मैं१९८०-८१ में जेएनयू छात्रसंघ के चुनाव में कौंसलर पद पर एक वोट से जीता था। वी. भास्कर अध्यक्ष चुने गए।उस समय जेएनयू के बाइस चांसलर वाय. नायडुम्मा साहब थे, वे श्रीमती गांधी के भरोसे के व्यक्ति थे विश्वविख्यात चमड़ा विशेषज्ञ थे। स्वभाव से बहुत ही शानदार, उदार और वैज्ञानिक मिज़ाज के थे। बीएचयू से पढ़े थे।भास्कर के साथ पूरी यूनियन उनसे मिलने गयी, सबने उनको अपना परिचय अंग्रेज़ी में दिया मैंने हिन्दी में दिया , क्योंकि मैं अंग्रेज़ी में परिचय देना नहीं जानता था।
नायडुम्मा साहब अंग्रेज़ी में परिचय सुनते हुए एकाग्र हो चुके थे मैंने ज्योंही हिन्दी में परिचय दिया सारा माहौल बदल गया, वे तुरंत टूटी फूटी हिन्दी में शुरू हो गए और बोले आज मैं कई दशक बाद हिन्दी बोल रहा हूँ। तुमने मेरी बीएचयू की यादें ताज़ा कर दीं। इसके बाद मैं उनसे भास्कर के साथ विभिन्न समस्याओं को लेकर अनेकबार मिला वे भास्कर को बीच में टोकते और कहते जगदीश्वर को बोलने दो, मुझे हिन्दी सुनना अच्छा लगता है कहते इसके बहाने मैं काशी में लौट जाता हूं। वे जानते थे मैं सम्पूर्णानंद वि वि से सिद्धांतज्यौतिषाचार्य कर चुका हूं, मेरा बनारस से संबंध है। कहते जेएनयू में तुम मेरे हिन्दी और बनारस के सेतु हो।
मैं बहुत पान खाता था,नायडुम्मा को मेरा पान खाना बहुत पसंद था। जेएनयू में नामवरजी के बाद वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने मुझसे पान खाने के लिए माँगा।नायडुम्मा साहब ने कहा जिस दिन अगलीबार आओ तो बिना समस्या के आना, पान लेकर आना बैठकर बातें करेंगे।
मैं एकदिन पान लेकर उनके पास गया और जमकर बातें कीं।अंत में बोले कोई काम हो तो बोलो,मैंने कहा जेएनयू में बडे पैमाने पर जाली इनकम सर्टिफ़िकेट दाख़िले के समय जमा हो रहे हैं आप दुस्साहस करके छात्रों के कमरों में छापे डलवा दें और रेण्डम तरीक़े से इंकम सर्टिफ़िकेट की जाँच करवा दे । वे बोले यूनियन के लोगों के यहाँ भी छापे पड़ेंगे।तुम वायदा करो बाहर कहोगे नहीं , आय सर्टिफ़िकेट भीजांच के लिए भेजे जाएँगे । परिणाम झेलोगे , मैंने कहा हम तैयार हैं। छात्रों के कमरों की तलाशी हुई बडे पैमाने पर कई छात्रों के कमरों से नक़ली मोहरें बरामद हुईं और बड़े पैमाने पर जेएनयू की लाइब्रेरी से चुरायी गयी किताबें बरामद हुईं। आय प्रमाणपत्रों की जाँच के बाद कई सौ छात्रों के सर्टिफ़िकेट जाली पाए गए उनको विश्वविद्यालय से निकाल दिया गया।हमने वि वि का इस मामले में साथ दिया।
जेएनयू में मेरा पहला मुकाबला नामवरजी से हुआ और यह बेहद मजेदार,शिक्षित करने वाला था।जेएनयू में 1979 में संस्कृत पाठशाला की अकादमिक पृष्ठभूमि से आने वाला मैं पहला छात्र था।मेरे शास्त्री यानी स्नातक में मात्र50फीसदी अंक थे।संभवतःइतने कम अंक पर किसी का वहां दाखिला नहीं हुआ था,मैंने प्रवेश परीक्षा और इंटरव्यू बहुत अच्छा दिया और मुझे दाखिला मिल गया।
