जेएनयू का 9फरवरी2016 का मुद्दा राजनीतिक-डिजिटल है।राजनीतिक आयाम समझ में आ रहेहैं उन पर बहस भी हो रही है।लेकिन डिजिटल दुरूपयोग के आयाम खुलने बाकी हैं। जिस समय 9फरवरी की घटना घटी उसी दिन मौके पर पुलिस मौजूद थी,कोई वीडियोग्राफर भी था,लेकिन तत्काल किसी ने पुलिस में कोई शिकायत दर्ज नहीं की।पुलिस ने मौके पर रहते हुए किसी की गिरफ्तारी नहीं की,यहां तक कि बाद में भी पुलिस ने किसी के खिलाफ एफआईआर दर्ज नहीं करायी।चूंकि घटना कैम्पस में हुई थी अतःइस घटना पर विश्वविद्यालय की एफआईआर दर्ज कराने की जिम्मेदारी बनती है लेकिन वि.वि. ने भी इस घटना पर पुलिस में शिकायत दर्ज नहीं करायी,यही वह बिंदु है जहां से जेएनयू की 9फरवरी की घटना एक नियोजित सत्ता षडयंत्र प्रतीत होती है।जो भी शिकायतें या एफआईआर पुलिस में हुई हैं वे भाजपा के सांसद और एबीबीपी के जेएनयू नेताओं ने करायी हैं।जबकि तकनीकी तौर पर वे इसके लिए अधिकारी नहीं हैं। असल में ,डिजिटल मेनीपुलेशन के जरिए जेएनयू के छात्रों,वि.वि.समुदाय और शिक्षकों के साथ समूचे वि.वि. को बदनाम करने की कोशिश की गयी।जेएनयू के 5 छात्रनेताओं ,जिनमें छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार शामिल है,को राष्ट्रद्रोह के झूठे मुकदमे में फंसाया गया और कन्हैया को जेएनयू से गिरफ्तार किया गया,सारे कैम्पस में पुलिस ने छापे मारे,तलाशी ली।सबसे खतरनाक बात हुई कि 9फरवरी2016 की घटना के एक वीडियो का कई टीवी चैनलों ने जमकर दुरूपयोग किया और जबकि यह वीडियो मेनीपुलेशन से तैयार किया गया था।फेक वीडियो था।
इस समूचे प्रसंगने राजनीतिक शत्रुता के लिए डिजिटल दुरूपयोग की नई मिसाल कायम की,इस तरह के डिजिटल मेनीपुलेशन की हरकतें मुजफ्फरनगर के दंगों के समय भी हुई हैं। राजनीतिक शत्रुता के लिए डिजिटल को औजार की तरह इस्तेमाल करने की इस तरह की हरकतों ने डिजिटल सचेतनता के सवालों को केन्द्र में लाकर खड़ा कर दिया है।इस तरह की घटनाओं ने यह भी साफ कर दिया है कि आरएसएस डिजिटल मेनीपुलेशन में बादशाह है।
डिजिटल मेनीपुलेशन नए किस्म का खतरा है जो जमीनीस्तर पर कलह पैदा करता है। आजकल घटनाएं घट रही हैं लेकिन हम नहीं जानते कि क्या हो रहा है ॽक्यों हो रहा है ॽकौन लोग कर रहे हैं ॽघटना हो रही हैं लेकिन हम उसके ´तथ्य´और ´सत्य´को नहीं जानते।असलमें, हम सब राजनीति से दूरी बनाकर रखते हैं।राजनीतिक लक्ष्यों से भी दूरी बनाकर रखते हैं इसलिए नहीं जानते कि यह सब क्यों हो रहा है। साम्प्रदायिक- विभाजनकारी-आतंकी संगठनों से लेकर समर्थ भाजपा जैसा दल भी डिजिटल मेनीपुलेशन का जमकर इस्तेमाल कर रहा है। इसे ´´तकनीकी विभ्रमवाद´´कहे तो बेहतर होगा।इसका दायरा इराक,बोस्निया,अफगानिस्तान से लेकर जेएनयू तक के घटनाक्रम तक फैला हुआ है। इस दौर में जो हमले हो रहे हैं उनमें एक ओर से सत्ता हमलावर है तो दूसरी ओर हमलावर मीडिया है। लोकतांत्रिक हकों पर हमले को ´राष्ट्रसेवा´ या ´राष्ट्रवाद´कहा जा रहा है।अंधविश्वास के खिलाफ बोलने वालों पर बर्बर हमले किए जा रहे हैं।इन हमलों को वैचारिक ´श्रेष्ठत्व´कहा जा रहा है।जिन घटनाओं पर माफी मांगनी चाहिए उन पर नेतागण हेकड़ी और अहंकार से उनकी हिमायत में बोल रहे हैं।
