सोमवार, 5 सितंबर 2016

आलोचना और इतिहास का संकट

        हिन्दी आलोचना संकट में है,इसमें दो राय नहीं हैं।अरूण माहेश्वरी ने ´आलोचना के कब्रिस्तान से´अपनी नई किताब में अपने तरीके से इस संकट की ओर ध्यान खींचा है। इस किताब में आलोचना के क्षय के अनेक रूपों का जिक्र आया है। इस किताब में सात लेख हैं।ये सातों लेख मूल्यवान हैं। लेकिन समस्या यह है क्या ´खीझ´या ´गुस्सा´ या ´धिक्कार´ से आलोचना का विकास संभव है ॽयह चीज बार-बार अरूण माहेश्वरी के नजरिए में अभिव्यक्त हुई है।अरूण मेरा सबसे अच्छा मित्र है।हम दोनों एक-दूसरे को करीब से जानते हैं ।मैं आम तौर पर मित्रों की किताब पर आलोचना लिखने से परहेज करता हूँ।लेकिन अरूण का आग्रह था कि मैं उसकी किताब पर कुछ कहूँ।अरूण की आलोचना के क्षय को लेकर चिन्ताएं जेनुइन हैं।लेकिन वो जिस पद्धति के जरिए उनको हल करना चाहता है.वह सही नहीं है। अरूण की अच्छी बात यह है वह निडर होकर धारावाहिक ढंग से लिखता है।उसके इस धारावाहिक लेखन का परिणाम है प्रस्तुत किताब। वह जब लिखता है तो एकायामी होकर राजनीतिक नजरिए से लिखता है।उसकी किताब पढ़ते हुए कुछ सवाल मेरे मन में उठे हैं जिनको मैं शेयर करना चाहता हूँ।

आलोचना कोई दुर्वासा की भाषा नहीं है।यह वकील का तर्कशास्त्र नहीं है। विरोधी को ध्वस्त करने का नाम आलोचना नहीं है। आलोचना संवाद-विवाद और शिरकत है।आलोचना बिना पैमाने या प्रतिमान के लिखी जाएगी तो उसकी कोई पहचान नहीं बनेगी।आलोचना कच्चा माल नहीं है,वह निष्पन्न विधा है।उसके सभी रास्ते खुले होते हैं,वह कोई बंद मार्ग नहीं है।आलोचना साहित्य सहचर है।आलोचना लिखते समय संवाद और नए की खोज का सहारा लेना चाहिए।आलोचना साहित्यिक कृति की जीरोक्स कॉपी नहीं है। आलोचना के लिए पद्धति और परिप्रेक्ष्य का होना बेहद जरूरी है।निष्कर्ष निकालने,जजमेंट देने,मूल्य-निर्णय आदि से आलोचना में बचना चाहिए.आलोचना निष्कर्ष नहीं है।आलोचना तो नई समस्या का आरंभ है।आलोचना को ´गुस्सा´,´क्षोभ´,धिक्कार´ ,´तिरस्कार´ की भाषा से बचना चाहिए।

यह सच है हिन्दी का मौजूदा आलोचना परिदृश्य बेहद पीड़ादायक है।लेकिन आलोचना ´पीड़ा´ नहीं है, वह पीड़ा की सर्जनात्मक अभिव्यक्ति है।आलोचना जब सर्जनात्मक अभिव्यक्ति बनती है तो नई विधागत संरचना में अपने को तब्दील कर लेती है।शब्दजाल से अपने को मुक्त कर लेती है।लेकिन यदि आलोचना पद्धति और परिप्रेक्ष्य के बिना लिखी जाएगी तो मात्र शब्दजाल बनकर रह जाती है।हिन्दी समीक्षा फिलहाल शब्दजाल में फंसी नजर आ रही है।



