बुधवार, 7 सितंबर 2016

मार्क्स-हेगेल के परे जाओगे तो रवीन्द्र को पाओगे

         रवीन्द्रनाथ टैगोर को अपना बनाने के चक्कर में आप यदि उनको मार्क्सवादी बनाएंगे तो दिक्कत होगी।हजारी प्रसाद द्विवेदी ने रवीन्द्र को रवीन्द्र रहने दिया।रवीन्द्र के विचार और अनुभूतियां खांटीं भारतीय हैं।रवीन्द्र की मूल भावभूमि है मानवीय अनुभूति।उसे आप मार्क्स,हेगेल,कांट,देरिदा के जरिए नहीं पा सकते।यही वह प्रस्थान बिंदु हैं जहां से आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने रवीन्द्रनाथ टैगोर से रस प्राप्त किया
।रवीन्द्र का विश्वदृष्टिकोण प्रमुख है।हम य़दि वह ग्रहण करते हैं तो शायद वे हमारे लिए आज भी प्रासंगिक हैं।इन दिनों प्रगति पर बहुत बहस है।रवीन्द्रनाथ टैगोर के लिए इसका क्या अर्थ है ॽ
साहित्य और समाज के प्रसंग में ´प्रगति´ का सवाल बेहद महत्वपूर्ण है।इसकी तरह-तरह की परिभाषाएं हो रही हैं।आज प्रगति का मतलब है सड़क,बिजली और पानी।लेकिन रवीन्द्रनाथ के जमाने में प्रगति का अर्थ था ´महान् परिवर्तनों की ओर अग्रसर होना´।एक जमाने में साम्यवाद की ओर अग्रसर होने को प्रगति कहा गया। इस दृष्टिकोण से अलगाते हुए रवीन्द्रनाथ के लिए प्रगति का अर्थ है ´नूतन दृष्टिकोण´।रवीन्द्रनाथ ने सामाजिक उत्पीड़न और रूढ़िवादिता के खिलाफ जमकर लिखा है, इस तरह की रचनाओं का प्रगति की धारणा से कोई संबंध नहीं है।सुशोभन सरकार के अनुसार ´सच तो यह है रवीन्द्रनाथ टैगोर का किसी आमूल परिवर्तनवादी कार्यक्रम में; किसी प्रशासनिक संस्था अथवा तंत्र में कोई निश्चित विश्वास न था।´

सुशोभन सरकार के अनुसार ´अंततःहम यही कहेंगे कि टैगोर की दार्शनिक आस्था उस विचार से मेल नहीं खाती जिसे हम आज ´प्रगति´कहते हैं।उनमें केवल भौतिकवाद विरोधी दार्शनिक आदर्शवाद ही नहीं पाया जाता बल्कि उनके चिंतन का सार-तत्व व्यक्तित्व में विश्वास करने में निहित है।उन्होंने मानव के सर्वतोमुखी विकास के आदर्शों की खोज की।उनकी ´दृष्टि´में ´´मनुष्य का धर्म´´स्वतःधर्म का आधार है। उनके अनुसार व्यक्तित्व का विकास ही सभ्यता का तात्पर्य है,जो आज की औद्योगिक प्रवृत्ति से आच्छन्न है।आज मशीन की उपासना के पीछे हमारा विषाद तथा थकावट भरी पड़ी है।कदाचित यही भाव´रक्त करवी´ के प्रतीक के रूप में निहित है।कवि ने व्यक्तित्व की धारणा में प्रगति को अंतर्निहित माना है।किंतु आज के युग में विशाल जनसमूह को ध्यान में रखते हुए व्यक्तिगत विकास की कल्पना अप्रासंगिक है।अतएव व्यक्तित्व को लक्ष्य बनाकर सामाजिक सुधार का विचार संशयपूर्ण हो जाता है।व्यक्तिगत विकास को वास्तविक मूर्त रूप देने के पूर्व हमें अपने सामाजिक ढांचे को बदलना होगा।´

