रविवार, 13 दिसंबर 2015

हिन्दुत्व और मुसलिम विद्वेष

भारत के बौद्धिकों में कमाल की क्षमता है दंगों को लेकर जब भी बातें होती हैं तो झट से भागलपुर का नाम पहले लेते हैं दिल्ली का नहीं।ऐसा क्यों? सवाल यह है कि दंगाग्रस्त क्षेत्र किसे कहें ? क्या दंगे में मारे जाने वाले लोगों की संख्या के आधार दंगाग्रस्त क्षेत्र का फैसला होगा? यदि ऐसा है तो यह सही नहीं होगा।

यह संभव है कि किसी क्षेत्र में दंगा न हो लेकिन आम जनता में बड़े पैमाने पर हिन्दुत्ववादी सामाजिक ध्रुवीकरण हो।यह भी संभव है दंगा हो,लेकिन लोग मारे न जाएं,आगजनी हो,लूटपाट हो,हिंसा हो,लोग घायल हों,लेकिन मारे न जाएं,इस नजरिए से देखें तो भागलपुर से ज्यादा खतरनाक है दिल्ली।यह तथ्य समाजविज्ञानी आशुतोष वार्ष्ष्णेय ने रेखांकित किया है।उनका मानना है दंगों के बार-बार होने और सघन भाव से साम्प्रदायिक माहौल बनने को मिलाकर देखना चाहिए।

भगवा ब्रिगेड सब समय दंगा नहीं करता लेकिन सब समय अविवेक का माहौल बनाए रखने का काम जरुर करता है,वे बार-बार ऐसे मसले उठाते हैं जिनसे अविवेकवाद के विकास में मदद मिले।अविवेकवाद की आंधी वे निरंतर चलाते रहते हैं। यही वह परिवेश है जिसके कारण आम जनता की चेतना को कभी साम्प्रदायिक लक्ष्य के लिए इस्तेमाल करने में उनको सफलता मिल जाती है।

भारत का किसान आज भी धर्मनिरपेक्षता की धुरी है, धर्मनिरपेक्षता को सबसे गंभीर चुनौती उनसे मिल रही है जो शहरों में रहते हैं और मध्यवर्ग-निम्न-मध्यवर्ग से आते हैं।समाजविज्ञानी आशुतोष वार्ष्णेय ने सन् 1950 -95 तक के साम्प्रदायिक दंगों के चरित्र और स्थान का विश्लेषण करके बताया है कि भारत में उल्लेखनीय तौर पर कम दंगे हुए हैं।जबकि गांवों में भारत की दो-तिहाई आबादी रहती है।
सन् 1950-95 के बीचमें साम्प्रदायिक दंगों में मारे गए लोगों की कुलसंख्या में मात्र चार फीसदी से भी कम ग्रामीण मारे गए,जबकि बाकी 96फीसदी शहरी मारे गए।शहरों में यह कुछ शहरों तक केन्द्रित फिनोमिना है। मसलन्,देश के सिर्फ आठ शहरों-अहमदाबाद,बंबई, अलीगढ़, हैदराबाद,मेरठ,बड़ोदरा,कलकत्ता और दिल्ली में अधिकांश लोग दंगों में मारे गए।इन शहरों में कुल 49फीसदी से ज्यादा लोग मारे गए।जबकि इन शहरों में देश की आबादी का मात्र 18फीसदी जनसंख्या रहती है।यानी 82फीसदी आबादी के लिए दंगा समस्या ही नहीं है।
यानी फेसबुक पर साम्प्रदायिकता का जो फ्लो है उसमें इन शहरों से आने वाले युवाओं की संख्या बहुत बड़ी है। फेसबुक पर जय हिन्दुत्व का सबसे बड़ा फ्लो भी यहीं से आ रहा है।यही वे लोग हैं जो मुसलमानों के खिलाफ आए दिन गंदी और घटिया टिप्पणियां करते रहते हैं।


मुस्लिम विद्वेष के कई रुप प्रचलन में हैं इनमें वाचिक साम्प्रदायिक विद्वेष बेहद खतरनाक है। इसके कारण अंततःसाम्प्रदायिक हिंसा का वातावरण बनता है। साम्प्रदायिक हिंसा यकायक पैदा नहीं होती,बल्कि वह निरंतर चल रहे मुसलमान विरोधी,इस्लाम विरोधी प्रचार अभियान की देन है।लंबे समय तक साम्प्रदायिक हिंसा,मुसलिम विद्वेष आदि शहरी फिनोमिना बना रहा लेकिन राममंदिर आंदोलन के उदय और विकास के बाद साम्प्रदायिकता का ग्रामीण जनता में भी तेजी से प्रसार हुआ। तब से साम्प्रदायिकता,मुसलिम विद्वेष और इस्लाम धर्म के खिलाफ विषवमन शहरों और गांवों में तेजी से फैला है,इसको तेजगति प्रदान करने में हिन्दुत्ववादी संगठनों के अलावा संचार तंत्र ने बहुत बड़ी भूमिका निभायी है।मुसलिम विद्वेष वहां तेजी से फैला है जहां पर हिन्दुत्ववादी संगठनों ने काम शुरु किया है। जहां पर ये संगठन कमजोर हैं वहां पर मुसलिम विद्वेष नजर ही नहीं आता। इसलिए मुसलिम विद्वेष से बचने का सबसे सही उपाय तो यही है हिन्दुत्ववादी संगठनों को जनाधार ही तैयार न करने दिया जाय। ये संगठन जब एकबार आधार तैयार कर लेते हैं तो फिर इनको उखाड़ना आसान नहीं होता,ये अपने विषाक्त प्रचार अभियान के जरिए अपना सांगठनिक विस्तार करते रहते हैं। उल्लेखनीय है हिन्दुत्ववादी संगठनों ने जहां पर भी अपना सांगठनिक विस्तार किया है वहां पर भ्रष्टाचार को नई बुलंदियों तक पहुंचाया है,वहीं दूसरी ओर साम्प्रदायिक सद्भाव को नष्ट किया है।Top of Form


