बुधवार, 30 मार्च 2016

"गलतबयानी" से सच नहीं बदलता किरन खेरजी !


किरन खेरजी आप सांसद एवं अभिनेत्री हैं।हम आपकी बहुत इज्जत करते हैं।लेकिन आज कन्हैया कुमार,जेएनयूएसयू ,अध्यक्ष के 1984 के बयान पर आपका बयान देखकर हमें बहुत तकलीफ हुई।

आपको हमने पहले कभी 1984 के कातिलों पर बोलते नहीं सुना,वरना,आप जानती ही हैं कि उसमें कांग्रेस के अलावा आपके दल के लोगों के नाम भी मीडिया में सामने आए थे ,हाल ही में एक आरटीआई से यह रहस्य सामने आया था कि 1984 के दंगों में संघ के कुछ लोगों ने हिस्सा लिया था लेकिन उनके खिलाफ पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की।पता नहीं आपको यह खबर सामने आने के बाद आपको संघ पर गुस्सा क्यों नहीं आया ॽ आपको यदि 1984 के हत्यारों से सच में घृणा है तो आपको तो भाजपा को छोड़ देना चाहिए !

कन्हैया कुमार ने 1984 के दंगों का राजनीतिक विवेचन करते समय चूक की , उसे यह चूक नहीं करनी चाहिए,लेकिन किरनजी वह दंगा करने नहीं गया,उसका दल (भाकपा या एआईएसएफ) भी कभी साम्प्रदायिक दंगे करने नहीं गया,1984 के दंगों में भी शामिल नहीं था,लेकिन कांग्रेस-आररएसएस के लोग तो शामिल थे।यह हमने मीडिया में ही नहीं पढ़ा अपने छात्र जीवन में जेएनयू , दिल्ली , में पढ़ते हुए,सिख नरसंहार पीडिताओं के मुँह से शरणार्थी शिविरों में प्रत्यक्ष सुना है। मैं उन दिनों जेएनयूएसयू का अध्यक्ष था,कन्हैया कुमार,जेएनयूएसयू,की उसी परंपरा का वारिस है।जिस तरह आप आरएसएस-भाजपा की परंपरा की वारिस है।

किरनजी आप सोचकर देखें आप कहां खड़ी हैं और कन्हैया कुमार कहां खड़ा है ॽआप हत्यारों के साथ हैं और कन्हैया सिख नरसंहार में मदद करने वालों की परंपरा में खड़ा है।आपको 1984 के दंगे पर बोलते समय सबसे पहले अपने नीचे की जमीन देखनी चाहिए ,आपके नीचे की जमीन में सिखों के हत्यारों के चिह्न मिलेंगे,जरा एकबार चप्पलें उतार जमीन पर ठीक से पैर उठाकर तो देखें कि आप किनके ऊपर खड़ी हैं ॽ किस परंपरा के साथ जुड़ी हैं ॽ

किरनजी, मैं नहीं कहता आप दंगाई हैं,मैं नहीं कहता आप अमानवीय हैं,लेकिन मैं आपसे यह उम्मीद तो कर ही सकता हूँ कि कभी हत्यारों को पुलिस के हवाले करवाने में आरएसएस पर दबाव डालेंगी,कम से कम से कम जिन आरएसएस वालों के नाम पुलिस केस दर्ज नहीं हुआ उनके खिलाफ केस दर्ज कराने की कोशिश करेंगी।मैं चाहता हूं पहले आप कांग्रेस-आरएसएस के 1984 के हत्यारों के नामोल्लेख करते हुए बयान तो जरूर दें।

किरनजी, आपने अकारण कन्हैया कुमार को कोसा है कि वह अपनी माँ का ख्याल करे,इत्यादि इत्यादि। मैं कन्हैया को नहीं जानता,मैं उससे कभी नहीं मिला,मैंने उसकी माँ को टीवी पर सुना है,उसके बयान को सुनकर यही लगा कि कन्हैया कुमार जो कुछ कर रहा है वह अपनी माँ के सपनों के अनुरूप ही कर रहा है।आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि कन्हैया की मां देखने में सरल,सीधी महिला है लेकिन चेतना में क्रांतिकारी है।आप क्रांतिकारी माताओं से नहीं मिली हैं इसलिए उनके सपनों के बारे में नहीं जानतीं, कभी समय निकालकर कन्हैया कुमार की माँ से जाकर मिलकर देखो और जानने की कोशिश करो कि वह महिला क्या सोचती है अपने पुत्र के बारे में !



किरनजी ,आप कलाकार हैं,लेकिन कन्हैया के 1984 के बयान पर आपकी कलाकारी रंग नहीं दिखा पाई!! आपको दीक्षा अच्छी नहीं मिली,अच्छी ट्रेनिंग रही होती तो कन्हैयाकुमार ने बहुत कुछ बोला है मोदीजी के बारे में उसकी तीखी आलोचना करतीं,लेकिन आपको तो किसी ने सिखा दिया कि 1984 के बयान पर कन्हैया को घेर लो,लेकिन आपको तो मालूम है वो नटखट कन्हैया है,चट से दुरूस्त कर लेता है,उसने बयान की चूक को दुरूस्त कर लिया,आपने दुरूस्त अंश को क्यों नहीं पढ़ा ॽ आप अभिनय करें लेकिन पूरी स्क्रिप्ट देखकर ! अधूरी स्क्रिप्ट से अभिन्य भी अधूरा ही रहता है,आप कलाकार है,आप मेरी बात को गंभीरता से लेंगी,कन्हैया ने बयान दुरूस्त कर लिया है उसे आगे बढ़ने का साहस देंगी!!

वे वाम का साथ छोड़कर क्यों चले गए ॽ



     पश्चिम बंगाल के चुनाव में टीएमसी के खिलाफ दो साल पहले किए गए नारद वीडियो स्टिंग ऑपरेशन के जरिए किसी भयानक राजनीतिक उथल-पुथल की कुछ लोग उम्मीद लगाए बैठे हैं।हमारा अनुमान है ऐसा कुछ भी नहीं होगा।पश्चिम बंगाल के लोग,खासकर मध्यवर्ग के अंदर इस वीडियो के आने के बाद कोई आक्रोश नजर नहीं आ रहा,यहां के लोग करप्शन से बेखबर हैं,करप्शन देखते हैं,झेलते हैं,सामंजस्य बिठाते हैं और जी रहे हैं,करप्शन को लेकर सारे देश में यही दशा है।जनचेतना की  भयावह स्थिति है कि सारधा चिटफंड कांड में टीएमसी के अधिकांश बड़े नेताओं के लिप्त होने के बावजूद वाममोर्चा कोई विशाल जनांदोलन खड़ा करने में असमर्थ रहा,हां,उसने निरंतर प्रतिवाद जरूर किया,लेकिन जिस स्केल पर लोग चिटफंड घोटाले से लोग प्रभावित हुए हैं उसकी तुलना में दशांश को भी जुलूसों में खींच नहीं पाया,यहां तक कि विधानसभा उपचुनावों में टीएमसी को हराने सफल नहीं हुआ।नगरपालिका चुनावों  में हरा नहीं पाया।ऐसी स्थिति में नारद वीडियो स्टिंग कोई जादू कर देगा हमें नहीं लगता।
     सवाल यह है वाम के साथ जो सामाजिक शक्तियां थीं,जो सामाजिक संतुलन था,वह आज क्यों नहीं है चुनावों की सारी लड़ाई सामाजिक संतुलन को पक्ष में करने की लड़ाई है।ममता ऐन-केन-प्रकारेण सामाजिक संतुलन को अपनी ओर झुकाने में सफल रही है और यही उनके नेतृत्व की सफलता है।

सवाल यह है जो सामाजिक शक्तियां वाम के साथ थीं वे किन कारणों से वाम को छोड़कर चली गयीं मसलन्,शरणार्थी बंगालियों के पुनर्वास में वाम ने सक्रिय भूमिका निभायी और उनकी आर्थिक-सामाजिक शक्ति के विकास में हर संभव मदद की,एक जमाना था ये लोग बेहद गरीब थे,लेकिन वाम जमाने में इनके आर्थिक हालात बदले,इनमें मध्यवर्ग पैदा हुआ,संपत्ति पैदा हुई,लेकिन वामचेतना का विकास न हो सका।वे सिर्फ वोटबैंक बने रहे।लेकिन ज्योंही वाम के खिलाफ सिंगूर-नंदीग्राम आंदोलन के कारण हवा बहने लगी,ये लोग वाम को छोड़कर चले गए।यही हाल शिक्षकों का है। शिक्षकों एक बड़ा वर्ग वाम के साथ था।लेकिन आज वे लोग भी साथ नहीं हैं। जबकि शिक्षकों पर कोई जुल्म नहीं हुआ,इसके बावजूद वे वाम को छोड़कर क्यों चले गए सरकारी कर्मचारियों के संगठन में भी यही हाल है।यह वह वर्ग है जो सचेतन कहलाता है,आर्थिक रूप से सुरक्षित है,इसको कोई खतरा न तो वाम के जमाने में था और न ममता के जमाने में था,फिर यह वर्ग वाम को क्यों छोड़कर चला गया वाम ने कभी सार्वजनिकतौर इन वर्गों के वाम-विमुख हो जाने की समीक्षा नहीं की,क्यों नहीं की ॽक्या बंगलादेशी शरणार्थियों में आई समृद्धि का वाम के नजरिए से कोई अंतर्विरोध है ॽक्या शिक्षकवर्ग के वाम-विमुख होने का वाम के नव्य-आर्थिक उदारीकरण के विरोध और केन्द्र के समान छठे वेतन आयोग के अनुसार नए वेतनमान में केन्द्र के समान महंगाई भत्ता न देने के वाम सरकार के फैसले के साथ कोई संबंध है ॽ जी हां,गहरा संबंध है।इस तरह के फैसलों ने वाम के जनाधार को खत्म करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है और वाम ने अपनी आज तक आत्मालोचना नहीं की है। समस्या को जानकर भी उसके बारे में चुप रहना वाम की विशेषता है,जबकि आम जनता उत्तर चाहती है।समस्या के समाधान सुझाए बगैर वाम को आम जनता दोबारा आसानी से सत्ता पर पहुँचने नहीं देगी।वाम अपना स्टैंड साफ करे कि उसने केन्द्र के बराबर राज्य कर्मचारियों को महंगाई भत्ता क्यों नहीं दिया ॽ भविष्य में देगा या नहीं ॽ आज राज्य में कॉलेज-वि वि लेक्चरर केन्द्र की तुलना में 25हजार रूपये कम पाता है, प्रोफेसर 60रूपये कम पाता है,यह सीधे वामशासन में लागू की गयी वेतननीति का भयानक परिणाम है।यह साधारण बात नहीं है जिसे दरकिनार किया जाए।माकपा के लोग देस में अन्यत्र जितना वेतन पाते हैं पश्चिम बंगाल में माकपा के और अन्य शिक्षक उनसे काफी कम वेतन पाते हैं।यह माकपा के द्वारा किया गया ऐसा अपराध है जिसके लिए उसे कभी माफ नहीं किया जा सकता।  

लोकतंत्र ,जुल्म और बंगाल


        पश्चिम बंगाल विधानसभा के 2016 के चुनाव कई मायनों में महत्वपूर्ण हैं,इस चुनाव का भारतीय राजनीति पर दूरगामी असर हो सकता है।इसबार के चुनाव में कई नई चीजें नजर आ रही हैं जो पहले कभी नहीं देखी गयीं।पहलीबार वाममोर्चा और कांग्रेस के बीच में चुनाव गठबंधन हुआ है,इस तरह का गठबंधन पहले कभी नजर नहीं आया।जमीनी स्तर पर इस मोर्चे ने मिल-जुलकर काम करने की कोशिश की है,इसे आम भाषा मे सिलीगुड़ी लाइन कहते हैं। सबसे पहले सिलीगुडी नगरपालिका चुनाव में कांग्रेस-वाम ने मिलकर चुनाव लड़ा था। उसके परिणाम बेहतर रहे।वाम को वहां विजय मिली।सिलीगुडी लाइन से प्रेरित होकर काफी पहले वाम-कांग्रेस गठबंधन का मन बना चुके थे।

यह पहलीबार हुआ कि राजनीतिक सिद्धांतों को इस मोर्चे के निर्माण में सिलीगुड़ी में आड़े नहीं आने दिया गया,बाद में यही चीज समूचे राज्य में नजर आ रही है।लोकतंत्र के लिए राजनीतिक सफलता जितनी जरूरी है उतना ही जरूरी है सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य ।लेकिन इसबार पश्चिम बंगाल में राजनीतिक सफलता हासिल करना इतना जरूरी हो गया है कि माकपा जैसा सिद्धांतनिष्ठ दल खुलकर इस गठजोड़ के प्रति सैद्धांतिक ढ़ांचा प्रस्तावित नहीं कर पाया,यह माकपा की सबसे बड़ी कमजोरी है।कायदे से संध्याभाषा में पश्चिम बंगाल पर बातें करने से माकपा के केन्द्रीय नेतृत्व को बचने की जरूरत थी और खुलकर यह बताने की जरूरत थी कि उनको कांग्रेस से मिलकर चुनाव लड़ना क्यों जरूरी है ॽ लेकिन माकपा ने ऐसा नहीं किया। इससे माकपा जैसे सिद्धांतनिष्ठ दल की कमजोरी ही सामने आई है,जबकि पश्चिम बंगाल में वह कांग्रेस से कमजोर दल आज भी नहीं है।

सवाल यह है कि क्या राजनीति में सैद्धांतिक पारदर्शिता जरूरी है ॽ यदि हां तो उसका आधार कहां है ॽइस बात को कहने का यह आशय नहीं है कि वाम को कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ना चाहिए।यह माकपा-कांग्रेस तय करें लेकिन कागज पर सैद्धातिकतौर पर परिभाषित तो करें कि वे क्यों और किन परिस्थितियों में मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं ॽ जनता की मांग है,जनता चाहती है,इसलिए वाम-कांग्रेस गठबंधन या सीट समझौता हुआ है,यह सब कहकर सिद्धांतहीनता का प्रदर्शन न करें।कांग्रेस एक सिद्धांतहीन दल है,लेकिन माकपा से हम यह उम्मीद नहीं कर सकते ! भविष्य में कम्युनिस्ट आंदोलन का जो लोग मूल्यांकन करेंगे उनके लिए यह मुश्किल रहेगी कि वे माकपा-कांग्रेस इस गठजोड़ के सैद्धांतिक राजनीतिक दस्तावेज कहीं पर भी नहीं देख पाएंगे। राजनैतिक व्यवहारवाद को इस गठजोड़ का मूलाधार बना दिया गया है।

