प्रोफेसर मकरंद परांजपे ने जेएनयू में बोलते हुए जेएनयू के वामपंथियों से सारी दुनिया के साम्यवाद की गलतियों का हिसाब मांगा।कमाल की शैली और दृष्टि है परांजपे साहब की ! गलतियां करें स्टालिन लेकिन दण्ड मिलेगा भारत के कम्युनिस्टों को ! यानी नया बुर्जुआशास्त्र है करे कोई और भरे कोई ! , असल में परांजपे सच जानना ही नहीं चाहते।सच जानोगे नहीं तो मानोगे कैसे ! शीतयुद्धीय बौद्धिक तरीका है झूठ बोलो, लांछित करो ! खासकर कम्युनिस्टों के बारे में कभी सच मत बोलो।
परांजपे साहब ने जेएनयू में भाषण देते हुए फरमाया है कि कम्युनिस्टों ने स्वाधीनता संग्राम में भाग नहीं लिया,जनसत्ता (9मार्च 2016) में छपी रिपोर्ट के अनुसार परांजपे ने कहा ´‘भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने अंग्रेजों को लिखा कि वे प्रदर्शन नहीं करेंगे। जब आप लोग लडेंगे तो हम आपका साथ देंगे। जब हम यह कहते हैं कि हमने भारत की आजादी की लड़ाई लड़ी तो मैं सबूत देखना चाहता हूं।’ इसके अलावा भी उन्होंने बहुत कुछ कहा है।लेकिन हम यहां सिर्फ कम्युनिस्टों की स्वाधीनता आंदोलन में भूमिका तक ही सीमित रखना चाहते हैं और कम्युनिस्टों ने क्या कहा उसको प्रमाण के रूप में देना नहीं चाहते बल्कि ब्रिटिश शासक क्या कहते हैं उसका जिक्र करना चाहते हैं।
स्वाधीनता आंदोलन में भारत के कम्युनिस्टों की शानदार भूमिका रही है और वे संघर्ष और कुर्बानी की अग्रणी कतारों में रहे हैं,जबकि उन दिनों सारे देश मे बहुत कम संख्या में कम्युनिस्ट हुआ करते थे।कम्युनिस्ट देशभक्त संग्रामी थे यह बताने के लिए महाकाव्य लिखा जा सकता है,महाख्यान रचा जा सकता है।लेकिन यहां तथ्य ही रखना समीचीन होगा।
परांजपेजी आपने ´पेशावर षडयंत्र´केस का नाम तो सुना ही होगा।उस केस में अनेक कम्युनिस्टों को ब्रिटिश न्यायपालिका ने दण्डित किया,’ पेशावर षडयंत्र केस ´में 12-13 कम्युनिस्टों को बर्बर यातनाएं दी गयीं। जबकि इन्होंने कोई अपराध नहीं किया था।इनका एकमात्र लक्ष्य था भारत को ब्रिटिश गुलामी से मुक्त कराना।यह वाकया है 1922 के आसपास का।तकरीबन 40 के आसपास मुहाजिर अफगानिस्तान के रास्ते होते हुए ताशकंद और मास्को गए थे।वहां पर उनमें से 26 लोगों ने सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त किया। ये लोग अक्टूबर1920 से अप्रैल 1921 तक ताशकंद और मास्को में रहे।वहां उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी के राजनीतिक-सैनिक स्कूल में प्रशिक्षण प्राप्त किया।इन कॉमरेडों का पहला ग्रुप 3जून1921 को पेशावर लौटा।इस ग्रुप से भारत सरकार के गुप्तचर विभाग के ऑफीसर इंचार्ज मि.इबर्ट ने गहरी पूछताछ की।उस पूछताछ में पता चला कि पेशावर से मास्को 40 या उससे ज्यादा कॉमरेड गए थे।इनको उन दिनों मुहाजिर कहा जाता था।मास्को में इन लोगों ने कम्युनिस्ट वि.वि. में प्रशिक्षण प्राप्त किया।इस पूछताछ के बाद ब्रिटिश पुलिस की मास्को से आने वालों पर कड़ी नजरदारी आरंभ कर दी और1922 के मध्य में कम्युनिस्टों के खिलाफ ´पेशावर षडयंत्र केस´दायर किया गया जिसमें 12-13 कॉमरेडों को दण्डस्वरूप भयानक यातनाएं दी गयीं।यह समूचा वाकया सन् 1927 में बंगला साप्ताहिक अखबार ´कॉम्पस´में ´पेशावर टु मास्को´शीर्षक से धारावाहिक रूप में छपा,इसको लिखा था शौकत उस्मानी ने। इस प्रसंग में दूसरा विवरण रफीक अहमद ने लिखा जिसका मुजफ्फर अहमद की किताब ´दि कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इण्डिया एंड इटस फॉर्मेशन´(1962) में जिक्र है।