कक्षाएं शुरू होने के 10दिन बाद पहला टेस्ट घोषित हो गया,उसके लिए गुरूवर नामवरजी ने दो विषय दिए,पहला,जॉन क्रौरैंसम का न्यू क्रिटिसिज्म ,दूसरा संस्कृत काव्यशास्त्र में रूपवाद।संभवतःपहलीबार मेरे लिए नामवरजी ने संस्कृत काव्यशास्त्र पढाया।खैर ,मैंने परीक्षा दी और अपने लिए न्यू क्रिटिसिज्म को चुना।उत्तर सही दिया।लेकिन गुरूदेव का दिल नहीं जीत पाया।उन्होंने मुझे बी-प्लस ग्रेड दिया।मैं खैर खुश था ,चलो फेल तो नहीं हुआ।कक्षा में उत्तरपुस्तिका दी गयी,सभी छात्र अपनी पुस्तिका पर नामवरजी के कमेंटस पढ़ रहे थे।मेरी उत्तर पुस्तिका पर लालपैन से सही का निशान था और नामवरजी का कोई कमेंटस नहीं था,सिर्फ बी प्लस ग्रेड लिखा था।
बातचीत में नामवरजी प्रत्येक छात्र को एक-एक करके बता रहे थे कि उसके लेखन में क्या कमी है,ऐसे नहीं वैसे लिखो,दिलचस्प बात यह थी कि जिस छात्र को ए प्लस दिया था उसकी उत्तर पुस्तिका में काफी कांट-छांट किया था नामवरजी ने।मेरा नम्बर आया तो मैंने व्यंग्य में कहा,सर,आपने इतने ज्यादा अंक दिए हैं ! इतने नम्बर तो कभी नहीं मिले ! वे तुरंत बोले मैं आपसे नाराज हूँ,मैंने पूछा क्यों,बोले आपने संस्कृत काव्यशास्त्र में रूपवाद वाले सवाल पर क्यों नहीं लिखा, ,मैंने संस्कृत काव्यशास्त्र आपके लिए खासतौर पर तैयार करके पढ़ाया था,मैंने कहा सर,मैं संस्कृत पढ़ते हुए बोर गया था इसलिए न्यू क्रिटिसिज्म पर लिखा ,बोले ,मैं परेशान हूँ कि आप अंग्रेजी नहीं जानते न्यू क्रिटिसिज्म पर कैसे लिख सकते हैं ! मैंने झूठ कहा कि सर आपके क्लास नोटस से तैयार करके परीक्षा दी है,वे बोले नहीं,मैंने तोड़ती पत्थर कविता का उदाहरण कक्षा में नहीं बताया,लेकिन आपने लिखा है।मैंने पूछा ,सर,यह बताइए जो लिखा है वह सही है या गलत लिखा है,वे बोले सही लिखा है,मैंने फिर पूछा जो उदाहरण दिया है वह सही है या गलत,बोले सही है,मैंने पूछा कि फिर समस्या कहां पर है ,वे बोले न्यू क्रिटिसिज्म किताब पढ़ कैसे सकते हो,मैंने बताया ,उस किताब को पढ़कर सुनाया मित्र असद जैदी और कुलदीपकुमार ने,वह किताब कुलदीप के पास थी,इन दोनों ने टेस्ट के पहली वाली रात को सारी रात जगकर न्यू क्रिटिसिज्म को मुझे सुनाया और मैंने सुबह जाकर परीक्षा दे दी।इसके बाद गुरूदेव चुप थे।मैंने कहा सर,मैंने कहा था अंग्रेजी समस्या नहीं है,समझ में नहीं आएगा तो मित्रों से समझ लेंगे।इस तरह मेरे लिए अंग्रेजी मित्रभाषा आज भी बनी हुई है।
मैंने अपने छात्र जीवन में अंग्रेजी न जानते हुए इराकी, ईरानी, फ्रेंच, फिलिस्तीनी, अफ्रीकी,मणिपुरी,नागा आदि जातियों के छात्रों के साथ गहरी मित्रता की और उनका दिल जीता।
मेरा जेएनयू में पहला रूममेट एक दक्षिण अफ्रीकी छात्र था,मैं और वो एक ही साथ सोशल साइंस बिल्डिंग ( आज की पुराने सोशल साइंस इमारत) में जो कि 1979 में बनकर तैयार हुई थी,उसमें एक साथ रहे।उसके बाद दूसरे सेमिस्टर में सतलज होस्टल में मेरा रूममेट एक नागा लड़का था। यानी एमए का पहला वर्ष इन दोनों के साथ गुजरा। दोनों हिन्दी नहीं जानते थे,अंग्रेजी भी बहुत कम जानते थे।अफ्रीकी छात्र कालांतर में नेल्सन मंडेला के मंत्रीमंडल में मंत्री बना,नागा लडका बड़ा नागानेता बना।इनके अलावा जो फिलिस्तीनी लड़का सबसे अच्छा मित्र था वह लंबे समय तक फिलीस्तीनी नेता यासिर अराफात का निजी सचिव था। इन सबके साथ रहते हुए भाषा कभी समस्या के रूप में महसूस नहीं हुई।