कांग्रेस-वाम की पश्चिम बंगाल में राजनीतिक एकता का एक धागा जिस तरह सिलीगुड़ी लाइन से जुड़ा है उसी तरह उसका दूसरा धागा हाल के पूना-हैदराबाद-जेएनयू के छात्र आंदोलन से भी जुड़ा है। तीसरा धागा मोदी सरकार की अ-लोकतांत्रिक और अधिनायकवादी नीतियों के खिलाफ संसद में वाम-कांग्रेस की संयुक्त कार्रवाईयों से भी जुड़ा है। इन तीनों ही धागों से मिलकर वाम-कांग्रेस का पश्चिम बंगाल में जमीनी राजनीतिक समझौता हो पाया है।

पश्चिम बंगाल की जमीनी सच्चाई यह है कि ममता सरकार ने हर मोर्चे पर निकम्मेपन और अपराधीकरण का प्रदर्शन किया है।अपराधियों ने राजनीति को बंधक बना लिया है।खासकर ममता सरकार आने के बाद हर क्षेत्र में अपराधीकरण बढ़ा है,अपराधियों के हमले बढ़े हैं।पुलिस और प्रशासन का दुरूपयोग बढ़ा है।ममता सरकार खुलेआम अपराधियों को संरक्षण देती रही है,औरतों पर अत्याचार बढ़े हैं,बुद्धिजीवियों में सत्ताभक्ति बढ़ी है,गांवों से लेकर शहर तक खुलेआम गुण्डों का दबदबा बढ़ा है।शिक्षित बंगाली मध्यवर्ग ,खासकर लेखकों,बुद्धिजीवियों और शिक्षकों ने सरकार के खिलाफ भय के कारण बोलना बंद कर दिया है।त्रासद पक्ष यह है कि बुद्धिजीवी अपराधियों के संरक्षण में जीने को अभिशप्त हैं।अपराधी किस्म के लोग हर स्तर पर प्रशासन में काम करने वालों को निर्देश दे रहे हैं कि वे क्या करें और क्या न करें।बौद्धिकों का इस तरह का पतन पहले कभी नहीं देखा गया।इससे बंगाल की सांस्कृतिक-बौद्धिक इमेज क्षतिग्रस्त हुई है।समाज में दब्बूपन बढ़ा है।यह वही दब्बूपन है जिसको अपने अंतिम वर्षों में वामशासन में अपराधियों ने पैदा किया था।अपराधियों का सामाजिक क्षितिज पर निर्णायक बन जाना असल में वामयुगीन फिनोमिना है,जो अपराधी एक जमाने में वाम के साथ थे, वाम के चुनाव हारते ही ममता की छत्रछाया में चले गए,इन अपराधियों के कारण वाम को चुनावों में हारना पड़ा,यही अपराधी इसबार ममता के गले की हड्डी बन गए हैं।

सवाल यह है अपराधियों के खिलाफ वाम-कांग्रेस गठबंधन क्या कड़ा रूख अपनाएगा ॽ क्या वे यह वायदा करेंगे कि अपराधियों को संरक्षण नहीं देंगे ॽ पश्चिम बंगाल की जमीनी सच्चाई है अपराधी गिरोह विभिन्न इलाकों में सक्रिय हैं और वोट बैंक नियंत्रित करते हैं।वोट बैंक का नियंत्रण इस तरह देश में अन्यत्र नजर नहीं आता। इस अपराधीकरण पर तकरीबन सभी दल चुप हैं,जबकि सभी मसलों पर थोड़ी बहुत बातें हो रही हैं।यहां तक कि मीडिया कवरेज से भी अपराधी गिरोह गायब हैं। कम से कम मीडिया में विभिन्न इलाकों में सक्रिय अपराधी गिरोहों के काले कारनामों को प्रकाशित करने का काम होना चाहिए।लोकतंत्र को भय मुक्त करने का सबसे आसान पहला कदम है अपराधी गिरोहों की नामों के साथ पहचान को मीडिया में उदघाटित किया जाए।बिना अपराधियों को एक्सपोज किए बंगाल में लोकतंत्र नहीं बचा सकते।तकरीबन 86हजार वारंट कटे हुए लोग राज्य में खुलेआम घूम रहे थे,इनमें से रीयलसेंस में अभी भी 38हजार बाहर हैं,कहा जा रहा है बाकी को चुनाव आयोग के दबाव में पकड़कर बंद कर दिया गया ,लेकिन जमीनी हकीकत बता रही है कि अपराधी खुलेआम बाहर घूम रहे हैं,जिनके एक साल से ज्यादा समय से वारंट कटे हुए थे उनमें से अधिकांश बाहर हैं और सरेआम जनता को धमकाने का काम कर रहे हैं।ऐसी अवस्था में विधानसभा चुनाव में हिंसा का होना,गांवों,मुहल्लों में आतंक का होना स्वाभाविक है। अनेक इलाकों में टीएमसी के नेतागण गांव वालों के मतदादा पहचान पत्र घरों से जबर्दस्ती छीनकर ले गए हैं,अफसरों को कहा गया है कि सत्तारूढ़ टीएमसी के पक्ष में काम करो,मतदान कराओ। जिन इलाकों में हिंसा की घटनाएं हो रही हैं वहां पर पुलिस निष्क्रिय दर्शक बनी हुई है।केन्द्रीय पर्यवेक्षक और केन्द्रीयबलों के आने के बावजूद हिंसक हमले बंद नहीं हुए हैं। आतंक-भय कम नहीं हुआ है। खासकर वाम-कांग्रेस कार्यकर्ताओं पर अनेक इलाकों में दीवारलेखन से लेकर मीटिंग न करने देने के लिए टीएमसी के लोगों ने हमले किए हैं। निचले स्तर टीएमसी के छद्म संगठनों द्वारा झुग्गी-बस्ती इलाकों में भजन-कीर्तन के आयोजन किए जा रहे हैं,यह हिन्दूवोटरों को जोड़ने की साम्प्रदायिक कोशिश है। इलाके के लोगों में सामूहिक भोज कराए जा रहे हैं, लेकिन चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों का कोई हस्तक्षेप नजर नहीं आ रहा।



इसबार के चुनाव में कांग्रेस-वाम के पास कैडर या कार्यकर्ताओं का अभाव सहज ही देखा जा सकता है। बड़े पैमाने पर माकपा के कैडरों ने टीएमसी में शामिल होकर माकपा की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। एक जमाना था माकपा के पास इफरात में कैडर हुआ करते थे,आज टीएमसी के पास कैडर है।सांगठिक हथियारबंद लोग हैं जो एक ही इशारे पर कहीं पर भी जाकर एक्शन कर सकते हैं।यह वह टीम है जो नंदीग्राम-सिंगूर आंदोलन के दौरान बनायी गयी थी।इस टीम में तकरीबन 10हजार लोगों के होने का अनुमान है।इसके अलावा दलालों,बिल्डरों,ठेकेदारों,चिटफंड एजेंट, पुलिस अफसरों के एक अंश का ममता को खुला सहयोग हासिल है।इसने निचले स्तर पर वाम-कांग्रेस के प्रचार को बाधित किया हुआ है।अब देखना यह है कि वाम-कांग्रेस गठजोड़ किस तरह इस नाकेबंदी को तोड़ता है।एक तथ्य साफ है यदि शांतिपूर्ण मतदान होता है तो ममता नहीं जीतेगी।

रविवार, 27 मार्च 2016

जेएनयू और छिपाने की कला


        जेएनयू का 9फरवरी2016 का मुद्दा राजनीतिक-डिजिटल है।राजनीतिक आयाम समझ में आ रहेहैं उन पर बहस भी हो रही है।लेकिन डिजिटल दुरूपयोग के आयाम खुलने बाकी हैं। जिस समय 9फरवरी की घटना घटी उसी दिन मौके पर पुलिस मौजूद थी,कोई वीडियोग्राफर भी था,लेकिन तत्काल किसी ने पुलिस में कोई शिकायत दर्ज नहीं की।पुलिस ने मौके पर रहते हुए किसी की गिरफ्तारी नहीं की,यहां तक कि बाद में भी पुलिस ने किसी के खिलाफ एफआईआर दर्ज नहीं करायी।चूंकि घटना कैम्पस में हुई थी अतःइस घटना पर विश्वविद्यालय की एफआईआर दर्ज कराने की जिम्मेदारी बनती है लेकिन वि.वि. ने भी इस घटना पर पुलिस में शिकायत दर्ज नहीं करायी,यही वह बिंदु है जहां से जेएनयू की 9फरवरी की घटना एक नियोजित सत्ता षडयंत्र प्रतीत होती है।जो भी शिकायतें या एफआईआर पुलिस में हुई हैं वे भाजपा के सांसद और एबीबीपी के जेएनयू नेताओं ने करायी हैं।जबकि तकनीकी तौर पर वे इसके लिए अधिकारी नहीं हैं। असल में ,डिजिटल मेनीपुलेशन के जरिए जेएनयू के छात्रों,वि.वि.समुदाय और शिक्षकों के साथ समूचे वि.वि. को बदनाम करने की कोशिश की गयी।जेएनयू के 5 छात्रनेताओं ,जिनमें छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार शामिल है,को राष्ट्रद्रोह के झूठे मुकदमे में फंसाया गया और कन्हैया को जेएनयू से गिरफ्तार किया गया,सारे कैम्पस में पुलिस ने छापे मारे,तलाशी ली।सबसे खतरनाक बात हुई कि 9फरवरी2016 की घटना के एक वीडियो का कई टीवी चैनलों ने जमकर दुरूपयोग किया और जबकि यह वीडियो मेनीपुलेशन से तैयार किया गया था।फेक वीडियो था।

इस समूचे प्रसंगने राजनीतिक शत्रुता के लिए डिजिटल दुरूपयोग की नई मिसाल कायम की,इस तरह के डिजिटल मेनीपुलेशन की हरकतें मुजफ्फरनगर के दंगों के समय भी हुई हैं। राजनीतिक शत्रुता के लिए डिजिटल को औजार की तरह इस्तेमाल करने की इस तरह की हरकतों ने डिजिटल सचेतनता के सवालों को केन्द्र में लाकर खड़ा कर दिया है।इस तरह की घटनाओं ने यह भी साफ कर दिया है कि आरएसएस डिजिटल मेनीपुलेशन में बादशाह है।

डिजिटल मेनीपुलेशन नए किस्म का खतरा है जो जमीनीस्तर पर कलह पैदा करता है। आजकल घटनाएं घट रही हैं लेकिन हम नहीं जानते कि क्या हो रहा है ॽक्यों हो रहा है ॽकौन लोग कर रहे हैं ॽघटना हो रही हैं लेकिन हम उसके ´तथ्य´और ´सत्य´को नहीं जानते।असलमें, हम सब राजनीति से दूरी बनाकर रखते हैं।राजनीतिक लक्ष्यों से भी दूरी बनाकर रखते हैं इसलिए नहीं जानते कि यह सब क्यों हो रहा है। साम्प्रदायिक- विभाजनकारी-आतंकी संगठनों से लेकर समर्थ भाजपा जैसा दल भी डिजिटल मेनीपुलेशन का जमकर इस्तेमाल कर रहा है। इसे ´´तकनीकी विभ्रमवाद´´कहे तो बेहतर होगा।इसका दायरा इराक,बोस्निया,अफगानिस्तान से लेकर जेएनयू तक के घटनाक्रम तक फैला हुआ है। इस दौर में जो हमले हो रहे हैं उनमें एक ओर से सत्ता हमलावर है तो दूसरी ओर हमलावर मीडिया है। लोकतांत्रिक हकों पर हमले को ´राष्ट्रसेवा´ या ´राष्ट्रवाद´कहा जा रहा है।अंधविश्वास के खिलाफ बोलने वालों पर बर्बर हमले किए जा रहे हैं।इन हमलों को वैचारिक ´श्रेष्ठत्व´कहा जा रहा है।जिन घटनाओं पर माफी मांगनी चाहिए उन पर नेतागण हेकड़ी और अहंकार से उनकी हिमायत में बोल रहे हैं।

आयरनी यह है सत्ता के हमलों को लोकतंत्र कहा जा रहा है,कानून के दुरूपयोग को न्यायपालन कहा जा रहा है।मीडिया और साइबर हमलों के जरिए सभी किस्म के कानूनों को मुक्ति दे दी गयी है।सभ्यता के मानकों को त्यागकर अधिकांश मीडिया ने आतंक का मार्ग ग्रहण कर लिया है। इसे साइबर डी-रेगूलेशन कह सकते हैं।जिसके आधार पर इराक से लेकर सीरिया तक स्वचालित मिसाइलों के हमले हो रहे हैं ,और कानूनभंग हो रहा है,´हमलावर´ को क्षमादान दे दिया गया है। ´हवाई ट्रांसपोर्ट ´और ´साइबर संचार´का पूरी तरह ´डी-रेगूलेशन´करके ग्लोबल पूंजीवाद ने नई परिस्थितियों को पैदा किया है। शांति स्थापना के नाम पर सेना और हथियारों के जरिए घेराबंदी और हमले,देश में शांति के नाम पर हिन्दुत्ववादियों के हमले,कुल मिलाकर त्रासद समय की सृष्टि कर रहे हैं।

पहले ´मतभेद´ होते थे तो उनको सार्वजनिक तौर पर व्यक्त करते थे,लोग सुनते थे,लेकिन नयी संस्कृति है ´हमला करो´, ´हिंसा के जरिए´ ´कानूनी आतंक´के जरिए मुँह बंद करो। पहले राजनैतिक विवाद को जमीनी स्तर पर हल करने या जीत हासिल करने की कोशिश की जाती थी लेकिन इन दिनों विवाद को सत्ता के तंत्र के जरिए,बाहुबल के जरिए हल करने की कोशिशें हो रही हैं।पहले प्रतिवाद करने वाले का सम्मान करते थे,इन दिनों उसके खिलाफ घृणा प्रचार हो रहा है।जेएनयू की घटना इस फिनोमिना का आदर्श उदाहरण है। पहले प्रतिवाद का सम्मान करते थे, इन दिनों प्रतिवाद का अपमान करते हुए प्रतिवाद का प्रतिवाद करते हैं।इस बहाने प्रतिवाद से ही वंचित करने की कोशिशें हो रही हैं।इस हठकंडे का आरएसएस जमकर इस्तेमाल कर रहा है।अब खबरों को भी मैन्युफेक्चर किया जा रहा है,इनके आधार पर हिन्दूभारत के निर्माण की कोशिशें हो रही हैं।

