहे हैं।अनेक वर्ष केन्द्र सरकार के संस्थान नीपा में काम करने के बाद प्रकाशन में लगे हुए हैं।उनसे मैं जब भी मिलता हूँ,मुझे मन में शांति मिलती है।उनके साथ मेरा परिचय तकरीबन 35सालों से हैं।मैं जब जेएनयू पढ़ने आया तो उनसे मेरी मुलाकात हुई ,मित्रता हुई,हम दोनों लंबे समय तक एक-दूसरे के सुख-दुख के साझीदार भी रहे हैं।राय साहब जैसा बेहतरीन मनुष्य,बेहतरीन निष्ठावान मार्क्सवादी मैंने नहीं देखा।
इस समय राय साहब ग्रंथ शिल्पी के नाम से प्रकाशन चलाते हैं।संभवतः भारत में यह अकेला प्रकाशन है जो सिर्फ अनुवाद छापता है।समाजविज्ञान, शिक्षा, साहित्य,मीडिया,दर्शन आदि की तकरीबन 300 से ज्यादा विश्व विख्यात किताबें अकेले राय साहब ने छापी हैं।इतनी किताबें भारत का कोई भी बड़ा प्रकाशक नहीं छाप पाया है।
राय साहब ने जिस निष्ठा के साथ हिन्दी की सेवा की है वह अपने आपमें विरल चीज है।ईमानदारी से प्रकाशन करना,लेखक और अनुवादक को नियम से हर साल रॉयल्टी देना,पेशेवर ढ़ंग से प्रकाशन चलाना ,ये ऐसे गुण हैं जिनको देखकर राय साहब का मित्र होने पर गर्व होता है।
राय साहब बहुत थोड़ी पूंजी से प्रकाशन चलाते रहे हैं।लेकिन ईमानदारी और पेशेवर नजरिए को उन्होंने कभी नहीं छोड़ा।मेरी किताबों के प्रकाशन में उनकी केन्द्रीय भूमिका रही है।
इन दिनों राय साहब बुजुर्ग हो गए हैं लेकिन सुबह नौ-साढ़े नौ बजे ठीक दुकान पर पहुँच जाते हैं और शाम को पांच बजे निकल देते हैं।संभवतःभारत में कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी इतनी मार्क्सवाद की किताबें नहीं छापी हैं जितनी अकेले राय साहब ने छापी हैं।हम यही चाहते हैं राय साहब इसी तरह सक्रिय रहें और मार्क्सवाद की सेवा करते रहें।

राधा कहां मिलेगी !

          आज राधा अष्टमी है।मैं संभवतःकिसी चरित्र से इतना प्रभावित नहीं हुआ जितना राधा के चरित्र से प्रभावित हुआ। तकलीफ यह है कि हमने श्रीकृष्ण की बातें कीं,उनकी लीलाओं का आनंद लिया,राम की बातें की,लेकिन राधा के चरित्र पर कभी साहित्यकारों और आलोचकों ने खुलकर बहस नहीं की।

राधा अकेला चरित्र है जो अनुभूति में रूपान्तरित हुआ है। वह मात्र मिथकीय चरित्र नहीं है। बल्कि वह एक भावबोध,संस्कार और उससे भी बढ़कर आदतों में घुल-मिला चरित्र है।संभवतः हिन्दुओं का कोई ऐसा चरित्र नहीं है जो राधा की तरह हम सबकी आदतों-संस्कारों और अनुभूति में घुला मिला हो।कहने के लिए राधा के जन्म की कहानी मिलती है।

लेकिन राधा तो कवि शुद्ध कल्पना की सृष्टि है।जिसने भी राधा को सृजित किया वो बड़े विज़न का लेखक है।लोक साहित्य से लेकर साहित्य तक,संस्कारों –आदतों से लेकर शास्त्र तक राधा का कैनवास फैला हुआ है।संभवतःआभीर जाति में जनप्रियता का जन्मजात गुण है।यही वजह है आभीर जाति के नायक-नायिकाएं जल्द ही जनमानस में अपना स्थान बना लेते हैं।हजारी प्रसाद द्विवेदी-मैनेजर पांडेय ने राधा को प्रेमदेवी बना दिया।लेकिन उसे इस रूप में देखना सही नहीं होगा।जनप्रिय समझ भी यही है कि प्रेमभाव को राधाभाव कहते हैं।

हमारा मानना है राधाभाव मित्र भाव है।प्रेमभाव नहीं है।राधा सहचरी है,प्रेमिका या उपासिका नहीं है।आज के दौर में सहचरी भाव,मित्रभाव बेहद प्रासंगिक है।संस्कृत में हर भाव को कामुकता या श्रृंगार रस में डुबो देने की परंपरा रही है,पंडितों ने यह सब राधा के साथ भी किया उसे श्रृंगार में डुबो दिया,कामुक भाव-भंगिमाओं के साथ जोड़ दिया,इससे राधा को सुख-उपभोग और शरीर में रूपान्तरित करने में मदद मिली।सामंतीभाव बोध में राधा का इससे खराब रूपायन संभव ही नहीं था।हमारे यहां स्त्री चरित्रों के साथ दुर्व्यवहार करने की लंबी परंपरा रही है।हमारे यहां श्रृंगार , शक्ति या संयास में ढ़ालकर औरत को देखने आदत है,यह सामंती विचारधारा है।

राधा का चरित्र न तो श्रृंगारी है और न शक्ति-भक्ति से बना हुआ है।यह मूलतःमित्र चरित्र है।राधाभाव का मतलब है मित्रभाव।समान भाव।यह भाव हमारे संस्कार और आदतों में आना चाहिए।राधा इसलिए अच्छी लगती है क्योंकि वह हमारे सामंती स्त्रीबोध को चुनौती देती है।राधा इसलिए अच्छी नहीं लगती क्योंकि वो प्रेमिका है,भक्त है,शक्ति है।वह इसलिए अपील करती है क्योंकि वह सहचरी है,मित्र है। पौराणिक आख्यानों से लेकर साहित्य चर्चाओं तक सामंती भावबोध के फ्रेमवर्क में राधा को पेश करने की परंपरा रही है। मुझे राधा कभी सामंती फ्रेमवर्क में अच्छी नहीं लगी।

राधा के सामंती फ्रेमवर्क से पुंसवादी विचारधारा को लाभ मिला,स्त्री को मातहत बनाए रखने में मदद मिली।जबकि राधा का चरित्र तो आत्मनिर्भर चरित्र है।राधा अपने संदर्भ से जानी जाती है,श्रीकृष्ण या पुंस -संदर्भ से नहीं जानी जाती।श्रीकृष्ण के संदर्भ में राधा को देखना वस्तुतःपुंस -संदर्भ में,मातहत भाव में देखना है,यह राधा की वास्तव इमेज का विकृतिकरण है।

राधा स्वयंभू है,मित्र है। वह कुछ नहीं चाहती।न दौलत चाहती है,न शादी चाहती है ,न संतान चाहती है,वह तो बस मित्र भाव चाहती है।मित्र भाव की चरम आकांक्षा यदि किस चरित्र में मिलती है तो राधा है। राधा अपने बनाए संसार में रहती है,वह श्रीकृष्ण या अन्य किसी के बनाए संसार में नहीं रहती।राधा का सबक यह है कि स्त्री अपने संसार को रचे,आत्मनिर्भर संसार को रचे,मित्रभाव में रहे,मातहत भाव में न रहे।यही वजह है कि राधा मुझे हमेशा अपील करती है।



गुरुवार, 8 सितंबर 2016

´नवजागरण´ कहना एक फैशन है

           हमारे हिन्दी आलोचकों में ´´नवजागरण” या ´रैनेसां´ पदबंध और उसके आधार पर परिप्रेक्ष्य बनाकर आलोचना लिखने का जबर्दस्त आकर्षण है।भारत में ´रैनेसां´ हुआ है यह सभी हिन्दी आलोचक मानकर चलते हैं,अनेक हैं जो यह मानकर चलते हैं कि हिन्दी में बंगला की तरह नवजागरण हुआ है। मोटे तौर पर ´रैनेसां´ या ´नवजागरण´ का दौर 1814 से आरंभ होता है और 1919 प्रथम असहयोग आंदोलन तक रहता है। यानी राजा राममोहन राय के 1814 में कलकता में आकर रहने से लेकर महात्मा गांधी के राजनीतिक क्षितिज में छा जाने के दौर को नवजागरण कहते हैं। सवाल यह है क्या महान् विभूतियों के पदार्पण या राजनीतिक आंदोलन विशेष को ´नवजागरण´का आधार बनाकर देखना सही होगा ॽ क्या ´नवजागरण´ के चरित्र को इससे समझने में बुनियादी तौर पर मदद मिलेगी ॽ

´नवजागरण´के प्रसंग में सबसे सटीक सवाल तो सुशोभन सरकार ने ही उठाए हैं।उन्होंने ´रवीन्द्रनाथ टैगोर तथा बंगाल का नवजागरण´ निबंध में ये सवाल उठाए हैं,यह 1961 में लिखा निबंध है, उन्होंने लिखा है ´बंगाल की 19वीं शताब्दी की सचेतनता को नवजागरण कहना आजकल फैशन सा हो गया है जिसे पिछले दो दशकों में विशेष लोकप्रियता प्राप्त हुई है।अतः15वीं तथा 16वीं शताब्दियों के यूरोपीय नवजागरण से इसकी तुलना करना आवश्यक सा है।´ इस उद्धरण में ´फैशन´शब्द बहुत ही अर्थपूर्ण है। इसके बात वे लिखते हैं ´सचमुच दोनों में पर्याप्त भिन्नता है।सर्वप्रथम तो यह कि मूल नवजागरण से आया विचार-स्वातन्त्र्य उस युगान्तरकारी बहुमुखी पुनरूत्थान का एक पहलू था जिसमें यूरोप द्वारा दुनिया की खोज की गई,धर्म के क्षेत्र में भारी क्रांति आई,आधुनिक विज्ञान की नींव पड़ी,केन्द्रीकृत राज्यों का उदय हुआ,प्राचीन सामाजिक पद्धति विघटित हुई तथा व्यापार,उद्योग और कृषि पद्धतियों का पुनर्गठन हुआ।किंतु हमारे नवजागरण में उस प्रचंड प्रवाह या निहित शक्ति का दावा नहीं किया जा सकता।भारत में अंग्रेजी शासन ने प्राचीन व्यवस्था नष्ट करने का मार्ग प्रशस्त किया,किंतु न तो उसमें इतनी शक्ति थी और न उनका यह विचार ही था कि उस व्यवस्था के स्थान पर नए समाज की रचना हो।उदासीन एवं निष्क्रिय देशवासियों की तुलनात्मक दृष्टि से,इस प्रकार की पहल-शक्ति और उद्देश्य-दृढ़ता का सर्वथा अभाव था।´ इसके अलावा हमारे समाज में औपनिवेशिक गुलामी आई, निरूद्योगीकरण हुआ।यूरोप में आधुनिक पूंजीपतिवर्ग पैदा हुआ,वैसा आधुनिक पूंजीपतिवर्ग भारत में पैदा नहीं हुआ।यूरोप में औद्योगिक शहरों का जन्म हुआ,नई शहरी संरचनाओं का जन्म हुआ जिसमें पुराने किस्म की शहरी बसावट को नष्ट कर दिया गया।इसके विपरीत कोलकाता की पुरानी बसावट ज्यों की त्यों बनी रही।