मैं जब जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष पद के लिए 1984 में चुनाव लड़ रहा था,तो उस समय कुछ तेलुगूभाषी छात्रों ने कहा कि वे मुझे वोट नहीं देंगे।हमारे पूर्वांचल में रहने वाले मित्रों ने संदेश दिया कि 20-25 तेलुगूभाषी छात्र हैं जो मेरे हिन्दी में बोलने के कारण नाराज हैं और वोट नहीं देंगे।मैंने कहा कि मेरी उनसे मीटिंग तय करो,मैं बैठकर सुनता हूँ,फिर देखते हैं,उनका मन बदलता है या नहीं।मेरी उन सभी तेलुगूभाषी छात्रो के साथ मीटिंग तय हुई,एक कमरे में हम बैठे,मेरी मदद के लिए तेलुगूभाषी कॉमरे़ड थे जिससे भाषा संकट न हो लेकिन तेलुगूभाषी छात्रों ने कहा कि वे मुझसे अलग से और बिना किसी भाषायी मददगार के बात करेंगे,उन्होंने सभी तेलुगू भाषी कॉमरेडों को कमरे के बाहर ही रोक दिया।अंदर कमरे में तेलुगूभाषी थे और मैं अकेला।मेरी मुश्किल यह थी कि मैं हिन्दी के अलावा कोई भाषा नहीं जानता था,वे लोग हिन्दी एकदम नहीं जानते थे।बातचीत शुरू हुई मैंने टूटू फूटी अंग्रेजी में शुरूआत की,गलत-सलत भाषा बोल रहा था,वे लगातार सवाल पर सवाल दागे जा रहे थे और मैं धारावाहिक ढ़ंग से हर सवाल का अंग्रेजी में जवाब दे रहा था,मेरी अंग्रेजी बेइंतिहा खराब,एकदम अशुद्ध लेकिन संवाद अंग्रेजी में जारी था।तकरीबन एक घंटा मैंने उनसे अंग्रेजी में अपनी बात कही और उनसे अनुरोध किया कि आप लोग एसएफआई को पैनल वोट दें,मुझे वोट जरूर दें।कमरे के बाहर तमाम कॉमरेड खडे थे और परेशान थे कि मैं अंग्रेजी नहीं जानता फलतःराजनीतिक क्षति करके ही लौटूँगा।मैं बातचीत खत्म करके बाहर हँसते हुए आया तेलुगूभाषी छात्र भी हँसते हुए बाहर निकले,बाहर खड़े तेलुगूभाषी कॉमरेडों ने उन छात्रोंसे पूछा अब बताओ किसेे वोट दोगे, वे बोले रात को मेरा भाषण सुनने के बाद बताएंगे,उनलोगों से दूसरे दिन सुबह पूछा गया कि अब बताओ जगदीश्वर को वोट दोगे या नहीं,सभी तेलुगूभाषी लड़कों ने कहा हम उसे जरूर वोट देंगे।तेलुगूभाषी कॉमरेड ने कहा आश्चर्य है मैंने समझाया तो वोट देने को राजी नहीं हुए और जगदीश्वर से बात करने के बाद उसे वोट देने को राजी कैसे हो गए ,इस पर एक छात्र ने कहा कि उसकी सम्प्रेषण शैली और दिल जीतने की कला ने हम सबको प्रभावित किया ।उससे बात करने के बाद पता चला कि भाषा भेद की नहीं जोड़ने की कला है।
JNU में कईबार वाम हारा है,लेकिन उसने हार को सम्मान और सभ्यता के साथ स्वीकार किया है,हार के कारणों की खोज करके अपने को दुरूस्त किया है।इसबार जो लोग हारे हैं वे वाम से सीखें कि कैसे हार को स्वीकार करके छात्रों के लिए एकताबद्ध होकर काम किया जाय।