इन दिनों ´विवादों´में राजसत्ता का हस्तक्षेप सबसे बड़ी चुनौती है।जेएनयू के मसले पर यह तत्व सबसे उग्र रूप में सामने आया है, राजनेताओं,केन्द्रीय मंत्रियों और पुलिसतंत्र के जरिए जिस तरह स्थानीय छोटी समस्या में मोदी सरकार ने हस्तक्षेप किया है वह अपने आपमें लक्षण है कि संघ किस तरह की राजनीति कर रहा है।संघ सीधे सत्ता के जरिए नाकेबंदी करके हस्तक्षेप कर रहा है,तथाकथित आम सहमति के नाम पर आतंक पैदा कर रहा है,अभिव्यक्ति की आजादी को बाधित कर रहा है। इसके अलावा संघ के दबाव में लेखकों के कॉलम बंद कराए जा रहे हैं,किताबों की खरीद-फरोख्त में विचारधारा के आधार पर फैसले लिए जा रहे हैं।ये सब चुप कराने के तरीके हैं।

दिक्कत यह है कि अब हर चीज तेजगति से आ रही है। तेजगति से ही संघ के हमले हो रहे हैं। जो तेजगति के मंत्र जानता है वह तो इन हमलों से बच सकता है जो नहीं जानता वह इन हमलों में मर सकता है। विश्व परिप्रेक्ष्य में देखें तो मानवाधिकार बचाने के नाम पर युद्ध हो रहे हैं।लेखक,संस्थान और राष्ट्र की संप्रभुता पर हमले हो रहे हैं।क्षेत्र,राष्ट्र-राज्य और मनुष्य की संप्रभुता खतरे में है।धर्मनिरपेक्षता और संविधान पर संविधान का नाम लेकर हमले किए जा रहे हैं।´हस्तक्षेप´को परम पुनीत कर्त्तव्य के रूप में पेश किया जा रहा है।जो लोग आरएसएस के खिलाफ हैं उनके खिलाफ सूचना युद्ध की घोषणा हो चुकी है।इस काम में कारपोरेट मीडिया और इंटरनेट का सुनियोजित ढ़ंग से इस्तेमाल हो रहा है।

हमें नए युग की प्रक्रियाओं को बृहत्तर परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए।खासकर ´कम्प्यूटर विवेकवाद´ के नजरिए से देखना चाहिए। ´कम्प्यूटर विवेकवाद´ के बहाने नए किस्म के विवेकवाद को आरोपित किया जा रहा है।यह वह विवेकवाद है जिसे कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग के जरिए थोपा जा रहा है।इसका आरंभ युद्ध में स्वचालित मिसाइलों के प्रयोग से हुआ।आज यह साइबर सत्ता का सबसे प्रभावशाली औजार है।इसका जनक है कम्प्यूटर इंजीनियरिंग,और भोक्ता है शासकवर्ग।इसके जरिए सुनियोजित ढ़ंग से रेशनेलिटी को ´स्पेस´से लेकर दैनंदिन जीवन तक आरोपित किया जारहा है।इसे ´साइबर हमलावर´ कहें तो अत्युक्ति न होगी।

´साइबर हमलावर´वे हैं जिनका कोई सामाजिक दायित्व नहीं है।संविधान,कानून,संसद,समाज आदि किसी के प्रति ये लोग जबावदेह नहीं हैं।पॉल विरिलिओ के अनुसार यह ऐतिहासिक ´शिफ्ट´ है. पहले जो लोग हस्तक्षेप थे उनको आप जानते थे,उनकी भूमिका थी,दायित्व तय थे। लेकिन आज ऐसा नहीं है,आज सारा कार्य-व्यापार ´वर्चुअल स्पेस ´ से संचालित है।वहीं से चीजें देखी जा रही हैं और वहीं से ´एक्शन´ तय हो रहे हैं। इस तरह के हस्तक्षेप के बारे में पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं है।आज सत्ता को परिभाषित करने के रूप बदल गए हैं।इनमें वर्चुअल स्पेस की बड़ी भूमिका है। ´वर्चुअल स्पेस´ के जरिए व्यक्ति से लेकर राष्ट्र तक सबकी संप्रभुता पर हमले किए जा रहे हैं।पहले राष्ट्र संरक्षक था ,लेकिन इन दिनों राष्ट्र हमलावर है।आजकल वर्चुअल स्पेस बहुत महत्वपूर्ण है ,इसे भौगोलिक क्षेत्रफल के पूरक के रूप में देखना चाहिए ।इसी तरह साइबर अभिव्यक्ति को अभिव्यक्ति के पूरक के रूप में देखना चाहिए।पहले हस्तक्षेप के जरिए बहस या संवाद करने में मदद मिलती थी, लेकिन अब हस्तक्षेप का मतलब है ´तर्कहीनता´ और ´अन्य´के स्पेस का खात्मा।अब ऐसा माहौल बना है जिसमें ´अन्य´ अप्रासंगिक है। हस्तक्षेप के नाम पर आवाज बंद की जा रही है।इससे समूचा समाज टेंशन में है।यही वो परिप्रेक्ष्य है जिसमें जेएनयू और रोहित वेमुला के आंदोलन को देखने की जरूरत है।

एक तरफ मीडिया नियंत्रण बढ़ा है,वहीं दूसरी ओर साइबरसंसार के विकास के साथ ´साइबर लॉजिक बम´से हमले किए जा रहे हैं।इससे अराजकता बढ़ी है। असल में सारी चीजें ´ग्लोबल सूचना वर्चस्व´ के परिप्रेक्ष्य में विकसित हो रही हैं।इस सिस्टम की विशेषता है हर चीज को रीयल टाइम में खोजना,निशाना बनाना और वर्चुअल हमले करना। ´ग्लोबल सूचना वर्चस्व´ के तीन प्रमुख तत्व हैं,1.देश के ऊपर स्थायी उपग्रह प्रणाली की स्थापना,2.सूचना का रीयल टाइम में स्थानांतरण और प्रसारण,3.डाटा का तेजी के साथ विश्लेषण,खासकर विभिन्न चैनलों,माध्यमों आदि के जरिए आ रहे डाटा का तुरंत विश्लेषण ।

विरिलिओ कहते हैं यह असल में ´बिना दीवारों के किले´ का युग है।यह अंतरिक्ष श्रेष्ठता का युग है।जहां भी ’टकराव´ हो वहां अबाध हमले किए जाएं।साइबर स्मगलिंग पर जोर दिया जाए।पुराने संस्कारों, जिनमें धर्म भी आता है,उस पर कुछ न कहो।मसलन्, कोसोवो में बड़े पैमाने पर कब्रें खोज निकाली गयीं,उनकी सैटेलाइट इमेजों की वर्षा की गयी,लेकिन एबीसी टीवी चैनल ने एक भी कब्र नहीं दिखाई। पेंटागन से सैटेलाइट के जरिए यह दिखाया गया कि कोसोवो में पहाड़ों पर रहने वाले लोग पलायन कर रहे ये लोग ´जनसंहार´के डर से भाग रहे थे।जबकि बताया गया कि वे ´उत्पीडन´के कारण भाग रहे हैं। यह भी कहा गया कि अमेरिका का काम है ´अपराधी´खोजना। ठीक यही पद्धति जेएनयू के 9फरवरी के घटनाक्रम पर लागू की गयी।अचानक एक वीडियो ,फिर दूसरा और फिर तीसरा,चौथा.पांचवां वीडियो साइबर स्पेस में अवतरित होता है और जेएनयू पर हमले शुरू हो जाते हैं।किसी भी मीडिया घराने ने घटनास्थल पर जाकर सत्य जानने की कोशिश नहीं की,नारे लगाने वालों को कभी टीवी पर दिखाया नहीं, पुलिस घटनास्थल पर मौजूद थी लेकिन किसी भी नारे लगाने वाले को पकड़ा नहीं,यहां तक कि संघ के लोगों ने भी नहीं पकड़ा।साइबर से लेकर मीडिया तक जेएनयू पर जिस तरह का मीडिया हमला हुआ है वह टिपिकल ´मीडिया संहार´है,इसका लक्ष्य है जेएनयू को कलंकित करना,बदनाम करना,राष्ट्रविरोधी संस्थान बताना।संभवतःआजाद भारत में किसी वि.वि. पर इतना व्यापक हमला पहले कभी नहीं हुआ।यह हमला परंपरागत जासूसी,हमले,अफवाह आदि के हथकंडों से परे है। कम्प्यूटर की भाषा में यह ´ऑप्टिकल हमला´ है ,यह ऐसा हमला है जिसमें जेएनयू पर तो कड़ी निगरानी है ही,जेएनयू आंदोलन का समर्थन करने वालों पर भी निगरानी जारी है।इसके लिए ´पब्लिक ओपिनियन´पर भी निगरानी रखी जा रही है,उसको भी नियंत्रित किया जा रहा है। इसमें साइबर जासूसी से लेकर मीडिया जासूसी तक के हठकंडों का प्रयोग हुआ है। यह समूचा मॉडल ’टेली-सर्विलेंश´के नजरिए से संचालित है।इसके जरिए ही जेएनयू के बारे में आम जनता के नजरिए को प्रभावित किया जा रहा है,सामाजिक व्यवहार और आचरण को प्रभावित किया जा रहा है।

जेएनयू का आंदोलन मूलतः इमेज युद्ध के मानकों से लड़ा गया है।इमेज युद्ध में सूचनाओं के प्रवाह पर नजर रहती है,मोदी सरकार और संघ ने संगठित ढ़ंग से मीडिया से लेकर इंटरनेट तक फेक सूचनाओं के ´ फ्लो´ को बनाए रखा,उसे नियंत्रित किया।इससे बड़े पैमाने पर मीडिया प्रभावित भी हुआ। अधिकांश मीडिया घराने संघ के ´फ्लो´ में संप्रेषित सूचनाओं को ही परोस रहे हैं।इसे मीडिया का सर्वसत्तावादी हस्तक्षेप भी कह सकते हैं।इसके बहाने तर्क,प्रत्युत्तर सभी को अपदस्थ करने की कोशिश की गयी। इस हमले की विशेषता है- ´तुम सिद्ध करो कि तुमने नारे नहीं लगाए,तुम सिद्ध करो कि तुम झूठ नहीं बोल रहे,´ यानी निराधार आरोप लगाएंगे आरएसएस-पुलिस-मोदी सरकार के मंत्री ,वे आरोप के पक्ष में कोई प्रमाण नहीं देंगे ,वे सिर्फ आरोप लगाएंगे ,आरोपों की अंधाधुंध वर्षा करेंगे,अब तुम जेएनयूवालो सिद्ध करो कि आरोप झूठे हैं,तुम प्रमाण दो।यह ´आरोप´ लगाने की अमेरिकी पद्धति है,इस पद्धति के आधार पर अफगानिस्तान,इराक,सीरिया आदि को तबाह किया जा चुका है।



जेएनयू की जो इमेज वर्षा हुई है उसमें बार-बार एंकर से लेकर भाजपा-पुलिस-संघ के प्रवक्ता तक यही कह रहे थे कि ´जेएनयू में देशद्रोही नारे लगे हैं,जिन्होंने नारे लगाएं वे देशद्रोही हैं,´यही मूल आधारभूत वाक्य है जिसका करोड़ों बार प्रक्षेपण किया गया।इस पंक्ति के आधार पर समूचे मीडिया में हंगामा खड़ा किया गया।भ्रम पैदा किया गया। अंत में ,जेएनयू के छात्रनेताओं,जिनमें वर्तमान छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार सहित पांच नेताओं को ´राष्ट्रद्रोह´में भाजपा सांसद महेश गिरि की एफआईआर के आधार पर निशाने पर रखा गया,इन छात्रनेताओं की गिरफ्तारी वैध ठहराने के लिए ´जेएनयू में देशद्रोही नारे लगे हैं,जिन्होंने नारे लगाएं वे देशद्रोही हैं,´इस पंक्ति को अस्त्र के रूप में इस्तेमाल किया गया।इसके इर्द-गिर्द मीडिया-साइबर प्रौपेगैण्डा निर्मित किया गया। यह विशुद्ध असत्य प्रचार अभियान था।इस प्रचार अभियान के जरिए जेएनयू के छात्रों से पूछा गया तुम नाम बताओ,उनको खोजकर लाओ, बताओ वे कौन थे,कहां रहते हैं,यदि नहीं बताओगे तो तुम जिम्मेदार हो।इसके पक्ष में माहौल बनाने के लिए आरएसएस ने वोटक्लव से लेकर राजघाट तक भगवा ब्रिगेड को सड़कों पर उतार दिया,इनमें असामाजिक तत्वों से लेकर कुछ सौ पूर्व सैनिक भी थे।इस तरह के जुलूसों के जरिए यह माहौल बनाने की कोशिश की गयी कि जेएनयू देशद्रोहियों की शरणस्थली है।यह टिपिकल फासिस्ट तरीकों से जेएनयू की घेराबंदी है। जिसका लक्ष्य है आम जनता को जेएनयू के छात्रों के खिलाफ खड़ा करना,इसमें संघ कुछ हद तक सफल रहा,लेकिन शिक्षित समुदाय के बड़े तबके को जेएनयू के छात्र अपने साथ लाने,मीडिया के अंश को अपने सत्य के करीब लाने में सफल रहे,यह लड़ाई अभी बंद नहीं हुई है इसलिए और भी चौकन्ने रहने की जरूरत है।

सोमवार, 14 मार्च 2016

ममता पर संकट के बादल छाए

      मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को इस बात का श्रेय जाता है उन्होंने पश्चिम बंगाल से हमेशा के लिए समाजवाद और उससे जुड़े राजनीतिक स्टीरियोटाइप को बड़े कौशल के साथ विदा कर दिया है।आगामी विधानसभा चुनाव में    वामफ्रंट की यह सबसे बड़ी चुनौती है कि आम जनता को किस तरह राजनीतिक विमर्श में शामिल किया जाए। सबसे सचेत राज्य के रूप में चिर-परिचित इस राज्य की आज सबसे बड़ी त्रासदी है आम जनता का राजनीतिकतौर पर तटस्थ या अन्यमनस्क हो जाना ।एक जमाना था जब हर विषय पर पश्चिम बंगाल के नागरिक में तेज प्रतिक्रिया व्यक्त होती थी,लेकिन विगत पांच साल में सबसे बड़ा परिवर्तन यह हुआ है कि आम जनता के अंदर राजनीतिक सचेतनता का माहौल पूरी तरह नष्ट हो गया है। पहले विधानसभा चुनाव की घोषणा के पहले से ही राजनीतिक गहमागहमी शुरू हो जाती थी,लेकिन इन दिनों राजनीतिक सन्नाटा पसरा हुआ है।

