आज से 27 साल पहले कलकत्ते में मेरी शिक्षक के रूप में पहली और आखिरी पक्की नौकरी लगी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में 22अप्रैल 1989 को प्रवक्ता के रूप में मैंने नौकरी आरंभ की।बाद में सन् 1993 में रीडर और 2001 में प्रोफेसर बना। जिस समय नौकरी आरंभ की थी तो मेरे पास 2शोध डिग्रियां थीं,उनके शोध –प्रबंध थे,वे अप्रकाशित थे।जेएनयू में पढ़ने और छात्र राजनीति में सक्रिय रहने के कारण सारे देश में कमोबेश प्रगतिशील खेमे से जुड़े लोग मुझे जानते थे।मैं शुरू से ही रिजर्व प्रकृति का रहा हूँ।कोई बोलता है तो बोलता हूं,हलो करता है तो हलो करता हूँ,अधिकतम समय घर पर रहना और पढ़ना-लिखना,यही मेरी दिनचर्या रही।इस चक्कर में कलकत्ते में 27साल तक रहने के बाद भी मैं न तो बहुत सारे लोगों को नहीं जानता और न मेरी मित्रता है।
मैं जब दिल्ली में जेएनयू में पढ़ता था तो 1979 से 1987 के बीच में मेरा अधिकतर समय जेएनयू कैम्पस में ही गुजरा,दिल्ली के लेखकों में बहुत कम आना जाना होता था,जब कभी जनवादी लेखक संघ के ऑफिस जाता तो वहां लेखकों से मुलाकात हो जाती थी,बातें हो जाती थीं।उससे ज्यादा लेखकों से मिलने का मौका मुझे नहीं मिला।कलकत्ता आया तो मेरे मन में दो लोगों से मिलने की इच्छा थी वे हैं सत्यजित राय और उत्पल दत्त।इन दोनों से मैं इनके घर जाकर मिला और बातें कीं।इनमें उत्पल दत्त से दो बार मिला।बाकी बंगला बुद्धिजीवियों से गणतांत्रिक लेखक-शिल्पी संघ के दो-तीन कार्यक्रमों में सामान्य शिष्टाचार के नाते मुलाकात जरूर हुई। चूंकि मैं माकपा का सक्रिय सदस्य था,इस नाते लोकसभा-विधानसभा चुनावों के समय 1989 से 2005 तक मैंने वाममोर्चे और माकपा की चुनावी सभाओं में जमकर हिस्सा लिया और उसी के बहाने पश्चिम बंगाल को करीब से गैर-कम्युनिस्ट की नजर से देखा।माकपा की चुनाव सभाओं में अधिकतर दलितों-मुसलमानों और हिन्दीभाषी बस्तियों में सभाएं करने जाता था।इसके कारण इन समुदायों के जीवन को बहुत करीब से देखने का मौका मिला। इसके अलावा जनवादी लेखक संघ और पश्चिम बंग हिन्दी अकादमी की गतिविधियों में भी हिस्सा लेता रहा,क्योंकि इन दोनो में एक दौर में जिम्मेदार पदों पर काम कर रहा था। यही ले-देकर अपना 27 साल का राजनीतिक-सामाजिक लेखा-जोखा है।मेरी इस दौरान किसी भी नेता ,मंत्री आदि से कोई मित्रता नहीं हो पायी।जबकि मैं बहुत सारे मंत्रियों-नेताओं आदि को जानता था।
कलकत्ता विश्वविद्यालय में मैंने जब पढ़ाना आरंभ किया तो उस समय मेरे दो लक्ष्य थे,पहला था मीडिया को एकदम नए नजरिए से देखा और लिखा जाए जिससे हिन्दी में मासमीडिया के पठन-पाठन को बदला जाए,उस समय यह लग रहा था कि यह बड़ा क्षेत्र है जो आने वाले दौर में अकादमिक और सामाजिक तौर पर बहुत गर्म रहेगा।इसी चीज को मद्देनजर रखते हुए मीडिया पर नियोजित ढ़ंग से काम आरंभ किया।खासकर मीडिया के राजनीतिक अर्थशास्त्र,संरचना और विचारधारा के सवालों को 1960 के बाद सारी दुनिया में पैदा हुए वामपंथी विचारकों के विचारों की रोशनी में विश्लेषित करने की कोशिश की,संभवतः पहलीबार हिन्दी को मीडिया में वाम विचारकों का परिचय मेरी किताबों के माध्यम से हुआ।किताबें कब और कैसे लिखी गयीं इन पर बाद में कभी विस्तार से लिखूँगा।
