रविवार, 27 दिसंबर 2015

माकपा के पार्टी प्लेनम के सामने प्रमुख चुनौतियां

         आज से कोलकाता में माकपा पार्टी प्लेनम आरंभ होरहा है। यह प्लेनम इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसके ज़रिए माकपा अपने विकास का मार्ग तलाश करने का प्रयास करेगी। खासकर पश्चिम बंगाल में पुन: सत्ता में वापसी हो यह चिंता भी है। माकपा को यदि पश्चिम बंगाल की जनता का विश्वास जीतना है तो उसे निम्न सवालों के दवाब खोजने होंगे-
१. पश्चिम बंगाल की समूची शिक्षा व्यवस्था को किन नीतियों और फ़ैसलों ने पतन के स्तर पर पहुँचाया? समूची शिक्षा का ढाँचा कैसे बर्बाद हुआ? कौन लोग उसके लिए ज़िम्मेदार हैं? शिक्षा का अपराधीकरण कैसे हुआ ?
२. पार्टी संगठन और जनसंगठनों के अपराधीकरण के लिए किस तरह की नीतियाँ और कौन से नेता ज़िम्मेदार हैं?
३.समूचे पश्चिम बंगाल में वामशासन के अंतिम १० साल आम जनता के लिए बेहद तकलीफ़देह रहे हैं,सामाजिकतौर पर माकपा के नेता और कार्यकर्ताओं ने आम जनता के जीवन में जिस तरह हस्तक्षेप किया उसके कारण राजनीति और समाज का अपराधीकरण हुआ। आम जनता को अकल्पनीय मानसिक- सामाजिक यातनाएँ सहन करनी पड़ी हैं, इस समूची प्रक्रिया के लिए जो लोग ज़िम्मेदार रहे हैं वे आजतक पार्टी में हैं जबकि उनको दल से निकालना चाहिए, इस तरह के व्यापक अपराधीकरण के मूल कारणों को रेखांकित किया जाना चाहिए,साथ ही अपराधी मनोदशा के पार्टी सदस्यों और नेताओं को पार्टी ने निकालना चाहिए।
४.पार्टी की सांगठनिक प्रणाली को लोकतांत्रिक बनाया जाय और सदस्यों को पहल करके काम करने देने की नीति बनायी जाय।
५. पार्टी यह तय करे कि वह अपराधी तत्वों से दूर रहेगी और आम जनता से अपने वामशासन में हुई गलतियों के लिए घर घर जाकर माफ़ी माँगेगी,आम जनता का विश्वास जीतने के लिए यह ज़रूरी है।
उपरोक्त पाँचों समस्याओं पर समग्रता में कार्रवाई की योजना लेकर पार्टी सामने आए तो आम जनता से जुड़ने में मदद मिल सकती है।
  उल्लेखनीय है माकपा के दस लाख से ज्यादा सदस्य हैं।90हजार से ज्यादा ब्रांच-प्राथमिक इकाईयां हैं।तकरीबन 10हजार से ज्यादा होलटाइमर हैं।इतने बड़े नेटवर्क के बावजूद यदि माकपा में ठहराव और संकट है तो उसकी जड़ें कहीं गहरी होंगी जिनको प्लेनम को खोजना चाहिए। सामयिक संकट का प्रधान कारण है पार्टी सदस्यों का सामंती मनोभाव,सामंती आदतेंऔर आत्मसंघर्ष करके बदल न पाने की स्थिति।इसके अलावा पूंजीवाद और पूंजीपतिवर्ग के प्रति अंधघृणा।सामंतीबोध और अंध- पूंजीवादी घृणा के आधार पर सांगठनिक विकास संभव नहीं है।
लोकतंत्र के अनुरूप जिस उदार मनोदशा को विकसित होना चाहिए वह मनोदशा पार्टी अपने सदस्यों में विकसित ही नहीं कर पायी है।उदारवादी मूल्यों,संस्कारों और क्रांतिकारी मूल्यों -संस्कारों में अंतर्क्रिया का एकसिरे से अभाव है।इसके विपरीत पार्टी में गुटबाजी का,खासकर पश्चिम बंगाल में बोलवाला है।जिन नेताओं की इमेज खराब है या फिर जो एकसिरे से अप्रासंगिक हो चुके हैं,उनसे पार्टी अपने को मुक्त नहीं कर पायी,उनके साथ पार्टी ने सामंती वफादारों जैसा संबंध बनाया हुआ है।सामंती वफादारी के आधार पर क्रांतिकारी पार्टी का विकास संभव ही नहीं है।यही सामंतीभावबोध है जिसके कारण उत्तरभारत में पार्टी अपना विकास नहीं करपायी है।पार्टी के अंदर सामंती भावबोध,सामंती वफादारी आदि के खिलाफ संघर्ष का माकपा अभी तक कोई ब्लूप्रिंट तैयार नहीं करपायी है।यही वजह है नेकनीयत के बावजूद पार्टी अपना विकास नहीं कर पा रही है।
आज के राजनीतिक हालात में भारत के राजनीतिक दलों में तुलनात्मक तौर पर माकपा सबसे बेहतरीन राजनीतिक दल है,इसके पास बेहतरीन ईमानदार केन्द्रीय नेतृत्व है।निचले स्तर पर बहुत बड़ी संख्या में समर्पित कार्यकर्ता हैं। नीतियों के मामले में यह बेजोड़ है। आज माकपा जिस राजनीतिक संकट और ठहराव में फंसी है उसमें से यह पार्टी देर-सबेर निकलेगी,इसका प्रधान कारण है भारत की परिस्थितियां।
भारत की मौजूदा परिस्थितियों में माकपा की भूमिका बढ़ गयी है,जरुरत इस बात की है कि नेता-कार्यकर्ता वैचारिक पहल करें,नए नजरिए को अपनाएं,पुराने संकीर्णतावादी रूझानो से संगठन को मुक्त करें और नए सामाजिक यथार्थ के अनुरुप पार्टी का सांगठनिक ढाँचा बनाएं।
पार्टी का मौजूदा सांगठनिक ढाँचा एकसिरे से अप्रासंगिक हो चुका है,यह आम जनता के सवालों पर त्वरित कार्रवाई करने में असमर्थ है।आज कम्युनिस्ट पार्टी सदस्यों को रीयल टाइम में फैसले लेने,राय व्यक्त करने और आम लोगों को सार्वजनिक संचार माध्यमों के मंचों पर लोकतांत्रिक आचरण करने,लोकतांत्रिक नजरिए से पार्टी की राय रखने या निजी तौर पर हस्तक्षेप करने की आदत डालनी होगी।
कम्युनिस्ट पार्टी को रीयल टाइम में रेस्पांस देने की शिक्षा अपने सदस्यों और नेताओं को देने की व्यवस्था करनी चाहिए।यह दौर राजनीतिक पहल और राजनीतिक संचार का दौर है।इस दौर में मार्क्सवाद के विकास की अनंत संभावनाएं हैं।खासकर युवाओं के बीच सक्रिय रहने की जरुरत है।
युवाओं को जोड़ने का सोशलमीडिया सबसे महत्वपूर्ण माध्यम है।इस माध्यम में पार्टीलाइन की नहीं लोकतांत्रिक संवाद और लोकतांत्रिक नजरिए,लोकतांत्रिक वेबसाइट या लोकतांत्रिक साइबर समूहों में गोलबंद करने की जरुरत है। साइबर संचार के जरिए लोकतांत्रिक और मार्क्सवादी विचार सामग्री के नए-नए साइबर मंचों के निर्माण की जरुरत है।इस दिशा में माकपा को व्यापक पहल करने की जरूरत है।
माकपा के सांगठनिक ढाँचे के सामने सबसे बड़ी चुनौती वैचारिक है,इस समय जो सदस्य हैं उनमें अधिकांश को मार्क्सवाद का क ख ग तक नहीं आता।यह स्थिति जितनी जल्द खत्म हो उतना ही अच्छा है। भारत में सामाजिक परिवर्तन के लिए अच्छे पढाकू और अच्छे लड़ाकू कॉमरेडों की जरुरत है। लट्ठ कॉमरेडों की नहीं।विगत दो दशकों में पश्चिम बंगाल में हमने कॉमरेडों के ज्ञान के स्तर में जो क्षय देखा है वह अकल्पनीय है। अधिकांश के लिए माकपा एक कैरियर संगठन रहा है।माकपा और उसके जनसंगठन कैरियर प्रमोशन स्कीम का अंग नहीं है। राजनीतिकचेतना की बजाय कैरियरचेतना पर कॉमरेडों ने काम किया है और उन सभी को पार्टी नेतृत्व ने पाला-पोसा है जो कैरियर के रुप में पार्टी में शामिल हुए,सरकारीतंत्र की मलाई खाई,ऐसे ही कॉमरेडों ने संगठन को सबसे ज्यादा क्षतिग्रस्त किया है। इसे लेनिन की भाषा में राजनीतिक अवसरवाद कहते हैं। राजनीतिक अवसरवाद किसी भी कम्युनिस्टपार्टी के लिए जहर है।
देश में जिस तरह का राजनीतिक संकट और नीतिहीनता का माहौल है उसमें वामपंथी ताकतों को नए नीतिगत परिप्रेक्ष्य और पद्धतियों के साथ आम जनता और लोकतांत्रिक राजनीतिक ताकतों को एकजुट करने के बारे में सोचना होगा।इसमें दो स्तरों पर कदम उठाने के बारे में पार्टी प्लेनम निर्णय ले,पहला, पूर्व माकपा सदस्यों और हमदर्दों को कैसे वापस साथ लिया जाए और उनके साथ निचले स्तर पर संपर्क-संबंध बनाने के लिए प्लेनम सीधे सभी इकाईयों को निर्देश दे,जो पार्टी जनपार्टी बनना चाहती है वह अपने बिछुड़े या त्यागे या भागे हुए सदस्यों हमदर्दों को उसे हर हालमें अपने साथ जोड़ना चाहिए।यह काम आत्मालोचना और विनम्रता के साथ किया जाना चाहिए। पार्टी में आए अहंकार को हर स्तर पर सीधे चुनौती दी जानी चाहिए। माकपा सदस्यों में अहंकार क्यों है और उससे कैसे मुक्ति पायी जाए,यह बड़ी चुनौती प्लेनम के सामने है। अहंकार तो कम्युनिस्ट को अमानुष बना देता है।

वामशासन के दौरान सरकार और पार्टीतंत्र का अंतर खत्म हो गया था।पार्टी मेम्बर समूचे राज्य तंत्र को उसके नियमों से चलाने की बजाय पार्टी नियमों और पार्टी आदेशों के जरिए चलाते रहे इसके कारण आम जनता के हितों को गंभीर नुकसान पहुँचा।इसने प्रत्येक स्तर पर पेशेवर कौशल और स्वायत्तता को क्षतिग्रस्त किया।इसके कारण विभिन्न स्तरों पर दलीय आधार पर भेदभाव हुआ।ये वे मसले हैं जिनका हल प्लेनम को खोजना चाहिए।

गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

शब्दों के कातिल

इन दिनों मीडिया वाले और भाजपावाले बहुत नाराज हैं कि केजरीवाल ने पीएम मोदी को "कॉवर्ड" और "साइकोपैथ" क्यों कहा,इसके लिए वह माफी मांगे,केजरीवाल माफी मांगे या न मांगे यह उनका निजी फैसला होगा,वे जो चाहें करें,लेकिन हमें इससे बड़े सवाल पर विचार करना चाहिए कि शब्दों के दुरूपयोग या भ्रष्टीकरण पर ये टीवीवाले या भाजपावाले पहले कभी इस कदर आक्रामक नजर क्यों नहीं आए ? क्या किसी शब्द का पहलीबार गलत इस्तेमाल हुआ है या पहलीबार किसी ने किसी को गाली दी है ?
जरा अपने सामने टीवी स्क्रीन को गौर से देखें तो पता चलेगा कि टीवीवाले और राजनेता शब्दों के सबसे बड़े कातिल हैं।ये बड़ी ही बेशर्मी के साथ रोज शब्दों को भ्रष्ट कर कर रहे हैं लेकिन हमें कभी गुस्सा नहीं आता,हम क्यों इतने अचेत हैं या नियंत्रित सचेत हैं कि अचानक कॉवर्ड और साइकोपैथ पर बिफरे घूम रहे हैं ? हमें क्या यहां लिस्ट बताने की जरुरत है कि राजनेताओं और मीडिया,खासकर विज्ञापनों ने किस तरह शब्दों की हत्या की है,किन -किन शब्दों की हत्या की है,उनका अर्थ नष्ट किया है,विकृत किया है । जब शब्द मर रहे हों या उनका भ्रष्टीकरण हो रहा हो तो हमें गुस्सा क्यों नहीं आता ? हमें मोदी या किसी नेता के द्वारा प्रयुक्त होने या गाली या असभ्यभाषिक प्रयोग पर ही गुस्सा क्यों आता है ? क्या नेता को हमने शब्दों का मालिक बना दिया है ?क्या नेता शब्दों के प्रयोग,भ्रष्टीकरण आदि को तय करेंगे ? यदि ऐसा है तो यह बेहद खतरनाक स्थिति है। किसी व्यक्ति की महानता इस बात से तय होती है कि उसने प्रचलित शब्दों को किस तरह सकारात्मक अर्थ दिए हैं,किस तरह नए सामाजिक समूहों से शब्दों और अवधारणाओं को जोड़ा है। कबीर-तुलसी से लेकर दादू तक, गांधी से लेकर आंबेडकर तक,राजा राममोहन राय से लेकर रवीन्द्रनाथ टैगोर तक,प्रेमचंद से लेकर भीष्म साहनी तक ,आरएसएस से लेकर मुस्लिम लीग तक,कांग्रेस से लेकर कम्युनिस्टों तक सभी की परीक्षा शब्दों को अर्थवान और अर्थहीन बनाने के परिप्रेक्ष्य में करें तो संभवतःहमें यह एहसास होगा कि शब्दों के अर्थ का भ्रष्टीकरण कितना बड़ा अपराध है,यह भ्रष्टीकरण हम रोज अपने आसपास देखते हैं,टीवी विज्ञापनों में देखते हैं,लेकिन हमें गुस्सा नहीं आता,उलटे हमें शब्दों के भ्रष्टीकरण में मजा आने लगा है। आरएसएस जैसे संगठन का सबसे बड़ा अपराध यह है कि उसने धर्मनिरपेक्षता शब्द को नष्ट कर दिया है।उसने बहुत बड़ी कुर्बानियों से निर्मित धर्मनिरपेक्षता के अर्थ को विकृत करके समूचे देश में धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ घृणा भर दी,इस शब्द को अछूत बना दिया। किसी शब्द के अर्थ के विध्वंस का इतना बड़ा हादसा हमारी आँखों के सामने रोज होता रहा और हम चुप रहे,हमारा मीडिया चुप रहा,उलटे आरएसएस वालों को बढ़-चढ़कर धर्मनिरपेक्षता पर हमले करने का उसने मौका दिया,व्यापक कवरेज दिया,धर्मनिरपेक्षता क्या है उसका अर्थ क्या है उसके बारे में मीडिया ने कभी आरएसएस को गलत अर्थ में इसका प्रचार करने से नहीं रोका,हमसे पूछें तो शब्दों के कातिलों के प्रति हमें बेरहम होना चाहिए।खासकर उन नेताओं और संगठनों के प्रति बेरहम होना चाहिए जो शब्द के साथ जुड़े अर्थ को भ्रष्ट करते हैं,गलत अर्थ में उसका प्रचार करते हैं।आरएसएस ने शब्दों के लठैत की भूमिका अख्तियार कर ली है,वे बोलने पर हमला करने लगते हैं,इस तरहकी असहिष्णुता तो पहले कभी नहीं देखी। आरएसएस वालों और भाजपाईयों को गालियों से यदि चिढ़ है तो उनको अपने साइबर लठैतों को सबसे पहले रोकना चाहिए जो आए-दिन असभ्यभाषा,गाली-गलौज की भाषा का फेसबुक पर इस्तेमाल करते हैं। यदि सर्वेे किया जाए तो पाएंगे कि साइबर जगत में गाली की गंगा के वे भगीरथ हैं । गालियां कोई भी दे,गलत है,राजनीति में सही नाम से प्रवृत्तियों और राजनीतिक केटेगरी में ही नेता या दल पर राय दी जानी चाहिए। लेकिन जिस समय भाषा का भ्रष्टीकरण हो रहा हो,लोकतंत्र पर हमले हो रहे हों,उस समय कईबार दुश्मन की नींदहराम करने के लिए गालियां निकलती हैं,असल में गालियां सोने नहीं देंतीं,वे गोली से भी ज्यादी पैनी होती हैं,सीधे हृदय तक मार करती हैं।बशर्ते सही समय पर दी जाय।हम भाजपा की मुश्किल समझ सकते हैं कि उनको जब कोई गाली देता है तो चुभती है,लेकिन वे जब किसी अन्य को गाली देते हैं तो परपीड़क आनंद लेते हैं। परपीड़क आनंद गाली का मूलभाव है ,जो भी दे ,वह आनंद की सृष्टि नहीं करती,पीड़ा देती है। गाली न दें तो बेहतर हो,लेकिन हमारे नेता अभी सभ्य नहीं बने हैं,वे असभ्य ही हैं अतःगाहे-बगाहे अपनी असभ्यता को वे गाली के जरिए व्यक्त करते हैं।

मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

औरत पर संदेह नहीं विश्वास करो


यूपी में कमाल हो गया,औरतों ने पंचायत चुनावों में झंड़े गाड़ दिए.ग्राम प्रधान की 44प्रतिशत सीटों पर औरतों ने जीत हासिल की है, जबकि उनके लिए आरक्षित सीटें थीं 33फीसदी ।11प्रतिशत सीटें अनारक्षित स्थानों से औरतों ने जीतकर सच में कमाल कर दिया। जब भी पंचायत के चुनाव परिणाम आए हैं, तो औरतों के परिणाम बेहतर ही आए हैं,लेकिन परिणाम आने के साथ ही संदेह वर्षा आरंभ हो जाती है। सवाल यह है पुरुष क्या स्वायत्त ढ़ंग से काम करता है ?हमलोग पुरुष की सैंकड़ों-हजारों सालों की असफलता के बावजूद उस पर संदेह नहीं करते,उसकी क्षमता पर संदेह नहीं करते, लेकिन औरत की क्षमता पर तुरंत संदेह करने लगते हैं।लोकतंत्र हो या जीवन हो,सामाजिक प्रक्रिया विश्वास के आधार पर चलती है,जिनको हम चुनते हैं उन पर विश्वास करें ,यदि वे खरे न उतरें तो उनको बदल दें ,उनकी जगह किसी और का चुनाव करें।लेकिन संदेह न करें।

यूपी में औरतें जीती हैं,देश में हजारों औरतें जनप्रितिनिधि के रुप में काम कर रही हैं,इससे लोकतंत्र में औरतों की शिरकत बढ़ी है।औरत की पहचान बदली है। औरतों पर जिन बातों को लेकर संदेह किया जा रहा है वे बातें पुरुषों पर भी लागू होती हैं। मसलन्, यह कहा जा रहा है कि वे अंगूठा छाप हैं,उनके पास निजी विवेक नहीं है,पति का मोहरा हैं।ये सारी बातें पुरुषों पर भी लागू होती हैं। हमारे पुरुष तुलनात्मक तौर पर ज्यादा ये ही सब काम कर रहे हैं।वे किसी न किसी के मोहरे हैं। विवेकहीनता में भी औरतों से आगे हैं।



कहने का तात्पर्य यह कि औरतें जब लोकतंत्र में फैसलेकुन कमेटियों में चुनी जाती हैं तो हमें संदेह का माहौल बनाने से बचना चाहिए। औरतें क्रमशःघर से बाहर आ रही हैं,राजनीति में दाखिल हो रही हैं,उनमें बदलाब हो रहा है।वे एकदम विपरीत परिस्थितियों में काम कर रही हैं,उनको हर हालत में तब तक मदद और समर्थन की जरुरत है जब तक उनकी स्थिति पूरी तरह बदल नहीं जाती।औरत का सबसे बड़ा शत्रु संदेह है। संदेह न करें,उस पर विश्वास करें,वह न तो माया है,न ठगिनी है,वह भी मनुष्य है,उसे भी सामान्य मनुष्य की तरह जीने और काम करने का मौका दें।

रविवार, 13 दिसंबर 2015

हिन्दुत्व और मुसलिम विद्वेष

भारत के बौद्धिकों में कमाल की क्षमता है दंगों को लेकर जब भी बातें होती हैं तो झट से भागलपुर का नाम पहले लेते हैं दिल्ली का नहीं।ऐसा क्यों? सवाल यह है कि दंगाग्रस्त क्षेत्र किसे कहें ? क्या दंगे में मारे जाने वाले लोगों की संख्या के आधार दंगाग्रस्त क्षेत्र का फैसला होगा? यदि ऐसा है तो यह सही नहीं होगा।

यह संभव है कि किसी क्षेत्र में दंगा न हो लेकिन आम जनता में बड़े पैमाने पर हिन्दुत्ववादी सामाजिक ध्रुवीकरण हो।यह भी संभव है दंगा हो,लेकिन लोग मारे न जाएं,आगजनी हो,लूटपाट हो,हिंसा हो,लोग घायल हों,लेकिन मारे न जाएं,इस नजरिए से देखें तो भागलपुर से ज्यादा खतरनाक है दिल्ली।यह तथ्य समाजविज्ञानी आशुतोष वार्ष्ष्णेय ने रेखांकित किया है।उनका मानना है दंगों के बार-बार होने और सघन भाव से साम्प्रदायिक माहौल बनने को मिलाकर देखना चाहिए।

भगवा ब्रिगेड सब समय दंगा नहीं करता लेकिन सब समय अविवेक का माहौल बनाए रखने का काम जरुर करता है,वे बार-बार ऐसे मसले उठाते हैं जिनसे अविवेकवाद के विकास में मदद मिले।अविवेकवाद की आंधी वे निरंतर चलाते रहते हैं। यही वह परिवेश है जिसके कारण आम जनता की चेतना को कभी साम्प्रदायिक लक्ष्य के लिए इस्तेमाल करने में उनको सफलता मिल जाती है।

भारत का किसान आज भी धर्मनिरपेक्षता की धुरी है, धर्मनिरपेक्षता को सबसे गंभीर चुनौती उनसे मिल रही है जो शहरों में रहते हैं और मध्यवर्ग-निम्न-मध्यवर्ग से आते हैं।समाजविज्ञानी आशुतोष वार्ष्णेय ने सन् 1950 -95 तक के साम्प्रदायिक दंगों के चरित्र और स्थान का विश्लेषण करके बताया है कि भारत में उल्लेखनीय तौर पर कम दंगे हुए हैं।जबकि गांवों में भारत की दो-तिहाई आबादी रहती है।
सन् 1950-95 के बीचमें साम्प्रदायिक दंगों में मारे गए लोगों की कुलसंख्या में मात्र चार फीसदी से भी कम ग्रामीण मारे गए,जबकि बाकी 96फीसदी शहरी मारे गए।शहरों में यह कुछ शहरों तक केन्द्रित फिनोमिना है। मसलन्,देश के सिर्फ आठ शहरों-अहमदाबाद,बंबई, अलीगढ़, हैदराबाद,मेरठ,बड़ोदरा,कलकत्ता और दिल्ली में अधिकांश लोग दंगों में मारे गए।इन शहरों में कुल 49फीसदी से ज्यादा लोग मारे गए।जबकि इन शहरों में देश की आबादी का मात्र 18फीसदी जनसंख्या रहती है।यानी 82फीसदी आबादी के लिए दंगा समस्या ही नहीं है।
यानी फेसबुक पर साम्प्रदायिकता का जो फ्लो है उसमें इन शहरों से आने वाले युवाओं की संख्या बहुत बड़ी है। फेसबुक पर जय हिन्दुत्व का सबसे बड़ा फ्लो भी यहीं से आ रहा है।यही वे लोग हैं जो मुसलमानों के खिलाफ आए दिन गंदी और घटिया टिप्पणियां करते रहते हैं।


मुस्लिम विद्वेष के कई रुप प्रचलन में हैं इनमें वाचिक साम्प्रदायिक विद्वेष बेहद खतरनाक है। इसके कारण अंततःसाम्प्रदायिक हिंसा का वातावरण बनता है। साम्प्रदायिक हिंसा यकायक पैदा नहीं होती,बल्कि वह निरंतर चल रहे मुसलमान विरोधी,इस्लाम विरोधी प्रचार अभियान की देन है।लंबे समय तक साम्प्रदायिक हिंसा,मुसलिम विद्वेष आदि शहरी फिनोमिना बना रहा लेकिन राममंदिर आंदोलन के उदय और विकास के बाद साम्प्रदायिकता का ग्रामीण जनता में भी तेजी से प्रसार हुआ। तब से साम्प्रदायिकता,मुसलिम विद्वेष और इस्लाम धर्म के खिलाफ विषवमन शहरों और गांवों में तेजी से फैला है,इसको तेजगति प्रदान करने में हिन्दुत्ववादी संगठनों के अलावा संचार तंत्र ने बहुत बड़ी भूमिका निभायी है।मुसलिम विद्वेष वहां तेजी से फैला है जहां पर हिन्दुत्ववादी संगठनों ने काम शुरु किया है। जहां पर ये संगठन कमजोर हैं वहां पर मुसलिम विद्वेष नजर ही नहीं आता। इसलिए मुसलिम विद्वेष से बचने का सबसे सही उपाय तो यही है हिन्दुत्ववादी संगठनों को जनाधार ही तैयार न करने दिया जाय। ये संगठन जब एकबार आधार तैयार कर लेते हैं तो फिर इनको उखाड़ना आसान नहीं होता,ये अपने विषाक्त प्रचार अभियान के जरिए अपना सांगठनिक विस्तार करते रहते हैं। उल्लेखनीय है हिन्दुत्ववादी संगठनों ने जहां पर भी अपना सांगठनिक विस्तार किया है वहां पर भ्रष्टाचार को नई बुलंदियों तक पहुंचाया है,वहीं दूसरी ओर साम्प्रदायिक सद्भाव को नष्ट किया है।Top of Form


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देश में हिन्दू संस्कृति और मुस्लिम संस्कृति के नाम पर बहुत सारा सांस्कृतिक कचरा फेंका जा रहा है।हिन्दीभाषी क्षेत्र में इस तरह के विभाजन को न मानने वाले कवियों -लेखकों की विशाल परंपरा है।दिलचस्प बात यह है कि जो मुगल शासक भारत में बाहर से आए वे इस्लाम,फारसीपन आदि के उतने दीवाने नहीं थे जितने वे भारत की परंपराओं और भाषाओं के दीवाने थे।संस्कृति में हिन्दू-मुसलिम संस्कृति की विभाजनरेखा अंग्रेज शासकों ने खींची,उनकी खींची रेखा का आज भी साम्प्रदायिक संगठन इस्तेमाल कर रहे हैं।
सच यह है कि अधिकांश शासक तुर्कभाषी थे न कि फारसीभाषी।स्वयं बाबर ने अपनी आत्मकथा तुर्की में लिखी थी।गाँवों में मुसलमानों के लिए तुरक शब्द का प्रचलन था।दिल्ली के राजसिंहासन पर पश्तोभाषी जरुर बैठे,लेकिन जिनकी मातृभाषा फारसी थी उनको यह सौभाग्य कभी प्राप्त नहीं हुआ। फारसी का भारतीय साहित्य और भाषाओं पर असर मुगल साम्राज्य के पतनकाल में पड़ना शुरु हुआ और बाद में अंग्रेजों ने इसका इस्तेमाल किया।यहू वह दौर था जिसमें संस्कृत को देववाणी कहकर प्रतिष्ठित करने की कोशिश हुई,जिसका तुलसीदास ने विरोध किया और लिखा ," का भाषा का संस्कृत,प्रेम चाहिए साँच।काम जो आवै कामरी,का लै करे कमाच।।" मुसलमानों के खिलाफ हिन्दुत्ववादियों के द्वारा जिस तरह का घृणा अभियान चलाया जा रहा है उसकी जितनी निंदा की जाय,कम है,वे मुसलमानों को सामाजिक जहर के रुप में प्रचारित-प्रसारित कर रहे हैं। हमारे अनेक युवाओं में इस जहरीले प्रचार का सीधे असर हो रहा है, युवाओं को भारत की सांस्कृतिक परंपराओं और मुसलमान लेखकों के योगदान के बारे में कोई जानकारी नहीं है,और इसी अज्ञान का हिन्दुत्ववादी लाभ उठा रहे हैं।
मुझे सिंधी भाषा के समर्थ कवि अब्दुल बहाव उर्फ़ सचल सरमस्त याद आरहे हैं,ये धार्मिक संकीर्णता के कट्टर शत्रु थे और इनको पूरी कुरान कंठस्थ थी। उन्होंने लिखा- "मज़हब नि मुल्क में माण हूं मूँझाया। शेख़ी बुजुर्गी बेहद भुलाया।।"
इसी तरह बंगला में संस्कृत के विद्वान् थे दौलत काज़ी।उनके काव्य में कालिदास की उपमाओं के अनेक प्रयोग मिलते हैं।जयदेव के असर में लिखी कविता में चंद पंक्तियां बानगी के रुप में देखें- "श्यामल अंबर श्यामल खेती।श्यामल दश दिशा दिवसक जोती।।"
मलिक मोहम्मद जायसी ने मुहर्रम के दिनों में ईरान की शहजादी,हजरत इमाम हुसेन की पत्नी बानो पर जो कविता लिखी उसकी चंद पंक्तियां देखें-
" मैं तो दूधन धार नहाय रही,मैं तो पूतन भाग सुहाय रही।
मैं तो लाख सिंगार बनाय रही,मेरा साईं सिंगार बिगार गयो।
मोरे साह के तन पर घाव लगो,मोरा अकबर रन मां जूझ गयो।
कोऊ साह नज़फ़ से जाए कहो,तुम्हरे पूत का बैरी मार गयो।। "