सुशोभन सरकार ने यह भी लिखा ´अतः यह स्पष्ट है कि परिस्थितियों के कारण,यूरोपीय नवजागरण की तुलना में,बंगाल का नवजागरण सीमित,आंशिक तथा कुछ हद तक कृत्रिम है।किंतु इसका यह अभिप्राय नहीं कि हमारे जागरण का ऐतिहासिक महत्व नगण्य है।´ उन्होंने सही लिखा है ´बंगाल के जागरण की अनुचित प्रशंसा अथवा उसकी तिरस्कारपूर्ण अवहेलना दोनों ही ऐतिहासिक वस्तुपरकता के सिद्धांतों का उल्लंघन है।´

सुशोभन सरकार के नजरिए से यह बात साफ है ´नवजागरण´ पदबंध की किस तरह ´फैशन´की तरह 1940 के बाद भारतीय विमर्श में दाखिल होता है।यही वह दौर है जब पहलीबार हिन्दी में राहुल सांकृत्यायन ´नवजागरण´ पदबंध का इस्तेमाल करते हैं,बाद में रामविलास शर्मा आदि इस्तेमाल करते हैं । इनमें से अनेक ने 1857 को नवजागरण का प्रस्थान बिंदु माना।कुछ ने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के आगमन को ´नवजागरण´ नाम दे दिया।सवाल यह है इस युग को ´नवजागरण´ कहें या ´जागरण´ या ´राष्ट्रीय जागरण कहें ॽ मेरे ख्याल से ´राष्ट्रीय जागरण´ या ´जागरण´ कहना समीचीन होगा।



दूसरी सबसे बड़ी समस्या यह है कि क्या साहित्येतिहास के लिए ´नवजागरण´ नामकरण सही होगा ॽ इस युग की सामग्री के आधार पर कोई साहित्यिक नामकरण क्यों नहीं किया गया ॽ क्या सामाजिक इतिहास लेखन में प्रयुक्त नाम को साहित्येतिहास में आधार बनाना सही होगा ॽ ऐसा करना भी सही नहीं होगा। स्वयं शिशिर कुमार दास ने ´ए हिस्ट्री ऑफ इंडियन लिटरेचर´(1991)नामक दो खंडों में लिखे विशाल ग्रंथ में रैनेसां या नवजागरण नामकरण का कहीं पर भी उपयोग नहीं किया है,उलटे उन्होंने नवजागरण के नाम के उपयोग को लेकर सवाल उठाए हैं।18वीं सदी के बाद किस तरह के परिवर्तन हुए हैं उन परिवर्तनों को शिशिर कुमार दास ने विश्लेषित किया है। मूल बात यह कि ´नवजागरण´या ´रैनेसां´ पदबंध का प्रयोग लेखन की सुविधा के लिए होता रहा है।इसके साथ वे कारक कहीं पर भी नहीं दिखते जो यूरोप में थे।

बुधवार, 7 सितंबर 2016

वल्गर मार्क्सवाद के खतरे

        वल्गर आलोचना और वल्गर मार्क्सवाद का गहरा संबंध है।यह संयोग की बात है कि जब मार्क्सवाद की वल्गर धारणाएं सामने आई हैं उसी दौर में सबसे ज्यादा वल्गर साहित्यालोचना भी लिखी गयी है।दोनों में एक चीज साझा है और वह है सत्य की वस्तुगत सत्ता का अस्वीकार।वे जगत और कलाओं के यांत्रिक और इच्छित चित्रण और इच्छित व्याख्या पर जोर देते हैं।इच्छित आलोचना संसार रचने के लिए अपने पक्ष में मनमाने और अप्रासंगिक उद्धरणों का उपयोग करते हैं जिससे यथार्थ को और भी आँखों से ओझल कर सकें।यह काम आलोचना बचाने और आलोचना संवारने के नाम पर करते हैं।इससे आलोचना संवरती नहीं है बल्कि पसर जाती है।

बेहतर आलोचक वह है जो आलोचना के सारवान सवालों को उठाए और उन पर केन्द्रित होकर बहस सृजित करे।बहस सृजित करने के लिए पुराने प्रचलित आलोचना के ढाँचे और साँचों से बाहर निकलने की जरूरत है।नया पाठक सीधे विषय पर केन्द्रित लेखन पढ़ना चाहता है ,वह आलोचना को आलोचना के रूप में देखना चाहता है।वह आलोचना और साहित्य के सुसंगत संबंध को देखना चाहता है।वह समस्या पर केन्द्रित विवाद देखना चाहता है।वह महाख्यान नहीं सुनना चाहता।वह हिमायत में दिए गए उद्धरणों को नहीं ,समस्या के विश्लेषण को देखना चाहता है।

आज के जमाने में इमेज,प्रक्रिया और ज्ञान के विकास से जुड़े पहलुओं पर केन्द्रित होकर विचार करने की जरूरत है।इस पक्ष की ओर सबसे पहले लेनिन ने ध्यान खींचा था।आप यदि विश्लेषण करते हुए इकतरफा ढ़ंग से विवेचन करते हैं तो भाववादी पद्धति के शिकार हो जाते हैं।चाहे आपका नजरिया कुछ भी हो।इकतरफा ढ़ंग से सोचने और लिखने की कला बुर्जुआ कला है,इसका मार्क्सवाद से कोई लेना-देना नहीं है।जब आप अपने विषय के प्रति अंधभाव से देखने और लिखने लगते हैं तो बुर्जुआ विचारधारा के नजरिए से देखने लगते हैं और संयोग की बात है अरूण माहेश्वरी की किताब ´आलोचना के कब्रिस्तान से´किताब में यह प्रवृत्ति ठोस रूप में अभिव्यक्त हुई है।

मैं यहां सिर्फ एक ही समस्या की ओर ध्यान खींचना चाहूँगा। अरूण माहेश्वरी की ´अध्यापकीय शैली´ और ´अध्यापकीय आलोचना´की अपने लेखों में कई जगह तीखी आलोचना की है और उसकी व्यर्थता की ओर ध्यान खींचा है।यह सच है साहित्यालोचना का एक अंश ऐसा भी है जिसमें अस्वीकार करने लायक बहुत कुछ है लेकिन हिन्दी के संदर्भ में यह भी सच्चाई है कि आलोचना का अधिकांश हिस्सा वही है जिसे अध्यापकों ने ही लिखा है।खासकर प्रगतिशील और उदार आलोचना के निर्माण में अध्यापकों की बहुत बड़ी भूमिका रही है।

हिन्दी आलोचना का सबसे मूल्यवान वही है जो अध्यापकों ने लिखा है।इतिहास से लेकर आलोचना तक इन अध्यापकों का लेखन फैला हुआ है।मैं अरूण माहेश्वरी के नजरिए का एक नमूना देना चाहूँगा। लिखा है ´जहां तक शुक्लजी का संबंध है,उनकी इतिहास-दृष्टि के साथ कोई निश्चित विश्व-दृष्टि जुड़ी हुई थी,यह दावा तो उनके बड़े से बड़े प्रशंसक भी नहीं करते।´यह निष्कर्ष तथ्य और सत्य से कहीं से भी मेल नहीं खाता।इसी तरह रामविलास शर्मा,नंददुलारे बाजपेयी आदि के बारे में भी अरूण माहेश्वरी ने आत्मगत निष्कर्ष निकाले हैं। आलोचना का यह तरीका स्वयं में समस्यामूलक है,इससे यह पता चलता है आलोचना की किसी भी पद्धति और परिप्रेक्ष्य में अरूण माहेश्वरी की कोई दिलचस्पी नहीं है।साहित्य समीक्षा को बिना किसी आलोचना पद्धति के सहारे लिखने के कारण इस तरह के मनमाने निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।

मैं पहले अरूण माहेश्वरी की किताब पर लिखने से बच रहा था लेकिन उसने जिस तरह प्रतिवाद में लिखा है उसने मजबूर कर दिया है कि उसकी उठाई समस्याओं पर वस्तुगत ढ़ंग से बात की जाय।पहली बात यह कि भारत में नवजागरण जैसी कोई परिघटना घटित नहीं हुई है।इसलिए नवजागरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य मूल्यांकन और पुनर्मूल्यांकन करने से बचना चाहिए।कम से कम भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से लेकर प्रेमचंद तक निराला से लेकर य़शपाल तक के लेखन में कहीं पर भी नवजागरण पदबंध नहीं आता।इनमें से कोई भी लेखक नवजागरण पदबंध का प्रयोग नहीं करता।यहां तक कि बंगाल –महाराष्ट्र के राष्ट्रीय जागरण को नवजागरण नहीं कहा जा सकता,इसमें यूरोप नवजागरण से मिलते-जुलते न तो तत्व हैं और न परिस्थितियां ही हैं। भारत में नवजागरण आलोचकों की इच्छित कल्पना का परिणाम है,इसका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है।