आयरनी यह है सत्ता के हमलों को लोकतंत्र कहा जा रहा है,कानून के दुरूपयोग को न्यायपालन कहा जा रहा है।मीडिया और साइबर हमलों के जरिए सभी किस्म के कानूनों को मुक्ति दे दी गयी है।सभ्यता के मानकों को त्यागकर अधिकांश मीडिया ने आतंक का मार्ग ग्रहण कर लिया है। इसे साइबर डी-रेगूलेशन कह सकते हैं।जिसके आधार पर इराक से लेकर सीरिया तक स्वचालित मिसाइलों के हमले हो रहे हैं ,और कानूनभंग हो रहा है,´हमलावर´ को क्षमादान दे दिया गया है। ´हवाई ट्रांसपोर्ट ´और ´साइबर संचार´का पूरी तरह ´डी-रेगूलेशन´करके ग्लोबल पूंजीवाद ने नई परिस्थितियों को पैदा किया है। शांति स्थापना के नाम पर सेना और हथियारों के जरिए घेराबंदी और हमले,देश में शांति के नाम पर हिन्दुत्ववादियों के हमले,कुल मिलाकर त्रासद समय की सृष्टि कर रहे हैं।
पहले ´मतभेद´ होते थे तो उनको सार्वजनिक तौर पर व्यक्त करते थे,लोग सुनते थे,लेकिन नयी संस्कृति है ´हमला करो´, ´हिंसा के जरिए´ ´कानूनी आतंक´के जरिए मुँह बंद करो। पहले राजनैतिक विवाद को जमीनी स्तर पर हल करने या जीत हासिल करने की कोशिश की जाती थी लेकिन इन दिनों विवाद को सत्ता के तंत्र के जरिए,बाहुबल के जरिए हल करने की कोशिशें हो रही हैं।पहले प्रतिवाद करने वाले का सम्मान करते थे,इन दिनों उसके खिलाफ घृणा प्रचार हो रहा है।जेएनयू की घटना इस फिनोमिना का आदर्श उदाहरण है। पहले प्रतिवाद का सम्मान करते थे, इन दिनों प्रतिवाद का अपमान करते हुए प्रतिवाद का प्रतिवाद करते हैं।इस बहाने प्रतिवाद से ही वंचित करने की कोशिशें हो रही हैं।इस हठकंडे का आरएसएस जमकर इस्तेमाल कर रहा है।अब खबरों को भी मैन्युफेक्चर किया जा रहा है,इनके आधार पर हिन्दूभारत के निर्माण की कोशिशें हो रही हैं।
इन दिनों ´विवादों´में राजसत्ता का हस्तक्षेप सबसे बड़ी चुनौती है।जेएनयू के मसले पर यह तत्व सबसे उग्र रूप में सामने आया है, राजनेताओं,केन्द्रीय मंत्रियों और पुलिसतंत्र के जरिए जिस तरह स्थानीय छोटी समस्या में मोदी सरकार ने हस्तक्षेप किया है वह अपने आपमें लक्षण है कि संघ किस तरह की राजनीति कर रहा है।संघ सीधे सत्ता के जरिए नाकेबंदी करके हस्तक्षेप कर रहा है,तथाकथित आम सहमति के नाम पर आतंक पैदा कर रहा है,अभिव्यक्ति की आजादी को बाधित कर रहा है। इसके अलावा संघ के दबाव में लेखकों के कॉलम बंद कराए जा रहे हैं,किताबों की खरीद-फरोख्त में विचारधारा के आधार पर फैसले लिए जा रहे हैं।ये सब चुप कराने के तरीके हैं।