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को पांच साल पहले ´अंध-वाम विरोध´ के आधार पर बड़े पैमाने पर वोट मिला था,इसका विगत पांच सालों में ममता ने सुनियोजित ढ़ंग से लाभ उठाया है।उसने बड़े ही कौशल के साथ वामदलों के सांगठनिक ढ़ांचे को तोड़ा,स्थानीय वाम इकाईयों को अप्रभावी बनाया,इसके लिए वाम कार्यकर्ताओं पर शारीरिक हमले से लेकर बहलाने फुसलाने तक सभी तरकीबें इस्तेमाल कीं,शहर से लेकर गांवों तक तृणमूल कांग्रेस के सांगठनिक ढांचे को विस्तार दिया,खासकर मध्यवर्ग के विभिन्न पेशेवर तबकों में कार्यरत विभिन्न वाम मजदूर संगठनों को निष्प्रभावी बनाया,संघर्ष की राजनीति की बजाय सुविधावाद और अवसरवाद की राजनीति को प्रमुखता दी। फलतःपश्चिम बंगाल के माहौल में वाम राजनीतिक गंध एकसिरे से गायब है ,इस काम में सबसे पहले ममता ने शिक्षकों को निशाना बनाया। ममता ने बिना किसी दवाब के शिक्षकों को वाम राजनीतिक संगठनों से विमुख कर दिया।उल्लेखनीय है पश्चिम बंगाल में शिक्षक समुदाय सबसे प्रभावशाली सचेतन राजनीतिक समुदाय है,विगत पांच सालों में प्राइमरी से लेकर कॉलेज-विश्वविद्यालय स्तर तक अधिकांश शिक्षकों को वाम विचारधारा के संगठनों से बाहर निकालने में तृणमूल कांग्रेस सफल रही है। दूसरी ओर ममता ने सत्ता में आने के बाद वामविरोध को छोड़ दिया। उलटे यह कहा कि उनके दल में वाम विचारधारा के लोगों का स्वागत है,इससे वाम की वैचारिक नाकेबंदी का समूचा तंत्र पूरी तरह टूट गया।इसके अलावा आम जनता को अ-राजनीतिक बनाने में समूचे राज्य में फैले क्लबतंत्र की बड़ी भूमिका है।ममता बनर्जी ने सत्ता संभालने के बाद से राजकोष से क्लबों को सालाना एकमुश्त राशि के भुगतान की व्यवस्था करके स्थानीय आक्रोश को नियंत्रित करने में कौशलपूर्ण ढ़ंग से सफलता हासिल कर ली।उल्लेखनीय है पश्चिम बंगाल के हर मुहल्ले में क्लब हैं जिनमें स्थानीय लोगों का आना-जाना रहता है, संपर्क -संबंध रहता है।स्थानीय लोग छोटी-मोटी समस्याओं के समाधान हेतु क्लब सदस्यों की मदद लेते हैं और ये क्लब स्थानीय स्तर पर ममता सरकार के स्थानीय एजेंट की तरह काम कर रहे हैं।इसने स्थानीय स्तर पर पैदा होने वाले असंतोष को नियंत्रित और नियमित करने में बहुत बड़ी भूमिका अदा की है।

यह एक खुला सच है कि ममता सरकार राज्य में औद्योगिकीकरण की दिशा में कोई प्रभावशाली काम नहीं कर पायी है।इवेंट,मेला,मनोरंजन और स्थानीय स्तर पर सुविधाओं के विस्तार के काम को ममता सरकार ने प्राथमिकता दी, गांवों में विद्यार्थियों को साइकिल वितरण,गांवों के क्लबों को टीवी सैट और सालाना धनराशि का आवंटन,गरीबों के लिए मकान बनाने के लिए धन का आवंटन,मस्जिदों और मौलवियों के लिए विशेष आर्थिक पैकेज आदि जनप्रिय कार्यों के जरिए ममता ने अपने सांगठनिक तंत्र का विस्तार किया,इस काम को करते हुए सचेत ढ़ंग से कांग्रेस ,माकपा और वामदलों के निचले स्तर के कार्यकर्ताओं और नेताओं को साम-दाम-दण्ड-भेद की नीति के आधार पर तोड़ा गया,यही वजह है कि विभिन्न जिलों के ग्रामीण इलाकों में वाम और कांग्रेस का सांगठनिक ढ़ांचा एकसिरे से गायब है।इसके अलावा आम गरीबों में सस्ते खाद्य वितरण की योजना को लागू करके फिलहाल आम जनता के आक्रोश को ठंड़ा रखने में ममता सरकार सफल रही है।यही वह परिदृश्य है जिसमें ममता बनर्जी दोबारा वोट हासिल करना चाहती हैं।

दूसरी ओर वामफ्रंट पूरी शक्ति लगाकर तृणमूल कांग्रेस को हराने की कोशिश में है इसके लिए उसने कांग्रेस के साथ अनौपचारिक तौर पर सीटों का समझौता भी कर लिया,वामफ्रंट का मुख्यजोर राज्य में नए सिरे से औद्योगिकीकरण पर है ,वह उन योजनाओं को नए सिरे शुरू कराने का वायदा लेकर जनता में जा रहा है जो औद्योगिक योजनाएं ममता सरकार के आने के बाद बंद हो गयीं या फिर उनके काम को ममता सरकार आगे नहीं बढ़ा पायी।खासकर सिंगूर में नैनो कार के कारखाने को पुनःशुरू करने की अभिलाषा लेकर वाममोर्चा आम जनता में जाएगा। वाममोर्चा और कांग्रेस दोनों ही राज्य की खस्ताहाल कानून और व्यवस्था , कॉलेज-वि.वि. स्तर पर बढ़ी हुई हिंसा ,सारधा आदि चिटफंड़ घोटाला कांड से जुड़े सवालों पर वोट मांगने का मन बना चुका है। इसके अलावा औरतों की सुरक्षा का सवाल भी प्रमुख है। देखना होगा तृणमूल कांग्रेस और वाम का सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों पर क्या रूख रहता है। क्योंकि तकरीबन साढ़े 6लाख कर्मचारियों का भविष्य इससे जुड़ा है,फिलहाल राज्य कर्मचारियों को केद्र सरकार के कर्मचारियों की तुलना में64 प्रतिशत कम डीए मिलता है और इसे लेकर कर्मचारियों में व्यापक असंतोष है,देखना होगा यह असंतोष मतदान के दिन क्या रूख अख्तियार करता है।इसके अलावा कर्मचारियों का तकरीबन 55फीसदी धन छठे वेतन आयोग का बकाया है। यदि वाम-कांग्रेस ने इस मसले को हवा देने में सफलता हासिल कर ली तो तृणमूल कांग्रेस के दोबारा चुने जाने के मार्ग में समस्याएं खड़ी हो सकती हैं,क्योंकि राज्य कर्मचारियों के भरोसे ही चुनाव मशीनरी चलती है।



गुरुवार, 10 मार्च 2016

जेएनयू की आँखें और विश्वचेतना

        जेएनयू पर बहस कर रहे हैं तो हमें यह सवाल उठाना चाहिए कि हमारे विश्वविद्यालयों की आंखें कैसी हैं ॽ विश्वविद्यालयों की आंखें कैसी हैं यह इस बात तय होगा कि विश्वविद्यालय ,सरकार को कैसे देखता हैं ॽ सरकार की उसके पास किस तरह की अवधारणा है ॽसरकार की अवधारणा चांस से पैदा नहीं होती ,वह क्लासरूम में पैदा होती है। विश्वविद्यालय सरकार को कैसे देखते हैं यह इस बात से तय होगा शिक्षक कक्षा में पढ़ाते कैसे हैं ॽ विश्वविद्यालय को संगठित कैसे करते हैं ॽ संचालित कैसे करते हैं ॽ किस तरह के शिक्षकों की नियुक्ति करते हैं ॽ

इसी तरह शिक्षक और छात्र पढ़ते हुए तटस्थ नहीं हो सकते।उनको यह कहने का हक नहीं है कि सरकार के बारे में हम कुछ नहीं बोलेंगे।आमतौर पर भारत के सभी विश्वविद्यालयों में सरकार के प्रति यही रूख है या फिर सरकार का अनुकरण करने की प्रवृत्ति है। विश्वविद्यालय के अंदर का समाज हमारे समाज का प्रतिबिम्बन है। उसमें छात्र जहाँ समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं वहीं दूसरी ओर शिक्षक समाज के दूसरे वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं।ये असल कारीगर हैं,ट्रस्टीहै, जो अपने शिक्षण से छात्रों को तराशने का काम करते हैं।उनका काम है छात्रों को अंतर्विरोधों के लिए तैयार करना। शिक्षक वस्तुतः लक्ष्य है जिसको पाना छात्रों की इच्छा होती है।किसी भी विश्वविद्यालय की आँखें कैसी होंगी यह निर्भर करता है कि शिक्षक कैसे हैं ॽ शिक्षक वि.वि. के ट्रस्टी होने के नाते सामुदायिक तौर पर वि.वि. के मर्म का निर्माण करते हैं।वे इस क्रम में अपनी स्वायत्तता भी निर्मित करते हैं।

शिक्षक महज शिक्षक नहीं होता वह स्कॉलर या विद्वान होता है ।विद्वान की परख विद्वान ही कर सकता है,अन्य नहीं।मोदी सरकार आने के बाद यह मुश्किल बढ़ी है कि विद्वान की परख विद्वान नहीं कर रहे लफंगे और जाहिल किस्म के लोग कर रहे हैं।इसके कारण सारे देश में विद्वानगण अपने को लज्जित और अपमानित महसूस कर रहे हैं।जेएनयू के वीसी ने ठीक वही काम किया जो आरएसएस चाहता है।उसने विद्वान की भूमिका नहीं निभायी। हमारे अधिकांश विश्वविद्यालयों में शिक्षक तो ढ़ेर सारे हैं लेकिन विद्वान या स्कॉलर बहुत कम हैं।

विश्वविद्यालय की आँखें विद्वान होते हैं,शिक्षक नहीं।हमने शिक्षक बनाने पर खूब जोर दिया और सारे देश को शिक्षकों से भर दिया है,इससे शिक्षा का स्तर गिरा है,शिक्षा को हमने रूपये – कौडी के धंधे में तब्दील कर दिया है।शिक्षा को बाजारू बना दिया है, और शिक्षक को बिकाऊ मजदूर ! दुखद है कि हम लेकिन वि.वि. को वि.वि. न बना पाए।जेएनयू इसलिए सारे देश के विश्वविद्यालयों से अलग है क्योंकि यहां विद्वान या स्कॉलरों की परंपरा है। यहां शिक्षक कम और विद्वान ज्यादा पाए जाते हैं।वे अपने छात्रों को पढ़ाते नहीं हैं,ज्ञान में साझीदार बनाते हैं,ज्ञान का भोक्ता नहीं सर्जक बनाते हैं। इस अर्थ में जेएनयू सारे देश के विश्वविद्यालयों से भिन्न है।

यहां हर छात्र-शिक्षक निडर होकर सरकार के खिलाफ,वि.वि.प्रशासन के खिलाफ बोल सकता है।यहां छोटे-बड़े का भेद एकदम नहीं है।यहां हर छात्र को अपनी हाइपोथीसिस पर काम करने का हक है।किसी भी वि .वि . में ज्ञान के विकास की यह बुनियादी शर्त है।कोई भी छात्र जब हाइपोथीसिस बनाकर काम करता है तो ज्ञान का सृजन करता है।जनता के बीच में अपनी क्षमता का प्रदर्शन करता है।ज्ञान के संदर्भ में शक्ति अर्जित करता है। वह जो ज्ञान निर्मित करता है उसका आम जनता पर असर भी होता है।इस अर्थ में वह अपनी स्वायत्तता को निर्मित करता है,स्वायत्त संसार बनाता है।यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां से जेएनयू अपने को सरकार के नाभिनाल से काटता है।

जेएनयू के स्कॉलरों की आँखें हैं उनके ज्ञान की वैज्ञानिकक्षमता।जो सरकार और उसके तंत्र से पूरी तरह स्वतंत्र है। देश में कहने को अनेक वि.वि. हैं जो कागज पर स्वायत्त हैं,जेएनयू भी स्वायत्त है, लेकिन जेएनयू स्वायत्तता से भी एकदम आगे जाकर काम करता रहा है,स्वायत्तता के आधार वि.वि.सिर्फ अपने अंदर के कामकाज को लेकर स्वायत्त रह सकते हैं।यह स्वायत्तता की सीमा है।स्वायत्तता के तहत वि.वि. वही काम कर सकते हैं जो उनको सौंपे गए हैं।लेकिन जेएनयू उससे भिन्न भूमिका अदा करता रहा है,वह उनके प्रति भी जिम्मेदारी निभाता रहा है जो स्वायत्तता देनेवाली एजेंसी नहीं हैं। यानी गैर-सत्ताकेन्द्रों या विश्वसमाज के बृहत्तर तबकों के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाता रहा है।यही वजह है कि जेएनयू के छात्रों में सरकारीचेतना की बजाय विश्वचेतना,सामाजिकचेतना प्रबल होती है।इस अर्थ में वे देश के अन्य संस्थानों से भिन्न होते हैं।



जेएनयू प्रसंग में विश्वविद्यालय का अर्थ ॽ

        जेएनयू के 9फरवरी के प्रसंग ने विश्वविद्यालय की अवधारणा को देश की केन्द्रीय समस्या बना दिया है,दिलचस्प बात है हम सब लोग न तो जेएनयू के आंतरिक चरित्र पर बातें कर रहे हैं और न विश्वविद्यालय की अवधारणा पर बहस कर रहे हैं ! यह कुल मिलाकर वैसे ही हुआ कि बीमारी है कैंसर की और इलाज मलेरिया का हो रहा है ! विश्वविद्यालय ´हम´ के प्रतीक हैं, ´हम´और ´तुम´ के वर्गीकरण में वि.वि. को बांटा नहीं जा सकता।यदि देश के बारे में बातें कर रहे हैं तो ´हम´की अवधारणा में सोचना होगा । वि.वि. कैसे होंगे यह इससे तय होगा कि ´हम´की धारणा क्या है ॽ यानी स्वयं से सवाल करे कि ´हम´क्या हैं ॽ ´हम´वि.वि. में किसका प्रतिनिधित्व करते हैं ॽवि.वि. को किसकी आंखों से देखते हैं ॽ´हम´किसके प्रति जवाबदेह हैं ॽ ये कुछ प्राथमिक सवाल हैं जिनसे हमें बहस को प्रारंभ करना चाहिए। ये सवाल हमें स्वयं से और अन्य से भी पूछने चाहिए। इन सवालों से बचना नहीं चाहिए।