गुरुवार, 10 दिसंबर 2015

21वीं सदी में माकपा की चुनौतियाँ

CPIM का प्लेनम 27-31दिसम्बर2015 को कोलकाता में होने जा रहा है। माकपा अपनी सांगठनिक समस्याओं पर इसमें विस्तार से चर्चा करेगी।माकपा की सबसे बड़ी चुनौती है संगठन संचालन की पद्धति और रुढबद्ध कार्यक्रम से मुक्त होने की।इसमें सर्जनात्मकता और नए के लिए कोई जगह नहीं है। इसमें सब कुछ तयशुदा तरीकों से काम करने पर बल है, काम करने की यह पद्धति पुरानी हो चुकी है। माकपा को यदि 21वीं सदी की पार्टी के रुप में काम करना है तो उसे नए सांगठनिक ढाँचे और नए कार्यक्रम के बारे में सोचना होगा,उसे यह सोचना होगा कि समाजवाद के अंत के बाद उभरे पूंजीवाद में कैसे काम करे और किस तरह के काम करे।पार्टी कॉमरेडों का नजरिया क्या हो ,नए संचारजगत में सदस्यों को स्वतंत्र रुप से रायजाहिर करने देने की आजादी रहेगी या नहीं ,या फिर यह कहें कि माकपा क्या अपने पार्टी कार्यक्रम को भारत के संविधान में उल्लिखित व्यक्ति के अधिकारों की संगति में अपने सदस्यों को अभिव्यक्ति के अधिकार देने के पक्ष में है या नहीं,फिलहाल माकपा में सदस्यों को उतने भी अधिकार प्राप्त नहीं हैं जितने भारत का संविधान देता है। कहने का आशय यह है कि नागरिक अधिकारों की संगति में माकपा अपने लक्ष्यों और भूमिकाओं को नए सिरे से तय करे,यदि लोकतांत्रिक प्रणाली और लोकतांत्रिक हकों को पार्टी के सांगठनिक ढाँचे और राजनीतिक कार्यक्रम में वरीयता दी जाए तो पार्टी में नई प्राणवायु का संचार हो सकता है। वरना पुराना ढ़ाँचा तो लगातार माकपा को हाशिए के बाहर खदेड़ रहा है और इससे बचने की जरुरत है।फिलहाल माकपा को क्रांतिकारी कार्यक्रम से भी ज्यादा जरुरत है लोकतांत्रिक कार्यक्रम, लोकतांत्रिक संगठन और लोकतांत्रिक संचार प्रणाली की।

मंगलवार, 1 दिसंबर 2015

संसद में गुमशुदा साहित्यविवेक




       
संसद में “असहिष्णुता” पर बहस चल रही है। यह वह “असहिष्णुता” नहीं है जिसे कॉमनसेंस में हम लोग कहते –सुनते हैं। यह वह भी “असहिष्णुता” नहीं है जिसे राजनीतिक दल आंकड़े दे-देकर व्याख्यायित कर रहे हैं। “असहिष्णुता” के सवाल को राजनीतिकदलों या दल विशेष ने नहीं उठाया,बल्कि लेखकों-बुद्धिजीवियों और वैज्ञानिकों ने उठाया है।ये सब वे लोग हैं जो दलीय राजनीति और कॉमननसेंस के आधार पर “असहिष्णुता” को नहीं देख रहे हैं ,बल्कि अपने सर्जनात्मक कर्म के खिलाफ सामने खड़ी ठोस राजनीतिक-सामाजिक चुनौती के रुप में देख रहे हैं। अफसोस की बात है कि अधिकतर सांसदों ने एक-दूसरे के खिलाफ हिंसा-अपराध के आंकड़े और आख्यान पेश करके यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि “हम ठीक ,तुम गलत।”
    सभी राजनीतिक दलों का यह मानना “हम तो ठीक हैं तुम गलत हो”,यही समूची बहस का मूलाधार है। जबकि लेखकों ने “असहिष्णुता” के सवाल को “हम” और “तुम” की कोटि में रखकर नहीं उठाया,बल्कि वे तो भारतीय समाज में निरंतर बढ़ रही “असहिष्णुता” को एक प्रक्रिया के रुप में देख रहे हैं,उन्होंने उसके हाल के महिनों में तेज होने और ज्यादा आक्रामक हो जाने की ओर ध्यान खींचा है,लेखकों ने किसी दलविशेष को भी इसके लिए दोषी नहीं ठहराया है। वे तो सिर्फ इतनी मांग कर रहे हैं कि केन्द्र सरकार इस ओर ध्यान दे, अभिव्यक्ति की आजादी पर हो रहे हमलों को रोकने के लिए कदम उठाए।

मुश्किल यह है कि लेखक- बुद्धिजीवी-वैज्ञानिकों के लिए "असहिष्णुता" का जो अर्थ है वह राजनेता समझ नहीं सकते,यह बात आज संसद की कार्रवाई देखकर समझ में आ गयी, लेखक और राजनेता की असहिष्णुता की धारणा,अनुभूति और मंशाएं अलग हैं,संसद में बेहतर होता कि लेखकों के बयान पढे़ जाते ,लेखक बोलते और सत्ताधारी सुनते।लेकिन हुआ उलटा लेखक की भावनाओं को दरकिनार करके राजनेताओं की भावनाएं केन्द्र में आ गयीं,यह तो लेखकों के द्वारा उठाए विषय के साथ संसद का अन्याय है,

राजनाथजी ! कल संभवतः आप सांसदों की बहस का जवाब दें।आपको यह तो पता चल ही गया है कि लेखक और राजनेता या सामान्य नागरिक के दिल,अनुभूतियां और अभिव्यक्ति के धरातल अलग - अलग होते हैं, लेखक के पास राजनेता और नागरिक से ज़्यादा विकसित चेतना और अभिव्यक्ति योग्यता होती है,यही वजह है कि वह साहित्य सृजन कर पाता है।राजनेता-सत्ताधीश अल्पकाल में मर जाता, सत्ताधीश के बयान जन्म लेते ही मर जाते हैं, जबकि साहित्य नहीं मरता , साहित्यकार नहीं मरता। बल्कि उलटा होता है, साहित्यसृष्टि करके लेखक नया जन्म लेता है।जबकि नेता का अंत है बोलना।आजतक कोई राजनेता बोलकर अमर नहीं हुआ !

राजनीति और राजनेता अल्पजीवी और बांझ हैं।जबकि साहित्य-कला और विज्ञान दीर्घजीवी और सृजनशील हैं।समाज में विगत दो हजार सालों में कई राजसत्ता आई और गई, कई व्यवस्थाएं भी बदलीं,उनकी भूमिका बदली,लेकिन वे हमेशा अल्पकालिक और सीमित दायरे में ही असर छोड़ पाए,इसके विपरीत लेखकों-कलाकारों-वैज्ञानिकों के सृजन ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी समाज को प्रभावित किया है।

इनदिनों राजनेता अपने दल के हित देखता है,वोटबैंक देखता है।जबकि लेखक के लिए समाज के हित सर्वोपरि हैं। मानव सभ्यता का इतिहास गवाह है कि लेखक स्वभाव से समाज में प्रगतिशील भूमिका निभाते रहे हैं,वे ऐसे सवाल उठाते रहे हैं जो सत्ता को पसंद नहीं रहे,सत्ता की खुशामद करना,सत्तामोह में रहना साहित्य का धर्म नहीं है। साहित्य और साहित्यकार हमेशा से रचनाओं के जरिए सभी किस्म के मोह से मुक्त करके मोहमुक्त समाज की सृष्टि करते रहे हैं। सत्ता का मोह हो या निहित-स्वार्थों का मोह हो ये सब कला-साहित्य आदि के विकास में हमेशा से बाधक रहे हैं,लेखकों ने अपने सर्जनात्मक तरीकों के जरिए इन सबसे अपने को हमेशा मुक्त किया है।अपने आत्मसंघर्ष के जरिए बार-बार साहित्य और कलाओं को समाज की मुक्ति के मार्ग पर ठेला है,हमेशा उन समस्याओं का सामना किया है जो उनके सृजन में बाधक बनकर खड़ी हुई हैं।

आज संसद की बहस देखकर यह धारणा फिर से पुष्ट हुई कि इनदिनों अधिकतर राजनेता साहित्य-कलाबोध और साहित्यचेतना के अभाव के कारण लेखकीय अनुभूति से वंचित हैं।बेहतर तो यह होता कि बुद्धिजीवीसांसदों को असहिष्णुता की बहस में शामिल करके कलाकारों के मन को संसद महसूस करती।आज संसद में असहिष्णुता के सवाल पर जो बहस हुई वह प्रतिवादी साहित्यकारों की अनुभूतियों से कोसों दूर थी। इस बहस में लेखकों का मन और दिल कहीं पर भी नजर नहीं आया।जबकि लेखक भयाक्रांत है,तीन लेखकों की हत्या हो चुकी है,हत्यारों को केन्द्र सरकार में काबिज अनेक राजनेताओं और दल विशेष का समर्थन हासिल है यही वजह है केन्द्र सरकार से बार-बार लेखकों ने हस्तक्षेप की अपील की है।अफसोस की बात है कि केन्द्र सरकार और उसके मुखिया जरा-जरा सी बात पर ट्विट करते रहते हैं,बयान देते रहते हैं ,लेकिन लेखकों के बयान को उन्होंने कभी शिद्दत के साथ,सहानुभूति के साथ समझने की कोशिश नहीं की,उलटे मंत्रियों से लेकर सांसदों तक सभी ने लेखकों पर हमले किए हैं, “इनाम वापसी” को राजनीतिक खेल कहा है। यह सब करके केन्द्र सरकार ने अपनी कलाविरोधी इमेज को ही पेश किया है।

कलाकारों और लेखकों के प्रति केन्द्र सरकार की असहिष्णुता का कारण मेरी समझ से परे है। भाजपा को जब एक बार केन्द्र में सरकार बनाने का मौका मिल गया तो उसके बाद पीएम,मंत्रियों और सांसदों को सारे देश के प्रतिनिधि के रुप में,सरकार को सारे देश की सरकार के संरक्षक और संचालक के रुप में काम करना चाहिए। लेकिन ऐसा न करके लेखकों-बुद्धिजीवियों पर जिस तरह के वैचारिक हमले किए गए हैं, वह शर्मनाक है।सत्ताधारी दल भाजपा ने “असहिष्णुता” की भावना को दलीय पूर्वाग्रहों और हिंसा के अनंत आंकड़ों के बहाने दरकिनार करने की घृणित कोशिश की है,इसे शासकदल का घटिया आचरण ही कहा जाएगा। शासकदल के सांसद एक-दूसरे के खिलाफ तर्कवारिधि बनने के चक्कर में भूल ही गए कि “असहिष्णुता” का सवाल हिंसा के आंकड़ों से नहीं जुड़ा बल्कि अभिव्यक्ति की आजादी और उस पर हो रहे हमलों से जुड़ा है। ये हमले विभिन्नदलों के लोग करते रहे हैं,इसलिए इसे दलीय नजरिए से नहीं संवैधानिक नजरिए से,अभिव्यक्ति की आजादी के नजरिए से देखा जाना चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी पर हो रहे हमले मात्र कानून-व्यवस्था की खराब अवस्था की देन नहीं है,वह इस समस्या का एक पहलू है,लेकिन असल पहलू है राजनीतिक।

लेखकों पर राजनीति विशेष के लोग ही हमले ज्यादा कर रहे हैं। यह कौन सी राजनीति है जो लेखकों को निशाना बना रही है ? यह वह राजनीति है जिसे सर्वसत्तावाद से मोहब्बत है,जिसे लंपट पालने और लंपटसमाज बनाने में दिलचस्पी है।यह वह राजनीति है जिसमें अपनी आलोचना सुनने-देखने का धैर्य नहीं है।लोकतंत्र में अधीर राजनीति सबसे खराब राजनीति मानी जाती है,अधीर राजनेता हमेशा शार्टकट हथकंडे अपनाते हैं और लेखकों-बुद्धिजीवियों को निरंतर विभिन्न तरीकों के जरिए आतंकित करके रखते हैं।यदि विभिन्न राजनीतिकदल अपने इस राजनीतिक रवैय्ये को बदल लें तो बेहतर होगा।लेखक मात्र इतना ही चाहता है।

बार-बार यह सवाल उठा है कि पहले क्यों नहीं बोले ? लेखक पहले भी बोले हैं,लेकिन सूचना क्रांतिजनित औसतविवेक और सत्ताधारी दल के आक्रामक मीडिया प्रचार ने ऐसा आभास पैदा करने की कोशिश की है कि लेखक-बुद्धिजीवी पूर्वाग्रह से घिरे हैं,मोदी विरोधी हैं,इसलिए सरकार को घेरने के लिए यह सब कर रहे हैं।

