बुधवार, 30 मार्च 2016

वे वाम का साथ छोड़कर क्यों चले गए ॽ



     पश्चिम बंगाल के चुनाव में टीएमसी के खिलाफ दो साल पहले किए गए नारद वीडियो स्टिंग ऑपरेशन के जरिए किसी भयानक राजनीतिक उथल-पुथल की कुछ लोग उम्मीद लगाए बैठे हैं।हमारा अनुमान है ऐसा कुछ भी नहीं होगा।पश्चिम बंगाल के लोग,खासकर मध्यवर्ग के अंदर इस वीडियो के आने के बाद कोई आक्रोश नजर नहीं आ रहा,यहां के लोग करप्शन से बेखबर हैं,करप्शन देखते हैं,झेलते हैं,सामंजस्य बिठाते हैं और जी रहे हैं,करप्शन को लेकर सारे देश में यही दशा है।जनचेतना की  भयावह स्थिति है कि सारधा चिटफंड कांड में टीएमसी के अधिकांश बड़े नेताओं के लिप्त होने के बावजूद वाममोर्चा कोई विशाल जनांदोलन खड़ा करने में असमर्थ रहा,हां,उसने निरंतर प्रतिवाद जरूर किया,लेकिन जिस स्केल पर लोग चिटफंड घोटाले से लोग प्रभावित हुए हैं उसकी तुलना में दशांश को भी जुलूसों में खींच नहीं पाया,यहां तक कि विधानसभा उपचुनावों में टीएमसी को हराने सफल नहीं हुआ।नगरपालिका चुनावों  में हरा नहीं पाया।ऐसी स्थिति में नारद वीडियो स्टिंग कोई जादू कर देगा हमें नहीं लगता।
     सवाल यह है वाम के साथ जो सामाजिक शक्तियां थीं,जो सामाजिक संतुलन था,वह आज क्यों नहीं है चुनावों की सारी लड़ाई सामाजिक संतुलन को पक्ष में करने की लड़ाई है।ममता ऐन-केन-प्रकारेण सामाजिक संतुलन को अपनी ओर झुकाने में सफल रही है और यही उनके नेतृत्व की सफलता है।

सवाल यह है जो सामाजिक शक्तियां वाम के साथ थीं वे किन कारणों से वाम को छोड़कर चली गयीं मसलन्,शरणार्थी बंगालियों के पुनर्वास में वाम ने सक्रिय भूमिका निभायी और उनकी आर्थिक-सामाजिक शक्ति के विकास में हर संभव मदद की,एक जमाना था ये लोग बेहद गरीब थे,लेकिन वाम जमाने में इनके आर्थिक हालात बदले,इनमें मध्यवर्ग पैदा हुआ,संपत्ति पैदा हुई,लेकिन वामचेतना का विकास न हो सका।वे सिर्फ वोटबैंक बने रहे।लेकिन ज्योंही वाम के खिलाफ सिंगूर-नंदीग्राम आंदोलन के कारण हवा बहने लगी,ये लोग वाम को छोड़कर चले गए।यही हाल शिक्षकों का है। शिक्षकों एक बड़ा वर्ग वाम के साथ था।लेकिन आज वे लोग भी साथ नहीं हैं। जबकि शिक्षकों पर कोई जुल्म नहीं हुआ,इसके बावजूद वे वाम को छोड़कर क्यों चले गए सरकारी कर्मचारियों के संगठन में भी यही हाल है।यह वह वर्ग है जो सचेतन कहलाता है,आर्थिक रूप से सुरक्षित है,इसको कोई खतरा न तो वाम के जमाने में था और न ममता के जमाने में था,फिर यह वर्ग वाम को क्यों छोड़कर चला गया वाम ने कभी सार्वजनिकतौर इन वर्गों के वाम-विमुख हो जाने की समीक्षा नहीं की,क्यों नहीं की ॽक्या बंगलादेशी शरणार्थियों में आई समृद्धि का वाम के नजरिए से कोई अंतर्विरोध है ॽक्या शिक्षकवर्ग के वाम-विमुख होने का वाम के नव्य-आर्थिक उदारीकरण के विरोध और केन्द्र के समान छठे वेतन आयोग के अनुसार नए वेतनमान में केन्द्र के समान महंगाई भत्ता न देने के वाम सरकार के फैसले के साथ कोई संबंध है ॽ जी हां,गहरा संबंध है।इस तरह के फैसलों ने वाम के जनाधार को खत्म करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है और वाम ने अपनी आज तक आत्मालोचना नहीं की है। समस्या को जानकर भी उसके बारे में चुप रहना वाम की विशेषता है,जबकि आम जनता उत्तर चाहती है।समस्या के समाधान सुझाए बगैर वाम को आम जनता दोबारा आसानी से सत्ता पर पहुँचने नहीं देगी।वाम अपना स्टैंड साफ करे कि उसने केन्द्र के बराबर राज्य कर्मचारियों को महंगाई भत्ता क्यों नहीं दिया ॽ भविष्य में देगा या नहीं ॽ आज राज्य में कॉलेज-वि वि लेक्चरर केन्द्र की तुलना में 25हजार रूपये कम पाता है, प्रोफेसर 60रूपये कम पाता है,यह सीधे वामशासन में लागू की गयी वेतननीति का भयानक परिणाम है।यह साधारण बात नहीं है जिसे दरकिनार किया जाए।माकपा के लोग देस में अन्यत्र जितना वेतन पाते हैं पश्चिम बंगाल में माकपा के और अन्य शिक्षक उनसे काफी कम वेतन पाते हैं।यह माकपा के द्वारा किया गया ऐसा अपराध है जिसके लिए उसे कभी माफ नहीं किया जा सकता।  