यह एक विलक्षण संयोग है कि मैंने मीडिया पर जितना भी लिखा निरूद्देश्य लिखा,किसी पाठ्यक्रम के लिए नहीं लिखा,मैंने जिन विषयों पर लिखा वे विषय पाठ्यक्रम में कहीं पर भी पढ़ाए नहीं जाते थे, लेकिन बाद में किताब बाजार में आने के बाद अनेक विश्वविद्यालयों के मीडिया पाठ्यक्रम बदले गए और आज स्थिति तुलनात्मक तौर पर बहुत बेहतर है।संतोष की बात है मेरी सभी किताबें बिना किसी प्रचार के बिकी हैं,एक किताब को छोड़कर कोई किताब सरकारी खरीद में नहीं ली गयी,सारी किताबें छात्रों-शिक्षकों और पाठकों ने खरीदीं और मुझे संतोष दिया।
मैंने रॉयल्टी के लिए लेखन आरंभ नहीं किया।बल्कि यह कहना सही होगा कि किताब लिखने में मेरे पैसे ज्यादा खर्च हुए,संतोष यह था कोई किताब मैंने अपने पैसे नहीं छपवाई,प्रकाशक को जैसे उचित लगा उसने किताबें बेचीं,मैंने कभी हिसाब नहीं मांगा,उसने मन मर्जी से जो दे दिया वह मैंने ले लिया।क्योंकि मुझे बाजार की हकीकत का अंदाजा है। बाजार का सत्य यह है कि किताब की रायल्टी से मेरा एक महिने का खर्चा नहीं उठ सकता।मैंने फिर भी किताबें लिखीं ,क्योंकि यह मेरी सामाजिक जिम्मेदारी का अंग है।लेखन को मैं लाइफ लाइन मानता हूँ। जो लिखता नहीं है वह मर जाता है।सन् 1989 में कोई किताब नहीं थी,आज तकरीबन 50 किताबें हैं।यही ले-देकर मेरा सबसे बड़ा सुख है।यही मेरा संतति-सुख भी है।यह पिछले 27साल की सामान्य गतिविधि का लेखा-जोखा है।
मेरा दूसरा लक्ष्य था विभाग के सहकर्मियों के साथ न्यूनतम मतभेद रखकर काम किया जाय।मैं जब कोलकाता आया था तो मेरा बाहरी व्यक्ति के रूप में,पार्टी कैडर के रूप में जमकर प्रचार किया गया, बहुत ही विपरीत माहौल था।आज भी है। संभवतःबंगाल में हिन्दी में मैं पहला पार्टी मेम्बर था जिसकी नियुक्ति हुई थी।उस समय माकपा के सारे देश के विश्वविद्यालयों में चंद शिक्षक थे जो पार्टी मेम्बर थे।मेरे नौकरी जॉयन के करने के साथ ही स्थानीय अखबारों में खूब उलटा-पुलटा छपवाया गया,इसकी कहानियां बाद में फिर कभी लिखूँगा।लेकिन यह सच है कि मैंने 27 साल एकदम विपरीत माहौल में काम किया ।मैंने कभी सहकर्मियों के साथ संवाद बंद नहीं किया । साथ में काम करना है तो इतना स्पेस छोड़ना होगा कि सहकर्मी अपने मन की कर सकें।कुल मिलाकर विभाग में दो बार विभाग की अध्यक्षता पूरे समय रही ,इसके अलावा कार्यवाहक अध्यक्ष का काम मुझे लेक्चरर के रूप में ही मिल गया जो कि वि.वि. में थोड़ा विरल है।मैं अपने 27 साल के कार्यकाल में कभी किसी भी काम से वीसी से नहीं मिला।मेरी प्रकृति है मैं अधिकारियों से दूर रहता हूँ। मुझे अपना काम पसंद है अधिकारियों से मिलना-जुलना,उनकी गुडबुक में रहना,चमचागिरी करना यह मेरी प्रकृति में नहीं है। मैंने इसकी कीमत भी दी,लेकिन कीमत बहुत कम है।मेरा मानना है एक शिक्षक को अपना स्वाभिमान और निजता की हर हाल में रक्षा करनी चाहिए।
मैंने अपनी 27 साल की नौकरी में एक नियमित शिक्षक के रूप में काम किया,इसका मुझे फल मिला,छात्रों और शिक्षकों का भरपूर सहयोग मिला।मैंने जब नौकरी आरंभ की उस समय विष्णुकांत शास्त्री,पीएन सिंह,शंभुनाथ पढा रहे थे,चन्द्रा पाडेय ने मेरे साथ ही नौकरी आरंभ की इस विभाग में।बाद में अमरनाथजी आए, उसके बाद सोमा बंध्योपाध्याय,राजश्री शुक्ला,राम आह्लाद चौधरी ने विभाग में सहकर्मी के रूप में काम करना शुरू किया।इस समय अमरनाथ ,सोमा बंध्योपाध्याय,राजश्री शुक्ला,राम आह्लाद चौधरी साथ काम कर रहे हैं।इन सभी को बहुत शुक्रिया।यही 27 साल की कहानी है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें