जेएनयू के 9फरवरी के प्रसंग ने विश्वविद्यालय की अवधारणा को देश की केन्द्रीय समस्या बना दिया है,दिलचस्प बात है हम सब लोग न तो जेएनयू के आंतरिक चरित्र पर बातें कर रहे हैं और न विश्वविद्यालय की अवधारणा पर बहस कर रहे हैं ! यह कुल मिलाकर वैसे ही हुआ कि बीमारी है कैंसर की और इलाज मलेरिया का हो रहा है ! विश्वविद्यालय ´हम´ के प्रतीक हैं, ´हम´और ´तुम´ के वर्गीकरण में वि.वि. को बांटा नहीं जा सकता।यदि देश के बारे में बातें कर रहे हैं तो ´हम´की अवधारणा में सोचना होगा । वि.वि. कैसे होंगे यह इससे तय होगा कि ´हम´की धारणा क्या है ॽ यानी स्वयं से सवाल करे कि ´हम´क्या हैं ॽ ´हम´वि.वि. में किसका प्रतिनिधित्व करते हैं ॽवि.वि. को किसकी आंखों से देखते हैं ॽ´हम´किसके प्रति जवाबदेह हैं ॽ ये कुछ प्राथमिक सवाल हैं जिनसे हमें बहस को प्रारंभ करना चाहिए। ये सवाल हमें स्वयं से और अन्य से भी पूछने चाहिए। इन सवालों से बचना नहीं चाहिए।
भारत में किनाराकशी की आदत है खासकर राजनेताओं में उपेक्षा करने,अपने विचार थोपने की आदत है।लेकिन जेएनयू ने हमें यह मौका दिया है हम सवाल ये उठाएं और उनके उत्तर खोजने की कोशिश करें।इन सवालों पर विचार करते समय हम सबको न्यूनतम जिम्मेदारी तो लेनी ही पड़ेगी। आरएसएस के लोग इस मामले में चालाकी से पेश आ रहे हैं वे इन सवालों पर बहस नहीं कर रहे,वे वि.वि. की बजाय 9फरवरी के नारों पर बहस करना चाहते हैं,राष्ट्रवाद पर बहस करना चाहते हैं,वे मूल सवालों से इसके साथ बहाने से बचकर निकलना चाहते हैं। आरएसएस के साथ जुड़े बौद्धिक भी इन सवालों पर चुप हैं।
मजेदार बात यह है जेएनयू के वीसी भी उन्हीं सवालों पर बोल रहे हैं जो आरएसएस ने उठाए हैं।जबकि उनको तो कम से कम वि.वि. की अवधारणा,जेएनयू की अवधारणा पर बहस करनी चाहिए। जेएनयू के मौजूदा आंदोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि है जेएनयू की पुनःअपनी पहचान की खोज करना,जेएनयू कैसा है ,यह इस दौरान व्यापक स्तर पर बहस के केन्द्र में आया है।खासकर जेएनयू कैंपस में यह बहस गर्मागर्म है।दिलचस्प बात है कि जेएनयू क्या है ॽ इस सवाल से संघ के जेएनयू कैंपस में मौजूद समर्थक भागते रहे हैं या फिर वि.वि. को भारतीय दण्ड संहिता के फ्रेमवर्क में अवधारणा पेश कर रहे हैं। यह बात में उनकी टीवी प्रस्तुतियों में दिए गए बयानों के आधार पर कह रहा हूँ।
सवाल यह है क्या विश्वविद्यालय की समाज के प्रति कोई जिम्मेदारी है ॽ अथवा वि.वि. सिर्फ डिग्री देने के केन्द्र हैंॽ ज्यॉक देरिदा ने जिम्मेदारी की अवधारणा के साथ विश्वविद्यालय की अवधारणा को जोड़कर देखने पर जोर दिया है।विश्वविद्यालय का काम सत्ता की तरह सोचना नहीं है।वे सत्ता के तंत्र के दाँते - पेंच नहीं हैं।मोदी सरकार की जेएनयू को लेकर मुश्किल यहीं पर है।मोदी सरकार अपने विचारतंत्र के अनुरूप जेएनयू तंत्र को ढालना चाहती है और यह काम वे घोषित करके करना चाहते हैं,इसके लिए वे बहाना संविधान का ले रहे हैं।लेकिन वि.वि. का काम तो संविधान के कल-पुर्जे की तरह काम करना नहीं है।वि.वि. तो संविधान की तरह काम नहीं करता। विश्वविद्यालय जब संविधान,सत्ता या सरकार के तंत्र के अंग के रूप में काम करेंगे तो जाहिरातौर पर उनमें अंतर्विरोधों के लिए कोई जगह नहीं होगी।वि.वि. पूरी तरह अंतर्विरोधरहित होंगे।दुर्भाग्य से हमारे देश में अधिकांश वि.वि.सरकारी तंत्र के अंग के रूप में काम करते हैं और वे पूरी तरह अंतर्विरोधरहित हैं। विश्वविद्यालय की अवधारणा अंतर्विरोधरहित नहीं होती।यदि उसे सत्ता से जोड़ देंगे तो वि.वि. अंतर्विरोधरहित बन जाएंगे।जेएनयू के प्रसंग में आरएसएस-मोदी सरकार असल में यही चाहते हैं। वि.वि. की खूबी है अंतर्विरोध और अंतर्विरोधों की विभिन्न धुन और छंदों के आधार पर खुला माहौल।वि. वि. सरकारी धुन में नहीं रहते,असल वि.वि. वह है जो अंतर्विरोधों के छंद पर नाचे,गाए और विकास करे।
विश्वविद्यालय को हम एक समाज के रूप में देखें।वह ज्ञानसमाज है।इसमें औद्योगिक श्रम विभाजन की तरह विभिन्न किस्म के विभाग हैं जिनमें विभिन्न विषयों की शिक्षा की व्यवस्था है। शिक्षक एकतरह से इसके ट्रस्टी हैं।शिक्षक-छात्र मिलकर वि.वि. का सचेतन समाज बनता है।यह ऐसा समाज है जिसमें सभी को स्वायत्तता है।सोचने,विचारने,बोलने,संगठन बनाने की स्वतंत्रता है।इसके विभिन्न विभाग वस्तुतः छोटे-छोटे समाज हैं।जो तरह-तरह से सोचते हैं और उसके अनुसार आचरण करते हैं। विश्वविद्यालय को अपने हक स्वयं हासिल करने होते हैं।वह किसी से हक नहीं लेता,वि.वि. को अपनी सत्ता स्वयं बनानी होती है,वि.वि. की वैधता बाहर निर्भर नहीं होती ,वह उसके अंदर होती है। वि.वि. डिग्री देने का नहीं,सर्जना का केन्द्र हैं।जो लोग इसे डिग्री बांटने वाले तंत्र या सरकार के तंत्र के अंग के रूप में देखते हैं वे गलत रूप में देखते हैं।
वि.वि.तो स्वायत्त सर्जना केन्द्र है,डिग्री केन्द्र नहीं। वि.वि. का आधार है ´स्वाभाविक तर्क´,इस तर्क के आधार पर वि वि अपने सभी छात्रों-शिक्षकों को ´स्वाभाविक तर्क´के आधार पर सोचने और काम करने का अवसर देता है।जबकि सरकार के अंग के रूप में यदि वि.वि. को देखेंगे तो यह सुविधा प्राप्त नहीं होगी। सरकार के लिए वि.वि. एक कृत्रिम संस्थान है ,जबकि जेएनयू के अकादमीशियनों के लिए वि.वि. का अर्थ ही अलग होता है। उनके लिए वि.वि. का अर्थ है वह स्थान जो स्वाभाविक लगे,आदतों को भी स्वाभाविक लगे।जेएनयू को असल में इस अर्थ में देखना चाहिए। जेएनयू की खूबी है उसकी नेचुरलनेस।यहां कृत्रिमता नहीं है। आप अपनी नेचुरल आदतों के साथ इसके परिवेश में जी सकते हैं।देश के बाकी संस्थानों में यह चीज अनुपस्थित है।लोग तर्क दे रहे हैं कि सरकार फण्ड देती है अतःसरकार के तर्क के अनुसार विवि को चलना चाहिए। सरकार की फण्डिंग महज इत्तफाक है,चांस की बात है।