असहिष्णुता के खिलाफ “इनाम वापसी” का सरकार को घेरने के साथ कोई संबंध नहीं है। इसका वोट की राजनीति से भी कोई संबंध नहीं है।यह सीधे समाज में बढ़ रही असहिष्णुता का मामला है जिसको लेकर लेखक-बुद्धिजीवी “इनाम वापसी” की मुहिम के जरिए ध्यान खींचना चाहते हैं,वे इस सोए हुए समाज को जगाना चाहते हैं जो लेखकों पर हो रहे हमलों को लेकर एकदम बेगाना बना हुआ है।“इनाम वापसी” के प्रतिवाद के बहाने लेखक न तो किसी का अपमान कर रहे हैं,न किसी के वोट काट रहे हैं और न किसी नेता विशेष या दल विशेष के खिलाफ बयान दे रहे हैं,बल्कि वे तो मात्र समाज से लेकर संसद तक यही संदेश दे रहे हैं कि देश में चारों ओर असहिष्णुता बढ गयी है और हम सबको मिलकर इसके खिलाफ एकजुट होना चाहिए।

केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकार हो या राजनीतिक दल हों, यह सभी की जिम्मेदारी है कि वे लेखकों के सम्मान और संवैधानिक हकों की रक्षा के मामले में एक स्वर से लेखकों के साथ एकजुटता दिखाएं। यह समय लेखकों –बुद्धिजीवियों पर हमला करने का नहीं है,बल्कि उन लोगों पर हमला करने का है जिनलोगों या संगठनों ने लेखकों को निशाना बनाया हुआ है।

राजनीतिक दलों को लेखकों से मनवांछित लेखन की मांग छोड़ देनी चाहिए। लेखक को जो उचित लगे वह लिखें।लेखक-बुद्धिजीवी अपने लेखन के जरिए समाज और संस्कृति का चरित्र बदलते रहे हैं,वे यथास्थिति के पक्षधर कभी नहीं रहे,बल्कि वे यथास्थिति के खिलाफ लिखते रहे हैं,लेखक से मनवांछित लेखन की मांग करना अविवेकपूर्ण है।लेखक कभी यह कर ही नहीं सकता।लेखन में यथास्थिति निषेध अंतर्निहित है.इस नजरिए से लेखक से यह कहना कि वह यह लिखे और वह न लिखे,वस्तुतःलेखक के हकों पर हमला है।अफसोस की बात है कि अधिकांश राजनेताओं के भाषणों में इन दिनों यही व्यक्त हो रहा है।



रविवार, 29 नवंबर 2015

आम्बेडकर ने दूसरी शादी क्यों की ?




भारत के संविधान की कच्ची रुपरेखा तैयार करने के बाद बाबासाहब भीमराव आम्बेडकर की तबियत अचानक खराब हो गयी,वे लंबे समय से विश्राम की जरुरत महसूस कर रहे थे लेकिन उनको विश्राम नहीं मिल रहा था।उस समय इलाज के लिए वे बम्बई आए।बुढ़ापे में अपनी देखभाल करने के लिए उनको साथी चाहिए था।जिस अस्पताल में वे इलाज के लिए गए वहां पर कुमारी शारदा कबीर नाम की  महिला काम कर रही थी। उनका व्यवहार और बातचीत आम्बेडकर को पसंद आए और उन्होंने आपसी सहमति से शादी का फैसला ले लिया।

आम्बेडकर को अगस्त1947 से उनको नींद आनी बंद हो गयी थी।एक पत्र में उन्होने लिखा कि उनको 15दिनों से नींद नहीं आ रही।उन पर किसी औषधि का असर नहीं हो रहा। उसी पीड़ा के दौरान उन्होंने सहयोगी के रुप में शारदा कबीर से दूसरी शादी का निर्णय लिय़ा था। अपने मित्र कमलाकांत और भाऊराव गायकवाड को पत्र लिखकर अपने फैसले से अवगत कराया।भाऊराव गायकवाड़ को लिखे पत्र में उन्होंने लिखा “पहली पत्नी के निधन के उपरान्त पुनःविवाह न करने का मैंने निर्णय किया था। किन्तु अब दूसरा विवाह करने का मैंने निर्णय किया है।जो सुगृहिणी होकर वैद्यकशास्त्र में प्रवीण है,ऐसी पत्नी की मुझे जरुरत है।दलित समाज में ऐसी स्त्री मिलना असंभव होने से मैंने सारस्वत महिला को चुना है।” आम्बेडकर के इस फैसले से उनका एक मित्र परेशान था और उसने उनके बेटे यशवन्त और शारदा कबीर में झगड़ा लगाने की काफी कोशिश की। इस झगड़े के आगे बढ़ने के पहले ही आम्बेडकर ने 15अप्रैल1948 को विवाह करने का फैसला किया।उस समय उन्होंने बेटे को 80हजार रुपये कीमत का एक मकान और नकद 30हजार रुपये दिए।जिससे वह आराम से जीवनयापन कर सके।आम्बेडकर ने जब दूसरा विवाह किया तो वे दो दिन पहले ही 56साल पूरे करके 57वें वर्ष में दाखिल हुए थे.विवाह के उपलक्ष में दोपहर को प्रीतिभोज भी दिया गया।यह शादी दिल्ली के हार्डिज एवेन्यू स्थित उनके निवास पर सम्पन्न हुई।

आम्बेडकर की पत्नी निष्ठा -

  

   आम्बेडकर की पहली शादी के बारे में धनंजय कीर ने लिखा है “शादी के समय भीमराव की आयु सत्रह वर्ष की थी।लड़की की आयु नौ वर्ष की थी।लड़की का ससुराल का नाम रमाबाई रखा गया।लड़की उम्र में छोटी लेकिन स्वभाव से शांत और सुस्वभावी थी।वह गरीब लेकिन सदाचारी घराने की थी।वह अपने पिता की कनिष्ठ लड़की थी। उसके पिता का नाम भिकू धत्रे था।दाभोल के समीप स्थित वनंद गाँव का वह निवासी था। वह दाभोल बंदरगाह में कुली का काम करता था। लड़की के बचपन में ही माँ-बाप चल बसे थे। उसका और उसके भाई-बहनों का पालन-पोषण उनकी चाची और मामा ने किया था।” रमाबाई स्वभाव से सहृदय और कर्तव्यदक्ष थी।वे लंबे समय तक बीमार रहीं और लंबी बीमारी के बाद उनका 27मई1935 को निधन हो गया।
     धनंजय कीर ने लिखा है कि पत्नी के स्वास्थ्य में सुधार हो इसलिए बाबासाहब ने काफी प्रयास किए,लेकिन उनको कोई दवा नहीं लगी। “ वैवाहिक जीवन के प्रारंभिक समय में उन पर भुखमरी,शारीरिक कष्ट,दुःख और दरिद्रता की जो घटनाएं गुजरी थीं,उनका मुकाबला उन्होंने अपने जन्मजात मनोबल से किया”, “जीवन का अधिकतर समय उस साध्वी ने असह्य दरिद्रता ,पति की सुरक्षा के बारे में लगने वाली चिंता में व्यतीत किया था।इसके लिए उस देवी ने उपवास,तप,जप,और अनुष्ठान किए थे।शनिवार को तो वे पूरी तरह से निराहार रहती थीं।सिर्फ पानी और उड़द की दाल पर निर्वास कर वे ईश्वर की आराधना करती थीं।वे पूनम के दिन उपवास करती थीं।अपने पतिराज पर ईश्वर का वरदहस्त रहे,इसलिए वे हमेशा प्रार्थना करती रहती थीं।” रमाबाई की मृत्यु ने आम्बेडकर को अंदर तक दुखी किया। आम्बेडकर अपनी पत्नी के विचारों,धार्मिक भावनाओं और आस्थाओं को पूरा सम्मान देते थे। उनकी मृत्यु पर उन्होंने बाकायदा हिंदू पद्धति के अनुसार उनका अंतिम संस्कार करवाया।उनके बचपन के दोस्त थे शंभू मोरे ,वे महार उपाध्याय थे,उन्होंने हिन्दू रीति से अंतिम संस्कार कराया। पत्नी का अंतिम  संस्कार कराने के लिए बाबासाहब ने मुंडन कराया, भगवा कफनी पहनी । बाबासाहब अपनी पत्नी की मृत्यु से बेहद दुखी हुए थे और श्मशान से लौटकर घर पर एक सप्ताह तक फूट-फूटकर रोए थे।

   बाबासाहब ने पत्नी के मृत्यु से तकरीबन सात साल पहले “बहिष्कृत भारत” में लिखा, “प्रस्तुत लेखक जब विदेश में था,तब रात-दिन जिसने परिवार की देखभाल की और जिसे वह अब भी करनी पड़ती है तथा उसके स्वदेश आने पर उसकी विपन्न दशा में गोबर का बोझ खुद के माथे पर रखकर लाने का काम करने के लिए जिसने आगे पीछे नहीं देखा,उस अत्यंत ममत्व प्रधान ,सुशील,और पूज्य स्त्री के साथ दिन के 24 घंटों में से आधा घंटा भी वह बिता नहीं सका।” 

धर्मनिरपेक्षता,धर्म की स्वतंत्रता और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र


           
संसद में इन दिनों भीमराव आम्बेडकर के 125वें जन्मदिन के मौके पर दो दिवसीय बहस हो रही है, इस बहस ने संविधान के सवालों को नए सिरे उठा दिया है।खासकर “धर्मनिरपेक्षता” के सवाल को प्रमुख सवाल बनाकर खड़ा कर दिया है। सत्ताधारी भाजपा को “धर्मनिरपेक्षता” को लेकर पहले से आपत्तियां थीं,लेकिन पहले वे कभी-कभार बोलते थे, लेकिन मोदी सरकार बनने के बाद वे बार-बार “सेकुलर” शब्द पर आपत्ति कर रहे हैं,उसके खिलाफ घृणा अभियान चलाए हुए हैं, लोकसभा चुनाव में प्रचार अभियान के दौरान उन्होंने सबसे घटिया ढ़ंग से “धर्मनिरपेक्षता” पर हमला किया।

हाल ही में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने संसद में भीमराव आम्बेडकर के 125वें जन्मदिन के मौके पर संसद में चल रही बहस में भी “धर्मनिरपेक्षता” को निशाना बनाया, प्रधानमंत्री तो” सेकुलर “ शब्द का इस्तेमाल ही नहीं करते। यही वह संदर्भ है जिसमें संविधान निर्माण के समय “धर्मनिरपेक्षता” पर चली बहस के कुछ पहलुओं का नए सिरे से मूल्यांकन करना बेहद जरुरी है।संविधान के प्रति प्रतिबद्धता जताने के लिए केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा है “देश में 'सेक्युलर' शब्द का सबसे ज़्यादा दुरुपयोग हुआ है और इसे बंद किया जाना चाहिए.” उन्होंने यह भी कहा कि 42वें संविधान संशोधन के जरिए आपातकाल में संविधान के प्रियम्बुल में धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद को जोड़ा गया। राजनाथ सिंह के बयान में कई मसले निहित हैं। इस प्रसंग में पहली बात यह कि 42वें संविधान संशोधन के सभी काले कानूनों को 44वें संविधान संशोधन के जरिए हमेशा के दफ्न कर दिया गया,उस समय जनता पार्टी की सरकार थी।वह आपातकाल विरोध की आंधी पर सवार होकर आई थी, लेकिन संविधान की प्रस्तावना से “धर्मनिरपेक्षता” और “समाजवाद” को नहीं निकाला गया। क्योंकि ये दोनों धारणाएं प्रासंगिक,संवैधानिक और वैध हैं। संविधान का क ख ग जानने वाला व्यक्ति भी इस तथ्य को जानता है,इसके बावजूद आरएसएस और उनकी भजनमंडली “धर्मनरपेक्षता” और “समाजवाद” के खिलाफ विषवमन करती रही है। लोकतंत्र,धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद हासिल करना हमारे संविधान का मूल लक्ष्य है। इस लक्ष्य से देश को विचलित नहीं किया जा सकता। अब थोड़ा उस पहलू पर विचार करें जो संघियों को परेशान किए हुए हैं।

“धर्मनिरपेक्षता” के प्रसंग में स्व. प्रोफेसर के.टी शाह का जिक्र करना जरुरी है। वे संविधान सभा परिषद के सदस्य थे. उन्होंने दो बार यह कोशिश की थी कि संविधान में “सेकुलर” पदबंध को बुनियादी अधिकारों में शामिल कर लिया जाय, लेकिन उनको सफलता नहीं। अपने दूसरे प्रयास में उनके द्वारा प्रस्तुत संशोधन पर संविधान परिषद में विचार जरुर हुआ, उनके द्वारा प्रस्तावित संशोधन था “ The state in India being secular shall have no concern with any religion ,creed or profession of faith.” शाह का मानना था कि देश में साम्प्रदायिक ताकतें सिर उठा रही हैं और उनके कारण देश को भयानक त्रासदी झेलनी पड़ रही है ऐसी स्थिति में संविधान में राज्य के धर्मनिरपेक्ष चरित्र के बारे में स्पष्ट ढ़ंग से जरुर लिखा जाना चाहिए. यह अफसोस की बात है कि कानूनमंत्री को उनका संशोधन मान्य नहीं था और उनका संविधान संशोधन परिषद ने खारिज कर दिया।

हाल ही में राजनाथ सिंह एंड कंपनी ने जो बहस आरंभ की है और उसके पहले से संघ के लोग सवाल खड़े करते रहे हैं कि वे भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य नहीं मानते। वे तो हिन्दूराष्ट्र मानते रहे हैं।असल में भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को परिभाषित करने के लिए जरुरी है कि संविधान में वर्णित धर्म की स्वतंत्रता, नागरिकता और राज्य और धर्म के अन्तस्संबंध से जुड़े सवालों नए सिरे से विचार करें।

हमारा संविधान व्यक्ति और समुदाय दोनों ही स्तरों पर धर्म की स्वतंत्रता को सुनिश्चित बनाता है। धर्म की साझा आस्थाओं, रीतियों, और अनुशासनों को स्वतंत्रता देता है। मजेदार बात है कि धर्म की स्वंत्रता मात्र व्यक्ति तक सीमित नहीं है,बल्कि “ सभी व्यक्तियों” तक इसका विस्तार किया गया है। यानी भारत में देश के बाहर से आकर रहने वालों को भी धर्म की स्वतंत्रता है। यही वजह है कि भारत के बाहर से आए ईसाई संत और मिशनरियों को भी धर्म की स्वतंत्रता का संवैधानिक लाभ मिलता है। धर्म की स्वतंत्रता का संविधान में प्रावधान असल में कांग्रेस के 1931 के करांची अधिवेशन में पारित मूलभूत अधिकार संबंधी प्रस्ताव से सीधे लिया गया है,यहां तक कि दोनों की भाषा में भी समानता है। उस समय अनेक हिन्दुत्व समर्थकों ने धर्म के प्रचार की स्वतंत्रता का यह कहकर विरोध किया था कि ईसाई मिशनरियों के द्वारा इसका दुरुपयोग हो सकता है।वे इसके बहाने धर्मान्तरण कर सकते हैं। उनके इन सब तर्कों को संविधान सभा ने नहीं माना।