भारत में किनाराकशी की आदत है खासकर राजनेताओं में उपेक्षा करने,अपने विचार थोपने की आदत है।लेकिन जेएनयू ने हमें यह मौका दिया है हम सवाल ये उठाएं और उनके उत्तर खोजने की कोशिश करें।इन सवालों पर विचार करते समय हम सबको न्यूनतम जिम्मेदारी तो लेनी ही पड़ेगी। आरएसएस के लोग इस मामले में चालाकी से पेश आ रहे हैं वे इन सवालों पर बहस नहीं कर रहे,वे वि.वि. की बजाय 9फरवरी के नारों पर बहस करना चाहते हैं,राष्ट्रवाद पर बहस करना चाहते हैं,वे मूल सवालों से इसके साथ बहाने से बचकर निकलना चाहते हैं। आरएसएस के साथ जुड़े बौद्धिक भी इन सवालों पर चुप हैं।

मजेदार बात यह है जेएनयू के वीसी भी उन्हीं सवालों पर बोल रहे हैं जो आरएसएस ने उठाए हैं।जबकि उनको तो कम से कम वि.वि. की अवधारणा,जेएनयू की अवधारणा पर बहस करनी चाहिए। जेएनयू के मौजूदा आंदोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि है जेएनयू की पुनःअपनी पहचान की खोज करना,जेएनयू कैसा है ,यह इस दौरान व्यापक स्तर पर बहस के केन्द्र में आया है।खासकर जेएनयू कैंपस में यह बहस गर्मागर्म है।दिलचस्प बात है कि जेएनयू क्या है ॽ इस सवाल से संघ के जेएनयू कैंपस में मौजूद समर्थक भागते रहे हैं या फिर वि.वि. को भारतीय दण्ड संहिता के फ्रेमवर्क में अवधारणा पेश कर रहे हैं। यह बात में उनकी टीवी प्रस्तुतियों में दिए गए बयानों के आधार पर कह रहा हूँ।

सवाल यह है क्या विश्वविद्यालय की समाज के प्रति कोई जिम्मेदारी है ॽ अथवा वि.वि. सिर्फ डिग्री देने के केन्द्र हैंॽ ज्यॉक देरिदा ने जिम्मेदारी की अवधारणा के साथ विश्वविद्यालय की अवधारणा को जोड़कर देखने पर जोर दिया है।विश्वविद्यालय का काम सत्ता की तरह सोचना नहीं है।वे सत्ता के तंत्र के दाँते - पेंच नहीं हैं।मोदी सरकार की जेएनयू को लेकर मुश्किल यहीं पर है।मोदी सरकार अपने विचारतंत्र के अनुरूप जेएनयू तंत्र को ढालना चाहती है और यह काम वे घोषित करके करना चाहते हैं,इसके लिए वे बहाना संविधान का ले रहे हैं।लेकिन वि.वि. का काम तो संविधान के कल-पुर्जे की तरह काम करना नहीं है।वि.वि. तो संविधान की तरह काम नहीं करता। विश्वविद्यालय जब संविधान,सत्ता या सरकार के तंत्र के अंग के रूप में काम करेंगे तो जाहिरातौर पर उनमें अंतर्विरोधों के लिए कोई जगह नहीं होगी।वि.वि. पूरी तरह अंतर्विरोधरहित होंगे।दुर्भाग्य से हमारे देश में अधिकांश वि.वि.सरकारी तंत्र के अंग के रूप में काम करते हैं और वे पूरी तरह अंतर्विरोधरहित हैं। विश्वविद्यालय की अवधारणा अंतर्विरोधरहित नहीं होती।यदि उसे सत्ता से जोड़ देंगे तो वि.वि. अंतर्विरोधरहित बन जाएंगे।जेएनयू के प्रसंग में आरएसएस-मोदी सरकार असल में यही चाहते हैं। वि.वि. की खूबी है अंतर्विरोध और अंतर्विरोधों की विभिन्न धुन और छंदों के आधार पर खुला माहौल।वि. वि. सरकारी धुन में नहीं रहते,असल वि.वि. वह है जो अंतर्विरोधों के छंद पर नाचे,गाए और विकास करे।

विश्वविद्यालय को हम एक समाज के रूप में देखें।वह ज्ञानसमाज है।इसमें औद्योगिक श्रम विभाजन की तरह विभिन्न किस्म के विभाग हैं जिनमें विभिन्न विषयों की शिक्षा की व्यवस्था है। शिक्षक एकतरह से इसके ट्रस्टी हैं।शिक्षक-छात्र मिलकर वि.वि. का सचेतन समाज बनता है।यह ऐसा समाज है जिसमें सभी को स्वायत्तता है।सोचने,विचारने,बोलने,संगठन बनाने की स्वतंत्रता है।इसके विभिन्न विभाग वस्तुतः छोटे-छोटे समाज हैं।जो तरह-तरह से सोचते हैं और उसके अनुसार आचरण करते हैं। विश्वविद्यालय को अपने हक स्वयं हासिल करने होते हैं।वह किसी से हक नहीं लेता,वि.वि. को अपनी सत्ता स्वयं बनानी होती है,वि.वि. की वैधता बाहर निर्भर नहीं होती ,वह उसके अंदर होती है। वि.वि. डिग्री देने का नहीं,सर्जना का केन्द्र हैं।जो लोग इसे डिग्री बांटने वाले तंत्र या सरकार के तंत्र के अंग के रूप में देखते हैं वे गलत रूप में देखते हैं।



वि.वि.तो स्वायत्त सर्जना केन्द्र है,डिग्री केन्द्र नहीं। वि.वि. का आधार है ´स्वाभाविक तर्क´,इस तर्क के आधार पर वि वि अपने सभी छात्रों-शिक्षकों को ´स्वाभाविक तर्क´के आधार पर सोचने और काम करने का अवसर देता है।जबकि सरकार के अंग के रूप में यदि वि.वि. को देखेंगे तो यह सुविधा प्राप्त नहीं होगी। सरकार के लिए वि.वि. एक कृत्रिम संस्थान है ,जबकि जेएनयू के अकादमीशियनों के लिए वि.वि. का अर्थ ही अलग होता है। उनके लिए वि.वि. का अर्थ है वह स्थान जो स्वाभाविक लगे,आदतों को भी स्वाभाविक लगे।जेएनयू को असल में इस अर्थ में देखना चाहिए। जेएनयू की खूबी है उसकी नेचुरलनेस।यहां कृत्रिमता नहीं है। आप अपनी नेचुरल आदतों के साथ इसके परिवेश में जी सकते हैं।देश के बाकी संस्थानों में यह चीज अनुपस्थित है।लोग तर्क दे रहे हैं कि सरकार फण्ड देती है अतःसरकार के तर्क के अनुसार विवि को चलना चाहिए। सरकार की फण्डिंग महज इत्तफाक है,चांस की बात है।इसके आधार पर वि.वि.को सरकारी तंत्र के अंग के रूप में निर्मित नहीं कर सकते।जेएनयू आज भी देश के विभिन्न वि.वि.से भिन्न इसलिए है क्योंकि वह सरकार के तर्क से नहीं वि.वि. के तर्क और नियमों से चलता है। जेएनयू के जो छात्र आंदोलन कर रहे हैं वे इसलिए आंदोलन कर रहे हैं कि वे नहीं चाहते कि वि.वि. की अवधारणा को नष्ट करके जेएनयू को देश के बाकी वि.वि. की तरह बना दिया जाय।

बुधवार, 9 मार्च 2016

मकरंद परांजपे सच देखने से क्यों डरते हो ॽ


        प्रोफेसर मकरंद परांजपे ने जेएनयू में बोलते हुए जेएनयू के वामपंथियों से सारी दुनिया के साम्यवाद की गलतियों का हिसाब मांगा।कमाल की शैली और दृष्टि है परांजपे साहब की ! गलतियां करें स्टालिन लेकिन दण्ड मिलेगा भारत के कम्युनिस्टों को ! यानी नया बुर्जुआशास्त्र है करे कोई और भरे कोई ! , असल में परांजपे सच जानना ही नहीं चाहते।सच जानोगे नहीं तो मानोगे कैसे ! शीतयुद्धीय बौद्धिक तरीका है झूठ बोलो, लांछित करो ! खासकर कम्युनिस्टों के बारे में कभी सच मत बोलो।

परांजपे साहब ने जेएनयू में भाषण देते हुए फरमाया है कि कम्युनिस्टों ने स्वाधीनता संग्राम में भाग नहीं लिया,जनसत्ता (9मार्च 2016) में छपी रिपोर्ट के अनुसार परांजपे ने कहा ´‘भारतीय कम्‍युनिस्‍ट पार्टी ने अंग्रेजों को लिखा कि वे प्रदर्शन नहीं करेंगे। जब आप लोग लडेंगे तो हम आपका साथ देंगे। जब हम यह कहते हैं कि हमने भारत की आजादी की लड़ाई लड़ी तो मैं सबूत देखना चाहता हूं।’ इसके अलावा भी उन्होंने बहुत कुछ कहा है।लेकिन हम यहां सिर्फ कम्युनिस्टों की स्वाधीनता आंदोलन में भूमिका तक ही सीमित रखना चाहते हैं और कम्युनिस्टों ने क्या कहा उसको प्रमाण के रूप में देना नहीं चाहते बल्कि ब्रिटिश शासक क्या कहते हैं उसका जिक्र करना चाहते हैं।

स्वाधीनता आंदोलन में भारत के कम्युनिस्टों की शानदार भूमिका रही है और वे संघर्ष और कुर्बानी की अग्रणी कतारों में रहे हैं,जबकि उन दिनों सारे देश मे बहुत कम संख्या में कम्युनिस्ट हुआ करते थे।कम्युनिस्ट देशभक्त संग्रामी थे यह बताने के लिए महाकाव्य लिखा जा सकता है,महाख्यान रचा जा सकता है।लेकिन यहां तथ्य ही रखना समीचीन होगा।

परांजपेजी आपने ´पेशावर षडयंत्र´केस का नाम तो सुना ही होगा।उस केस में अनेक कम्युनिस्टों को ब्रिटिश न्यायपालिका ने दण्डित किया,’ पेशावर षडयंत्र केस ´में 12-13 कम्युनिस्टों को बर्बर यातनाएं दी गयीं। जबकि इन्होंने कोई अपराध नहीं किया था।इनका एकमात्र लक्ष्य था भारत को ब्रिटिश गुलामी से मुक्त कराना।यह वाकया है 1922 के आसपास का।तकरीबन 40 के आसपास मुहाजिर अफगानिस्तान के रास्ते होते हुए ताशकंद और मास्को गए थे।वहां पर उनमें से 26 लोगों ने सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त किया। ये लोग अक्टूबर1920 से अप्रैल 1921 तक ताशकंद और मास्को में रहे।वहां उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी के राजनीतिक-सैनिक स्कूल में प्रशिक्षण प्राप्त किया।इन कॉमरेडों का पहला ग्रुप 3जून1921 को पेशावर लौटा।इस ग्रुप से भारत सरकार के गुप्तचर विभाग के ऑफीसर इंचार्ज मि.इबर्ट ने गहरी पूछताछ की।उस पूछताछ में पता चला कि पेशावर से मास्को 40 या उससे ज्यादा कॉमरेड गए थे।इनको उन दिनों मुहाजिर कहा जाता था।मास्को में इन लोगों ने कम्युनिस्ट वि.वि. में प्रशिक्षण प्राप्त किया।इस पूछताछ के बाद ब्रिटिश पुलिस की मास्को से आने वालों पर कड़ी नजरदारी आरंभ कर दी और1922 के मध्य में कम्युनिस्टों के खिलाफ ´पेशावर षडयंत्र केस´दायर किया गया जिसमें 12-13 कॉमरेडों को दण्डस्वरूप भयानक यातनाएं दी गयीं।यह समूचा वाकया सन् 1927 में बंगला साप्ताहिक अखबार ´कॉम्पस´में ´पेशावर टु मास्को´शीर्षक से धारावाहिक रूप में छपा,इसको लिखा था शौकत उस्मानी ने। इस प्रसंग में दूसरा विवरण रफीक अहमद ने लिखा जिसका मुजफ्फर अहमद की किताब ´दि कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इण्डिया एंड इटस फॉर्मेशन´(1962) में जिक्र है।

मकरंद परांजपे आप प्रोफेसर हैं लेकिन झूठ बोल रहे हैं कि कम्युनिस्टों ने स्वाधीनता आंदोलन में भाग नहीं लिया,आप जरा समय निकालकर ´पेशावर षडयंत्र केस´के जजमेंट को ही पढ़ लेते तो पता चल जाता कि उस समय कम्युनिस्ट क्या कर रहे थे। ´पेशावर षडयंत्र केस´पराधीन भारत में पहला कम्युनिस्टों के खिलाफ गढ़ा गया एकदम झूठा केस था जिसमें कम्युनिस्टों को सजा सुनाई गयी थी,उन लोगों को सजा सुनाई गई जिन लोगों ने कोई हिंसा नहीं की,किसी की हत्या नहीं की।निर्दोष कम्युनिस्टों को दोषी करार करके देशद्रोह में सजाएं सुनाई गयीं।इन कॉमरेडों ने क्या किया था ॽ ये अफगानिस्तान से सीमा पार करके सोवियत संघ गए थे सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त करने।जिससे ये लोग आजादी के लिए संघर्ष करने वालों की मदद कर सकें।इसके लिए इन लोगों ने ताशकंद के सैन्य स्कूल और मास्को स्थित कम्युनिस्ट विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की।

´पेशावर षडयंत्र केस´के नाम से कम्युनिस्टों के खिलाफ पहला जजमेंट 31मई1922 को घोषित किया गया।इस जजमेंट में कॉमरेड मोहम्मद अकबर को तीन साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गयी।यह सजा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 121-ए के तहत सुनाई गयी।इसी धारा में दूसरे कॉमरेड बहादुर को एक साल की सजा सुनाई गयी।जबकि हफीजुल्ला को बरी कर दिया गया। अकबर और बहादुर के खिलाफ ’अपराध´ को किस तरह सिद्ध किया गया ॽ सेशन जज जे.एच.आर. फ्रेशर ने अपने फैसले में संक्षेप में उसके बारे में लिखा ´इस ( मोहम्मद अकबर) को षडयंत्र में गिरफ्तार किया गया,यह षडयंत्र ब्रिटिश सरकार के खिलाफ ताशकंद,काबुल और समरकंद में रचा गया।´इसके लिए कोई प्रमाण पेश नहीं किए गए,सीधे बिना प्रमाण के षडयंत्र के बहाने सजाएं सुना दी गयीं।जिस धारा (121 ए)में केस लगाए गए उसी धारा में बाद में कम्युनिस्टों के खिलाफ कानपुर षडयंत्र केस(1924),मेरठ षडयंत्र केस(1929-33) में मुकदमे चलाए गए और उनको दण्डित किया गया ।इसके बावजूद परांजपे आप कह रहे हैं कि प्रमाण दो कि स्वाधीनता संग्राम में कम्युनिस्टो ने कौन सी लड़ाई लड़ी,किस तरह की कुर्बानी दी।