यह सच है टैगोर ने बंगला भाषा,साहित्य,काव्यशैली और जनमानस पर अपनी रचनाओं के जरिए व्यापक प्रभाव डाला।नए परिवर्तनों को जन्म दिया।इसी प्रसंग में यह सवाल उठा कि टैगोर के लेखन से किसतरह की संस्कृति प्रभावित हुई और किस तरह की संस्कृति ने जन्म लिया ॽ इस प्रसंग में सबसे पहले हमें इस सवाल पर विचार करना होगा कि बुर्जुआ संस्कृति का टैगोर युगीन परिदृश्य किस तरह का था ॽटैगोर ने जिन नए परिवर्तनों को जन्म दिया वे परिवर्तन किस तरह के थे ॽ उस जमाने में बुर्जुआ संस्कृति भयाक्रांत थी।भविष्य के भय से त्रस्त थी।इसके कारण बुर्जुआ संस्कृति में अपंग भाव था।टैगोर ने इस अपंग और भयाक्रांत भावबोध के खिलाफ निडर होकर लिखा,वे पूर्व धारणाओं से टकराने से डरते नहीं थे,भविष्य कों लेकर भी संशय में नहीं थे।दूसरा संस्कृति के संकुचित दायरों को उन्होंने हमेशा तोड़ा।उन दिनों बुर्जुआजी संस्कृति रह-रहकर सीमित दायरों की ओर लौट रही थी।एक खास किस्म का संकीर्णतावाद व्यक्त हो रहा था,टैगोर ने इसे खुली चुनौती दी।यह चुनौती भाषा,शैली और सौंदर्यानुभूति के स्तर पर दी गयी।

टैगोर ने ´रूस के पत्र´में बुर्जुआ व्यवस्था और संस्कृति के ह्रासशील पहलुओं की चर्चा करते हुए लिखा है ´आधुनिक राजनीति की प्रेरणा-शक्ति वीर्याभिमान नहीं,धन का लोभ है-यह तत्त्व हमें ध्यान में रखना ही होगा।´टैगोर ने पूंजीवाद को ´वैश्ययुग´ की संज्ञा दी है और इसकी आदिम भूमिका को ´दस्युवृत्ति´ कहा। यह भी लिखा ´आज के युग में लोभ-प्रवृत्ति ने समाज को आलोड़ित करके उसके सारे बन्धन शिथिल और विच्छिन्न कर दिए हैं।´ टैगोर को रूस इसलिए अच्छा लगा क्योंकि वहां के समाज ने लोभ का तिरस्कार किया।उन्होंने लिखा ´रूस में जब मैंने लोभ को तिरस्कृत देखा,मुझे इतना आनन्द हुआ जितना शायद किसी अन्य देश के निवासी को न होता।लेकिन मूल तथ्य को भुलाया नहीं जा सकता;केवल भारत में ही नहीं,समस्त पृथ्वी पर जहाँ भी विपत्तियों का जाल फैलाया गया वहाँ लोभ की ही प्रेरणा ने काम किया है-लोभ के साथ संशय रहे हैं,और लोभ के पीछे अस्त्र-सज्जा रही है,मिथ्या ,निष्ठुर राजनीति रही है।´



बुर्जुआ व्यवस्था का चरमोत्कर्ष तानाशाही में अभिव्यक्त हुआ है,इस प्रवृत्ति की आलोचना करते हुए टैगोर ने लिखा ´डिक्टेटरशिप का प्रश्न भी उठता है।मैं व्यक्तिगत रूप से किसी भी विषय में नेताशाही पसन्द नहीं करता।क्षति या दंड का भय दिखाकर या भाषा-भंगिमा –व्यवहार से अपनी जिद व्यक्त करके मत-प्रचार का मार्ग प्रश्स्त करने की चेष्टा मैं अपने कर्मक्षेत्र में कभी नहीं कर सकता।इसमें सन्देह नहीं कि एक-नायकत्व में बहुत-सी विपत्तियाँ हैं।उसकी एकरूपता और नित्यता अनिश्चित होती है; चालकों और चलितों की इच्छा में योग-साधन न होने से क्रान्ति की संभावना सदा बनी रहती है।इसके अलावा किसी दूसरे से चलाए जाने का अभ्यास चित्त और चरित्र को दुर्बल बनाता है।एकनायकत्व जहाँ भी हो-शास्त्र में,गुरू में,या राष्ट्र-नेता में,उससे मनुष्यत्व की हानि होती है।´

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