धर्म की स्वतंत्रता में धर्मचेतना का प्रचार प्रसार शामिल है। लेकिन संविधान निर्माताओं ने इसमें एक राज्य का नियंत्रण भी लगाया ,मसलन्, यदि धर्म के प्रचार से कानून-व्यवस्था में बाधाएं खड़ी हों,नैतिक और स्वास्थ्य संबंधी गड़बड़ी पैदा हो तो धर्म के प्रचार को राज्य रोक सकता है।इसी क्रम में बताया गया कि धार्मिक प्रचार नियमन के दायरे में आता है।जबकि धर्मचेतना के बारे में राज्य को व्यक्ति के जीवन में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार संविधान नहीं देता। इस प्रसंग में राज्य की भूमिका सामाजिक जीवन को सामान्य बनाए रखने की है। लेकिन धर्मचेतना के बारे में व्यक्ति के अधिकार एकदम सुरक्षित माने गए हैं,उसमें राज्य हस्तक्षेप नहीं कर सकता। इसी तरह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 295-98 में धर्म संबंधी अनेक अपराधों का जिक्र किया गया है ।

संविधान के प्रसंग में यह सवाल भी उठा कि “धर्म” क्या है ? इसे कौन परिभाषित करेगा ? संविधान के अनुच्छेद 25(1) में इसे परिभाषित किया गया है । सवाल यह है धर्म को व्यक्ति,धार्मिक संस्था और राज्य कौन परिभाषित करेगा ? इस धारा के प्रसंग में दर्जनों अदालती फैसले आ चुके हैं और न्यायालय संविधान सम्मत निर्देशों के पालन पर अनेकबार राजसत्ता को निर्देश दे चुका है। न्यायालयों ने आम्बेडकर की धारणाओं में भी संशोधन किए हैं। आम्बेडकर ने पर्सनल लॉ के प्रसंग में संविधान सभा में बहस में बोलते हुए कहा था कि हमारे देश में धर्म की अवधारणा जन्म से मृत्यु पर्यन्त फैली हुई है।यहां कोई चीज ऐसी नहीं है जिसे धर्म न कहते हों,हमें यदि पर्सनल लॉ की रक्षा करनी है तो सामाजिक विषयों पर इस गतिरोध से निकलना होगा।यहां संस्कार और आस्था धर्म में गिने जाते हैं,अतः धार्मिक संस्कार-उत्सव तक तो यह ठीक है, लेकिन उत्तराधिकार, संपत्ति के अधिकार आदि में धार्मिक मान्यताओं के अनुसार व्यापक अधिकार नहीं दिए जा सकते। यही वजह है कि आम्बेडकर ने धार्मिक संस्कारों और समारोहों को तो धर्म के दायरे में रखा।

मनुष्य की अनेक धार्मिक गतिविधियां धर्मनिरपेक्ष गतिविधि के दायरे में आती हैं,यह भी हो सकता है कि धर्म के धर्मनिरपेक्ष आयाम भी हों,ऐसी स्थिति में धर्मनिरपेक्ष धार्मिक गतिविधियों को धर्म का अंग नहीं माना जाना चाहिए। यही बात आस्था और विश्वास के साथ जुड़े सवालों पर भी लागू होती है। संविधान इस मामले में एकदम साफ है कि नागरिक के आस्था और विश्वासों को धार्मिक संस्थाएं नियमित और नियंत्रित नहीं कर सकतीं। पूजा-अर्चना,खानपान और पहनावे के मामले में धार्मिक मान्यताओं को संविधान मानता है लेकिन अन्य मामलों में नहीं।मसलन्,मंदिर में पूजा कैसे होगी,क्या प्रसाद चढ़ाया जाएगा,मंदिर में क्या पहनकर जाएं ,मंदिर में पुजारी किस तरह के वस्त्र पहनेगा,मंदिर कब खुलेगा,कब बंद होगा,मंदिर में उत्सव कब मनाए जाएंगे,भगवान क्या पहनेंगे और कैसे पहनेंगे , कौन से मंत्र पढ़े जाएंगे आदि चीजों का फैसला संबंधित धार्मिक संस्था करेगी,उसमें राज्य दखल नहीं देगा,न्यायालय भी दखल नहीं देगा। लेकिन किसी व्यक्ति के नागरिक अधिकार क्या होंगे यह धर्म तय नहीं करेगा।

उल्लेखनीय है धर्म के दायरे में क्या आता है इसका दायरा संविधान बनाने के बाद से अदालतों की व्याख्याओं के बाद बढ़ा है। यह भी ध्यान रहे कि संविधान धर्म की स्वतंत्रता देता है तो संविधान के अनुच्छेद धारा25(2) के तहत राजसत्ता को धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप का अधिकार भी है। इस प्रावधान के तहत ही कई मामलों में मंदिर प्रबंधन आदि के अधिकार राजसत्ता ने अपने हाथ में ले लिए । इसी के आधार पर बड़े पैमाने पर हिन्दू पर्सनल लॉ (शादी,तलाक,गोद लेने का कानू,उत्तराधिकार आदि) में परिवर्तन किए गए। संविधान के अनुच्छेद 25(2) के तहत राजसत्ता को समाजसुधार से संबंधित कानून बनाने का अधिकार भी है। इसके आधार पर ही हिन्दुओं में बहुपत्नीप्रथा समाप्ति के लिए कानून बनाया।जबकि हिन्दूधर्म के अनुसार बहुपत्नी प्रथा वैध थी। मंदिर में हरिजन प्रवेश को वैधता दी गयी।अछूत परंपराओं के खिलाफ कानून बनाए गए।जबकि हिन्दू धर्म में हरिजनों का मंदिर प्रवेश निषिद्ध था,अछूत प्रथा वैध थी।हिन्दुओं के पर्सनल लॉ में लाए गए सुधारों ने सबके लिए समान नागरिक अधिकारों की मांग का बहुत बड़ा आधार निर्मित किया है।

संविधान के तहत राजसत्ता के पास धार्मिक संस्थानों के वित्तीय क्षेत्र को नियंत्रित करने का हक भी है। उल्लेखनीय है मध्यकाल में अनेक राज्यों में राजाओं का मंदिरों के वित्तीय क्षेत्र पर नियंत्रण और स्वामित्व था।



धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का एक छोर धर्म की स्वतंत्रता से जुड़ा है तो दूसरा छोर नागरिकों के अधिकारों और नागरिकता की अवधारणा से जुड़ा है। हमारा संविधान व्यक्ति को आधारभूत सामाजिक इकाई मानकर नागरिकता पर विचार करता है, वह समूह या समुदाय को आधारभूत यूनिट मानकर विचार नहीं करता। हमारे यहां नागरिक का आधार व्यक्ति है,समूह,जाति या समुदाय या धर्म नहीं है। राज्य ने संविधान के तहत व्यक्ति के अधिकारों और जिम्मेदारियों दोनों का खुलासा किया है।इसे हम व्यक्ति और राजसत्ता के अन्तस्संबंध के रुप में देख सकते हैं।

शनिवार, 28 नवंबर 2015

वर्चुअल नायक की औसत वाणी



   
आज मैं यू-ट्यूब के कारण पीएम नरेन्द्र मोदी का संसद में कल दिया गया भाषण सुन पाया। उदयप्रकाश जैसे प्रखर लेखक की राय उनके भाषण की प्रशंसा में पढ़ चुका था इसलिए और भी उत्सुकता थी कि आखिर मोदी ने ऐसा क्या कहा जिसने उदयप्रकाश जैसे लेखक को प्रभावित कर लिया,मुग्ध कर लिया। पहली बात यह कि पीएम मोदी को अपने भाषण में कांग्रेस और उसके नेताओं की भूमिका का नाम लेकर जिक्र करने से परेशानी हो रही थी,उन्होंने अपनी संघी परंपरा का निर्वाह करते हुए संविधान निर्माण में एक भी बार पंडित नेहरु या कांग्रेस पार्टी का नामोल्लेख तक नहीं किया।

पीएम मोदी के लिए संविधान का असल में क्या अर्थ है यह तो वे ही जानें लेकिन यदि उनके कल के भाषण में जो कहा गया है वह यदि संविधान का अर्थ है तो हम विनम्रतापूर्वक कहना चाहते हैं कि पीएम ने हमें निराश किया है।वे संविधान के मर्म को समझ नहीं पाए हैं,दूसरी बात यह कि जिस व्यक्ति ने भी पीएम का भाषण लिखा था उसे कम से कम अच्छा भाषण लिखना नहीं आता।

पीएम मोदी ने अपने भाषण में “सरलीकरण” और “सामूहिकीकरण” के भाषिक पदबंधों का असल मंतव्य पर पर्दा डालने के लिए कौशलपूर्ण ढ़ंग से इस्तेमाल किया। जैसे “राष्ट्र के महापुरुष” ,”सबने अपनी भावना प्रकट की”,”मैं भी अपनी भावना प्रकट कर रहा हूँ”,,”संविधान की पवित्रता”, “संविधान की सर्वोच्चता”,”, कईयों की तपस्या”,”संविधान की शक्ति”,”गौरवगान”,”उत्तम संविधान”,”संविधान के मूल्य”,”संविधान सदन तक सीमित न रह जाय” आदि। जिन लोगों को उद्धृत किया और नाम लिया ,वे हैं, आम्बेडकर,ग्रेन विले आस्टीन, राधाकृष्णन, गजेन्द्र गडकर, सच्चिदानंद सिंह,अटल बिहारी बाजपेयी,एक सांसद, राजा राममोहन राय,ईश्वरचन्द्र विद्यासागर,राममनोहर लोहिया और उनके बहाने पंडित नेहरु,राजेन्द्र प्रसाद, महात्मा गांधी और अंत में संस्कृत की उन पंक्तियों और नारों का जिक्र किया जो कई सालों से सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों और संस्थाओं के प्रतीक के रुप में प्रचलन में हैं।भक्ति आंदोलन से लेकर नवजागरण तक का जिक्र किया लेकिन बहुत सारे लोगों को वे अपनी सुविधा और विचारधारात्मक सीमाओं के कारण छोड़ते चले गए।

मोदी के अनुसार संविधान का नया अर्थ- “डिग्नी फॉर इण्डियन, यूनिटी फॉर इण्डिया,” सरकार का एक धर्म “इण्डिया फर्स्ट”, भारत का संविधान प्रथम। इस समूची प्रस्तुति को देखकर आपको आभास ही नहीं होगा कि भारत के संविधान का धर्मनिरपेक्षता,लोकतंत्र और समाजवाद के लक्ष्यों से कोई संबंध है। समूचे भाषण में एक बार “पंथ-निरपेक्षता” पदबंध का पीएम ने इस्तेमाल किया। संक्षेप में कहें तो यह संविधान की नए सिरे से सौगंध लेने के बहाने संविधान से आँखें चुराने वाली बातें ज्यादा नजर आईं। पीएम ने यह बात जरुर कही कि उनकी सरकार संविधान बदलने के बारे में नहीं सोच रही,आरक्षण खत्म करने के बारे में नहीं सोच रही । लेकिन वे आर्थिक विकास की सुस्तदशा,अभिव्यक्ति की आजादी पर हो रहे हमलों आदि पर चुप रहे।

“अंत में आइडिया ऑफ इण्डिया” का जिक्र करते हुए पीएम मोदी ने जल्दी-जल्दी चक्की चलाते हुए संस्कृत पंक्तियों की ताबड़तोड़ वर्षा कर दी,इस क्रम में वे भूल ही गए कि वे जिन पंक्तियों को वे बोल रहे हैं उनका अर्थ क्या है ? उनका संदर्भ क्या है ? कम से कम रुककर उनके हिन्दी में अर्थ ही बता देते,वे र्थ क्यों नहीं बोल पाए हम समझने में असमर्थ हैं ! मोदी द्वारा उद्धृत संस्कृत की अनेक पंक्तियां सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों और कंपनियों के “मोटो” में हैं !