परांजपेजी आपके लिए हम पेशावर षडयंत्र केस के जजमेंट का अंश उद्धृत कर रहे हैं आप पढें और तय करें कि आपने सच बोला या झूठ बोला,जजमेंट में जज ने लिखा “The attitude of the Bolsheviks towards all settled governments is a matter of common knowledge .so also their hostility and desire to overthrow the governments of all civilized powers as at present constituted. This general knowledge is a matter of which judicial notice can be taken.” इसी जजमेंट में आगे कहा गया कि ताशकंद को भारत की ब्रिटिश सरकार के खिलाफ प्रचार अभियान का केन्द्र के रूप में इस्तेमाल किया गया। इनके ग्रुप में अब्दुल रब,राय,मुखर्जी और अन्य शामिल थे,इन लोगों ने मिलकर वहां अस्थायी भारत सरकार बनायी।वहां भारतीयों को सैन्य प्रशिक्षण देने के लिए स्कूल खोला।वहां से भारतीय लोग प् प्रशिक्षण लेकर आते थे और फिर भारत में देशद्रोही गतिविधियां संचालित करते थे।यह एक तरह से भारत पर बोल्शेविक हमला है।

परांजपेजी आपने जेएनयू में साम्यवाद के बारे में जो कुछ कहा उसका जेएनयू के मौजूदा आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं है। भारत में कम्युनिस्ट हमेशा से लोकतंत्र के लिए संघर्ष करते रहे हैं अतः इनके संघर्ष के साथ अन्य देशों के कम्युनिस्टों की तुलना करना गलत है।जेएनयू का मौजूदा आंदोलन छात्रों के जनतांत्रिक हकों की रक्षा के लिए चल रहा है,यह आंदोलन कन्हैया कुमार सहित 5छात्रनेताओं पर चलाए जा रहे राष्ट्रद्रोह के झूठे मुकदमे को वापस लेने के लिए चल रहा है। इसलिए इस आंदोलन की सोवियत संघ से तुलना करना गलत है।

परांजपे साहब आपकी जानकारी के लिए बता दें जेएनयू में कई छात्रों ने सोवियत संघ में स्टालिन युग में मानवाधिकारों के हनन के खिलाफ बेहतरीन शोध की है,ये सभी वाम छात्र हैं।जेएनयू के वाम छात्रों ने चीन में माओ के जमाने के मानवाधिकार हनन के खिलाफ भी काम किया है,यह इसलिए बता रहा हूँ क्योंकि आप जेएनयू की परंपरा से अनभिज्ञ हैं। आप इन दिनों शीतयुद्धीय नजरिए से परिचालित होकर देख रहे हैं।जबकि जेएनयू तो शीतयुद्धीय नजरिए के खिलाफ भी जमकर वैचारिक संघर्ष करता रहा है।

मंगलवार, 8 मार्च 2016

वे कम्युनिस्टों से क्यों डरते हैं


 ’ WHY  IS  THERE   SO   MUCH    FEAR   OF   THE   COMMUNISTS ’ यह शीर्षक है मराठी में ’क्रांति´ नामक पत्रिका  के 10 सितम्बर 1927 के अंक में प्रकाशित लेख का। जेएनयू के प्रो.मकरंद परांजपे ने जेएनयू में अपनी साम्यवाद विरोधी मनोभावनाओं का  तरह परिचय दिया है,उसके प्रसंग में इस लेख में जो चीजें बयां की गयी हैं उनका जिक्र करना समीचीन होगा।इससे यह भी पता चलेगा कि कम्युनिस्टों की क्या दशा थी इस लेख मे कॉमरेड सकलातवाला का विशेष रूप से जिक्र किया गया और पूरा लेख उन पर ही है।सकलातवाला कम्युनिस्ट थे और वे यह मानते थे ब्रिटेन का यूनियन जैक झंडा गुलामी का प्रतीक है।इस बयान के कारण उन पर संसद में ब्रिटिश सत्ताधारियों ने जमकर हमले किए थे।उनका दण्डस्वरूप पासपोर्ट जब्त कर लिया था। इसके कारण वे अमेरिका नहीं जा पाए।बाद में वे किसी तरह जुगाड़ करके ब्रिटिश सत्ता को चकमा देकर पासपोर्ट बनवाकर भारत चले आए। भारत में उनके आने पर ब्रिटिश शासक सोच रहे थे कि सकलातवाला महात्मा गांधी की आंधी देखकर भौचक रह जाएंगे और यहां साम्यवाद भूल जाएंगे। अथवा यदि वे ब्रिटिश शासकों के खिलाफ कुछ बोलेंगे तो उनको जेल में ठूंस दिया जाएगा। ब्रिटिश शासक यह भी सोच रहे थे कि सकलातवाला को किसी तरह भारत से विदेश नहीं जाने दिया जाएगा लेकिन सकलातवाला चकमा देकर भारत आए अपना काम किया और फिर चकमा देकर भारत से चले भी गए।
    सकलातवाला असल में मद्रास कॉग्रेस में शामिल होने  आए थे ,वे यह कहकर गए कि दोबारा भारत आना चाहते हैं। उनके आने से उस समय के कम्युनिस्टों को बड़ा बल मिला। सकलातवाला का मानना था  कम्युनिस्ट आंदोलन को परंपरागत आंदोलन के दायरे के बाहर निकाला जाए।ब्रिटिश सरकार सकलातवाला के भारत आने के खिलाफ थी,उसने उनको पासपोर्ट नहीं दिया,वे किसी तरह चालाकी  से पासपोर्ट बनाने  में सफल रहे।ब्रिटिश पुलिस उनको भारत में उस समय पकड़ नहीं पायी। उस समय ब्रिटिश सरकार कम्युनिस्टों से वैसे ही नफरत करती थी जिस तरह परांजपे नफरत करते हैं या संघी नफरत करते हैं। सकलातवाला जिस समय बॉम्बे आए थे उस  समय उस शहर में 25 कम्युनिस्ट भी नहीं थे लेकिन ब्रिटिश शासन डरा हुआ था,यदि कम्युनिस्टों की  उनसे मित्रता होती तो सकलातवाला का पासपोर्ट रद्द नहीं किया जाता,कम्युनिस्टों की दिन-रात निगरानी नहीं होती।

     ´क्रांति´पत्रिका ने लिखा है उस समय कम्युनिस्टों के ठिकानों पर तीन बार पुलिस के छापे पड़े। ब्रिटिश शासकों ने उस समय डाक विभाग को कड़े आदेश दिए थे  कम्युनिस्टों की कोई भी डाक खासकर किताब आदि की पार्सल की सप्लाई न दी जाए।उनकी सभी डाक जब्त कर ली जाए।परांजपेजी यह वाकया काल्पनिक नहीं है।यह मित्र सरकार का आदेश नहीं है,यह वह लेख है जो मेरठ षडयंत्र केस में कम्युनिस्टों के खिलाफ  देशद्रोह के सबूत के तौर पर पेश किया गया था।सब लोग जानते हैं कि उन दिनों कम्युनिस्ट छिपकर गुप्त संघर्ष नहीं करते थे बल्कि खुलेआम सारी गतिविधियां और आंदोलन करते थे।इसके बावजूद ब्रिटिश सरकार उनके खिलाफ इतनी सख्त क्यों थी परांजपेजी कारण आप बेहतर ढ़ंग से समझ सकते हैं कि ब्रिटिश शासकों ने कम्युनिस्टों का विरोध किया,उनकी डाक तक पर पाबंदी क्यों लगायी यह वह जमाना था जब भारत के अखबारों में कम्युनिस्टों की खबरें और लेख आदि छापने पर अघोषित पाबंदी लगी हुई थी।परांजपेजी यह क्या स्वाधीनता संग्राम में कम्युनिस्टों का ब्रिटिश शासकों से मित्रता का प्रतीक है परांजपेजी बेहतर है आप अपने साम्यवाद ज्ञान को दुरूस्त कर ले।

शनिवार, 5 मार्च 2016

हमारे समय में जयशंकर प्रसाद



समय –

फ्रांसिस फुकुयामा ने ´इतिहास का अंत´की जब बात कही थी तो उन्होंने ´एंड ऑफ दि स्पेस´की बात कही थी,लेकिन हिंदी आलोचकों ने उसे गलत अर्थ में व्याख्यायित किया।सवाल यह है भूमंडलीकरण के कारण सारी दुनिया में ´स्पेस´का अंत हुआ या नहीं ॽ यही वह परिदृश्य है जिसमें आप भूमंडलीकरण को समझ सकते हैं। ´एंड ऑफ दि स्पेस´ का अर्थ यह भी है मुक्त बाजार ने सर्वसत्तावादी सामूहिकता को हटा दिया,इस प्रक्रिया में ´इंटरवल´या ´अंतराल´का भी अंत हो गया,अब निरंतर फीडबैक है,औद्योगिक या पोस्ट औद्योगिक गतिविधियों के टेलीस्कोपिंग मैसेज हैं।पहले हर चीज के साथ भू-राजनय और भौगोलिक अंतराल हुआ करते थे लेकिन अब यह सब नहीं हो रहा।आज हम पृथ्वी को जानते हैं लेकिन उसके अंतरालों को नहीं जानते।देशज भौगोलिक अंतरों को नहीं जानते।अब हम इतिहास के अंतरालों में प्रवेश ही नहीं करते सीधे यथार्थ में प्रवेश करते हैं। आज हम ´लोकल समय´में नहीं ´रीयल टाइम´में रह रहे हैं,इसने यलिटी´से हमारी दूरी खत्म कर दी है।अंतर खत्म कर दिया है।