हिन्दी आलोचना की दो बड़ी समस्याएं हैं ,पहली है ,वाम राजनीति और वाम विरोधी राजनीति, हिन्दी में इन दोनों के नजरिए से बड़े पैमाने पर आलोचना लिखी गयी,इस तरह की आलोचना का न तो राजनीतिक महत्व है और न साहित्यिक महत्व है,हां,इस तरह की आलोचना का प्रचार महत्व जरूर है।इस नजरिए से देखें तो हिन्दी में प्रचार के लिए आलोचना खूब लिखी गयी है।आलोचना जब प्रचार के लिए लिखी जाती है तो उसकी नजर सिर्फ अंतर्वस्तु और व्याख्या पर होती है।इस क्रम में आलोचना के मानदंड और परिप्रेक्ष्य के सवाल बहुत दूर छूट जाते हैं।इस तरह की आलोचना ´वर्तमान´केन्द्रित और सांगठनिक-राजनतिक उपयोगितापरक होती है। जबकि आलोचना को इससे बचना चाहिए।

´पञ्चतंत्र´ और उससे जुड़े सवाल-

इसी तरह आलोचना लिखते समय ´अनैतिहासिकता´ और ´ऐतिहासिकता के सरलीकरणों ´से बचने की जरूरत है।मैं यहां नमूने के तौर पर अरूण माहेश्वरी के लेख ´रवीन्द्रनाथ ,छायावाद और हिन्दी आलोचना´का जिक्र करना चाहता हूँ।इसमें पंचतंत्र की कहानियों के बारे में जिस तरह का निष्कर्ष निकाला गया है, उससे बचना चाहिए।बतर्ज माहेश्वरी ´पञ्चतंत्र´ की कहानियां ´ आज भी ज्ञान के शॉर्टकट की तलाश में लगे लोगों को´ अपनी ओर खींचती हैं , यह ´कान में मंत्र फूंकने वाला´साहित्य है। इस तरह के मूल्यांकन तुलनात्मक तौर गैर जरूरी हैं। चरमोत्कर्ष देखें ´लेकिन गौर करने की बात यह है कि पञ्चतंत्र की ये कहानियां जो खास प्रयोजन के लिए रची गईं,कभी भी पाणिनी के व्याकरण,चाणक्य के अर्थशास्त्र और वात्स्यायन के कामशास्त्र का स्थान नहीं ले पाईं।´ मेरे ख्याल से ´पंचतंत्र´की कहानियों का यह अनैतिहासिक विवेचन है।

प्राचीनकालीन सर्जनात्मक साहित्य के मूल्यांकन में हमें कार्ल मार्क्स के ´कला और समाज के विषम संबंध का सिद्धान्त´और मिखाइल बाख्तिन के महाकाव्य संबंधी आलोचनात्मक दृष्टिकोण की मदद लेनी चाहिए।