मकरंद परांजपे आप प्रोफेसर हैं लेकिन झूठ बोल रहे हैं कि कम्युनिस्टों ने स्वाधीनता आंदोलन में भाग नहीं लिया,आप जरा समय निकालकर ´पेशावर षडयंत्र केस´के जजमेंट को ही पढ़ लेते तो पता चल जाता कि उस समय कम्युनिस्ट क्या कर रहे थे। ´पेशावर षडयंत्र केस´पराधीन भारत में पहला कम्युनिस्टों के खिलाफ गढ़ा गया एकदम झूठा केस था जिसमें कम्युनिस्टों को सजा सुनाई गयी थी,उन लोगों को सजा सुनाई गई जिन लोगों ने कोई हिंसा नहीं की,किसी की हत्या नहीं की।निर्दोष कम्युनिस्टों को दोषी करार करके देशद्रोह में सजाएं सुनाई गयीं।इन कॉमरेडों ने क्या किया था ॽ ये अफगानिस्तान से सीमा पार करके सोवियत संघ गए थे सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त करने।जिससे ये लोग आजादी के लिए संघर्ष करने वालों की मदद कर सकें।इसके लिए इन लोगों ने ताशकंद के सैन्य स्कूल और मास्को स्थित कम्युनिस्ट विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की।
´पेशावर षडयंत्र केस´के नाम से कम्युनिस्टों के खिलाफ पहला जजमेंट 31मई1922 को घोषित किया गया।इस जजमेंट में कॉमरेड मोहम्मद अकबर को तीन साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गयी।यह सजा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 121-ए के तहत सुनाई गयी।इसी धारा में दूसरे कॉमरेड बहादुर को एक साल की सजा सुनाई गयी।जबकि हफीजुल्ला को बरी कर दिया गया। अकबर और बहादुर के खिलाफ ’अपराध´ को किस तरह सिद्ध किया गया ॽ सेशन जज जे.एच.आर. फ्रेशर ने अपने फैसले में संक्षेप में उसके बारे में लिखा ´इस ( मोहम्मद अकबर) को षडयंत्र में गिरफ्तार किया गया,यह षडयंत्र ब्रिटिश सरकार के खिलाफ ताशकंद,काबुल और समरकंद में रचा गया।´इसके लिए कोई प्रमाण पेश नहीं किए गए,सीधे बिना प्रमाण के षडयंत्र के बहाने सजाएं सुना दी गयीं।जिस धारा (121 ए)में केस लगाए गए उसी धारा में बाद में कम्युनिस्टों के खिलाफ कानपुर षडयंत्र केस(1924),मेरठ षडयंत्र केस(1929-33) में मुकदमे चलाए गए और उनको दण्डित किया गया ।इसके बावजूद परांजपे आप कह रहे हैं कि प्रमाण दो कि स्वाधीनता संग्राम में कम्युनिस्टो ने कौन सी लड़ाई लड़ी,किस तरह की कुर्बानी दी।
परांजपेजी आपके लिए हम पेशावर षडयंत्र केस के जजमेंट का अंश उद्धृत कर रहे हैं आप पढें और तय करें कि आपने सच बोला या झूठ बोला,जजमेंट में जज ने लिखा “The attitude of the Bolsheviks towards all settled governments is a matter of common knowledge .so also their hostility and desire to overthrow the governments of all civilized powers as at present constituted. This general knowledge is a matter of which judicial notice can be taken.” इसी जजमेंट में आगे कहा गया कि ताशकंद को भारत की ब्रिटिश सरकार के खिलाफ प्रचार अभियान का केन्द्र के रूप में इस्तेमाल किया गया। इनके ग्रुप में अब्दुल रब,राय,मुखर्जी और अन्य शामिल थे,इन लोगों ने मिलकर वहां अस्थायी भारत सरकार बनायी।वहां भारतीयों को सैन्य प्रशिक्षण देने के लिए स्कूल खोला।वहां से भारतीय लोग प् प्रशिक्षण लेकर आते थे और फिर भारत में देशद्रोही गतिविधियां संचालित करते थे।यह एक तरह से भारत पर बोल्शेविक हमला है।
परांजपेजी आपने जेएनयू में साम्यवाद के बारे में जो कुछ कहा उसका जेएनयू के मौजूदा आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं है। भारत में कम्युनिस्ट हमेशा से लोकतंत्र के लिए संघर्ष करते रहे हैं अतः इनके संघर्ष के साथ अन्य देशों के कम्युनिस्टों की तुलना करना गलत है।जेएनयू का मौजूदा आंदोलन छात्रों के जनतांत्रिक हकों की रक्षा के लिए चल रहा है,यह आंदोलन कन्हैया कुमार सहित 5छात्रनेताओं पर चलाए जा रहे राष्ट्रद्रोह के झूठे मुकदमे को वापस लेने के लिए चल रहा है। इसलिए इस आंदोलन की सोवियत संघ से तुलना करना गलत है।
परांजपे साहब आपकी जानकारी के लिए बता दें जेएनयू में कई छात्रों ने सोवियत संघ में स्टालिन युग में मानवाधिकारों के हनन के खिलाफ बेहतरीन शोध की है,ये सभी वाम छात्र हैं।जेएनयू के वाम छात्रों ने चीन में माओ के जमाने के मानवाधिकार हनन के खिलाफ भी काम किया है,यह इसलिए बता रहा हूँ क्योंकि आप जेएनयू की परंपरा से अनभिज्ञ हैं। आप इन दिनों शीतयुद्धीय नजरिए से परिचालित होकर देख रहे हैं।जबकि जेएनयू तो शीतयुद्धीय नजरिए के खिलाफ भी जमकर वैचारिक संघर्ष करता रहा है।
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