2 टिप्‍पणियां:

  1. पश्चिम बंगाल की राजनीति में आज जो हो रहा है, उसके निश्चित तौर पर भारत की राजनीति के लिये दूरगामी और बहु-आयामी प्रभाव होंगे । लेकिन किसी भी मानदंड पर इसे राजनीतिक सिद्धांतविहीनता या दृष्टांतहीन अस्वाभाविकता की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है । बल्कि, इसके विपरीत, शायद इससे सही दूसरा कोई सिद्धांतनिष्ठ और आज की राजनीति की ज़रूरतों के अनुरूप वामपंथ का दूसरा कोई फ़ैसला नहीं हो सकता है ।

    जिस वक़्त जनतंत्र का अस्तित्व मात्र ख़तरे में हो, तब उसकी रक्षा मात्र के लिये व्यापकतम संयुक्त मोर्चा बनाने और उसकी सफलता को सुनिश्चित करने से अधिक सिद्धांतनिष्ठ दूसरा कोई फ़ैसला नहीं हो सकता है । ऐसा न करना कथित सिद्धांतवादिता की ओट में राजनीति के मूलभूत सिद्धांतों की ही तिलांजलि देना कहलायेगा ।

    दरअसल राजनीति का अर्थ कभी भी सिद्धांत बघारना नहीं होता है । यह एक व्यवहारिक कार्रवाई होती है जिसके ज़रिये जीवन की सचाई अपने को जाहिर करती है । जब सिद्धांत-चर्चा जीवन के यथार्थ से मेल नहीं खाती तो उसका राजनीति के लिये दो कौड़ी का दाम नहीं रह जाता - न तात्कालिक लिहाज़ से और न दूरगामी दृष्टि से । राजनीतिक दर्शन भी कोरी कल्पना को अपना अवलंब नहीं बना सकता है । वह भी हमेशा अपने समय के मुख्य अंतर्विरोधों पर ध्यान केंद्रित करने पर बल देता है ।

    और जहाँ तक कांग्रेस के साथ वामपंथ के संबंधों का सवाल है, वामपंथ ने भारत में कभी भी अंध कांग्रेस- विरोध को नहीं अपनाया है । आजादी की लड़ाई से लेकर आज तक । वामपंथी नेतृत्व के किसी भी हिस्से ने जब कभी ऐसी मूढ़ता का परिचय दिया, उसने वामपंथी आंदोलन को भारी क्षति पहुँचाई है । वह भले पचास के दशक में 'यह आजादी झूठी है' के नारे की बात रही हो, भले ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने या फिर परमाणविक संधि के प्रति नज़रिये का सवाल रहा हो - इसी सिद्धातविहीन सैद्धांतिकता ने वामपंथ को कमज़ोर किया । इसी के चलते आजादी की लड़ाई और उसके बाद भारत की गुट-निरपेक्ष नीतियों के साम्राज्यवाद-विरोधी मर्म के महत्व को नहीं समझा जा सका । स्वतंत्रता आंदोलन के ज़रिये जनतांत्रिक राजनीति के जो मूल्य, स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के मूल्य, प्रकट हो रहे थे और जिनका प्रतिबिंब हमारे संविधान में भी दिखाई देता है, उसके महत्व को भी पूरी गंभीरता से नहीं समझा जा सका ।

    इसके अतिरिक्त, बैंकों के राष्ट्रीयकरण, रियासतों के प्रिविपर्स के अंत से लेकर यूपीए-1 तक कांग्रेस और वामपंथ के सहयोग का स्वतंत्र भारत की राजनीति में अपना एक इतिहास तैयार हो चुका है ।

    आज दैनंदिन राजनीति में मोदी सरकार और उसके तत्वावधान में चल रहे सांप्रदायिक प्रयोगों के खिलाफ तमाम स्तरों पर धर्म-निरपेक्ष ताक़तों की एकता हमारे समय की सबसे बड़ी राजनीतिक ज़रूरत है ।