मार्क्सवाद के नजरिए से यथार्थ की वस्तुगत सत्ता और उसकी साहित्यिक अभिव्यंजना का मूल्यांकन होना चाहिए। न कि इच्छित धारणा और चुनिंदा यथार्थ के बीच के संबंध का। अभी भी साहित्यालोचना में अनंत अनसुलझी समस्याएं पड़ी हुई हैं। दिलचस्प बात यह है 19वीं शताब्दी के विमर्श के जरिए हम बहुत कुछ नया जान पाए हैं लेकिन अभी भी बहुत बड़ा यथार्थ ऐसा है जिसे हमने कभी जानने या उद्घाटित करने की कोशिश नहीं की है।यही दशा मध्यकालीन समाज की है।

मार्क्सवादी आलोचक की चिन्ताएं दो स्तरों पर काम करती हैं,पहला,जो मूल्यांकन किया गया है वह उसके सारवान अंशों को ग्रहण करता है ,दूसरा,यथार्थ के अदृश्य पहलुओं को सामने लाता है।अरूण माहेश्वरी सिर्फ अपनी आलोचना में आलोचकों ने जो लिखा है उसको अस्वीकार करने और खारिज करने में ही सारी शक्ति लगा देते हैं।इस तरह के लेखन का मार्क्सवाद से कोई संबंध नहीं है।

19वीं शताब्दी का राष्ट्रीय जागरण सार्वभौम परिघटनाओं और संवृत्तियों को अपने अंदर समेटे हुए है। उसमें सार्वभौम अंतर्विरोध भी हैं।उसका जितना महत्व है,उसके अंतर्विरोधों का भी उतना ही महत्व है।उसके मिश्रित और शुद्ध रूपों का भी महत्व है।यहां तक कि उसके अधूरेपन का भी महत्व है।हमें उसके विकास के सामाजिक गति के नियमों की खोज करनी चाहिए।हमें यह काम करते समय मूल्य-निर्णय करने,खारिज करने,तिरस्कार करने आदि से बचना चाहिए।अफसोस है कि अरूण माहेश्वरी की उक्त किताब में यह चीज हर निबंध में है।

हमारे लिए फिनोमिना महत्वपूर्ण है,आलोचक नहीं।हमारे लिए समस्या महत्वपूर्ण है आलोचक महत्वपूर्ण नहीं है,उसका पेशा महत्वपूर्ण नहीं है।आलोचना की प्रत्येक पद्धति में अधूरापन है,उसकी सीमाएं,इसके बावजूद उसमें से ही नई संभावनाओं के द्वार खुलते हैं।आचार्य रामचन्द्र शुक्ल,रामविलास शर्मा,हजारी प्रसाद द्विवेदी,मुक्तिबोध,नामवर सिंह के लेखन की सीमाएं हैं,उनके मूल्यांकन में बहुत कुछ ऐसा है जो छूट गया लगता है लेकिन बात वहीं से शुरू होनी चाहिए।वल्गर मार्क्सवाद इस सबको देख ही नहीं पाता।

जेएनयू में आइसा-एसएफआई जिताओ

       मैं नहीं जानता कि इस समय जेएनयू छात्रसंघ के चुनाव में किन मुद्दों पर बहस हो रही है।लेकिन एक बात तय है कि जेएनयू के छात्र आंदोलन के सामने गंभीर संकट है।यह संकट ´वैचारिक´ज्यादा है। फरवरी जेएनयू आंदोलन के बाद जो व्यापक छात्र एकता लोकतांत्रिक सवालों और लोकतांत्रिक हकों पर निर्मित हुई है,वह इसबार के चुनाव में अपनी पहली बड़ी परीक्षा से गुजरेगी।सुखद बात यह है कि ´देशद्रोह´के मसले पर हाल ही में सुप्रीमकोर्ट ने जो फैसला दिया है उससे जेएनयू छात्र आंदोलन को बहुत बड़ी मदद मिलेगी।हमने फेसबुक पर पहले देशद्रोह के प्रसंग में जो कुछ लिखा था सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने उसको अपने नए आदेश से पुष्ट किया है।किसी भी किस्म की नारेबाजी,सरकार के खिलाफ आलोचना आदि देशद्रोह नहीं है।देशद्रोह तब बनता है जब हिंसा की जाय या फिर हिंसा के लिए उकसाया जाय।महज भाषण या लेखन को हिंसा नहीं कहते,देशद्रोह नहीं कहते।

जेएनयू छात्र आंदोलन की दूसरी सबसे बड़ी उपलब्धि है जेएनयू प्रशासन के द्वारा जिन छात्रनेताओं और छात्रों के खिलाफ फरवरी आंदोलन के संदर्भ में अनुशासनात्मक कार्रवाई की थी उसको लागू करने पर अदालत ने रोक लगा दी है।जबकि इस अनुशासनात्मक कार्रवाई के जरिए वि वि प्रशासन अपने एक्शन को वैध ठहराने की कोशिश कर रहा था।ये दो बड़ी कानूनी जीत हासिल करके जेएनयू का छात्र आंदोलन फिर से नई परीक्षा के लिए तैयार खड़ा है।

इस समय जमीनी हकीकत क्या है मैं नहीं जानता लेकिन इतना कहना चाहूंगा कि एसएफआई-आईइसा के संयुक्त मोर्चे के प्रत्याशियों को हर हालत में जिताना चाहिए।यह वह मोर्चा है जिसने सभी छात्रों को एकजुट रखकर जेएनयू प्रशासन और मोदी सरकार की छात्र विरोधी,लोकतंत्र विरोधी नीतियों का जमकर विरोध किया और उपरोक्त दो बहुत बड़ी कानूनी जीत चुनाव के पहले हासिल करके छात्र आंदोलन के इतिहास में नया कीर्तिमान स्थापित किया है।

केन्द्र सरकार के दमन के खिलाफ जेएनयूछात्रसंघ की उपरोक्त दो कानूनी विजय असाधारण हैं,इस जीत की हर हालत में रक्षा की जानी चाहिए।जेएनयू प्रशासन पूरी शक्ति लगाकर छात्रों को बांटने की कोशिश करेगा।तरह-तरह के नए प्रपंच खड़े किए जाएंगे।इन सबसे बचने की जरूरत है। एक मजबूत वामपंथी छात्र राजनीति ही जेएनयू में छात्रों के व्यापक हितों की रक्षा कर सकती है।मौजूदा आइसा-एसएफआई मोर्चे ने विगत फरवरी आंदोलन के दौरान जिस परिपक्वता,कौशल और राजनीतिक सूझबूझ का परिचय देकर मोदी सरकार और उसके गुर्गों को राजनीतिक तौर पर परास्त किया है वह हम सबके लिए गौरव की बात है।जेएनयू के छात्रों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे आइसा-एसएफआई मोर्चे बड़ी संख्या में वोट देकर दिताएं।क्योंकि ये लोग आपके संघर्ष के साथी है,संघर्ष के नायक हैं।



जेएनयूएसयू के मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व की जीत को किसी भी तरह के द्ग्भ्रमित नारों और राजनीतिक मंचों के कारण कम नहीं किया जाना चाहिए।जेएनयू को वाम चाहिए।वाम छात्र राजनीति फौलादी एकता से बनी है और विभिन्न संघर्षों में उसकी परीक्षा हुई है और हर परीक्षा में वह खरी उतरी है। हमें उम्मीद है कि इसबार के छात्रसंघ के चुनाव में आईएसा-एसएफआई मोर्चे को भारी बहुमत से छात्र समुदाय जीत दिलाएगा।

मार्क्स-हेगेल के परे जाओगे तो रवीन्द्र को पाओगे

         रवीन्द्रनाथ टैगोर को अपना बनाने के चक्कर में आप यदि उनको मार्क्सवादी बनाएंगे तो दिक्कत होगी।हजारी प्रसाद द्विवेदी ने रवीन्द्र को रवीन्द्र रहने दिया।रवीन्द्र के विचार और अनुभूतियां खांटीं भारतीय हैं।रवीन्द्र की मूल भावभूमि है मानवीय अनुभूति।उसे आप मार्क्स,हेगेल,कांट,देरिदा के जरिए नहीं पा सकते।यही वह प्रस्थान बिंदु हैं जहां से आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने रवीन्द्रनाथ टैगोर से रस प्राप्त किया
।रवीन्द्र का विश्वदृष्टिकोण प्रमुख है।हम य़दि वह ग्रहण करते हैं तो शायद वे हमारे लिए आज भी प्रासंगिक हैं।इन दिनों प्रगति पर बहुत बहस है।रवीन्द्रनाथ टैगोर के लिए इसका क्या अर्थ है ॽ
साहित्य और समाज के प्रसंग में ´प्रगति´ का सवाल बेहद महत्वपूर्ण है।इसकी तरह-तरह की परिभाषाएं हो रही हैं।आज प्रगति का मतलब है सड़क,बिजली और पानी।लेकिन रवीन्द्रनाथ के जमाने में प्रगति का अर्थ था ´महान् परिवर्तनों की ओर अग्रसर होना´।एक जमाने में साम्यवाद की ओर अग्रसर होने को प्रगति कहा गया। इस दृष्टिकोण से अलगाते हुए रवीन्द्रनाथ के लिए प्रगति का अर्थ है ´नूतन दृष्टिकोण´।रवीन्द्रनाथ ने सामाजिक उत्पीड़न और रूढ़िवादिता के खिलाफ जमकर लिखा है, इस तरह की रचनाओं का प्रगति की धारणा से कोई संबंध नहीं है।सुशोभन सरकार के अनुसार ´सच तो यह है रवीन्द्रनाथ टैगोर का किसी आमूल परिवर्तनवादी कार्यक्रम में; किसी प्रशासनिक संस्था अथवा तंत्र में कोई निश्चित विश्वास न था।´