दिक्कत यह है कि अब हर चीज तेजगति से आ रही है। तेजगति से ही संघ के हमले हो रहे हैं। जो तेजगति के मंत्र जानता है वह तो इन हमलों से बच सकता है जो नहीं जानता वह इन हमलों में मर सकता है। विश्व परिप्रेक्ष्य में देखें तो मानवाधिकार बचाने के नाम पर युद्ध हो रहे हैं।लेखक,संस्थान और राष्ट्र की संप्रभुता पर हमले हो रहे हैं।क्षेत्र,राष्ट्र-राज्य और मनुष्य की संप्रभुता खतरे में है।धर्मनिरपेक्षता और संविधान पर संविधान का नाम लेकर हमले किए जा रहे हैं।´हस्तक्षेप´को परम पुनीत कर्त्तव्य के रूप में पेश किया जा रहा है।जो लोग आरएसएस के खिलाफ हैं उनके खिलाफ सूचना युद्ध की घोषणा हो चुकी है।इस काम में कारपोरेट मीडिया और इंटरनेट का सुनियोजित ढ़ंग से इस्तेमाल हो रहा है।
हमें नए युग की प्रक्रियाओं को बृहत्तर परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए।खासकर ´कम्प्यूटर विवेकवाद´ के नजरिए से देखना चाहिए। ´कम्प्यूटर विवेकवाद´ के बहाने नए किस्म के विवेकवाद को आरोपित किया जा रहा है।यह वह विवेकवाद है जिसे कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग के जरिए थोपा जा रहा है।इसका आरंभ युद्ध में स्वचालित मिसाइलों के प्रयोग से हुआ।आज यह साइबर सत्ता का सबसे प्रभावशाली औजार है।इसका जनक है कम्प्यूटर इंजीनियरिंग,और भोक्ता है शासकवर्ग।इसके जरिए सुनियोजित ढ़ंग से रेशनेलिटी को ´स्पेस´से लेकर दैनंदिन जीवन तक आरोपित किया जारहा है।इसे ´साइबर हमलावर´ कहें तो अत्युक्ति न होगी।
´साइबर हमलावर´वे हैं जिनका कोई सामाजिक दायित्व नहीं है।संविधान,कानून,संसद,समाज आदि किसी के प्रति ये लोग जबावदेह नहीं हैं।पॉल विरिलिओ के अनुसार यह ऐतिहासिक ´शिफ्ट´ है. पहले जो लोग हस्तक्षेप थे उनको आप जानते थे,उनकी भूमिका थी,दायित्व तय थे। लेकिन आज ऐसा नहीं है,आज सारा कार्य-व्यापार ´वर्चुअल स्पेस ´ से संचालित है।वहीं से चीजें देखी जा रही हैं और वहीं से ´एक्शन´ तय हो रहे हैं। इस तरह के हस्तक्षेप के बारे में पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं है।आज सत्ता को परिभाषित करने के रूप बदल गए हैं।इनमें वर्चुअल स्पेस की बड़ी भूमिका है। ´वर्चुअल स्पेस´ के जरिए व्यक्ति से लेकर राष्ट्र तक सबकी संप्रभुता पर हमले किए जा रहे हैं।पहले राष्ट्र संरक्षक था ,लेकिन इन दिनों राष्ट्र हमलावर है।आजकल वर्चुअल स्पेस बहुत महत्वपूर्ण है ,इसे भौगोलिक क्षेत्रफल के पूरक के रूप में देखना चाहिए ।इसी तरह साइबर अभिव्यक्ति को अभिव्यक्ति के पूरक के रूप में देखना चाहिए।पहले हस्तक्षेप के जरिए बहस या संवाद करने में मदद मिलती थी, लेकिन अब हस्तक्षेप का मतलब है ´तर्कहीनता´ और ´अन्य´के स्पेस का खात्मा।अब ऐसा माहौल बना है जिसमें ´अन्य´ अप्रासंगिक है। हस्तक्षेप के नाम पर आवाज बंद की जा रही है।इससे समूचा समाज टेंशन में है।यही वो परिप्रेक्ष्य है जिसमें जेएनयू और रोहित वेमुला के आंदोलन को देखने की जरूरत है।