    इसके अलावा, पश्चिम बंगाल की आज जो असाधारण परिस्थिति है, इसे अलग से बताने की ज़रूरत नहीं है । आजादी के बाद पहली बार पश्चिम बंगाल में किसी चुनाव में भ्रष्टाचार सबसे प्रमुख मुद्दा बना है । राजनीतिक दादागिरी और विपक्ष के लोगों को कुचलने के लिये प्रशासन के नग्न प्रयोग का जो रूप यहाँ देखने को मिला है, इसकी गुजरात की तरह के एकाध उदाहरणों को छोड़ कर अन्यत्र आसानी से कल्पना भी नहीं की जा सकती है ।

    आज वामपंथ केरल में कांग्रेस के खिलाफ लड़ रहा है । यह शुद्ध रूप से एक राजनीतिक व्यावहारिकता का मसला है । वहाँ पक्ष और प्रतिपक्ष में इन दोनों के अलावा तीसरा कोई नहीं है । इसलिये इसके कोई अन्य सैद्धांतिक आयाम नहीं है । यह संसदीय जनतंत्र का अपना तर्क है । इसके विपरीत पश्चिम बंगाल के वर्तमान प्रयोग के साथ वामपंथी संयुक्त मोर्चा की राजनीति की सैद्धांतिकता जुड़ी हुई है । इसमें भारत की भावी नई राजनीति के बीज छिपे हुए हैं ।

    हमें तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि पश्चिम बंगाल में न सिर्फ वामपंथी बल्कि पूरी भारतीय राजनीति के एक ऐसे नये अध्याय का सूत्रपात हो रहा है, जो वामपंथ को उसकी अनेक पुरानी ग्रंथियों से मुक्ति का कारक बनेगा और स्वतंत्रता आंदोलन की मूलभूमि पर आगे की राजनीति का नया महल तैयार करेगा ।

    और जहाँ तक इस प्रयोग की सफलता-विफलता की संभावनाओं के आकलन का सवाल है, चुनावी गणित और राजनीति के प्रत्येक मानदंड पर इसकी सफलता सुनिश्चित है । वामपंथ की साख में सुधार के बिना किसी लक्षण क्षणों भी तृणमूल की वापसी को कोई कारण नहीं दिखाई दे रहे हैं । इसके कारण जितने बाहरी है, उससे कम तृणमूल के अंदरूनी नहीं है । इससे जुड़ी वैकल्पिक राजनीति के सामान्यतम तर्कों का भी अंत हो चुका है । कॉडर स्वयं में जनतांत्रिक राजनीति का अकेला विकल्प नहीं हो सकता है । अन्य सभी नैतिक-सैद्धांतिक पक्षों की अनुपस्थिति में वह कोरा काठ का पुतला साबित होता है । बंगाल में जिसे ठूँठो जगन्नाथ कहा जाता है ।

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  2. पश्चिम बंगाल की राजनीति में आज जो हो रहा है, उसके निश्चित तौर पर भारत की राजनीति के लिये दूरगामी और बहु-आयामी प्रभाव होंगे । लेकिन किसी भी मानदंड पर इसे राजनीतिक सिद्धांतविहीनता या दृष्टांतहीन अस्वाभाविकता की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है । बल्कि, इसके विपरीत, शायद इससे सही दूसरा कोई सिद्धांतनिष्ठ और आज की राजनीति की ज़रूरतों के अनुरूप वामपंथ का दूसरा कोई फ़ैसला नहीं हो सकता है ।

    जिस वक़्त जनतंत्र का अस्तित्व मात्र ख़तरे में हो, तब उसकी रक्षा मात्र के लिये व्यापकतम संयुक्त मोर्चा बनाने और उसकी सफलता को सुनिश्चित करने से अधिक सिद्धांतनिष्ठ दूसरा कोई फ़ैसला नहीं हो सकता है । ऐसा न करना कथित सिद्धांतवादिता की ओट में राजनीति के मूलभूत सिद्धांतों की ही तिलांजलि देना कहलायेगा ।

    दरअसल राजनीति का अर्थ कभी भी सिद्धांत बघारना नहीं होता है । यह एक व्यवहारिक कार्रवाई होती है जिसके ज़रिये जीवन की सचाई अपने को जाहिर करती है । जब सिद्धांत-चर्चा जीवन के यथार्थ से मेल नहीं खाती तो उसका राजनीति के लिये दो कौड़ी का दाम नहीं रह जाता - न तात्कालिक लिहाज़ से और न दूरगामी दृष्टि से । राजनीतिक दर्शन भी कोरी कल्पना को अपना अवलंब नहीं बना सकता है । वह भी हमेशा अपने समय के मुख्य अंतर्विरोधों पर ध्यान केंद्रित करने पर बल देता है ।