सुशोभन सरकार के अनुसार ´अंततःहम यही कहेंगे कि टैगोर की दार्शनिक आस्था उस विचार से मेल नहीं खाती जिसे हम आज ´प्रगति´कहते हैं।उनमें केवल भौतिकवाद विरोधी दार्शनिक आदर्शवाद ही नहीं पाया जाता बल्कि उनके चिंतन का सार-तत्व व्यक्तित्व में विश्वास करने में निहित है।उन्होंने मानव के सर्वतोमुखी विकास के आदर्शों की खोज की।उनकी ´दृष्टि´में ´´मनुष्य का धर्म´´स्वतःधर्म का आधार है। उनके अनुसार व्यक्तित्व का विकास ही सभ्यता का तात्पर्य है,जो आज की औद्योगिक प्रवृत्ति से आच्छन्न है।आज मशीन की उपासना के पीछे हमारा विषाद तथा थकावट भरी पड़ी है।कदाचित यही भाव´रक्त करवी´ के प्रतीक के रूप में निहित है।कवि ने व्यक्तित्व की धारणा में प्रगति को अंतर्निहित माना है।किंतु आज के युग में विशाल जनसमूह को ध्यान में रखते हुए व्यक्तिगत विकास की कल्पना अप्रासंगिक है।अतएव व्यक्तित्व को लक्ष्य बनाकर सामाजिक सुधार का विचार संशयपूर्ण हो जाता है।व्यक्तिगत विकास को वास्तविक मूर्त रूप देने के पूर्व हमें अपने सामाजिक ढांचे को बदलना होगा।´

यह सच है टैगोर ने बंगला भाषा,साहित्य,काव्यशैली और जनमानस पर अपनी रचनाओं के जरिए व्यापक प्रभाव डाला।नए परिवर्तनों को जन्म दिया।इसी प्रसंग में यह सवाल उठा कि टैगोर के लेखन से किसतरह की संस्कृति प्रभावित हुई और किस तरह की संस्कृति ने जन्म लिया ॽ इस प्रसंग में सबसे पहले हमें इस सवाल पर विचार करना होगा कि बुर्जुआ संस्कृति का टैगोर युगीन परिदृश्य किस तरह का था ॽटैगोर ने जिन नए परिवर्तनों को जन्म दिया वे परिवर्तन किस तरह के थे ॽ उस जमाने में बुर्जुआ संस्कृति भयाक्रांत थी।भविष्य के भय से त्रस्त थी।इसके कारण बुर्जुआ संस्कृति में अपंग भाव था।टैगोर ने इस अपंग और भयाक्रांत भावबोध के खिलाफ निडर होकर लिखा,वे पूर्व धारणाओं से टकराने से डरते नहीं थे,भविष्य कों लेकर भी संशय में नहीं थे।दूसरा संस्कृति के संकुचित दायरों को उन्होंने हमेशा तोड़ा।उन दिनों बुर्जुआजी संस्कृति रह-रहकर सीमित दायरों की ओर लौट रही थी।एक खास किस्म का संकीर्णतावाद व्यक्त हो रहा था,टैगोर ने इसे खुली चुनौती दी।यह चुनौती भाषा,शैली और सौंदर्यानुभूति के स्तर पर दी गयी।

टैगोर ने ´रूस के पत्र´में बुर्जुआ व्यवस्था और संस्कृति के ह्रासशील पहलुओं की चर्चा करते हुए लिखा है ´आधुनिक राजनीति की प्रेरणा-शक्ति वीर्याभिमान नहीं,धन का लोभ है-यह तत्त्व हमें ध्यान में रखना ही होगा।´टैगोर ने पूंजीवाद को ´वैश्ययुग´ की संज्ञा दी है और इसकी आदिम भूमिका को ´दस्युवृत्ति´ कहा। यह भी लिखा ´आज के युग में लोभ-प्रवृत्ति ने समाज को आलोड़ित करके उसके सारे बन्धन शिथिल और विच्छिन्न कर दिए हैं।´ टैगोर को रूस इसलिए अच्छा लगा क्योंकि वहां के समाज ने लोभ का तिरस्कार किया।उन्होंने लिखा ´रूस में जब मैंने लोभ को तिरस्कृत देखा,मुझे इतना आनन्द हुआ जितना शायद किसी अन्य देश के निवासी को न होता।लेकिन मूल तथ्य को भुलाया नहीं जा सकता;केवल भारत में ही नहीं,समस्त पृथ्वी पर जहाँ भी विपत्तियों का जाल फैलाया गया वहाँ लोभ की ही प्रेरणा ने काम किया है-लोभ के साथ संशय रहे हैं,और लोभ के पीछे अस्त्र-सज्जा रही है,मिथ्या ,निष्ठुर राजनीति रही है।´



बुर्जुआ व्यवस्था का चरमोत्कर्ष तानाशाही में अभिव्यक्त हुआ है,इस प्रवृत्ति की आलोचना करते हुए टैगोर ने लिखा ´डिक्टेटरशिप का प्रश्न भी उठता है।मैं व्यक्तिगत रूप से किसी भी विषय में नेताशाही पसन्द नहीं करता।क्षति या दंड का भय दिखाकर या भाषा-भंगिमा –व्यवहार से अपनी जिद व्यक्त करके मत-प्रचार का मार्ग प्रश्स्त करने की चेष्टा मैं अपने कर्मक्षेत्र में कभी नहीं कर सकता।इसमें सन्देह नहीं कि एक-नायकत्व में बहुत-सी विपत्तियाँ हैं।उसकी एकरूपता और नित्यता अनिश्चित होती है; चालकों और चलितों की इच्छा में योग-साधन न होने से क्रान्ति की संभावना सदा बनी रहती है।इसके अलावा किसी दूसरे से चलाए जाने का अभ्यास चित्त और चरित्र को दुर्बल बनाता है।एकनायकत्व जहाँ भी हो-शास्त्र में,गुरू में,या राष्ट्र-नेता में,उससे मनुष्यत्व की हानि होती है।´

सोमवार, 5 सितंबर 2016

आलोचना और इतिहास का संकट

        हिन्दी आलोचना संकट में है,इसमें दो राय नहीं हैं।अरूण माहेश्वरी ने ´आलोचना के कब्रिस्तान से´अपनी नई किताब में अपने तरीके से इस संकट की ओर ध्यान खींचा है। इस किताब में आलोचना के क्षय के अनेक रूपों का जिक्र आया है। इस किताब में सात लेख हैं।ये सातों लेख मूल्यवान हैं। लेकिन समस्या यह है क्या ´खीझ´या ´गुस्सा´ या ´धिक्कार´ से आलोचना का विकास संभव है ॽयह चीज बार-बार अरूण माहेश्वरी के नजरिए में अभिव्यक्त हुई है।अरूण मेरा सबसे अच्छा मित्र है।हम दोनों एक-दूसरे को करीब से जानते हैं ।मैं आम तौर पर मित्रों की किताब पर आलोचना लिखने से परहेज करता हूँ।लेकिन अरूण का आग्रह था कि मैं उसकी किताब पर कुछ कहूँ।अरूण की आलोचना के क्षय को लेकर चिन्ताएं जेनुइन हैं।लेकिन वो जिस पद्धति के जरिए उनको हल करना चाहता है.वह सही नहीं है। अरूण की अच्छी बात यह है वह निडर होकर धारावाहिक ढंग से लिखता है।उसके इस धारावाहिक लेखन का परिणाम है प्रस्तुत किताब। वह जब लिखता है तो एकायामी होकर राजनीतिक नजरिए से लिखता है।उसकी किताब पढ़ते हुए कुछ सवाल मेरे मन में उठे हैं जिनको मैं शेयर करना चाहता हूँ।

आलोचना कोई दुर्वासा की भाषा नहीं है।यह वकील का तर्कशास्त्र नहीं है। विरोधी को ध्वस्त करने का नाम आलोचना नहीं है। आलोचना संवाद-विवाद और शिरकत है।आलोचना बिना पैमाने या प्रतिमान के लिखी जाएगी तो उसकी कोई पहचान नहीं बनेगी।आलोचना कच्चा माल नहीं है,वह निष्पन्न विधा है।उसके सभी रास्ते खुले होते हैं,वह कोई बंद मार्ग नहीं है।आलोचना साहित्य सहचर है।आलोचना लिखते समय संवाद और नए की खोज का सहारा लेना चाहिए।आलोचना साहित्यिक कृति की जीरोक्स कॉपी नहीं है। आलोचना के लिए पद्धति और परिप्रेक्ष्य का होना बेहद जरूरी है।निष्कर्ष निकालने,जजमेंट देने,मूल्य-निर्णय आदि से आलोचना में बचना चाहिए.आलोचना निष्कर्ष नहीं है।आलोचना तो नई समस्या का आरंभ है।आलोचना को ´गुस्सा´,´क्षोभ´,धिक्कार´ ,´तिरस्कार´ की भाषा से बचना चाहिए।

यह सच है हिन्दी का मौजूदा आलोचना परिदृश्य बेहद पीड़ादायक है।लेकिन आलोचना ´पीड़ा´ नहीं है, वह पीड़ा की सर्जनात्मक अभिव्यक्ति है।आलोचना जब सर्जनात्मक अभिव्यक्ति बनती है तो नई विधागत संरचना में अपने को तब्दील कर लेती है।शब्दजाल से अपने को मुक्त कर लेती है।लेकिन यदि आलोचना पद्धति और परिप्रेक्ष्य के बिना लिखी जाएगी तो मात्र शब्दजाल बनकर रह जाती है।हिन्दी समीक्षा फिलहाल शब्दजाल में फंसी नजर आ रही है।



हिन्दी आलोचना की दो बड़ी समस्याएं हैं ,पहली है ,वाम राजनीति और वाम विरोधी राजनीति, हिन्दी में इन दोनों के नजरिए से बड़े पैमाने पर आलोचना लिखी गयी,इस तरह की आलोचना का न तो राजनीतिक महत्व है और न साहित्यिक महत्व है,हां,इस तरह की आलोचना का प्रचार महत्व जरूर है।इस नजरिए से देखें तो हिन्दी में प्रचार के लिए आलोचना खूब लिखी गयी है।आलोचना जब प्रचार के लिए लिखी जाती है तो उसकी नजर सिर्फ अंतर्वस्तु और व्याख्या पर होती है।इस क्रम में आलोचना के मानदंड और परिप्रेक्ष्य के सवाल बहुत दूर छूट जाते हैं।इस तरह की आलोचना ´वर्तमान´केन्द्रित और सांगठनिक-राजनतिक उपयोगितापरक होती है। जबकि आलोचना को इससे बचना चाहिए।