ऐतिहासिक रूप में देखें तो ´पञ्चतंत्र´ की कहानियां हमारे प्राचीन समाज की पशु-कथा परंपरा का अंग हैं। इनको किसी भी तरह के वर्गीकरण में बांधने से बचना चाहिए।उल्लेखनीय है ऋग्वेद से पशु-कथा कहने की परंपरा चली आ रही है।इनका उपनिषदों में भी उल्लेख मिलता है।बाद में महाभारत और फिर पंचतंत्र में पशु-कथाएं मिलती हैं।यह असल में मनुष्य की आदतों के पशुओं में स्थानान्तरण की समस्या की ओर ध्यान खींचती हैं।ये महज उपदेशात्मक कथाएं नहीं हैं।बल्कि इनमें जानवरों के कर्म को मनुष्यों को उपदेश देने के साधन के रूप में इस्तेमाल किया गया है।उपदेश की पद्धति महज सरलता से ग्रहण कर लेने के लिहाज से इस्तेमाल की गयी है।लेकिन पंचतंत्र की कहानियां हमारी प्राचीन कथा का कलात्मक रूप हैं।कहने का आशय है कि पशु कथा की परम्परा पहले से चली आ रही थी जिसे पंचतंत्र ने अपने तरीके से नई कलात्मक ऊँचाई पर पहुँचाया।पशु कथाओं का पतंजलि,पाणिनी आदि के यहां भी प्रयोग मिलता है।इस तरह की कहानियों में अधिकांश कहानियों में पुनर्जन्म की धारणा को प्रचारित करने की कोशिश की गयी है।यह काम बौद्धों ने भी खूब किया है। वे पशु और मनुष्य के निकट सम्बन्ध को चित्रित करने के बहाने पुनर्जन्म की कल्पना को पेश करते थे।वे लोग पिछले जन्मों में बुद्ध और उनके समकालीन महापुरूषों की महत्ता एवं उनके कार्यों का उदाहरण देने के लिए पशुओं की कथाओं का उपयोग करते हैं।पाणिनी,पतंजलि आदि के यहां पशु कथाओं का जिस तरह जिक्र मिलता है,उससे यह अंदाजा लगा सकते हैं कि पुराने जमाने में पशु कथाओं को साहित्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता था।पंचतंत्र की कहानियों में कला की कमी है,यह सर्व-स्वीकृत तथ्य है।इन कहानियों में अंशतः कहानी, अंशतः व्यावहारिक जीवन के आदर्श या सिद्धांत,भले ही वे नैतिक दृष्टि से उच्चतर न हों,का चित्रण मिलता है।पशुकथाएं मूलतःअर्थशास्त्र और नीतिशास्त्र से संबंधित हैं। ये धर्मशास्त्र से संबंधित न होकर व्यावहारिक राजनीति में मनुष्य के कर्तव्यों,दैनन्दिन जीवन और पारस्परिक संबंध के अनुष्ठान से सम्बन्धित हैं।चूंकि पंचतंत्र की कहानियों को सुनाने वाले ब्राह्मण थे अतः उनमें धर्मशास्त्र का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है।वे आम जनता के लिए नहीं, राजा के लड़कों के लिए लिखी गयी कहानियां हैं।ये कहानियां संस्कृत में लिखी गयीं अतःयह साफ है कि इनका लक्ष्य राज परिवार और उनके लड़के ही थे।

´पञ्चतंत्र´ के मूल स्वरूप और उसके स्रोत को लेकर संस्कृत साहित्य के आलोचकों में गहरा विवाद है। सवाल यह है ´पंचतंत्र´ के नाम से हम जिस किताब को जानते हैं वह कौन सी किताब है ॽ उसका लेखक कौन है और कहां का निवासी है ॽउल्लेखनीय है 570 ईसा पूर्व ´पंचतंत्र´का पहलवी रूपान्तर अब लुप्त हो चुका है।उसका एक सीरियन रूपान्तर और एक अरबी रूपान्तर जरूर मिलता है।इसके अलावा गुणाढ्य की ´बृहत्कथा´ में समाविष्ट रूपान्तर मिलता है।जिसके आधार पर 11वीं सदी में सोमदेव ने ´कथासरित्सागर´ और क्षेमेन्द्र ने ´बृहत्कथामञ्जरी´की रचना की।इसके अलावा ´तन्त्राख्यायिक´ नाम से दो पाठान्तर मिलते हैं।दो जैनी संस्करण भी मिलते हैं।ब्युहलर,कीलहॉर्न ने भी बालकों के लिए उपयोगार्थ सरल ´पञ्चतंत्र´तथा पूर्णभद्र के ´पञ्चतंत्र´का उल्लेख भी मिलता है।इसके अलावा दक्षिणी ´पञ्चतंत्र´ ,नेपाली ´पंञ्चतंत्र´ के रूप भी उपलब्ध हैं।