हमने पहले भी कहा है जेएनयू में सब वाम नहीं है। अधिकांश छात्र वाम को नहीं मानते। इसबार का चुनाव और उसके परिणाम देख लें,आज भी बहुसंख्यक छात्र ऐसे हैं जो वाम की विचारधारा को नहीं मानते।इसके बावजूद लोकतंत्र में चुनाव के जरिए वाम चुनाव जीतकर आता है तो यही कहेंगे वाम में कुछ तो है जो बार बार उसको जेएनयू के छात्र अपने छात्रसंघ का नेतृत्व करने की जिम्मेदारी देते हैं।
वाम यहां नोट,सरकार ,जाति और लट्ठ के बल पर चुनाव नहीं लड़ता,बल्कि विचारधारा और संघर्ष के इतिहास के आधार पर चुनाव लड़ता रहा है।
जेएनयू कैंपस में लोकतांत्रिक राजनीतिक परिवेश बनाए रखने में वाम की केन्द्रीय भूमिका रही है।विश्व में कहीं पर भी यह परिवेश उपलब्ध नहीं है।यह परिवेश एक दिन में नहीं बना बल्कि इसे बनाने में सभी छात्रों की अग्रणी भूमिका रही है।सभी छात्रों को इस परिवेश के लिए संगठित करने का काम वाम ने किया है,यही वजह है कि अधिकांश समय वाम के पास ही नेतृत्व रहा है।जेएनयू के परिवेश का वाम से बेहतर संरक्षक कोई और नहीं हो सकता,यही इसबार के चुनाव का संदेश है।
जेएनयू में वाम एकता मंच की 2016 में जिस तरह जीत हुई है उसे अनेक लोग हजम नहीं कर पा रहे हैं।हम फिर दोहरा रहे हैं कि जेएनयू के छात्रों की दैनंदिन राजनीति में ,दैनंदिन समस्याओं पर हुए संघर्ष में जो संगठन खरे उतरते हैं आमतौर पर जेएनयू के छात्र उनको ही चुनते हैं।
वे सवर्ण-असवर्ण देखकर वोट नहीं देते।यदि किसी संगठन की विचारधारा दलितों-मुसलमानों के पक्ष में है तो इस आधार पर जेएनयू के छात्र वोट नहीं देते,वे वोट छात्रों के लिए घोषित कार्यक्रम और उसके दैनंदिन जीवन में अमल के आधार पर तय करते हैं।
सतह पर देखेंगे तो कागज में सभी संगठन एक जैसी विचारधारात्मक बातें कहते हैं।मसलन्,आम्बेडकर-फुले को लेकर भाजपा -आरएसएस आज जितना कागज पर सक्रिय है ,मीडिया में सक्रिय है उससे उसकी दलित पक्षधरता तय नहीं होती।दलित पक्षधरता तय होगी तब जब वास्तव में दलितों का मुद्दा सामने आए और वह जमकर संघर्ष करे।
वाम ने हमेशा दलितों के हितों की रक्षा के सवाल को जेएनयू में उठाया है,उसके लिए लड़ाई लड़ी है।दलितों के हितों की हर स्तर पर रक्षा की है।यदि उनसे कभी चूक हुई है तो छात्रों ने सबक भी सिखाया है।
जेएनयू के प्रसंग में दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि जेएनयू में भी जातिवाद की समस्या है,जेएनयू के शिक्षकों से लेकर छात्रों तक एक वर्ग में जातिवाद का असर है,यह असर पहले भी था,मैं जब पढ़ता था उस समय भी था,आज भी है।
जब दलितों के हितों के खिलाफ प्रशासन ने कभी कोई कदम उठाया ,छात्रसंघ ने हमेशा उसका पुरजोर विरोध किया।यदि लीडरशिप से कभी चूक हुई तो छात्रों की सेंटर से लेकर स्कूल और फिर विश्वविद्यालय स्तर की आम सभा ने प्रस्ताव पास करके संघर्ष की रूपरेखा तैयार करके दी और छात्रसंघ ने लड़ाई लड़ी।
यह सच है जेएनयू में पहले भी अनेक शिक्षक ऐसे रहे हैं जो भूमिहार या ब्राह्मण जाति के छात्रों को प्राथमिकता से दाखिले से लेकर नम्बर तक देते थे,फैलोशिप भी देते थे।लेकिन छात्रसंघ ने हमेशा इस तरह के फैसलों के खिलाफ एकजुट संघर्ष करके इस तरह के शिक्षकों और उनके फैसलों को बेनकाब किया।इसलिए यह कहना कि वाम सवर्णवादी है,एकसिरे से गलत है।छात्र सिर्फ छात्र रहें,वे छात्रचेतना से लैस हों,प्रगतिशील विचारधाराओं के करीब रहें,यही वामदलों का प्रयास रहा है।