´पञ्चतंत्र´ और उससे जुड़े सवाल-

इसी तरह आलोचना लिखते समय ´अनैतिहासिकता´ और ´ऐतिहासिकता के सरलीकरणों ´से बचने की जरूरत है।मैं यहां नमूने के तौर पर अरूण माहेश्वरी के लेख ´रवीन्द्रनाथ ,छायावाद और हिन्दी आलोचना´का जिक्र करना चाहता हूँ।इसमें पंचतंत्र की कहानियों के बारे में जिस तरह का निष्कर्ष निकाला गया है, उससे बचना चाहिए।बतर्ज माहेश्वरी ´पञ्चतंत्र´ की कहानियां ´ आज भी ज्ञान के शॉर्टकट की तलाश में लगे लोगों को´ अपनी ओर खींचती हैं , यह ´कान में मंत्र फूंकने वाला´साहित्य है। इस तरह के मूल्यांकन तुलनात्मक तौर गैर जरूरी हैं। चरमोत्कर्ष देखें ´लेकिन गौर करने की बात यह है कि पञ्चतंत्र की ये कहानियां जो खास प्रयोजन के लिए रची गईं,कभी भी पाणिनी के व्याकरण,चाणक्य के अर्थशास्त्र और वात्स्यायन के कामशास्त्र का स्थान नहीं ले पाईं।´ मेरे ख्याल से ´पंचतंत्र´की कहानियों का यह अनैतिहासिक विवेचन है।

प्राचीनकालीन सर्जनात्मक साहित्य के मूल्यांकन में हमें कार्ल मार्क्स के ´कला और समाज के विषम संबंध का सिद्धान्त´और मिखाइल बाख्तिन के महाकाव्य संबंधी आलोचनात्मक दृष्टिकोण की मदद लेनी चाहिए।

ऐतिहासिक रूप में देखें तो ´पञ्चतंत्र´ की कहानियां हमारे प्राचीन समाज की पशु-कथा परंपरा का अंग हैं। इनको किसी भी तरह के वर्गीकरण में बांधने से बचना चाहिए।उल्लेखनीय है ऋग्वेद से पशु-कथा कहने की परंपरा चली आ रही है।इनका उपनिषदों में भी उल्लेख मिलता है।बाद में महाभारत और फिर पंचतंत्र में पशु-कथाएं मिलती हैं।यह असल में मनुष्य की आदतों के पशुओं में स्थानान्तरण की समस्या की ओर ध्यान खींचती हैं।ये महज उपदेशात्मक कथाएं नहीं हैं।बल्कि इनमें जानवरों के कर्म को मनुष्यों को उपदेश देने के साधन के रूप में इस्तेमाल किया गया है।उपदेश की पद्धति महज सरलता से ग्रहण कर लेने के लिहाज से इस्तेमाल की गयी है।लेकिन पंचतंत्र की कहानियां हमारी प्राचीन कथा का कलात्मक रूप हैं।कहने का आशय है कि पशु कथा की परम्परा पहले से चली आ रही थी जिसे पंचतंत्र ने अपने तरीके से नई कलात्मक ऊँचाई पर पहुँचाया।पशु कथाओं का पतंजलि,पाणिनी आदि के यहां भी प्रयोग मिलता है।इस तरह की कहानियों में अधिकांश कहानियों में पुनर्जन्म की धारणा को प्रचारित करने की कोशिश की गयी है।यह काम बौद्धों ने भी खूब किया है। वे पशु और मनुष्य के निकट सम्बन्ध को चित्रित करने के बहाने पुनर्जन्म की कल्पना को पेश करते थे।वे लोग पिछले जन्मों में बुद्ध और उनके समकालीन महापुरूषों की महत्ता एवं उनके कार्यों का उदाहरण देने के लिए पशुओं की कथाओं का उपयोग करते हैं।पाणिनी,पतंजलि आदि के यहां पशु कथाओं का जिस तरह जिक्र मिलता है,उससे यह अंदाजा लगा सकते हैं कि पुराने जमाने में पशु कथाओं को साहित्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता था।पंचतंत्र की कहानियों में कला की कमी है,यह सर्व-स्वीकृत तथ्य है।इन कहानियों में अंशतः कहानी, अंशतः व्यावहारिक जीवन के आदर्श या सिद्धांत,भले ही वे नैतिक दृष्टि से उच्चतर न हों,का चित्रण मिलता है।पशुकथाएं मूलतःअर्थशास्त्र और नीतिशास्त्र से संबंधित हैं। ये धर्मशास्त्र से संबंधित न होकर व्यावहारिक राजनीति में मनुष्य के कर्तव्यों,दैनन्दिन जीवन और पारस्परिक संबंध के अनुष्ठान से सम्बन्धित हैं।चूंकि पंचतंत्र की कहानियों को सुनाने वाले ब्राह्मण थे अतः उनमें धर्मशास्त्र का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है।वे आम जनता के लिए नहीं, राजा के लड़कों के लिए लिखी गयी कहानियां हैं।ये कहानियां संस्कृत में लिखी गयीं अतःयह साफ है कि इनका लक्ष्य राज परिवार और उनके लड़के ही थे।

´पञ्चतंत्र´ के मूल स्वरूप और उसके स्रोत को लेकर संस्कृत साहित्य के आलोचकों में गहरा विवाद है। सवाल यह है ´पंचतंत्र´ के नाम से हम जिस किताब को जानते हैं वह कौन सी किताब है ॽ उसका लेखक कौन है और कहां का निवासी है ॽउल्लेखनीय है 570 ईसा पूर्व ´पंचतंत्र´का पहलवी रूपान्तर अब लुप्त हो चुका है।उसका एक सीरियन रूपान्तर और एक अरबी रूपान्तर जरूर मिलता है।इसके अलावा गुणाढ्य की ´बृहत्कथा´ में समाविष्ट रूपान्तर मिलता है।जिसके आधार पर 11वीं सदी में सोमदेव ने ´कथासरित्सागर´ और क्षेमेन्द्र ने ´बृहत्कथामञ्जरी´की रचना की।इसके अलावा ´तन्त्राख्यायिक´ नाम से दो पाठान्तर मिलते हैं।दो जैनी संस्करण भी मिलते हैं।ब्युहलर,कीलहॉर्न ने भी बालकों के लिए उपयोगार्थ सरल ´पञ्चतंत्र´तथा पूर्णभद्र के ´पञ्चतंत्र´का उल्लेख भी मिलता है।इसके अलावा दक्षिणी ´पञ्चतंत्र´ ,नेपाली ´पंञ्चतंत्र´ के रूप भी उपलब्ध हैं।

´पञ्चतंत्र´ का अर्थ क्या है ॽ इसका संबंध पाँच प्रतिपाद्य विषयों से संबंध है। मूलपाठ कौन सा है इसके बारे में ठीक से कुछ भी कहना संभव नहीं है।लेकिन ´पंञ्चतंत्र´के लेखक को महाभारत के बारे में अच्छी जानकारी थी यह पता जरूर चलता है. महाभारत में ´दीनार´का प्रयोग मिलता है यही प्रयोग ´पञ्चतंत्र ´में भी मिलता है।इसके आधार पर इसकी रचना 200ईसापूर्व हुई होगी। इसके लेखक के रूप में विष्णुशर्मा का नाम आता है।यह नाम विवाद के घेरे में है। कुछ लोग इसे कल्पित नाम मानते हैं कुछ कहते हैं इस नाम की उपेक्षा न की जाय। फिर भी यह नाम प्रचलन में है।दक्षिण के ´पञ्चतंत्र´में उल्लिखित बातों के अनुसार विष्णुशर्मा दक्षिण के महिलारोप्य या मिहिलारोप्य के राजा अमरशक्ति के पुत्रों को कहानियाँ सुनाया करते थे.इसके अलावा तन्त्राख्यिक तथा जैन पाठान्तर में भी ऋष्यमूक नामक पर्वत का उल्लेख है जो दक्षिण में ही है। हेर्टेल का विचार है ´पञ्चतंत्र´कश्मीर में रचा गया,क्योंकि मूल पुस्तक में न तो व्याघ्र का और न हाथी का ही कोई स्थान है,जबकि ऊँट ज्ञात है। कहने का आशय यह कि ´पंञ्चतंत्र´कहां रचा गया इस सवाल को खुला ही रखें तो बेहतर होगा।

रवीन्द्रनाथ से जुड़े सवाल – रवीन्द्रनाथ पर हिन्दी आलोचकों के नजरिए की आलोचना करते हुए अरूण माहेश्वरी ने ´संतुलन´ से काम नहीं लिया है। आलोचना का काम ´अर्द्ध सत्य´प्रसारित करना नहीं है। आलोचना का काम है सत्य और यथार्थ के बीच संतुलन से पैदा करना। ´संतुलन´ किसी भी ऐतिहासिक विश्लेषण का सार है।रवीन्द्रनाथ का हजारीप्रसाद द्विवेदी पर क्या असर पड़ा इसको समझने के लिए द्विवेदीजी की समग्र इतिहासदृष्टि को केन्द्र में रखकर देखना समीचीन होगा।द्विवेदीजी के बारे में अरूण माहेश्वरी के निष्कर्ष गलत और अनैतिहासिक हैं।रवीन्द्रनाथ के असर को यदि देखना है तो ´हिन्दी साहित्य भूमिका´को देखना समीचीन होगा।यह शांतिनिकेतन का ही असर था कि द्विवेदीजी ने ´भारतीय साहित्य´के परिप्रेक्ष्य में ´हिन्दी साहित्य के इतिहास को देखने पर बल दिया।पहलीबार क्षेत्रीयदृष्टिकोण से साहित्येतिहास को बाहर निकाला,दूसरी परम्परा का वह प्रस्थान बिन्दु है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि द्विवेदीजी ने इतिहास में काल-विभाजन को गैर जरूरी माना।वे रवीन्द्रनाथ की तरह ही इतिहास के अविकल प्रवाह को देखने पर जोर देते हैं।तीसरा महत्वपूर्ण पहलू है मानवतावाद। इतिहासदृष्टि और आलोचना में मानवतावाद की प्रतिष्ठा करने वाले वे पहले हिन्दी आलोचक हैं। ये सारी चीजें रवीन्द्रनाथ के प्रभाव का ही परिणाम हैं।



