इन दिनों मीडिया वाले और भाजपावाले बहुत नाराज हैं कि केजरीवाल ने पीएम मोदी को "कॉवर्ड" और "साइकोपैथ" क्यों कहा,इसके लिए वह माफी मांगे,केजरीवाल माफी मांगे या न मांगे यह उनका निजी फैसला होगा,वे जो चाहें करें,लेकिन हमें इससे बड़े सवाल पर विचार करना चाहिए कि शब्दों के दुरूपयोग या भ्रष्टीकरण पर ये टीवीवाले या भाजपावाले पहले कभी इस कदर आक्रामक नजर क्यों नहीं आए ? क्या किसी शब्द का पहलीबार गलत इस्तेमाल हुआ है या पहलीबार किसी ने किसी को गाली दी है ?
जरा अपने सामने टीवी स्क्रीन को गौर से देखें तो पता चलेगा कि टीवीवाले और राजनेता शब्दों के सबसे बड़े कातिल हैं।ये बड़ी ही बेशर्मी के साथ रोज शब्दों को भ्रष्ट कर कर रहे हैं लेकिन हमें कभी गुस्सा नहीं आता,हम क्यों इतने अचेत हैं या नियंत्रित सचेत हैं कि अचानक कॉवर्ड और साइकोपैथ पर बिफरे घूम रहे हैं ?
हमें क्या यहां लिस्ट बताने की जरुरत है कि राजनेताओं और मीडिया,खासकर विज्ञापनों ने किस तरह शब्दों की हत्या की है,किन -किन शब्दों की हत्या की है,उनका अर्थ नष्ट किया है,विकृत किया है ।
जब शब्द मर रहे हों या उनका भ्रष्टीकरण हो रहा हो तो हमें गुस्सा क्यों नहीं आता ? हमें मोदी या किसी नेता के द्वारा प्रयुक्त होने या गाली या असभ्यभाषिक प्रयोग पर ही गुस्सा क्यों आता है ? क्या नेता को हमने शब्दों का मालिक बना दिया है ?क्या नेता शब्दों के प्रयोग,भ्रष्टीकरण आदि को तय करेंगे ? यदि ऐसा है तो यह बेहद खतरनाक स्थिति है।
किसी व्यक्ति की महानता इस बात से तय होती है कि उसने प्रचलित शब्दों को किस तरह सकारात्मक अर्थ दिए हैं,किस तरह नए सामाजिक समूहों से शब्दों और अवधारणाओं को जोड़ा है। कबीर-तुलसी से लेकर दादू तक, गांधी से लेकर आंबेडकर तक,राजा राममोहन राय से लेकर रवीन्द्रनाथ टैगोर तक,प्रेमचंद से लेकर भीष्म साहनी तक ,आरएसएस से लेकर मुस्लिम लीग तक,कांग्रेस से लेकर कम्युनिस्टों तक सभी की परीक्षा शब्दों को अर्थवान और अर्थहीन बनाने के परिप्रेक्ष्य में करें तो संभवतःहमें यह एहसास होगा कि शब्दों के अर्थ का भ्रष्टीकरण कितना बड़ा अपराध है,यह भ्रष्टीकरण हम रोज अपने आसपास देखते हैं,टीवी विज्ञापनों में देखते हैं,लेकिन हमें गुस्सा नहीं आता,उलटे हमें शब्दों के भ्रष्टीकरण में मजा आने लगा है।
आरएसएस जैसे संगठन का सबसे बड़ा अपराध यह है कि उसने धर्मनिरपेक्षता शब्द को नष्ट कर दिया है।उसने बहुत बड़ी कुर्बानियों से निर्मित धर्मनिरपेक्षता के अर्थ को विकृत करके समूचे देश में धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ घृणा भर दी,इस शब्द को अछूत बना दिया। किसी शब्द के अर्थ के विध्वंस का इतना बड़ा हादसा हमारी आँखों के सामने रोज होता रहा और हम चुप रहे,हमारा मीडिया चुप रहा,उलटे आरएसएस वालों को बढ़-चढ़कर धर्मनिरपेक्षता पर हमले करने का उसने मौका दिया,व्यापक कवरेज दिया,धर्मनिरपेक्षता क्या है उसका अर्थ क्या है उसके बारे में मीडिया ने कभी आरएसएस को गलत अर्थ में इसका प्रचार करने से नहीं रोका,हमसे पूछें तो शब्दों के कातिलों के प्रति हमें बेरहम होना चाहिए।खासकर उन नेताओं और संगठनों के प्रति बेरहम होना चाहिए जो शब्द के साथ जुड़े अर्थ को भ्रष्ट करते हैं,गलत अर्थ में उसका प्रचार करते हैं।आरएसएस ने शब्दों के लठैत की भूमिका अख्तियार कर ली है,वे बोलने पर हमला करने लगते हैं,इस तरहकी असहिष्णुता तो पहले कभी नहीं देखी।
आरएसएस वालों और भाजपाईयों को गालियों से यदि चिढ़ है तो उनको अपने साइबर लठैतों को सबसे पहले रोकना चाहिए जो आए-दिन असभ्यभाषा,गाली-गलौज की भाषा का फेसबुक पर इस्तेमाल करते हैं। यदि सर्वेे किया जाए तो पाएंगे कि साइबर जगत में गाली की गंगा के वे भगीरथ हैं ।
गालियां कोई भी दे,गलत है,राजनीति में सही नाम से प्रवृत्तियों और राजनीतिक केटेगरी में ही नेता या दल पर राय दी जानी चाहिए। लेकिन जिस समय भाषा का भ्रष्टीकरण हो रहा हो,लोकतंत्र पर हमले हो रहे हों,उस समय कईबार दुश्मन की नींदहराम करने के लिए गालियां निकलती हैं,असल में गालियां सोने नहीं देंतीं,वे गोली से भी ज्यादी पैनी होती हैं,सीधे हृदय तक मार करती हैं।बशर्ते सही समय पर दी जाय।हम भाजपा की मुश्किल समझ सकते हैं कि उनको जब कोई गाली देता है तो चुभती है,लेकिन वे जब किसी अन्य को गाली देते हैं तो परपीड़क आनंद लेते हैं। परपीड़क आनंद गाली का मूलभाव है ,जो भी दे ,वह आनंद की सृष्टि नहीं करती,पीड़ा देती है। गाली न दें तो बेहतर हो,लेकिन हमारे नेता अभी सभ्य नहीं बने हैं,वे असभ्य ही हैं अतःगाहे-बगाहे अपनी असभ्यता को वे गाली के जरिए व्यक्त करते हैं।जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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