´पञ्चतंत्र´ का अर्थ क्या है ॽ इसका संबंध पाँच प्रतिपाद्य विषयों से संबंध है। मूलपाठ कौन सा है इसके बारे में ठीक से कुछ भी कहना संभव नहीं है।लेकिन ´पंञ्चतंत्र´के लेखक को महाभारत के बारे में अच्छी जानकारी थी यह पता जरूर चलता है. महाभारत में ´दीनार´का प्रयोग मिलता है यही प्रयोग ´पञ्चतंत्र ´में भी मिलता है।इसके आधार पर इसकी रचना 200ईसापूर्व हुई होगी। इसके लेखक के रूप में विष्णुशर्मा का नाम आता है।यह नाम विवाद के घेरे में है। कुछ लोग इसे कल्पित नाम मानते हैं कुछ कहते हैं इस नाम की उपेक्षा न की जाय। फिर भी यह नाम प्रचलन में है।दक्षिण के ´पञ्चतंत्र´में उल्लिखित बातों के अनुसार विष्णुशर्मा दक्षिण के महिलारोप्य या मिहिलारोप्य के राजा अमरशक्ति के पुत्रों को कहानियाँ सुनाया करते थे.इसके अलावा तन्त्राख्यिक तथा जैन पाठान्तर में भी ऋष्यमूक नामक पर्वत का उल्लेख है जो दक्षिण में ही है। हेर्टेल का विचार है ´पञ्चतंत्र´कश्मीर में रचा गया,क्योंकि मूल पुस्तक में न तो व्याघ्र का और न हाथी का ही कोई स्थान है,जबकि ऊँट ज्ञात है। कहने का आशय यह कि ´पंञ्चतंत्र´कहां रचा गया इस सवाल को खुला ही रखें तो बेहतर होगा।

रवीन्द्रनाथ से जुड़े सवाल – रवीन्द्रनाथ पर हिन्दी आलोचकों के नजरिए की आलोचना करते हुए अरूण माहेश्वरी ने ´संतुलन´ से काम नहीं लिया है। आलोचना का काम ´अर्द्ध सत्य´प्रसारित करना नहीं है। आलोचना का काम है सत्य और यथार्थ के बीच संतुलन से पैदा करना। ´संतुलन´ किसी भी ऐतिहासिक विश्लेषण का सार है।रवीन्द्रनाथ का हजारीप्रसाद द्विवेदी पर क्या असर पड़ा इसको समझने के लिए द्विवेदीजी की समग्र इतिहासदृष्टि को केन्द्र में रखकर देखना समीचीन होगा।द्विवेदीजी के बारे में अरूण माहेश्वरी के निष्कर्ष गलत और अनैतिहासिक हैं।रवीन्द्रनाथ के असर को यदि देखना है तो ´हिन्दी साहित्य भूमिका´को देखना समीचीन होगा।यह शांतिनिकेतन का ही असर था कि द्विवेदीजी ने ´भारतीय साहित्य´के परिप्रेक्ष्य में ´हिन्दी साहित्य के इतिहास को देखने पर बल दिया।पहलीबार क्षेत्रीयदृष्टिकोण से साहित्येतिहास को बाहर निकाला,दूसरी परम्परा का वह प्रस्थान बिन्दु है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि द्विवेदीजी ने इतिहास में काल-विभाजन को गैर जरूरी माना।वे रवीन्द्रनाथ की तरह ही इतिहास के अविकल प्रवाह को देखने पर जोर देते हैं।तीसरा महत्वपूर्ण पहलू है मानवतावाद। इतिहासदृष्टि और आलोचना में मानवतावाद की प्रतिष्ठा करने वाले वे पहले हिन्दी आलोचक हैं। ये सारी चीजें रवीन्द्रनाथ के प्रभाव का ही परिणाम हैं।



रवीन्द्रनाथ पर विचार करते हुए हमें इस पहलू पर नजर रखनी चाहिए कि रवीन्द्रनाथ में अनेक अंतर्विरोधी चीजें भी हैं।समस्या यह है अंतर्विरोधी चीजों से पैदा हुई समस्याओं को हम कैसे हल करते हैं ॽ मसलन्, प्रगति,स्वदेशी आंदोलन,राष्ट्रवाद,धर्म,उपनिषद,बुर्जुआ समाज,बुर्जुआ संस्कृति,समाजवाद आदि के प्रति रवीन्द्रनाथ के नजरिए को नए सिरे से विश्लेषित करने की जरूरत है।

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