रवीन्द्रनाथ पर विचार करते हुए हमें इस पहलू पर नजर रखनी चाहिए कि रवीन्द्रनाथ में अनेक अंतर्विरोधी चीजें भी हैं।समस्या यह है अंतर्विरोधी चीजों से पैदा हुई समस्याओं को हम कैसे हल करते हैं ॽ मसलन्, प्रगति,स्वदेशी आंदोलन,राष्ट्रवाद,धर्म,उपनिषद,बुर्जुआ समाज,बुर्जुआ संस्कृति,समाजवाद आदि के प्रति रवीन्द्रनाथ के नजरिए को नए सिरे से विश्लेषित करने की जरूरत है।

शिक्षक के रूप में फेसबुक

       गुरू वह जो सम्प्रेषक बनाए।फेसबुक इस अर्थ में हम सबका गुरू है ,उसने हम सबको कम्युनिकेटर बनाया है।कम्युनिकेशन की कलाओं से लैस किया है। जो लोग फेसबुक पर सक्रिय है उन सबका अप्रत्यक्ष रूप में फेसबुक गुरू है।यह हमारी दिमागी हरकतों का नियंत्रक और नियामक है।

हर मीडियम हमें सिखाता है।लेकिन हम उसे उपकरण से अधिक महत्व नहीं देते।वास्तविकता यह है आधुनिक युग में मीडियम हमारे गुरू हैं। पहले हम शिक्षक से सीखते थे लेकिन औद्योगिक क्रांति के बाद शुरू हुई तकनीकी क्रांति ने मीडियम को शिक्षक और छात्र के बीच में लाकर खड़ा कर दिया है।हम देखें फिल्म ने एक मीडियम के रूप में समाज को किस तरह सिखाया-पढ़ाया और सजाया-संवारा है।उसी तरह फेसबुक ने लेखन और अभिव्यक्ति के तौर-तरीकों के संबंध में हमारी नए सिरे से शिक्षा की है।

मैंने निजी तौर पर मीडियम के तौर पर फेसबुक से बहुत कुछ सीखा है,रोज कोई न कोई नई चीज हम यहां सीखते हैं।फेसबुक हमारा नया शिक्षक है।फेसबुक की वॉल जब सामने खुली होती है तो हर शिक्षित व्यक्ति लिखने के पहले छह बार सोचता है कि क्या लिखूँॽ लिखते हुए भय और संकोच में रहता है। भय-संकोच में वे लोग भी रहते हैं जो सुंदर-सटीक बोलने के लिए जाने जाते हैं।जिनके पास मेधा की कमी नहीं है।लेकिन फेसबुक पर आते ही उनकी सरस्वती गुम हो जाती है !

अभिव्यक्ति के रूपों में फेसबुक बेहतरीन माध्यम है,इसमें मित्र ही शिक्षक हैं,यूजर या पाठक ही शिक्षक है,जो गलती आप करते हैं,उसे दूसरा तुरंत बताता है,आप दुरूस्त कर लेते हैं।आप ऐसे व्यक्ति के कहे को मान लेते हैं जिसे आपने देखा नहीं,जाना नहीं,अनजाने व्यक्ति की आलोचना मानना,उससे सीखना यह फेसबुक का गुण है।बात करने के कौशल को कैसे विकसित करें,विभिन्न किस्म के लोगों में रहकर किस तरह संप्रेषण करें,यह कला फेसबुक पर रहकर ही सीख सकते हैं।फेसबुक की शिक्षण की कोई किताब नहीं है,वह पुराने किस्म के लेखन और अभिव्यक्ति रूपों का नया संस्करण लेकर आता है,हम यहां सब एकलव्य हैं।मित्रों की मदद से लिखकर सीखते हैं।यहां कोई गुरू नहीं है।शिक्षक नहीं है।



फेसबुक ने पहलीबार यह सिखाया कि मित्र ही गुरू है।सार्वजनिक संप्रेषण सामूहिक कला है। संप्रेषण तब ही सफल होता है जब उसे कोई पढ़े,सुने,गुने।फेसबुक इस मायने में हमें आत्मनिर्भर सम्प्रेषक बनाता है। वह पुराने सभी किस्म के संप्रेषण रूपों से भिन्न पैराडाइम में ले जाता है। यह मनुष्य की आत्मनिर्भर संप्रेषण शक्ति का चरमोत्कर्ष है।

एक शिक्षक का दुख

       आज शिक्षक दिवस है।फेसबुक पर हजारों पोस्ट देख सकते हैं।अपने शिक्षक की प्रशंसा भरी पोस्ट भी देख सकते हैं।लेकिन हम कभी शिक्षक के दुख को नहीं देखते।एक शिक्षक का क्या दुख है यह हमने कभी जानने की कोशिश ही नहीं की। शिक्षक के बिना समाज की कल्पना असंभव है,शिक्षक के दुखों को जाने बिना समाज को जानना भी असंभव है।कोई समाज कैसा है यह तय करना हो तो शिक्षकों को देखो ,उनकी समस्याओं को देखो,उनके जीवन में घट रहे अंतर्विरोधों को देखो।शिक्षक के दुख निजी और सार्वजनिक दोनों किस्म के हैं।मैं यहां जिस दुख की ओर ध्यान खींचना चाहता हूँ वह सार्वजनिक दुख हैं,जिनसे एक शिक्षक को गुजरना पड़ रहा है।

आज के शिक्षक का सबसे बड़ा दुख यह है कि वह ´विदेशी´की जकड़बंदी में कैद है। ´विदेशी´ बनने में उसे बहुत ज्यादा ऊर्जा खर्च करनी पड़ रही है। ´विदेशी´ बनने की पीड़ा उसकी अपनी निजी पीड़ा नहीं है बल्कि उस पर व्यवस्था ने थोपी है। ´विदेशी´भावबोध अर्जित करने के लिए इन दिनों भयानक होड़ मची हुई है।इस क्रम में शिक्षक अनुवाद कर रहा है। अनुवाद में जी रहा है।शिक्षक का अनुवाद में जीना,अनुवाद में सोचना उसकी सबसे बड़ी पीड़ा है।वो कक्षा में जाता है तो अंग्रेजी में पढ़ाता है और अंग्रेजी का मन ही मन अनुवाद करता रहता है।हर चीज को अंग्रेजी के माध्यम से सम्प्रेषित करने की कोशिश करता है। अंग्रेजी में वो जब पढ़ाता है ,तो जाने-अनजाने अपनी स्वाभाविक भाषा,परिवेस की भाषा से अलग हो जाता है।

किसी शिक्षित व्यक्ति का अभिव्यक्ति प्रक्रिया में अपनी भाषा से अलग हो जाना सबसे त्रासदी है। एक शिक्षक की सबसे बड़ी ताकत उसकी भाषा होती है,वह अपनी भाषा में जितना रमण कर सकता है उतना वह अन्य भाषा में रमण नहीं कर सकता।हमारे बीच में अब हालात इस कदर बदतर हो गए हैं कि अपनी भाषा से कट जाने को हम शिक्षक की पीड़ा या दुख नहीं मानते बल्कि खुश होते हैं और गर्व के साथ कहते हैं कि वो अंग्रेजी माध्यम से बढ़िया पढ़ाते हैं,हम यह भूल ही जाते हैं कि वे अंग्रेजी का अनुवाद करके पढ़ाते हैं,अंग्रेजी उनकी नेचुरल भाषा नहीं है।

एक शिक्षक के हाथों जब अपनी भाषा मरती है तो मुझे बहुत कष्ट होता है। मैं बार-बार महसूस करता हूँ कि एक शिक्षक को अपनी स्वाभाविक भाषा में पढ़ाना चाहिए।अंग्रेजी हमारे शिक्षक की स्वाभाविक भाषा नहीं है वह अनुवाद की भाषा है।शिक्षक जब स्वाभाविक भाषा में नहीं पढ़ाएगा तो विषय के मर्म को न तो समझ पाएगा और न समझा पाएगा। यही वजह है हमारे यहां जो शिक्षितवर्ग निकल रहा है वह शिक्षा के अर्थबोध से ही वंचित है।उसके पास डिग्री है लेकिन वह डिग्री का वास्तविक अर्थ नहीं जानता।

अनुवाद की भाषा अंततःशिक्षक के मूल मंतव्य और आशय को समझने में सबसे बड़ी बाधा के रूप में खड़ी रहती है।यही वजह है हमारे देश में डिग्रीधारी तो अनेक हैं लेकिन शिक्षित लोग बहुत कम हैं।हमने एक ऐसा शिक्षक तैयार किया है जो अनुवाद की भाषा में काम चला रहा है।मेरा सबसे बड़ा दुख यही है कि मेरे शिक्षक की स्वाभाविक भाषा खत्म हो रही है।कोई इस ओर ध्यान देने को तैयार नहीं है। अंग्रेजी माध्यम से पठन-पाठन की महत्ता और सत्ता का इन दिनों जिस तरह जयघोष चल रहा है उसको देखते हुए वह दिन दूर नहीं जब अपनी भाषाओं को पढ़ने -पढ़ाने के लिए हम विदेश जाया करेंगे।

एक शिक्षक की पहली जिम्मेदारी है कि वह अंग्रेजी की कैद से बाहर निकले।यदि हम सच में शिक्षक और शिक्षा का दर्जा ऊँचा करना चाहते हैं तो हमें अपना रवैय्या बदलना होगा।ग्लोबल होने का अर्थ अनुवाद की भाषा में जीना नहीं होता।ग्लोबल का लोकल के बिना कोई सार्थक अर्थ निर्मित नहीं होता।



मेरा दुख यह है कि विद्यार्थी अपरिचित भाषा में,परायी भाषा में पढ़ता है,जीता है।मैं सभी शिक्षकों का सम्मान करते हुए विनम्रतापूर्वक कहना चाहता हूँ कि अंग्रेजी माध्यम के जरिए पढ़ाने से छात्रों में मौलिक चिंतन का विकास नहीं हो पाता।वे अपरिचित भाषा के जाल में फंसे रहते हैं। अंग्रेजी में पढ़ने का एक दुष्परिणाम यह भी हुआ है बच्चों में रटने की आदत का विकास हुआ है,वे सवालों पर सोचते नहीं हैं बल्कि रटे-रटाए उत्तर देकर परीक्षा पास कर लेते हैं।इस समूची प्रक्रिया में कुछ ही छात्र अपना विकास कर पाते हैं अधिकतर तो डिग्रीधारी होकर रह जाते हैं।एक शिक्षक के नाते मेरा सबसे बड़ा दुख यह है कि मैंने छात्र पैदा नहीं किए, डिग्रीधारी पैदा किए।यह मेरी सबसे बड़ी असफलता भी है।