एक तरफ मीडिया नियंत्रण बढ़ा है,वहीं दूसरी ओर साइबरसंसार के विकास के साथ ´साइबर लॉजिक बम´से हमले किए जा रहे हैं।इससे अराजकता बढ़ी है। असल में सारी चीजें ´ग्लोबल सूचना वर्चस्व´ के परिप्रेक्ष्य में विकसित हो रही हैं।इस सिस्टम की विशेषता है हर चीज को रीयल टाइम में खोजना,निशाना बनाना और वर्चुअल हमले करना। ´ग्लोबल सूचना वर्चस्व´ के तीन प्रमुख तत्व हैं,1.देश के ऊपर स्थायी उपग्रह प्रणाली की स्थापना,2.सूचना का रीयल टाइम में स्थानांतरण और प्रसारण,3.डाटा का तेजी के साथ विश्लेषण,खासकर विभिन्न चैनलों,माध्यमों आदि के जरिए आ रहे डाटा का तुरंत विश्लेषण ।
विरिलिओ कहते हैं यह असल में ´बिना दीवारों के किले´ का युग है।यह अंतरिक्ष श्रेष्ठता का युग है।जहां भी ’टकराव´ हो वहां अबाध हमले किए जाएं।साइबर स्मगलिंग पर जोर दिया जाए।पुराने संस्कारों, जिनमें धर्म भी आता है,उस पर कुछ न कहो।मसलन्, कोसोवो में बड़े पैमाने पर कब्रें खोज निकाली गयीं,उनकी सैटेलाइट इमेजों की वर्षा की गयी,लेकिन एबीसी टीवी चैनल ने एक भी कब्र नहीं दिखाई। पेंटागन से सैटेलाइट के जरिए यह दिखाया गया कि कोसोवो में पहाड़ों पर रहने वाले लोग पलायन कर रहे ये लोग ´जनसंहार´के डर से भाग रहे थे।जबकि बताया गया कि वे ´उत्पीडन´के कारण भाग रहे हैं। यह भी कहा गया कि अमेरिका का काम है ´अपराधी´खोजना। ठीक यही पद्धति जेएनयू के 9फरवरी के घटनाक्रम पर लागू की गयी।अचानक एक वीडियो ,फिर दूसरा और फिर तीसरा,चौथा.पांचवां वीडियो साइबर स्पेस में अवतरित होता है और जेएनयू पर हमले शुरू हो जाते हैं।किसी भी मीडिया घराने ने घटनास्थल पर जाकर सत्य जानने की कोशिश नहीं की,नारे लगाने वालों को कभी टीवी पर दिखाया नहीं, पुलिस घटनास्थल पर मौजूद थी लेकिन किसी भी नारे लगाने वाले को पकड़ा नहीं,यहां तक कि संघ के लोगों ने भी नहीं पकड़ा।साइबर से लेकर मीडिया तक जेएनयू पर जिस तरह का मीडिया हमला हुआ है वह टिपिकल ´मीडिया संहार´है,इसका लक्ष्य है जेएनयू को कलंकित करना,बदनाम करना,राष्ट्रविरोधी संस्थान बताना।संभवतःआजाद भारत में किसी वि.वि. पर इतना व्यापक हमला पहले कभी नहीं हुआ।यह हमला परंपरागत जासूसी,हमले,अफवाह आदि के हथकंडों से परे है। कम्प्यूटर की भाषा में यह ´ऑप्टिकल हमला´ है ,यह ऐसा हमला है जिसमें जेएनयू पर तो कड़ी निगरानी है ही,जेएनयू आंदोलन का समर्थन करने वालों पर भी निगरानी जारी है।इसके लिए ´पब्लिक ओपिनियन´पर भी निगरानी रखी जा रही है,उसको भी नियंत्रित किया जा रहा है। इसमें साइबर जासूसी से लेकर मीडिया जासूसी तक के हठकंडों का प्रयोग हुआ है। यह समूचा मॉडल ’टेली-सर्विलेंश´के नजरिए से संचालित है।इसके जरिए ही जेएनयू के बारे में आम जनता के नजरिए को प्रभावित किया जा रहा है,सामाजिक व्यवहार और आचरण को प्रभावित किया जा रहा है।