इसके आधार पर वि.वि.को सरकारी तंत्र के अंग के रूप में निर्मित नहीं कर सकते।जेएनयू आज भी देश के विभिन्न वि.वि.से भिन्न इसलिए है क्योंकि वह सरकार के तर्क से नहीं वि.वि. के तर्क और नियमों से चलता है। जेएनयू के जो छात्र आंदोलन कर रहे हैं वे इसलिए आंदोलन कर रहे हैं कि वे नहीं चाहते कि वि.वि. की अवधारणा को नष्ट करके जेएनयू को देश के बाकी वि.वि. की तरह बना दिया जाय।
भारत में किनाराकशी की आदत है खासकर राजनेताओं में उपेक्षा करने,अपने विचार थोपने की आदत है।लेकिन जेएनयू ने हमें यह मौका दिया है हम सवाल ये उठाएं और उनके उत्तर खोजने की कोशिश करें।इन सवालों पर विचार करते समय हम सबको न्यूनतम जिम्मेदारी तो लेनी ही पड़ेगी। आरएसएस के लोग इस मामले में चालाकी से पेश आ रहे हैं वे इन सवालों पर बहस नहीं कर रहे,वे वि.वि. की बजाय 9फरवरी के नारों पर बहस करना चाहते हैं,राष्ट्रवाद पर बहस करना चाहते हैं,वे मूल सवालों से इसके साथ बहाने से बचकर निकलना चाहते हैं। आरएसएस के साथ जुड़े बौद्धिक भी इन सवालों पर चुप हैं।
मजेदार बात यह है जेएनयू के वीसी भी उन्हीं सवालों पर बोल रहे हैं जो आरएसएस ने उठाए हैं।जबकि उनको तो कम से कम वि.वि. की अवधारणा,जेएनयू की अवधारणा पर बहस करनी चाहिए। जेएनयू के मौजूदा आंदोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि है जेएनयू की पुनःअपनी पहचान की खोज करना,जेएनयू कैसा है ,यह इस दौरान व्यापक स्तर पर बहस के केन्द्र में आया है।खासकर जेएनयू कैंपस में यह बहस गर्मागर्म है।दिलचस्प बात है कि जेएनयू क्या है ॽ इस सवाल से संघ के जेएनयू कैंपस में मौजूद समर्थक भागते रहे हैं या फिर वि.वि. को भारतीय दण्ड संहिता के फ्रेमवर्क में अवधारणा पेश कर रहे हैं। यह बात में उनकी टीवी प्रस्तुतियों में दिए गए बयानों के आधार पर कह रहा हूँ।
सवाल यह है क्या विश्वविद्यालय की समाज के प्रति कोई जिम्मेदारी है ॽ अथवा वि.वि. सिर्फ डिग्री देने के केन्द्र हैंॽ ज्यॉक देरिदा ने जिम्मेदारी की अवधारणा के साथ विश्वविद्यालय की अवधारणा को जोड़कर देखने पर जोर दिया है।विश्वविद्यालय का काम सत्ता की तरह सोचना नहीं है।वे सत्ता के तंत्र के दाँते - पेंच नहीं हैं।मोदी सरकार की जेएनयू को लेकर मुश्किल यहीं पर है।मोदी सरकार अपने विचारतंत्र के अनुरूप जेएनयू तंत्र को ढालना चाहती है और यह काम वे घोषित करके करना चाहते हैं,इसके लिए वे बहाना संविधान का ले रहे हैं।लेकिन वि.वि. का काम तो संविधान के कल-पुर्जे की तरह काम करना नहीं है।वि.वि. तो संविधान की तरह काम नहीं करता। विश्वविद्यालय जब संविधान,सत्ता या सरकार के तंत्र के अंग के रूप में काम करेंगे तो जाहिरातौर पर उनमें अंतर्विरोधों के लिए कोई जगह नहीं होगी।वि.वि. पूरी तरह अंतर्विरोधरहित होंगे।दुर्भाग्य से हमारे देश में अधिकांश वि.वि.