शनिवार, 3 सितंबर 2016

एक शिक्षक के नोट्सः आत्मकथ्य

        मैंने जब सन् 1989 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रवक्ता पद पर काम करना शुरू किया यहां का हिन्दी विभाग और यहां काम कर रहे शिक्षकों के पढ़ाने की परंपरा को समझना सबसे पहली चुनौती थी।सामान्य तौर पर विद्यार्थियों की पढ़ने-पढ़ाने की आदत बनाने में विभाग की सामूहिक जिम्मेदारी होती है।पढ़ाने की दूसरी बड़ी चुनौती छात्र-छात्राओं की अकादमिक अभिरूचियों को जानना था। कक्षा में मुझे हिन्दी साहित्य का इतिहास, संस्कृत काव्यशास्त्र और पाश्चात्य काव्यशास्त्र पढ़ाना था।बाद में हिन्दी पत्रकारिता पढ़ाने की जिम्मेदारी दी गयी।

मैं जब पहलीबार अप्रैल1989 में कक्षा में गया तो विद्यार्थियों से पूछा कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल या हजारी प्रसाद द्विवेदी के इतिहासग्रंथ पढ़े या देखे हैं,तो कक्षा में सबने कहा न तो देखे हैं और न पढ़े हैं। यह मेरा पहला अनुभव था।मैं कई साल तक एम ए प्रथम वर्ष में आने वाले विद्यार्थियों से नियमित यही सवाल पूछता रहा और हमेशा उनको शुक्लजी और द्विवेदीजी के इतिहास ग्रंथ पढ़ने के लिए कहता रहा।तकरीबन छ-सात साल बाद पहलीबार यह सुनने को मिला कि हां शुक्लजी या द्विवेदीजी के इतिहास ग्रंथ देखे या पढ़े हैं।इससे आप सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं कि बीए ऑनर्स के स्तर तक किस तरह के पठन-पाठन की दशा थी और मेरे यहां आने के पहले कलकत्ता विश्वविद्यालय में इतिहास किस तरह पढाया जाता था.अनुभव से यह भी पता चला कि मुक्तिबोध को हमारे यहां न तो पढ़ते हैं और न पढ़ाते हैं। खैर,तब से लेकर आज तक बहुत कुछ बदला है।लेकिन यह सिर्फ झांकी मात्र है। इस समस्या की जिसकी ओर मैं आपको ले जाना चाहता हूं।

मूल समस्या यह है एक शिक्षक के नोट्स कैसे हों ॽ नामवरसिंह के क्लास नोटस सामने आ चुके हैं।उन पर कभी फुर्सत में विस्तार से लिखने का मन है।इधर उनके नोटस पर कुछ लिखा भी है,जो आपको मेरी नई किताब ´नामवर सिंहः समीक्षा के सीमान्त´में देखने को मिलेगा। सवाल यह है क्लास नोटस कैसे हों ॽ खासकर जब किताब की शक्ल में आएं तो उनको किस रूप में पेश करें ॽहिन्दीवालों के सामने सबसे बेहतरीन मानक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने रखा है ´हिन्दी साहित्य का इतिहास´ लिखकर।यह इतिहास ग्रंथ आज भी साहित्येतिहास में मील का पत्थर है।

मैंने पत्रकारिता के अपने सारे नोट्स ´हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास की भूमिका´के नाम से लिखकर हिन्दी के पत्रकारिता के विद्यार्थियों के हवाले कर दिए।मैंने महसूस किया कि एक शिक्षक के नोटस वे होते हैं जो नए नजरिए और विश्लेषण के नए उपकरणों को सामने लाएं,विषय से संबंधित नयी खोज,अवधारणाओं आदि के विश्लेषण पर जिनमें जोर दिया गया हो। एक शिक्षक के नोटस पहले कही गयी बातों की पुनरावृत्ति मात्र न हों।

मैं जिस समय पत्रकारिता पढ़ा रहा था तो देश बड़ी गंभीर समस्याओं में उलझा हुआ था,उन सभी समस्याओं की अभिव्यंजना पत्रकारिता की कक्षाओं में भी होती थी और वो मेरी किताब में भी है।मैं अपने तरीके से पत्रकारिता के पठन-पाठन का एक नया मॉडल लेकर चल रहा था,मेरे सामने किसी भी विश्वविद्यालय का पत्रकारिता का पाठ्यक्रम नहीं था।´हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास की भूमिका´ नामक किताब सन् 1997 में प्रकाशित हुई,मैंने अपनी पत्रकारिता या मीडिया संबंधी समझ,धारणाएं आदि बनाने में हेबरमास,रेमण्ड विलियम्स,एस.हॉल,एडोर्नो आदि से मदद ली।

मैंने उस किताब की भूमिका में लिखा ´पत्रकारिता अध्ययन का एक स्वतंत्र अनुशासन है।इसे अधिरचना के किसी क्षेत्र या अनुशासन का विस्तारित केन्द्र वहीं मान लेना चाहिए।साथ ही राजनीतिक आंदोलन का यह प्रतिबिम्ब मात्र नहीं है,अपितु यह एक स्वतंत्र अधिरचना है।इसका अधिरचना के अन्य रूपों से गहरा संबंध एवं संपर्क है।आधार की शक्तियों के संघर्ष इवं अंतर्विरोधों ,वैचारिक अंतर्वस्तु एवं रूपों,अभिरूचियों एवं आदतों के निर्माण में इसकी निर्णायक भूमिका होती है।इसकी प्रक्रिया,विचारधारा एवं संरचना का अद्ययन जनमाध्यमों के नियमों,प्रक्रियाओं एवं सिद्धान्तों की रोशनी में ही संभव है।माध्यमों की प्रक्रिया का बहुआयामी प्रभाव होता है।इसीलिए इसके किसी एक किस्म के प्रभाव को खोजने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए।´

शिक्षण के मामले में मैं रोलां बार्थ के पढ़ाने की कला का कायल हूं।संभवतःपढाते समय वे मेरे जेहन में रहते हैं। मैं रोलां बार्थ से सहमत हूँ कि शिक्षण को फैंटेसी की तरह होना चाहिए।यानी इसमें आपकी इच्छाएं आएं और जाएं,शिक्षक उनको अंतहीन रूप में अभिव्यंजित करे।एक अच्छे शिक्षक के अध्यापन की कला फैंटेसी पर निर्भर करती है।यह फैंटेसी साल-दर-साल बदलती रहती है।फलतःक्लास नोटस भी बदलते रहते हैं।शिक्षक का काम अपनी भाषा को छात्र के अंदर उतार देना नहीं है,बल्कि वह तो छात्र की भाषा को बदल देता है।शिक्षण का काम है तीसरी भाषा पैदा करना है,अन्य अर्थ की सृष्टि करना । कक्षा लेना असल में भाषणशक्ति के जरिए विरेचन करना भी है।जब आप पढ़ाते हैं तो मैं और तुम की भाषा में नहीं पढ़ाते,बल्कि तीसरी भाषा में पढ़ाते हैं,’ नेचुरल भाषा´में पढ़ाते हैं।वायनरी अपोजीसन की भाषा में नहीं पढ़ाते,बल्कि ´नेचुरल भाषा´में पढ़ाते हैं।तटस्थ भाव से पढ़ाते हैं।आप सपनों से मुक्त होकर पढ़ाते हैं।पाठ के अर्थ से मुक्त होते हुए पढ़ाते हैं।पाठ के अर्थ से बंधकर पढ़ाने में मुश्किल यह है कि आप तीसरे अर्थ की सृष्टि नहीं कर सकते,नए अर्थ की सृष्टि नहीं कर सकते,विरेचन नहीं कर सकते,नई भाषा की सृष्टि नहीं कर सकते।शिक्षण का अर्थ है नई भाषा और नए अर्थ की सृष्टि करना।


शुक्रवार, 2 सितंबर 2016

कश्मीर में युवाओं के हाथ में पत्थर क्यों हैं ॽ

       
श्रीनगर के डाउनटाउन इलाके में जाइए और आम लोगों से बातें कीजिए,अधिकतर लोग आतंकियों के खिलाफ हैं,वे बार -बार एक ही सवाल कर रहे हैं कश्मीर में इतनी सेना –सीमा सुरक्षा बलों की टुकड़ियां चप्पे-चप्पे पर क्यों तैनात हैं ॽ हमने क्या अपराध किया है ॽवे यह भी कहते हैं अधिकांश जनता आतंकियों की विरोधी है,पृथकतावादियों के साथ नहीं है।सामान्य लोगों से बातें करते हुए आपको यही लगेगा कि कश्मीर के लोग सामान्य जिन्दगी जीना चाहते हैं।वे यह भी कहते हैं निहित स्वार्थी लोगों ने कश्मीर का मसला बनाकर रखा हुआ है,ज्योंही सामान्य स्थिति होने को आती है कोई छोटी सी घटना होती है और आम लोगों के घरों पर सेना-पुलिस के छापे पड़ने शुरू हो जाते हैं।