जेएनयू को जो संगठन हिन्दुत्व और इसी तरह की बेगानी विचारधाराओं में डुबोना चाहते थे उनको निराशा हाथ लगी है। जेएनयू का स्वाभाविक भावबोध वामपंथी है। वाम के अलावा यहाँ बाक़ी विचारधाराएँ फ़ैशन की तरह हैं ।
वाम की जेएनयू में जन्म से लेकर आज तक निरंतरता रही है। बाक़ी विचारधाराएँ फ़ैशन की तरह आती जाती रहती हैं।यहाँ जातिवाद टूटा है,धर्म भी टूटा है। धर्मनिरपेक्षता के अनेक रंगों का यहाँ प्रचार होता रहा है।
जेएनयू में जाति महत्वपूर्ण नहीं है, वर्ग भी महत्वपूर्ण नहीं है। छात्र अस्मिता महत्वपूर्ण है। एलीट और एलीट विरोधी, आईएएस और क्रांतिकारी आदि सबने यहाँ लोकतंत्र का पाठ पढ़ा है।लोकतंत्र का पाठ जातिचेतना या वर्गचेतना से निर्मित नहीं होता। छात्रों के प्रति प्रेम से पैदा होता है।
छात्रप्रेम के लिए आम्बेडकर- ज्योतिबा फुले -मार्क्स की नहीं छात्रों को समझने , उनकी समस्याएँ समझने और उनके लिए एकजुट संघर्ष की भावना से पैदा होती हैं।
जेएनयू में छात्रसंघ महत्वपूर्ण है। यह सभी छात्रों के हितों का यह साझा मंच है। छात्रसंघ में चुने जाने का मतलब है सबका छात्र प्रतिनिधि।पार्टीजान ढंग से छात्रसंघ काम नहीं करता। यही वह चीज़ है जिसने कैम्पस में छात्रजीवन, छात्र और साझा मंच की धारणा को जन्म दिया है। समूची प्रक्रिया इतना व्यापक रसायन बनाती है कि मार्क्स-माओ-आम्बेडकर आदि की विचारधाराएँ इस प्रक्रिया के संगम में विलीन हो जाती हैं। यही वजह है कि जेएनयू में लोकतांत्रिक प्रक्रिया महत्वपूर्ण है। विचारधारा, जाति, वर्ग,धर्म आदि गौण बन जाते हैं।
जेएनयू में नए संगठन आते रहे हैं, चुनाव में भी भाग लेते हैं। इनमें विभिन्न रंगत के संगठन रहे हैं , जेएनयू में ऐसे उम्मीदवार भी रहे हैं जिनका कोई संगठन नहीं था लेकिन बडी संख्या में छात्र सुनने जाते थे। इस तरह के संगठन आज भी हैं जिनमें गंभीर विचारधारात्मक अंतर हैं, यही चीज़ जेएनयू को जेएनयू बनाती है। यह जेएनयू और वाम के मिश्रित सम्मिश्रण से बनी ज़मीन है जिस पर जेएनयू में हज़ार विचारधाराओं को खिलने दो के आधार पर विशाल जेएनयू खड़ा है। जेएनयू में विचारधारा नहीं छात्र एकता महत्वपूर्ण है। वही विचारधारा वहाँ बची रही है जो छात्रों में जेएनयू स्प्रिट बनाए रखने में मदद करे।
कैम्पसबोध - लोकतांत्रिकबोध इसकी धुरी है। जो लोग नायकों के झुनझुना लिए घूम रहे हैं वे जान लें कि छात्रएकता के सामने सभी नायक नतमस्तक हैं।
जेएनयू में नायक नहीं, विचारधारा नहीं ,छात्रों की व्यापक एकता महत्वपूर्णहै। इस एकता के सामने मार्क्स-एंगेल्स-माओ -ट्रास्टस्की--आम्बेडकर -जयप्रकाश नारायण -लोहिया आदि की विचारधाराओं को नतमस्तक होते देखा है, हर बार नई विचारधारा के संगठनों को यह कैम्पस देख चुका है।इसीलिए तो यह जेएनयू है।
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