जेएनयू का आंदोलन मूलतः इमेज युद्ध के मानकों से लड़ा गया है।इमेज युद्ध में सूचनाओं के प्रवाह पर नजर रहती है,मोदी सरकार और संघ ने संगठित ढ़ंग से मीडिया से लेकर इंटरनेट तक फेक सूचनाओं के ´ फ्लो´ को बनाए रखा,उसे नियंत्रित किया।इससे बड़े पैमाने पर मीडिया प्रभावित भी हुआ। अधिकांश मीडिया घराने संघ के ´फ्लो´ में संप्रेषित सूचनाओं को ही परोस रहे हैं।इसे मीडिया का सर्वसत्तावादी हस्तक्षेप भी कह सकते हैं।इसके बहाने तर्क,प्रत्युत्तर सभी को अपदस्थ करने की कोशिश की गयी। इस हमले की विशेषता है- ´तुम सिद्ध करो कि तुमने नारे नहीं लगाए,तुम सिद्ध करो कि तुम झूठ नहीं बोल रहे,´ यानी निराधार आरोप लगाएंगे आरएसएस-पुलिस-मोदी सरकार के मंत्री ,वे आरोप के पक्ष में कोई प्रमाण नहीं देंगे ,वे सिर्फ आरोप लगाएंगे ,आरोपों की अंधाधुंध वर्षा करेंगे,अब तुम जेएनयूवालो सिद्ध करो कि आरोप झूठे हैं,तुम प्रमाण दो।यह ´आरोप´ लगाने की अमेरिकी पद्धति है,इस पद्धति के आधार पर अफगानिस्तान,इराक,सीरिया आदि को तबाह किया जा चुका है।
जेएनयू की जो इमेज वर्षा हुई है उसमें बार-बार एंकर से लेकर भाजपा-पुलिस-संघ के प्रवक्ता तक यही कह रहे थे कि ´जेएनयू में देशद्रोही नारे लगे हैं,जिन्होंने नारे लगाएं वे देशद्रोही हैं,´यही मूल आधारभूत वाक्य है जिसका करोड़ों बार प्रक्षेपण किया गया।इस पंक्ति के आधार पर समूचे मीडिया में हंगामा खड़ा किया गया।भ्रम पैदा किया गया। अंत में ,जेएनयू के छात्रनेताओं,जिनमें वर्तमान छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार सहित पांच नेताओं को ´राष्ट्रद्रोह´में भाजपा सांसद महेश गिरि की एफआईआर के आधार पर निशाने पर रखा गया,इन छात्रनेताओं की गिरफ्तारी वैध ठहराने के लिए ´जेएनयू में देशद्रोही नारे लगे हैं,जिन्होंने नारे लगाएं वे देशद्रोही हैं,´इस पंक्ति को अस्त्र के रूप में इस्तेमाल किया गया।इसके इर्द-गिर्द मीडिया-साइबर प्रौपेगैण्डा निर्मित किया गया। यह विशुद्ध असत्य प्रचार अभियान था।इस प्रचार अभियान के जरिए जेएनयू के छात्रों से पूछा गया तुम नाम बताओ,उनको खोजकर लाओ, बताओ वे कौन थे,कहां रहते हैं,यदि नहीं बताओगे तो तुम जिम्मेदार हो।इसके पक्ष में माहौल बनाने के लिए आरएसएस ने वोटक्लव से लेकर राजघाट तक भगवा ब्रिगेड को सड़कों पर उतार दिया,इनमें असामाजिक तत्वों से लेकर कुछ सौ पूर्व सैनिक भी थे।इस तरह के जुलूसों के जरिए यह माहौल बनाने की कोशिश की गयी कि जेएनयू देशद्रोहियों की शरणस्थली है।यह टिपिकल फासिस्ट तरीकों से जेएनयू की घेराबंदी है। जिसका लक्ष्य है आम जनता को जेएनयू के छात्रों के खिलाफ खड़ा करना,इसमें संघ कुछ हद तक सफल रहा,लेकिन शिक्षित समुदाय के बड़े तबके को जेएनयू के छात्र अपने साथ लाने,मीडिया के अंश को अपने सत्य के करीब लाने में सफल रहे,यह लड़ाई अभी बंद नहीं हुई है इसलिए और भी चौकन्ने रहने की जरूरत है।
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