पीएम मोदी ने आम्बेडकर के साथ मनमाना व्यवहार करते हुए जो कहा है उससे आगे निकलकर हम देखें कि 25नवम्बर 1949 को आम्बेडकर ने क्या था । पता नहीं क्यों सोनिया गांधी और पीएम मोदी दोनों ने आम्बेडकर के व्यक्तिपूजा के खिलाफ कहे कथन का जिक्र करना जरुरी नहीं समझा,क्योंकि इन दोनों नेताओं में व्यक्तिपूजा के कु-संस्कार कूट-कूटकर भरे हुए हैं। इन दोनों नेताओं की मनोदशा को व्यक्तिपूजा पसंद है। दिलचस्प बात है कि दोनों ने एक ही उद्धरण पेश किया।पेश करने का तरीका अलग-अलग था।

अपने इसी भाषण में व्यक्तिपूजा के बारे में आम्बेडकर ने कहा-" जिन महान व्यक्तियों ने आजीवन राष्ट्र की सेवा की,उनके प्रति कृतग्यता रखने में कोई हर्ज़ नहीं।किंतु उस कृतग्यता की भी कुछ सीमा होती है।आयरिश देशभक्त ओकानेल के कथन के अनुसार अपनी आत्मप्रतिष्ठा की बलि देकर कोई भी पुरुष कृतग्य नहीं रह सकता; कोई भी नारी अपना सतीत्व भंग करवाकर कृतग्य नहीं रह सकती; और अपनी अपनी स्वतंत्रता की बलि देकर कोई भी राष्ट्र कृतग्य नहीं रह सकता।अन्य किसी भी देश की अपेक्खा भारत में यह सावधानी बरतना अत्यंत आवश्यक है; क्योंकि भारत की राजनीति में व्यक्तिपूजा का इतना जबर्दस्त असर पड़ता है कि वैसा असर विश्व के किसी भी अन्य देश की राजनीति पर नहीं पड़ता। हो सकता है,धर्म में भक्ति आत्मा की मुक्ति का मार्ग दिखा सकती हो,किन्तु राजनीति में भक्ति या व्यक्तिपूजा अधोगति का या अन्त में तानाशाही का निश्चित मार्ग है,यह ध्यान में रखें।"

आम्बेडकर ने अपने भाषण में संविधान लिखने में मदद करने वाले संविधान लेखकों के नामों का जिक्र किया है। संविधान के बारे में बोलते हुए आम्बेडकर ने कहा “ संविधान में बुने गए तत्व विद्यमान पीढ़ी के मत हैं। और मेरा यह विधान शायद अतिरंजित लगे,तो यह स्वीकार किया जाए कि यह मत सदन का है। संविधान कितना भी अच्छा या बुरा हो,तोभी वह अच्छा है या बुरा है, यह आखिरकार में राज्यकर्ताओं के संविधान के इस्तेमाल करने पर ही निर्भर होगा। ” आम्बेडकर ने यह भी कहा “ लोगों को पहली बात यह करनी चाहिए कि अपने सामाजिक और आर्थिक उद्देश्य सफल बनाते समय संविधानात्मक साधनों का मार्ग स्वीकार करना चाहिए। असहयोग,कानूनभंग और सत्याग्रह के मार्ग छोड़ दें;क्योंकि संविधानबाह्य मार्ग यानी केवल अराजकता का व्याकरण है।” दिलचस्प बात यह है मोदी ने आज उपरोक्त बातों का अपने भाषण में जिक्र किया,इसमें पहले वाले उद्धरण का मोदी और सोनिया दोनों ने जिक्र किया लेकिन व्यक्तिपूजा की बात को छोड़ दिया।



आम्बेडकर ने अपने भाषण में सबसे महत्वपूर्ण यह कही ,जिसका मोदी-सोनिया ने जिक्र ही नहीं किया,यह बात हम सबके लिए आज भी प्रासंगिक है,आम्बेडकर ने कहा, “भारतीय लोकतंत्र की रक्षा करते समय भारतीयों को तीसरी बात यह करनी चाहिए कि वे राजनीतिक लोकतंत्र से संतुष्ट न रहें।उनको राजनीतिक लोकतंत्र का सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र में रुपान्तरण करना चाहिए।अगर राजनीतिक लोकतंत्र सामाजिक लोकतंत्र पर अधिष्ठित नहीं किया गया ,तो वह टिक ही नहीं सकता; क्योंकि सामाजिक लोकतंत्र स्वतंत्रता,समता और बंधुभाव को जीवन के तत्वों के रुप में पहचानता है।स्वतंत्रता,समता और बंधुभाव एक अखण्ड और अभंग त्रिमूर्ति है। अगर सामाजिक समता न होगी तो स्वतंत्रता का अर्थ मुट्ठीभर लोगोंका आम जनता पर राज्य करना होगा।अगर समता स्वतंत्रताविरहित होगी,तो व्यक्ति के जीवन की स्वयंप्रेरणा नष्ट करेगी।अगर बंधुभाव न होगा तो स्वतंत्रता और समता की वृद्धि सहजता से नहीं होगी।भारतीय जनता को एक बात स्वीकार करनी चाहिए कि भारतीय समाज में दो बातों का अभाव है।ये दो बातें हैं- सामाजिक समता और आर्थिकसमता।” अपने आवेशपूर्ण भाषण में आम्बेडकर ने यह भी कहा “ 26जनवरी1950 को हमें राजनीतिक समता प्राप्त होगी। किन्तु सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता रहेगी। अगर यह विसंगति यथासंभव दूर करने का प्रयास हमने नहीं किया,तो विषमता की आँच लगी हुई है,वे लोग संविधान समिति द्वारा बड़े परिश्रम से बनाए इस राजनीतिक लोकतंत्र की मीनार मिट्टी में मिलाए बिना नहीं रहेंगे।” अपने इसी भाषण में आम्बेडकर ने जातिभेद पर हमला किया था। अफसोस की बात है इस पहलू की ओर पीएम मोदी का ध्यान ही नहीं गया। आम्बेडकर ने 40 मिनट तक अपना भाषण दिया था। संविधान समिति ने 26 नवम्बर को संविधान स्वीकार किया था,इसलिए इस तिथि का महत्व है । आम्बेडकर ने अपने बिगड़े हुए स्वास्थ्य की अवस्था में संविधान निर्माण के काम को पूरा किया था। संविधान का मसौदा किस अवस्था में तैयार हुआ इस पर 5नवम्बर1948 को संविधान समिति के सदस्य टी.टी.कृष्णमाचारी ने संविधान समिति के सामने जो कहा वह बेहद महत्वपूर्ण है,उन्होंने कहा, “ सदन को शायद यह मालूम हुआ होगा कि आपके चुने हुए सात सदस्यों में से एक ने इस्तीफा दे दिया उसकी जगह रिक्त ही रही।एक सदस्य की मृत्यु हुई।उसकी जगह भी रिक्त ही रही।एक अमेरिका गए,उनकी जगह भी वैसे ही खाली पड़ी रही।चौथे सदस्य रियासत संबंधी कामकाज में व्यस्त रहे।इसलिए वे सदस्य होकर भी नहीं के बराबर थे।दो-एक सदस्य दिल्ली से दूरी पर थे।उनका स्वास्थ्य बिगड़ने से वे भी उपस्थित न हो सके।आखिर यह हुआ कि संविधान बनाने का सारा बोझ अकेले डॉ.आम्बेडकर पर ही पड़ा।इस स्थिति में उन्होंने जिस पद्धति से वह काम पूरा किया, उसके लिए हम उनके हमेशा ऋणी रहेंगे।” संविधान समिति की अनेक बैठकों में आम्बेडकर और उनके कार्यवाहक ही सिर्फ उपस्थित रहते थे.इस दृष्टि से संविधान का सारा मसौदा अकेले आम्बेडकर ने बेहद कष्ट की अवस्था में पूरा किया।

आओ मोदी हम ढोएंगे पालकी

             पीएम नरेन्द्र मोदी के कल संसद में दिए भाषण पर लेखक उदयप्रकाश की फेसबुक टिप्पणी पढ़कर बेहद शर्मिंदगी का एहसास हुआ। यह कैसा समय है जिसमें लेखक टुकड़ों में देखता है,भाषिक अंशों में देखता है,राजनीति और विचारधारा के बिना देखता है। निश्चित रुप से यह लेखकों के लिए बहुत संकट की घड़ी है। कल का मोदीजी का भाषण न तो ऐतिहासिक था और बेजोड़ था। उदयप्रकाश के राजनीतिक नजरिए पर फेसबुक पर बहुत बहस होती रही है लेकिन उनकी ताजा फेसबुक टिप्पणी ने एक बात जरुर संप्रेषित कर दी है कि हमारे लेखकों के पास फासिज्म के खिलाफ जंग करने की कोई न तो दीर्घकालिक समझ है और न सही विवेक ही है।

उदयप्रकाश ने क्या कहा पहले वह ध्यान से पढ़ें-

“आज हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का संसद में संविधान पर दिया गया भाषण किसी ऐतिहासिक अभिलेख की, किसी महत्वपूर्ण राजकीय दस्तावेज़ की तरह महत्वपूर्ण है। इतना लोकतांत्रिक, समावेशी, उदार और विनम्र संभाषण कम से कम इस प्रभावी शैली में मैंने अपने जीवन में नहीं सुना।
बिना किसी पूर्वाग्रह के अपने पूर्ववर्ती राजनेताओं के योगदान को जिस पारदर्शिता के साथ उन्होंने स्वीकार किया, देश के प्रथम प्रधानमंत्री की लोकतांत्रिक सहिष्णुता, ईमानदारी और तार्किक विवेक की उन्होंने प्रशंसा की, इसके अलावा संविधान की मूल प्रस्तावना के अलावा इसके परवर्ती संशोधनों को, जिसमें 'धर्मनिरपेक्षता' और 'समाजवाद' के अलावा 'आरक्षण' की अनिवार्यता को जिस तरह उन्होंने अपनी सम्मति और समर्थन दिया, वह उन्हें पक्ष और विपक्ष की दोनों सरहदों के आरपार एक सर्वस्वीकृत राजनेता के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए, भावुकता के साथ पर्याप्त था।
मैंने पहले भी कहा है कि अपनी वक्तृता में संभवत: वे सिद्धहस्त अटलबिहारी वाजपेयी जी से भी कई क़दम आगे हैं।
वे अपने व्याख्यानों में शायद, तथ्यों और इतिहास संबंधी भ्रमों-भूलों और हास्यास्पद ग़लतियों के बावजूद, अब तक के एक बेजोड़ वक़्ता- प्रधानमंत्री हैं।
संसद में बाबा साहेब अंबेडकर की स्मृति और संविधान की मूल भावनाओं के पक्ष में दिया गया उनका यह भाषण अप्रत्याशित रूप से प्रशंसनीय ही नहीं, सामयिक और महत्वपूर्ण था।
यह वक्तव्य एक झटके में उनके ही गृहमंत्री राजनाथ सिंह तथा वित्तमंत्री जेटली से उनकी दूरी को प्रदर्शित करने वाला था।
उनका यह संभाषण भारत की विविधता, बहुसांख्यिकता,बहुलता के प्रति उनके सम्मान को प्रकट करने वाला था।
बहुत ख़ुशी हुई। अब उम्मीद है वे अपने सांप्रदायिक, जातिवादी, हिंसक, असामाजिक और उग्र हिंदुत्ववादी तत्वों को भी क़ानून और संविधान के दायरे में ला कर उन पर सख़्त कार्रवाई करेंगे।
लेकिन कहीं यह देश के बदलते हुए मानस को भाँप कर किसी रणनीति के तहत, चतुराई के साथ, अपने दल के 'सरहदी' उग्र सांप्रदायिक और जातिवादी गिरोहों की हरकतों से होने वाली अपनी और अपने दल की गिरती हुई छवि और साख को बचाने की कोई हार को जीत में बदलने वाली चालाक युक्ति तो नहीं है?
या कहीं जनरल सर्विस टैक्स से लेकर कई ऐसे बिलों को, अपने कार्पोरेट मित्रों और सहयोगियों के लाभ के लिए, विपक्ष की मदद से, संसद के इसी सत्र में पारित करा लेने के लिये एक सोची समझी चालाकी तो नहीं है?
आज एक ओर जब प्रधानमंत्री निवास में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी जी उनके साथ चाय पी रहे हैं, ठीक उसी समय चंदन मित्र और शेखर गुप्ता, दोनोंसंविधान में 'धर्मनिरपेक्षता' और 'समाजवाद' के प्रक्षेपण पर राजनाथ सिंह के तर्क के अनुसार बहस की शुरुआत कर रहे हैं।

मुझे तो यही लगता है कि संविधान की मूल आत्मा की हिफ़ाज़त देश की जनता को अपनी एकजुटता के साथ करनी होगी।

राजनीति जिन हाथों में है, पता नहीं क्यों अभी भी दोस्तो, उस पर विश्वास नहीं होता।”

उदयजी आप जानते हैं कि पीएम के नाते मोदी के पास संसद में संविधान की वैचारिक सरहदों के बाहर जाने का कोई मार्ग नहीं है। संसद में बोलना है तो संसद, संविधान और घोषित नीतियों के फ्रेमवर्क में ही बोलना होगा।इस नजरिए से देखें तो पीएम मोदी जो कुछ भी कह रहे थे वह मजबूरी में कह रहे थे,यह उनकी स्वाभाविक वैचारिक भाषा और विचारधारा नहीं है। प्रधानमंत्री के रुप में संसद में मोदी या मुख्यमंत्री के रुप में गुजरात विधानसभा के अंदर मोदी हमेशा संविधान की सरहदों में कैद होकर ही बोलते रहे हैं। यह मोदी की महानता नहीं बल्कि राजनीतिक कौशल है। संसद में बोलते हुए कोई भी पीएम घोषित नीतियों,संविधान की मान्यताओं और धारणाओं के खिलाफ नहीं बोल सकता,यदि वह ऐसा करता है तो उसको गंभीर संवैधानिक संकट और चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।

सवाल यह है कि यही मोदी संसद के बाहर आम जनता में किस भाषा,विचारधारा और नजरिए से बोलता है। सवाल यह भी है कि यही मोदी एक पीएम के नाते कितना लोकतांत्रिक व्यवहार अपने मंत्रीमंडल सहयोगियों के साथ करता है। समूची सत्ता को पीएम कार्यालय में केन्द्रित कर लेने वाले को लोकतांत्रिक और उदार कहना सही नहीं है बल्कि यह तो सर्वसत्तावादी नायक के लक्षण हैं। एक ऐसे नायक के लक्षण हैं जिसने लोकतंत्र के पग-पग पर धुर्रे उडाए हैं,लेखकों का अपमान किया है,लेखकों के प्रतिवाद का अपमान किया है,वह किसी भी दृष्टि से अपने राजनीतिक आचरण में लोकतांत्रिक और उदार नहीं है। इसके बावजूद उदयजी आपका उसको लोकतांत्रिक और उदार कहना गले नहीं उतरता।

सवाल यह है हम किसी नेता के संसद में दिए गए भाषण के बल पर उसके बारे में राय बनाएं या उसकी समग्र भूमिका के आधार पर राय बनाएं ? उदयजी आपने जल्दी कर दी। पीएम मोदी राजनीतिक कौशल से लैस बड़ा दुष्ट खिलाड़ी है,वह अटलजी जैसा या उनसे बेहतर नहीं है,न तो नजरिए में ,न राजनीतिक आचरण में ,इसके बावजूद आपकी प्रशंसा का कोई सामयिक तर्क मैं अभी तक खोज नहीं पा रहा हूँ।आपकी फेसबुक टिप्पणी ने यह सवाल केन्द्र में लाकर खड़ा कर दिया है कि क्या किसी नेता के भाषण को एकल स्वायत्त रुप में देखें या फिर उसके समग्र राजनीतिककर्म के फ्लो की संगति में देखें। लोकतांत्रिक नजरिया हमें समग्र फ्लो में रखकर देखने के लिए कहता है।

उदयजी आप अच्छी तरह जानते हैं कि पीएम मोदी विनम्र नहीं हैं। उनकी भाषा,आचरण और मूल्यबोध में विनम्रता दूर –दूर तक नहीं है।इसे सहज ही उनकी इमेजों के जरिए पढ़ा जा सकता है,जिनलोगों ने उसे करीब से देखा है वे भी बार-बार इसके विपरीत ही कहते रहे हैं।आपने पत्रकार अरुण शॉरी के मोदी के शासन पर दिए गए बयान पढ़े होंगे और भी बहुत सारी चीजें आप बेहतर ढ़ंग से जानते हैं इसके बावजूद आपने विनम्रता को मोदी में खोज लिया ।सच में कहना होगा आपके पास पारखी नजर है जो लालकृष्ण आडवाणी को नजर नहीं आई लेकिन आपको दिख गयी !



शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

आईएसआईएस और उसके सहयोगी राष्ट्र

सामान्य तौर पर मीडिया देखकर यही लगता है आईएस के आतंकियों का स्वायत्त नेटवर्क है और वे सच में पश्चिम के शत्रु हैं,लेकिन पिछले दिन रुस के राष्ट्रपति पुतिन ने आईएस के 40 मददगार देशों की सूची जारी करके साफ कर दिया कि आईएस के पीछे किन ताकतों का हाथ है। इराक में सद्दाम हुसैन के जुल्मों से इराकी जनता को निजात दिलाने और इराक जनसंहारक अस्त्रों के जखीरे को नष्ट करने के बहाने अमेरिका और नाटो संगठन ने इराक पर हमला किया उससे इराक में शांति तो नहीं लौटी,विनाशलीला और आईएस जैसे दानव का जन्म जरुर हुआ। आईएस को निर्मित करने में सऊदीअरब,अमेरिका,कतार,तुर्की,इस्रायल, ब्रिटेन और फ्रांस आदि देशों के नाम पुतिन ने अपनी सूची में प्रमाण सहित पेश किए हैं। आईएस के आतंकियों को तुर्की ,जोर्डन,कतार,इराक और सऊदी अरब से सीधे सैन्य मदद मिल रही है।हथियारों की अबाध सप्लाई का काम अमेरिकी प्रशासन कर रहा है। सीरिया युद्ध में जिस तरह आईएस उलझा हुआ है और नाटो सैन्य संगठन उनकी मदद कर रहा है उस समूची योजना को रुस के सैन्य अभियान ने पूरी तरह पंक्चर कर दिया है, आईएस के जरिए सीरिया के तेल कुओं पर नाटो देशों खासकर तुर्की ने कब्जा जमाया हुआ है,यही बुनियादी वजह है कि आईएस के साथ पश्चिमी देशों की अघोषित मित्रता है।

   रुस के सुखोई बमबर्षक विमान को तुर्की द्वारा अवैध रुप से गिराए जाने के साथ यह कयास लगाया जा रहा था कि रुस का आईएस के खिलाफ अभियान कमजोर हो जाएगा,लेकिन ऐसा नहीं हुआ,रुस ने उस घटना के बाद सीरिया के इलाके में आईएस के शिविरों और कब्जे वाले लाके में जमकर बमबारी की है। तुर्की किस तरह आईएस के आतंकियों से जुड़ा रहा है और उनके लिए हथियारों की सप्लाई कर रहा है उसके प्रमाण अखबारों एवं अन्य मीडिया में आने लगे हैं। तुर्की के प्रसिद्ध अखबार “Cumhuriyet’s” ने मई 2014 में लिखा कि तुर्की के सरकारी ट्रकों के जरिए आईएस के सीरियाई आतंकियों को सैन्य सामग्री की बहुत बड़ी खेप की सप्लाई भेजी गयी, इसमें 1,000 तोप के गोले,, 50,000 मशीनगन गोलियां,  30,000 भारी मशीनगन गोलियां, 1,000 मोर्टार तोप के गोले थे। कालांतर में इस अखबार के संपादक को तुर्की प्रशासन जेल में डाल दिया,लेकिन इस अखबार ने प्रमाणसहित यह खबर प्रकाशित करके तुर्की सरकार को बेनकाव कर दिया। इस समय सारी दुनिया के सामने रुसी बमवर्षक विमान को तुर्की द्वारा मार गिराए जाने के सभी प्रमाण आ गए हैं जिनसे यह साबित होता है कि रुसी विमान तुर्की की नहीं सीरिया की सीमा में था और तुर्की ने कोई चेतावनी नहीं दी थी। 

शब्दों के कातिल


     देश बहुत बुरे दौर में दाखिल हो चुका है,हमारे शासक और उनके भक्तगण असहिष्णु हो चुके हैं। उन्हें शब्द अच्छे नहीं लगते,वे खुलेआम कह रहे हैं “सेकुलरिज्म” का दुरुपयोग बंद करो।कल तक वे “सेकुलर” की आत्मा और शरीर पर हमले कर रहे थे,अब वे “धर्मनिरपेक्ष” शब्द के इस्तेमाल को बंद करने की मांग कर रहे हैं।मजेदार बात यह है कि राजनाथ सिंह के बोलते ही उनके फेसबुकगण “पंथ-निरपेक्षता” का नाम लेकर भाषाज्ञान कराने उतर पड़े हैं। इससे एक बात का पता तो चलता है कि “सेकुलरिज्म” को लेकर इनके अंदर किस कदर घृणा भरी हुई है।
      समाज में शब्दों की हत्या जब होने लगती है तो समझो सत्ता और समाज असहिष्णु हो गया है।मनुष्य के नाते शब्द हमारे हैं और हम शब्दों के हैं।हमने कभी नहीं कहा कि फलां शब्द का इस्तेमाल न करो। सत्ता के शिखर से पहले किसी ने नहीं कहा कि देश में “सेकुलरिज्म” या “धर्मनिरपेक्ष” पदबंध का इस्तेमाल न करो । सत्ता के कर्ताओं की शब्दविशेष को लेकर घृणा पहलीबार नजर में आई है। यह पहलीबार हुआ है कि सत्ता ने शब्द को ललकारा है,एक ऐसे शब्द को ललकारा है जिसमें 125करोड़ लोगों की आत्मा निवास करती है।पहले यह कभी नहीं हुआ कि सत्ता के शिखर से कहा गया हो कि धर्मनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग बंद हो।
     सवाल यह है धर्मनिरपेक्ष शब्द ने क्या बिगाड़ा है संघी सत्ताधारियों का ? इस शब्द से क्यों कांप रहे हैं ये लोग ? इस शब्द के क्यों पीछे पड़े हैं? कल जब संविधान दिवस पर संसद में गृहमंत्री राजनाथ सिंह बोल रहे थे तो वे “सेकुलर” शब्द के खिलाफ बोल रहे थे,वे कह रहे थे,इस शब्द का प्रयोग बंद होना चाहिए। राजनाथ सिंह भूल गए कि शब्द महज शब्द नहीं होता ,उसके साथ विचार भी होता है,मूल्य भी होता है,संवेदनाएं भी होती हैं,शब्द महज शब्दकोश का शब्द नहीं होता। सवाल यह है “सेकुलर” शब्द में निहित विचार,संवेदना, अनुभूति आदि पर राजनाथ सिंह क्या सोचते हैं ? क्या उसे भी त्याग दें ?
     ध्यान रहे संविधान दिवस के संदर्भ में सारी बहसें हो रही हैं। कुछ देर बाद वे बोले “सेकुलर” का हिन्दी में संवैधानिक अनुवाद है पंथ निरपेक्षता। धर्मनिरपेक्षता का दुरुपयोग बंद करो। राजनाथ सिंह ने जाने-अनजाने “सेकुलरिज्म” के प्रति अपनी समस्त बुरी भावनाएं व्यक्त करके यह साबित कर दिया। राजनाथ सिंह पढ़े-लिखे व्यक्ति हैं,जिम्मेदार नागरिक हैं,अनेक बार संविधान की सौगंध खा चुके हैं,हम जानना चाहते हैं कि उनको “सेकुलरिज्म” से क्या परेशानी है ? यदि परेशानी है तो काहे को “सेकुलर”राज्य का शासन संभालने गए ? किसने कहा था  “सेकुलर” राष्ट्र की बागड़ोर संभालो,”सेकुलर” राजनीति करो।“सेकुलर संविधान” की सौगंध खाओ।
    “सेकुलरिज्म” से इतनी ही चिढ़,विरोध और घृणा मन में भरी है तो सीधे भाजपा के संविधान में लिखो कि भाजपा “सेकुलरिज्म” को नहीं मानती,उसकी “सेकुलरिज्म” में आस्था नहीं है, उसकी भारत के “सेकुलर स्टेट” में आस्था नहीं है,उसकी भारत के “सेकुलर सामाजिक ताने-बाने में आस्था” नहीं है। किसने रोका है भाजपा और आरएसएस को खुलेआम “सेकुलरिज्म” का नाम लेकर विरोध करने से। संघ को धर्मनिरपेक्षता पर छद्म रुपों में हमले बंद करने चाहिए।  हमारे देश में उनको भी स्वतंत्रता प्राप्त है जो इस देश से नफरत करते हैं,”सेकुलर स्टेट” से नफरत करते हैं। भाजपा तो “स्वतंत्रचेता” नेताओं का  दल है उसे सबसे पहले अपने राजनीतिक कार्यक्रम में से “सेकुलरिज्म” का प्रयोग बंद करना चाहिए। आम जनता से “सेकुलरिज्म” के खिलाफ अपने “मन की बातें” चुनाव घोषणापत्र के जरिए कह देनी चाहिए। वैसे बहुत ही बारीकी से “मन की बात” का नायक यह काम कर रहा है,लेकिन हम चाहते हैं कि “सेकुलरिज्म” को लेकर संघ-भाजपा और मोदी सरकार एकदम पारदर्शी रुप में आचरण करे। संघी मंत्री-सांसद ईमानदारी से खुलकर “सेकुलरिज्म” का विरोध करें। उन तमाम सरकारी किताबों और दस्तावेजों से “सेकुलरिज्म” शब्द निकालने का आदेश दें जो पहले छप चुके हैं।
   राजनाथ सिंह जब कल “धर्मनिरपेक्षता” शब्द का विरोध करते हुए “पंथ-निरपेक्षता” का विकल्प सुझा रहे थे तो मन में यह सवाल भी उठा कि “पंथ निरपेक्षता” पदबंध समाज में प्रचलन में क्यों नहीं आ पाया क्यों धर्मनिरपेक्षता पदबंध आम जनता के जीवन का कण्ठहार बन गया ? कभी इस पहलू पर गंभीरता से राजनाथ सिंह संसद के आधिकारिक दस्तावेजों का सर्वे सराएं कि संसद में “धर्मनिरपेक्षता” और “पंथ-निरपेक्षता” का हमारे सांसदों ने कितनीबार प्रयोग किया है ? इससे यह बात साफ हो जाएगी कि आम जनता के नेता अनुवाद की भाषा में बात करते हैं या मौलिक मन की भाषा में बात करते हैं !

सच्चाई यह है हिन्दी में ही नहीं भारत की किसी भी भाषा में “सेकुलरिज्म” का सटीक पर्यायवाची शब्द उपलब्ध नहीं है। स्वयं पंडित जवाहरलाल नेहरु ने इस समस्या पर  संभवतः1961 में कहा भी था कि यह आश्चर्य की बात है कि हिन्दी में “सेकुलर” शब्द का सटीक पर्यायवाची शब्द नहीं है। राजनाथ सिंह जिस बात को लेकर अड़े हैं वह रुख सही नहीं है।  उपन्यासकार बंकिम चन्द्र चटर्जी ने बहुत पहले एक जगह लिखा था कि अनुवाद का मतलब यह नहीं होता कि अंग्रेजी के एक शब्द का हिन्दी या बंगला में पर्यायवाची ढूँढ लें।शब्द का पर्यायवाची तो ढूँढ लेंगे लेकिन उस “आइडिया” का क्या करोगे जो शब्द में निहित होता है।  सवाल यह है कि राजनाथ सिंह और उनकी समस्तसंघी मंडली से हम जानना चाहते हैं कि वे “सेकुलर” के पीछे निहित विचार के बारे में क्या सोचते हैं ? क्या भारत “सेकुलर राष्ट्र है” ? क्या भारत “सेकुलर समाज है” ? क्या भारत में रहने के लिए “सेकुलर आइडिया” के प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिए ? 

बुधवार, 25 नवंबर 2015

गुरु नानकदेव और उनकी विश्वदृष्टि


संत गुरु नाननदेव मेरे सबसे प्रिय संत-कवि हैं। उनकी रचनाएं और जीवनशैली देखने के बाद नए किस्म के व्यक्ति और नए किस्म के मूल्यबोध की सृष्टि होती है। नानक उन संतों में हैं जिसने गाना गाकर सब कुछ पा लिया। गाना इतनी तल्लीनता के साथ गाया कि गान ही जीवन का सर्वस्व बन गया। पूरे मन-प्राण से गाने से उनको जो मिला वह अपने आपमें बहुत बड़ी उपलब्धि है। इसलिए जो भी काम करें प्राण लगाकर करें तो सफलता जरुर मिलती है।प्राण लगाकर एक गीत गा दो सफलता मिलेगी।नाच लो सफलता मिलेगी,कक्षा पढाओ सफलता मिलेगी,भाषण दो तो लोग प्रशंसा करेंगे।

नानक की विश्वदृष्टि का मूलाधार है “जपुजी”,

आदि सचु जुगादि सचु

मंत्र:

इक ओंकार सतिनाम

करता पुरखु निरभउ निरवैर।

अकाल मूरित अजूनी सैभं गुरु प्रसाद।।

जपु:

आदि सचु जुगादि सचु।

है भी सचु नानक होसी भी सचु।।

पउड़ी: 1

सोचे सोचि न होवई जे सोची लख बार।

चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिवतार।

भु.खया भुख न उतरी जे बंना पुरीआं भार।

सहस सियाणपा लख होहि, त इक न चले नालि।

किव सचियारा होइए, किव कूड़ै तुटै पालि।

हुकिम रजाई चलणा 'नानक' लिखिआ नालि।

अर्थात् -आदि सचु जुगादि सचु।

है भी सचु नानक होसी भी सचु।।

'वह आदि में सत्य है, युगों के आरंभ में सत्य है, अभी सत्य है। नानक कहते हैं, वह सदा सत्य है।

भविष्य में भी सत्य है।'



'वह एक है, ओंकार स्वरुप है, सत नाम है, कर्ता पुरुष है, भय से रहित है, वैर से रहित है, कालातीत-

मूर्त्ति है, अयोनि है, स्वयंभू है, गुरु की कृपा से प्राप्त होता है।'