पहले दूरी थी,इतिहास-भूगोल का अंतर था,लेकिन अब तो सिर्फ ´दूरी´ही रह गयी है,लेकिन इसको भी अतिक्रमित करके हम ´टेलीप्रिजेंश´में आ चुके हैं।यही भूमंडलीकरण की धुरी है।यही ग्लोबलाइजेशन का ´एक्सचेंज´है,इसके जरिए दूरी को देख सकते हैं।यह ´दूरी´वस्तुतः दूसरी ओर झुकी हुई है।आज हम कम्प्यूटरीकरण के वैचारिक दृष्टिकोण से बंधे हैं।आज हम जल्द ही विश्व के किसी भी अंश पर पहुँच सकते हैं,विश्व के किसी भी अंश पर पहले भी जाते थे लेकिन इस समय भिन्न तरीके से जाते हैं।पहले इतिहास और भूगोल के जरिए प्रवेश करते थे लेकिन अब सीधे यथार्थ के जरिए प्रवेश करते हैं।पहले समृद्ध होते थे अब नहीं।अब क्षण में ही यथार्थ में प्रवेश करने के कारण जल्द ही पहुँच जाते हैं,इसके कारण यथार्थ को पूरी तरह देख-समझ नहीं पाते।´दूरी´का अंतराल महसूस नहीं होता।आज टेली कम्युनिकेशन और स्वचालितीकरण ने ग्लोबल कम्युनिकेशन सिस्टम से जोड़ दिया है।सभी किस्म की प्रस्तुतियां वस्तुतःदूरी की प्रस्तुतियां हैं।टेलीकम्युनिकेशन ने कहने के लिए दूरी कम करने का वायदा किया है लेकिन दूरिया बढ़ी हैं।इस दूरी ने ´महा भौगोलिक यथार्थ´ का रूप ले लिया है जो ´वर्चुअल रियलिटी´ के जरिए नियमित हो रहा है।आज ´वर्चुअल रियलिटी´ ने ´टेली कंटेंट´ पर एकाधिकार जमा लिया है।यह राष्ट्रों का आर्थिक गतिविधि का बहुत बड़ा हिस्सा बन गया है।इसक कारण संस्कृति का क्षय हो रहा है।संस्कृति वस्तुतःभौगोलिक स्पेस में रहती है,लेकिन वर्चुअल रियलिटी उसे अपदस्थ कर रही है।फलतःआज हम ´इतिहास का अंत´नहीं ´भूगोल का अंत´देख रहे हैं।कल तक19वीं शताब्दी के ´ट्रांसपोर्ट रिवोल्यूशन´के दौर में जब अंतराल आता था तो विभिन्न समाजों के बीच की खाईयां या अंतराल नजर आते थे।लेकिन मौजूदा ´ट्रांसमीशन रिवोल्यूशन´में अहर्निश फीडबैक आ रही हैं और इसमें सामान्यीकृत इंटररेक्टिविटी हो रही है।इसके कारण हमें अंतर पता ही नहीं चलता।सिर्फ स्टॉक मार्केट में जब तबाही मचती है तो अंदाजा लगता है। भूमंडलीकरण के दौर में जो बाहरी था या ग्लोबल था वह आंतरिक हो गया और जो लोकल था वह बाहरी हो गया है।वह हाशिए पर चला गया है।भूमंडलीकरण के बारे में अनेक मिथ्या बातें कही जा रही हैं।भूमंडलीकरण ने सबको रूपान्तरित कर दिया है।अब वे ´व्यक्ति´ को स्थानांतरित नहीं करते,या जनता को स्थानांतरित नहीं करते बल्कि उन्होंने ´रहने´की जगह ही छीन ली है।फलतः ´स्थानीय´का भूमंडलीय अ-स्थानीकरण´किया है। इसने ´राष्ट्रीय´स्तर पर ही नहीं सामाजिक स्तर पर भी प्रभावित किया है।इसने राष्ट्र–राज्य के सवाल ही खड़े नहीं किए हैं बल्कि शहर एवं राष्ट्र एवं राजनय के सवाल भी खड़े किए हैं।विदेश नीति और गृहनीति में अंतर खत्म हो गया है।बाहर और भीतर अब कोई अंतर नहीं रह गया है। ´लाइव´एवं ´डायरेक्ट ट्रांसमीशन´के कारण ´बेव´के प्रभाव को कम कर दिया है।´पुराने टेली-विजन´से निकलकर ´भू-विजन´ में दाखिल हो गए हैं।सुरक्षा के नाम पर ’ टेली-निगरानी´में आ गए हैं।´ऑडियो विजुअल´निरंतरता ने ´क्षेत्रीय निरंतरता´पर बढ़त हासिल कर ली है।अब ´राष्ट्र´की क्षेत्रीय पहचान को ´रीयल टाइम´ इमेज और साउण्ड ने टेकओवर कर लिया है। ग्लोबलाइजेशन के दो प्रमुख पहलु हैं,पहला,एक तरफ इसने दूरी को एकसिरे से खत्म कर दिया है, इस क्रम में ट्रांसपोर्ट और ट्रांसमीशन दोनों को ´कम्प्रेस´करके रख दिया है।दूसरा है टेली-निगरानी।यह विश्व का नया विजन है।´टेली प्रजेंट´पर बार-बार जोर दिया जा रहा है।यानी टेली प्रजेंट के जरिए 24घंटा,पूरे सप्ताह सक्रियता।अब हर इमेज ´इनलार्ज´ होकर आ रही है। ´टेक्नो-साइंस´ ने ´इमेज´के भविष्य को अपने हाथ में ले लिया है।अतीत में उसने ´टेलीस्कोप´एवं माइक्रोस्कोप´के जरिए यह काम।भविष्य में यह ´टेवी निगरानी´के रूप में काम करेगी और यही इसका सैन्य आयाम है। ऑडियो-विजुअल दृश्य की निरंतरता ने राष्र की क्षेत्रीय निरंतरता के ऊपर बढ़त बना ली है।आज ´क्षेत्र´ का महत्वपूर्ण नहीं है।आज क्षेत्रीय राजनीति रीयल स्पेस से शिफ्ट होकर ´रीयल टाइम´में दाखिल हो गयी है.यह एक तरह से इमेज और साउण्ड की राजनीति है।यह भूमंडलीकरण की पूरक इमेज है।´ट्रांसपोर्ट´और ´ट्रांसमीशन´के सामयिक दबाव ने ´दूरी´ कम कर दी है।दूसरी ओर ´टेली-निगरानी´बढ़ी है।अब नया विज़न है ´टेली प्रिजेंट´,यानी 24घंटे उपस्थिति।अब ये स्थानान्तरित नयी आंखें हैं। प्रत्येक इमेज का भविष्य ´इनलार्जमेंट´पर टिका है।´इनलार्जमेंट´वस्तुतः ´टेक्नो साइंस´है,इसने साइंस को भी पीछे छोड़ दिया है।अब तो टेक्नोसाइंस के पास ही इमेज की जिम्मेदारी है।यह ´टेली निगरानी´का हिस्सा है।पहले किसी भी चीज को भू-राजनय परिप्रेक्ष्य या परिप्रेक्ष्य में देखते थे लेकिन अब कृत्रिम परिप्रेक्ष्य में स्क्रीन और मॉनीटर के जरिए देखते हैं।अब मीडिया परिप्रेक्ष्य में देखते हैं।मीडिया परिप्रेक्ष्य ने ´स्पेसके तात्कालिक परिप्रेक्ष्य´पर बढ़त बना ली है।यही वो परिप्रेक्ष्य है जिसमें हमारा मौजूदा ´समय´कैद है। जयशंकर प्रसाद के बारे में विचार करते समय कई और बातों पर गौर करने की जरूरत है।मसलन्,उनका दौर वही है जो महात्मा गांधी के युग के नाम से जानते हैं।इस प्रसंग में एक घटना का जिक्र करना समीचीन होगा। काशी में मैथिलीशरण गुप्तजी के अभिनंदन की तैयारी के अवसर पर इसका विरोध करने वालों की एक सभा हुई,इसमें जयशंकर प्रसाद भी शामिल हुए थे।इसमें प्रसाद ने कहा, ´इस युग के तीन व्यक्तियों को महापुरूष मानता हूँ,गांधीजी,रवीन्द्र बाहू और मालवीयजी।और मैं अपने को इन तीनों में से किसी एक का अनुयायी नहीं मानता।´ प्रसादजी के इस बयान के बाद यह सवाल नए सिरे से उठा है कि आखिरकार प्रसादजी किससे प्रभावित थे ॽ छायावादी कवियों में प्रसाद और निराला पर गांधी का कोई प्रभाव नहीं था ,लेकिन पंतजी पर 1934 के बाद प्रभाव देखा जा सकता है।रामविलास शर्मा के अनुसार प्रसाद पर समाजवादी विचारधारा का धुंधला सा प्रभाव जरूर है।इस धुंधले प्रभाव का अर्थ है-किसानों के संगठन और उनके सामन्तविरोधी संघर्ष का बोध।रामविलास शर्मा के अनुसार प्रसाद और गांधीजी के नजरिए में तीखा अंतर्विरोध देखना हो तो यह भी देखें कि गांधीवाद जहां प्राचीन भारतीयसमाज में वर्ग संघर्ष अस्वीकार करता है,वहीं प्रसादजी ने राजा-प्रजा के रक्तमय संघर्ष का चित्रण पेश करके उसे स्वीकार किया है।गांधीवाद निष्क्रिय प्रतिरोध की बात करता है स्वयं कष्ट सहकर अन्यायी के हृदय-परिवर्तन की बात करता है,वहीं प्रसादजी ने सक्रिय प्रतिरोध के आदर्श को पेश किया है।शस्त्र उठाकर आतततायियों का विरोध करने का चित्र खींचा है।प्रसाद के पात्र सामाजिक संघर्ष में तटस्थ नहीं रहते।वे देश और जनता के प्रति सहानुभूति ही नहीं रखते अपितु संघर्ष में हिस्ला लेते हैं। रामविलास शर्मा के अनुसार प्रसाद के ´ध्रुवस्वामिनी´नाटक में यह नीति सूत्र है कि क्रूर,नृशंस ,देश की रक्षा करने में असमर्थ राजा वध्य है।वहीं नंद दुलारे वाजपेयी के अनुसार प्रसादजी का मूल दृष्टिकोण है ´नारी पुरूष की उद्धारक है।´यदि इस बुनियादी नजरिए को ध्यान में रखें तो प्रसादजी का नया पाठ निर्मित होगा। सवाल यह है क्या नारी संबंधी यह दृष्टिकोण आज के समय में समाज में मददगार होगा ॽ हमारा मानना है कि नारी को समाज की धुरी मानना,उसके जरिए ही परिवर्तन के तमाम कार्य संपन्न करना,प्रसादजी के साहित्य स्त्री पात्र बदलाव और उत्प्रेरणा के कारक बनकर सामने आते हैं।प्रसादजी को मन्दिर,फुलवारी और अखाड़ा ये तीन चीजें निजी तौर पर बहुत प्रिय थीं।इसके अलावा उनकी रचनाओं में व्यक्ति और राष्ट्र के अंतर्विरोधों के कई रूप नजर आते हैं।हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार ´उनकी आरंभिक रचनाओं में अतीत के प्रति एक प्रकार की मोहकता और मादकता भरी आसक्ति मिलती है।उनके कई परवर्त्ती नाटकों में यह भाव स्पष्ट हुआ है।´ मुक्तिबोध का मानना है कि प्रसाद की खूबी है कि ´कवि कुछ कहना चाहता है,पर कह नहीं पाता´,´´अन्य कवियों ने अपनी व्यक्तिगत अनुभूतियों को स्वच्छन्दता के साथ प्रकट किया,जबकि प्रसाद ने उन पर अंकुश रखा।एक प्रकार की झिझक और संकोच का भाव उनकी आंसू तक की सभी कविताओं में मिलता है।ऐसा लगता है कि कवि को भय है कि उसके मन में जो भाव उमड़ रहे हैं,जो वेदना संचित है वह यदि एकाएक अपने अनावृत्त रूप में प्रकट हो जाएगी तो पाठक उसकी कद्र नहीं कर सकेंगे।कवि की धारणा है कि उसका पाठक अभी इस परिस्थिति में नहीं है कि उलके भावों को ठीक-ठीक समझ सके और सहानुभूति के साथ देख सके।´ मुक्तिबोध के अनुसार ´कामायनी में प्रधान हैं लेखक के जीवन निष्कर्ष और जीवन अनुभव, न कि कथावस्तु और पात्र।साधारणतः,कथावस्तु के भीतर पात्र अपने व्यक्तित्व-चरित्र का स्वतंत्र रूप से विकास किया करते हैं,किंतु कामायनी में पात्र और घटनाएँ लेखक की भावना के अधीन हैं।कथानक,घटनाएँ,पात्र आदि तो वे सुविधा रूप हैं,कि जो सुविधा रूप लेखक को अपने भाव प्रकट करने के लिए चाहिए।इसीलिए कामायनी में कथावस्तु फैण्टेसी के रूप में उपस्थित हुई है,और उस फैण्टेसी के माध्यम से लेखक आत्म-जीवन को और उस आत्म-जीवन में प्रतिबिम्बित जीवन-जगत् के बिम्बों को,और तत्संबंध में अपने चिन्तन को,अपने जीवन-निष्कर्षों को प्रकट कर रहा है।´मुक्तिबोध के अनुसार´यह सर्वसम्मत तथ्य है कि कामायनी में जीवन समस्या है।वह जीवन समस्या है व्यक्तिवाद की समस्या है।जो एक विशेष समाज एवं काल में विशेष प्रकार से उपस्थित हो सकती है।इसके साथ प्रसाद के व्यक्तित्व को मिलाकर देखना होगा।´मुक्तिबोध के अनुसार प्रसाद का दर्शन ´एक उदार पूंजीवादी-व्यक्तिवादी दर्शन है,जो यदि एक मुँह से वर्ग-विषमता की निन्दा करता है; तो दूसरे मुँह से वर्गातीत,समाजातीत व्यक्तिमूलक चेतना के आधार पर,समाज के वास्तविक द्वन्द्वों का वायवीय तथा काल्पनिक प्रत्याहार करते हुए ´अभेदानुभूति´के आनंद का ही संदेश देता है।´ मुक्तिबोध के अनुसार प्रसादजी की कामायनी में चित्रित सभ्यता समीक्षा के प्रधान तत्व हैं, ´(1) वर्ग-भेद का विरोध और उसकी भर्त्सना,अहंकार की निन्दा-यह प्रसादजी की प्रगतिशील प्रवृत्ति है।(2)शाससकवर्ग की जनविरोधी,आतंकवादी नीतियों की तीव्र भर्त्सना- यह भी प्रगतिशील प्रवृत्ति है।(3)वर्ग-भेद का विरोध करते हुए भी मेहनतकशों के वर्गसंघर्ष का तिरस्कार –यह एक प्रतिक्रियावादी तत्व है।(4)वर्गहीन सामंजस्य और सामरस्य का वायवीय अमूर्त्त आदरअसवादषयह तत्व अपने अन्तिम अर्थों में इसलिए प्रतिक्रियावादी है कि (क)वर्ग-वैषम्य से वर्गहीनता तक पहुँचने के लिए उसके पास कोई उपाय नहीं,इस उपायहीनता का आदर्शीकरण है आदर्शवादी-रहस्यवादी विचारधारा;(ख)इस उपायहीनता का एक अनिवार्य निष्कर्ष यह भी है कि वर्तमान वर्ग –वैषमयपूर्ण स्थिति चिरंजीवी है;(ग)अगर इस यथार्थ की भीषणता में कुछ कमी की जा सकती है तो वह शासक की अच्छाई और उसके उदार दृष्टिकोण द्वारा ही सम्पन्न हो सकती है-(घ)इस विचारदारा के कारण आदर्श और यथार्थ के बीच अनुल्लंघ्य,अवांछनीय खाई पड़ जाती है।´ ,´प्रसाजी की सभ्यता -समीक्षा के दो दोष रह गयेः(1) सभ्यता-समीक्षा एकांगी है,उसने केवल ह्रास को देका,जनता की विकासमान उन्मेषशाली शक्तियों को नहीं देखा।(2)उनकी आलोचना अवैज्ञानिक है,वह समाज के मूल द्वंद्वों को नहीं पहचानती,मूल विरोधों को नहीं देखती।वह उन मूल कारणों और उसकी प्रक्रिया से उत्पन्न लक्षणों को एक साथ ही रखती है।´