सरकारी तंत्र के अंग के रूप में काम करते हैं और वे पूरी तरह अंतर्विरोधरहित हैं। विश्वविद्यालय की अवधारणा अंतर्विरोधरहित नहीं होती।यदि उसे सत्ता से जोड़ देंगे तो वि.वि. अंतर्विरोधरहित बन जाएंगे।जेएनयू के प्रसंग में आरएसएस-मोदी सरकार असल में यही चाहते हैं। वि.वि. की खूबी है अंतर्विरोध और अंतर्विरोधों की विभिन्न धुन और छंदों के आधार पर खुला माहौल।वि. वि. सरकारी धुन में नहीं रहते,असल वि.वि. वह है जो अंतर्विरोधों के छंद पर नाचे,गाए और विकास करे।
विश्वविद्यालय को हम एक समाज के रूप में देखें।वह ज्ञानसमाज है।इसमें औद्योगिक श्रम विभाजन की तरह विभिन्न किस्म के विभाग हैं जिनमें विभिन्न विषयों की शिक्षा की व्यवस्था है। शिक्षक एकतरह से इसके ट्रस्टी हैं।शिक्षक-छात्र मिलकर वि.वि. का सचेतन समाज बनता है।यह ऐसा समाज है जिसमें सभी को स्वायत्तता है।सोचने,विचारने,बोलने,संगठन बनाने की स्वतंत्रता है।इसके विभिन्न विभाग वस्तुतः छोटे-छोटे समाज हैं।जो तरह-तरह से सोचते हैं और उसके अनुसार आचरण करते हैं। विश्वविद्यालय को अपने हक स्वयं हासिल करने होते हैं।वह किसी से हक नहीं लेता,वि.वि. को अपनी सत्ता स्वयं बनानी होती है,वि.वि. की वैधता बाहर निर्भर नहीं होती ,वह उसके अंदर होती है। वि.वि. डिग्री देने का नहीं,सर्जना का केन्द्र हैं।जो लोग इसे डिग्री बांटने वाले तंत्र या सरकार के तंत्र के अंग के रूप में देखते हैं वे गलत रूप में देखते हैं।
वि.वि.तो स्वायत्त सर्जना केन्द्र है,डिग्री केन्द्र नहीं। वि.वि. का आधार है ´स्वाभाविक तर्क´,इस तर्क के आधार पर वि वि अपने सभी छात्रों-शिक्षकों को ´स्वाभाविक तर्क´के आधार पर सोचने और काम करने का अवसर देता है।जबकि सरकार के अंग के रूप में यदि वि.वि. को देखेंगे तो यह सुविधा प्राप्त नहीं होगी। सरकार के लिए वि.वि. एक कृत्रिम संस्थान है ,जबकि जेएनयू के अकादमीशियनों के लिए वि.वि. का अर्थ ही अलग होता है। उनके लिए वि.वि. का अर्थ है वह स्थान जो स्वाभाविक लगे,आदतों को भी स्वाभाविक लगे।जेएनयू को असल में इस अर्थ में देखना चाहिए। जेएनयू की खूबी है उसकी नेचुरलनेस।यहां कृत्रिमता नहीं है। आप अपनी नेचुरल आदतों के साथ इसके परिवेश में जी सकते हैं।देश के बाकी संस्थानों में यह चीज अनुपस्थित है।लोग तर्क दे रहे हैं कि सरकार फण्ड देती है अतःसरकार के तर्क के अनुसार विवि को चलना चाहिए। सरकार की फण्डिंग महज इत्तफाक है,चांस की बात है।इसके आधार पर वि.वि.को सरकारी तंत्र के अंग के रूप में निर्मित नहीं कर सकते।जेएनयू आज भी देश के विभिन्न वि.वि.से भिन्न इसलिए है क्योंकि वह सरकार के तर्क से नहीं वि.वि. के तर्क और नियमों से चलता है। जेएनयू के जो छात्र आंदोलन कर रहे हैं वे इसलिए आंदोलन कर रहे हैं कि वे नहीं चाहते कि वि.वि. की अवधारणा को नष्ट करके जेएनयू को देश के बाकी वि.वि. की तरह बना दिया जाय।
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