एक है--इक ओंकार सतिनाम।

जो भी हमें दिखाई पड़ता है वह अनेक है। जहां भी तुम देखते हो, भेद दिखाई पड़ता है। जहां तुम्हारी आंख

पड़ती है, अनेक दिखाई पड़ता है। सागर के किनारे जाते हो, लहरें दिखाई पड़ती हैं। सागर दिखाई नहीं पड़ता।

हालांकि सागर ही है। लहरें तो ऊपर-ऊपर हैं।

किसी भी बात को कहने के लिए कहानी में कहो तो बात बेहतर ढ़ंग से संप्रेषित होती है, कहानी सच है और कहानी कल्पना भी है।कहानी हमेशा प्रतीक के बहाने संप्रेषित होती है। नानक की कहानी में भी प्रतीक का बड़ा महत्व है।जब भी कोई गहरी बात कहनी हो प्रतीक के माध्यम से कहो तो बेहतर ढ़ंग से संप्रेषित होगी। प्रतीकात्मक कहानी यह है कि नानकदेव अपने मित्र मरदाना के साथ नदी किनारे बैठे हुए बातें कर रहे थे, अचानक उन्होंने अपने कपड़े उतारे और नदी में कूद गए,मरदाना ने काफी खोजबीन की लेकिन नानक का कोई पता नहीं चला। गांव लौटकर सब गांववालों को खबर दी कि नानक नदी में नहाने गए तो निकले ही नहीं। सारा गांव नदी किनारे एकत्रित हो गया,नानक की कहीं कोई खबर नहीं मिल रही थी, सब रो रहे थे,क्योंकि सारा गांव नानक को बहुत प्यार करता था।तीन दिन बीत गए लोगों ने मान लिया कि नानक डूब गए या फिर किसी जानवर ने उनको खा लिया। सब यही सोच रहे थे कि वे अब नहीं लौटेंगे। लेकिन तीसरे दिन अचानक नानक प्रकट हुए। गांववालों की खुशी का ठिकाना न रहा।प्रकट होने पर “जपुजी” नामक पहला अमृत वचन कहा। कहने को यह कहानी बहुत छोटी है लेकिन बेहद मारक है। इस कहानी के मर्म में प्रवेश करने की जरुरत है। यह कहानी इसलिए नहीं बता रहे हैं कि हम नानक के जरिए चमत्कार चर्चा करना चाहते हैं,बल्कि हम तो इसमें निहित संदेश को जानना चाहते हैं। इसका पहला संदेश है कि जब तक तुम खो न जाओ,मिट न जाओ तुमको परमात्मा नहीं मिलता। तुम्हारा खो जाना ही उसको पाना है। नानक को खो जाने में तीन दिन लगे,तीन दिन बाद परमात्मा को पाया। अजीब संयोग है कि जब भी कोई आदमी मरता है तो उसके सूतक से मुक्त होने में तीन दिन लगते हैं।मृतक का तीसरा मनाते हैं। तीसरा इसलिए मनाते हैं क्योंकि मरने की घटना को घटित होने में तीन दिन लगते हैं। कहने का आशय यह कि जब तुम किसी के सामने मरते हो तो सामने वाला ही परमात्मा होता है। नानक की भी यही दशा थी। मनुष्य के परमात्मा में लोप की पहली सीढ़ी है अहंकार का लोप।यह मनुष्यत्व को पाने की पहली सीढ़ी है।

सिक्ख वह है जो गृहस्थ भी है और सन्यासी भी है। सिक्ख वह है जो सीखने वाला है। सिक्ख का मतलब है गृहस्थ और सन्यासी का एक साथ होना। गृहस्थ होकर सन्यासी होना बड़ा टेढ़ा मामला है।लोग गृहस्थी से भागकर सन्यासी होते हैं। लेकिन नानक ने गृहस्थी से भागकर संत पद नहीं पाया,वे गृहस्थ रहकर सन्यासी बने।यानी रहना घर में लेकिन ऐसे रहना जैसे सन्यासी हो।यानी रहना घर में लेकिन ऐसे रहना जैसे नहीं रहते हो। हिमालय पर रहते हो। नानक ने सन्यासी की यह परिभाषा निर्मित की इसने समूचे भक्ति आंदोलन के चरित्र को प्रभावित किया।हमारे अनेक संत कवि सपरिवार रहते थे और संत थे। नानक इस संसार से भागने के शिक्षा नहीं देते बल्कि इस संसार से प्रेम करने की शिक्षा देते हैं।

सोचे सोचि न होवई जे सोची लख बार।

चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिवतार।

भुखिया भुख न उतररी जे बंना पुरीआं भार।

सहस सियाणपा लख होहि, त इक न चले नालि।

किव सचियारा होइए, किव कूड़ै तुटै पालि।

हुकिम रजाई चलणा नानक लिखिआ नालि।

यह बड़ा कीमती, बहुमूल्य सूत्र है। यह नानक के नजरिए का सार है। भगवान सोचने से या चिन्तन से नहीं मिलता, चिन्तन करोगे तो भटक जाओगे। सवाल सोचने का नहीं है देखने का है। देखने के लिए निर्मल आँखें चाहिए। विचारों से भरी आँखों से देखोगे तो चीजें समझ में नहीं आएंगी।भगवान को सोचकर पाया नहीं जा सकता। भगवान के पक्ष में बनाए गए विचारों की यह सबसे गंभीर आलोचना है। हम बार-बार भगवान की सत्ता सिद्द करने के लिए विचारों की मदद लेते हैं जो कि गलत है। नानक की अकाट्य पद्धति थी जिसके जरिए वे विवेकवाद की ओर मुड़ते थे,एक नमूना देखें-

नानक एक मुसलमान नवाब के घर मेहमान थे। नानक को क्या हिंदू क्या मुसलमान! जो ज्ञानी है, उसके लिए

कोई सम्प्रदाय की सीमा नहीं। उस नवाब ने नानक को कहा कि अगर तुम सच ही कहते हो कि न कोई हिंदू न

कोई मुसलमान, तो आज शुक्रवार का दिन है, हमारे साथ नमाज पढ़ने चलो। नानक राजी हो गए। पर उन्होंने

कहा कि अगर तुम नमाज पढ़ोगे तो हम भी पढ़ेंगे। नवाब ने कहा, यह भी कोई शर्त की बात हुई? हम पढ़ने

ही जा रहे हैं। पूरा गांव इकट्ठा हो गया। मुसलमान-हिंदू सब इकट्ठे हो गए। हिंदुओं में तहलका मच गया। नानक के घर के लोग भी पहुंच गए कि यह क्या कर रहे हो? लोगों को लगा कि नानक मुसलमान होने जा रहे हैं। लोग अपने भय से ही दूसरे के भय को भी तौलते हैं।नानक मस्जिद गए। नमाज पढ़ी गई। नवाब बहुत नाराज हुआ। बीच-बीच में लौट-लौट कर देखता था कि नानक न तो झुके, न नमाज पढ़ी। बस खड़े रहे । लोगों ने जल्दी-जल्दी नमाज पूरी की, लेकिन क्रोध में कहीं नमाज पूरी हो सकती है । किसी तरह नमाज पूरी करके लोग नानक पर टूट पड़े।और उन्होंने कहा कि तुम धोखेबाज हो।कैसे साधु ,कैसे संत हो ! तुमने वचन दिया नमाज पढ़ने का लेकिन तुमने नमाज की नहीं।

नानक ने कहा, वचन दिया था, शर्त आप भूल गए। कहा था कि आप नमाज पढोगे तो मैं भी पढूँगा। आपने नहीं पढ़ी तो मैं कैसे पढ़ता ? नवाब ने कहा, क्या कह रहे हो? होश में तो हो ? इतने लोग गवाह हैं कि हम नमाज पढ़ रहे थे।नानक ने कहा इनकी गवाही मैं नहीं मानता,क्योंकि मैं आपको देख रहा था कि भीतर क्या चल रहा है।आप काबुल में घोड़े खरीद रहे थे। नवाब थोड़ा हैरान हुआ;क्योंकि खरीद वह घोड़े ही रहा था।उसका सबसे अच्छा घोड़ा मर गया था उसी दिन सुबह।वह उसी की पीड़ा से भरा था।नमाज क्या खाक पढ़ता !वह नमाज पढ़ते हुए मन में यही सोच रहा था कि जल्दी से काबुल जाऊँ और बढिया घोड़ा खरीदकर लाऊँ।क्योंकि वही घोड़ा उसी शान था,इज्जत था।और नाननक ने कहा कि यह जो मौलवी है तुम्हारा,जो नमाज पढ़वा रहा था,यह खेत में अपनी फसल काट रहा था। और यह बात सच थी।मौलवी ने भी कहा कि बात तो सच है।फसल पक गयी है और काटने का दिन आ गया है।गांव में मजदूर नहीं मिल रहे हैं और मन पर चिंता सवार है। तो नानक ने कहा ,अब तुम बोलो,तुमने नमाज पढ़ी जो मैं साथ दूँ ? इस कहानी का आशय एकदम साफ है। तुम जबर्दस्ती नमाज पढ लो,पूजा-उपासना कर लो, इस सबका कोई मूल्य नहीं है।पहले सोचो तुम्हारे मन में क्या चल रहा है ? पत्थर की तरह मूर्ति के सामने बैठ जाने से ईश्वर या मन सधेगा ?







संघ की राजनीति और फंड -


आरएसएस और उसके सहयोगी संगठन और उनसे जुड़े साइबर बटुक एक बात में अमेरिकी एजेण्डे पर चल रहे हैं,अमेरिकी एजेण्डा है धर्मनिरपेक्षता को नष्ट करो,धार्मिक फंडामेंटलिज्म को मजबूत करो। इस एजेण्डे को संघियों ने कई दशकों से सचेत रुप से अपनाया हुआ है,वे दिन-रात धर्मनिरपेक्षता को गरियाते रहते हैं,धर्मनिरपेक्ष लेखकों-बुद्धिजीवियों -नेताओं और दलों पर कीचड़ उछालते रहते हैं। इन लोगों ने धर्मनिरपेक्षता को मीडिया उन्माद के जरिए छद्म धर्मनिरपेक्षता करार दे दिया है। वे संविधान वर्णित धर्मनिरपेक्षता को भी नहीं मानते,उसे भी वे हटाने की मुहिम चला रहे हैं। इस काम के लिए वे कारपोरेट फंडिंग के जरिए काम कर रहे हैं।
आरएसएस अकेला ऐसा संगठन है जिसके फंडिंग के स्रोत का पता नहीं है।यह ऐसा संगठन है जो केन्द्र सरकार से लेकर अनेक राज्य सरकारों को नियंत्रित किए है लेकिन फंडिंग का स्रोत नहीं बताता। यही दशा अनेक फंडामेंटलिस्ट संगठनों की भी है वे भी अपनी फंडिंग को उजागर नहीं करते।आरएसएस यदि देशभक्त संगठन है तो अपने फंडिंग के सभी स्रोत उसे उजागर करने चाहिए, उसे बताना चाहिए कि उसके यहां कहां से और किन स्रोतों से पैसा आता है और उसके संगठन में उसका किस रुप में इस्तेमाल होता है। भारत में हर करदाता नागरिक सरकार को अपने आय-व्यय का हिसाब देता है लेकिन संघ नहीं देता। यदि किसी के पास आरएसएस के आय-व्यय की जानकारी है तो कृपया शेयर करें। मजेदार बात यह है कि कांग्रेस ने भी कभी आरएसएस से जानकारी उगलवाने की कोशिश नहीं की।

हाय आमिर! हाय आमिर !!

              

          कल रात से साइबर बटुक आमिरखान को साइबर जगत से गायब कर देने के जुगत में लगे हैं,कोई कह रहा है उसकी फिल्म मत देखो,कोई कह रहा है उसके गाने मत सुनो,कोई कह रहा है उसका विज्ञापन मत सुनो, कोई कह रहा है उसे यू -ट्यूब से निकालो,कोई कह रहा है उस अखबार का बहिष्कार करो जिसमें उसके बयान छप रहे हैं,कोई कह रहा है वह टीवी चैनल मत देखो जिसमें आमिर का बयान दिखाया जा रहा है,कोई कह रहा है, याहू को कहो कि आमिर खान की ईमेल सुविधाएं काट दी जाएं,कोई कह रहा है महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पर दवाब डालो की आमिर की सुरक्षा सुविधा हटा ली जाय।
    यह स्नैपडील वाला छोकरा उसकी हिम्मत तो देखो बटुकों की सुन ही नहीं रहा है तो बटुकमस्तान दवाब डाल रहे हैं कि स्नैपडील वाले के यहां कोई नौकरी न करे,कोई मोदीभक्त सामान न खरीदे,जगह-जगह आमिर के पुतले जलाओ,आमिर को औकात का ज्ञान कराओ,असभ्यसंघ ने बटुकों से कहा है कि बटुकगण अपनी साइबर क्षमता,शैक्षणिक योग्यता और सभ्यता का आमिर विरोधी गंदी-गंदी पोस्ट लिखकर परिचय दें
     असभ्यसंघ ने नए रामपत्र में आदेश दिया है कि जो साइबर बटुक कम से कम 1000पोस्ट आमिर के खिलाफ न लिखे उसे साइबर गैंग से निकालकर पोस्टकार्ड गैंग में ट्रांसफर कर दिया जाय, जो साइबर बटुक स्नैपडील एप को अपने मोबाइल में अनस्टाल न करे उसकी मोबाइल सेवाएं बेहालदशा के हवाले कर दी जाएं,स्नैपडील के सारे सामान के वितरण सिस्टम को अस्त-व्यस्त किया जाए ,डिलीबरी बॉय को राममार्ग का पथिक बनाया जाय।

    बटुकों से कहा गया है जो जितना ज्यादा आमिर के खिलाफ बोलेगा,असहिष्णुता-असहिष्णुता का नारा लगाने वालों के खिलाफ लिखेगा ,उसे उतने ही इनाम-इकराम और मोदी स्टीकर इफरात में मिलेंगे। कंपनियों से कहा जा रहा है कि अपने माल के विज्ञापन मॉडल उनको बनाएं जो दिन में कम से कम10हजार बार मोदी-मोदी कहे,रात में एक लाख बार मोदी सहस्रनाम का पाठ करे और सुबह उठते ही  नारा दे “कसम नमो की खाते हैं मंदिर वहीं बनाएंगे।” 

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