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देश में हिन्दू संस्कृति और मुस्लिम संस्कृति के नाम पर बहुत सारा सांस्कृतिक कचरा फेंका जा रहा है।हिन्दीभाषी क्षेत्र में इस तरह के विभाजन को न मानने वाले कवियों -लेखकों की विशाल परंपरा है।दिलचस्प बात यह है कि जो मुगल शासक भारत में बाहर से आए वे इस्लाम,फारसीपन आदि के उतने दीवाने नहीं थे जितने वे भारत की परंपराओं और भाषाओं के दीवाने थे।संस्कृति में हिन्दू-मुसलिम संस्कृति की विभाजनरेखा अंग्रेज शासकों ने खींची,उनकी खींची रेखा का आज भी साम्प्रदायिक संगठन इस्तेमाल कर रहे हैं।
सच यह है कि अधिकांश शासक तुर्कभाषी थे न कि फारसीभाषी।स्वयं बाबर ने अपनी आत्मकथा तुर्की में लिखी थी।गाँवों में मुसलमानों के लिए तुरक शब्द का प्रचलन था।दिल्ली के राजसिंहासन पर पश्तोभाषी जरुर बैठे,लेकिन जिनकी मातृभाषा फारसी थी उनको यह सौभाग्य कभी प्राप्त नहीं हुआ। फारसी का भारतीय साहित्य और भाषाओं पर असर मुगल साम्राज्य के पतनकाल में पड़ना शुरु हुआ और बाद में अंग्रेजों ने इसका इस्तेमाल किया।यहू वह दौर था जिसमें संस्कृत को देववाणी कहकर प्रतिष्ठित करने की कोशिश हुई,जिसका तुलसीदास ने विरोध किया और लिखा ," का भाषा का संस्कृत,प्रेम चाहिए साँच।काम जो आवै कामरी,का लै करे कमाच।।" मुसलमानों के खिलाफ हिन्दुत्ववादियों के द्वारा जिस तरह का घृणा अभियान चलाया जा रहा है उसकी जितनी निंदा की जाय,कम है,वे मुसलमानों को सामाजिक जहर के रुप में प्रचारित-प्रसारित कर रहे हैं। हमारे अनेक युवाओं में इस जहरीले प्रचार का सीधे असर हो रहा है, युवाओं को भारत की सांस्कृतिक परंपराओं और मुसलमान लेखकों के योगदान के बारे में कोई जानकारी नहीं है,और इसी अज्ञान का हिन्दुत्ववादी लाभ उठा रहे हैं।
मुझे सिंधी भाषा के समर्थ कवि अब्दुल बहाव उर्फ़ सचल सरमस्त याद आरहे हैं,ये धार्मिक संकीर्णता के कट्टर शत्रु थे और इनको पूरी कुरान कंठस्थ थी। उन्होंने लिखा- "मज़हब नि मुल्क में माण हूं मूँझाया। शेख़ी बुजुर्गी बेहद भुलाया।।"
इसी तरह बंगला में संस्कृत के विद्वान् थे दौलत काज़ी।उनके काव्य में कालिदास की उपमाओं के अनेक प्रयोग मिलते हैं।जयदेव के असर में लिखी कविता में चंद पंक्तियां बानगी के रुप में देखें- "श्यामल अंबर श्यामल खेती।श्यामल दश दिशा दिवसक जोती।।"
मलिक मोहम्मद जायसी ने मुहर्रम के दिनों में ईरान की शहजादी,हजरत इमाम हुसेन की पत्नी बानो पर जो कविता लिखी उसकी चंद पंक्तियां देखें-
" मैं तो दूधन धार नहाय रही,मैं तो पूतन भाग सुहाय रही।
मैं तो लाख सिंगार बनाय रही,मेरा साईं सिंगार बिगार गयो।
मोरे साह के तन पर घाव लगो,मोरा अकबर रन मां जूझ गयो।
कोऊ साह नज़फ़ से जाए कहो,तुम्हरे पूत का बैरी मार गयो।। "

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