मैं जब डाउनटाउन की प्रसिद्ध हमदान मसजिद को देखने पहुँचा तो वहां पर एकदम भिन्न माहौल था, लोग वहां प्रार्थना करने आ-जा रहे थे। बहुत ज्यादा भीड़भाड़ नहीं थी।हमदान मसजिद इस शहर की सबसे बेहतरीन मसजिद है।इसका इतिहास भी है,उसे लेकर अनेक विवाद भी हैं।इस मसजिद में बैठे रहने वाले लोगों से जब बातें कीं तो पता चला कि वे विकास पर बातें करना चाहते हैं।उनका मानना है कश्मीर को अमन-चैन चाहिए।जो भी विवाद हो,वो बातचीत से हल हो,वे खून-खराबे के खिलाफ हैं।मसजिद के अहाते में केन्द्रीय सुरक्षाबल के कमांडो एके47 के साथ पहरा दे रहे थे.हमने इन जवानों से पूछा क्या मसजिद में कोई खतरा है ॽ वे बोले कोई खतरा नहीं है।मसजिद के पास ही एक छोटा सा घाट है जिस पर जाना इन दिनों प्रतिबन्धित है।वहां एक जगह दीवार पर सिन्दूर के पूजा के निशान बने हुए हैं,एक जमाने में उस स्थान पर लोग पूजा करने जाते थे।यह वह जगह है जहां कभी पुराने जमाने में हिन्दुओं का धर्म परिवर्तन कराकर जनेऊ जलाए गए ,मैंने बहुत कोशिश की जनेऊ जलाने की बात के प्रमाण जुटा सकूँ लेकिन मैं प्रमाण नहीं जुटा पाया।लेकिन यह तो सच है कि बड़ी संख्या में हिन्दुओं ने धर्म परिवर्तन करके एक जमाने में इस्लाम धर्म स्वीकार किया था,यह मध्यकाल में हुआ था।

मध्यकाल के धर्म परिवर्तन के सवालों और घटनाओं को आधुनिककाल में उठाकर साम्प्रदायिक घृणा फैलाने का काम संघ के संगठन करता रहा है।यह सच है आज भी कश्मीर में ऐसे मुसलमानों की संख्या बहुत बड़ी है जो पहले हिन्दू थे और बाद में धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बन गए,इन मुसलमानों के नाम का पहला नाम मुसलिम है और अंत में हिन्दू जाति लिखी मिलती है,जैसे ,मुश्ताक रैना।

हमदान मसजिद के ठीक सामने सफेद मसजिद है,जो सफेद संगमरमर के पत्थरों की बनी है।इन दोनों के बीच में झेलम वह रही है।दोनों ही मसजिदों का इतिहास और उनके साथ जुड़ी राजनीतिक कहानियां अलग अलग हैं। मैं दोनों मसजिदों में गया।हमदान मसजिद में तुलनात्मक तौर ज्यादा लोग आ जा रहे थे,सफेद मसजिद में सन्नाटा पसरा हुआ था।इस सन्नाटे का कारण मैं अभी तक समझ नहीं पाया। दोनों ऐतिहासिक मसजिद हैं लेकिन एक में आने-जाने वाले लोगों का प्रवाह बना हुआ है,दूसरे में इक्का-दुक्का लोग दिखे।यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां से हमें स्थानीय मुसलिम समाज की कई परतें नजर आती हैं।हमदान मसजिद में आने वाले तुलनात्मक तौर परंपरागत,रूढ़िवादी मान्यताओं में विश्वास करने वाले लोग हैं वहीं सफेद मसजिद में आने वाले उदार-धर्मनिरपेक्ष मुसलमान हैं।यह संख्या उस मनोदशा में बदलाव का संकेत है जो कश्मीर में जमीनी स्तर पर दिख रही है।

कश्मीर में आतंकियों-पृथकतावादियों का व्यापक दवाब है कि मुसलिम युवा फंडामेंटलिज्म की ओर आएं लेकिन अधिकतर युवाओं में इस्लाम के रूढ़िगत रूपों,मूल्यों और संस्कारों को लेकर अरूचि साफ नजर आई। इस अरूचि को मुसलिम युवाओं के आधुनिक ड्रेससेंस,बालों की कटिंग आदि में सहज ही देख सकते हैं। मैं कईबार हमदान मसजिद गया,सफेद मसजिद भी गया।लेकिन वहां युवा नजर नहीं आए।वयस्क औरतें ज्यादा दिखाई दीं।सफेद मसजिद में तो सन्नाटा पसरा हुआ था।इससे एक बात का अंदाजा जरूर लगता है युवाओं में इस्लाम धर्म के प्रति रूझान कम हुआ है।शिक्षित मुसलिम युवाओं में उदार पूंजीवादी मूल्यों के प्रति आकर्षण बढा है। वे कश्मीर की आजादी के सवाल पर कम और अपनी बेकारी की समस्या,कैरियर की समस्याओं पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं।

अधिकांश कश्मीरी युवाओं में मुख्यधारा के मीडिया के प्रति गहरी नफरत है,उनका मानना है कश्मीरी युवाओं को सुनियोजित ढ़ंग से आतंकी और पत्थरबाज के रूप में पेश किया जा रहा है।कुछ सौ पत्थरबाजों या पृथकतावाद समर्थकों को सभी कश्मीरी युवाओं के प्रतिनिधि या आवाज के रूप में पेश किया जा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि मैं कश्मीर विश्वविद्यालय में अनेक छात्रों से मिला,डाउनटाउन में भी अनेक युवाओं से अचानक रूककर बातें कीं,सभी ने कहा कि पत्थर चलाने वालों में वे कभी शामिल नहीं रहे।सभी उम्र के युवा कश्मीर में चल रहे मौजूदा तनावपूर्ण माहौल के कारण शिक्षा संस्थानों,खासकर स्कूल-कॉलेजों में फैल रही अव्यवस्था और अकादमिक क्षति को लेकर सबसे ज्यादा चिन्तित मिले।

युवाओं का मानना है कश्मीर के मौजूदा हालात ने समूचे शिक्षातंत्र को तोड़ दिया है।ज्यों ही कोई घटना होती है तो इलाके में बीएसएफ,सीआरपीएफ और सेना की टुकड़ियां आ जाती हैं और वे तुरंत स्कूलों-कॉलेजों की इमारतों पर कब्जा कर लेती हैं।इससे लंबे समय तक पढ़ाई-लिखाई बंद हो जाती है। सन् 1990-91 में जिस तरह के हालात पैदा हुए उससे समूचा शिक्षातंत्र टूट गया ।

फिलहाल श्रीनगर में अर्द्ध सैन्यबलों ने 20 स्कूलों की इमारतों को कब्जे में लिया हुआ है।स्कूलों पर कब्जा करके प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ढ़ंग से बच्चों को आतंकित करने की कोशिश की जाती है।इसका बच्चों की मनोदशा पर बुरा असर पड़ रहा है।बच्चों में सैन्यबलों के प्रति घृणा बढ़ने का यह बहुत बड़ा कारण है। कायदे से सरकार को स्कूलों की इमारतों का इस तरह इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। मुश्किल यह है कि सामान्य स्थिति बहाल होने के बाद भी लंबे समय तक स्कूल की इमारतों पर अर्द्ध सैन्यबलों का कब्जा बना रहता है,शहर में सामान्य हालात पैदा हो जाते हैं लेकिन स्कूल नहीं खुलते।इस क्रम में जहां एक ओर स्कूल का फर्नीचर आदि नष्ट हो जाता है वहीं दूसरी ओर छात्र पढाई में पिछड़ जाते हैं और पुलिस वाले उनको आतंकित करते रहते हैं। स्कूलों में सैन्य बलों की मौजूदगी से वहां काम करने वाले कर्मचारियों को भी अनगिनत परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

इस समय हम सबकी आंखों में कश्मीर के जिस युवा की इमेज है यह वह युवा है जिसे मुंबईया सिनेमा और न्यूज टीवी चैनलों ने बनाया है।इसका जमीनी हकीकत से कोई संबंध नहीं है।जेएनयू के 9फरवरी के प्रसंग के बाद टीवी चैनलों ने कश्मीरी युवाओं के बारे में जिस तरह की घृणित इमेज वर्षा की है और जिस तरह सोशल मीडिया के जरिए प्रचार अभियान चलाया गया उसने असली कश्मीरी युवावर्ग को हम सबकी चेतना से खदेड़कर बाहर कर दिया है। इस इमेज वर्षा ने जहां एक ओर कश्मीरी युवाओं के प्रति पूर्वाग्रह बनाए हैं वहीं उनको आतंकी-पृथकतावादी और भारत विरोधी बनाकर पेश किया है।

कश्मीर से आ रही इमेजों में कश्मीरी जनता और युवाओं का दुख-दर्द एकसिरे से गायब है।इसमें इस्लामिक उन्माद,भारत विरोधी उन्माद,सेना की कुर्बानी आदि का स्टीरियोटाइप अहर्निश प्रक्षेपित किया गया है,इस तरह की टीवी प्रस्तुतियां शुद्ध निर्मित यथार्थ का अंग हैं।कश्मीर की इमेजों में सैन्यबलों को भारत के रक्षक,भारत विरोधी ताकतों को कुचलने वाले के रूप में पेश किया गया है वहीं दूसरी ओर कश्मीर की जनता को आतंकी,देशविरोधी,राष्ट्रविरोधी करार दे दिया गया है। जो लोग प्रतिवाद कर रहे हैं उनको टीवी तुरंत आतंकी-समर्थक घोषित कर रहा है,टीवी वाले जानना नहीं चाहते कि आखिर कश्मीर में जनता किस मसले पर प्रतिवाद कर रही है।वे जनता के पास नहीं जा रहे,वे कश्मीर के मुहल्लों-गांवों और शहरों में नहीं जा रहे,वे सीधे फोटो लगा रहे हैं और स्टूडियो में बैठे बैठे जनता को आतंकियों का हमदर्द घोषित कर रहे हैं। सबसे त्रासद पहलू यह है कि कोई भी व्यक्ति यदि टीवी टॉक शो में कश्मीरी जनता की समस्यों की ओर ध्यान खींचने की कोशिश करे या फिर कश्मीर में विभिन्न तबके के द्वारा उठायी जा रही राजनीतिक मांगों में से किसी मांग का ज्योंही जिक्र करता है तुरंत उस पर हमले शुरू हो जाते हैं,यह वस्तुतः टीवी फासिज्म है।

हाल ही में मंगलवार को श्रीनगर प्रशासन ने पांच टीवी न्यूज चैनलों का प्रसारण कश्मीर में बंद करने का आदेश दिया है,प्रशासन का मानना है इन चैनलों के प्रसारण से कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ रही है।ये चैनल हैं- केबीसी, गुलिस्तां टीवी, मुंसिफ टीवी, जेके चैनल,इंसाफ टीवी। केबल ऑपरेटरों को इन चैनलों का प्रसारण रोकने के लिए कहा गया है।



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         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...