विमर्श- जयशंकर प्रसाद पर विचार करते समय बार-बार साहित्यिक रूढ़िवाद हमारे आड़े आता है। साहित्यिक रूढ़िवाद से आधुनिक आलोचना को कैसे मुक्त किया जाए यह आज की सबसे बड़ी चुनौती है। साहित्यकार और कृतियों के मूल्यंकन के क्रम में सबसे पहल समस्या है आलोचना को कृति की पुनरावृत्ति से मुक्त किया जाय।इन दिनों आलोचना के नाम पर वह बताया जा रहा है जो कृति में लिखाहोता है। कृति में व्यक्त भावबोध को बताना आलोचना नहीं है।कृतिकार ने जो लिखा है वही यदि बता दिया जाएगा तो यह आलोचना नहीं होगी,बल्कि कृतिकार के विचारों या कृति में व्यक्त विचारों की जीरोक्स कॉपी होगी।लेखक या कृति के विचारों की जीरोक्स कॉपी नहीं है आलोचना। यहां से हमें आलोचना के साथ मुठभेड़ करनी चाहिए। आलोचना में रूढ़िवाद का दूसरा रूप है अवधारणाहीन लेखन।इस तरह का लेखन आलोचना के नाम पर खूब आ रहा है।मसलन्, “विमर्श” पदबंध को ही लें, इस पदबंध के प्रयोग को लेकर नामवर सिंह से लेकर उनके अनेक अनुयायी आलोचकों ने इस पदबंध पर विगत दो दशकों में जमकर हमले किए हैं और इस पदबंध को उत्त-आधुनिकतावाद पर हमले के बहाने निशाना बनाया है।इस प्रसंग में उनके सभी तर्क शास्त्रहीन और अवधारणाहीन रूप में व्यक्त हुए हैं।सवाल यह है “डिसकोर्स” (विमर्श) किसे कहते हैं ?क्या विमर्श से इन दौर में बचा जा सकता है ? विमर्श के दो प्रमुख नजरिए प्रचलन में हैं।समग्रता में “विमर्श” के ढाँचे का विचारधारात्मक अवधारणा के विभिन्न आयामों से गहरा संबंध है।प्रसिद्ध मार्क्सवादी सिद्धांतकार सुदीप्त कविराज ने “दि इमेजरी इंस्टीट्यूशन ऑफ इण्डिया”(2010)में इस पहलू पर रोशनी डालते हुए इसके विभिन्न अंगों का खुलासा किया है।कविराज के अनुसार “विमर्श” में शब्द,विचार,अवधारणा,भाषण की प्रस्तुति, कार्यक्रम,रेहटोरिक, आधिकारिक कार्यक्रम आदि सभी आते हैं।ये सब “विमर्श” की आंतरिक व्यवस्था के अंग हैं।“विमर्श”इन सबको बांधने वाली संरचना है। कविराज ने “विमर्श” के दो स्कूलों की चर्चा की है,इनमें पहला वर्ग है संरचनावादियों का है।इसमें अनेक रंगत के संरचनावादी हैं। दूसरा ,बाख्तियन स्कूल है।संरचनावादियों की मुश्किल यह है कि वेभाषण,लेखन,चिंतन आदि को विमर्श में शामिल तो करते हैं लेकिन एक-दूसरे के बीच में विनिमय नहीं देखते। उनके यहां भाषा ही “विमर्श” का मूलाधार है।इस क्रम मे वे यह भूल जाते हैं कि भाषा के रूप इकसार नहीं होते,मृतभाषा और जीवंतभाषा में अंतर होता है।असरहीन भाषा और प्रभावशाली भाषा में अंतर होता है।वे यह भी नहीं देखते कि वक्तृता के समय वक्ता की भाषा भाषिक नियमों में बंधी नहीं होती बल्कि नेचुरल फ्लो में होती है।कईबार वक्तृता में निहित साइलेंस बहुत महत्वपूर्ण होते हैं।बल्कि यों कहें कि जो छिपाया जा रहा है वह बताए जा रहे यथार्थ से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है।प्रत्येक विधा और मीडियम की भाषा अलग होती है।सबको इकसार भाषिक रूप में नहीं देखना चाहिए।भाषा में नेचुरल या स्वाभाविक भाषा भी आती है और किताब भाषा या विधा विशेष की भाषा भी आती है। वह भाषा भी आती है जो अवधारणा में निहित होती है।यानी विमर्श का दायरा भाषा से शुरू तो होता है लेकिन भाषा तक सीमित नहीं है।वह अवधारणा और सैद्धांतिकी तक फैला है। दूसरी ओर बाख्तियन (वोलोशिनोव)आलोचकों ने सवाल उठाया है “विमर्श”में भाषा के उपयोग का मकसद क्या है ?यानी भाषा से हम क्या करना चाहते हैं?राजनेताओं के भाषण की भाषा में राजनीति प्रच्छन्न रूप में रहती है।राजनीति के बिना भाषा नहीं होती। “विमर्श” का मतलब है जीवित भाषा का अध्ययन करना। उसकी प्रस्तुतियों का अध्ययन करना।उन परिस्थितियों का अध्ययन करना जिसमें भाषा का संचार हो रहा है।साथ ही उन पहलुओं का भी अध्ययन करना जो भाषा के संदर्भ में निषेध में शामिल हैं।वोलोशिनोव कहते हैं भाषण में भाषायी फिनोमिना को पकड़ने की कोशिश करनी चाहिए।इसमें वक्तृता में निहित व्यक्तिवादिता,अनुभव की अभिव्यक्ति और जीवन की व्यापकता का अध्ययन किया जाना चाहिए।इसी क्रम में सुदीप्त कविराज ने “विमर्श” में विचार और उसके आंतरिक कोहरेंस,बाह्य और आंतरिक चीजों के भाषायी अर्थ और संबंध,खासकर राजनीतिक घटना के साथ संबंध को जोड़कर देखने पर जोर दिया।इससे वक्तृता के आंतरिक और बाह्य रूप को समझने में मदद मिलेगी।साथ ही ‘थीम’ और ‘अर्थ’के बीच अंतर किया।इसी क्रम में “यूज मीनिंग” और “एक्ट मीनिंग” को मिलाकर ऐतिहासिक विश्लेषणबनता है।यह विचारधारा का हिस्सा है। सवाल यह है “विमर्श” में “सेल्फ”(स्व) की क्या परिभाषा है ? किस तरह का स्व व्यक्त हो रहा है ?”स्व” को परिभाषित किए वगैर विमर्श नहीं बनता।“स्व” को स्थिर या जड़ तत्व नहीं है।खासकर राजनीतिक व्यक्ति जब विमर्श में दाखिल होता है तो वह महज व्यक्ति नहीं होता,उसकी राजनीतिक विचारधारा होती है,समस्या यह है कि वह उस राजनीतिक विचारधारा को कितना जानता है ?उस पर उसका कितना नियंत्रण है ?वह किस तरह के माध्यमों के जरिए संप्रेषित कर रहा है ? राष्ट्र ,राष्ट्रवाद और विचारधारा- आजकल ´राष्ट्रवाद´के सवाल पुनः केन्द्र में आ गए हैं। इस बहस के प्रसंग में पहली बात यह कि ´राष्ट्रवाद´का कोई एक रूप कभी प्रचलन में नहीं रहा।आम जनता में उसके कई रूप प्रचलन में रहे हैं। स्वाधीनता संग्राम के दौरान ´राष्ट्रवाद´के वैविध्यपूर्ण रूपों को समाज में सक्रिय देखते हैं।यही स्थिति स्वतंत्र भारत में भी रही है।लोकतंत्र के विकास की प्रक्रिया में राष्ट्रवाद सामान्यतौर पर एक समानान्तर विचारधारा के रूप में हमेशा सक्रिय रहा है।मुश्किल उनकी है जो राष्ट्रवाद को लोकतंत्र की स्थापना के साथ हाशिए की विचारधारा मानकर चल रहे थे। राष्ट्रवाद स्वभावतःनिजी अंतर्वस्तु पर निर्भर नहीं होता अपितु हमेशा अन्य विचारधारा के कंधों पर सवार रहता है।राष्ट्रवाद के अपने पैर नहीं होते।यह आत्मनिर्भर विचारधारा नहीं है। आधुनिककाल आने के साथ ही ´राष्ट्रवाद´के विभिन्न रूप दिखाई देते हैं,उनमें यह समाजवाद, उदारतावाद, अनुदारवाद यहां तक कि अराजकतावादी विचारधारा के कंधों पर सवार होकर आया है।राष्ट्रवाद के लिए कोई भी अछूत नहीं है,वह साम्प्रदायिक,पृथकतावादी ,आतंकी विचारधाराओं के साथ भी सामंजस्य बिठाकर चलता रहा है।इसलिए ´राष्ट्रवाद´पर विचार करते समय उसका ´संदर्भ´और ´सांगठनिक-वैचारिक आधार´जरूर देखा जाना चाहिए,क्योंकि वही उसकी भूमिका का निर्धारक तत्व है। मार्क्सवादी आलोचक ´राष्ट्रवाद´को ´छद्मचेतना´ कहकर खारिज करते रहे हैं,जो कि सही नहीं है।जैसाकि हम सब जानते हैं कि प्रत्येक विचारधारा में ´छद्म´या ´असत्य´भी होता है और ´संभावनाएं´ भी होती हैं। यही स्थिति ´राष्ट्रवाद´की भी है।हमें देखना चाहिए कि ´राष्ट्रवाद´की जब बातें हो रही हैं तो किस तरह के इतिहास और आख्यान के संदर्भ में हो रही हैं। क्योंकि ´राष्ट्रवाद´कोई ´तथ्य´या ´यथार्थ´का अंश नहीं है,वह तो विचारधारा है,उसका इतिहास और आख्यान भी है।जिस तरह प्रत्येक विचारधारा ´स्व´या सेल्फ के चित्रण या प्रस्तुति के जरिए अपना इतिहास बनाती है,वही काम ´राष्ट्रवाद´भी करता है।इसलिए ´राष्ट्रवाद´की कोई भी इकसार या एक परिभाषा संभव नहीं है। ´राष्ट्रवाद´पर विचार करते समय हम यह देखें कि देश को कैसे देखते हैं ॽ कहाँ से देखते हैंॽ और कौन देख रहा है ॽहिटलर के लिए ´राष्ट्रवाद´ का जो मतलब है वही गांधी के लिए नहीं है। समाजवाद में ´राष्ट्रवाद´का जो अर्थ है वही अर्थ पूंजीवाद के लिए नहीं है।´राष्ट्रवाद´ के नाम पर इन दिनों वैचारिक मतभेद मिटाने की कोशिश की जा रही है,´राष्ट्र´ की आड़ में व्यक्ति ,वर्ग और समुदाय के भेदों को नजरअंदाज करने की कोशिश की जा रही है।असल में ´राष्ट्रवाद´तो भेद की विचारधारा है।फिलहाल देश में जो चल रहा है उसमें इसका तात्कालिकता,विदेशनीति और खासकर पाककेन्द्रत विदेश नीति, मुस्लिम विद्वेष,हिन्दुत्ववादी श्रेष्ठत्व से गहरा संबंध है। ´राष्ट्रवाद´में तात्कालिकता इस कदर हावी रहती है कि आपकी सूचनाओं का वैचारिक उन्माद की आड़ में अपहरण कर लिया जाता है। सूचनाओं के अभाव को उन्माद से भरने की कोशिश की जाती है।स्वाधीनता संग्राम के दौरान राष्ट्रवाद की साम्राज्यवादविरोधी धारा आम जनता को सचेत करने,दिमाग खोलने का काम करती थी,लेकिन इन दिनों तो ´राष्ट्रवाद´आम जनता के दिमाग को बंद करने का काम कर रहा है,सूचना विपन्न बनाने का काम कर रहा है। पहले वाला ´राष्ट्रवाद´आम जनता की ´स्मृति´को जगाने ,समृद्ध करने का काम करता था,लेकिन सामयिक हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद ´स्मृति´ पर हमला करने का काम कर रहा है।बुद्धि और विवेक के अपहरण का काम कर रहा है। पहले ´राष्ट्रवाद´ने कुर्बानी और त्याग की भावना पैदा की लेकिन हिन्दुत्ववादी ´राष्ट्रवाद´तो पूरी तरह अवसरवादी और बर्बर है।इसकी सामाजिक धुरी है मुस्लिम विरोध और अंत्यज विरोध।इसका लक्ष्य है अबाध कारपोरेट लूट का शासन स्थापित करना। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान ´राष्ट्रवाद´के आंदोलन ´अन्य´को आलोकित करने,प्रकाशित करने का काम करता था,लेकिन मौजूदा हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद तो ´अन्य´का शत्रु है।यह सिर्फ ´तात्कालिक राजनीति´केन्द्रित है।जबकि पुराना राष्ट्रवाद अतीत,वर्तमान और भविष्य इन तीनों को सम्बोधित था। साम्राज्यवाद विरोध ´राष्ट्रवाद´ का आख्यान ´रीजन´यानी तर्क के साथ आया लेकिन नया राष्ट्रवाद सभी किस्म के ´रीजन´का निषेध करते हुए आया,इसका मानना है कि आरएसएस जो कह रहा है उसे मानो,वरना ´देशद्रोही´ कहलाओगे।पुराने ´राष्ट्रवाद´के पास साम्राज्यवाद विरोध का महाख्यान था,लेकिन नए राष्ट्रवाद के पास तो कोई आख्यान नहीं है,बिना आख्यान के,सिर्फ रद्दी किस्म के नारों और डिजिटल मेनीपुलेशन के आधार पर यह अपना विस्तार करना चाहता है।जो उससे असहमत हैं उनको कानूनी आतंक के जरिए नियंत्रित करना चाहता है या फिर मीडिया आतंकवाद के जरिए मुँह बंद करना चाहता है। पुराने वाले राष्ट्रवाद के सामने मुकाबले के लिए यूरोपीय राष्ट्रवाद था,लेकिन हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद के सामने तो आम जनता ही है।यह आम जनता के शत्रु के रूप में सामने आया है। राष्ट्र की पहचान क्षेत्र से जुड़ी है।इसके आधार पर अस्मिता बनती है।इसी तरह राष्ट्र की अस्मिता में क्षेत्र के अलावा भाषा का भी योगदान है ,यही कारण है कि आधुनिककाल आने के बाद भाषा के आधार पर जातीयता या नेशनेलिटी का जन्म होता है।पहले भारत में कई किस्म की सांस्कृतिक-भाषायी संरचनाएं मिलती हैं जो अस्मिता बनाती हैं,इनमें पहली संरचना है संस्कृत भाषा और साहित्य की,दूसरी संरचना है अरबी-परशियन भाषा और साहित्य की,तीसरी संरचना हैजनपदीय भाषाओं की और पांचवीं संरचना है बोलियों की।इसके अलावा ´जाति´या कास्ट की संरचना भी है जो राष्ट्र की पहचान से जुड़ी है।इसके अलावा ´राष्ट्र´ और ´क्षेत्रीय´का अंतर्विरोध भी है।ये सभी तत्व किसी न किसी रूप में ´राष्ट्र´ के साथ अंतर्क्रियाएं करते हैं।पुराने ´राष्ट्रवाद´को प्रभावित करते रहे हैं। ´राष्ट्रवाद´का आख्यान लिखते समय यह बात हमेशा ध्यान में रखें कि उसका बौद्धिक विमर्श ,देश निर्माण की प्रक्रिया और नीतियों और बौद्धिक प्रक्रियाओं से गहरा संबंध रहा है।इसलिए हमें उन पक्षों को खोलना चाहिए।राष्ट्र का विमर्श मूलतः रूपों का विमर्श है। सुदीप्त कविराज ने इस प्रसंग में बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही है।उनका मानना है कि राष्ट्रवाद अपने बारे में क्या कहता है उसकी उपेक्षा करें। आत्मकथा की उपेक्षा करें।इससे भिन्न उसके इर्द-गिर्द के सांस्कृतिक रूपों की व्याख्या करें।इनसे ´राष्ट्रवाद´के ऐतिहासिक विकास क्रम को सही रूप में देख सकेंगे। जयशंकर प्रसाद के नाटकों से लेकर कविता तक राष्ट्र बनाम व्यक्ति का द्वंद्व केन्द्र में है और इसमें वे राष्ट्र की शक्ति के सामने व्यक्ति की सत्ता,महत्ता और असीमित दायरे का विकास करते हैं। वे राष्ट्र की सीमाओं से व्यक्ति के अधिकारों के दायरे को तय नहीं करते बल्कि मानवाधिकार के दायरे से व्यक्ति के अधिकारों को देखते हैं।वेव्यक्ति के सहज-स्वाभाविक विकास को महत्वपूर्ण मानते हैं।समाज के हित में विद्रोह करना,व्यक्ति के अधिकारों का विकास करना,समाज की कैद से मुक्त करके नए व्यक्तिवाद के आलोक में वे मनुष्य के विकास को महत्वपूर्ण मानते हैं। वे व्यक्ति की पहचान का आधार धर्म को नहीं मानते।वे समाज की पहचान भी धर्म के आधार पर तय नहीं करते बल्कि उनकी रचनाओं के केन्द्र में मनुष्य है और उसके असीम व्यक्तिवाद के विकास को वे बेहद महत्वपूर्ण मानते हैं। आधुनिक समाज में व्यक्तिवाद के विकासके बिना नए आधुनिक भारत का निर्माण संभव नहीं है साथ ही व्यक्तिवाद के विभिन्न रूपों की जितनी सुंदर व्याख्या उन्होंने की है,वह बहुत ही महत्वपूर्ण सकारात्मक पक्ष है।

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