    और जहाँ तक कांग्रेस के साथ वामपंथ के संबंधों का सवाल है, वामपंथ ने भारत में कभी भी अंध कांग्रेस- विरोध को नहीं अपनाया है । आजादी की लड़ाई से लेकर आज तक । वामपंथी नेतृत्व के किसी भी हिस्से ने जब कभी ऐसी मूढ़ता का परिचय दिया, उसने वामपंथी आंदोलन को भारी क्षति पहुँचाई है । वह भले पचास के दशक में 'यह आजादी झूठी है' के नारे की बात रही हो, भले ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने या फिर परमाणविक संधि के प्रति नज़रिये का सवाल रहा हो - इसी सिद्धातविहीन सैद्धांतिकता ने वामपंथ को कमज़ोर किया । इसी के चलते आजादी की लड़ाई और उसके बाद भारत की गुट-निरपेक्ष नीतियों के साम्राज्यवाद-विरोधी मर्म के महत्व को नहीं समझा जा सका । स्वतंत्रता आंदोलन के ज़रिये जनतांत्रिक राजनीति के जो मूल्य, स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के मूल्य, प्रकट हो रहे थे और जिनका प्रतिबिंब हमारे संविधान में भी दिखाई देता है, उसके महत्व को भी पूरी गंभीरता से नहीं समझा जा सका ।

    इसके अतिरिक्त, बैंकों के राष्ट्रीयकरण, रियासतों के प्रिविपर्स के अंत से लेकर यूपीए-1 तक कांग्रेस और वामपंथ के सहयोग का स्वतंत्र भारत की राजनीति में अपना एक इतिहास तैयार हो चुका है ।

    आज दैनंदिन राजनीति में मोदी सरकार और उसके तत्वावधान में चल रहे सांप्रदायिक प्रयोगों के खिलाफ तमाम स्तरों पर धर्म-निरपेक्ष ताक़तों की एकता हमारे समय की सबसे बड़ी राजनीतिक ज़रूरत है ।

    इसके अलावा, पश्चिम बंगाल की आज जो असाधारण परिस्थिति है, इसे अलग से बताने की ज़रूरत नहीं है । आजादी के बाद पहली बार पश्चिम बंगाल में किसी चुनाव में भ्रष्टाचार सबसे प्रमुख मुद्दा बना है । राजनीतिक दादागिरी और विपक्ष के लोगों को कुचलने के लिये प्रशासन के नग्न प्रयोग का जो रूप यहाँ देखने को मिला है, इसकी गुजरात की तरह के एकाध उदाहरणों को छोड़ कर अन्यत्र आसानी से कल्पना भी नहीं की जा सकती है ।

    आज वामपंथ केरल में कांग्रेस के खिलाफ लड़ रहा है । यह शुद्ध रूप से एक राजनीतिक व्यावहारिकता का मसला है । वहाँ पक्ष और प्रतिपक्ष में इन दोनों के अलावा तीसरा कोई नहीं है । इसलिये इसके कोई अन्य सैद्धांतिक आयाम नहीं है । यह संसदीय जनतंत्र का अपना तर्क है । इसके विपरीत पश्चिम बंगाल के वर्तमान प्रयोग के साथ वामपंथी संयुक्त मोर्चा की राजनीति की सैद्धांतिकता जुड़ी हुई है । इसमें भारत की भावी नई राजनीति के बीज छिपे हुए हैं ।

    हमें तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि पश्चिम बंगाल में न सिर्फ वामपंथी बल्कि पूरी भारतीय राजनीति के एक ऐसे नये अध्याय का सूत्रपात हो रहा है, जो वामपंथ को उसकी अनेक पुरानी ग्रंथियों से मुक्ति का कारक बनेगा और स्वतंत्रता आंदोलन की मूलभूमि पर आगे की राजनीति का नया महल तैयार करेगा ।

    और जहाँ तक इस प्रयोग की सफलता-विफलता की संभावनाओं के आकलन का सवाल है, चुनावी गणित और राजनीति के प्रत्येक मानदंड पर इसकी सफलता सुनिश्चित है । वामपंथ की साख में सुधार के बिना किसी लक्षण के भी तृणमूल की वापसी का कोई कारण नहीं दिखाई दे रहे हैं । इसके कारण जितने बाहरी है, उससे कम तृणमूल के अंदरूनी नहीं है । तृणमूल से जुड़ी वैकल्पिक राजनीति के सामान्यतम तर्कों का भी अंत हो चुका है । कॉडर स्वयं में जनतांत्रिक राजनीति का अकेला विकल्प नहीं हो सकता है । अन्य सभी नैतिक-सैद्धांतिक पक्षों की अनुपस्थिति में वह कोरा काठ का पुतला साबित होता है । बंगाल में जिसे ठूँठो जगन्नाथ कहा जाता है ।

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